13 साहित्य के इतिहास लेखन में साहित्यिक स्रोतों और गैर साहित्यिक स्रोतों का उपयोग

प्रो. मैनेजर पाण्डेय पाण्डेय

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • साहित्येतिहास लेखन में साहित्यिक स्रोतों के उपयोग समझ सकेंगे।
  • साहित्य के इतिहास लेखन में लोक और शास्त्रीय परम्परा की भूमिका जान पाएँगे।
  • साहित्य के इतिहास लेखन में गैर साहित्यिक स्रोतों के उपयोग से परिचित हो सकेंगे।
  • साहित्येतिहास लेखन की परम्परा में साहित्यिक और गैर साहित्यिक स्रोतों का महत्त्व समझ पाएँगे।

 

 2. प्रस्तावना

 

साहित्य के इतिहास लेखन में कई तरह के स्रोतों का उपयोग किया जाता है। भले ही इतिहास साहित्य का लिखा जाए लेकिन साहित्येतिहास लेखक अपने को सिर्फ साहित्यिक स्रोतों तक ही सीमित नहीं रखता। यह इतिहास लेखक की दृष्टि पर निर्भर करता है कि वह किस तरह के स्रोतों को अपने साहित्येतिहास लेखन में कितना महत्त्व देता है। कोई इतिहास लेखक अगर सिर्फ साहित्यिक विवेचन का इतिहास प्रस्तुत करना चाहेगा तो वह अपने को साहित्यिक स्रोतों पर ही केन्द्रित रखेगा। लेकिन अगर वही इतिहास लेखक गैर साहित्यिक विश्लेषण से अपने इतिहास लेखन को सम्पूर्णता देना चाहेगा और उसे व्यापक देश, काल और परिस्थिति में देखेगा तो वह गैर साहित्यिक स्रोतों का बहुविध उपयोग करेगा। अतः स्रोतों का उपयोग इतिहास लेखक की इतिहास दृष्टि पर निर्भर करता है।

 

3. साहित्येतिहास और साहित्यिक स्रोत

 

स्रोतों के उपयोग के पीछे दृष्टि सम्बन्धी मान्यता प्राथमिक रहती है। साहित्यिक स्रोतों पर अधिक निर्भर रहने वाले साहित्येतिहास लेखकों से अलग गैर साहित्यिक स्रोतों पर निर्भर रहते हुए साहित्येतिहास लेखक जिस दृष्टि का अनुसरण करते हैं, उसे ‘विधेयवादी’ दृष्टि कहते हैं। इस दृष्टि के प्रवर्तन का श्रेय तेन को दिया जाता है। हिन्दी साहित्य के प्रमुख इतिहास लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के यहाँ यह दृष्टि मिलती है। लगभग पिछले सौ साल से हिन्दी साहित्य के इस नजरिये से इतिहास लेखन किया जा रहा है। भारत का भाषा सर्वेक्षण करने वाले सर ग्रियर्सन के यहाँ इस दृष्टि की उपस्थिति है। इस दृष्टि के विषय में साहित्य का इतिहास दर्शन पुस्तक लिखने वाले नलिन विलोचन शर्मा का कहना है कि ‘उसमें (यानी विधेयवाद में) अन्तर्व्याप्त मान्यता यह रहती है कि साहित्य की व्याख्या भौतिक विज्ञान की प्रणालियों से, कार्य-कारण मीमांसा के द्वारा, और बहिर्भूत निर्धारक शक्तियों को ध्यान में रखते हुए, होनी चाहिए।’

 

हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का हवाला दें तो यहाँ बहुत पहले से विधेयवादी नजरिये से इतिहास लेखन किया जा रहा था। इस नजरिये से अलग इतिहास दृष्टि का परिचय देते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास लिखा। यहाँ उन्होंने साहित्येतिहास लेखन में साहित्यिक स्रोतों पर केन्द्रित होते हुए ‘अटकलबाजियों और अप्रासंगिक विवेचनों’ तथा ‘नाम गिनाने की प्रवृत्ति’ से बचने की कोशिश को अपने साहित्यित्येहासिक प्रयत्‍न में निहित बताया। नलिन विलोचन शर्मा इसीलिए स्वीकार करते हैं कि ‘द्विवेदी जी अनेकानेक शुक्लोत्तर इतिहासकारों की तुलना में, हिन्दी में पहली बार, कदाचित समस्त भारतीय भाषाओं में सबसे पहले – आचार्य शुक्ल द्वारा प्रवर्तित, विधेयवादी साहित्येतिहास से भिन्‍न, साहित्यिक साहित्येतिहास लिखने के श्रेय के अधिकारी सिद्ध होते हैं।’ साहित्यिक प्रवृत्तियों और परम्पराओं की परख के क्रम में हजारीप्रसाद द्विवेदी उनके उद्गम स्रोत तक जाने और उसे थाहने का प्रयास करते हैं। इस क्रम में वे बहुधा बहुभाषिक साहित्यिक यात्रा पर निकल पड़ते हैं, जो कि साहित्यिक स्रोतों को प्राथमिक मान कर साहित्येतिहास लिखने वाली दृष्टि में मिलना स्वाभाविक है। यह द्विवेदी जी की आलोचना पद्धति की विशेषता भी है। अपनी दूसरी पुस्तक हिन्दी साहित्य की भूमिका के निवेदन में उन्होंने अपनी बहुभाषिक यात्रा का संकेत करते हुए लिखा है – ‘ऐसा प्रयत्‍न किया गया है कि हिन्दी साहित्य को सम्पूर्ण भारतीय साहित्य से विच्छिन्न करके न देखा जाए। मूल पुस्तक में बार-बार संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के साहित्य की चर्चा आई है…।’ जहाँ गैर साहित्यिक स्रोतों को आवश्यक मानने वाली निगाह कार्यकारण सम्बन्ध खोजने की ओर अभिमुख रहती है, वहीं साहित्यिक स्रोतों के उपयोग को प्राथमिक मानने वाली निगाह अन्य साहित्यों से मिलने वाले सम्बन्ध और उसके सम्भव सूत्रों तक खोज करने में अधिक प्रवृत्त होती है।

 

  1. लोक परम्परा से अर्जित स्रोत और साहित्येतिहास लेखन

 

साहित्यिक स्रोतों को देखने वाली दृष्टि किसी प्रवृत्ति के उद्गम तक जाने के लिए केवल लिखित रूप तक ही केन्द्रित नहीं रहती, वह उस मौखिक परम्परा को भी देखती है जिसे शायद अगम्भीरता से दर्ज किया जाता है और जिसका जिक्र भी अल्प ही किया जाता है। यानी, साहित्य के इतिहास लेखक को शास्त्रमत तक ही सीमित न रहना आवश्यक नहीं है, बल्कि लोकमत तक की दौर को भी अपने लेखन में शामिल करना है। यों तो शास्त्र भी लोक का ही संस्कारित रूप होता है। इसके कच्चेमाल के रूप में भी लोक वाणी होती है। ‘संस्कृत’ भाषा के बारे में विद्वानों का मानना है कि वह प्राकृत आदि से संस्कारित ‘निर्मित’ भाषा है। अगर इस राय पर चलें तो कहना अनुचित नहीं होगा कि यदि कोई संस्कृत साहित्य के इतिहास को लिखना चाहे और उसकी निगाह में साहित्यिक स्रोतों पर ध्यान देना प्राथमिक हो, तो वह आवश्यक रूप से प्राकृत के स्रोतों तक जाएगा। इस तरह साहित्यिक स्रोतों को प्राथमिक मानने वाली दृष्टि यदि अन्य भाषायी साहित्यिक निधियों तक न जाए तो उसका काम ही नहीं चलेगा। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते हुए यदि कोई तमाम स्थानीय प्रभाव लिए विपुल अपभ्रंश साहित्य को न देखे तो यह अपनी इतिहास दृष्टि के साथ अन्याय करना होगा। मुल्ला दाउद की रचना चन्दायन जो सन् 1379 की रचना है, मूलतःलोरकहा नामक लोक में व्याप्त कहानी का विस्तार है। इसी तरह कई अन्य सूफी रचनाएँ लोक में पहले से विद्यमान मौखिक साहित्यिक स्रोतों का हिस्सा है। मलिक मोहम्मद जायसी कृत पद्मावतभीराजारत्नसेनऔररानीपद्मिनीकीलोकमेंचर्चितकहानीकामहाकाव्यात्मकविस्तारहै।

गौरतलब यह भी है कि साहित्यिक स्रोतों की यह लोक-यात्रा केवल अन्तर्वस्तु में ही नहीं रूप में भी की जानी चाहिए। लिखित या शास्त्रीय साहित्य काव्य-विषय को ही नहीं, काव्य की शैलियों को भी लोक से ग्रहण करता है। तुलसीदास ने सोहर और नहछू जैसे काव्यरूपों को अपनी कविता के लिए चुना। विवाह के अवसर पर महिलाओं द्वारा दी जाने वाली ‘गालियाँ’ भी शास्त्रीय साहित्य में मिल जाएँगी, जो लोक की तरफ से ली गई हैं। सूरदास ने अपनी रचना सूरसागर को गेय पदों में लिखा है। ये गेय पद बहुत पहले से ही लोक में विद्यमान थे। सूरदास ने इस लोक की काव्यशक्ति का चरम विकास अपने यहाँ किया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने साहित्येतिहास में इस ओर उचित ही संकेत किया है – ‘सूरसागर किसी चली आती हुर्इ गीत-काव्यपरम्परा का, चाहे वह मौखिक ही रही हो, पूर्ण विकाससा प्रतीत होता है।’ लोक के स्रोतों के उपयोग में सबसे बड़ी दिक्‍कत पाठ या स्रोत की उपलब्धता और प्रामाणिकता की है। इसलिए इसके लिए साहित्येतिहास लेखक को जूझना भी पड़ेगा। एक तो लोक के स्रोत ‘लिखित’ रूपों से अलग मौखिक परम्परा में गतिशील होते हैं, दूसरे स्थान और काल के परिवर्तन के साथ लोग उसमें कुछ न कुछ जोड़ते-घटाते रहते हैं। इसलिए जैसी तथ्यात्मक तटस्थता इतिहास लेखन के लिए आवश्यक होती है, वह नहीं मिल पाती।

  1. शास्त्रीय स्रोत और साहित्येतिहास लेखन

 

लोक के ही नहीं, शास्त्रीय स्रोतों के लिए भी तमाम भाषाओं में साहित्येतिहासकार को यात्रा करनी पड़ती है। जैसे दो काव्य परम्पराएँ भारतीय भाषाओं में अक्सर देखने को मिलती हैं। ये हैं, राम-काव्य की परम्परा और कृष्ण काव्य की परम्परा। आधुनिक भारतीय भाषाओं में राम-काव्य परम्परा का आधार संस्कृत भाषा में लिखी वाल्मीकि की रामायण  है। इससे तमाम भाषाओं में लिखी रामायण की कथाएँ प्रेरणा और प्रभाव ग्रहण करती हैं। स्वयं तुलसीदास ने अपनी रचना रामचरितमानस में इससे प्रेरणा व प्रभाव ग्रहण का संकेत दिया है, उनकी वन्दना करते हुए – ‘बन्दउँ मुनि पद कंज, रामायन जेहि निरमयउ’। अर्थात्‌ रामचरित मानस जैसे ग्रन्थों के लिए साहित्यिक स्रोत का कार्य रामायण  ने किया। अगर इतिहास लेखक इस बात को दर्ज न करे और उस साहित्यिक स्रोत तक की यात्रा न करे तो यह न्यायोचित नहीं होगा। यही नहीं, तुलसी ने लिखा है –‘रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोSपि’। अतः रामायण में जो है वह तो उन्होंने लिया ही, अन्य स्थलों पर मौजूद स्रोतों या रामकथाओं से भी उन्होंने प्रभाव ग्रहण किया। ऐसी रामायणों में स्वयंभू की रचना पउम चरिउ भी शामिल हो सकती है, जो अपभ्रंश में है। अतः ऐसे स्रोतों तक जाना जरूरी है। ‘रूप’ के स्तर पर महाकाव्य की शैली अवधी में राम-काव्य से पहले, सूफी कवियों ने अपनाई थी। दोहा, चौपाई पद्धति। वही प्रबन्धात्मक महाकाव्यात्मक ढाँचा अवधी रामकाव्यों में भी दिखेगा। गौरतलब है कि इस दिशा में सूफियों का यह विशिष्ट योगदान है। उस दौर में पदों को लिखने के लिए ब्रजभाषा व्यवहार में लाई जाती थी, लेकिन महाकाव्य के लिए अवधी भाषा। इसके लिए राह निकालने का काम सूफी कवियों द्वारा किया गया, प्रमाण स्वरूप कई सूफी महाकाव्य देखे जा सकते हैं। इसलिए साहित्य का इतिहास लिखते हुए, प्रेरणा और प्रभाव से सम्बद्ध साहित्यिक प्रवृत्ति के निरूपण में इ्न साहित्यिक स्रोतों को देखना-दिखाना अनिवार्य है। इसी तरह कृष्ण-काव्य की परम्परा का आधार-स्रोत महाभारत और श्रीमद्भागवत है। भारत की तमाम भाषाओं की रचनाओं के लिए महाभारत और श्रीमद्भागवतनेभीसाहित्यिकस्रोतकाकार्यकियाहै।

आधुनिककालमेंबहुत-सीसाहित्यिकविधाएँ,उपन्यास,कहानीआदियूरोपीयसाहित्यसेप्रभावितहैं।उपन्यासकाभारतमेंआगमनहीउपनिवेशस्थापितहोनेकेबादहुआ।इनविधाओंकीभारतकीभाषाओंमेंक्याऔरकैसीप्रगतिहै,इसेजाननेकेलिएयासाहित्यकाइतिहासलिखतेहुए,उनपश्‍च‍िमीसाहित्यिकस्रोतोंतकजानाहमें समृद्धकरेगा,जहाँसेयेविधाएँऔरसाहित्यसमृद्धहुएहैं।

  1. गैर साहित्यिक स्रोत और विधेयवादी साहित्येतिहास लेखन

 

विधेयवादी दृष्टि से जो इतिहास लिखा जाता है, उसके लिए गैर साहित्यिक स्रोतों के उपयोग की बहुत अधिक भूमिका होती है। इसके तहत यह जानने की कोशिश की जाती है कि किसी खास काल में किस तरह की रचनाएँ क्यों लिखी जा रही थीं। उसके मूल में कौन-कौन से भौतिक परिवर्तन थे। इन्हीं परिवर्तनों से लोगों के मानस बनते-बिगड़ते हैं। इसी को लक्ष्य करते हुए हिन्दी साहित्य में विधेयवादी दृष्टि से व्यवस्थित इतिहास लेखन का कार्य करने वाले इतिहास लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने साहित्येतिहास ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही लिख दिया है कि – “जब कि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति में परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए, साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक और धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। अतः कारण स्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित दिग्दर्शन भी साथ ही साथ आवश्यक होता है।”

 

राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक और धार्मिक परिस्थितियों को देखने के लिए हमें इन स्रोतों तक जाना होगा। इसके लिए महज साहित्यिक विवेचक बन कर इतिहास लेखन नहीं किया जा सकता। ‘जनता की चित्तवृत्ति’ को समझने के लिए राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक और धार्मिक स्रोतों तक जाना होगा। वस्तुतः इस दृष्टि से चलता हुआ इतिहास लेखक उस ‘समय’ की बहुविध पड़ताल करता है, जिसमें कोई रचना अस्तित्व में आई। इसमें वह ‘समय’ में रचना को प्रभावित करने वाले उन सारे फलकों पर विचार करता है, जिसमें जी रहे किसी लेखक को अमुक रचना लिखने की प्रेरणा, पद्धति और विचार प्राप्त होता है। जैसे भक्ति आन्दोलन की व्याख्या करते हुए अपने हिन्दी साहित्य के इतिहासमेंआचार्यरामचन्द्रशुक्लउससमयकीसीमाओंकोदिखातेहैं,जिसमें ‘भक्ति’ कीओरजनताकीचित्तवृत्तिहोनेलगीथी।वेइसेभारतमेंनएआएहुएधर्मइस्लामऔरउसकीआक्रामकताकेविरुद्धकीगईप्रतिक्रियासेजोड़तेहैंऔरकहतेहैंकिहताशनिराशहिन्दूजातिकेपासउससमयभगवानकीभक्तिऔरशरणमेंजानेकेअतिरिक्तदूसराकोईमार्गहीनहींथासकेजवाबमेंआचार्यहजारीप्रसादद्विवेदीअपनेसाहित्यिकस्रोतोंपरनिगाहटिकाएहुएप्रश्‍नकरतेहैंकि‘अगरइस्लामकीप्रतिक्रियामेंहीभारतमेंभक्तिकाआगमनहोनाथातोयहउत्तरभारतीयसाहित्यसेपूर्वदक्षिणभारतीयसाहित्यमेंक्योंदिखतीहैजहाँइस्‍लामबादमेंपहुँचाउत्तरभारतमेंजहाँइस्‍लामपहलेपहुँचावहाँभक्तिकाआगमनदक्षिणसेवर्षोंबादक्योंहुआइसीबातकोबढ़ातेहुएद्विवेदीजीकहतेहैंकिअगरइस्‍लामभारतमेंनआयाहोतातोभीभक्तिसाहित्यकाबारहआनावैसाहीहोताजैसाआजहै।’भक्तिसाहित्यकीक्रान्तिकारिताऔरऊर्जाकोसाक्षीमानकरवेकहतेहैंकिऐसासाहित्यकिसीपराजितजातिकासाहित्यनहींहोसकता।’

मातृभाषाओं में कविताओं का लिखा जाना भी इस बात का संकेत है कि जो वर्ग लिखा-पढ़ी की स्वीकृत भाषाओं से अनजान था उसने भी स्वयं को अभिव्यक्ति के योग्य समझा। लोकभाषाओं में, भक्तिकाल में, ऐसा सम्भव हुआ। उस समय शासन-सत्ता व ज्ञान-सत्ता की तरफ से दो स्वीकृत भाषाएँ थीं – फारसी और संस्कृत। छोटी जातियों के लोगों व स्त्रियों के लिए इन भाषाओं में स्वयं को व्यक्त करना या अपनी वाणी को मुखर करना सम्भव नहीं था। यहाँ का ज्ञान खास चौखटों में बँधा हुआ था और पात्रता के नियमों से संकुचित था। इसके बरक्स लोकभाषाओं में सबको गले लगाने की उदारता थी। कबीर ने इसी बात का उल्लेख किया, ‘संस्कीरत है कूप जल भाखा बहता नीर!’ सामाजिक और राजनीतिक स्थितियाँ दूर तक साहित्यिक स्थिति को प्रभावित करती हैं। इन्हें समझे बिना साहित्य को और उसके ऐतिहासिक विकास को सम्पूर्णता में समझना असम्भव है।

 

साहित्य के प्रसंग में हम मुख्य रूप से दो तरह के परिवर्तन देख सकते हैं – शुद्ध साहित्यिक परिवर्तन और सामाजिक परिवर्तन। जो शुद्ध साहित्यिक परिवर्तन हैं, वे साहित्यशास्त्रीय परिवर्तन के रूप में देखे जा सकते हैं। जैसे कब छन्दबद्ध कविता से मुक्तछन्द कविता की शुरुआत होने लगी। यद्यपि इसमें भी सामाजिक परिवर्तन की थोड़ी भूमिका अवश्य होती है। रीतिकालीन साहित्य की बात करें तो संस्कृत काव्यशास्त्रों के आधार पर लोकभाषाओं की काव्यशास्त्रीय रचनाओं का आना शुद्ध साहित्यिक परिवर्तन है। आचार्य कवियों का भारी संख्या में सक्रिय होना साहित्यिक परिवर्तन है। परन्तु कविता की अन्तर्वस्तु का अतिशय शृंगारपरक हो जाना, सामाजिक परिवर्तन का भी संकेत करता है, जो उस समय के राजनीतिक परिवर्तन के साथ हुआ था। विलासिता की स्थिति और अकर्मण्यता का भाव उस समय का युग-यथार्थ हो गया था। ऐसी अवस्था पर आचार्य शुक्ल ने टिप्पणी की कि वाग्धारा बँधी हुई नालियों में प्रवाहित होने लगी और अनुभव के बहुत से गोचर और अगोचर विषय रससिक्त हो कर सामने आने से रह गए। युग यथार्थ को जानने के लिए गैर साहित्यिक स्रोतों को जानना जरूरी है। साहित्य में उसकी अनुगूँजें सुरक्षित रहती हैं।

विविध अनुशासनों का विभाजन या ज्ञान-विज्ञान की बहुत-सी शाखाओं का वर्गीकरण तो बहुत बाद के समय से होना शुरू हुआ। पहले तो साहित्य – उससे भी पहले धार्मिक साहित्य – ही लिखा जाता था। उसके बाद दर्शन-शास्त्र, इतिहास आदि अनुशासन आरम्भ हुए। जब अध्ययन संस्थान बनने लगे तब अन्य शास्त्रों या अनुशासनों में अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन होने लगा। फिर शोध आदि की प्रक्रिया भी शुरू हुई। इस क्रम में यह निर्णय किया जाने लगा कि यह इस अनुशासन का स्रोत है और यह दूसरे अनुशासन का। हम शुरुआती स्थिति को सोचें, जब आधुनिक विभाजन-बुद्धि के अनुसार चीजें निर्धारित नहीं हुई थीं, तो विविध शाखाओं का अन्तर्गुम्फन सहज व स्वाभाविक था। इसलिए ज्ञान-विज्ञान के कई सत्य भी इस आधुनिक विभाजन से अलग देखे जाने की माँग करते हैं। उदाहरण के लिए कौटिल्य की पुस्तक अर्थशास्त्र है। इसमेंकईऐसीमार्मिकउक्तियाँहैंजिन्हेंनिर्विवादरूपसेसाहित्यकीकोटिमेंरखाजासकताहैऔरजोराज्यसत्ताऔरअर्थतन्त्र परचिन्तनकेक्रममें प्रकटहुआ।उदाहरणतः एक श्‍लोक दृष्टव्य है –

 

प्रजा सुखे सुखं राज्ञ: प्रजानां च हितेहितम्।
नात्मप्रियं प्रियं राज्ञ: प्रजानां तु प्रियं प्रियम्।।

 

अर्थात्; प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय (स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।

 

अब इसी मौके पर इसका मिलान साहित्यकार गोस्वामी तुलसीदास की इस पँक्ति से करें, जिसमें कहा गया है कि जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी हो वह अवश्य नर्क का भागी होता है –

 

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी,

सो नृप अवसि नरक अधिकारी।

 

यही नहीं राजा को ‘मुख’ के समान होना चाहिए और उसे सब विधि प्रजा का पालन-पोषण करना चाहिए –

 

मुखिया मुख सा चाहिए, खान पान को एक।
पालहिंपोषहिं सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।।

 

अर्थशास्त्र की तरह बहुतेरे साहित्येतर ग्रन्थ हैं जिनमें साहित्यांश बिखरे हुए हैं। ऐसे साहित्यांश छूट जाएँगे अगर साहित्येतर ग्रन्थों को साहित्येतिहासिक विवेचन-क्रम से अलग रखा जाएगा। अंश-रूप में ही सही, लेकिन साहित्येतर ग्रंथों में कथित या लिखित साहित्य को न लेने से साहित्य का बड़ा हिस्सा छूट जाएगा। इससे यह सच भी सामने आता है कि कोई विचारक भले ही प्रधानतः साहित्यिक शाखा से ताल्लुक न रखता हो, जीवन-जगत के बारे में उसके विचार फिर भी साहित्य लेखकों के विचारों से मेल खाते थे। 

  1. निष्कर्ष

साहित्यिकस्रोतजहाँकृतिकीसाहित्यिकपरम्परा,विविधभाषाओंकीयात्राप्रस्तुतकरतेहैं,वहींगैरसाहित्यिकस्रोतइससाहित्यिकपरम्पराकीनिर्मितिमेंअन्यसामाजिक,राजनीतिक,धार्मिक,मानवशास्त्रीय,साम्प्रदायिकआदिस्थितियोंकीभूमिकाप्रस्तुतकरतेहैंसाहित्यिकपरम्पराकोपरखनेमेंगैरसाहित्यिकस्रोतसहायतादेतेहैंइसतरहदोनोंकिस्मकेस्रोतोंकाउपयोगकरनेसेसाहित्येतिहासलेखनअधिकपूर्ण,वस्तुनिष्ठ,बहुआयामी,सत्यान्वेषीऔरसमृद्धहोगा।

 

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वेब लिंक्स

  1. http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=720&pageno=1
  2. http://www.hindisamay.com/Alochana/shukl%20granthavali5/Hindisahity%20Itihas%20-%20Shukl%20index.htm
  3. https://www.youtube.com/watch?v=pDbIgykzULs