10 साहित्य के नये इतिहास लेखन की सम्भावनाएँ
प्रो. मैनेजर पाण्डेय पाण्डेय
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- साहित्येतिहास लेखन की सार्थकता समझ सकेंगे।
- साहित्य के नए इतिहास लेखन सम्बन्धी प्रमुख चुनौतियों से परिचित हो सकेंगे।
- साहित्य के नए इतिहास की आवश्यकता समझ सकेंगे।
- साहित्य के नए इतिहास लेखन सम्बन्धी पश्चिम के प्रमुख सिद्धान्तों से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
उत्तर-आधुनिक समय में जब इतिहास और लेखक दोनों की ही मृत्यु की घोषणा हो चुकी है, तब साहित्येतिहास लेखन की चुनौतियाँ और बढ़ गई हैं। ये चुनौतियाँ इसलिए भी और बढ़ गई हैं कि अब समाज और साहित्य के सम्बन्ध ने नया रूप ग्रहण कर लिया है। साहित्य की मुख्य प्रवृत्ति का पता लगना भी कठिन है। अलग-अलग विमर्शों की वजह से साहित्य अपने लिए नई सम्भावनाएँ तलाश रहा है। इतिहास के पुनर्परीक्षण पर जोर दिया जा रहा है। जाहिर है साहित्य का नया इतिहास पुराने मानदण्डों के आधार पर नहीं लिखा जा सकता। शायद इसीलिए हार्वर्ड विश्वविद्यालय से जुड़े विद्वान स्टीफेन ग्रीन ब्लात नव-इतिहास की बात करते हैं।
- साहित्य के इतिहास की सार्थकता
साहित्य के इतिहास लेखन का अभिप्राय अतीत, अतीत के लेखकों, और उनकी कृतियों से वर्तमान का संवाद है। यह संवाद इतिहास लेखक की जिज्ञासाओं, आकांक्षाओं और तैयारी के अनुरूप होता है। यह एक प्रकार से कृतियों के कालजीवी और कालजयी होने की प्रक्रिया का हिस्सा भी है। संवाद में हमेशा विवाद की सम्भावना होती है। इसलिए संवाद के साथ-साथ अतीत की कृतियों से विवाद भी इतिहास लेखन में सम्भव होता है। प्रसिद्ध दार्शनिक हाइडगर ने कहा था कि ‘संवाद की प्रक्रिया में होना’ और ‘इतिहास में होना’ समान रूप से पुराने, साथ-साथ चलने वाले, और लगभग एक होते हैं। साहित्य के इतिहास लेखन में संवादधर्मिता का अभिप्राय यह भी है कि इतिहास लेखन पुरानी रचनाओं का सावधान पाठक बने, क्योंकि रचना को पढ़ना भी उससे संवाद करना ही है। इतिहास एक सामूहिक गतिशील प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से स्मृति की रक्षा होती है, वह संवाद भी इसलिए है कि व्यक्ति केवल अपनी चेतना तक सीमित नहीं रह सकता।
साहित्य का वही इतिहास सार्थक होता है, जो अतीत की रचनाओं को अपने समय और समाज की आकांक्षाओं के सन्दर्भ में समझे और उनका मूल्यांकन करे। वाल्टर वेन्जामिन ने लिखा है कि कृतियों को उनके अपने समय में रखकर देखने के बदले, उनका बोध करने वाले समय अर्थात् इतिहासकार के समय में रखकर देखना जरूरी है। इस प्रक्रिया में साहित्य इतिहास-बोध का हिस्सा बनता है, केवल इतिहास की सामग्री नहीं।
सार्थक इतिहास लेखन द्वन्द्वात्मक दृष्टि की माँग करता है। कार्ल मार्क्स ने लिखा है कि कलाकृति कलात्मक अभिरुचि से युक्त पाठक समुदाय का निर्माण करती है, जो कला के सौन्दर्य के आस्वादन में रुचि रखता है। इस तरह उत्पादन केवल चेतना के लिए वस्तु ही पैदा नहीं करता, बल्कि वस्तु के लिए चेतना भी पैदा करता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में छायावाद के साथ पाठकों और आलोचकों के बदलते सम्बन्ध में इसे देखा जा सकता है। हिन्दी में जब छायावाद आया था, तो उसके कटु आलोचक अधिक थे, प्रशंसक बहुत कम। निराला के मुक्त छन्द को कुछ लोग रबर छन्द कहते थे, तो कुछ लोग केंचुआ छन्द। स्वयं छायावाद के बारे में तरह-तरह की भ्रान्तियाँ आलोचकों के मन में थीं। आज लगभग 75 साल बाद हिन्दी में अब न छायावाद के निन्दक मौजूद हैं, न मुक्त छन्द के कटु आलोचक।
सार्थक इतिहास लेखन जिस द्वंन्द्वात्मक दृष्टि की माँग करता है, उसमें रचना को उसके जन्मकाल और बोधकाल के परस्पर सम्बन्ध में पहचानने की जरूरत पड़ती है। इसे रॉबर्ट वॉइमान रचना की विगत सार्थकता और वर्तमान अर्थवत्ता की समझ कहते हैं। इस प्रक्रिया को अपनाने पर रचना और पाठक, उत्पत्ति और ग्रहण तथा संरचना और प्रकार्य की पारस्परिक संबद्धता का विश्लेषण जरूरी होगा।
रॉबर्ट वॉइमान ने अपने निबन्ध में लिखा है कि इस दृष्टि से अगर साहित्य के इतिहास पर विचार होगा तो एक ओर पुरातात्विक दृष्टि और दूसरी ओर रूपवादी दृष्टि से छुटकारा पाने की जरूरत होगी। इस पद्धति से जो व्यापक इतिहास दृष्टि बनेगी, उसके भीतर वर्तमान और अतीत निरन्तर गतिशील प्रक्रिया के रूप में होंगे और मनुष्य एक ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में सामने आएगा। इस पद्धति में अन्तर्वर्ती और बाह्यवर्ती के साथ प्रक्रिया और प्रकृति दोनों में अन्तःक्रिया होगी तथा परिवर्तन और मूल्य में गतिशील सम्बन्ध होगा।
रॉबर्ट वॉइमान का यह भी विचार है कि इस दृष्टि से साहित्य स्वयं इतिहास भी है, और इतिहास साहित्य की संरचना एवं उसके अनुभव का हिस्सा भी है। इसमें केवल इतिहास लेखन की पुरानी पद्धति से मुक्ति जरूरी होगी। वे यह भी कहते हैं कि एक आलोचक के रूप में इतिहासकार का उद्देश्य क्या है? वे आगे कहते हैं इस प्रक्रिया में रचना के अतीत और वर्तमान के बीच अन्तर्विरोध और अन्तस्सम्बन्ध, दोनों की चिन्ता होनी चाहिए। एक आलोचक के रूप में इतिहासकार का दायित्व है कि उन्हें इतिहास-प्रक्रिया में उत्पत्ति और मूल्य, विकास और व्यवस्था का बोध हो; अतीत के अनुभवों के रूप में उन्हें कला और वर्तमान में उसके अनुभव के बीच सम्बन्ध का बोध हो।
कलाकृति की विगत सार्थकता, पृष्ठभूमि और उत्पत्ति का उसके वर्तमान अर्थ एवं उसके जीवित रहने के कारण के बीच अविभाज्य सम्बन्ध होता है। साहित्य के इतिहास लेखन का काम उत्पत्ति और रचना के प्रकार्य के बीच सम्बन्ध से जुड़ा हुआ है। रचना की उत्पत्ति का अध्ययन, उसके महत्त्व की निरन्तरता और उसके महत्त्व में परिवर्तन का अध्ययन होता है। रचना की संरचना उत्पत्ति से जुड़ी हुई होती है, लेकिन वह समाज में क्रियाशील होकर प्रभाव भी पैदा करती है।
- साहित्य के नए इतिहास लेखन की चुनौतियाँ
साहित्य का इतिहास, साहित्य की आलोचना की ही तरह न विचारधारात्मक आग्रहों से मुक्त होता है, न ज्ञान की राजनीति से। वह सांस्कृतिक इतिहास का हिस्सा होने के नाते, सांस्कृतिक वर्चस्व का माध्यम बनता है और उसके बीच संघर्ष का साधन। उसमें अभिजन संस्कृति से जन-संस्कृति का द्वन्द्व भी व्यक्त होता है। इसीलिए कुछ इतिहासकार कुछ कवियों और लेखकों को महत्त्व देते हैं और कुछ को महत्त्व नहीं देते; बल्कि उनका उल्लेख भी नहीं करते। वे जिन कवियों और लेखकों को पसन्द करते हैं, उन पर विस्तार से लिखते हैं; और जिनको पसन्द नहीं करते, उनका केवल नामोल्लेख करते हैं या वह भी नहीं करते। साहित्य के इतिहास का राजनीति से भी गहरा सम्बन्ध होता है। हर काल की राजसत्ता जिस विचारधारा का पोषण करती है, उसके विकास में सहायक लेखकों को उस विचारधारा के समर्थक इतिहासकार महत्त्व देते हैं। जिन परिस्थतियों के कारण लेखन, साहित्य बनता है, या बनाया जाता है, उन कारणों में भी राजनीतिक और नैतिक आग्रह काम करते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि सौन्दर्यबोधीय चुनाव प्रायः विचारधारात्मक चुनाव होते हैं। साहित्य के इतिहास में राजनीतिक चेतना की उपस्थिति को देखना हो तो रामचन्द्र शुक्ल के हिन्दी साहित्य का इतिहास को देखा जा सकता है। रामचन्द्र शुक्ल स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में हिन्दी साहित्य का इतिहास लिख रहे थे, इसलिए उनके इतिहास लेखन में स्वाधीनता आन्दोलन की चेतना मौजूद है। उसमें स्वदेशी की भावना है, और भारतीय समाज के स्वत्व की पहचान की चिन्ता भी। इसी प्रक्रिया में हिन्दी साहित्य पर विदेशी प्रभाव की उन्होंने आलोचना की है। आचार्य शुक्ल देख रहे थे कि हिन्दी में पश्चिम के अनेक साहित्य और कला सम्बन्धी वाद आ रहे हैं, जिनको आचार्य शुक्ल पसन्द नहीं करते थे या उन वादों को भारतीय समाज के सन्दर्भ में प्रासंगिक नहीं मानते थे। इसीलिए उन्होंने लिखा है, ‘‘आजकल पाश्चात्य वाद-वृक्षों के बहुत से पत्ते – कुछ हरे नोचे हुए, कुछ सूखकर गिरे पाए हुए – यहाँ पारिजात-पत्र की तरह प्रदर्शित किए जाने लगे हैं, जिससे साहित्य के उपवन में बहुत गड़बड़ी दिखाई देने लगी है। इन पत्तों की परख के लिए अपनी आँखें खुली रखने और उन पेड़ों की परीक्षा करने की आवश्यकता है जिनके वे पत्ते हैं, पर यह बात हो नहीं रही है।’’ जाहिर है आचार्य शुक्ल पश्चिम को श्रेष्ठ मानकर उनका सब कुछ आँख मूँद कर अपना लेने के पक्ष में नहीं थे। आचार्य शुक्ल का जोर अपने विवेक के सही इस्तेमाल पर था।
कभी-कभी सेंसरशिप के रूप में राजसत्ता और सामाजिक समूह रचना के वर्तमान और भविष्य को तय करने लगते हैं। तेलुगु साहित्य में इसका अद्भुत उदाहरण है। मुद्दुपलानी का काव्य ग्रन्थ राधिका सान्त्वनम के बीसवीं सदी में प्रकाशन के बाद तेलुगु समाज में जो तूफान उठ खड़ा हुआ, उसका शिकार वह काव्यकृति हुई। उस पर अलग-अलग कारणों से कई बार प्रतिबन्ध लगा और फिर उसे हटाया गया। इससे जाहिर है कि सत्ताएँ और विचारधाराएँ भी साहित्य के इतिहास को प्रभावित करती हैं, लेकिन साहित्य के इतिहास में प्रायः इसकी चर्चा नहीं होती। बीसवीं सदी में तेलुगु के प्रसिद्ध कवि वरवर राव की काव्यकृति भविष्यचित्रपटम पर एन.टी. रामाराव की सरकार ने पाबन्दी लगाई और कवि को अनेक प्रकार से प्रताड़ित किया गया। अभी हाल में तमिल के एक लेखक पी. मुरुगन के उपन्यास लेखन के विरुद्ध वहाँ के कुछ जातीय समूहों ने ऐसा भीषण आन्दोलन चलाया कि पी.मुरुगन को अपने लेखक की मौत की घोषणा करनी पड़ी। ऐसे उदाहरण भारत में और भी मिल जाएँगे। क्या ये सब साहित्य के इतिहास के विषय नहीं हैं? ऐसी स्थितियों के कारण कुछ लेखकों की चेतना स्वयं अपनी रचनाओं की काँट-छाँट करने के लिए मजबूर होती है। यह सब साहित्य के इतिहास का हिस्सा है।
- नए साहित्येतिहास का लेखन और हिन्दी साहित्य
यह देखकर आश्चर्य होता है कि हिन्दी साहित्य के किसी इतिहास में आधुनिक काल के अन्तर्गत अंग्रेजी राज के दौरान प्रतिबन्धित हिन्दी सहित्य का कोई उल्लेख नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में उनके विश्लेषण और मूल्यांकन की उम्मीद कैसे की जाए? अंग्रेजी राज के दौरान दो तरह की पुस्तकों पर पाबन्दी लगी थी। उनमें कुछ वैचारिक थीं और कुछ सृजनात्मक। वैचारिक पुस्तकों में अधिकांशतः इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र से सम्बन्धित थीं और सृजनात्मक के अन्तर्गत कविता, उपन्यास, कहानी और नाटक की पुस्तकें। अगर साहित्य का इतिहास किसी भाषा में मौजूद ज्ञान की दशा का आकलन है, जैसा कि एस. जॉनसन ने कहा था, तो हिन्दी साहित्य के इतिहास में हिन्दी में लिखी गई और प्रतिबन्धित हुई इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र की पुस्तकों पर विचार होना चाहिए। ऐसा करने के लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास को हिन्दी वाङ्मय का इतिहास बनाना होगा जो वह अभी नहीं है। लेकिन जो लोग साहित्य का इतिहास लिखते समय या उसके बारे में सोचते समय इतिहास से अधिक महत्त्वपूर्ण साहित्य को मानते हैं, वे भी उन कविताओं, उपन्यासों, कहानियों और नाटकों पर ध्यान नहीं देते, जिन पर प्रतिबन्ध लगा था। उनके विश्लेषण और मूल्यांकन के बाद ही उनकी साहित्यिकता तय हो सकती है, न कि अंग्रेजी राज की तरह उन्हें अवांछित मानकर उपेक्षित करने से। हिन्दी साहित्य के इतिहासों और कहीं-कहीं हिन्दी आलोचना में भी एक राष्ट्रीय साहित्यधारा की चर्चा होती है, पर उसमें कहीं प्रतिबन्धित रचनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान आन्दोलन के पक्ष में प्रेरणादायी साहित्य लिखनेवालों को दोहरा दण्ड मिला है, अंग्रेजी राज ने उन रचनाओं पर प्रतिबन्ध लगाकर दण्डित किया तो हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने उन्हें उपेक्षा का दण्ड दिया है। साहित्य के इतिहास लेखन में सुरुचि के नाम पर सच कहने से बचना इतिहास के साथ छल करना है।
6. नया साहित्येतिहास लेखन सम्बन्धी पश्चिम का चिन्तन
पश्चिम में साहित्य के इतिहास दर्शन से सम्बन्धित जो नया चिन्तन हुआ है, उससे नए प्रकार के इतिहास लेखन की सम्भावना बनती है। सन् 1910 में जॉर्ज लुकाच ने साहित्य के इतिहास के सिद्धान्त पर एक निबन्ध लिखा था। सन् 1910 का समय वह समय था, जब जॉर्ज लुकाच मार्क्सवादी नहीं बने थे। इस निबन्ध में जॉर्ज लुकाच ने साहित्यिक कृतियों के रूप पर बहुत ध्यान दिया। उनके लेख का सारांश जी. एन. देवी ने अपनी पुस्तक ऑफ मैनी हीरोज में दिया है। जॉर्ज लुकाच ने साहित्य के इतिहास के लिए सक्षम आलोचना-दृष्टि की जरूरत पर जोर दिया है। उन्होंने लिखा है कि काव्यशास्त्र के बिना साहित्य का इतिहास दृष्टिहीन होगा। रूप को जॉर्ज लुकाच मनोवैज्ञानिक यथार्थ कहते हैं। वे कहते हैं कि रूप में ही कला मौजूद रहती है। साहित्य में रूप का कोई विकल्प नहीं है, केवल रूप के विभिन्न पक्ष हो सकते हैं। जिसको साहित्य के इतिहास और आलोचना में रूपहीनता कहा जाता है, वह असल में रूप का असफल प्रयोग है। जॉर्ज लुकाच के अनुसार साहित्य रूप सम्प्रेषण का माध्यम है। वे यह भी कहते हैं कि रूप वास्तव में साहित्य का सामाजिक तत्त्व है।
जॉर्ज लुकाच के अनुसार रूप का समाजशास्त्रीय स्वरूप होता है, क्योंकि रूप सर्जक और ग्रहणकर्ता के बीच मध्यस्थता का काम करता है। यही नहीं वह इस कारण भी समाजशास्त्रीय है कि साहित्य में जिस भाषा का प्रयोग होता है, वह सामाजिक रूप से निर्मित और अनुशासित होती है। जॉर्ज लुकाच के अनुसार साहित्य के इतिहास में समाजशास्त्र और सौन्दर्यशास्त्र के बीच आवयविक सम्बन्ध होता है। साहित्य के इतिहास में सौन्दर्यशास्त्र और समाजशास्त्र के बीच समन्वय करना होता है। जी.एन. देवी ने ठीक ही लिखा है कि साहित्य के इतिहास सम्बन्धी जॉर्ज लुकाच की इस धारणा में साहित्य के ऐतिहासिक प्रवाह और रचनाकार की चेतना के बीच के सम्बन्ध का बोध आवश्यक है। जॉर्ज लुकाच के इतिहास लेखन सम्बन्धी इस विचार में साहित्य के इतिहास की साहित्यिकता और ऐतिहासिकता दोनों का समावेश है।
जॉर्ज लुकाच के निबन्ध के लगभग साठ साल बाद रॉबर्ट जॉस ने एक निबन्ध लिखा था, जिसका शीर्षक था साहित्य सिद्धान्त के लिए साहित्य के इतिहास की चुनौती। जॉस के निबन्ध का केन्द्र बिन्दु साहित्य का पाठकीय ग्रहण है। पिछले पचास वर्षों में पश्चिम में साहित्य की आलोचना में पाठक का महत्त्व बहुत बढ़ा है। जॉस ने अपने निबन्ध में लिखा है कि कला और साहित्य तभी इतिहास बनते हैं, जब उनको ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखा जाए; जिसमें उत्पादक चेतना ही नहीं उपभोक्ता चेतना की क्रियाशीलता भी सामने आती है।
रॉबर्ट जॉस के इतिहास-दर्शन के केन्द्र में अभिग्रहण का सौन्दर्यशास्त्र है। उन्होंने लिखा है कि अगर साहित्य के इतिहास का पूरा नवीनीकरण करना है तो ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता को किनारे करके अभिग्रहण और प्रभाव के सौन्दर्यशास्त्र को केन्द्र में लाना होगा। साहित्य की ऐतिहासिक प्रासंगिकता साहित्य के संगठन पर नहीं, बल्कि पाठकों के अनुभव पर निर्भर है। इस प्रक्रिया में एक संवाद निर्मित होता है, जो साहित्य में इतिहास की पहली शर्त है। साहित्य के इतिहासकार को स्वयं पहले एक पाठक बनना होता है, उसके बाद ही वह पाठकों की ऐतिहासिक विकास-यात्रा पर बात कर सकता है।
साहित्य का इतिहास साहित्य के अभिग्रहण और उत्पादन की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है, जो पाठकों द्वारा साहित्यिक पाठ के अनुभव पर निर्भर है। केवल साहित्य के विकास सम्बन्धी तथ्यों का संग्रह इतिहास नहीं है। पाठकों के साहित्यिक अनुभव की व्याख्या में अगर पाठकों की आकांक्षा को ध्यान में रखा जाए तो मनोवैज्ञानिकता के आग्रह से मुक्ति मिल सकती है। कुछ लोग यह कहते हैं कि केवल पाठकीय ग्रहण की व्याख्या का अर्थ है साहित्यिक अभिरुचि के समाजशास्त्र की व्याख्या करना। यद्यपि कोई साहित्यिक कृति नई होने के बावजूद नितान्त नई नहीं होती, वह उन पाठकों का भी अनुमान करती है, जो पहले के साहित्य से परिचित हैं। पाठकों की आकांक्षा के क्षितिज को इस रूप में देखा जा सकता है कि उसका पाठकों पर कैसा प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार कोई साहित्यिक कृति अपने पाठकों की आकांक्षाओं को सन्तुष्ठ करती है, उसके परे जाती है, उन्हें निराश करती है या उनकी आकांक्षाओं को गलत साबित करती है, उसी आधार पर उसके सौन्दर्यशास्त्र के मूल्य का निर्धारण होता है।
साहित्य और उसके पाठकों के बीच सम्बन्ध के प्रसंग में यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक कृति का एक निश्चित ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय रूप से निर्धारित पाठक होता है। हर लेखक अपने युग में अपने पाठकों के विचार और विचारधारा पर निर्भर होता है। अभिग्रहण के सौन्दर्यशास्त्र का सिद्धान्त केवल अभिग्रहण के ऐतिहासिक सन्दर्भ में किसी कृति के अर्थ और रूप को समझने की सुविधा ही नहीं देता, बल्कि साहित्य की परम्परा की पुनर्व्यवस्था की भी प्रेरणा देता है। जॉस ने रूसी रूपवादियों के साहित्यिक विकास की धारणा को भी महत्त्व दिया है। वे यह भी मानते हैं कि साहित्य में नया केवल सौन्दर्यशास्त्रीय धारणा ही नहीं है, नया तब एक ऐतिहासिक स्वरूप ग्रहण करता है, जब यह विश्लेषण से सामने आता है कि किन ऐतिहासिक शक्तियों ने साहित्यिक कृति को नया बनाया।
साहित्य का ऐतिहासिक स्वरूप तब प्रकट होता है, जब समकालिक और ऐतिहासिक विश्लेषणों के बीच समन्वय होता है। साहित्य के इतिहास का काम तब तक पूरा नहीं होगा, जब तक किसी साहित्यिक कृति को इस रूप में उपस्थित नहीं किया जाता कि वह सामान्य इतिहास के भीतर विशेष ऐतिहासिक क्षण की देन है। हंस रॉबर्ट जॉस के साहित्य के इतिहास सम्बन्धी इस दृष्टिकोण के साथ सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि इसका व्यवहारिक रूप बहुत मुश्किल है। इस सिद्धान्त के साथ एक कठिनाई यह भी है कि हिन्दी में पाठकीय ग्रहण के स्वरूप को समझने के लिए आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
- साहित्य का इतिहास और अनूदित साहित्य
अब तक हिन्दी में साहित्य के जो इतिहास लिखे गए हैं, उनमें ज्ञान के साहित्य का कोई उल्लेख नहीं होता। बहुत पहले एक आलोचक डी. क्विन्सी ने कहा था कि साहित्य दो तरह का होता है, एक है ज्ञान का साहित्य और दूसरा है शक्ति का साहित्य। पहले का काम ज्ञान देना है, दूसरे का काम आन्दोलित करना है। जी. क्विन्सी जिसे शक्ति का साहित्य कहते हैं, उसे कल्पना का साहित्य भी कहा जा सकता है। कुछ लोग उसे ललित साहित्य भी कहते हैं। अब तक साहित्य के जितने इतिहास लिखे गए हैं, वे प्रायः शक्ति के साहित्य या कल्पना के साहित्य के ही इतिहास हैं। क्या ज्ञान के साहित्य में कल्पना की कोई भूमिका नहीं होती? अब हेडेन व्हाइट के चिन्तन से इतिहास आख्यानपरक हुआ है। इस स्थिति में इतिहास लेखन उपन्यास लेखन का समानधर्मा हो गया है। समाज के इतिहास लेखन में आख्यानपरक मोड़ के साथ भाषिक मोड़, सौन्दर्यबोधीय मोड़ और पाठकपरक मोड़ भी उत्तर-आधुनिकतावाद के कारण आए हैं। इन सारे मोड़ों से युक्त अगर कोई समाज का इतिहास होता है तो क्या उसमें कल्पना की कोई भूमिका नहीं होगी? हिन्दी में ऐसे इतिहास लिखे गए हैं, जिनकी भाषा सृजनात्मक है। ऐसे इतिहासों में एक है पण्डित सुन्दरलाल की किताब भारत में अंग्रेजी राज, जिस पर सन् 1929 में अंग्रेजी राज ने प्रतिबन्ध लगा दिए। दूसरी इतिहास की पुस्तक है मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव की पराधीनों की विजय-यात्रा। इस पर भी अंग्रेजी राज ने प्रतिबन्ध लगा दिया। इन दोनों किताबों की भाषा और शैली आकर्षक है और आख्यानपरक तो है ही। ऐसे में इन किताबों का उल्लेख साहित्य के इतिहास में क्यों नहीं होना चाहिए?
साहित्य के इतिहास में अनुवादों को शामिल करना एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। भारतीय साहित्य के निर्माण और विकास में अनुवादों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भारत में पन्द्रहवीं और सोलहवीं सदी में अधिकांश भारतीय भाषाओं में रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत के अनुवादों के माध्यम से एक तो भक्ति आन्दोलन का अखिल भारतीय स्वरूप बना और दूसरे अनुवाद की कला का एक ऐसा विशिष्ट रूप सामने आया जैसा अन्यत्र शायद ही कहीं हो। असम के श्री शंकरदेव ने भागवत का काव्यानुवाद किया था, राम सरस्वती नामक महाकवि ने रामायण और महाभारत का असमी भाषा में अनुवाद किया। बांग्ला में कृतिवास ओझ ने रामायण लिखी। ओड़िया में सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में जगन्नाथ दास ने भागवत, बलराम दास ने रामायण और सारला दास ने महाभारत और अच्युतानंद ने हरिबंश का काव्यानुवाद किया। तेलुगु के पोतनामात्य ने भागवत का अनुवाद किया। कन्नड़ के कुमार दास ने महाभारत का और कुमार बाल्मिकि ने रामायण का अनुवाद किया। सोलहवीं शताब्दी में ही गुजरात के महाकवि भालड़ ने भागवत के दशम स्कंध का अनुवाद किया। इनके अलावा विभिन्न भारतीय भाषाओं में और भी बहुत सारे भक्तिकाल के कवि हैं, जिन्होंने रामायण, महाभारत और भागवत का अनुवाद किया था। ये सभी काव्यानुवाद अपनी-अपनी भाषा के महान मौलिक काव्य ग्रन्थ माने जाते हैं और स्थानीयता से युक्त भी हैं। भारतीय साहित्य के इतिहास में इन अनुवादों का उल्लेख भक्ति आन्दोलन की अखिल भारतीयता को समझने के लिए जरूरी है।
आधुनिक काल में भारत की एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद की एक सुदीर्घ परम्परा है। हिन्दी में रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ के अनेक अनुवाद मौजूद हैं। बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिम के उपन्यासों के अनुवाद भारतेन्दु युग से हिन्दी में होते रहे हैं। हिन्दी में आरम्भिक दिनों में बांग्ला के अनेक उपन्यासों के अनुवाद हुए। यही नहीं उपन्यास शब्द भी हिन्दी में बांग्ला से ही आया। इन अनुवादों ने हिन्दी साहित्य के स्वरूप को गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान राजनीति, अर्थशास्त्र और इतिहास सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों के अनुवाद भारत की एक भाषा से दूसरी भाषा में हुए, जिनसे अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ। ऐसा ही एक ग्रन्थ है, सखाराम गणेश देउस्कर का बांग्ला में लिखित ‘देसेर कथा’, जो बांग्ला में सन् 1904 में छपा था। उसका हिन्दी में पहला अनुवाद सन् 1908 में और दूसरा अनुवाद सन् 1910 में हुआ। इन दोनों अनुवादों का नाम है ‘देश की बात’। इन अनुवादों से हिन्दी क्षेत्र में देश-प्रेम और राष्ट्रीय-चेतना के विकास में बहुत मदद मिली। क्या ऐसे अनुवादों को भी साहित्य के इतिहास में स्थान नहीं मिलना चाहिए?
पश्चिम में अनुवाद का जितना और जैसा महत्त्व है, उतना और वैसा महत्त्व हिन्दी में नहीं है। जी.एन. देवी ने ठीक ही लिखा है कि सभी अनुवाद दो या दो से अधिक परम्पराओं को आपस में मिलाते हैं, इसलिए सभी अनुवाद साहित्य हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि प्रायः साहित्यिक परम्पराएँ अनुवाद से पैदा होती हैं। इसलिए अनुवाद को साहित्य के इतिहास में जगह देनी चाहिए।
हिन्दी साहित्य की एक समस्या उसके अखिल भारतीय स्वरूप की पहचान की भी समस्या है। इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि मराठी के सन्त भक्त कवियों ने बारहवीं सदी से बीसवीं सदी के आरम्भिक वर्षों तक मराठी के साथ-साथ हिन्दी में भी भक्ति-काव्य की रचना की है। ऐसी रचना करने वाले कवि हैं, चक्रधर, महदायिसा, दामोदर पण्डित, ज्ञानेश्वर, मुक्ताबाई, नामदेव, गोंदा महाराज, सेनानाई, भानुदास महाराज, सन्त एकनाथ, अनन्त महाराज, श्यामसुन्दर, सन्तजन जसवन्त, तुकाराम, कान्होवा, समर्थ रामदास, रंगनाथ, वामन पण्डित, मानसिंह, बहिणाबाई, बयाबाई, हरिहर, केशवस्वामी, गोपालनाथ, शिवदिन केसरी, अमृतराय, सिद्धेश्वर महाराज, माधव, नरहरिनाथ, महिपति, कृष्ण दास, देवनाथ महाराज, दयालनाथ, विष्णुदास, गुलाबराय महाराज, गंगाधर, गुण्डा केशव, माणिक आदि। ब्रजभाषा में कविताएँ लिखी गईं, इनमें से केवल नामदेव का नाम आचार्य शुक्ल के हिन्दी साहित्य के इतिहास में है। बाकी कवियों पर हिन्दी के किसी इतिहासकार ने ध्यान नहीं दिया। पंजाब के नानक देव और गुरू गोविन्दसिंह ने हिन्दी में कविताएँ लिखीं। बांग्ला में ब्रजबुलि कविता की एक परम्परा है, जो वास्तव में ब्रज भाषा की कविता की ही परम्परा है, इस पर भी हिन्दी साहित्य के इतिहास में ध्यान नहीं दिया गया है।
- निष्कर्ष
साहित्य के इतिहास का एक काम अपनी भाषा के इतिहास की खोई हुई परम्परा की खोज भी है। यह बहुत कम लोगों को मालूम है कि भारत के मुग़ल बादशाह विशेष रूप से अकबर से लेकर बहादुरशाह जफ़र तक सभी ने कमोबेश ब्रजभाषा में कविता लिखी है। उनमें से एक बादशाह मुहम्मदशाह आलम सानी ने तो सन् 1797 में अपनी कविताओं का एक संग्रह ‘नादिराते शाही’ नाम से प्रकाशित करवाया। मुग़ल बादशाहों की कविता की एक विशेषता यह है कि उनमें से अनेक की कविता में भारतीय लोकजीवन और लोक-संस्कृति की पूरी जानकारी और आत्मीयता मौजूद है। उन्होंने होली और दिवाली के अवसर की कविताएँ भी लिखी हैं, जो गीत के रूप में हैं। इसके साथ ही उनकी कविताओं में भारतीय संगीत का भी पूरा ज्ञान मौजूद है। मुग़ल बादशाहों की कविता उनके समय की हिन्दी कविता के मेल में लिखी गई कविताएँ हैं। इसीलिए उनकी कविताओं की खोज और उनके महत्त्व की पहचान हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है।
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