26 क्रिस्टोफर कॉडवेल की साहित्य दृष्टि

प्रियम अंकित

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप;

  • कॉडवेल की साहित्य दृष्टि की विशेषताओं और प्रमुख शिक्षाओं की जानकारी हासिल करेंगे।
  • आलोचना के क्षेत्र में कॉडवेल की साहित्य दृष्टि का क्या असर रहा और आने वाले समय की आलोचना को इस दृष्टि ने कैसे प्रभावित किया यह जानेगे।
  • कॉडवेल की कला-दृष्टि और ऐतिहासिक भौतिकवाद में क्या सम्बन्ध है इसकी जानकारी भी हासिल करेंगे।
  • कॉडवेल के साहित्य दर्शन में मानवीय स्वतन्त्रता का क्या स्थान है? समझ पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

    क्रिस्टोफर कॉडवेल का पूरा नाम क्रिस्टोफर सेंट जॉन स्प्रिंग था। उनका जन्म रोमन कैथोलिक परिवार में सन 1907 में ब्रिटेन में हुआ था। उनके पिता डेली एक्सप्रेस नामक पत्र के साहित्यिक सम्पादक थे। कॉडवेल की शिक्षा-दीक्षा बेनेडक्टाईन ईलिंग प्रायरी स्कूल में हुई। पिता की डेली एक्स्प्रेस पत्र की नौकरी छूट जाने के बाद कॉडवेल को अपनी पढ़ाई 15 वर्ष की आयु में ही छोड़नी पड़ी। वे अपने पिता के साथ ब्रैडफोर्ट आ गए और यॉर्कशायर ऑब्ज़र्वर नामक पत्र के रिपोर्टर हो गए। धीरे-धीरे उनकी आस्था मार्क्सवाद में बढ़ती गयी। वे कविता और दर्शन से लेकर भौतिकी तक को उसके आलोक में समझने का प्रयास करने लगे। शीघ्र ही वे ग्रेट ब्रिटेन की कम्यूनिस्ट पार्टी (सी.पी.जी.बी.) के सक्रिय सदस्य बन गए। 1936 में वे एम्बुलेंस चलाकर स्पेन गए और वहाँ पर फासीवाद के विरूद्ध लड़ने वाली इण्टरनेशनल ब्रिगेड में मशीनगन चलाने का प्रशिक्षण लिया और बाद में इसी ब्रिगेड में मशीनगन प्रशिक्षक और ग्रुप पॉलिटिकल डेलीगेट के रूप में काम किया। उन्होंने वाल न्यूज़पेपर भी निकाला। कॉडवेल की मृत्यु 1937 में फासिस्टों के विरूद्ध लड़ते हुए स्पेन में जरामा वेली की लड़ाई के पहले दिन हुई थी।

 

कॉडवेल बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने कविता, आलोचना, उपन्यास आदि विधाओं में अपनी रचनात्मकता को अभिव्यक्त किया। कॉडवेल की प्रमुख आलोचना-कृतियाँ हैं – इल्यूज़न एण्ड रियलिटी (विभ्रम और यथार्थ), स्टडीज़ इन ए डाईंग कल्चर, द क्राईसिस इन फिजिक्स, फरदर स्टडीज़ इन ए डाईंग कल्चर, रोमांस एण्ड रियलिज़्म और सींस एण्ड एक्शंस

  1. कॉडवेल की कला-दृष्टि और ऐतिहासिक भौतिकवाद

    कॉडवेल का मानना है कि कविता के स्रोतों के अध्ययन को समाज के अध्ययन से अलग नहीं किया जा सकता। इसका कारण यह है कि कविता भाषा में लिखी जाती है और भाषा एक सामाजिक उत्पाद है। यानी साहित्य का भाषा से और भाषा का समाज से गहरा सम्बन्ध होता है। इसलिए किसी रचना की आलोचना करते समय उसके सामाजिक सन्दर्भों को भी ध्यान में रखना जरूरी होता है। इस प्रकार वे साहित्यालोचना के क्षेत्र में प्रचलित इस धारणा का भी विरोध करते हैं कि साहित्य को साहित्य के सन्दर्भों में ही पूरी तरह समझना चाहिए,साहित्य के स्त्रोतों को समझना आवश्यक नहीं।

 

इस अर्थ में उन्होंने यान्त्रिक भौतिकवाद की आलोचना की। कॉडवेल मार्क्स की इस स्थापना से अपना मत व्यक्त करते हैं कि कविता का आधार समाज के आधार से सम्बद्ध रहता है अतः कविता भी समाज के ऊपरी ढांचे का हिस्सा है वह इस आर्थिक आधार का निष्क्रिय प्रतिबिम्ब मात्र नहीं है कविता सचेत रूप से उस आधार की निर्विती है इसी तरह कॉडवेल ने आदर्शवादी साहित्यिक मान्यताओं का भी खण्डन किया। मनुष्य और प्रकृति के बीच जो सम्बन्ध है उस सम्बन्ध की जटिलता का चित्रण कविता में होता है।

 

कॉडवेल के अनुसार यान्त्रिक भौतिकवाद और आदर्शवाद केवल दर्शनशास्‍त्र तक ही सीमित नहीं हैं। इनका प्रसार विज्ञान, सौन्दर्यशास्‍त्र, साहित्य, इतिहास आदि में भी है। जब कविता को यान्त्रिक भौतिकवादी दृष्टि से परखा जाता है तो उसका परिणाम यह होता है कि व्यवहारवादी और सौन्दर्यवादी आस्वादों के आधार पर उसकी व्याख्या होती है। परन्तु जब कविता का अध्ययन आदर्शवादी दृष्टि से होता है तो ‘सत्यम, शिवम, सुन्दरम’ के आधार पर उसमे विभिन्‍न निष्पत्तियों को खोजना अधिक सुविधाजनक होता है।

 

कॉडवेल के अनुसार विशुद्ध सौन्दर्यशास्‍त्रीय आधारों पर कविता का जो अध्ययन होता है, उनमें यह खतरा अधिक होता है। ऐसे चिन्तक कलाकृति को विलग निकाय के रूप में देखते हैं, एक ऐसे कला-सिद्धान्त का निर्माण करते जिसमें कलाकृति का परीक्षण अपने रचनाकार या सामाजिक स्रोतों से काटकर किया जाता है। इसमें कला का अध्ययन महज़ उसकी तकनीकों या शिल्प के आधार पर किया जाता है। ऐसे आलोचक यह मानते हैं कि जब कला का अध्ययन उसकी तकनीकों, उसके शिल्प, उपकरण और उसके अमूर्त विधानों के स्वतन्त्र समुच्‍चय के रूप में किया जाता है, तो ऐसा सिद्धान्त अस्तित्व में आता है, जो कला को उसके अपने शुद्ध आधारों पर व्याख्यायित करता है। यह ‘रूपवादी’ सिद्धान्त है, जो अन्त में धारणाओं, विचारों, व्यवस्थाओं, नियमों द्वारा संचालित विषयनिष्ठ यथार्थ तक ही सीमित रह जाता है। कला के आदर्शवादी अध्येता भावक अथवा कलाकार की मानसिक ‘भावना’ की अभिव्यक्ति के रूप में कलाकृति को विषयीनिष्ठ सत्ता मानते हैं, और कला-सिद्धान्त का निर्माण पूर्णतया इन्हीं आधारों पर करते हैं। इन अध्येताओं का मानना है कि यही सौन्दर्ययुक्त भावना ही अन्तिम होती है। कॉडवेल मानते हैं कि ये सारे सिद्धान्त अन्तत: ‘कला कला के लिए’ के नारे को बुलन्द करते हैं, जो कला के सामाजिक स्रोतों का बहिष्कार करता है। कॉडवेल के समय में सौन्दर्यशास्‍त्र से संबंधित जो भी ग्रंथ ब्रिटेन में मौजूद थे, वे इन्हीं एकांगी दृष्टियों से ग्रसित थे। ब्रिटिश आलोचकों के बारे में कॉडवेल का कहना है कि वे कविता के अध्ययन में सौन्दर्य की विशुद्ध कोटियों पर किसी भी सीमा के आरोपण को बर्दाश्त नहीं करते हैं। ऐसे आलोचक यह भी मानते हैं कि कला के असली पुजारी वे कलाकार और सहृदय हैं जो सौन्दर्य के विशुद्ध प्रांत के निवासी हैं। ऐसे विशुद्ध प्रांत में ही कला सुरक्षित है। कलावादी कला द्वारा प्राप्‍त आनन्द को संकीर्ण दायरों तक सीमित रखते हैं। कॉडवेल ने इन मान्यताओं का खण्डन किया।

 

कॉडवेल ज़ोर देकर कहते हैं कि जो आलोचक कला के आनन्द के इस संकीर्ण दायरे का अतिक्रमण करना चाहते हैं, सही अर्थों में कलाकृति की आलोचना करना चाह्ते हैं, तो उन्हें विशुद्ध कला के संकीर्ण दायरे से बाहर आना होगा और कला को उसके ‘बाह्य’ के सम्बन्ध से भी परखना होगा। मगर कला का यह ‘बाह्य’ है क्या? जिस प्रकार मोती सीपी का उत्पाद होता है, उसी तरह कला समाज का उत्पाद होती है। अत: कला के ‘बाह्य’ को समझने के लिए हमें समाज के ‘अन्तस’ को समझना होगा। कला की आलोचना और उसके विशुद्ध आनन्द या शुद्ध रचना में अन्तर यह होता है कि आलोचना कला के समाजशास्‍त्रीय घटकों को किसी भी कीमत पर नजरअन्दाज नहीं कर सकती। कला-आलोचना में मूल्यों का विस्तार और संयोजन एक विश्‍वदृष्टि के तहत होता है, जो कला के ‘बाह्य’ से बंधी होती है और इसी ‘बाह्य’ के आधार पर कला की व्याख्या करती है। यह एक सक्रिय दृष्टि होती है, जो कला पर ठंडे किस्म का चिन्तन-मनन करने के बजाए उसके जीवन्त, विस्फोटक और ऊर्जावान सन्दर्भों की खोज करती है। ऐसा करते हुए भी सबसे पहले कला की आलोचना होती है, समाज या मानव-मस्तिष्क की नहीं। कॉडवेल बिल्कुल आरंभ से ही कला की ‘विशुद्ध’ कोटियों को खारिज करते हैं।

 

कॉडवेल इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भौतिकी, मानवविज्ञान, जीव-विज्ञान, दर्शन, इतिहास और मनोविज्ञान भी समाज के उत्पाद हैं। अत: पुष्ट समाजशास्‍त्रीय दृष्टि कला-आलोचना में इन सभी अनुशासनों की शिक्षाओं का इस्तेमाल करती है। इस तरह कला-आलोचना में अन्तरानुशासनात्मक अध्ययन सम्भव हो पाता है। कॉडवेल कहते हैं कि ऐसी पुष्ट समाजशास्‍त्रीय दृष्टि का एकमात्र स्रोत है- ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’।

  1. कॉडवेल के साहित्य-दर्शन में मानवीय स्वतन्त्रता का स्थान

   कॉडवेल का समूचा लेखन इस बात को समझने और समझाने का जीवन्त प्रयास है कि मनुष्य की समस्त गतिविधियों का केन्द्रीय तत्व ‘स्वतन्त्रता’ है। इसके लिए कॉडवेल ने अपनी पुस्तक स्टडीज़ इन अ डाईंग कल्चर में बर्नार्ड शॉ, टी.ई. लॉरेंस, डी.एच. लॉरेंस, एच. जी. वेल्स और सिगमंड फ्रायड जैसे समकालीन लेखकों पर, शांतिवाद पर, प्रेम पर और स्वयं स्वतन्त्रता पर विस्तार से लिखा है। इन सारे विषयों का विवेचन कॉडवेल ने मानव-स्वतन्त्रता की अवधारणा को केन्द्र में रखकर किया है। इसके लिए कॉडवेल ने विस्तृत उदाहरणों का इस्तेमाल करते हुए अपने दौर के प्रतिष्ठित लेखकों का अध्ययन इस तरह किया है कि यह कृति रोचक और ठोस तथ्यों पर आधारित बन गयी है। कॉडवेल यह स्पष्ट करते हैं कि समकालीन संस्कृति पतनशील है। बीसवीं सदी में विज्ञान की व्यापक पैमाने पर तरक्‍की के बावजूद हर किसी को यह प्रतीत होता कि संस्कृति का समूचा ढाँचा, विज्ञान, कला, धर्म और दर्शन जिसका महत्वपूर्ण अंग हैं, सड़ रहा है। फिर भी जो रोग उसे सड़ा रहा है, उसका पता चल पाना मुश्किल हो रहा है। यानि रोग के लक्षण तो दिख रहे हैं मगर रोग का पता नहीं चल रहा है। ऐसा क्यों है? कॉडवेल लिखते हैं – ‘या तो शैतान अपनी समस्त भयानक शक्तियों के साथ हमारे बीच आ गया है, या हमारे दौर के अर्थशास्‍त्र, कला और विज्ञान मे व्याप्‍त रूग्णता की ठोस वजह है, जिसका विवेचन कारणता के सिद्धान्त द्वारा किया जा सकता है। हमारी आधुनिक संस्कृति में व्याप्‍त इतने स्पष्ट संक्रमण के स्रोतों को क्यों नहीं मनोविश्‍लेषणवादियों, कींसों, एडिंगटनों, स्पेंगलरों और बिशपों द्वारा इतना व्यापक सर्वेक्षण करने के बाद भी पकड़ा नहीं जा सका है? इसका उत्तर देने के लिए इन सभी को हर्ज़ेन के इन शब्दों को अपने ऊपर लागू करना पड़ेगा- ‘हम चिकित्सक नहीं है, बल्कि स्वयं वह रोग हैं जिसका निदान होना है’। कॉडवेल कहते हैं कि हमारे दौर के मनुष्यों नें, वे मनुष्य जिन्होंने हमारे समय की मानसिक जलवायु का निर्धारण किया है, मानव स्वतन्त्रता के स्वरूप को समझने में भारी गलती की है। चूंकि स्वतन्त्रता का लक्ष्य सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए सार्वत्रिक होता है, अत: उसके स्वभाव को समझने मे चूक होने पर शुरू से ही हमारे सभी रचनात्मक प्रयास बेअसर हो जाते हैं। कम से कम शब्दों में कहें तो सामयिक संस्कृति के नेतृत्वकारी मनुष्य अभी भी रूसो के इस भ्रान्त कथन में गहरी आस्था रखते हैं कि मनुष्य पैदा तो स्वतन्त्र होता है मगर अपने को सामाजिक-बन्धनों की बेड़ियों में जकड़ लेता है। यानि मुक्त मनुष्य वह जो अपने को सबसे ज़्यादा अलग-थलग रखता है, कि हमको ‘प्राकृतिक मनुष्य’ की स्वतन्त्रता को पुनर्प्राप्‍त करने के लिए समाज से अपने सारे रिश्तों को तोड़ना पड़ेगा। पूरे समाज को छिन्‍न-भिन्‍न करना पड़ेगा जिससे प्राक-सामाजिक अवस्था में वापस लौटा जा सके।

 

कॉडवेल का कहना है, और वह बार-बार इस बात को दोहराते हैं कि यही अवधारणा वह भ्रान्ति है जिसके चलते हमारी आधुनिक सभ्यता अस्त-व्यस्त हो चुकी है। स्वतन्त्रता की यह नकारात्मक अवधारणा तब और अधिक सच्‍ची प्रतीत होती है जब आज हमारे सामने सामन्ती बन्धनों को काट फेंकने की, सामाजिक बन्धनों के घिसी-पिटी रिवाज़ों को उखाड़ फेंकने की सबसे ज़्यादा जरूरत है। तो तात्कालिक रूप से यह आज स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने वाले लोगों का प्रमुख कार्य है। मगर आज यह पुराना सत्य मृत हो चुका है, और उसकी सड़ती लाश ने ही भूलों और चूकों के संक्रमण से आधुनिक संस्कृति को ग्रस्त कर रखा है। आज यह बिल्कुल नहीं माना जाना चाहिए कि मुक्ति असम्भव है, अब वह मानवीय गतिविधियों का सर्वोच्‍च लक्ष्य नहीं रह गया है।

 

कॉडवेल लिखते हैं कि बर्ट्रेंड रसेल के अनेक निबन्ध ऐसे हैं जिनमें वह स्वतन्त्रता के महत्व का प्रतिपादन करते हैं, बताते हैं कि किस तरह से स्वतन्त्रता का आनन्दमय आस्वाद मनुष्य का सर्वोच्‍च और सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य है।

 

विचारकों का मत है कि पिछली दो-तीन शताब्दियों का यूरोपीय इतिहास साधारणतया स्वतन्त्रता के पक्ष में होने वाले संघर्षों का इतिहास है। अलग-अलग प्रकार से और लगातार कलाकारों, वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने बिना किसी भेदभाव के स्वतन्त्रता के मूल्य की प्रशंसा की है और उसका आनन्द लेने के लिए मनुष्य के अधिकार के पक्ष में तर्क दिए हैं। यहाँ तक कॉडवेल इनसे सहमत होते हैं। एक मूल्य के रूप में स्वतन्त्रता उन्हे सर्वाधिक प्रिय है, और न्याय, सौन्दर्य एवं सत्य जैसे मूल्यों की प्राप्ति के लिए उसकी आवश्यकता पर वह बल देते हैं।

 

लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्‍त करने का आज का तरीका आज उन सारे तरीकों से ठीक उलट है जिन्हें ये सामन्तवाद-विरोधी मुक्तिदाता आवश्यक मानते हैं। यह उन सामन्ती बन्धनों के सचेत और स्पष्ट निराकरण का सरलीकृत समाधान नहीं है जिनके द्वारा कोई मनुष्य या मनुष्यों का कोई वर्ग दूसरे मनुष्यों और वर्गों पर प्रभुत्व स्थापित करता है। इसके विपरीत बीसवीं शताब्दी के मुक्ति-योद्धा के लिए स्वतन्त्रता प्राप्ति का यह कार्य बहुत अधिक जटिल हो गया है।

 

कॉडवेल ने यहाँ मार्क्सवाद के तर्क दिए और कहा कि सभी संस्कृति कर्मियों को उन सामाजिक सम्बन्धों और मान्यताओं को खोजना चाहिए, जिनमें मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को उचित ठहराया गया है। जब समान्तवाद खत्म हुआ तभी पूँजीवादी शोषण को भी खत्म कर देना चाहिए था। परन्तु ऐसा हुआ नहीं। कॉडवेल के अनुसार हम परतन्त्रता का जिम्मेदार समाज को मानने लगे और स्वतन्त्रता की रूसो की अवधारणा से प्रभावित होने के चलते जंगल का पशु बीसवीं सदी के उदारवादियों को सर्वाधिक स्वतन्त्र मालूम होने लगा। वे यह देखने में असफल रहे कि जब उन्होंने सामन्तवादी ढाँचे पर आधारित संरचना के ताने-बाने को नष्ट किया, तभी उन्हें सामाजिक सहभागिता के उस मानवीय ताने-बाने का निर्माण करना चाहिए था जो पुरानी व्यवस्था का स्थान ले सके। उन्होंने अपने इस रचनात्मक दायित्व को नजरअन्दाज कर दिया। मगर इसका यह मतलब नहीं है कि सामन्तवाद के बाद नए सामाजिक सम्बन्ध बने ही नहीं। ये जो नए सामाजिक सम्बन्ध बने, वे पूँजीवाद के सामाजिक सम्बन्ध थे, बाजार की अर्थव्यवस्था के सामाजिक सम्बन्ध थे।

 

टी.ई. लॉरेंस पर लिखे गए अपने निबन्ध में कॉडवेल यह प्रश्‍न पूछते हैं कि नायक क्या है? प्रथम विश्‍वयुद्ध के विस्फोटक दौर में विश्‍व के उस हिस्से में जहाँ पूँजीवादी व्यवस्था क़ायम है, वहाँ कोई नायक क्यों नहीं पैदा हुआ? लेनिन जैसा नेता, जिसने लोगों को मुक्ति के लिए नयी राह सुझाई और हमारे दौर को शोषण के दोगलेपन से बाहर निकाला क्यों अलग से पहचाना जाता है? ब्रिटेन के शासक वर्ग ने टी.ई.लॉरेंस को नायक के रूप में पेश किया, मगर असल में वह नायक नहीं बल्कि नायक का असफल प्रतिरूप था। कॉडवेल टी. ई. लारेंस की सूझबूझ से युक्त और सहानुभूति से भरा चित्रण करते हैं, उसके पूर्णतया मौलिक किंतु निराशाजनक कृत्यों का तार्किक मूल्यांकन करते हैं।

 

कॉडवेल बीसवीं सदी की पतनशील संस्कृति की वाहक साहित्यिक कृतियों और उनके लेखकों का बेबाकी से मूल्यांकन करते हैं और मानवीय स्वतन्त्रता की राह में रोड़ा बने संस्कारों की जम कर मुखालफत करते हैं। निस्संदेह कॉडवेल की साहित्य दृष्टि नें मार्क्सवादी आलोचना के विकास में अमूल्य योगदान दिया है। लूकाच से लेकर रेमण्ड विलियम्स और टेरी ईगलटन तक की आलोचना में कॉडवेल की आलोचना-दृष्टि का प्रभाव दिखता है।

  1. निष्कर्ष

    कॉडवेल के साहित्य पर विचार करते समय हमें उनके जीवन सम्बन्धी कुछ तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए। सबसे पहला तो यह कि कॉडवेल ने विधिवत विश्‍वविद्यालय की शिक्षा ग्रहण नहीं की थी। उन्होंने जो भी ज्ञान प्राप्‍त किया,वह स्वाध्याय से किया। इसलिए उनके लेखन में कहीं-कहीं अनगढ़ता देखने को मिलती है। कॉडवेल के आलोचकों ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि औपचारिक शिक्षा ग्रहण न करने के कारण उनके लेखन में आवश्यक सुसंगति नहीं है। स्वाध्याय के कारण बहुत-सी ऐसी बातों की तरफ आपका ध्यान नहीं जा पाता,जिन्हें सामान्य ज्ञान के रूप में विश्‍वविद्यालय में पढ़ने वालों को सहज ही प्राप्‍त हो जाता है। इसके कारण कई बार उनके लेखन के बीच-बीच में शून्यता आ जाती है। इसलिये उनमें बच्‍चों जैसा उत्साह और साहस दिखाई देता है, परन्तु उनका सारा ज्ञान बिखरा हुआ है।

 

दूसरी बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि 29 वर्ष की अवस्था में उनकी मृत्यु हो गई। उनका सारा लेखन 26-27 वर्ष की अवस्था से 29 वर्ष की अवस्था तक हुआ। लगभग दो-तीन वर्षों में लगातार लेखन और पठन-पाठन के कारण उनमें वह गंभीरता नहीं है। उन्हें अपनी पुस्तकों को संशोधित-सम्पादित करने का अवसर प्राप्‍त नहीं हुआ। उनका अधिकांश लेखन उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ। यदि उन्हें भी लूकाच की तरह लम्बा जीवन मिला होता तो उनका लेखन अधिक व्यवस्थित और समग्र हुआ होता और तब कॉडवेल की उतनी आलोचना न हुई होती, जो उनकी मृत्यु के कई वर्षों बाद हुई।

 

कॉडवेल का महत्त्व इस कारण भी है कि उन्होंने अपनी मान्यताओं के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया। 12 फरवरी, 1937 को स्पेन में जरामा की घाटी की लड़ाई में अंतर्राष्ट्रीय सैनिक दस्ते के सदस्य के रूप में वे मारे गए। इस कारण परवर्ती आलोचकों ने कॉडवेल को आदर से याद किया तथा उनके लेखन की कमियों को नजरअंदाज किया।

 

कॉडवेल के चिंतन और लेखन पर परवर्ती काल में लम्बी बहसें हुई। 1938 में प्रसिद्ध पत्रिका स्कूटनी  में एच.ए.मेसन ने कॉडवेल की कड़ी आलोचना की और उनकी पुस्तक को अपठनीय करार दिया। उन्होंने कई आरोप मार्क्सवाद पर लगाए। उनके अनुसार यह सिद्धांत सिद्धांत के रूप में सही हो सकता है, परन्तु वास्तविक दुनिया में यह चल नहीं पाता।

 

इसके बाद में 1950-51 में मॉडर्न क्‍वाटर्ली पत्रिका में प्रसिद्ध कॉडवेल विवाद प्रकाशित हुआ इसमें अनेक मार्क्सवादी आलोचकों ने हिस्सा लिया। कॉडवेल के मूल्यांकन को लेकर इनके दो दल बन गये। सबसे पहले मारिस कोर्नफोर्थ  ने कॉडवेल की मार्क्सवादी समझ पर प्रश्‍न उठाया। उनकी प्रमुख स्थापना है कि कॉडवेल के चिंतन पर मार्क्सवाद के स्थान पर युंग के मनोविश्‍लेषणवाद का प्रभाव है। विद्वानों ने कहा है कि कॉडवेल मार्क्सवादी चमड़े में फ्रायडवादी भेड़ है। कॉडवेल एक आदर्शवादी चिन्तक हैं। इसके पश्‍चात जार्ज थामसन ने कार्नफोर्थ के तर्कों का खंडन किया और कॉडवेल के पक्ष में तर्क दिया। इसके बाद मारगोट हैनीमान ने कार्नफोर्थ का पक्ष लिया तथा थामसन का विरोध किया। यह लम्बा विवाद चला,जिसमें जे.डी.बरनाल, जी.एम. मेथ्युज, मान्तेगु स्लेटर, रोजर शालर, एलिक वेस्ट, रोबर्ट कुरी आदि चर्चित आलोचकों ने हिस्सा लिया इसके बाद परवर्ती आलोचकों रेमण्ड विलियम्स और टेरी एगल्टन ने भी कॉडवेल के साहित्य की समीक्षा की।इन बहसों से कॉडवेल की लोकप्रियता और गम्भीरता का एहसास होता है।

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अतिरिक्त जानें

बीज शब्द

  1. भौतिकवाद :  एक दर्शन जिसके अनुसार पदार्थ से चेतना उत्पन्न होती है। भौतिकवाद मानता है कि मूल रूप से सभी चीजें पदार्थों से बनी हैं और सभी घटनाएँ पदार्थों के परस्पर संक्रिया के रूप में व्यक्त की जा सकती हैं और समझी जा सकती हैं।
  2. रूपवाद : कला या रचना के रूप पर जोर देनेवाली विचारधारा।

    पुस्तकें

  1. मार्क्सवादी साहित्य-चिन्तन : इतिहास तथा सिद्धान्त, शिवकुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  2. आलोचना और विचारधारा, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
  3. साहित्य समीक्षा और मार्क्सवाद, सम्पादक कुँवर पाल सिंह, पीपुल्स लिटरेसी, दिल्ली।
  4. मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की भूमिका, रोहिताश्व, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  5. Studies In A Dying Culture, Christopher Caudwell,Posthumously By Bodley Head
  6. Further Studies In A Dying Culture, Christopher Caudwell,Posthumously
  7. Illusion And Reality, Christopher Caudwell, International Publisher,New York
  8. Marxism and Literature, Remond Williams, Oxford University Press, Oxford, England.
  9. Marxism and Literary Criticism, Terry Eagleton, University of California, London, Berkley, Methuen.
  10. Marxism and form : twentieth century dialectical theories of literature, Fredric Jameson, Princeton University Press, Princeton.

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