22 सिगमण्ड फ्रायड का साहित्य चिन्तन

विनोद शाही

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • फ्रायड के साहित्य-चिन्तन की प्रमुख प्रवृत्तियों को जान सकेंगे;
  • साहित्य-समीक्षक के रूप मे फ्रायड के योगदान से अवगत हो सकेंगे;
  • लि‍योनल ट्रीलिंग एवं फ्रायड के साहित्य-चिन्तन का तुलनात्मक विश्‍लेषण कर सकेंगे;
  • मनोविश्‍लेषण सम्बन्धी फ्रायड की अवधारणाओं से अवगत हो सकेंगे;
  • फ्रायड ने मनोविश्‍लेषण को साहित्य के माध्यम से किस तरह समझने-बूझने का प्रयास किया, यह भी जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

    फ्रायड का जन्म 6 मई 1856 में एक जेविश परिवार में ऑस्ट्रीया के एक कस्बे मोरावियन में हुआ था। उनकी मृत्यु 23 सितम्बर, 1939 को हुई।

 

मूलतः एक मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक होते हुए भी सिगमण्ड फ्रायड तथा उनके चिन्तन का महत्त्‍व अन्य ज्ञानानुशासनों में भी माना जाता है। साहित्य और कला के क्षेत्र में फ्रायड ने महत्त्‍वपूर्ण चिन्तन किया है। फ्रायड का नाम आते ही ‘मनोवैज्ञानिक आलोचना’ अथवा ‘मनोविश्‍लेषणवादी आलोचना’ कौंध उठती है।

 

साहित्यालोचन पर फ्रायड के सिद्धान्तों के प्रभाव का विस्तृत अध्ययन लियोनल ट्रिलिंग ने किया है। ट्रिलिंग के अनुसार साहित्यालोचन पर दिखाई देने वाला फ्रायड का प्रभाव ‘ऐतिहासिक’ है। ट्रिलिंग इसका कारण यह मानते हैं कि फ्रायड के सिद्धान्तों के सामने आ जाने के बाद साहित्यालोचन की ‘स्वच्छन्दता पद्धति’ का एक तरह से अन्त हो जाता है।

 

मनोवैज्ञानिक आलोचना में फ्रायड के साथ जुंग का भी नाम लिया जाता है। जुंग के प्रयासों से ही मनोविश्‍लेषणवादी आलोचना का विकास आलोचनाशास्‍त्र की एक महत्त्‍वपूर्ण शाखा के रूप में हो सका। जुंग के अलावा एरिक फ्राम, एरिक एरिकसन, ज्याँ लार्का और जूलिया क्रिस्तेवा को भी मनोविश्‍लेषणवादी आलोचकों के रूप में देखा जाता है। लेकिन मनोविशलेषणवादी आलोचना का जितना भी विकास अब तक हुआ, उसके मूल में फ्रायड ही हैं। इसलिए मनोविश्‍लेषण के इस पूरे उत्तर-विकास को ‘नव फ्रायडवादी आलोचना’ भी कहा जाता है।

 

जिस समय साहित्य में फ्रायड का प्रभाव शुरू हुआ उसी समय नई आलोचना, रूसी रूपवाद, मार्क्सवादी आलोचना का भी उभार होना शुरू हो चुका था। इन आलोचना पद्धतियों में ‘भाषा’ और ‘समाज’ की ‘संरचनाएँ’ केन्द्र में आ रही थीं।

 

फ्रायड ने ‘संरचनावादी’ आलोचना परिदृश्य में ‘मन की संरचनाओं’ वाले क्षेत्र को जोड़ कर एक तरह की वैचारिक क्रान्ति प्रस्तुत कर दी थी। फ्रायड के आलोचना को साहित्य के अध्ययन में दिए योगदान के बारे में ठीक से समझने के लिए जरूरी है कि हम उस दौर में प्रकट हो रहे ‘संरचनावादी चिन्तन’ की प्रमुख आधारभूमियों को सम्यक रूप में आत्मसात करें। फ्रायड ने इसी चिन्तन धारा को एक नया आयाम दिया था।

  1. साहित्य चिन्तन का उद्देश्य

    फ्रायड के मनोविज्ञान-मनोविश्‍लेषण सम्बन्धी कार्य के अन्तर्गत प्रसंगवश हुए ‘साहित्य-चिन्तन’ का क्या उद्देश्य रहा होगा, इसे निम्‍नलि‍खि‍त रूप में समझने का प्रयास किया जा सकता है-

 

सहयोगी की भूमिका : फ्रायड अपने मनोविज्ञान-मनोविश्‍लेषण की धारणाओं-सिद्धान्तों की सम्यक, बोधगम्य और गहन व्याख्या करने के लिए साहित्य को सहयोगी रूप में देखते थे। वे कवियों, उपन्यासकारों, नाटककारों और कलाकारों की कृतियों का उल्लेख दृष्टान्तों के रूप में करते थे। जिन कृतियों और लेखकों से पाठक पहले से परिचित होते थे, उनके उल्लेख से वे अपनी धारणाओं को एक परिचित भंगिमा देने में सफल हो पाते थे। इससे उनके विश्‍लेषण अधिक विश्‍वसनीय तो होते ही थे, साथ ही वे अधिक गहराई में भी उतर पाते थे। इसका कारण यह था कि साहित्य अपने आप में ‘एक गहन मनोवैज्ञानिक यथार्थ’ का आईना बनकर उनके यहाँ आता था।

 

विश्‍लेषण वस्तु के रूप में : फ्रायड ने जहाँ अपने मनोविज्ञान-मनोविश्‍लेषण को अधिक स्पष्ट-सुसंगत बनाने के लिए साहित्य का दृष्टान्‍त के रूप में उपयोग किया, वहाँ उन्होंने स्वयं साहित्य को भी अपने मनोविज्ञान-मनोविश्‍लेषण के सिद्धान्तों-धारणाओं की व्याख्या आधारवस्तु की तरह भी देखा। इससे साहित्य और साहित्यकारों के व्यक्तित्व के भीतर ‘छिपे हुए मनोवैज्ञानिक निहितार्थों’ को समझने में सहायता मिली। फ्रायड के ये विश्‍लेषण ही आगे चलकर साहित्यालोचन की अलग पद्धति के रूप में विकसित हो सके। इस क्रम में फ्रायड ने तीन चीजों पर सर्वाधिक ध्यान केन्द्रित किया-

  1. लेखक का व्यक्तित्व
  2. पात्रों का व्यक्तित्व
  3. घटनाओं व पंक्तियों से सम्बद्ध मानव व्यवहार
  1. फ्रायड के साहित्य-चिन्तन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ, रूप व आयाम

   फ्रायड के साहित्य-चिन्तन को समझने के लिए पहले जरूरी है कि हम उनकी मनोविज्ञान-मनोविश्‍लेषण सम्बन्धी प्रमुख धारणाओं पर संक्षिप्‍त नजर डालें, क्योंकि उन्हें ही उनके साहित्य-चिन्तन की जमीन की तरह इस्तेमाल में लाया गया है।

  • फ्रायड की मौलिक देन मनोविज्ञान-मनोविश्‍लेषण के सन्दर्भ में उनकी ‘अचेतन की खोज’ है। अचेतन को वे मनो-प्रवृत्तियों का क्षेत्र मानते हैं, जिसकी अभिव्यक्ति सामान्य रूप में सचेतन मन के द्वारा नहीं हो पाती।
  • सचेतन मन को वे अहम का क्षेत्र मानते हैं, जिसकी अन्तर्संरचना के लिए समाज का सभ्यताकरण मुख्यतः जिम्मेदार होता है। सामाजिक रिश्ते और सामाजिक-सांस्कृतिक नियम जिन मनोवृत्तियों को तर्क-संगत रूप में अभिव्यक्ति की अनुमति देते हैं, उनके द्वारा ‘अहम’ गठित होता है।
  • मनोरोग इस बात का सबूत हैं कि वे देह के ‘ठीक’ हो जाने पर भी ठीक न होने के कारण मन के किसी ऐसे क्षेत्र में पनपते हैं, जिन्हें अचेतन मन का क्षेत्र कहा जाता है। मनोरोगों का कारण मुख्यतः दमित काम-प्रवृत्तियाँ होती हैं, जो मनुष्य में प्रकृति के द्वारा दी गई स्वभाविक प्रवृत्तियों की तरह होती हैं। फ्रायड प्रकृति प्रदत्त प्रवृत्तियों को ‘लिबिडो की ऊर्जा’ से युक्त मानते हैं, जिसका क्षेत्र ‘इदम्’ है। ‘इदम्’ भी ‘अचेतन’ के भीतर रहता है।
  • सभ्यता के विकास का आधार है परिवार। परिवार तब बनता है, जब काम प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति को ‘माता’, ‘पिता’ से; ‘बहन’ और ‘भाई’ को अलग कर लिया जाय। ये चार रिश्ते मूल दमन क्षेत्र हैं। यहाँ कामाभिव्यक्ति हो ही नहीं सकती। अतः मां और पिता के प्रति आकर्षण ‘काम के बन्‍ध्‍याकरण’ का रूप लेकर ‘कुण्‍ठा’ में बदल जाता है। फ्रायड इसे ‘ईडिपस ग्रन्‍थ‍ि’ से जोड़ते हैं।
  • कबीलों के रीति-रिवाज, धर्म, संस्कृति के जो नियम पिता या माता को ‘देवता’ या ‘देवी’ का दर्जा देते हैं, वे एक तरफ विधि निषेध की मर्यादा का रूप लेते हैं, तो दूसरी तरफ कामवृत्ति के उदात्तीकरण का।
  • उदात्तीकरण से चित्त का तीसरा विभाग ‘सुपर-ई’ पैदा होता है, वह काम दमन को मनोरोगों में बदलने से बचाता है। साहित्य भी इसी उदात्तीकरण की प्रक्रिया का एक हिस्सा है।
  • मनोवृत्तियों के दमन से अति-आग्रही व्यवहार पैदा होता है, जिससे ‘न्यूरोसिस’ उपज सकता है। और दमन का प्रतिरोध करने पर विकल्प की तलाश में जो लोग सामाजिक नियमों की मर्यादाओं के पालन की चेतना भी खो देते हैं, उससे विक्षिप्‍तता या पागलपन के करीब की एक स्थिति पैदा होती है, जिसे ‘पैरानोया’ कहते हैं।
  • फ्रायड के साहित्य सम्बन्धी विवेचनों में उपर्युक्त उदात्तीकरण, न्यूरोसिस तथा पैरानोया की धारणाओं का भरपूर प्रयोग व उपयोग किया गया है।
  • फ्रायड के अनुसार ‘स्वप्‍न’ अचेतन में प्रवेश करने के लिए कुंजियों का काम करते हैं। स्वप्‍न एक तरह से अचेतन के दमित व्यवहारों द्वारा रचे गए आख्यान होते हैं। उनकी भाषिक संरचना प्रतीकात्मक होती है। फ्रायड के स्वप्‍न विवेचन भी उनकी साहित्य सम्बन्धी धारणाओं के लिए बेहद उपयोगी साबित हुए हैं, क्योंकि उन्होंने साहित्य को एक तरह के ‘दिवा स्वप्‍न’ की तरह देखने का प्रयास किया है।

    अब हम उपर्युक्त धारणाओं के आलोक में फ्रायड के साहित्य-चिन्तन पर सविस्तार चर्चा कर सकते हैं।

  1. साहित्य-समीक्षक के रूप में फ्रायड

    फ्रायड ने जिन साहित्यिक कृत्तियों और उनके लेखकों पर एक मनोविश्‍लेषक के रूप में ‘समीक्षात्मक’ व्याख्याएँ प्रस्तुत की, उनमें से कुछ मुख्य इस प्रकार हैं

  1. ‘सोफोक्लीज़’ और उनका नाटक ‘इडीपस’ : इडीपस ग्रीक साहित्य का विश्‍व प्रसिद्ध नाटक है। इसमें इडीपस के अपनी माँ के प्रति आकर्षण के मिथकीय आख्यान को आधार बनाया गया है। फ्रायड की इस सन्दर्भ में विश्‍लेषणात्मक टिप्पणी है कि ऐसे आख्यान दमित काम-व्यवहारों को अभिव्यक्ति प्रदान करके समाज के अंग को अभिव्यक्ति के लायक बनाते हैं। साहित्य ऐसी अभिव्यक्ति को ‘सौन्दर्य शास्‍त्रीय’ रूप दे कर उसके उदात्तीकरण में मदद करता है।
  2. ‘गेटे’ और उनका महाकाव्य ‘फाउस्ट’ : फ्रायड ने इस महाकाव्य की सविस्तार व्याख्या व चर्चा की है। इसमें मेफिस्टोफेलीस नामक पात्र, फाउस्ट को अपनी ‘आत्मा’ देने के लिए कहता है और बदले में वह सब वायदा करता है जो अन्यथा सभ्य समाज में उसके लिए निषिद्ध और दमित है। फ्रायड कहते हैं कि यह महाकाव्य प्रमाण है कि ‘नैतिक चेतना व उसके मूल्य’ ही मूल मनोवृत्तियों के ‘दमन’ के मुख्य कारण हैं। दूसरी ओर ‘लालसा भड़काने’ वाला मेफिस्टोफेलीस, फ्रायड के अनुसार समाज के अति नियामक की भूमिका में नज़र आता है, जो भिन्‍न या वैकल्पिक मर्यादाओं और व्यवहारों का स्रोत हो जाता है। इस तरह वह ‘अचेतन’ के ‘इदम्’ प्रतिनिधि के रूप में फाउस्ट के अहम का नव नियामक होना चाहता है।
  3. ‘शेक्सपीयर’ के नाटक हेमलेट, द टेम्‍पेस्ट एवं जूलियस सीजर: ‘हेमलेट’ को फ्रायड ‘अहम’ की दुविधा की पद्धति के रूप में देखते हैं। द टेम्‍पेस्ट में निरजन द्वीप पर पहुँचा ‘प्रास्पेट’ एक तरह का ‘दिवास्वप्‍न’ है। जो अचेतन में प्रवेश के आख्यान में रूपायित हो जाता है। सीजर और ब्रूटस जैसे पात्र, फ्रायड के अनुसार हत्या जैसे दमित असामाजिक व्यवहारों के प्रति अहम की दुविधा भाव को हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं।
  4. दोस्तोयवस्की और उनका ब्रदर्ज करमाजोव एवं क्राइम एण्ड पनिश्‍मेण्‍ट : फ्रायड के अनुसार स्वयं दोस्तोयवस्की का व्यक्तित्व मनोविश्‍लेषण के लिए एक महत्त्‍वपूर्ण आधार है। ब्रदर्ज करमाजोव के नायक के माध्यम से हम लेखक के अचेतन में प्रवेश के लिए अर्थपूर्ण प्रयास कर सकते हैं। दूसरी ओर क्राइम एण्ड पनिश्‍मेण्‍ट से अपराध-मनोविज्ञान एवं ईसाई संस्कृति के दमनकारी प्रभावों के अध्ययन के लिए आधार बनाया जा सकता है।
  5. जासूसी कथाएँ : फ्रायड जासूसी कथाएँ पढ़ने का शौक रखते थे। उन्हें मानव चित्त के अचेतन-जगत में प्रवेश के लिए सर्वाधिक उपयोगी आख्यानों या दिवास्वप्‍नों की तरह देखते थे। अनेक साहित्यालोचकों का विचार है कि फ्रायड के मनोरोगियों की स्वप्‍नों की केस-हिस्ट्री पढ़ने पर ऐसा लगता है जैसे हम किसी जासूसी कथा को पढ़ रहे हों। इससे मनोविश्‍लेषण पद्धति तथा साहित्य के कथावस्तु के गठन-निर्माण की प्रक्रियाओं के बीच जो समानता है, उसके रेखांकन के लिए आधार बनाया जा सकता है।
  6. माइकेल एंजेलो का मोजेज व लियोनार्दो द विंची की मोनालिजा : माइकेल एंजेलो के मोजेज की कलाकृति के द्वारा फ्रायड एकेश्‍वरवाद की उत्पत्ति में मोजेज की भूमिका से जुड़े अनेक सूत्रों की मौजूदगी देख पाते हैं। यह उनके अभिव्यक्ति पक्ष हैं और उनकी यहूदियों द्वारा की गई हत्या इसका ‘दमन पक्ष’ है। यहाँ ‘सुपर ईगो’ से सम्बद्ध उदात्तीकरण और दमन की प्रक्रियाओं के अध्ययन के लिए महत्त्‍वपूर्ण प्रयास किया गया है।मोनालि‍जा के माध्यम से फ्रायड काम के मूल प्रवृत्ति के दमन व उसके सौन्दर्यशास्‍त्रीय समाजीकीकरण पर विचार करते हैं।

    7. लियोनल ट्रीलिंग एवं फ्रायड का साहित्य-चिन्तन

 

फ्रायड के मनोविज्ञान एवं मनोविश्‍लेषण की धारणाओं व सिद्धान्तों का प्रभाव साहित्य के अध्ययन व आलोचना की पद्धतियों पर किस रूप में पड़ा है–इसका सर्वाधिक चर्चित अध्ययन लियोनल ट्रीलिंग द्वारा प्रस्तुत किया गया है। उनके अध्ययन के निष्कर्ष संक्षेप में इस प्रकार हैं–

  1. रोमानी युग का अन्त : फ्रायड ने ‘कल्पना’ एवं ‘भाव’ जैसी साहित्य की ‘आधार सामग्री’ की वैज्ञानिक रूप से व्याख्या को सम्भव बना दिया। परिणामस्वरूप स्वच्छन्दतावादी कल्पना एवं भाव की सामाजिक सभ्यताकरण की दमनकारी प्रक्रियाएँ संरक्षित रूप में देखे जाने लगे। इससे कल्पना की ‘समन्वयात्मक भूमिका’ को ज्यादा महत्त्‍व देने वाली स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्तियों का प्रभाव कम हो गया। इसे ट्रीलिंग ‘इस युग के अन्त’ के पर्याय के रूप में देखते हैं।
  2. मानव व्यवहारों का व्याख्येय होना : साहित्य में कथावस्तु की संरचना एवं पात्रों के व्यवहारों के मद्देनजर फ्रायड के मनोविश्‍लेषण सि‍द्धान्‍त की समझ व्‍याख्‍येय है। ट्रीलिंग का मत है कि फ्रायड के सिद्धान्तों के प्रकाश में आने के बाद लगने लगा कि ‘सभी मानव व्यवहार व्याख्येय होते हैं’ और साहित्यालोचन के समय उनके सन्दर्भ में प्रचलि‍त ‘रहस्यमयता’ का अन्त हो गया।
  3. मन की त्रिकोष्ठीय संरचना से जुड़ी वैज्ञानिकता : फ्रायड के चिन्तन ने मन की, रहस्यमयता को नकार दि‍या, उसे अचेतन-चेतन-अतिचेतन या इदम्-अहम-अति-अहम वाले त्रिकोष्ठीय रूप में विभक्‍त कर दिया। फलस्‍वरूप प्रागैतिहासिक सभ्यताकाल से लेकर धर्म-संस्कृति मूलक अग्रविकास से जुड़े ‘समाजेतिहास’ के साथ द्वन्द्वात्मक रिश्ता बनाने में मन कामयाब हो गया। इससे साहित्य में मौजूद ‘मन’ से सम्बद्ध विवेचन क्रान्तिकारी रूप में बदल गए।
  1. फ्रायड के मनोविश्‍लेषण एवं साहित्यलोचन में पद्धति-मूलक समान्तारताएँ

   फ्रायड के मनोविश्‍लेषण में मनोरोगियों के अध्ययन के लिए तथा मनोविज्ञान में सामान्य मनोजागतिक अध्ययन के लिए जिन पद्धतियों का विकास हुआ, उन्हें साहित्यलोचन में भी भिन्‍न रूप से आलोचना की पद्धतियों के रूप में विकसित करने का प्रयास होता रहा है। ये पद्धतियाँ मुख्यतः निम्‍नलि‍खि‍त हैं–

 

1. व्यक्ति के अध्ययन की पद्धति : फ्रायड ने ‘व्यक्तित्व मनोविज्ञान’ के रूप में व्यक्तित्वों के निर्धारण का प्रयास किया। इस सन्दर्भ में उनकी मान्यता थी कि व्यक्तित्व को ‘लक्षण मूलक’ रूप में देखने पहचानने का सन्दर्भ केवल मनोरोगों की पहचान के लिए लाभदायक होता है; जबकि साहित्य में लेखकीय और पात्रगत व्यक्तित्व के सन्दर्भ में प्रवृत्तियों को आधार बनाया जाना चाहिए।

 

   फ्रायड लेखकों व पात्रों में अनेक मनोरोगों के लक्षण अवश्य देखते थे, परन्तु यह भी मानते थे कि लेखकों में ‘रोगग्रस्त व्यवहार’ करने की बजाय ‘रोग के लक्षणों की सभ्यतामूलक व्यवस्था के पक्ष में संचालन करने’ तथा ‘लक्षणों पर नियन्‍त्रण कर वापसी करने’ की क्षमता भी होती है।

 

2. स्मृतियों की असंगत-शृंखला पद्धति एवं साहित्य के ‘पाठकीय पाठ’ में समान्तारता : फ्रायड मनोरोगियों के उपचार के लिए इस पद्धति का इस्तेमाल करते थे। जैसे कि मनोरोगियों को एकान्‍त कक्ष में बिठा कर उसके सामने कोई पेण्‍टिंग रख दी जाए या उसे कोई कविता पढ़ने को दे दी जाए और फिर उससे कहा जाए कि उसके मन में जो कुछ भी आता हो– तर्कसंगत हो या न हो, वे बोल कर अभिव्यक्त करें। इसे वे एक बिम्ब से उपजी स्मृति की अन्य स्मृतियों से आसंगता की शृंखला को उद्बोधित करने की पद्धति कहते थे। इससे वे अचेतन से सम्बद्ध स्मृतियों तक पहुँचने का प्रयास करते थे।

 

अनेक साहित्यकारों की राय है कि उत्तर-आधुनिक आलोचना में ‘पाठकीय पाठ’ की जिस पद्धति का विकास हुआ है, उसकी जड़ें, कहीं न कहीं, फ्रायड की स्मृति-आसंगता पद्धति में है। हालाँकि ‘पाठकीय पाठ’ उसी पाठ कि अनुमति देता है, जो तर्कसंगत मालूम होता है। तथापि साहित्य के सामूहिक अचेतन से रिश्तों को स्पष्ट करने वाले अर्थों का उद्बोधन भी इस पद्धति का एक मकसद होता है, जो इसे नव-फ्रायडवादी रूप प्रदान करता है।

 

3. फ्रायड की केस हिस्ट्री तथा साहित्य में कथावृत्त से सम्बद्ध आलोचना-सिद्धान्त : फ्रायड स्मृतियों की आसंग श्रृंखला की जो केस हिस्ट्री लिखते थे, उसका रूप साहित्य की कथावस्तु जैसा होता था। कुछ आलोचक ‘केस हिस्ट्री’ को अचेतन की कोख में जन्मी जासूसी कथा तक कहते हैं। साहित्य में कथा, समाज के सामूहिक अचेतन  की व्यंजना करने का प्रयास करती है। इस प्रकार कथावृत्त से सम्बद्ध आलोचना-पद्धतियों के भी नए रूप सामने आते हैं।

  1. फ्रायड के चिन्तन में साहित्यलोचन के बीज या सूत्र-रूप

   फ्रायड मूलतः मनोवैज्ञानिक-मनोविश्‍लेषक थे, साहित्यलोचक नहीं। अतः उनके चिन्तन में ‘स्पष्ट विकसित साहित्य-चिन्तन’ का खोजना सम्भव नहीं है, तथापि उनकी अनेक धारणाएँ साहित्यलोचन की भी अविकसित धारणाएँ बन कर सामने आती हैं।

  1. अचेतन के गहनतम क्षेत्रों के यायावर हैं कवि दार्शनिक : फ्रायड ने यह बात स्वीकार की है कि ‘अचेतन की खोज करनेवाले लोग हैं कवि और दार्शनिक’। पाठक या आलोचक इस खोज का श्रेय खुद नहीं ले सकते। अपने बारे में उन्होंने स्पष्ट किया है कि अगर आप अचेतन की खोज के सन्दर्भ में मुझे कोई श्रेय देना चाहते हैं तो वह इतना है कि मैंने कवियों के द्वारा खोजे गए अचेतन को समझने के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों का विकास किया है।
  2. कवियों-लेखकों के विषयों व भाषा रूपों के चुनाव उनके अचेतन की कुंजियाँ हैं :  फ्रायड का मानना था कि कवि-लेखक जिन विषयों का चुनाव करते हैं और उनकी अभिव्यक्ति के लिए जिन विधाओं या भाषा रूपों को चुनते हैं—वे सभी चुनाव हमें लेखकों के अचेतन-व्यक्तित्व का पता देते हैं। इस तरह ‘कृतियों तथा लेखकों के व्यक्तित्व को समझ कर उनकी व्याख्या करना’ दो प्रक्रियाएँ नहीं हैं, एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं।
  3. कृतियाँ ‘अहम’ के ‘कल्पना-व्यापार’ से जन्म लेती हैं, जो अचेतन व अति-अहम का सामाजिक सन्दर्भ में अनुकूलन करती हैं : फ्रायड ने अहम की अनुकूलन की प्रवृत्ति को साहित्य की रचना के लिए भी एक हेतु माना है। फ्रायड के अनुसार कृतियाँ बोलती तो अहम की भाषा हैं, पर उसके पीछे से अभिव्यक्त हो रहे होते हैं–अचेतन व अति-अहम। इसलिए साहित्य मानव चित्त की समग्र समझ के लिए ‘आधार वस्तु’ है।
  4. साहित्य इच्छा-पूर्ति की सौन्दर्यशास्‍त्रीय रसोपभोग में बदलता है : साहित्य को फ्रायड अधूरी या अनभिव्यक्त इच्छाओं की अभिव्यक्ति का एक वैकल्पिक रूप मानता है। ये इच्छाएँ मुख्यतः कामोपभोग मूलक होती हैं, परन्तु इससे कामोपभोग का एक उदात्त समाजीकरण हो जाता है। ऐसा कामोपभोग के सौन्दर्यशास्‍त्रीय रसोपभोग का रूप लेने के कारण होता है। अनेक आलोचक फ्रायड की इस धारणा को अरस्तू के विरेचन से सम्बद्ध नवफ्रायडवादी चिन्तन का आधार मानते हैं।
  5. साहित्य की मनोवृत्ति के रूप में सौन्दर्य एक ‘महाव्यवहारिकी’ है : सौन्दर्य-चेतना को फ्रायड ‘सामाजिक अथवा प्राकृतिक’ वस्तु या प्रवृत्ति नहीं मानते। उनके अनुसार वह ‘काम’ की मूल वृत्ति का ही एक ‘महाव्यवहारिकी’ वाला पहलू है जो शेष सब प्रवृत्तियों को अपने ‘आकर्षण’ या ‘सम्मोहन’ में ले आता है। आकर्षण कामवृत्ति का एक पहलू है और सम्मोहन का आधार है, किशोर काल का आत्ममुग्धता-भाव। फ्रायड ने खुद अपने मित्र ब्रुअर से ‘सम्मोहन पद्धति’ सीखी थी, जिसे वे अचेतन में प्रवेश का द्वार मानते थे। साहित्य सौन्दर्य-चेतना द्वारा अचेतन को चेतन के लिए बोध लाता है।

    अनेक आलोचक मानते हैं कि फ्रायड ने साहित्य के सौन्दर्यशास्‍त्र की अधूरी व्याख्या की है। वह हमें मन के ‘अचेतन लोक’ तक तो ले जाती है, परन्तु इससे स्पष्ट नहीं होता कि  साहित्य के स्वरूप की व्याख्या के लिए भी यह सौन्दर्यशास्‍त्र उपयोगी है।

 

6. साहित्य दिवास्वप्‍न-पाठ होता है : फ्रायड ने साहित्य को दिवास्वप्‍न से उपजने वाली ‘डिल्यूजन की विक्षेपावस्था’ का उत्पाद माना है। विक्षेप की स्थिति के गहरा जाने से यह ‘डिल्यूजन’ दो रूपों में प्रकट हो सकता है।

 

एक : न्यूरोसिस की दशा को फ्रायड अति-चिन्ता से उपजनेवाली विवश आग्रहवादी मानसिकता का उत्पाद मानते हैं। लेखकों में चित्त के व्यक्तिगत, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप देखे जाते हैं और मताग्रही होने के प्रमाण उनकी विविध विचारधाराओं से प्रतिबद्धताओं में नजर आते हैं।

 

दो : पैरानोआ की दशा में चित्त के विवश-आग्रहवादी रूप द्वारा विकल्प की तलाश की जाने लगती है। चित्त सामाजिक दमनवाली सभ्यता-व्यवस्था से राजी नहीं होता। लेखक साहित्य में इस दशा का इस्तेमाल कर वैकल्पिक समाज का भावमूलक निर्माण कर लेते हैं।

 

एक तीसरी दशा भी हो सकती है जिसे ‘स्किजोफ्रेनिया’ या व्यक्तित्व का विभाजन कहा जाता है। इस दशा में खुद रचा-गढ़ा गया विकल्प भी ‘यथार्थ’ की शक्ल ले लेता है। लिखते वक्त लेखक जब ‘अन्य पात्रों’ के रूप में बोलते हैं तो वे आंशिक स्किजोफ्रेनिया की दशा में होते हैं।

 

फ्रायड मानते हैं कि लेखक में अपने दिवास्वप्‍न-लोक तथा उसके विक्षेपावस्थागत रूपों से यथार्थ में वापसी की अद्भुत क्षमता होती है। अतः लेखक को हम मनोरोगी नहीं कह सकते।

 

7. स्वप्‍नभाषा विश्‍लेषण में साहित्यालोचन की अर्थमीमांसा के तत्त्व बीज रूप में छिपे होते हैं:

फ्रायड स्वप्‍नों की ‘केस हिस्ट्री’ की भाषा के अध्ययन से इस नतीजे पर पहुँचे थे कि स्वप्‍न प्रतीक रूप में संरचित होते हैं।

 

साहित्य की भाषा को पहले से ही प्रतीक-भाषा के रूप में देखा-समझा जाता रहा है।

 

फ्रायड ने स्वप्‍नों की प्रतीक भाषा से अर्थ ग्रहण के लिए जिन प्रक्रियाओं का विकास किया, वे अब साहित्य की भाषा के अध्ययन के लिए अर्थमीमांसीय पद्धतियों के रूप में नई शक्ल में विकसित हो रही हैं। यहाँ संक्षेप में फ्रायड की स्वप्‍न-भाषा विश्‍लेषण की प्रक्रियाओं का उल्लेख किया जा रहा है–

  • क. संघनन (कण्‍डेनसेशन)- बहुत से अर्थबिम्बों को एक बिम्ब के रूप में गठित करना।
  • ख. विस्थापन
  • ग. प्रतिनिधित्व
  • घ. समन्वयन
  • ङ. गुह्य का उद्घाटन
  • च. प्रतीकार्थ की वापसी
  • छ. मूल में वापसी
  • ज. चयन-वृत्ति
  • झ. प्रक्षेपण
  • ञ. पूर्व स्थिति में वापसी अथवा नकार
  1. फ्रायड का उप-साहित्य-विधा चिन्तन :

    फ्रायड ने अनेक उप-साहित्यिक विधाओं पर अपने विचार व्यक्त किए हैं, जिन्हें आलोचकों द्वारा साहित्य की ‘मुख्य विधाओं’ के अध्ययन के लिए भी उपयोगी आधार-सूत्र माना जाता है। ये उप-साहित्य विधाएँ हैं–

 

क. चुटकुले      :    फ्रायड चुटकुलों को सभ्य समाज के दमनकारी नैतिकतावादी नियन्‍त्रण के दबाव को कम करनेवाले रचनाकर्म का उदाहरण माना है।

ख. गालियाँ      :    इन्हें बुरे चुटकुलों के समानान्‍तर रखा जा सकता है।

ग. मिथक        :    फाउस्ट के सन्दर्भ में इडीपस  आदि के फ्रायड के अध्ययन का पूर्वोल्‍लेख हो चुका है।

घ. फोटो         :    पेण्‍टिंग के सन्दर्भ में पूर्वोल्‍लेख हो चुका है।

  1. निष्कर्ष :

     एक साहित्यालोचक न होते हुए भी बतौर मनोवैज्ञानिक-मनोविश्‍लेषक, फ्रायड ने जो महत्त्‍वपूर्ण कार्य किए, उसने साहित्य की आलोचना के क्षेत्र में उनका दूरगामी प्रभाव पड़ा।

 

फ्रायड ने विश्‍लेषण साहित्य की आलोचना के सन्दर्भ में अनेक महत्त्‍वपूर्ण धारणाएँ प्रस्तावित कीं, जिन्हें आधार बनाकर अनेक नई आलोचना पद्धतियों का बाद में विकास सम्भव हो सका। इनमें नवफ्रायडवादी अर्थमीमांसा, नव फ्रायडवादी स्‍त्रीवादी आलोचना आदि प्रमुख हैं।

 

उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट हो जाता है कि फ्रायड विश्‍व आलोचना के अग्रविकास की सम्भावित दिशाओं की खोज की दृष्टि से अभी तक प्रेरक का काम कर रहे हैं। मानना चाहिए की फ्रायड प्रासंगिकता बरकरार है।

you can view video on सिगमण्ड फ्रायड का साहित्य चिन्तन

 

अतिरिक्त जानें

बीज शब्द

  1. मनोविज्ञान : मनुष्य के कार्यकलाप में तथा पशुओं के आचरण-व्यवहार में वस्तुगत यथार्थ के मानसिक परावर्तन के उद्भव तथा प्रकार्यात्मकता के नियमों से सम्बन्धित विज्ञान।
  2. मनोविश्लेषण : तंत्रिकीय तथा मानसिक विकारों का फ्रायड द्वारा सुझाया गया एक सिद्धान्त तथा उपचार विधि। फ्रायडवाद का एक सैद्धान्तिक आधार।

    पुस्तकें

  1. फ्रायड : मनोविश्लेषण, सिगमण्ड फ्रायड, राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली।
  2. मनोविश्लेषण और साहित्यालोचन, के. अहमद, (अनुवाद : देवेन्द्र नाथ शर्मा), भारती भवन, पटना।
  3. समीक्षा और मनोविश्लेषण, डॉ. फूलबिहारी शर्मा, मैसर्स प्रेस लिंकर्स, अलीगढ़।
  4. Sigmund Freud : Life and Work, Earnest Jones, Hogarth Press, London.
  5. Sigmund Freud, Robert Bocock, Tavistock Publishers, London, New York.
  6. The Major Works of Sigmund Freud, Encyclopaedia Britannica, Chicago.
  7. Freud’s theory and it’s use in literary and cultural studies : An introduction, Henk de Berk, Camden house, New York.
  8. The Interpretation of Dreams, Sigmund Freud, (Translated by A.A. Brill), Modern Library, New York.
  9. Freud, Proust and Lacan : theory as Fiction, Malcolm Bowie, Cambridge University Press, Cambridge, New York.

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