1 साहित्य के इतिहास की आवश्यकता
प्रो. मैनेजर पाण्डेय पाण्डेय
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- साहित्य का इतिहास लेखन और साहित्येतिहास की आवश्यकता एवं उपयोगिता समझ सकेंगे।
- भाषा और साहित्य के विकास एवं परिवर्तन की प्रक्रिया जानेंगे।
- लोकभाषाओं का उत्थान और आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास के बारे में जानेंगे।
- साहित्य की सामाजिकता और विचारधारात्मक संघर्ष के आपसी सम्बन्ध समझ सकेंगे।
- साहित्य और समाज के इतिहास के आपसी रिश्ते का परिचय पा सकेंगे।
- प्रस्तावना
समाज के इतिहास का ज्ञान उनके लिए जरूरी और उपयोगी होता है, जो इतिहास के निर्माण की आकांक्षा रखते हैं और कोशिश करते हैं। साहित्य के इतिहास का निर्माण लेखक करते हैं इसलिए उनके लिए भी साहित्य के इतिहास का ज्ञान आवश्यक है। यदि समाज का इतिहास बनाने वालों के लिए समाज के इतिहास में निर्माण, परिवर्तन और विकास की प्रक्रिया का ज्ञान जरूरी है, तो साहित्य के निर्माताओं के लिए भी यह जानना जरूरी है कि साहित्य के इतिहास में साहित्य के सृजन, परिवर्तन और विकास की प्रक्रिया किस तरह चलती है।
आजकल मध्यकालीन भारतीय भाषाओं और साहित्य में व्यापक समाज और नई पीढ़ी की दिलचस्पी कम हो रही है। इसके साथ ही समाज में साहित्य की हैसियत भी घट रही है।
- साहित्य के इतिहास लेखन की आवश्यकता और उपयोगिता
आज के समय में भूमण्डलीकरण के कारण अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ रहा है। इस बढ़ते वर्चस्व के प्रभाव से भारत की मातृभाषाओं का अस्तित्व खतरे में है। भाषा वैज्ञानिकों की राय है कि आजकल दुनिया में लगभग 6000 भाषाएँ हैं, जिनमें से आधी भाषाएँ इस सदी के अन्त तक भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के कारण मर जाएँगी। बाइसवीं सदी का अन्त होते-होते कुछ ही भाषाएँ बच पाएँगी। एक भाषा का मरना, ज्ञान और अनुभव की एक दुनिया का मरना है। प्रत्येक भाषा में उस भाषा के समाज, उसके अनुभव और ज्ञान का भण्डार संचित होता है। इस तरह भूमण्डलीकरण पूरी दुनिया के लिए सांस्कृतिक विस्मृति का भी अभियान है। उससे स्मृति की रक्षा के लिए उस भाषा और उसके साहित्य के इतिहास की आवश्यकता है।
दुनिया के कुछ आलोचकों ने साहित्य के इतिहास की आवश्यकता पर जोर ही नहीं दिया, उसकी सामाजिक भूमिका की भी व्याख्या की। प्रायः यह माना जाता है कि संस्कृति के वर्चस्वशाली रूपों को प्रायः प्राकृतिक और कभी-कभी दैवीय विधान के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इतिहास ऐसी प्रस्तुतियों की वास्तविकता सामने लाता है और बताता है कि संस्कृति और समाज के विचारधारात्मक रूप, मान्यताएँ और सिद्धान्त इतिहास प्रक्रिया में निर्मित होते हैं। फ्रांस के प्रसिद्ध आलोचक रोलाँ बार्थ ने लिखा है कि जब इतिहास को झुठलाया जाता है, तो वह अधिक खतरनाक रूप से काम करता है। बार्थ के अनुसार साहित्य के इतिहास के पहले युगों की भिन्नता, आने वाले युगों के लिए प्रेरणादायक भी होती है और सावधान करने वाली भी। उनके अनुसार दूसरी बात यह है कि इतिहास इसलिए भी उपयोगी है कि वह वर्तमान को बोधगम्य बनाता है, क्योंकि प्रायः रचनाकार अतीत से ही प्रेरणा और प्रभाव ग्रहण करते हैं। निराला ने तुलसीदास से प्रेरणा ग्रहण की और तुलसीदास ने वाल्मीकि से। बार्थ के ही अनुसार साहित्य का इतिहास साहित्य में भाषा के बदलते और बनते नए रूपों की व्याख्या में भी सहायक होता है। वे यह भी कहते हैं कि रचनाकार को भाषा विरासत में मिलती है, लेकिन शैली उसकी अपनी होती है, जिसकी पहचान इतिहास में आवश्यक होती है। रोलाँ बार्थ के ही अनुसार साहित्य की भाषा का राजनीतिक और ऐतिहासिक महत्त्व भी होता है। वे यह भी कहते हैं कि साहित्य का इतिहास एक ऐसा आख्यान रचता है, जो साहित्य के बारे में सोचने की प्रेरणा देता है। रोलाँ बार्थ ने साहित्य की भाषा के अनेक प्रयोगों की पहचान की है। उनमें से एक है मिथकीय प्रयोग, जिसकी उन्होंने विस्तृत व्याख्या की है।
शेल्डन पॉलक भारतीय और एशियाई साहित्य की संस्कृति के व्याख्याकार हैं। उन्होंने भारतीय साहित्य के इतिहास पर केन्द्रित सोशल साइंटिस्ट (अक्टूबर-दिसम्बर, 1995) के एक अंक का सम्पादन किया, जिसमें उन्होंने लिखा कि जिस प्रक्रिया में पाठ निर्मित होते हैं और साहित्य बनते हैं वह राजनीतिक भी होती है, इसीलिए उसका ज्ञान समुदायों, क्षेत्रों और राष्ट्रों के आत्मबोध के लिए आवश्यक होता है। राष्ट्र के आख्यान के निर्माण में साहित्य की और उसके बोध की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। होमी के. भाभा द्वारा सम्पादित पुस्तक राष्ट्र और आख्यान मुख्यतया बेनेडिक्ट एण्डरसन की धारणा कल्पित समुदाय पर आधारित है। एण्डरसन की इस धारणा पर रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश के दूसरे खण्ड में विस्तार से चर्चा की है।
- भाषा और साहित्य के स्वरूप में परिवर्तन एवं विकास
भाषा एवं साहित्य के स्वरूप में काल एवं परिस्थिति के अनुसार सतत् परिवर्तन एवं विकास होता रहा है। साहित्य सृजन के विकास में आए उतार-चढ़ाव की अपनी खास विशेषता रही है। भक्ति आन्दोलन और उसके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता विभिन्न क्षेत्र के भक्तों की मातृभाषाओं में लिखी कविताएँ हैं। प्रत्येक भक्त-कवि अपनी मातृभाषा का कवि है। यह बात तमिलनाडु के भक्त-कवियों से लेकर असम के भक्त-कवियों तक दिखाई देती है। स्वयं हिन्दी क्षेत्र में अनेक मातृभाषाओं के कवि मौजूद होने के कारण हर क्षेत्र के भक्त कवि ने अपनी मातृभाषा में ही कविता लिखी है। विद्यापति यद्यपि संस्कृत और अवहट्ठ में भी लिखते थे लेकिन वे अमर और लोकप्रिय हैं अपनी मैथिली पदावली के कारण। इस दृष्टि से देखें तो कबीर भोजपुरी के कवि हैं, जायसी अवधी के और सूरदास ब्रजभाषा के। तुलसीदास ने यद्यपि अवधी और ब्रजभाषा दोनों में कविता लिखी, लेकिन वे मुख्यतः अवधी के ही महाकवि हैं। मीराबाई की मातृभाषा राजस्थानी है, जिसमें उन्होंने अपनी कविताएँ लिखीं।
मातृभाषाओं में सृजनात्मक अभिव्यक्ति के उभार के कारण ही भक्ति-आन्दोलन के दौरान पूरे देश में कविता के क्षेत्र में दो ऐसे समुदाय प्रभावशाली रूप में सामने आए, जो पहले कविता की दुनिया से दूर थे। ये दोनों समुदाय हैं स्त्री और दलित। इन दोनों को न संस्कृत सीखने की स्वतन्त्रता थी और न राजकाज की भाषा फारसी जानने की। मातृभाषा में आत्माभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता नहीं मिलती तो ये दोनों ही समुदाय अपना सुख-दुख, अपनी वास्तविकता और आकांक्षा, अपना विरोध और विक्षोभ व्यक्त नहीं कर पाते। भारतीय संस्कृति के इतिहास की यह एक युगान्तकारी घटना है। यह घटना महत्त्वपूर्ण इसलिए भी है कि इसी प्रक्रिया से सारी आधुनिक भारतीय भाषाएँ पैदा हुई हैं। उन दिनों जो सन्त-भक्त कवियों और कवयित्रियों की मातृभाषाएँ थीं, वे आज हमारी आधुनिक भारतीय भाषाएँ हैं।
मध्यकाल की इन लोकभाषाओं ने दो पुरानी भाषाओं से संघर्ष करते हुए अपनी स्वतन्त्र सत्ता हासिल की। वे दो भाषाएँ थीं – संस्कृत और फारसी। फारसी राजकाज की भाषा थी, शासक वर्ग के बुद्धिजीवियों की भाषा थी, पर साथ ही एक विदेशी भाषा भी थी। इसलिए उससे संघर्ष करना उतना कठिन नहीं था, जितना संस्कृत के वर्चस्व से मुक्ति का संघर्ष। फारसी के प्रभाव से भारतीय समाज को मुक्त करने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका सूफी कवियों ने निभाई। मुल्ला दाउद से लेकर जायसी होते हुए नूर मुहम्मद तक सभी सूफी कवियों ने लोकभाषाओं में कविता की, और प्रायः उसे हिन्दी कहा। हिन्दुस्तान के बाहर भी सूफी कवि इस्लाम की शास्त्रीय भाषाओं अरबी और फारसी के बदले स्थानीय बोलियों में ही कविता करते रहे हैं।
संस्कृत के वर्चस्व से अपनी मातृभाषाओं की मुक्ति का मार्ग जिन कवियों ने बनाया, उनमें मराठी के महान सन्त और भक्त ज्ञानेश्वर का नाम सबसे पहले आता है। वे एक प्रकार से इस मुक्ति आन्दोलन के नेता हैं। उन्होंने मराठी में गीता की टीका लिखी, जिसे ज्ञानेश्वरी कहा जाता है। ज्ञानेश्वरी के तीसरे अध्याय में ज्ञानेश्वर के अर्जुन कृष्ण से कहते हैं कि आप मुझे गूढ़ सिद्धान्त बता रहे हैं, पर मुझे धोखा दे रहे हैं। आपके वचन मेरी समझ में नहीं आते, इसलिए गूढ़ वचन न बोलिए और जो विवेक है, उसे मराठी भाषा में कहिए। इस प्रक्रिया को मराठी के दूसरे सन्त-कवि एकनाथ ने अपनी रचना चतुः श्लोकी भागवत की प्रस्तावना में आगे बढ़ाया है। उन्होंने लिखा है कि जो अर्थ संस्कृत में मिलता है वही अर्थ लोकभाषा में भी मिलता है। तो फिर इनमें भिन्नता क्या माननी है ? हिन्दी क्षेत्र में इस संघर्ष को आगे बढ़ाने का काम कबीरदास ने किया और फिर रज्जब ने।
यह जानी-पहचानी बात है कि भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य के इतिहास लेखन का काम भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में हुआ था। यह एक प्रकार से अपने स्वत्व की समझ के लिए जरूरी है। यही नहीं यह भारतीय मानस के उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया या सखाराम गणेश देउस्कर के शब्दों में सम्मोहन-चित्त-विजय के औपनिवेशिक अभियान के विरुद्ध प्रतिरोध की प्रक्रिया के रूप में सामने आया। आजकल अमेरिकी साम्राज्यवाद के विश्वव्यापी अभियान के दौर में अपने स्वत्व की रक्षा की चिन्ता के रूप में साहित्य के इतिहास की चिन्ता आवश्यक है।
- साहित्य की सामाजिकता एवं विचारधारा का संघर्ष
आजकल, जबकि साहित्य की सामाजिकता सन्देहास्पद बनाई जा रही है, साहित्य का इतिहास, शेल्डन पॉलक के शब्दों में – साहित्य की बुनियादी सामाजिकता को पहचानने और सामने लाने का प्रयास कर सकता है, क्योंकि अनेक सामाजिक समूह अपने साहित्य के इतिहास की खोज और व्याख्या करते हुए अपने वर्तमान जीवन का इतिहास लिख रहे हैं। यही काम एक ओर भारत के दलित कर रहे हैं, दूसरी ओर भारत की स्त्रियाँ भी कर रही हैं। इतिहास प्रायः स्मृति को राजनीतिक बनाने का काम करता है।
साहित्य के इतिहास में विचारधाराओं का संघर्ष भी दिखाई देता है। जब साहित्य के इतिहास में समाज की वर्चस्वशाली विचारधारा साहित्य की व्याख्या को प्रभावित करने के लिए साहित्य-दृष्टि बनकर क्रियाशील होती है, तब वह व्याख्या की एक विशेष राजनीति के रूप में सामने आती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास में सिद्ध साहित्य और निर्गुण सन्त साहित्य की कविता की व्याख्या और मूल्यांकन में वही व्याख्या की राजनीति दिखाई देती है। सिद्ध साहित्य के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘‘उनकी रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं में कोई सम्बन्ध नहीं। वे साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं। उन रचनाओं की परम्परा को हम काव्य या साहित्य कोई धारा नहीं कह सकते।’’ बाद में आचार्य शुक्ल ने निर्गुण सन्त काव्य के बारे में यह लिखा, ‘‘संस्कृत बुद्धि, संस्कृत हृदय और संस्कृत वाणी का वह विकास इस शाखा में नहीं पाया जाता, जो शिक्षित समाज को अपनी ओर आकर्षित करता।’’ सिद्ध काव्य और सन्त काव्य के बारे में आचार्य शुक्ल के इन कथनों से जाहिर है कि वे इन दोनों को एक विशेष प्रकार की साहित्य दृष्टि के कारण अस्वीकार करते हैं और हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका अवमूल्यन करते हैं। आचार्य शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास के आरम्भ में कहा, ‘‘प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है।’’ क्या सिद्धों और सन्तों के काव्य में जो कुछ कहा गया है, उसका सम्बन्ध भारतीय जनता के किसी वर्ग या समुदाय की चित्तवृत्ति से नहीं है? कभी-कभी इतिहास की वस्तुपरकता इतिहासकार की आत्मपरकता को किनारे करके सामने आती है। आचार्य शुक्ल को सन्त काव्य के बारे में यह लिखना ही पड़ा, ‘‘अशिक्षित और निम्न श्रेणी की जनता पर इन सन्त-महात्माओं का बड़ा भारी उपकार है। उच्च विषयों का कुछ आभास देकर, आचरण की शुद्धता पर जोर देकर; आडम्बरों का तिरस्कार करके, आत्मगौरव का भाव उत्पन्न करके, इन्होंने उसे ऊपर उठाने का स्तुत्य प्रयास किया है।’’
किसी भी भाषा और उसके साहित्य का इतिहास उस भाषा में जीने मरने वाले समाज का भी इतिहास होता है। वह उनकी संस्कृति और राजनीति की उन प्रक्रियाओं का भी इतिहास होता है, जिनमें भाषाओं के जीवन का इतिहास बनता है। आज अस्मिताओं के जागरण और संघर्ष के दौर में भाषा और साहित्य के इतिहास का राजनीतिक महत्त्व भी है। साहित्य के इतिहास में समाज का इतिहास व्यक्त और प्रतिबिम्बित ही नहीं होता, बल्कि साहित्य का इतिहास कभी-कभी समाज का इतिहास रचता और लिखता भी है। भारत में नवजागरण के दौर में साहित्य की यह भूमिका सामने आती है। कभी-कभी अतीत का बोध वर्तमान की चेतना और भविष्य की चिन्ता भाषिक चेतना बनती है तब वह जातीय चेतना के साथ-साथ राष्ट्र की राजनीतिक चेतना की बुनियाद भी बन जाती है। इसका उदाहरण है, बांग्लादेश की मुक्ति का आन्दोलन और एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश का उदय।
रोलाँ बार्थ ने सन् 1969 के एक भाषण में कहा था कि साहित्य का एक ऐसा इतिहास लिखना होगा, जिसमें उन सबका विवेचन हो जिनको सेन्सर किया गया है। ऐसे सेन्सर की शिकार सबसे अधिक स्त्रियाँ और उनका लेखन हुआ है। इसीलिए दुनिया भर में स्त्रियों द्वारा साहित्य के इतिहास पर पुनर्विचार और नए इतिहास लेखन की शुरुआत हुई है। स्त्रियाँ प्रायः यह मानती हैं कि अतीत के साहित्य को नई नजर से देखना जरूरी है और पुराने पाठों को नई आलोचना दृष्टि से समझना जरूरी है। यह स्त्रियों के लिए केवल सांस्कृतिक इतिहास का मामला नहीं है, बल्कि उनके अस्तित्व की रक्षा और सार्थकता से जुड़ा हुआ प्रसंग है। स्त्रियाँ यह भी मानती हैं कि ऐसी मान्यताओं के बारे में प्रश्न करना जरूरी है, जिनके अनुसार स्त्रियाँ खुद को जान ही नहीं सकतीं। वे कहती हैं कि हमें अतीत के लेखन को दूसरों से अलग ढंग से जानना है और परम्परा का नया अर्थ और मूल्यांकन भी खोजना है। इस प्रक्रिया में स्त्रियाँ साहित्य के इतिहास का नया पाठ रच रही हैं और रचनाओं तथा रचनाकारों का पुनर्मूल्यांकन भी कर रही हैं। वे अतीत की स्त्रियों की खोई हुई, विस्मृत, उपेक्षित और दबाई गई रचनाओं तथा रचनाकारों की खोज का प्रयत्न भी कर रही हैं।
साहित्य स्वभाव से ऐतिहासिक होता है। वह इतिहास से पैदा होता है और समाज के इतिहास में ही जीवित रहता है। साहित्य के कालजयी होने की प्रक्रिया भी समाज के इतिहास में ही सम्भव होती है। साहित्य के रूपों का विकास समाज से जुड़ा हुआ होता है, इसीलिए साहित्य रूपों की संरचना का उस सामाजिक संरचना से गहरा सम्बन्ध होता है, जिसमें साहित्य के रूप पैदा होते हैं। प्रत्येक साहित्य-रूप का एक विचारधारात्मक आधार भी होता है, जो सामाजिक विकास की विशेष अवस्था में व्याप्त विचारधारा से प्रेरित और प्रभावित होता है। महाकाव्य का जन्म सामन्ती दौर से पहले के जनपदीय समाजों में हुआ था और उसका विकास सामन्ती समाजों में होता रहा। ऐसे सामाजिक आधार के कारण ही महाकाव्यों की संरचना में एक ओर जनपदीय समाजों का खुलापन मिलता है, तो दूसरी ओर सामन्ती समाजों की सांस्कृतिक और विचारधारात्मक परिणतियों की अभिव्यक्ति भी। विकासशील महाकाव्यों से कलात्मक महाकाव्यों की संरचना भिन्न प्रकार की होती है, लेकिन दोनों में नायक और अन्य मुख्य पात्र अभिजात वर्ग के होते हैं। यही नहीं कथा की संरचना में निर्णायक भूमिका पारलौकिक तत्त्वों, शक्तियों और प्रवृत्तियों की होती है। महाकाव्यों का आधार वह मिथकमाला होती है, जो आदिम समाजों से लेकर सामन्ती समाज-व्यवस्था तक निर्मित और विकसित होती रहती है। सामन्ती समाज-व्यवस्था के अन्त के साथ दुनिया भर में महाकाव्यों का युग समाप्त होता दिखाई देता है। बाद के समय के महाकाव्य केवल पुराने महाकाव्यों की स्मृतियों की अभिव्यक्ति ही है। यही कारण है कि आधुनिक काल में महाकाव्यों की रचना सम्भव नहीं रही। महाकाव्य एक स्तर पर अपने समय और समाज के मनुष्य की स्थिति और नियति की पहचान और अभिव्यक्ति के प्रयत्न करते थे। आधुनिक काल में यह काम उपन्यास के माध्यम से होने लगा, इसीलिए उपन्यास को आधुनिक युग का महाकाव्य भी कहा जाता है।
उपन्यास और लोकतन्त्र के सम्बन्ध पर विचार करते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि आधुनिक काल में दोनों का जन्म लगभग एक साथ हुआ है। महाकाव्यों में व्यक्ति कुछ प्रवृत्तियों के प्रतीक हुआ करते थे, जबकि उपन्यास में व्यक्ति अपनी स्वतन्त्र सत्ता के साथ उपस्थित होता है। उपन्यास में व्यक्ति की वैयक्तिकता जिन सामाजिक सन्दर्भों से बनती है उनसे व्यक्ति के सम्बन्धों की जटिलता का बोध उपन्यास में व्यक्त होता है। उपन्यास में उपस्थित व्यक्ति ऐतिहासिक व्यक्ति होता है। वह इतिहास से बनता है और इतिहास को बनाता भी है। उपन्यास के आख्यान में कथा के पुराने रूपों की स्मृतियाँ होती हैं और उनका उपयोग भी होता है। कुछ उपन्यासों में लोककथा की पद्धति मिलती है तो कुछ में नीति-कथाओं की। उपन्यास ने फैण्टेसी से लेकर मिथकों तक का प्रयोग अपनी संरचना के भीतर किया है, लेकिन उपन्यास हर स्थिति में ऐतिहासिक यथार्थ से जुड़ा हुआ होता है। उसमें सामाजिक यथार्थ की जटिल समग्रता का चित्रण ही नहीं, विश्लेषण भी होता है। उपन्यास के उदय और विकास के लिए तीन स्थितियों की जरूरत होती है, विचारधारा के रूप में व्यक्तिवाद का विकास, पाठक के रूप में मध्य वर्ग का विकास और प्रकाशन की सुविधा तथा पुस्तक बाजार का विस्तार। दुनिया भर के साहित्य के इतिहास से यह भी जाहिर है कि सारी दुनिया में निबन्ध का विकास नवजागरण काल में हुआ क्योंकि निबन्ध में विचारों की स्वतन्त्र और स्वच्छन्द अभिव्यक्ति होती है। वह नवजागरण काल में ही सम्भव है। इसके साथ ही निबन्धों के विकास के लिए अखबारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन भी आवश्यक था।
- साहित्य की संस्कृति तथा उसके चरण
साहित्य के इतिहास को साहित्य की संस्कृति का इतिहास भी होना चाहिए, इस बात पर हिन्दी में कम ध्यान दिया गया है। आरम्भ से अब तक साहित्य की संस्कृति की तीन अवस्थाएँ हो चुकी हैं। पहली अवस्था मौखिक थी, दूसरी लिखित और तीसरी मुद्रित। जब साहित्य की संस्कृति मौखिक अवस्था में थी तब उसके केवल दो पक्ष होते थे – कवि और श्रोता। जब साहित्य लिखित स्थिति में आया तब उसके तीन पक्ष हुए – कवि, पाठ और पाठक। इसी प्रक्रिया में साहित्य के प्रसंग में अनेक विधि निषेध भी लागू हुए, जिनके अनुसार यह तय किया गया कि कौन साहित्य पढ़ सकता है और कौन नहीं। इससे समाज में भेदभाव की प्रक्रिया भी शुरू हुई। तीसरी अवस्था में साहित्य मुद्रित हुआ तब उसके चार पक्ष बने। वे थे कवि या लेखक, पुस्तक, पुस्तक बाजार और पाठक। इस प्रक्रिया का एक लाभ यह हुआ कि साहित्य की दुनिया में लोकतन्त्र आया। जो पुस्तक बाजार में उपलब्ध थी, उसे कोई भी खरीदकर पढ़ सकता था। इस प्रक्रिया में भेदभाव की सम्भावना नहीं थी। पुस्तक को खरीदकर पढ़ने की शर्त केवल यह थी और आज भी है कि पाठक के पास खरीदने के लिए मुद्रा चाहिए। इस अवस्था में साहित्य की संस्कृति में एक समस्या भी आई। कवि या लेखक और पाठक के बीच कोई सीधा सम्बन्ध नहीं रहा, बल्कि दूरी बढ़ती गई। इसका असर साहित्य के स्वरूप पर भी पड़ा। इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही साहित्य की संस्कृति का इतिहास लिखा जा सकता है।
- निष्कर्ष
भारतीय समाज और साहित्य के इतिहास के मध्यकाल में लोकभाषाओं का जागरण, उनका सृजनात्मक उत्थान और उनमें कविता के सृजन का प्रयत्न हुआ, जिसका परिणाम है भारतीय साहित्य के इतिहास का भक्ति-आन्दोलन और उसका काल। हिन्दी क्षेत्र में लोकभाषाओं की कविता का आरम्भ सिद्धों और नाथों की वाणी से होता है। सिद्ध कवि बौद्ध धर्म-दर्शन के अनुयायी थे, इसलिए सहज रूप से वे ब्राह्मण धर्म और उसकी रूढि़यों तथा मान्यताओं के विरोधी भी थे। सिद्ध कवि सरहपाद की कविता में अश्वघोष की ‘वज्रसूची’ के जाति-व्यवस्था विरोधी विचारों की अभिव्यक्ति है, और सरहपाद के विचारों की प्रतिध्वनि कबीर की कविता में सुनाई देती है। हिन्दी साहित्य के आदिकाल में जहाँ एक तरफ प्रेम-कथाओं या वीरकथा को आधार बनाकर चारण या रासो-काव्य लिखे जा रहे थे, वहीं सिद्धों की रचना प्रक्रिया ब्राह्मणवादी मान्यताओं व आडम्बरों का प्रतिरोध करते हुए, दरबारी तथा श्रृंगारी काव्य परिपाटी से अलग चलती है।
मानना चाहिए कि समाज में निर्माण, परिवर्तन और विकास की प्रक्रिया सतत गतिशील रहती है। इतिहासकार को इस विकास प्रक्रिया का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है। साहित्येतिहासकार पर भी यह नियम लागू होता है। भाषा और साहित्य सृजन में परिवर्तन एवं विकास की प्रक्रिया कैसे चलती है, साहित्य के निर्माता को यह ज्ञान होना जरूरी है।
अब, जबकि समाज के हाशिए का हिस्सा भी अपना हक समझने और उसे पाने की कोशिश कर रहा है, साहित्य के इतिहास लेखन की दृष्टियों में बदलाव की जरूरत भी है।
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