17 अन्तरानुशासनात्मक साहित्य दृष्टि

विनोद शाही

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • अन्तरानुशासनात्मक साहित्य दृष्टि की शुरुआत और आवश्यकता के विषय में जान सकेंगे।
  • अन्तरानुशासनात्मक साहित्य दृष्टि के भेद जान सकेंगे।
  • अन्तरानुशासनात्मक साहित्य दृष्टि की सीमा जान सकेंगे।
  • अन्तरानुशासनात्मक साहित्य दृष्टि और परम्परागत साहित्य-दृष्टि में भेद समझ सकेंगे।
  • अन्तरानुशासनात्मक साहित्य दृष्टि से जुड़े प्रमुख आलोचकों और उनकी अवधारणाओं से परिचित हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

    ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है।’ समाज में विविधता होती है। अनेक रंग होते हैं, रूप होते हैं। समाज के अनेक चरित्र भी होते हैं। समाज में रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग व्यक्तित्व व स्वभाव का होता हैं। समाज में अनेक रीति-रि‍वाज, मान्यताएँ, रूढ़ियाँ और कर्मकाण्ड भी व्‍याप्‍त रहते है। साहित्य इन सब को अपने भीतर समेटने का प्रयास करता है। इसलिए जब साहित्य की समीक्षा की बात आती है तो समाज से जुड़ी हर बात की जानकारी आवश्यक हो जाती है। शिक्षा के हर अनुशासन का ज्ञान जरूरी हो जाता है। जीवन के गहरे अनुभव की आवश्यकता पड़ने लगती है। साहित्य की अन्तरानुशासनात्‍मक दृष्टि इन्हीं आवश्यकताओं और जरूरतों को पूरा करने का काम करती है।

 

समाज और जीवन के विविध क्षेत्रों से जुड़ी ‘विशेषज्ञताओं के समन्वय’ की दृष्टि, अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि कहलाती है। साहित्य के सन्दर्भ में यह दृष्टि रचनाकारों की तुलना में, पाठक व आलोचक पर ज्यादा लागू होती है। हालाँकि परोक्ष रूप में यह रचनाकार को भी प्रभावित करने वाली होती है। यह बात समकालीन साहित्य को पढ़ते हुए आसानी से समझ में आ सकती है। हमारे समय के रचनाकार ऐसी ‘भाषाओं का जटिल कैनवास’ बुनने का प्रयास करते हैं–जिन्हें हम सामाजिक जीवन में बहु-व्यावसायि‍क रूपों में व्यवहार में देखते हैं। डॉक्टर, वकील, व्यापारी, नेता, लेखक, अध्यापक आदि समूह ऐसी शब्दावली का विशिष्ट प्रयोग करतें है; जिसे विद्वानों ने ‘व्यवसाय का भाषा-रजिस्टर’ कहा है। उनका सही ज्ञान रचनाकारों को ‘बहु-व्यवसायी भाषा-प्रयोग’ की ओर ले जाता है। इसी तरह विभिन्‍न अंचलों, बोलियों और उपभाषाओं का बहु-क्षेत्रीय अनुभव रचनाकार को भाषा के विविध रूप प्रदान करता है, जैसा फणीश्‍वरनाथ रेणु ने मैला आँचल में किया है। इन अर्थों में साहित्य की रचनाशीलता परोक्षतः अन्तरानुशासनात्मक अन्तर्गठन युक्त होती है।

 

अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि एक समकालीन दृष्टि है। इसका विधिवत रूप अभी अपरिभाषित है। यह दृष्टि अभी विकास की संक्रमणात्मक प्रक्रिया से गुजर रही है। इससे जुड़ी हुई  चर्चाएँ भी बहुलताओं के तन्त्रजाल और उसके अन्तर्बाह्य सम्बन्धों को समझने में उलझी हुई है। इस विषय पर दो-टूक शब्दों में कह पाना सम्भव नहीं है। इसलिए इसे विकसनशील दृष्टि के रूप में देखा जा रहा है। इस कारण इसका स्वरुप अभी स्पष्ट नहीं हो पाया है

 

अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि के जानकर विद्वानों ने उदाहरण दिया है। किसी कहानी में एक पात्र अपने पिता से बहुत प्रेम करती है या दूसरा पात्र अपनी माँ से बहुत प्रेम करता है। लेखक इसका चित्रण करता है। पाठक उसे समझ जाता है। इस ग्रंथि को समझने के लिए हमें किसी मनोविज्ञानिक के पास जाने की जरुरत नहीं है। हालाँकि इन ग्रंथियों का वैज्ञानिक विश्‍लेषण एक मनोवैज्ञानिक ही कर सकता है, लेकिन यह बात एक रचनाकार भी समझ और समझा सकता है। यह समझ साहित्य की अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि से आता है।

  1. अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि का आरम्भ

   रचनात्मक साहित्य का सम्बन्ध अन्य ज्ञानानुशासकों से हमेशा ही रहा है। आधुनिक काल में ‘अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि’ का प्रश्‍न अधिक विचारणीय हो गया है। इसका कारण यह है कि आधुनिक काल में साहित्येत्तर ज्ञानानुशासन बहुत अधिक विकसित हो गए हैं। इस विकास का कारण पहले के समाजों की तुलना में श्रम विभाजन ज्यादा जटिल हो गया है। अब परम्‍परागत वर्णाश्रम वाला सामाजिक विभाजन अप्रासंगिक हो गया है। आज के युग में कोई भी वर्ग या जाति कोई भी काम करती हुई दिख सकती है। काम का किसी जाति से अब सम्‍बन्‍ध नहीं रह गया है। इस परिदृश्य में साहित्य के रचे जाने व पढ़े जाने की दृष्टियाँ भी समानान्तर रूप में बदलने के लिए दबाव अनुभव करने लगी हैं। रचनाकार और पाठक-आलोचक भी जीवन व समाज के विविध क्षेत्रों से सम्बद्ध हैं। इससे ‘परम्परागत विशुद्ध साहित्य’ की धारणा बदल गई है। यह वह पृष्ठभूमि है जो साहित्य के लिए अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि की माँग करती हैं।

 

आमतौर से साहित्य समीक्षा साहित्य को साहित्य के रूप में देखने की मांग करती है। लेखक भी अपनी रचना को साहित्यिक कृति के रूप में प्रस्तुत करना पसंद करते हैं। लेकिन अब ऐसा ‘शुद्ध साहित्य’ सम्भव नहीं हैं। प्राचीन काल में भी ऐसा सम्भव नहीं था। सूर- तुलसी-कबीर-को समझने के लिए भक्ति और दर्शन का सम्यक ज्ञान आवश्यक था। सूफीमत की समझ के बिना जायसी के काल के मर्म का उद्घाटन नहीं हो सकता। रीतिकाल में भी नायिकाभेद, दरबारी संस्कृति और कला की बारीकियों की समझ आवश्यक थी। इसलिए उस युग में भी साहित्य को समझने के लिए साहित्य से बाहर जाना पड़ता था। आधुनिक काल में तो यह और भी आवश्यक है। प्रेमचन्द की कहानी बेटों वाली विधवा का दर्द संपत्ति के उत्तराधिकार कानून की जानकारी के अभाव में स्पष्ट ही नहीं हो पाता। लेखक से यह अपेक्षा रहती है कि उसे सम्पत्ति के उत्तराधिकार कानून की जानकारी हो। पाठक भी सिर्फ आपका पाठक ही नहीं हैं। वह अख़बार पढ़ता है, विश्‍वविद्यालय जाता है, कंप्यूटर का जानकार है। न्यायालय का भी उसे अनुभव है। डॉक्टरों के संपर्क में भी आता ही है। अतः उसे अपने जीवन के अनेक ज्ञानानुशासनों की समझ होती है। वह साहित्य को इसके बीच में रखकर देखता है। इन सब अनुशासनों के साथ साहित्य को देखना दिखाना ही अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि का प्रमुख गुण है।

  1. अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि के भेद

    रचनाकार और पाठक-आलोचक की विशिष्ट स्थितियों के सन्दर्भ में अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि के दो रूप हैं–

 

क. परोक्ष अन्तरानुशासनात्मकता : रचनाकार के सन्दर्भ में। रचनाकार जब भी कोई रचना करता है, वह समाज और ज्ञान के विविध अनुशासनों का प्रयोग करता है। कई बार वह यह काम सायास करता है तो कई बार अनायास। वह अपने पात्र को किसी विशिष्ट सामाजिक स्थिति में प्रस्तुत करता है। वह पात्र समाज में कुछ काम करता है। तरह-तरह के लोगों से मिलता है। ऐसे में लेखक से यह अपेक्षा रहती है कि वह उस समाज,व्यवसाय की बारीकियों को जाने, जिसके भीतर कथा के पात्र घूमते हैं। उदाहरण के लिये प्रेमाश्रम उपन्यास में किसान एक वर्ष बाद किसी निर्णय की अपील करते हैं। एक आलोचक ने टिप्पणी की कि लेखक को पता होना चाहिए था कि इस तरह के मुकदमे में अपील की अवधि कितनी होती है। जाहिर है कि यह साहित्य का नहीं, वरन् कानून का और न्याय-प्रक्रिया का क्षेत्र है। परन्तु लेखक से यह अपेक्षा रहती है कि वह इसे जाने अन्यथा उसकी रचना का प्रभाव धूमिल हो जाता है। आज जिसे हम सामान्य ज्ञान कहते है; उसका स्तर बढ़ गया है। अतः लेखक को भी अपने आपको ज्ञान समृद्ध बनाए रखना होता है।

 

ख. प्रत्यक्ष अन्तरानुशासनात्मकता : पाठक-आलोचक के सन्दर्भ में। पाठक-आलोचक जब साहित्य की किसी विधा को पढ़ रहे होते हैं तो ज्ञान के दूसरे अनुशासनों की उनकी समझ इसमें मदद करती है। पाठक का ज्ञान साहित्य के इतर विषयों से भी आता है। एक पाठक वित्तीय मामलों का जानकर है, दूसरा अभियान्त्रिक विषयों को समझ सकता है, तीसरा मजदूरों के बीच उठता-बैठता है। ये सब लोग साहित्य भी पढ़ते है। साहित्य के ऐसे पाठक साहित्य का साहित्यिक मूल्यांकन नहीं करते। वे गैर साहित्यिक समझ से साहित्य को जाँचते-परखते हैं। यहाँ हम कह सकते हैं कि आज का पाठक और आलोचक अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि से सम्पन्‍न है और उसे आप कोई भी गलत जानकारी प्रदान करने का जोखिम नहीं उठा सकते। इससे आपकी रचना निरस्त हो सकती है।

 

अन्तरानुशासनात्मकता को साहित्य-दृष्टि के रूप में इस्तेमाल का प्रत्यक्ष, प्रचलित और स्वीकृत रूप, मुख्यतः पाठक व आलोचक द्वारा साहित्य पढ़ने और समझने से सम्बन्ध रखता है। इस तरह अन्तरानुशासनात्मकता के भी कई रूप हैं :

  1. अन्तरानुशासनात्मक पाठबहुलता का स्वीकार।
  2. अन्तरानुशासनात्मक अर्थमीमांसा का तन्त्रजाल (नेटवर्क)।
  3. अन्तरानुशासनात्मक व्यवहारों की अन्तः क्षेत्रीय सम्भावनाएँ।

    अन्तरानुशासनात्मकता दृष्टि में साहित्य भी एक ज्ञानानुशासन है। फिर इस साहित्य का अन्य ज्ञानानुशासनों का रिश्ता इतिहास, समाजशास्‍त्र, अर्थशास्‍त्र, पर्यावरण, जीव विज्ञान, मनोविज्ञान आदि से कैसे बनता है इसका अध्ययन किया जाता है। यहाँ इनके प्रभाव का विश्‍लेषण ही नहीं होता वरन् परस्पर रिश्ते को अध्ययन का आधार बनाया जाता है।

 

इस तरह की दृष्टियों के कुछ भेद विद्वानों द्वारा स्वीकृत किये जा चुके हैं।

जिसमें साहित्य की :

  1. समाजशास्‍त्रीय आलोचना
  2. ऐतिहासिक आलोचना
  3. मनोवैज्ञानिक आलोचना
  4. मिथकीय आलोचना
  5. दार्शनिक आलोचना

    आदि स्वीकृत है। इसके अलावा भी कुछ और आलोचनात्मक दृष्टियाँ हो सकती हैं।

  1. अन्तरानुशासनात्‍मक साहित्य-दृष्टि की सीमा और आलोचना के आधार
  • रचनात्मक साहित्य का स्वयं विधिवत ज्ञानानुशासन न होना और फिर भी इसका एक ज्ञानानुशासन के रूप में पाठ करना या समझने-समझाने का प्रयास करना।
  • बेशुमार प्रगति‍ की परि‍णति‍याँ रचनात्मक साहित्य को अब ‘विशुद्ध’ की तरह स्थापित होने से रोकती है। उसे लिखित साहित्य के साथ साथ दृश्य-श्रव्य व इण्‍टरनेट के लिए रचे जाने वाली साहित्य की तरह पुनः परिभाषित करने की जरूरत है। इस कारण अब भाषा के साथ दृश्य-श्रव्य के तकनीकी आधारों को भी इस दायरे में लाने की जरूरत है। इस तरह रचनाशीलता का भी उच्‍च तकनीकी अन्तरानुशासनात्मक रूप सामने आ रहा है, जिससे परम्परागत साहित्यशास्‍त्र अधूरा लगने लगा है व चिन्तन-विमर्श अधूरेपन से घिर गया है। हालाँकि इससे रचनाशीलता के यान्त्रिकीकृत होने का खतरा उत्पन्‍न हो गया है।
  1. परम्परागत साहित्यिक आलोचना दृष्टि

    रचनात्मक साहित्य, जीवन व समाज की विविधताओं के आपसी टकरावों, नई मौलिक परिकल्पनाओं को मानवीय संवेदना व बोध का हिस्सा बनाने का पर्याय है। इस तरह जीवन व समाज की विविधताएँ व ज्ञानानुशासनों की परम्पराएँ स्वतः रचनात्मक साहित्य की जमीन का अंग है। इसलिए रचना और आलोचना के लिए, साहित्य एवं उसके शास्‍त्र को आरम्भ से ही अन्तरानुशासनात्मकता का सहारा लेना पड़ता रहा है। तथापि अन्तरानुशासनात्मकता का परम्परागत रूप, समकालीन अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि से अलग है। समकालीन दौर से पहले कभी अन्तरानुशासनात्मकता को साहित्य-दृष्टि के रूप में देखने-समझने की जरूरत नहीं पड़ी। परन्तु इस बात को ठीक से रेखांकित करने के लिए परम्परागत अन्तरानुशासनात्मकता के अब तक के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डालना जरूरी है।

 

क. भारतीय काव्यशास्‍त्र

  1. रस–चिन्तन : भरतमुनि ने ‘रस’ की अवधारणा को वनस्पतियों-औषधियों के रस निकालने की प्रक्रिया के आधार पर विकसित किया, फिर उसे साहित्य चिन्तन के रूप में विकसित करने की ओर आए।
  2. नाट्यशास्‍त्र : भरमुनि ने पहले से मौजूद ‘वैदिक ज्ञानानुशासन’ के लिखित रूपों के आधार पर, उनसे विविध तत्त्‍व लेकर, पाँचवें वेद की तरह नाट्यशास्‍त्र की रचना की।
  3. रस चिन्तन का उत्तरकालीन विकास : प्रसिद्ध रसालोचक भटटलोल्लट, शंकुक, भट्टनायक एवं अभिनवगुप्‍त के सिद्धान्त, ज्ञानानुशासनों की तरह विकसित हुए। ये इतिहास-पुराण, न्याय-दर्शन, साख्यदर्शन और वेदान्त दर्शन से सम्बन्ध रखते हैं। साहित्य की व्याख्या के लिए कई दार्शनि‍क सि‍द्धान्‍तों का सीधा इस्तेमाल कर लिया गया है।
  4. रीति-विवेचन : साहित्य के लिए क्षेत्रीय रीतियों की जो व्यवस्था यहाँ दिखाई देती है, उसका सम्बन्ध वेदांग-रीतियों, पुराणों एवं ब्राह्मण-ग्रन्थ से रहा है।
  5. ध्वनि एवं वक्रोक्ति विवेचन : ध्वनि व वक्रोक्ति सिद्धान्त का रिश्ता ‘वैयाकरणों के भाषा मूलक विवेचनों’ से देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए ध्वनिकार का ‘स्फोट सिद्धान्त’ वैयाकरणों के यहाँ से साहित्य चिन्तन में आया है। इसे अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है।
  6. औचित्य-विवेचन : क्षेमेन्द्र के औचित्य सिद्धान्त को विद्वानों ने बौद्ध  चिन्तकों से प्रभावित बताया है।

 

ख. आधुनिक साहित्य चिन्तन

  • रामचन्द्र शुक्ल : शुक्ल जी के यहाँ साहित्य-चिन्तन में नई मौलिकता दिखाई देती है। उनके साहित्य चिन्तन में मनोविज्ञान एवं समाजशास्‍त्र जैसे अन्य ज्ञानानुशासनों का बड़ा गहरा एवं स्पष्ट योगदान है।
  • हजारी प्रसाद द्विवेदी : वे तो भारतीय साहित्य को भारतीय चिन्ताधारा का विकास ही मानते है तथा अपने लेखन में इतिहास, पुरात्तव, नृतत्त्वशास्‍त्र, कला शास्‍त्र के अनेक उदाहरण देकर अपना मत स्पष्ट करते हैं।
  • नगेन्द्र : नगेन्द्र के विवेचनों में मनोविश्‍लेषण सम्बन्धी अन्य ज्ञानानुशासनों की स्पष्ट भूमिका देखी जा सकती है।

 

ग. पाश्‍चात्य काव्यशास्‍त्र

  • अरस्तू : अरस्तू के त्रासदी एवं विरेचन के सिद्धान्तों का सम्बन्ध तत्कालीन चर्च-मन्‍दि‍रों की कतिपय अवधारणाओं एवं यूनानी आयुर्वेद में स्पष्टतः दिखाई देता है। इसके अलावा उन पर उनके गुरु प्लेटो के राजनीति एवं समाजनीति सम्‍बन्‍धी विवेचनों का प्रभाव दि‍खता है। उस दौर में भाषा और वक्तृता का जो भाषाशास्‍त्र ज्ञानानुशासन था, उसका प्रभाव अरस्तू से लेकर होरस तक निरन्‍तर एक समान रहा है। इसके अलावा यह एक निर्विवाद तथ्य है कि अरस्तु सिर्फ साहित्य सिद्धान्‍तकार नहीं थे। वे अपने समय में भौतिकी, जीवविज्ञान, गणित आदि के भी जानकर माने जाते थे।
  • लोंजाइनस : लोंजाइनस का उदात्त तत्कालीन दर्शन-ग्रन्थों से प्रभावित है।
  • दर्शन, राजनीति‍ एवं समाजशास्‍त्र से प्रभावित मार्क्सवादी आलोचना; ऐतिहासिक व नव्य ऐतिहासिक आलोचना; प्राच्यवाद, उत्तर-औपनिवेशक चिन्तन पद्धति, नारी विमर्श, दलित विमर्श, प्रवासी विमर्श, पारिस्थितिकीय विमर्श आदि साहित्य-चिन्तन के विविध रूप हमारे सामने आते हैं।
  • मिथक शास्‍त्र के असर में वि‍कसि‍त मिथकीय आलोचना में इतिहास से लेकर मानवशास्‍त्र तक के विविध ज्ञानानुशासनों की भूमिका स्पष्ट दिखाई देती है।
  1. समकालीन अन्तरानुशासनात्‍मक साहित्य-दृष्टि और परम्परागत साहित्य-दृष्टि में भेद
  • परम्परागत अन्तरानुशासनात्मकता इकहरी विशेषज्ञता वाली थी, परन्तु समकालीन अन्तरानुशासनात्मकता का विषय जटिल और जालतन्त्रीय है।
  • परम्परागत ज्ञानानुसनात्मक विशेषज्ञता समग्रताधर्मी थी, जबकि समकालीन अन्तरानुशासनात्मकता स्थिति से सन्दर्भगत होने के कारण लचीली है।
  • समग्रधर्मी होने के कारण परम्परागत ज्ञानानुशासनों का सहारा लेकर साहित्य-चिन्तन के सिद्धान्त को रूप देना सम्भव था। समकालीन अन्तरानुशासनात्मकता सिद्धान्त को खण्डित-विखण्डित करने वाली सभी सम्भावनाओं को व्यावहारिक रूप में ग्रहण करती है।
  • समकालीन अन्तरानुशासनात्मकता विशेषज्ञ-मूलक न रह कर, विशेषज्ञताओं के सामूहिक-जालतन्त्रीय अन्तर्गठन की ओर आती है। परम्परागत ज्ञानानुशासनात्मक विशेषज्ञता, चिन्तन को विषय-केन्द्रित बना कर सीमित कर देती है, जिससे बहुत छोटे क्षेत्र का गहन-ज्ञान तो मिल जाता था, परन्तु उससे अन्तरविषयक व्यापकता वाली दृष्टि का लोप होने लगता था।
  • समकालीन अन्तरानुशासनात्मकता का स्वरूप सह-समन्वयी है। अर्थात् समानान्तर रूप में कि‍सी सहचर ज्ञानानुशासन के विकास-पथ को रुद्ध नहीं किया जाता, बल्‍कि‍ एक-दूसरे की मदद में समन्वयी दृष्टि को और गहरा करने का प्रयास किया जाता है। 
  1. अन्तरानुशासनात्‍मक साहित्य-दृष्टि को अपनानेवाले प्रमुख आलोचक

   साहित्य दृष्टि के रूप में अन्तरानुशासनात्मकता को आधार बनाने वाले जिन नव्य-अर्थमीमांसकों तथा पाठकवादी आलोचकों का योगदान उल्लेखनीय है, वे इस प्रकार हैं– रिचर्ट रोटी, लुटविग विटमेंस्टीव, पॉल दी मान, जैफ्री हार्टमैन  आदि माने जा सकते हैं

 

आलोचना के रूप में समकालीन अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि का सम्बन्ध मूलतः नव्य अर्थमीमांसा से है। अंग्रेजी में इसे ‘नियो-हरमेन्युटिक्स’ का नाम दिया गया। हालाँकि दर्शन में अर्थमीमांसा (हरमेन्युटिक्स) पहले से ही भाषा के दार्शनिक विवेचन का एक अंग रही है। आधुनिक काल के नए आलोचना सिद्धान्त अन्तरानुशासनात्मक अध्ययनों की तरह ही विकसित हुए, तथापि अन्तरानुशासनात्मक आलोचना हमारे समय में ही प्रकट हुई। साहित्य की व्याख्या सभी उपलब्ध ज्ञानानुशासनों के समन्वयी-बोध द्वारा करना, और पढ़ने, समझने, मूल्यांकन करने का प्रयास करना अब जरूरी हो गया है।

 

इस नई स्थिति की शुरुआत आलोचना के विखण्डनवाद और पाठकवादी आलोचना के विकास के आधार पर हुई। इसीलिए इस नव्य अर्थमीमांसीय आलोचना को अनेक आलोचक अब भी पाठकवादी आलोचना के विकास-विस्तार का नाम ही देते हैं। विखण्डनवाद भी एक तरह की अन्तरानुशासनात्मक दृष्टि ही मानी जाती है।

 

विखण्डनवाद हमें साहित्यिक कृतियों में भाषा को विखण्डित करके, वहाँ मौजूद अनन्त-अर्थों को, एक व्यवस्थित पाठ की तरह पढ़ने की ओर ले जाता है। वह एक अर्थ-व्यवस्था द्वारा दूसरी अर्थ-संरचना को विस्थापित करने की एक सुदीर्घ शृंखला द्वारा ऐसा करता है। इस पद्धत्ति के विकास से लाभ यह हुआ कि हमें रचनात्मक साहित्य के पाठों में बहुत से अन्य ज्ञानानुशासनात्मक व्यवस्थाओं से जुड़े अर्थों की मौजूदगी को रेखांकित करने का अवसर मिल गया।

 

पाठकवादी आलोचना ने इस विखण्डन को पाठक-आलोचक द्वारा की जा सकने वाली साहित्य-पाठ की पुर्नरचना की सम्भावना से जोड़ दिया। मानना चाहिए कि

  • साहित्य-पाठ एक अर्थ वाली वस्तु न होकर एक पाठ्यबहुल वस्तु की तरह हमारे सामने आता है।
  • हर पाठक-आलोचक अपनी स्थिति, अपनी समझ और अपने सन्दर्भों से इस पाठ्यबहुलता को, अपनाकर एक तरह की नई पुनर्रचना करता है। इस तरह एक ही कृति, हर पाठक-आलोचक के सन्दर्भ में, वही कृति नहीं रह जाती और हमें कृतियों की बहुत सारी पुनर्रचनाएँ भी उपलबध हो जाती हैं।
  • इस नव्य-अर्थमीमांसा की मदद से हम अर्थबहुल साहित्य की पुनर्रचनाओं को एक सह-समन्वयी व्यवस्था में ढालते हैं। इसके लिए अर्थ बहुलतावाद की सह-सम्बन्धी अर्थ-व्यवस्था तक पहुँचने का प्रयास करते हैं।

    नव्यअर्थमीमांसा की ओर बढ़ने का रास्ता काफी पहले नीत्शे और तुडलिंग विटोंस्टीव के विवेचनों ने खोल दिया था। बाद में रिचर्ड रोर्टी ने उसे एक व्यवस्थित भाषा-दार्शनिक रूप प्रदान किया। इसके बाद अनेक बहुलतावादी दृष्टि के आलोचकों ने साहित्य-दृष्टि के रूप में इसका प्रयोग किया, जिन्हें पाठकवादी आलोचक भी माना जाता है, इन बहुलता-जटिलता के बीच साहित्य की कोई सह-समन्वयी अर्थ-व्यवस्था खोजने में लीन रहते हैं। इन्हीं अर्थों में उन्हें अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि के व्याख्याकारों में शामिल किया जा सकता है, हालाँकि इस ‘साहित्य-दृष्टि’ का कोई प्रतिनिधि आलोचक अभी नहीं है।कुछ आलोचक इस दृष्टि का अपने लिए सिमित उपयोग करते है।

  1. निष्कर्ष :

    अभी तक हमारी अकादमिक शिक्षा-प्रणाली विविध ज्ञानानुशासनों के विशेषज्ञ तैयार करने में जुटी हुई है। अन्तरानुशासनात्मक कार्य करने वालों का सम्बन्ध विज्ञान, कला, अर्थशास्‍त्र, साहित्य आदि‍ अनुशासनों से हो सकता है। हालाँकि इतने अलग-अलग विभागों को एक साथ मिलकर शोध करने का कोई व्यावहारिक उदाहरण हमारे सामने नहीं आया है। एक अध्ययन के अनुसार, अकादमिक क्षेत्रों में पूरी दुनियाँ में अन्तरानुशासनात्मक शोध के लिए अन्य आलोचना दृष्टियों की तुलना में सबसे कम शोध-अनुदान दिए जा रहे हैं। तथापि इस क्षेत्र में लगातार विस्तार हो रहा है। अन्तरानुशासनात्मक साहित्य-दृष्टि को नव्य-अर्थमीमांसा के माध्यम से पकड़ने-खोलने के लिए अभी तक किए गए प्रयास, इस दिशा में भूमिका मात्र है।

you can view video on अन्तरानुशासनात्मक साहित्य दृष्टि

 

अतिरिक्त जानें

बीज शब्द

  1. अन्तरानुशासन : ज्ञान की किसी एक शाखा से दूसरी शाखा का सम्बन्ध।
  2. शुद्ध साहित्य का अध्ययन : जिसमें साहित्य के अलावा किसी अन्य ज्ञानानुशासन को शामिल न किया जाता हो।

    पुस्तकें

  1. Culture and Context (Vol. 1) : An interdisciplinary approach to literature, Adam Sweeting, Cognella Inc.
  2. The Works of John Dryden (Ten Volumes), Edited by H. T. Swidenberg, University of California Press, Berkeley, L.A.
  3. A Critical History of English Literature (Vol. 1+2), David Daiches, Penguins, India.
  4. Beauty and Abject : interdisciplinary perspectives , Edited By Leslie Boldt-Irons, P. Lang, New York.
  5. Literature and Theology: New Interdisciplinary Spaces, Dr. Heather Walton, Ashgate Publishing Ltd. Surrey, U.K.

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