23 उपन्यास का सिद्धान्त

प्रियम अंकित

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • साहित्यिक विधा के रूप में उपन्यास की विकास-प्रक्रि‍या जान सकेंगे।
  • उपन्यास की परिभाषा और उसके स्वरूप का परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • प्रसिद्ध आलोचक राल्फ फॉक्स की उपन्यास सम्बन्धी अवधारणाओं से परिचित हो सकेंगे।
  • उपन्यास और यथार्थवाद के सम्बन्ध की जानकारी मिलेगी।
  • उपन्यास का समाजशास्‍त्र से रिश्ता समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

    आधुनिक काल के उदय के साथ ही साहित्य में उपन्यास नामक विधा का जन्म हुआ। इस विधा के जन्म के कई कारण रहे। इनमें से प्रमुख कारण औद्योगिकीकरण के परिणामस्वरूप मध्यवर्ग के उदय को माना जाता है। मध्यवर्ग के मनोरंजन के लिए उपन्यासों का प्रकाशन पत्र-पत्रिकाओं में धारावाहिक रूप में शुरू हुआ। इसलिए किसी भी भाषा के शुरुआती उपन्यास अपने आकार में काफी मोटे दिखाई देते हैं।

 

बाद में उपन्यासों को नैतिक संदेश या नैतिक शिक्षा के लिए भी व्यवहार में लाया गया। इतना ही नहीं, भारतीय भाषाओं में उपन्यास अपने आरम्भिक काल में समाज सुधार का एक महत्त्वपूर्ण साधन माना गया। यह तो उपन्यास की शुरुआत थी। धीरे-धीरे यह विधा साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा का स्थान ग्रहण करने लगी। साहित्य के आलोचकों ने तब इसकी छानबीन शुरु की कि उपन्यास का जन्म किन परिस्थितियों में हुआ? इसके लोकप्रिय होने के क्या कारण रहे? साहित्य के क्षेत्र में उपन्‍यास का क्या योगदान रहा? यथार्थवाद को विकसित करने और समझने में उपन्यास ने क्या भूमिका अदा की? ऐसे बहुत से प्रश्‍न रहे जिनके उत्तर ढूंढ़ने के क्रम में उपन्यास के सिद्धान्त का निर्माण हुआ।

 

प्रस्तुत पाठ साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा ‘उपन्यास’ के विभिन्‍न सिद्धान्तों के अध्ययन के निमित्त है। साहित्य में ‘उपन्यास’ अपेक्षाकृत एक नई विधा है। विश्‍व के अनेक महान उपन्यासकारों ने इस विधा को कलात्मकता के चरम शिखर पर पहुँचाया। ‘उपन्यास’ को अपने समय के सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त करने के सर्वश्रेष्ठ माध्यम के रूप में ख्याति मिली है। शायद इसीलिए उपन्यास को आधुनिक युग का महाकाव्य कहा जाता है।

 

भारत में ‘उपन्यास’ अपने विधागत रूप में मूलत: पश्‍च‍िम से आया। पारम्परिक रूप में काव्य के अन्तर्गत प्रबन्धात्मक रचनाएँ लिखने का जो प्रचलन था, उसका आदर्श ‘महाकाव्य’ (एपिक) वाले रूप में देखने को मिलता था। लेकिन पश्‍च‍िम में औद्योगिक क्रान्ति ने सामाजिक संरचना में जो परिवर्तन लाने शुरू किए, उन परिवर्तनों से प्रभावित और रूपान्तरित होते हुए समाज को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए जिस नए कला-रूप की आवश्यकता थी, वह ‘नॉवेल’ के रूप में पश्‍च‍िमी साहित्य में आया। हिन्दी में उसी कलारूप को ‘उपन्यास’ नाम से प्रतिष्ठा मिली। प्रस्तुत पाठ के अन्तर्गत इसी कलारूप की सैद्धान्तिकी का अध्ययन हम करेंगे।

  1. उपन्यास : परिभाषा और स्वरूप

   हेगेल ने उपन्यास को ‘गद्य युग का महाकाव्य’ कहकर उसकी भूमिका और स्वरूप दोनों की ओर संकेत किया। राल्फ फॉक्स ने अपनी पुस्तक द नॉवेल एण्ड द पीपुल में ‘बुर्जुआ समाज का महाकाव्यात्मक  कलारूप’ कहकर उपन्यास को परिभाषित किया। इसी तरह मिशेल जेरेफ़ा के अनुसार ‘उपन्यास ऐसी कला है, जिसमें मनुष्य सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टि से निरूपित होकर सामने आता है।’

 

उपन्यास में न तो कविता की तरह आत्मपरकता होती है और न नाटक की तरह यथार्थ का मायालोक होता है। उपन्यास में मनुष्य के समाज-सम्बन्ध और इतिहास सापेक्ष रूप को केन्द्रीय स्थान मिलता है। अन्य कलारूपों और साहित्यिक विधाओं की तुलना में उपन्यास का स्वरूप समाज पर अधिक निर्भर होता है और इसका विकास समाज के इतिहास के साथ होता है। लेकिन यह भी सच है कि वह एक कला है, मात्र सामाजिक दस्तावेज नहीं। इसलिए सामाजिक यथार्थ, जीवन के अनुभव और इतिहास की गति रचनाकार की सृजनशीलता से पुनर्रचित होकर ही उपन्यास में आते हैं।

 

उपन्यास का प्रारम्भ आधुनिक युग में हुआ। इसलिए उपन्यास के सिद्धान्तों का निर्णाण भी उपन्यासों की रचना के बाद हुआ। इसी कारण प्लेटो और अरस्तू के काव्यशास्‍त्रीय चिन्तन में उपन्यास की आलोचना के सूत्र नहीं मिलते। इसी तरह भारतीय काव्य-चिन्तन और नाट्य-चिन्तन में भी उपन्यास की मान्यताएँ अनुपलब्ध हैं। जब समाज में परिवर्तन हुआ, औद्योगीकीकरण आया, मध्यवर्ग पैदा हुआ, तब उपन्यास का उदय हुआ। इसके बाद उपन्यास का विशाल पाठक समुदाय निर्मित हुआ। प्रबुद्ध जनों की दृष्टि उपन्यास के विशाल फलक पर पड़ी तब उपन्यास के विभिन्‍न सिद्धान्तों का निर्माण हुआ तथा उपन्यास की लोकप्रियता या मनोरंजकता पर बहसें होने लगीं।

 

उपन्यास जब सामने आया तो प्लेटो-अरस्तू की अनुकरण की धारणा अपर्याप्‍त लगने लगी और तब यथार्थवाद के रूप में नई साहित्यिक मान्यता सामने आई। किसी कविता को समझने के लिए भले ही यथार्थवाद उपयोगी न हो, परन्तु यथार्थवाद के बिना हम उपन्यास को नहीं समझ सकते। इसी क्रम में राल्फ फॉक्स, जार्ज लुकाच जैसे बड़े आलोचक आए और उन्होंने आलोचनात्मक यथार्थवाद और समाजवादी यथार्थवाद की धारणाएं सामने रखीं। या लूकाच ने समग्रता की धारणा रखी। समग्रता की धारणा को यदि मुक्तक कवि पर लागू करेंगे तो वह कविता खारिज करने लायक हो जाएगी।

  1. राल्फ फॉक्स की उपन्यास सम्बन्धी अवधारणा

   उपन्यास और लोकजीवन  में कला और उसके विकास के सम्बन्ध में फॉक्स का विवेक परिपूर्णता को प्राप्‍त होता है। फॉक्स यूरोपीय, खास तौर से ब्रिटिश साहित्य का अध्ययन करते हैं। पश्‍च‍िमी यूरोप में यथार्थवाद के विकास की माँगों के अनुरूप उपन्यास का विकसित होना, आधुनिक बुर्जुआ कला के पतन के कारणों का विश्‍लेषण करना, वर्तमान में प्रगतिशील कला के विकास के माध्यमों एवं साधनों की खोज करना आदि ऐसे विषय हैं जिन पर फॉक्स अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं।

 

उपन्यास की उत्पत्ति की समीक्षा करते वक्त फॉक्स समाज के विकास की विभिन्‍न अवस्थाओं के अनुरूप कला के विकास की अवस्थाओं का निर्धारण करते हैं। फॉक्स सामुदायिक जीवन के अनुभवों की परिपूर्ण अभिव्यक्ति के रूप में महाकाव्य का, और अतीत की अन्य रचनाओं का बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन करते हैं। अपने अध्ययन से फॉक्स इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि महाकाव्य न सिर्फ प्रकृति के विरुद्ध मनुष्य के संघर्ष का चित्रण करते हैं, बल्कि समाज के भीतर चलने वाले टकरावों को भी अभिव्यक्त करते हैं। महाकाव्य के सम्बन्ध में फॉक्स का यह प्रेक्षण बहुत महत्त्वपूर्ण है कि उत्कृष्ट कलारूप की उत्पत्ति लोकजीवन से एकाकार होकर ही सम्भव होती है। उत्कृष्ट कला का स्पष्ट लक्षण यह होता है कि जीवन की ऐन्द्रिकता का उसके विविध रूपों में साक्षात्कार करती है और जीवन के प्रति पूर्णत: समर्पित होती है। अतीत के महाकाव्यों का अध्ययन करने के बाद फॉक्स इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि आज वर्तमान समय के जीवन से सम्बन्धित महाकाव्यों की रचना के लिए सृजनात्मक उपक्रम किए जाने चाहिए। फॉक्स की मान्यता है कि हर श्रेष्ठ कलाकृति हमेशा जनता की ऋणी होती है, वह जनता के जीवन और संघर्षों को, उसकी आशाओं और आकांक्षाओं को, अभिव्यक्त करती है। ऐसी कला में लेखक अपनी रचनात्मकता के श्रेष्ठतम शिखरों को छू पाता है।

 

फॉक्स यह मानते हैं कि वर्तमान समय में उपन्यास एक महाकाव्य कलारूप है। अतीत के महाकाव्यों का अध्ययन करने के बाद फॉक्स अपना ध्यान अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अंग्रेजी उपन्यास के विकास पर केन्द्रित करते हैं। फॉक्स यह साबित करते हैं कि अठारहवीं शताब्दी के ब्रिटिश साहित्य का इतिहास वास्तव में लोकतान्त्रिक और प्रतिक्रियावादी दृष्टियों के आपसी संघर्ष का इतिहास है। ऐसा करते हुए फॉक्स, अठारहवीं सदी के साहित्य के प्रतिनिधि के रूप में स्मॉलेट और फील्डिंग को मान्यता देते हैं, एडीसन, स्टील और रिचर्डसन को नहीं, जिन्हें बुर्जुआ आलोचक प्रतिनिधि मानते हैं। साथ ही साथ फॉक्स ज़ोर देकर यह भी स्पष्ट करते हैं कि जीवन के प्रति गहन आलोचनात्मक दृष्टि रखने के कारण ही फील्डिंग और स्मॉलेट दुनिया को अपनी यथार्थवादी रचनाएँ दे पाए।

  1. उपन्यास : सामाजिक यथार्थ

    यथार्थ के चित्रण की दृष्टि से उपन्यास सबसे अधिक भरोसे की विधा मानी जाती है। कोई यथार्थ स्थिर और जड़ नहीं होता है। वह, गतिशील, परिवर्तनशील और समाज की व्यापक विकास-प्रक्रिया का हिस्सा होता है। रचनाकार जिस समाज और परिवेश में जीता है, उस समाज और परिवेश के यथार्थ का अनुभव रचनाकार अनेक रूपों में करता है। यथार्थ का सामान्य और तात्कालिक अनुभव जब विशिष्ट और सुनिश्‍च‍ित बोध बनता है तब वह रचना का विषय बनता है। सामान्य और तात्कालिक अनुभव को विशिष्ट और सुनिश्‍च‍ित बोध में रूपान्तरित करने की प्रक्रिया में रचनाकार के दृष्टिकोण की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। सामाजिक यथार्थ, यथार्थ के दूसरे रूपों से अधिक गतिशील, परिवर्तनशील और इतिहासबद्ध होता है। लेखक सामाजिक प्रक्रिया में हिस्सा लेते हुए सामाजिक यथार्थ के विभिन्‍न पक्षों और रूपों का अनुभव करता रहता है। रचना के लिए उसे अपने अनगिनत अनुभवों में से कुछ का चुनाव करना पड़ता है, उसे कुछ को अपनाना और कुछ अनुभवों को छोड़ना पड़ता है। इस चुनाव में वह यह देखता है कि विकास प्रक्रिया में सामाजिक यथार्थ का कौन-सा तथा पक्ष अधिक सार्थक और सम्भावनापूर्ण और कौन-सा रूप निरर्थक और अनावश्यक है और यह भी कि क्या प्रतिनिधिक है और क्या नहीं। यह सब देख पाने के लिए आवश्यक है कि लेखक के पास एक सुनिश्‍च‍ित दृष्टिकोण और इतिहास-प्रक्रिया की समझ हो। यथार्थ को अपने उपन्यास के विषय के रूप में चुनने की प्रक्रिया में यथार्थ के नए-नए रूप और नए पक्ष भी लेखक के सामने आते रहते हैं। सच्‍चा यथार्थवादी लेखक यथार्थ के किसी भी पक्ष पर अपने पूर्वाग्रह आरोपित नहीं करता और न ही नए उभरे पक्षों की उपेक्षा करता है। वह यथार्थ की विकास प्रक्रिया और विवेक-सम्मत परिणति को स्वीकार करता है।

 

यथार्थ की यह अभिव्यक्ति उपन्यास में सर्वाधिक सशक्त रूप में होती है। इसलिए उपन्यास की आलोचना में रचना (उपन्यास) और वास्तविक जीवन के अन्तः सम्बन्धों की चिन्ता सबसे अधिक होती है। उपन्यास के सारे सिद्धान्त इन सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं। उपन्यास में रूपवाद के अवसर बहुत कम मिलते हैं। इसलिए अधिकांश रूपवादी आलोचक कविता से या चित्रकला से अपना उदाहरण चुनते हैं। उपन्यास से नहीं चुनते। साहित्य से शुद्ध साहित्यिकता की माँग उपन्यास से नहीं की जाती। उपन्यास से जीवन की माँग ही की जाती है। इस दृष्टि से देखा जाय तो मार्क्सवादी आलोचना का प्रिय क्षेत्र उपन्यास है। दुनिया भर के मार्क्सवादी आलोचक दरअसल उपन्यास के ही आलोचक हैं। हालाँकि हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचक उपन्यास की तरफ कम ही गए। वे कविता की आलोचना मन लगाकर करते हैं।

  1. उपन्यास : विचारधारा और यथार्थवाद

    जब यथार्थ का अनुभव रचना की अन्तर्वस्तु बनता है तो उसका रचना में रूपान्तरण होता है। इस रूपान्तरण की प्रक्रिया में विचारधारा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। रचना की अन्तर्वस्तु में मूल्य-चेतना के रूप में विचारधारा विद्यमान रहती है। यथार्थ-बोध को यथार्थवाद में विकसित करने की प्रक्रिया व्यापक और जटिल होती है। इसलिए विचारधारा का यथार्थवाद से सम्बन्ध भी अधिक व्यापक और जटिल होता है।

 

यथार्थवाद और विचारधारा के सम्बन्ध का एक और पक्ष रचना में व्यक्त यथार्थ के पाठकीय ग्रहण के सन्दर्भ में प्रकट होता है। पाठक रचना के पास खाली दिमाग लेकर नहीं जाता। रचना में व्यक्त यथार्थ के बोध के समय उस यथार्थ के पाठक का अपना ज्ञान, उसका दृष्टिकोण दोनों सक्रिय रहते हैं। कई बार लेखक के यथार्थबोध और यथार्थ के प्रति दृष्टिकोण से पाठक के यथार्थबोध और यथार्थ के प्रति दृष्टिकोण की टकराहट होती है। पाठक रचना के बोध के समय व्यापक इतिहास-प्रक्रिया में अपनी स्थिति और रचना की स्थिति के बारे में सजग होता है। इस तरह विचारधारा और यथार्थवाद के सम्बन्ध का प्रश्‍न केवल रचनाकार की विचारधारा से रचना के यथार्थ से सम्बन्ध का प्रश्‍न नहीं है। यह प्रश्‍न रचना के पाठकीय ग्रहण से भी जुड़ा है।

 

किसी रचना की विचारधारा से उसके यथार्थवाद के सम्बन्ध की खोज तीन स्तरों पर हो सकती है–

  1. रचना की विचारधारा और यथार्थवाद की ऐतिहासिकता के स्तर पर
  2. रचना में दोनों के विशिष्ट स्वरूप के स्तर पर
  3. रचना की सम्‍पूर्ण संरचना में दोनों के सम्बन्ध के स्तर पर

    विचारधारा चाहे प्रभुत्वशाली हो या वैकल्पिक, उसमें सामाजिक यथार्थ के साथ किसी न किसी तरह के सम्बन्ध की अभिव्यक्ति ज़रूर होती है। यह सम्बन्ध काल्पनिक हो सकता है और वास्तविक भी हो सकता है। अपने समय के यथार्थ के साथ सम्बन्ध सभी विचारधारत्मक रूपों में एक जैसा नहीं होता।

 

उपन्यास में विचारधारा धारणात्मक और तार्किक रूप में नहीं होती। वह यथार्थ के बोध और व्यंजना के दृष्टिकोण के रूप में प्रकट होती है। यथार्थ के बोध और व्यंजना में विचारधारा की विशिष्ट भूमिका की पहचान से ही विचारधारा और यथार्थवाद के विशिष्ट स्वरूप की पहचान होती है। रचना में विचारधारा और यथार्थबोध के विशिष्ट स्वरूप से रचना की विशिष्ट संरचना का विकास होता है। यहाँ तक कि रचना की भाषा के स्वरूप में भी विचारधारात्मक प्रभाव मौजूद होते हैं। ग्राम्शी के अनुसार– “भाषा एक साथ ही जीवित वस्तु भी है और जीवन तथा सभ्यता का अजायबघर भी।” यथार्थवादी लेखक के सामने भाषा के इन दोनों रूपों में से एक के चुनाव की समस्या होती है। और, इस चुनाव से भी यथार्थ और विचारधारा के सम्बन्ध का व्यावहारिक प्रतिफलन होता है।

  1. उपन्यास में यथार्थवाद की अभिव्यक्ति के रूप

    समाज की वास्तविकता और इतिहास की गति की अभिव्यक्ति उपन्यास में कई रूपों में होती है। इन अनेक रूपों के मूलत: दो प्रकार होते हैं– अभिव्यक्ति का एक रूप प्रातिनिधिक होता है, दूसरा प्रतीकात्मक। अभिव्यक्ति की प्रातिनिधिक पद्धति का विकास उपन्यास की यथार्थवादी परम्परा में मिलता है। लेकिन कथा की प्रतीकात्मक पद्धति अधिक पुरानी है। प्रतीकात्मक कथा पद्धति के अन्तर्गत फैण्टेसी, मिथक और अद्भुत कथानकों का उपयोग होता है। बीसवीं सदी के उपन्यासों में प्रतीकात्मक पद्धति के विभिन्‍न रूपों का प्रयोग बढ़ा है। जेम्स ज्वायस और काफ्का के उपन्यास इसके उदाहरण हैं। हिन्दी में इसका एक रूप देवकीनन्दन खत्री के उपन्यासों में देखा जा सकता है तो अम्बिकादत्त व्यास के ‘आश्‍चर्यवृत्तान्त में दूसरा रूप है। कुछ महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में प्रातिनिधिक और प्रतीकात्मक पद्धतियों का मिला जुला रूप भी देखा जा सकता है। कथा की प्रातिनिधिक और प्रतीकात्मक पद्धतियों की एकता का, यथार्थवादी रचना-विधान के भीतर फैण्टेसी और मिथक के कलात्मक प्रयोग का उत्कृष्ट रूप दक्षिण अमेरिका के उन उपन्यासों में मिलता है, जिन्हें ‘जादुई यथार्थवाद’ के उपन्यास के रूप में ख्याति मिली। ‍

  1. उपन्यास का समाजशास्‍त्र

   उपन्यास के समाजशास्‍त्र की अवधारणा के विकास में जार्ज लुकाच का योगदान विशेष है। सन् 1916 में उनकी किताब उपन्यास का सिद्धान्त प्रकाशित हुई। तब लुकाच मार्क्सवादी नहीं थे। उनकी उक्त पुस्तक में पहली बार उपन्यास के दार्शनिक, ऐतिहासिक और सामाजिक स्वरूप का गम्भीर विश्‍लेषण हुआ था। इसी से प्रेरित होकर गोल्डमान जैसे समाजशास्‍त्रियों ने उपन्यास के समाजशास्‍त्र का विकास किया। स्वयं लुकाच ने यूरोपीय यथार्थवाद का अनुशीलन  जैसी पुस्तक लिखकर उपन्यास का समाजशास्‍त्र विकसित किया।

 

यों तो उपन्यास में यथार्थ के अनेक रूप और भेद बताए गए हैं, लेकिन मुख्यत: यथार्थवाद के दो रूपों का विकास उपन्यास की आलोचना में हुआ। एक है ‘आलोचनात्मक यथार्थवाद’ और दूसरा ‘समाजवादी यथार्थवाद’। जार्ज लुकाच ने समाजवादी यथार्थवाद की तुलना में आलोचनात्मक यथार्थवाद को अधिक रचनात्मक महत्त्व का माना है।

 

उपन्यास की समाजशास्‍त्रीय आलोचना में रूसी आलोचक मिखाईल बाख्तिन के विचारों ने एक नया मोड़ ला दिया। बाख्तिन ने रूपवाद की आन्तरिकता की धारणा के अतिवाद से भी उबरने की दिशा दी और साथ ही मार्क्सवाद की प्रतिबिम्बनवादी मान्यताओं को भी खारिज किया। उन्होंने भाषा और कल्पना की संवादधर्मिता पर जोर दिया। बाख्तिन के मतानुसार साहित्य के दूसरे रूपों की तुलना में उपन्यास की संवादधर्मिता में अनुभव अपने अनेक रूपों में व्यक्त होने के अवसर पाता है। उपन्यास की एक अन्यतम विशेषता यह है कि उसमें सामाजिक और वैयक्तिक, दोनों स्तरों पर विविधता का कलात्मक गठन सम्भव हो पाता है। जातीय भाषा की बोलियों, पेशे सम्बन्धी मुहावरों, साहित्यिक पदावलियों और पीढ़ियों की अभिव्यक्ति-छवियों का संयोजन होता है।

  1. हिन्दी में उपन्यास के सिद्धान्त

   हिन्दी में उपन्यास की आलोचना का प्रारम्भ 20वीं शताब्दी में प्रेमचन्द के लेखन के बाद होता है। इस दृष्टि से सेवासदन, प्रेमाश्रम  और रंगभूमि  की समीक्षाओं से यह प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। उपन्यास की इन आलोचनाओं से साहित्य के कुछ मानदण्ड सामने आए। हिन्दी में सबसे पहले उपन्यास की कलात्मकता का प्रश्‍न उठा, विशेष रूप से प्रेमाश्रम की कलात्मकता का मामला सामने आया। इस विषय पर हिन्दी में लम्बी बहस हुई, जिसमें उस काल के अनेक आलोचकों ने भाग लिया। इसके पश्‍चात रंगभूमि की आलोचना लिखते समय उपन्यास में मौलिकता और नकल का प्रश्‍न उठा। अवध उपाध्याय ने यह प्रश्‍न उठाया। इस पर हिन्दी आलोचकों के दो दल बन गए। यदि सब कुछ किसी दूसरे रचनाकार के प्रभाव से ही लिखा जा चुका है तो लेखक की मौलिकता कहाँ रहती है और यदि मौलिकता नहीं है तो सृजन का मूल्य ही क्या है ?वैसे हिन्दी आलोचना उपन्यास के सिद्धान्तों के लिए मुख्यतः अंग्रेजी आलोचना पर ही निर्भर रहने लगी।

 

हिन्दी में उपन्यास पर सैद्धान्तिक विवेचन बहुत कम लोगों ने किया है। हिन्दी आलोचना में ई.एम.फॉरस्टर की पुस्तक Aspects Of The Novel सबसे लोकप्रिय पुस्तक मानी जाती है। हिन्दी में उपन्यास का आलोचनात्मक चिन्तन व्यावहारिक समीक्षा के माध्यम से ही आया है। कुंवर नारायण ने झूठा सच  पर ‘कवि दृष्टि के अभाव’ का आरोप लगाया। इसका तात्पर्य यह है कि उपन्यास में कविता की उपस्थिति आवश्यक है। विनोद कुमार शुक्ल, निर्मल वर्मा आदि उपन्यासकारों का नाम इस सन्दर्भ में लिया जा सकता है। प्रेमचन्द, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर आदि के उपन्यासों में कवि दृष्टि का अभाव लक्षित किया जा सकता है। इसी क्रम में अशोक वाजपेयी ने कहा कि सिर्फ कवि ही श्रेष्ठ उपन्यास लिख सकते हैं। हालाँकि यह विवाद का विषय है।

  1. निष्कर्ष

   इस तरह हम देखते हैं कि उपन्यास की आलोचना का केन्द्रीय सिद्धान्त ‘यथार्थवाद’ है। यथार्थवाद की अपनी जटिलताएं हैं। उसके अनेक रूप हैं। फिर भी उपन्यास को समझने के लिए यह सिद्धान्त सबसे अधिक उपयोगी है। दूसरे उपन्यास का उदय आधुनिक युग में हुआ। उपन्यास के सिद्धान्त का निर्माण करते समय आलोचकों ने ‘उपन्यास के उदय’ के प्रश्‍न पर भी विचार किया। आलोचकों ने इस पर भी विचार किया कि उपन्यास मध्यकाल में क्यों सम्भव नहीं हुआ? फिर उपन्यास अपने साथ अपना पाठक भी लेकर आया जो नाटक के ‘दर्शक’ और कविता के ‘सहृदय’ से अलग था। इस पाठक का उपन्यास से क्या सम्बन्ध है? कैसे पाठकों ने उपन्यास की प्रगति को निश्‍च‍ित किया? इस पर सिद्धान्तकारों ने चिन्तन किया है। उपन्यास की रचना-प्रक्रिया के साथ पाठक की ग्रहण-प्रक्रिया भी उपन्यास के सिद्धान्त-निर्माण के प्रमुख बिन्दु रहें हैं।

 

साथ ही उपन्यास पर विचार करते समय, यथार्थवाद पर विचार करते हुए आलोचकों ने इस पर भी विचार किया है कि यह यथार्थ का दस्तावेज नहीं है। यह एक कला-रूप है और वर्तमान समय का महाकाव्य है। इस प्रक्रिया में आलोचकों ने यथार्थवाद की कमियों की ओर भी इशारा किया।

 

आधुनिक युग में उपन्यास ने साहित्य में वही स्थान पाने में सफलता प्राप्‍त की जो स्थान मध्य काल में महाकाव्यों को मिल सका था। यूरोप में उपन्यास को मध्य वर्ग का महाकाव्य माना गया तो भारत में उपन्यास को किसान जीवन का महाकाव्य कहा गया। हालाँकि भारतीय उपन्यास में सिर्फ किसान जीवन का ही चित्रण नहीं किया गया।

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अतिरिक्त जानें

  

बीज शब्द

  • आलोचनात्मक यथार्थवाद : वह आलोचना पद्धति जो साहित्य में अपने समय के यथार्थ के चित्रण तथा उसकी आलोचना को महत्त्व देती है।
  • समाजवादी यथार्थवाद : समाजवादी यथार्थवाद यथार्थवादी कलान्दोलन के विकास की एक मंजिल है। समाजवादी यथार्थवाद की मान्यता है कि लेखक को समाज के विकास की ऐतिहासिक अनिवार्यता के रूप में समाजवाद को स्थापित करे।
  • उपन्यास : आधुनिक युग की गद्य की एक साहित्यिक विधा।

    पुस्तकें

  1. उपन्यास का सिद्धान्त, जार्ज लुकाच, (अनुवाद आनंद प्रकाश), मैकमिलन इंडिया, बंबई-दिल्ली।
  2. उपन्यास का पुनर्जन्म, परमानन्द श्रीवास्तव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  3. हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली-5, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
  4. कथा विवेचना और गद्यशिल्प, रामविलास शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  5. शब्द और स्मृति, निर्मल वर्मा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
  6. कला का जोखिम, निर्मल वर्मा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
  7. उपन्यास और लोक जीवन , राल्फ पॉक्स, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली।
  8. उपन्यास का उदय, आयन वॉट, हरियाणा हिन्दी ग्रंथ अकादमी, चंडीगढ़।
  9. Theory of Novel, George Lukacs, Merlin Press, London.
  10. The Novel After Theory, Judith Ryan, Columbia University Press, New York.
  11. The Art of Novel, Milan Kundera, (Translation : Linda Asher), Faber, London.

    वेब लिंक्स

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/Novel
  2. https://www.youtube.com/watch?v=gDMyJb511rQ
  3. https://en.wikipedia.org/wiki/Ralph_Winston_Fox
  4. https://www.marxists.org/archive/pollitt/articles/1937/fox_tribute.htm
  5. http://www.srijangatha.com/Aalekh30May2012#.VdF8hXGqqko
  6. http://www.britannica.com/art/historical-novel