24 मार्क्सवादी साहित्य दृष्टि

प्रियम अंकित

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  1. पाठ का उद्देश्य

     इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप

  • मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि की विशेषताओं की जानकारी प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • मार्क्सवाद के प्रमुख सिद्धान्‍तों और शिक्षाओं के विषय में जान सकेंगे।
  • प्रमुख मार्क्सवादी-चिन्तकों की रचना-दृष्टि की जानकारी प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • आलोचना के क्षेत्र में मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि के असर और आगामी आलोचना पर इस आन्दोलन के प्रभाव को जानेंगे।
  1. प्रस्तावना

   प्रस्तुत पाठ साहित्य और कला की आलोचना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले कला आन्दोलन मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि के अध्ययन के निमित्त है।

 

कार्ल मार्क्स को एक आर्थिक सिद्धान्तकार, राजनीतिक चिन्तक और ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ की दार्शनिक प्रणाली के जनक के रूप में जाना जाता है। आधुनिक विचारों के क्षेत्र में जितनी लोकप्रियता मार्क्स को मिली उतनी शायद ही किसी विचारक को मिली होगी। ध्यान देने की बात है कि मार्क्स और उनके अनन्य साथी एंगेल्स ने साहित्य-दृष्टि और साहित्यिक आलोचना पर व्यवस्थित रूप में कभी कुछ नहीं लिखा। साहित्य और साहित्यालोचन सम्बन्धी इन दोनों का लेखन नितान्त असंगठित और बिखरा हुआ है। मार्क्सवाद के अनुयायी आलोचकों और लेखकों ने मार्क्स के राजनीतिक, आर्थिक और दार्शनिक सिद्धान्तों के आधार पर मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि का निर्माण और विकास किया। इसलिए मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि एक सतत विकासमान दृष्टि है। मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि सहमति के कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के बावजूद साहित्य और आलोचना सम्बन्धी कई मुद्दों पर घोर असहमतियाँ रही हैं। इसलिए ठीक-ठीक मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि क्या है? इसे बताना कठिन है।

  1. मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि की विशेषताएँ

    मार्क्स के आर्थिक-राजनीतिक विचारों की संगति में ही उनकी साहित्य-दृष्टि को समझा-समझाया जा सकता है।

 

इस सम्बन्ध में उनकी प्राथमिक मान्यता यह है कि मनुष्य की चेतना पदार्थ से उत्पन्‍न होती है, न कि चेतना से पदार्थ उत्पन्‍न होता है। इस मान्यता के कारण उनका चिन्तन भौतिकवादी कहलाता है।

 

उनकी दूसरी मान्यता समाज के गठन से सम्बन्धित है। ए कण्ट्रीब्यूशन टू दी क्रिटीक ऑफ पोलिटिकल इकोनॉमी की भूमिका में उन्होंने लिखा— सामाजिक जीवन की उत्पादन-प्रक्रिया में मनुष्य ऐसे सुनिश्‍च‍ित सम्बन्धों की स्थापना करते हैं, जो अपरिहार्य हैं। इन सम्बन्धों का योग अथवा सम्पूर्णता ही समाज के आर्थिक आधार का निर्माण करती है। उसके इस आधार से ही समाज की न्यायिक और राजनीतिक बाह्य ढाँचा खड़ा होता है। अर्थात भौतिक जीवन की उत्पादन पद्धति ही हमारे सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक जीवन की प्रक्रिया को अनुकूलित करती है। उनका इस मत का सार इस मान्यता में निहित है कि ‘मनुष्य की चेतना उसके अस्तित्व का निर्माण नहीं करती, बल्कि उसका सामाजिक अस्तित्व ही उसकी चेतना का निर्माण करता है।’ समाज के इस आर्थिक आधार के परिवर्तन के साथ समाज की सम्पूर्ण बाह्य-संरचना भी कमोबेश उसी तेजी से बदल जाती है।

 

मार्क्सवादी साहित्य दृष्टि का यह प्रस्थान बिन्दु है। मार्क्स के अनुसार साहित्य इस बाह्य ढांचे का हिस्सा है। इसे समझने के लिए समाज के आर्थिक आधार को समझना जरूरी है। इसका अर्थ यह हुआ कि कबीर के युग के साहित्य को समझने के लिए कबीर के युग की उत्पादक पद्धति को पहले समझना होगा। इसके बाद ही हम कबीर के कथनों का मर्म समझ पाएंगे। मनुष्य की कामना में, स्वप्‍न में, आकांक्षा में, कला में समाज का आर्थिक आधार महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मार्क्स की इस धारणा पर आगे चलकर बहुत विवाद हुआ तथा अनेक मार्क्सवादी और गैर मार्क्सवादी आलोचकों ने  आर्थिक निर्धारण की इस धारणा का खण्डन किया। इसके बावजूद जब भी मार्क्सवादी साहित्य-चिन्तन की चर्चा होती है तब आधार और अधिरचना के आपसी सम्बन्धों की चर्चा अवश्य होती है।

  1. वर्ग-संघर्ष की धारणा

    मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि को समझने के लिए उनकी वर्ग-संघर्ष की धारणा को समझना भी जरूरी है। मार्क्सवाद का बुनियादी लक्ष्य ऐसे वर्ग विहीन समाज की स्थापना है जो उत्पादन के साधनों के सामाजिक स्वामित्व और नियन्त्रण पर आधारित हो। आर्थिक निर्धारणवाद, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और वर्ग-संघर्ष – ये तीन प्रमुख सिद्धान्त हैं, जो मार्क्स की मान्यताओं को समझने के लिए आवश्यक हैं। उनके अनुसार समाज में केवल दो वर्ग हैं– बुर्जुआ (प्रभुत्वशाली वर्ग, जो उत्पादन साधनों का स्वामी और नियन्ता होता है) एवं सर्वहारा (मजदूर वर्ग, जिसका उत्पादन साधनों पर कोई नियन्त्रण और स्वामित्व नहीं होता) एवं इनके बीच पनपने वाले विरोध के सम्बन्ध से ही अन्तत: वर्ग चेतना का निर्माण होता है। मार्क्स का मानना था कि पिछला सारा इतिहास ऐसे ही दो विरोधी और प्रतिस्पर्द्धी आर्थिक वर्गों के संघर्ष से होने वाले परिवर्तन की अवस्थाओं द्वारा निर्मित है। मार्क्स और एंगेल्स ने मिलकर पूँजीवाद, वर्ग-संघर्ष और समाजवादी आन्दोलनों का विश्‍लेषण करते हुए विपुल लेखन किया जिसने विश्‍व इतिहास की धारा को बदल दिया। मार्क्स का स्पष्ट मानना था कि अब तक चिन्तकों ने दुनिया को अलग-अलग तरीके से व्याख्यायित किया है, मगर असली मुद्दा तो उसको बदलने का है। इसलिए मार्क्स कहते हैं कि मूल संघर्ष अच्छाई और बुराई का नहीं है। सत्य और असत्य का भी नहीं है। मूल संघर्ष वर्ग-संघर्ष है। आर्थिक हितों का संघर्ष है।

 

कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र में यह प्रतिपादित किया गया है कि अब तक के समस्त अस्तित्ववान समाजों का सारा इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। इतिहास की गति को समझने के लिए उन विभिन्‍न ऐतिहासिक काल-खण्डों में व्याप्‍त वर्ग-सम्बन्धों का और उनमें निहित विरोध एवं संघर्षों का विश्‍लेषण करना होगा जो वर्ग-संघर्ष को तीक्ष्ण बनाते हैं। ऐसा वर्ग चेतना के विकास और प्रभुत्वशाली वर्गों को चुनौती देने वाले क्रान्तिकारी परिवर्तनों के अनुगमन द्वारा सम्भव होता है। इन क्रान्तिकारी परिवर्तनों की सफलता का आकलन उनके द्वारा उत्पन्‍न नए सामाजिक संगठनों के नए उत्पादन सम्बन्धों और नए उत्पादन साधनों के आधार पर होता है।

 

राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की आलोचना की भूमिका और पूँजी में शोषणकारी व्यवस्था के पतन के लिए उत्तरदायी अन्तर्निहित तर्क और अन्तर्विरोधों पर विस्तार से चर्चा की गई है। भूमिका में प्रतिपादित किया गया है कि हर समाज में उत्पादन की शक्तियों और सम्बन्धों के विशिष्ट विन्यास वाला आधारभूत आर्थिक संगठन होता है। इसी आधारभूत आर्थिक संगठन से राजनीति और विचारधारा की जटिल अधिरचनाओं का उद्भव होता है और सामाजिक विकास के मूल में आर्थिक विकास की भूमिका होती है।

 

पूँजी में पूँजीवादी व्यवस्था के आविर्भाव और उसके विकास की गत्यात्मकता पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यहाँ पूँजी और श्रम के अन्तर्विरोधों पर विस्तृत चर्चा की गई है। यहाँ मार्क्स की दिलचस्पी पूँजीवाद के पतन की भविष्यवाणी करने में उतनी नहीं है, जितनी की इस बात को समझने में कि कैसे इस व्यवस्था का विकास हुआ और उसकी विभिन्‍न कार्यप्रणालियाँ कौन-सी हैं, उसके अन्तर्विरोध क्या हैं। सामाजिक सम्बन्धों के विभिन्‍न रूपों का ‘पण्य’ या ‘उपभोज्य वस्तु’ में रूपान्तरण पूँजीवाद की विभिन्‍न गतियों को समझने की कुंजी है। यह रूपान्तरण अपनी सर्वाधिक विकसित अवस्था को पूँजीवाद में प्राप्‍त करता है।

 

मार्क्स की अवधारणाओं — वर्ग-संघर्ष, राजनीति और अर्थशास्‍त्र — से मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि का निर्माण हुआ है। इस दृष्टि का आग्रह है कि साहित्यिक कृतियाँ ऐतिहासिक उत्पाद हैं और उनका विश्‍लेषण करने के लिए उन्हें जन्म देने वाली सामाजिक और भौतिक परिस्थितियों का अध्ययन करना आवश्यक है। अपने ग्रन्थ पूँजी में मार्क्स नें लिखा है कि भौतिक जीवन के उत्पादन की प्रणालियाँ ही जीवन-प्रक्रिया के सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक रूपों को पूरी तरह निर्धारित करती हैं। मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि इसके उलट वह सामाजिक अस्तित्व ही है, जो मनुष्य की चेतना को निर्धारित करता है। अर्थात लेखक की सामाजिक स्थिति ही उसकी रचना में राजनीतिक विचारों, आर्थिक कथनों एवं पात्रों, चरित्रों के विकास को तय करती है।

  1. विचारधारा का प्रश्‍न

   मार्क्सवादी समीक्षकों ने साहित्य के विश्‍लेणष के लिए आधार और अधिरचना तथा साहित्य के वर्गीय स्वरूप को अपने विचारों का प्रस्थान बिन्दु स्वीकार किया है। इसके साथ ही वे साहित्य के उद्देश्य पर भी चर्चा करते हैं। उनके अनुसार साहित्य का उद्देश्य समाज की संगति में होता है और होना चाहिए। समाज के लिए इनका उद्देश्य वर्ग-संघर्ष में सक्रिय भाग लेकर वर्गहीन समाज की स्थापना करना है। जिसे मार्क्सवाद की शब्दावली में समाजवाद की स्थापना कहा जाता है। मार्क्सवादी आलोचना का उद्देश्य है कि साहित्य को भी इस वर्ग-संघर्ष में हिस्सा लेना चाहिए तथा वर्गहीन समाज की स्थापना का प्रयास करना चाहिए। इसलिए जो साहित्य इस संघर्ष में हिस्सा लेता है वह श्रेष्ठ है, वरेण्य है, क्रान्तिकारी है और प्रगतिशील है। जो साहित्य इस संघर्ष में तटस्थ रहता है, या संघर्ष को कमजोर करता है या सर्वहारा का मनोबल गिराने वाला होता है, वह त्याज्य होता है, प्रतिक्रियावादी होता है। मार्क्सवादी आलोचना ऐसे रचनाकारों की आलोचना करती है, भले ही उसमें कितनी भी कलात्मकता और साहित्यिकता हो। इसी मानसिकता के कारण भगवतशरण उपाध्याय ने अज्ञेय के उपन्यास नदी के द्वीप आलोचना करते हुए कहा कि यह उपन्यास ऐसा ही है जैसे ‘सुन्दर, पके फल में कीड़े’ हों। ये कीड़े विचार के कीड़े हैं। बाकी सब ठीक है।

 

इसके लिए मार्क्सवादी आलोचना प्रत्येक लेखक की विचारधारा और जीवन-दृष्टि का मूल्यांकन करती है और इसी आधार पर अगला निर्णय लेती है। यदि कोई मार्क्सवाद की इन मान्यताओं से सहमत है, उसके लिए इस दर्शन के साहित्य की उपयोगिता है, अन्यथा नहीं।

 

सारांशत: मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि का ध्येय विश्‍लेषण के उन तरीकों की खोज करना है जिनसे यह स्पष्ट हो सके कि–रचना में व्यक्त विचारधारा सत्ताशाली वर्ग द्वारा अधीनस्थ वर्ग के शोषण का समर्थन करती है अथवा विरोध? रचना का पाठ प्रभुत्वशाली वैचारिकी का केवल समर्थन करता है, केवल विरोध करता है अथवा विरोध और समर्थन दोनों करता है? आख्यान का मुख्य पात्र बुर्जुआ मूल्यों को स्वीकारता है या तिरस्कार करता है? पाठ किसकी कहानी बयाँ करता है? क्या पाठ आर्थिक रूप से कमजोर समूहों को अवमूल्यित या नजरअन्दाज करता है? क्या पाठ उन मूल्यों को महिमामण्डित करता है जो प्रभुत्वशाली वर्ग की सांस्कृतिक सत्ता को मजबूत करते हैं? रचना का पाठक-वर्ग कौन सा है? आदि।

  1. फ्रैंकफर्ट स्कूल

   पश्‍च‍िमी देशों में मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि का विकास करने में ‘फ्रैंकफर्ट स्कूल’ का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस स्कूल के अध्येता नव-मार्क्सवादी अन्तरानुशासनात्मक दृष्टि के प्रणेता थे और फ्रैंकफर्ट विश्‍वविद्यालय के सामाजिक शोध संस्थान से सम्बद्ध थे। ये विचारक मार्क्स की शिक्षाओं की संकीर्ण व्याख्याओं से क्षुब्ध थे। इनका स्पष्ट मानना था की संकीर्ण मार्क्सवादी शिक्षाएँ बदलते सन्दर्भों में पूँजीवाद के उथल-पुथल से भरे विकास और उसके भयानक संकटों को समझने में सक्षम नहीं हैं। ये विचारक पूँजीवादी व्यवस्था और सोवियत समाजवाद दोनों के घोर आलोचक थे। दोनों को नकार कर इन विचारकों ने मार्क्सवाद पर आधारित नई और संकीर्णताओं से मुक्त साहित्य-दृष्टि का निर्माण किया। इन विचारकों में थियोडोर अडोर्नो, मैक्स होर्खाईमर, हर्बर्ट मार्क्यूज, युर्गेन हेबरमास आदि महत्त्वपूर्ण हैं। इन विचारकों के समीक्षात्मक तेवर एक दूसरे से काफी भिन्‍न हैं, फिर भी इनके चिन्तन में बहुत कुछ है जो समान है। इन आलोचकों ने आधुनिकतावाद, मनोविश्‍लेषणवाद, अस्तित्ववाद और उस समय प्रचलित गैर-मार्क्सवादी दृष्टियों से सफल संवाद स्थापित कर मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि को अधिक व्यापक और प्रासंगिक बनाया। इन विचारकों ने अपनी जान पर खेलकर जर्मनी में नाज़ी शासन को खुल कर चुनौती दी।

 

मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि और अन्य साहित्यिक दृष्टियों की कुछ चिन्ताएँ उभयनिष्ठ हैं। मसलन, स्‍त्रीवादी साहित्यिक आलोचना में समकालीन समाज के लिंगभेद पर आधारित सत्ता-संरचनाओं को खुल कर चुनौती देने वाली दृष्टि का मार्क्सवादी साहित्यालोचना समर्थन करती है। मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि लिंगभेद की जड़ों को उस भौतिक और आर्थिक सत्ता में खोजती है जो राजनीतिक सत्ता का निर्धारण करती है। इसी तरह मार्क्सवादी साहित्यिक आलोचना को उस हद तक सांस्कृतिक आलोचना भी माना जा सकता है, जहाँ तक वह रचना के पाठ के ऐतिहासिक अर्थ को स्पष्ट करने के लिए ऐसे विमर्श रचती है, जो सत्ता-संरचनाओं के स्थापित विमर्शों को चुनौती देते हुए उनका परीक्षण और विश्‍लेषण करते हैं।

 

मार्क्सवादी आलोचना की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि यह आलोचना विश्‍वव्यापी है। सिर्फ रूस, चीन या पूर्वी यूरोपीय देशों में ही इसका विकास नहीं हुआ है, वरन, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, भारत और अफ्रीकी देशों के साहित्य चिन्तन पर भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। इसी तरह का विश्‍वव्यापी प्रभाव फ्रायड के चिन्तन का भी देखने को मिलता है।

 

दूसरे मार्क्सवादी साहित्य-चिन्तन का विकास सिर्फ मार्क्स, लेनिन या अन्य राजनेताओं द्वारा ही नहीं हुआ है, वरन् साहित्यकारों ने भी इसके विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिन्दी में भी मार्क्सवादी परम्परा के कई आलोचक हुए हैं। इसलिए यह परम्परा बाहरी परम्परा नहीं है।

  1. मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि में प्रयुक्त प्रमुख पद

   आधार बनाम अधिरचना– मार्क्सवाद के अनुसार ‘आधार’ का अर्थ है किसी व्यवस्था का आर्थिक आधार। ‘अधिरचना’ का अर्थ है– कानून, राजनीति, दर्शन, धर्म, कला आदि गतिविधियाँ, जो आधार से ही उपजती हैं।

 

विचारधारा– वे विश्‍वास और मूल्य जिन्हें किसी संस्कृति के भीतर व्यापक साझेदारी हासिल होती है और जिनके द्वारा उस संस्कृति के आचार-व्यवहार और नैतिकता का निर्धारण होता है। मार्क्सवादियों के अनुसार अर्थव्यवस्था ही विचारधारा का निर्धारण करती है।

 

सांस्कृतिक और नैतिक नेतृत्व या हेजेमनी– ‘हेजेमनी’ इतालवी मार्क्सवादी चिन्तक अन्तोनियो ग्राम्शी द्वारा गढ़ा गया पद है। यह किसी संस्कृति में व्याप्‍त धारणाओं, अर्थों और मूल्यों की प्रणाली– विचारधाराओं का सम्पुष्ट जाल है, जो किसी संस्कृति में चीज़ों को देखने के नजरिये और उनके अर्थ को निर्धारित करता है तथा उस उस व्यापक वस्तुनिष्ठता का निर्माण करता है, जिसे उस संस्कृति के लोग यथार्थ का नाम देते हैं।

 

वस्तुकरण या रीइफिकेशन– जीवित लोगों को बाज़ार में बिकने वाली वस्तु या ‘पण्य’ में रूपान्तरित करने की प्रक्रिया।

 

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि ने रूढ़िवादी मान्याताओं का तिरस्कार करते हुए नए तरह से विकास किया। बीसवीं सदी की, खास तौर से उसके उत्तरार्द्ध की, प्रमुख आलोचना-दृष्टियों का मुख्य मन्तव्य इस बात की खोज करना रहा कि‍ रचना जो ‘दिखाती’ है, उससे अधिक ‘छिपाती’ है। इन आलोचना-दृष्टियों से संवाद करते हुए मार्क्सवादी आलोचना ने भी नया रूप ग्रहण किया। इस पर टेरी ईगलटन की टिप्पणी है कि‍ मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि रचना के बारे में वे बातें बताती है, जिन्हें रचना स्वयं नहीं बता सकती। वह उसका निर्माण करने वाली उन परिस्थितियों के बारे में बताती है, जो रचना के हर हर्फ़ में मौजूद होने के बावजूद शान्त बनी रहती हैं।

 

बीसवीं सदी की मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि तयशुदा नियमों में बँधी दृष्टि नहीं है। एक सामान्य राजनीतिक दृष्टिकोण को साझा करने के बावजूद जार्ज लुकाच, अन्तोनियो ग्राम्शी, थियोडोर अडोर्नो, वाल्टर बेन्‍जामिन, रेमण्ड विलयम्स, टेरी ईगलटन और दूसरे मार्क्सवादी आलोचकों की समीक्षा पद्धतियाँ एक दूसरे से नितान्त भिन्‍न हैं। इन मार्क्सवादी आलोचकों ने न सिर्फ साहित्य-विश्‍लेषण के जटिल रूपों को आलोचना के क्षेत्र में स्थापित किया है, बल्कि साहित्य-आलोचना के व्यवहारिक संगठन में संस्कृति और सत्ता के विभिन्‍न किस्म के गठजोड़ों की खोजबीन करके साहित्य विश्‍लेषण की तमाम स्वयंसिद्ध निश्‍च‍ितताओं को ध्वस्त किया है। सार्त्र, लुकाच, लुसिएँ गोल्डमान, रेमण्ड विलियम्स, अर्न्‍स्‍ट फिशर जैसे मार्क्सवादी आलोचकों ने यह मानते हुए कि‍ लेखक और वर्ग के बीच का सम्बन्ध स्तालिन के दौर की शासकीय मार्क्सवादी अवधारणाओं की तुलना में कहीं अधिक जटिल होता है, साहित्य की समाजिक प्रासंगिकता पर बार-बार ज़ोर दिया है। बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के आरम्भ से मार्क्सवादी आलोचना ने पुराने प्रश्‍नों का नए सन्दर्भों में मूल्यांकन करना आरम्भ किया। अब महत्त्वपूर्ण सवाल ये थे कि‍ साहित्य और विचारधारा के बीच कैसा सम्बन्ध है? क्या साहित्य विचारधारा का केवल वाहक होता है या फिर वह विचाराधारा का मूल्यांकन और उसका अतिक्रमण भी करता है? क्या मार्क्सवादी आलोचना ज़दानोवी अवधारणाओं की ओर वापस गए बगैर साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन के वैकल्पिक मार्ग सुझा सकती है? किस हद तक साहित्यिक उत्पादन का समाजशास्‍त्रीय विवरण लेखक की व्यक्तिगत प्रेरणाओं के महत्त्व को नकारता है? भाषाविज्ञान के क्षेत्र में हुई नई खोजों को किस हद तक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के भीतर समावेशित किया जा सकता है? किसी साहित्यिक कृति के राजनीतिक पाठ की अन्तर्वस्तु का उस कृति के शिल्प या रूप से किस प्रकार का सम्बन्ध होता है?

 

इन सवालों से जूझते हुए मार्क्सवादी आलोचकों ने मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि को संकीर्णता के दायरे से लगातार बचाते हुए बदलते सन्दर्भों में, उत्तर-आधुनिकता, उत्तर-औपनिवेशिकता, स्‍त्रीवाद, नेग्रीच्यूड आदि दृष्टियों से जीवन्त संवाद करते हुए, उसकी प्रासंगिकता की रक्षा कर साहित्य विश्‍लेषण की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पद्धति के रूप में स्थापित किया है।

  1. निष्कर्ष

   आलोचना की मार्क्सवादी दृष्टि लेखन को सामाजिक और ऐतिहासिक सन्दर्भों में परखती है। उसके लिए किसी रचना का कला पक्ष गौण होता है। उसका जोर लेखन की अन्तर्वस्तु पर होता है। मार्क्सवादी साहित्य सिद्धान्त का मुख्य लक्ष्य देश और काल के सापेक्ष साहित्यिक पाठों के रूप और अन्तर्वस्तु तथा उनके भौतिक और सामाजिक सन्दर्भों के बीच विचारधारात्मक सम्बन्धों का अध्ययन करना है। साथ ही मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि इन प्रश्‍नों को भी सम्बोधित करती है कि ‘क्यों’ और ‘कैसे’ साहित्य के कुछ पाठ, विधाएँ, रचनात्मक ऊर्जा से परि‍पूर्ण कुछ साहित्यिक काल-खण्ड, इतिहास के प्रवाह द्वारा अपने को सन्दर्भित कर पाने में सफल होते हैं; और यह किस तरह सम्भव होता है कि ऐसी रचनाओं को पढ़ते हुए हम उनके समय की भौतिक, सामजिक और ऐतिहासिक दशाओं की सजीव झलक का साक्षात्कार कर पाते हैं। जिस साहित्य में सर्वहारा वर्ग के प्रति सहानुभूति नहीं होती है, मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि उसे नकार देती है। इस लिए कई बार मार्क्सवादी लेखन एक नारा बन कर रह जाता है। मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि का ध्येय विश्‍लेषण के उन तरीकों की खोज करना है, जिनसे यह स्पष्ट हो सके कि रचना में व्यक्त विचारधारा सत्ताशाली वर्ग द्वारा अधीनस्थ वर्ग के शोषण का समर्थन करती है अथवा विरोध? रचना का पाठ प्रभुत्वशाली वैचारिकी का केवल समर्थन करता है, केवल विरोध करता है अथवा विरोध और समर्थन दोनों करता है? आख्यान का मुख्य पात्र बुर्जुआ मूल्यों को स्वीकारता है या तिरस्कार करता है? पाठ किसकी कहानी बयाँ करता है? क्या पाठ आर्थिक रूप से कमज़ोर समूहों को अवमूल्यित या नजरअन्दाज करता है? क्या पाठ उन मूल्यों को महिमामण्डित करता है जो प्रभुत्वशाली वर्ग की सांस्कृतिक सत्ता को मजबूत करते हैं? रचना का पाठक-वर्ग कौन सा है? आदि।

you can view video on मार्क्सवादी साहित्य दृष्टि

 

अतिरिक्त जानें

बीज शब्द

  1. आधार : किसी समाज के उत्पादन के साधन और उत्पादन के सम्बन्धों का कुलजोड़ आधार कहलाता है।
  2. बाह्य ढांचा : इस आधार के ऊपर निर्मित सामजिक,राजनैतिक वैचारिक अधिरचना। 
  3. समकालीन : अपने समय में होने वाली।

    पुस्तकें

  1. साहित्य सिद्धान्त, ऑस्टिन वारेन एवं रेनेवेलेक, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
  2. मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य, रामविलास शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  3. आलोचना और विचारधारा, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
  4. मार्क्सवादी साहित्य-चिन्तन : इतिहास तथा सिद्धान्त, शिवकुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  5. साहित्य समीक्षा और मार्क्सवाद, सम्पादक कुँवर पाल सिंह, पीपुल्स लिटरेसी, दिल्ली।
  6. आधुनिक साहित्य चिन्तन और कुछ विशिष्ट साहित्यकार, डॉ. नरेन्द्र सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  7. मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की भूमिका, रोहिताश्व, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  8. Marxism and Literature, Remond Williams, Oxford University Press, Oxford, England.
  9. Marxism and Literary Criticism, Terry Eagleton, University of California, London, Berkley, Methuen.
  10. Marxism and form : twentieth century dialectical theories of literature, Fredric Jameson, Princeton University Press, Princeton.

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