25 जॉर्ज लुकाच की साहित्य दृष्टि

प्रियम अंकित

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ का उद्देश्य पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप

  • जॉर्ज लुकाच की साहित्य सम्बन्धी अवधारणाओं से परिचय कराना है।
  • आलोचना के क्षेत्र में उनकी साहित्य दृष्टि का क्या असर रहा है समझ पाएँगे|
  • आने वाले समय की आलोचना को इस दृष्टि ने कैसे प्रभावित किया यह जान पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

   जॉर्ज लुकाच (1885-1971) बीसवीं सदी के प्रभावशाली चिन्तक थे। उनका जन्म हंगरी के बुडापेस्ट शहर में हुआ था। वे जर्मन-भाषी मार्क्सवादी विचारक होने के साथ-साथ एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे। बीसवीं सदी में मार्क्सवादी साहित्य-सिद्धान्त को उन्होंने नई ऊँचाई दी। उन्होंने साहित्य-सिद्धान्त के क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप किया और उनकी साहित्य दृष्टि ने कई लेखकों और आलोचकों को गहराई से प्रभावित किया। प्रस्तुत पाठ साहित्य और कला की आलोचना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले मानवीय स्वतन्त्रता के प्रबल पक्षधर लुकाच की साहित्य दृष्टि के अध्ययन के निमित्त है।

  1. यथार्थवादी दृष्टि और जॉर्ज लुकाच

   एक साहित्यालोचक के रूप में लुकाच इस बात पर बल देते हैं कि लेखक यथार्थ का सही निरूपण तभी कर पाएगा, जब वह उसको उसकी समग्रता में देखने और पकड़ने में सक्षम हो। किसी अंश के ऊपर समग्र की प्रभावी सत्ता ही वह सारभूत तत्त्व है जिसे अपने चिन्तन में मार्क्स ने हेगेल से ग्रहण किया था। लुकाच ज़ोर देकर कहते हैं कि दर्शन की यह द्वन्द्वात्मक प्रणाली न सिर्फ किसी समाज के आर्थिक ढाँचे के विकास को समझने के लिए उपयोगी है, बल्कि उस समाज में साहित्य और संवेदना के विकास को समझने के लिए भी कारगर है। यथार्थ को उसकी समग्रता में पकड़ना तभी सम्भव है, जब उसके प्रति व्यक्तिवादी दृष्टि का अतिक्रमण किया जाय। व्यक्ति – चाहे वह अलग-थलग पड़ा पूँजीपति हो या टूटा हुआ श्रमिक – की दृष्टि में समाज एक ऐसी नियति के अधीन होता है जो उसकी समझ से परे है। अत: व्यक्ति निराशा और निष्क्रियता के गर्त में समा जाता है। इस निष्क्रियता और जड़ता से निजात तभी मिल सकती है, जब समाज को संचालित करने वाले नियमों की स्वाभाविक गति को समझा जाए। श्रमिक वर्ग, जब संगठित होकर अपनी चेतना के अनुरूप उसके संघर्ष का नेतृत्व करने वाली पार्टी का गठन करता है, तभी वह बुर्जुआ विचारधारा के छद्म अन्तरविरोधों, जैसे व्यक्ति और समाज, विज्ञान और नैतिकता, सिद्धान्त और व्यवहार इत्यादि से परे जाकर यथार्थ की सच्‍ची गति को पकड़ सकता है।

 

यथार्थ की समग्रता का ज्ञान ही श्रमिक वर्ग की चेतना और उसका नेतृत्व करने वाले संगठन के लिए महत्त्वपूर्ण है। लुकाच के अनुसार समग्रता का यह ज्ञान ही उस क्षमता का विकास करता है, जो अपने को या अपनी कार्यवाही के किसी क्षण को पृथक घटना मानने के बजाए समग्रता के पल का, समग्रता की प्रक्रिया का हिस्सा मानती है, और यह स्पष्ट करती है कि विजय के मार्ग में ‘पराजय’ एक अवस्था है, हताशा नहीं। यथार्थ की समग्रता का यह ज्ञान साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है।

 

लुकाच कहते हैं कि साहित्य के समाजशास्‍त्र की बुर्जुआ दृष्टि और कट्टर मार्क्सवादी धारणाओं ने साहित्य के सन्दर्भ में अनेक किस्म की एकांगी धारणाओं को प्रचारित कर रखा है। यह दृष्टि किसी साहित्यिक कृति को समाजिक-ऐतिहासिक समग्रता में स्थापित करके उसका मूल्याँकन करने की हिमायत तो करती है, मगर वह उस कला प्रक्रिया को पूरी तरह नजरन्दाज कर देती है जिसके चलते उसी साहित्यिक कृति के भीतर रचनाकार किसी अनुभव को समग्रता में रचता है। जिस तरह कोई राजनीतिक संगठन ऐतिहासिक परस्थितियों का उत्पाद भर नहीं होता, बल्कि उन परिस्थितियों को बदलने की सक्रिय कोशिश भी करता है, उसी तरह लेखक भी अपने समय का उत्पाद भर नहीं होता बल्कि अपने समय को सम्पूर्णता में समझने का सक्रिय प्रयास करता है। उदाहरण के तौर पर लुकाच कहते हैं कि द्वन्द्वात्मक दृष्टि से शेक्सपीयर के नाटकों का अध्ययन करने का यह अर्थ नहीं है कि यह दर्शाया जाय कि उन नाटकों के केन्द्र में तत्कालीन वर्ग-संघर्ष (अभिजातवर्ग और बुर्जुआ के बीच) की अभिव्यक्ति हुई है, बल्कि महत्त्वपूर्ण यह है कि कैसे नाटक का ‘साहित्य-रूप’ इतिहास या अर्थशास्‍त्र के ग्रन्थों से इतर पूरी विशिष्टता और अद्वितीयता के साथ इस संघर्ष को सघन और घनीभूत अभिव्यक्ति प्रदान करता है।

  1. लुकाच और ‘साहित्य-रूप’

   लुकाच के समूचे लेखन में ‘साहित्य-रूप’ के वैशिष्ट्य के प्रति झुकाव दिखाई देता है। प्रथम विश्‍वयुद्ध के दौरान लुकाच हीगेल से प्रभावित थे।द सोल एण्द द फॉर्म  तथा द थियरी ऑव द नॉवेल  जैसे उनके आरम्भिक ग्रन्थ इसी समय लिखे गये। ये दोनों किताबें साहित्य-रूपों के विकास को अपने अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु बनाती हैं। द थियरी ऑव द नॉवेल  तो अपने अमूर्त विवरणों और प्रगीतात्मक शैली के चलते कई जगह बोझिल हो गई है, फिर भी वह यथार्थ की समग्रता की अवधारणा के विकास में लुकाच के विचारों को समझने में सहायक है। हीगेल के प्रभाव के कारण लुकाच ने साहित्य-रूपों को ऐतिहासिक युगों के समक्ष अवस्थित किया। उन्होंने प्राचीन यूनान और मध्यकालीन यूरोप को ‘बन्द सभ्यताओं’ के रूप में परिभाषित करते हुए आधुनिक युग की सभ्यता के विरोध में खड़ा करने की कोशिश की। उनका मानना है कि आधुनिक युग की तुलना में ये सभ्यताएं कम समृद्ध थीं, मगर कम समस्यामूलक भी थीं। कम समस्यामूलक इसलिए क्योंकि उन सभ्यताओं में यथार्थ की समग्रता का बोध जीवन के सरल होने के चलते आतंकित नहीं करता था। महाकाव्य इसी युग का साहित्य-रूप था। इन ‘बन्द सभ्यताओं’ के पतन के बाद एक नए साहित्य-रूप उपन्यास का आविर्भाव हुआ। लुकाच के अनुसार उपन्यास का जन्म उस युग में सम्भव हुआ जब जीवन और यथार्थ के समग्र बोध को प्राप्‍त करना आसान नहीं रह गया। जब जीवन की सार्थकता के आयामों की खोज ही समस्याग्रस्त हो गई, मगर फिर भी जीवन और यथार्थ को समग्रता में समझना मनुष्य का लक्ष्य बना रहा।

 

लुकाच के आरम्भिक लेखन पर हीगेल का प्रभाव था, इसलिए यथार्थ के समग्रता-बोध के विखण्डन को लुकाच ने पूँजीवादी सभ्यता के सामाजिक और आर्थिक रूपों से नहीं जोड़ा। फिर भी यहाँ हम समग्रता की अवधारणा को वर्ग चेतना के सन्दर्भ में द्वन्द्वात्मक आधारों पर गठित होते देख सकते हैं, जिसके चलते लुकाच हीगेल से दूर और मार्क्स की अवधारणाओं के निकट आते गए। इस पुस्तक का सबसे अहम हिस्सा वह है, जहाँ लुकाच उन्‍नीसवीं सदी के ऐतिहासिक उपन्यासों में रचना-प्रक्रिया की समग्रता का कुशलता से मूल्याँकन करते हैं। लुकाच ने दिखाया हैं कि कैसे उन्‍नीसवीं सदी में ऐतिहासिक उपन्यास का जन्म फ्राँसीसी क्रान्ति द्वारा लाए गए ऐतिहासिक बदलाव की चेतना द्वारा सम्भव हुआ और किस तरह एक साहित्य-रूप के तौर पर ऐतिहासिक उपन्यास ने इन ऐतिहासिक परिवर्तनों से रूबरू होने के लिए नए तरीकों को आज़माया।

 

लुकाच ने नाटक और उपन्यास के बीच के अन्तर को रेखांकित किया। उनके अनुसार नाटक ‘घटनाक्रम की समग्रता’ को अभिव्यक्त करता है– यानि नाटक एक बन्द दायरे में किसी घटना का विस्तार से विवरण देता है। जबकि उपन्यास ‘वस्तुगत की समग्रता’ को अभिव्यक्त करता है– यानि उपन्यास वस्तुगत परिस्थितियों को उनकी पूर्ण विविधता और समृद्धि के साथ चित्रित करता है। लुकाच शेक्सपीयर के नाटक किंग लियर और टॉमस मान के उपन्यास बुद्देनब्रुक्स की तुलना करते हैं। शेक्सपीयर के यहाँ ‘अतिरंजित और लाक्षणिक घटनाक्रम’ का विस्तृत विवरण पूर्णतया बन्द दायरों में सीमित है। जबकि मान के यहाँ यथार्थ पारिवारिक जीवन की वास्तविक परिस्थितियों के फैलाव और प्रचुरता का कुशलता से चित्रण हुआ है। सर वाल्टर स्कॉट की महानता का बखान करते हुए लुकाच ने स्पष्ट किया कि उन्होंने बाल्ज़ाक जैसे लेखक को प्रभावित किया। बाल्ज़ाक की गणना मार्क्स और लुकाच दोनों ने दुनिया के महानतम यथार्थवादी उपन्यासकारों में की। इस तरह हम देखते हैं कि समग्रता की अवधारणा लुकाच के साहित्य-चिन्तन के केन्द्र में है, और इसी के आधार पर उन्होंने यथार्थवाद और प्रकृतवाद के बीच अन्तर किया।

 

इतिहास और वर्ग-चेतना नामक ग्रन्थ में लुकाच स्पष्ट करते हैं कि समग्र अपने अंशों का कुल जोड़ भर नहीं होता, बल्कि वह अंशों की गति और प्रकृति का निर्धारण करने वाली सत्ता है। अत: तथ्यात्मक विवरणों को अधिक से अधिक जमा करने मात्र से कोई रचना यथार्थवादी नहीं हो जाती। रचना यथार्थवादी तब बनती है, जब वह विवरणों की महत्ता और सार्थकता की संरचनात्मक सुसंगति को रचती है। इसके विपरीत प्रकृतवाद यथार्थ के विभिन्‍न अंशों को कोलाज की तरह अगल-बगल रखता है। यहाँ अंशों के बीच किसी भी तरह का जैविक सम्बन्ध नहीं होता। यहाँ समग्रता की अभिव्यक्ति नहीं होती, बल्कि समग्रता को बोध के स्तर को पकड़ने की असफलता की अभिव्यक्ति होती है।

 

लुकाच के लेखन में समग्रता की अवधारणा उनके मानववाद की बुनियाद को भी बनाती है। अपनी पुस्तक इतिहास और वर्ग-चेतना में लुकाच इस बात की व्याख्या करते हैं कि किस तरह पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली मनुष्य की समग्रता को तहस-नहस कर देती है। वह विखण्डित मनुष्य को पैदा करती है। यह विखण्डित मनुष्य कई तरह के अन्तरविरोधों का शिकार होता है। तर्क और भावना का अन्तरविरोध ऐसा ही एक अन्तरविरोध है। अपनी कृति गेटे और उनका युग में लुकाच साहित्येतिहास के अध्ययन में व्याप्‍त ऐसे ही पूर्वाग्रहों की घोर आलोचना करते हैं और यह बताते है कि किस तरह फासिस्ट बुद्धिजीवियों नें इन छद्म अन्तरविरोधों के माध्यम से जर्मन संस्कृति को विकृत करने का प्रयास किया है। लुकाच ने प्रबोधन को मानवतावाद के महानतम युग के रूप में स्वीकार किया है। वे स्पष्ट कहते हैं कि प्रबोधन के दौरान व्यवहार में न सही लेकिन सिद्धान्त के स्तर पर ‘मनुष्य के व्यक्तित्व के व्यापक और संगठित विकास को प्राप्‍त किया था’। लुकाच ने फासिस्टों के अनुकूल पड़ने वाले इस मिथक को ध्वस्त किया कि जर्मनी कभी प्रबोधन की प्रक्रिया से नहीं गुज़रा। उन्होंने अकाट्य तर्कों द्वारा यह साबित किया कि जर्मनी में प्रतिक्रियावादी भावाभिव्यक्तियों के कुछ उदाहरणों के बावजूद प्रबोधन की पुष्ट परम्परा रही है और स्वयं गेटे प्रबोधन के शिखर को अभिव्यक्त करते हैं। इस तरह हम पाते हैं कि लुकाच की साहित्य-दृष्टि के केन्द्र में उनका मानवतावाद है, मगर यही मानवतावाद कहीं-कहीं उनकी कमजोरी भी बन जाता है। जेम्स ज्वायस और मार्सेल प्रूस्त जैसे लेखकों के प्रति उनकी एकांगी अवधारणाएं इसी का परिणाम हैं।

 

आधुनिक साहित्य के सन्दर्भ में लुकाच यथार्थवाद के दो रूपों को मान्यता देते हैं– आलोचनात्मक यथार्थवाद और सामाजवादी यथार्थवाद। आलोचनात्मक यथार्थवाद इस धारणा का पोषक है कि बुर्जुआ वर्ग अभी भी समाज के निर्माण में सकारात्मक भूमिका का निर्वाह कर सकता है। लुकाच द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद दुनिया में शान्ति की स्थापना के प्रयासों का खुलकर समर्थन करने लगे थे। उन्होंने लिखा, ‘हमारे युग की वास्तविक समस्या पूँजीवाद और साम्यवाद के बीच का विरोध नहीं है, बल्कि युद्ध और शान्ति के बीच का विरोध है। बुर्जुआ बुद्धिजीवी की पहली ज़िम्मेदारी यह है कि वह तमाम किस्म की भाग्यवादी विकलताओं का परित्याग करते हुए समाजवाद का विरोध करने के बजाए मानवता को युद्ध से सुरक्षित रखने के लिए चलाए जाने वाले बचाव अभियान का हिस्सा बने।’

 

अपने इसी दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में लुकाच सह अस्तित्व की राजनीति को सम्भव करने वाले विश्‍व शान्ति आन्दोलन के निर्माण को आवश्यक मानते हैं और साहित्य के क्षेत्र में उन्‍नीसवीं शताब्दी के उदारवादी उपन्यास की परम्परा की निरन्तरता का समर्थन करते हैं। वे टॉमस मान को इस परम्परा का नायक मानते हैं और मानवीय सम्बन्धों की समग्रता पर बल देने के कारण उनकी तुलना गेटे से करते हैं। मान की शख्सीयत, जिन्होंने साहित्य में अराजनीतिक लेखन से शुरूआत की लेकिन बाद में हिटलर का मुखर विरोध किया, शान्ति के पक्ष में निर्मित लोकप्रिय मंच के अनुकूल पड़ती है। आलोचनात्मक यथार्थवाद अगर समाजवाद की शिक्षाओं का सम्मान करने को तत्पर है, तो वह लुकाच को मंजूर है, भले ही वह सर्वहारा वर्ग का निरूपण अपनी कृतियों में न करे।

 

‘समाजवादी यथार्थवाद’ को लेकर लुकाच की दृष्टि तत्कालीन रूस के संस्कृति-प्रचारक झदानोव की अपेक्षा अधिक उदारवादी और संवेदनशील है, हालाँकि कुछ आधारभूत मुद्दे हैं, जिन पर दोनो सहमत हैं। बुरे अर्थ में समाजवादी यथार्थवाद सोवियत रूस की शासकीय धारणाओं की स्वीकृति का यथार्थवाद है, ‘जो होना चाहिए’ के बजाये, ‘जो है’ का सकारात्मक चित्रण है। अच्छे अर्थ में वह व्यक्तिवादी मानवतावाद की आलोचना करता है। अपने निबन्ध सोल्झिनित्सिन और नया यथार्थवाद में वह स्तालिन के दौर की कला को ‘प्रकृतवाद’ कहकर खारिज करते हैं। वह सोल्झिनित्सिन की प्रशंसा करते हैं क्योंकि यहाँ उन्हें प्रतीकात्मक समग्रता के दर्शन होते हैं जो सम्पूर्ण मानवता के लिए मूल्यवान है।

  1. लुकाच की साहित्य दृष्टि की सीमाएँ

    लुकाच की साहित्य दृष्टि उन लेखकों को नजरन्दाज कर देती है, जो मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी शिक्षाओं को भी शिद्दत से अपनाते हैं, साथ ही नए साहित्य-रूपों को क्रान्तिकारी सूझबूझ के साथ स्वीकार करते हैं; जो श्रमिक वर्ग के दृष्टिकोण को अपने लेखन में जगह देते हैं, उसके संघर्ष की नई अभिव्यक्तियों का सम्मान करते हैं, और नई अन्तर्वस्तु को अभिव्यक्त करने के लिए नए रूप की तलाश करते हैं। फिर भी ऐसे लेखक पाए जाते हैं, भले ही लुकाच की नज़रों से वे ओझल हों। सार्त्र, ब्रेख्त और ब्रेटन ऐसे ही लेखक हैं, मगर सोवियत रूस की आधिकारिक दृष्टि ऐसे लेखकों का लगातार विरोध करती रही थी। अत: आधुनिक साहित्य के नए रूपों की असीम सम्भावनाओं को लुकाच ने कम करके आँका।

  1. निष्कर्ष

    जार्ज लुकाच एक प्रसिद्ध साहित्य चिंतक और बौद्धिक हैं। वह यथार्थवाद को अपनानेवाले शुरुआती आलोचकों में से एक हैं। लुकाच का महत्व यथार्थवाद के प्रामाणिक व्याख्याता के रूप में है। उनके अनुसार मार्क्सवाद न केवल प्रत्येक तथ्य अथवा घटना के मूल आधारों की खोज करता है, उन्हें उनकी ऐतिहासिक सम्बद्धता तथा गतिशीलता में भी देखता है। इस गतिशीलता के नियमों का पता लगाकर वह उनके समूचे विकास-क्रम को प्रदर्शित करता है। इस तरह वह प्रत्येक घटना अथवा तथ्य के ऊपर जमी धूल को साफ कर उन्हें समझने लायक बनाने की कोशिश करता है। जार्ज लुकाच अपने लेखन में जोर देकर कहते हैं कि लेखक को यथार्थ का सही चित्रण करना चाहिए। लेखक तभी ऐसा  कर पाएगा, जब वह साहित्य को उसकी समग्रता में देखने और पकड़ने में सक्षम हो। लुकाच की यह भी मान्यता है कि मार्क्सवादी दर्शन की द्वन्द्वात्मक प्रणाली न सिर्फ किसी समाज के आर्थिक ढाँचे के विकास को समझने के लिए उपयोगी है, बल्कि उस समाज में साहित्य और संवेदना के विकास को समझने के लिए भी कारगर है।

 

लुकाच के अनुसार यथार्थ अपनी समग्रता में तभी पकड़ में आएगा, जब उसके प्रति व्यक्तिवादी दृष्टि का अतिक्रमण किया जाय। उनके अनुसार साहित्य के समाजशास्‍त्र की बुर्जुआ दृष्टि और कट्टर मार्क्सवादी धारणाओं ने साहित्य के सन्दर्भ में अनेक किस्म की एकांगी धारणाओं को प्रचारित कर रखा है। यह दृष्टि किसी साहित्यिक कृति को समाजिक-ऐतिहासिक समग्रता में स्थापित करके उसका मूल्यांकन करने की हिमायत तो करती है, मगर वह उस प्रक्रिया को पूरी तरह नजरन्दाज कर देती है जिसके चलते उसी साहित्यिक कृति के भीतर रचनाकार किसी अनुभव को समग्रता में रचता है।

 

लुकाच ने उपन्यास में प्रतिनिधि चरित्र की वकालत की है। उनके अनुसार प्रतिनिधि चरित्रों की दृष्टि द्वारा ही सम्पूर्ण मानव-व्यक्तित्व का चित्रण हो सकता है। लुकाच की इस धारणा के अनुसार प्रेमचंद के गोदान का होरी अज्ञेय के शेखर : एक जीवनी  के शेखर की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण पात्र है। इसका कारण यह है कि होरी भारतीय किसान का प्रतिनिधित्व करता है। वह एक प्रतिनिधि पात्र है। शेखर एक विशिष्ट पात्र है। वह किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करता।

 

लुकाच साहित्य को समग्रता में समझने की वकालत करते हैं। इसी कारण वे यथार्थवाद का समर्थन करते हैं। यथार्थवाद में जीवन-समग्रता में अभिव्यक्त हो सकता है। जबकि स्वच्छन्दतावाद में कवि अपनी मस्ती और कल्पना की उड़ान में कुछ बातें कह सकता है और कुछ बातें नहीं भी कह सकता। प्रगीत में तो कवि किसी एक ही प्रसंग को अभिव्यक्त करके खामोश हो सकता है। ‘डायरी’ में लेखक अपने अनुभव को और अपने अनुभव की अपनी दृष्टि को ही व्यक्त करके संतुष्ट हो जाता है। समग्रता और यथार्थवाद की ये विशेषता सिर्फ उपन्यास में ही अभिव्यक्त हो पाती है। इसलिए माना जाता है कि जार्ज लुकाच उपन्यास के आलोचक हैं। उन्होंने अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए उपन्यासकारों का मूल्यांकन मन लगाकर किया है। इन उपन्यासकारों में भी जार्ज लुकाच की दिलचस्पी उन्‍नीसवीं सदी के महान उपन्यासकारों में ही थी। इसलिए उन्होंने काफ्का का समर्थन नहीं किया। टामस मान का किया। इस मुद्दे पर लुकाच और ब्रेख्त में ऐतिहासिक बहस हो चुकी थी। इसी तरह उनकी स्टालिन युग के चिन्तकों से भी बहस हुई थी।  सोवियत रूप में जब सोल्झिनित्सिन का विरोध किया जा रहा था, तब लुकाच  ने सोल्झिनित्सिन में नये यथार्थवाद का समर्थन किया है।

 

इस तरह लुकाच मार्क्सवाद के ऐसे आलोचक हैं जिसकी प्रतिष्ठा गैर मार्क्सवादी और मार्क्सवाद विरोधी आलोचकों में भी खूब है। इसके अलावा उनकी ख्याति हंगरी से बाहर भी बची हुई है।

you can view video on जॉर्ज लुकाच की साहित्य दृष्टि

 

अतिरिक्त जानें

बीज शब्द

  1. नव वामपंथ : मार्क्सवाद की मूल मान्यताओं से थोडा हटकर और विकसित करके नए चिन्तन का एक रूप।
  2. फासीवाद : हिटलर और मुसोलनी द्वारा प्रचारित विचारधारा।
  3. विचारधारा : राजनीतिक, कानूनी, नैतिक, सौंदर्यात्मक, धार्मिक, दार्शनिक विचारों की एक प्रणाली।

    पुस्तकें

  1. उपन्यास का सिद्धान्त, जार्ज लुकाच, (अनुवाद : आनंद प्रकाश), मैकमिलन इंडिया, बंबई-दिल्ली।
  2. इतिहास दृष्टि और ऐतिहासिक उपन्यास, जार्ज लुकाच (अनुवाद : कर्ण सिह चौहान), ग्रन्थ शिल्पी, दिल्ली।
  3. समकालीन यथार्थवाद, जार्ज लुकाच, (अनुवाद : कर्ण सिह चौहान), स्वराज प्रकाशन, दिल्ली।
  4. कला का जोखिम, निर्मल वर्मा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
  5. यथार्थवाद, शिवकुमार मिश्र, मैकमिलन कम्पनी ऑफ इंडिया, दिल्ली।
  6. उपन्यास का पुनर्जन्म, परमानन्द श्रीवास्तव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  7. Theory of Novel, George Lukacs, Merlin Press, London.
  8. George Lukacs, G. Lichtheim, The Viking Press, New York.

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