21 अस्तित्ववाद
विनोद शाही
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–
- अस्तित्ववाद के स्वरूप से परिचित हो सकेंगे।
- अस्तित्ववाद से जुड़े प्रमुख चिन्तकों और लेखकों के बारे में जान सकेंगे।
- अस्तित्ववाद के आरम्भ के इतिहास के बारे में जान सकेंगे।
- अस्तित्ववाद और भारतीय दर्शन के आपसी रिश्ते को समझ सकेंगे।
- साहित्य पर अस्तित्ववाद के प्रभाव को समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
अस्तित्ववाद एक ऐसा दर्शन है जो व्यक्ति के अस्तित्व, आजादी और चुनाव को महत्त्व देता है। किसी विशेष विचार या प्रत्यय के स्थान पर व्यक्ति के अस्तित्व को महत्त्व देने वाले दर्शन को अस्तित्ववाद के नाम से जाना जाता है। इस दर्शन के अनुसार सारे विचार या सिद्धान्त व्यक्ति की चिन्ता के ही परिणाम हैं। पहले चिन्तन करनेवाला मानव या व्यक्ति ही अस्तित्व में आया, अतः व्यक्ति ही प्रमुख है, विचार और सिद्धान्त गौण।
अस्तित्ववाद मानता है कि दुःख और अवसाद को जीवन के मूल हिस्से के रूप में स्वीकार करना चाहिए। अस्तित्ववादियों का मानना है कि दुःख या संकट की घड़ी में ही व्यक्ति को अपने अस्तित्व का ज्ञान होता है। इसलिए मनुष्य को दुःख और संकट का निषेध नहीं करना चाहिए। दॉस्तोयवस्की ने भी कहा है कि ‘यदि ईश्वर के अस्तित्व को मिटा दें तो फिर सब कुछ सम्भव है।’
- अस्तित्ववाद की शुरुआत
अस्तित्ववाद का प्रारम्भ जर्मनी दार्शनिक किर्केगार्द के चिन्तन से हुआ। किर्केगार्द हीगल के विचारों के विरोधी थे। उनके अनुसार केवल व्यक्ति सत्य है, कोई विचार या सिद्धान्त व्यक्ति से बड़ा नहीं है। कोई नियम मनुष्य की स्वतंत्रता से बड़ा नहीं है। मनुष्य के मन में परस्पर विरोधी विचार आते हैं। जिनसे मन में द्वन्द्व होता है। संघर्ष होता है। इस की पीड़ा होती है। इस पीड़ा को वह सहन करता है। इसी पीड़ा से वह कुछ निर्णय लेता है। यह निर्णय उसकी स्वतंत्रता है। भय और वेदना से हमें अपने अस्तित्व का बोध होता है। तब हम मृत्यु का एहसास करते है। इस तरह किर्केगार्द इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हमें अपने ‘होने’ का, अस्तित्व का बोध अपने भीतर से होता है। इसका तात्पर्य यह है कि अस्तित्ववाद के अनुसार सत्य आत्मगत होता है, वस्तुगत नहीं।
विद्वानों का विचार है कि किर्केगार्द की मृत्यु तक अर्थात 1855 ई. तक अस्तित्ववाद का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। उनकी मृत्यु के कई वर्षों बाद दार्शनिकों ने किर्केगार्द के महत्त्व को पहचाना। इनकी परम्परा में और अस्तित्ववादी दार्शनिक आए। इनमें कार्ल यास्पर्स, मार्टिन हाइडेगर,ज्याँपाल सार्त्र, अल्बेयर कामू आदि मुख्य है।
इस अस्तित्ववाद की दो धाराएँ है। एक धारा ईश्वर के अस्तित्व को मानती है। अतः उन्हें आस्तिक अस्तित्ववादी कहा जाता है। दूसरी धारा नास्तिक है, जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानती। किर्केगार्द आस्तिक और सार्त्र नास्तिक अस्तित्ववादी माने जाते हैं।
पदार्थ और चेतना का द्वन्द्व दर्शन का प्रिय विषय रहा है। कुछ दर्शन इस तरह के अद्वैत मूलक सरलीकरणों से उबारने का काम करते हैं जो ‘द्वैतवाद’ को नई शक्ल में वापस ले आते हैं। ‘नई शक्ल’ का मतलब यह है कि ये दर्शन पदार्थ और चेतना को एक दूसरे का उत्पाद मानते हुए यह भी कहते हैं कि जब दोनों, जब एक दूसरे से रिश्ता बनाते हैं, तो दोनों ‘अपने आप में’ वस्तुगत-यथार्थ होते हैं। दोनों की ‘अपने तौर पर’ एक स्वायत्त सत्ता होती है। इस आत्म-स्वायत्तता से दोनों के बीच ‘अन्तर्विरोध’ नजर आता है। यह अन्तर्विरोध, ‘तनाव’ और ‘संघर्ष’ को जन्म देता है। यह ‘संघर्ष, पदार्थ और चेतना के बीच मौजूद ‘रिश्तों’ का ‘निषेध’ करता है। ‘ये रिश्ते’ बनाने के लिए ‘समन्वय’ तलाशता है। इस तरह मनुष्य, ‘एक नई दुनिया बनाने की कोशिश करता रहता है। यहाँ यह समझना जरूरी है कि ‘यथार्थ’ अलग वस्तु है और ‘दुनिया’ अलग। दुनिया एक ‘मनुष्य-निर्मित वस्तु’ है, जबकि ‘यथार्थ’ एक प्रकृति प्रदत्त वस्तु। यथार्थ से नई दुनिया बनाने तक की यात्रा ‘द्वन्द्वात्मक विकास’ कहलाती है।
अस्तित्ववादियों का मानना है कि कुछ दार्शनिक पदार्थ को महत्त्व देते है जबकि दूसरे चेतना को, परन्तु इन दोनों केन्द्रों के बीच, असल केन्द्र है–‘मनुष्य का केन्द्र’, उस मनुष्य की चिंता अस्तित्ववाद करता है। कुछ विचारकों का मत है कि द्वन्द्वात्मक दर्शन के बिना अस्तित्ववाद का प्रकट होना संभव नहीं था। चेतना को महत्त्व देने के कारण हीगल आदर्शवादी दार्शनिक थे जबकि पदार्थ को महत्त्व देने के कारण मार्क्स भौतिकवादी थे। दोनों द्वन्द्ववाद में विश्वास करते थे। अस्तित्ववाद इन दोनों का ही विरोधी है। हालाँकि ऐसा माना जाता है कि द्वन्द्वात्मक दर्शन न होते तो अस्तित्ववाद का प्रकट होना सम्भव नहीं था। हीगल के बाद जो अस्तित्ववाद सामने आया वह आस्तिक अस्तित्ववाद है। अस्तित्ववाद के जनक किर्केगार्द ने हीगल का विरोध किया।
अस्तित्ववादी दार्शनिक हीडेगर ने अस्तित्ववाद के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए एक महत्त्वपूर्ण विचार-सूत्र प्रस्तुत किया। उनका मानना है कि अस्तित्ववाद से पहले पश्चिम में जितने भी दर्शन प्रकट हुए, उनमें से किसी में भी मनुष्य के ‘होने’ की बात केन्द्र में नहीं रही। जबकि सभी दर्शन ‘मनुष्य’ के लिए होते हैं। मनुष्य की अपने ‘होने की चेतना’ का भी विकास होता है। अतः वे इस इतिहास को ‘वास्तविक’ इतिहास मानकर अब तक के सभी पश्चिमी दर्शनों की पुनर्व्याख्या जरूरी मानते थे।
किर्केगार्द के बाद जर्मन दार्शनिक कार्ल यास्पर्स आए। उन्होंने अपने समय के समाज की आलोचना की और इस आलोचना के द्वारा अस्तित्ववाद को स्थापित किया। यास्पर्स ने यह सिद्ध किया कि बड़े-बड़े कल-कारखानों वाली वर्तमान सभ्यता एक रोग है। मनुष्य जितना ही विचारों को वस्तुगत कसौटी पर परखता रहा है, उतना ही मानव-अस्तित्व की वास्तविक विशेषता से वह दूर होता गया है। मनुष्य का चिन्तन यान्त्रिक हो गया है। इस यांत्रिकता ने मनुष्य के मन को कुचल डाला है। मनुष्य अपना बाह्य जीवन देखकर समझता है कि वह प्रगति कर रहा है ; वास्तव में वह अपनी मूल आन्तरिक शक्ति का नाश कर रहा है। मनुष्य के लिए दो ही रास्ते हैं-या तो घमण्ड में आकर वह ईश्वर की सत्ता से इन्कार करे या अपना दुखी मन उसे समर्पित कर दे। (नयी कविता और अस्तित्वाद : पृष्ट-103 : रामविलास शर्मा)
इन्हीं के समकालीन दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर भी थे। उनके सिद्धान्त का सार-संक्षेप प्रस्तुत करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा कि हाइडेगर के अनुसार मनुष्य जो देखता-सुनता है,वह वस्तुगत ज्ञान नहीं होता, उसकी इच्छा से प्रेरित वह आत्मगत ज्ञान होता है। किसी वस्तु को हम किस रूप में देखें, इसका निश्चय मन पहले ही कर लेता है। मनुष्य जिस संसार में जन्म लेता है, उसे वस्तुगत रूप से जान नहीं सकता; वह स्वयं को रूपों के मायालोक में खोया हुआ पाता है। यह मायालोक निरर्थक और निरुद्देश्य है किन्तु इसी में मनुष्य को जीना है; जीने के इस दायित्व से वह घुट-घुटकर रह जाता है। उसके लिए आवश्यक है कि वह इस सत्य से साक्षात्कार करे कि यह संसार निरुद्देश्य और निरर्थक है; वह स्वयं उद्देश्य निश्चित करके जीवन को सार्थक कर सकता है, निरर्थक बाह्य संसार को एक अर्थ दे सकता है। इस पद्धति से ही उसे अपने अस्तित्व का बोध हो सकता है, किन्तु इस प्रकार अपनी ओर से उद्देश्य निश्चित करना बहुत कम लोगों के लिए सम्भव होता है। अधिकांश जन दूसरों के गढ़े हुए मन्त्र जपते है; तरह-तरह के विचारों से मन बहलाते हैं, किन्तु उनमें स्वयं अपना उद्देश्य निश्चित करने की क्षमता नहीं होती। मनुष्य के मन में यह भय विद्यमान रहता है कि उसे एक दिन मरना है। रोजमर्रा के कामों से चिपके रहकर, अपनी व्यस्तता से, इस भय को हम दूर रखना चाहते हैं। किन्तु मन इस तरह के बहलावे स्वीकार नहीं करता; उसमें यह अपराध-भावना उत्पन्न होती है कि वह सत्य से आँखें चुराता है। इसलिए मनुष्य को दृढ़ता से मृत्यु-भय से आँखें चार करना चाहिए। (वही : पृष्ट-103)
इनके पश्चात ज्याँ पाल सार्त्र हुए। उन्होंने अस्तित्ववाद को मानववादी दर्शन के रूप में व्याख्यायित किया उनका मत है कि मनुष्य जब पैदा होता है तब वह मानवीय नहीं बन पाता। मानवीयता को उसे अर्जित करना पड़ता है इसके लिए वह स्वयं अपनी इच्छा से उद्देश्य निश्चित करता है मानवीयता नाम की कोई ईश्वर-निर्मित वस्तु नहीं है। मनुष्य स्वयं इस ईश्वरहीन संसार में अपनी मानवीयता को स्वयं गढ़ता है। वह जब अपना उद्देश्य निश्चित करता है तब उसके द्वारा अपना हित ही नहीं करता वरन् उद्देश्य का निश्चित मानव मात्र के लिए हितकर होता है। अपने इस विराट दायित्वबोध के कारण ही उसे तीव्र वेदना का अनुभव होता है। मनुष्य का ज्ञान आत्मगत होता है इस आत्मगत ज्ञान से ही वह मूल्य- निर्धारण करता है इसके अलावा मूल्य निर्धारण की कोई कसौटी नहीं है। मनुष्य संसार में अकेला है; अपने अलावा वह किसी पर निर्भर नहीं हो सकता। उसे अपना भाग्य स्वयं निर्मित करना है। मनुष्य की यह नियति है कि वह अपना उद्देश्य स्वयं निश्चित करे। उद्देश्य से प्रतिबद्ध होना आवश्यक है, प्रतिबद्ध न होकर वह अपने दायित्व से बचता है। मनुष्य जैसा निर्णय करेंगे, सामाजिक परिस्थिति वैसी ही होगी। मनुष्य का मन पैतृक संस्कारों या सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है, यह कहकर हम अपनी स्वतन्त्रता से बच नहीं सकते। मनुष्य का आत्मसम्मान इस बात में है कि वह वस्तु नहीं है। भौतिकवाद के लिए मनुष्य भी एक वस्तु है; अस्तित्ववाद के अनुसार मनुष्य अपनी क्षमता को सर्जनात्मक ढंग से कर्ममय जीवन में चरितार्थ करके अपना निर्माण स्वयं करता है।(वही :पृष्ट-105)
- अस्तित्वाद का स्वरूप
स्वरूपतः अस्तित्ववाद एक ‘मनुष्य’ केन्द्रित व ‘जीवन’ केन्द्रित चिन्तन-पद्धति है, जो द्वैतवादी अथवा द्वन्द्वात्मक है। इस दर्शन में मनुष्य, उसके जीवन और उसके अस्तित्व की चेतना के साथ पदार्थ, दुनिया, इतिहास, समय और विचारधारा के रिश्तों की व्याख्या की जाती है। इसमें इस बात की खोज की जाती है कि कैसे ये रिश्ते मनुष्य के अस्तित्व को एक ‘अर्थपूर्ण व मूल्यवान तरीके से होने’ में बदलते हैं। कहा जा सकता है कि इस दर्शन में ‘अस्तित्व’ से अर्थपूर्ण रूप में ‘होने’ तक का सफर तय किया जाता है। ज्याँ पाल सार्त्र इसे ‘अस्तित्व के सारभूत होने’ के रूप में परिभाषित करते हैं। इस बारे में उनका प्रसिद्ध कथन यह है कि ‘मनुष्य का अस्तित्व पहले होता है, फिर बाद में उसका होना सारगर्भित होता है।’ इस आधार पर फ्रेडरिक कौपलर अस्तित्व को ही एक ‘सार-मूलक’ दर्शन का नाम देते हैं।
फ्रेडरिक क्रिश्चियन सिवर्न के मुताबिक अस्तित्व को ‘जीवन-मूलक’ दर्शन मानना चाहिए; क्योंकि ‘जीवन’ मनुष्य के होने का परम-मूल्य है।
जबकि स्टीवन क्रावेल के अनुसार, अस्तित्ववाद एक निषेधमूलक दर्शन है, जो ज्ञान के तमाम रूपों को खारिज करता है और तब कहीं जाकर मनुष्य के ‘होने’ के लिए ‘जगह’ बनाता है।
- भारतीय दर्शन और अस्तित्ववाद
भारत में उपनिषदों तथा बौद्ध विमर्शों में यह विचार पहले से मौजूद रहा है कि मनुष्य को अपने ‘होने के वास्तविक अर्थ का’ –यानी ‘आत्म’ का ज्ञान तब होता है, जब वह अन्य सभी ज्ञानविमर्शों का परित्याग कर देता है। सूफी चिन्तन में भी ऐसे विचार मिलते हैं। सूफी फकीर बुल्लेशाह कहते हैं-‘ अव्वल आखर आप नूँ जाणाँ’ अर्थात अन्ततः मनुष्य का ‘आपा’ या आत्म ही सबसे ऊपर है।
भारत के इन दर्शनों में, अस्तित्ववाद का यह विचार पहले से मौजूद रहा है कि मनुष्य जन्म लेता है, परन्तु वह खुद को नहीं जानता कि वह कौन है? जब वह यह जान लेता है, तब उसका ‘मनुष्य के रूप में’ दुबारा वास्तविक रूप में जन्म होता है। तब वह ‘द्विज’ — यानी दोबारा पैदा होने वाला — हो जाता है।
हीडेगर व सार्त्र के अनेक जापानी मित्रों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने उनसे बौद्ध-विमर्शों की चर्चाएँ कीं? परन्तु ये अस्तित्ववादी अपने दर्शन को, बौद्धों से बहुत भिन्न मानते हैं। वे बौद्ध-दर्शन का स्वयं पर प्रभाव स्वीकार नहीं करते। दूसरी तरफ बौद्ध ‘सर्वस्तिवाद’ में सब पदार्थों सहित मानव चेतना के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है- जो इस दर्शन को अस्तित्ववाद के बहुत निकट ले आता है।
अस्तित्ववाद में ‘अस्तित्व’ स्वरूपतः भारतीय ‘सर्वास्ति’ से अलग है। भारतीय दर्शन ‘नेति-नेति’ या अन्य सभी कुछ के निषेध की बात करते हैं। अस्तित्ववाद में ‘अन्य’ (स्व से भिन्न) का जो निषेध है–वह ‘द्वन्द्वात्मक’ रूप वाला है। वहाँ ‘स्व’ की चेतना, विषय के रूप में जब खुद को पदार्थ-वस्तु से अलग करती है, तो उसका मकसद होता है–‘ स्व’ के सन्दर्भ में वस्तु-जगत का एक नया संयोजन।
जबकि भारतीय दर्शनों में, ‘स्व’ से ‘आत्म’ तक का जो सफर तय किया जाता है, वह ‘स्व’ के नए रूप में संयोजित होने की स्थिति को केन्द्र में रखता है। इससे उसका वस्तु-जगत से द्वन्द्वात्मक रिश्ता खण्डित हो जाता है।
- अस्तित्ववाद का इतिहास और विस्तार
आस्तिक अस्तित्ववादियों में मुख्य हैं, सोरेन कीर्केगार्द, फ्योदोर दोस्तोयवस्की, कार्ल जेस्पर्स, पाल टिलिच, गोब्रियलन मार्सल, निकोलाई बर्डियत, अनामुनो डी जुगो और लेब्र गेस्तोव।
जिन अस्तित्ववादियों को नास्तिक अस्तित्ववादी के रूप में देखा जाता है, उनमें मुख्य हैं, फ्रेडरिक नीत्शे, हररेल, हीडेगर, सार्त्र और सीमोन।
अस्तित्ववादी दर्शन का विस्तार-क्षेत्र कुछ ऐसे देश हैं, जिनका सम्बन्ध उल्लेखनीय अस्तित्ववादी चिन्तकों-रचनाकारों से है-
- जर्मनी : कार्ल जेस्पर्स, मार्टिन हीडेगर
- फ्रांस : गेब्रियल मार्शल, ज्याँ गैहल, सार्त्र, अल्बेयर कामू
- स्पेन : जोस ओरतेगा वाई गैसट, मिगुएल दे अनामुनो
- रूस : निकोलाई वर्डियेत, लेव शेस्तोत
- भारत : हिन्दी रचनाकारों में स.ही. वात्स्यायन अज्ञेय, निर्मल वर्मा आदि।
रचनाकारों के रूप में इस धारा से सम्बद्ध लोगों के कुछ उल्लेखनीय नाम हैं – इब्सन, काफ्का, कामू, ज्याँ जे ऐन्द्रे जीड, समुअल बेकेट, एडवर्ड एल्बी, यूजीन आयनेस्को।
- अस्तित्ववाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं धारणाएँ
- सार्त्र का प्रसिद्ध वाक्य है-‘ अस्तित्व सार का पूर्ववर्ती है।’ सन् 1946 में प्रकाशित अपने प्रसिद्ध निबन्ध में उन्होंने ‘अस्तित्व’ को ‘मानववादी दर्शन’ का नाम देते हुए स्पष्ट किया कि अस्तित्व तो सभी का होता है, पर वह चरितार्थ तब होता है, जब हम अपने ‘होने’ के अर्थ और मूल्य को खोज लेते हैं।
- मनुष्य के अस्तित्व का सार अनुभवमूलक होता है, न कि चिन्तन-मूलक। यानी यह अनुभववादी दर्शन है।
- वास्तविक मनुष्य होने के सूत्र ‘जीवनानुभव’ में छिपे होते हैं। पश्चिमी दर्शनों में, रेने देकार्त के शब्दों में व्यक्ति (सब्जेक्ट) की व्याख्या, ‘एक चिन्तनशील प्राणी’ की तरह की जाती है। ‘सोचने’ का सम्बन्ध ‘व्यक्ति’ के ‘नियन्त्रक अहं’ (कार्टिसिज्म) ईगो से होता है। वह व्यक्ति को ‘सोच की प्रणालियों’ से बाँधता है। जीवनानुभव, एक समग्र-अनुभव है, जिसमें इन्द्रिय तो भाव, विचार, अचेतन प्रवृत्तियाँ एवं आध्यात्मिक अनुभव तक एक होते हैं; एक साथ घटित होते हुए। अस्तित्ववादी इसे ही विवेचनीय मानते हैं। अतः उनका दर्शन ‘अनुभववादी’ होता है; तत्त्वमीमांसी या ज्ञानमीमांसी नहीं।
- वास्तविक मनुष्य का अनुभव सारगर्भी तब होता है, जब वह स्वतन्त्र रूप में चुनाव करता है।
- स्वतन्त्र चुनाव का अर्थ है–निर्धारित पद्धति का कार्य करने से इनकार।
- मानवजाति द्वारा अब तक जितनी ज्ञान सम्पदा अर्जित की गई है, वह हमारे ‘वर्तमान में कार्य करने’ के लिए दिशा-निर्देशक का काम करती है। धर्म, राजनीति, परिवार, संस्थाएँ जैसी समाज की सत्ता संरचनाएँ – उस ज्ञान-परिपाटी को ‘व्यक्ति की नियति’ बना देती हैं। जबकि वास्तविक रूप में मनुष्य होने के लिए जरूरी है कि हम केवल ‘अपने स्वतन्त्र चुनाव’ को ही अपनी नियति बनाएँ।
- नियत ज्ञान-परम्पराएँ, व्यक्ति को ‘तथ्यपरकता’ प्रदान करती हैं।
- सामान्य रूप में समाज का दबाव यह होता है कि व्यक्ति ‘तथ्यपरक’ रूप में जिए। तथ्यपरक रूप में जीने का अर्थ है– हमारा ‘जन्म’ जहाँ, जैसे, जिस सामाजिक कोटि में हुआ है, हम उसके अनुसार जिएँ। इसका दूसरा अर्थ यह है कि हम ‘स्मृतियों’ को उनके व्यवहार की कसौटी बनाएँ। स्मृतियों पर समाज का जोर इसलिए होता है, क्योंकि वह हमारे और परम्परा के बीच ‘पुल’ होती है। तथ्यपरक तरीके से जीने का तीसरा अर्थ है कि हम अपने ‘उत्तम पुरुष’ वाले रूप को ‘अन्य पुरुष’ के आईनों में ढालें। हम, जैसा चाहते हैं, वैसा नहीं; अपितु हमसे लोग जैसा चाहते हैं; वैसा जिएँ।
- तथ्यपरक ज्ञान, खुद का ज्ञान न होकर, ‘अन्यों’ के सम्बन्ध में पाया गया ज्ञान होता है। वैज्ञानिक चिन्तन के तहत इसे ‘वस्तुनिष्ठता’ कहते हैं। अस्तित्ववादी चिन्तन, खुद अपने होने से ‘अर्थपूर्ण तरीके से होने’ तक का सफर है। आत्मनिष्ठ ज्ञान भी जब सबकी ‘साझी आत्मनिष्ठता’ का ज्ञान बनता है, तो वह वस्तुनिष्ठ ज्ञान ही कहलाता है। तब हमें यह समझने की कोशिश करनी पड़ती है कि जब हम ‘दूसरों’ की जगह ‘खुद’ को रख कर देखते हैं, तो हम दूसरों के जरिए भी खुद को पा सकते हैं। इस तरह देखा जाए तो अस्तित्ववादी दर्शन, ‘दूसरों’ के विरोध में नहीं है। पर वह दूसरों के भीतर भी, ‘अपनी’ तलाश करने पर जोर देता है।
- तथ्यपरक/अन्यपरक/वस्तुनिष्ठ ज्ञान के भीतर से, जब कोई ‘स्वयं’ को खोजता और देख पाता है, तो वह एक ‘प्रामाणिक’ व्यक्ति हो जाता है।
- अस्तित्ववाद, वैज्ञानिक चिन्तन के विरोध में नहीं है। सार्त्र ने ‘मार्क्सवाद’ और ‘अस्तित्ववाद’ को एक-दूसरे का पूरक माना है। वंचित समाज के प्रति ‘प्रतिबद्धता’ अगर किसी ‘प्रामाणिक मनुष्य का अपना चुनाव’ है; तो वह प्रतिबद्ध होकर भी दरअसल खुद को, अपने होने के अर्थ को, ही खोज रहा होता है।
- अस्तित्ववाद परम्परा विरोधी ‘अराजक’ दर्शन नहीं है; जैसा कि आम तौर पर, अनेक लोगों का इस दर्शन के सम्बन्ध में ‘गलत मत’ स्थापित हो गया है। इस सन्दर्भ में सार्त्र ने स्पष्ट किया है कि ‘जब कोई मनुष्य अपने लिए स्वतन्त्र रूप में चुनाव करता है, तो दरअसल वह अपने इस चुनाव के द्वारा ‘पूरी मानवजाति के लिए चुनाव’ कर रहा होता है। धर्म के सन्दर्भ में भी, इसीलिए अस्तित्ववाद स्वयं चुनाव करने की स्वतन्त्रता पर बल देता है। अस्तित्ववाद की दो कोटियाँ हो सकीं–आस्तिक अस्तित्ववाद और नास्तिक अस्तित्ववाद। चयन की स्वतन्त्रता व्यक्ति की है। चुनाव पर निर्भर है। शर्त इतनी है कि यह चुनाव उसके ‘होने को विवेकपूर्ण अर्थ’ प्रदान करने वाला हो।
- स्वतन्त्र चुनाव के आधार के लिए सार्त्र का मत है कि नैतिक या धार्मिक मूल्य अगर स्वतन्त्रता को बाधित करते हों तो ‘स्वतन्त्रता’ को ‘परम-मूल्य’ मानना चाहिए। परन्तु इससे अराजकता फैल जाएगी। क्योंकि नैतिक मूल्य समाज का संचालन करते हैं और अगर हर व्यक्ति स्वतन्त्रता की रक्षा करेगा, तो नैतिकता का क्या मापदण्ड होगा? ये सवाल अस्तित्ववादी चिन्तन की केंद्रीय समस्या है। इनका उत्तर इस प्रकार है–
सामान्य नैतिक मूल्य या नैतिकताएँ, समाज को नियन्त्रित करने की व्यवस्था होती है। जबकि स्वतन्त्रता को परम-मूल्य मानने वाले, अपना नैतिक-बोध स्वयं रचते हैं।
नैतिक रूप में कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं होता। स्वतन्त्रता का हनन बुरा है और उसकी रक्षा अच्छी बात है।
चूँकि स्वतन्त्र चुनाव, व्यक्ति को ‘अपने लिए’ व अपनी मार्फत ‘पूरी मानव-जाति के लिए’ दायित्व-बोध से युक्त करता है इसलिए स्वतन्त्रता को चुनने पर व्यक्ति अराजक व अनैतिक इसलिए नहीं होता । अपने लिए जिम्मेवार होना, जीवन के प्रति जि़म्मेवार होना है। कुछ करने के लिए चयन की आजादी, ‘कर्म के फल’ के लिए अपनी जिम्मेवारी स्वीकार करना है। चुनाव और कर्म-फल के लिए व्यक्ति जैसे ही खुद को जिम्मेवार बनाता है; वह ‘अकेला’ पड़ जाता है। अकेले पड़ जाने का अर्थ है, ‘भीड़ को नियन्त्रित करने वाली नैतिकता की दुनिया’ से अलग होकर, ‘अपने’ दायित्व-बोध के अनुसार, एक ‘वैकल्पिक दुनिया’ रचने की तैयारी करना। परन्तु दुनिया को चूँकि स्वीकृत परम्परागत मूल्यों के अनुसार चलने की आदत होती है। इसलिए ‘अकेले’ पड़ गया व्यक्ति, अपनी ‘वैकल्पिक दुनिया’ को भी सच होता हुआ नहीं देख पाता। इससे उसमें ‘अस्तित्वगत निराशा’ पैदा होती है। यह एक तरह का ‘मृत्युबोध’ होता है, जो हर समय व्यक्ति को ‘मितली’ (नौसिया) की हालत में बनाए रखता है। इससे व्यक्ति में व्यर्थता-बोध का संचार होता है और वह ‘आत्मा की अन्धेरी रात’ से खुद को घिरा पाता है। अस्तित्ववादी इसे ‘अलगाव’ या ‘अजनबीपन’ की स्थिति का पर्याय मानते हैं।
- स्वतन्त्रता के साथ, दायित्वबोध से युक्त होकर जो व्यक्ति आत्म-प्रतिबद्धता की कठिन राह पर बना रहता है, वह अन्ततः इसी आत्म-संघर्ष से अपने होने का ‘मूल्य’ हासिल करता है। परन्तु यह ऐसा मूल्य होता है, जिसके लिए व्यक्ति को हमेशा संघर्षरत रहना पड़ता है। ‘होने का अर्थ’ लगाव ‘होते रहने’ के रूप में पाया जाता है; जो नैतिक मूल्यों की तरह स्थिर या निश्चित नहीं होता।
- प्रमुख अस्तित्ववादी चिन्तक
- सारेन कीर्केगार्द
- फ्रेडरिक नीत्शे
- दोस्तोयवस्की
- हीइडेगर
- ज्याँ पाल सार्त्र
- निष्कर्ष
अस्तित्ववाद दो तरह का होता है 1. आस्तिक अस्तित्ववाद (किर्केगार्द आदि का) तथा 2. नास्तिक अस्तित्ववाद (सार्त्र आदि का)। सार्त्र का मानना है कि ‘मनुष्य का अस्तित्व पहले होता है, फिर बाद में उसका होना सारगर्भित होता है।’ अर्थात हम इस निरर्थक मानव जीवन को- अपने होने को, अपने अस्तित्व को सार्थकता प्रदान करते हैं। जैसे अंधा युग में प्रहरी कहते हैं कि हम रक्षा करते हैं, परन्तु रक्षणीय कुछ है ही नहीं- महाभारत के युद्ध में सब मर गए फिर रक्षा किसकी कर रहें है- अर्थात हमारा श्रम निरर्थक है।
यह सार्थकता चयन की स्वतन्त्रता से आती है। हम स्वतन्त्र हैं और अपना चयन स्वयं कर सकते हैं। हम अपने कर्मों का दायित्व स्वयं स्वीकार करते हैं। हम किसी और पर यह दोष नहीं मढ़ सकते- इतिहास,परम्परा, दूसरों का आदेश यह सब तर्क अस्तित्ववादी स्वीकार नहीं करते। हम अपने कर्म के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं। यह हमारा नैतिक दायित्व है। जिसे स्वीकार करना होता है।
सार्त्र ने इस सन्दर्भ में कहा कि जब कोई मनुष्य अपने लिए स्वतन्त्र रूप से चुनाव करता है तो वह अपने इस चुनाव के द्वारा पूरी मानव जाति के लिए चुनाव करा रहा होता है इसलिए स्वतन्त्रता अस्तित्ववादियों के लिए चरम मूल्य है। इसलिए किसी भी तरह से स्वतन्त्रता का हनन गलत है और उसकी रक्षा अच्छी बात है। स्वतन्त्रता का अर्थ अराजकता नहीं है।
अस्तित्ववाद ने विश्वचिन्तन व रचनाशीलता को व्यापक रूप में प्रभावित किया। सार्त्र स्वयं एक चिन्तक होने के साथ-साथ उपन्यासकार और नाटककार भी थे। प्रमुख अस्तित्ववादी उपन्यासकारों में उनके अतिरिक्त अल्वेर कामू और फ्रेंज काफ्का के नाम लिए जा सकते हैं। नाटक में अस्तित्ववाद के प्रभाव से ‘एव्सर्ड थियेटर’ ने अपनी अलग जगह बनाई। उनका नाटक ‘वेटिंग फॉर गोदो’ विश्व-प्रसिद्ध हुआ। सेमुअल बेकेट, ज्याँ जेने व एडवर्ड एल्वी आदि प्रमुख अस्तित्ववाद से प्रभावित नाटककार हैं।
हिन्दी में अज्ञेय, निर्मल वर्मा, कुँवर नारायण आदि अस्तित्ववाद से प्रभावित रचनाकार हैं।
you can view video on अस्तित्ववाद |
अतिरिक्त जानें
बीज शब्द
- अस्तित्ववाद : विचार या प्रत्यय के स्थान पर व्यक्ति के अस्तित्व को महत्त्व देने वाला दर्शन। इस दर्शन का आरम्भ कीर्केगार्द ने किया।
- द्वैतवाद : एक दार्शनिक मत, जो दो विरोधी तत्त्वों को समान रूप महत्त्व देता हो।
पुस्तकें
- नई कविता और अस्तित्ववाद, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
- अस्तित्वाद और साहित्य, डॉ. श्यामसुन्दर मिश्र, पंचशील प्रकाशन, जयपुर।
- अस्तित्वाद : किर्कगार्द से कामू तक, योगेन्द्र शाही, ग्रन्थलोक, दिल्ली।
- आधुनिक परिवेश और अस्तित्ववाद, शिवप्रसाद सिंह, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
- अस्तित्ववाद से गाँधीवाद तक, मस्तराम कपूर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
- अस्तित्ववाद और मानववाद, ज्यां पॉल सार्त्र, (अनुवाद : जे. पारीख), प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली।
- अस्तित्ववाद : पक्ष और विपक्ष, रूबिचेक पाल, (अनुवाद : प्रभाकर माचवे), मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल।
- Existentialism: An Introduction, Kevin Aho, Polity Press, Cambridge.
- Lukacs and Heidegger, Lucien Goldmann, Ruotledge and Kegan Paul Ltd, London.
- Kierkegaard: Exposition and Critic, Daphne Hampson, Oxford University Press, Oxford, United Kingdom.
वेब लिंक्स
- https://en.wikipedia.org/wiki/Jean-Paul_Sartre
- http://www.iep.utm.edu/sartre-ex/
- http://plato.stanford.edu/entries/sartre/
- http://www.nobelprize.org/nobel_prizes/literature/laureates/1964/sartre-bio.html
- https://en.wikipedia.org/wiki/Martin_Heidegger
- https://en.wikipedia.org/wiki/S%C3%B8ren_Kierkegaard
- http://plato.stanford.edu/entries/kierkegaard/
- http://www.iep.utm.edu/kierkega/