2 साहित्य के इतिहास की अवधारणा
डॉ. गजेन्द्र कुमार पाठक पाठक
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप—
- साहित्य के इतिहास का स्वरूप समझ सकेंगे।
- साहित्य के इतिहास की सार्थकता को समझ पाऍंगे।
- साहित्य के इतिहास और समाज के इतिहास के बीच सम्बन्ध जान पाऍं।
- साहित्य के इतिहास से अतीत और वर्तमान का सम्बन्ध जान सकेंगे।
- प्रस्तावना
1845 ई. में जर्मन विचारधारा नामक अपनी मशहूर पुस्तक में कार्लमार्क्स ने इतिहास की एक परिभाषा दी थी। लिखा था कि “हम सिर्फ एक ही विज्ञान का नाम जानते हैं और वह विज्ञान है इतिहास का विज्ञान। इतिहास को दो तरफ से देखा जा सकता है और उसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक है प्रकृति का इतिहास और दूसरा मनुष्यों का इतिहास। ये दोनों हिस्से अविभाज्य हैं क्योंकि जब तक मनुष्यों का अस्तित्व है तब तक प्रकृति का इतिहास और मनुष्य का इतिहास एक दूसरे पर निर्भर है। प्रकृति का इतिहास यहाँ विचार का विषय नहीं है, हमें मनुष्यों के इतिहास की परीक्षा करनी है। चूँकि सभी विचारधाराएँ या तो इसी इतिहास की भ्रामक अवधारणा है या फिर इसे अमूर्तन का शिकार बनाती हैं। विचारधारा अपने आप में इतिहास का एक पहलूमात्र है।” आप यह देखें कि किस तरह इतिहास की प्रक्रिया में उतार-चढ़ाव आए और दुनिया को समझने-जानने के रूप में एक अनुशासन के रूप में विकसित होने में इतिहास को किस तरह का संघर्ष करना पड़ा। कार्ल मार्क्स के इस उद्धरण में विज्ञान, प्रकृति, मनुष्य, इतिहास और विचारधारा के पारस्परिक सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है। मार्क्स इतिहास और विचारधारा के अनिवार्य सम्बन्ध को जिस तरह से देख रहे थे उसी आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि दार्शनिकों ने इस दुनिया की अलग-अलग तरह से व्याख्या की है, सवाल इसे बदलने का है।
- साहित्य का इतिहास और कलावाद
इतिहास में परिवर्तन की प्रक्रिया को ध्यान में रखते हुए साहित्य के इतिहास पर विचार करने के क्रम में जो बात सामने आती है उसका सम्बन्ध मनुष्य और उसके द्वारा निर्मित समाज से साहित्य के सम्बन्ध को लेकर है। जिन लोगों ने साहित्य को आकाश और पाताल की देन माना था उनके लिए न तो इस सम्बन्ध पर विचार करने की जरूरत है और न ही उसके लिए किसी इतिहास की। यही कारण है कि सामाजिक इतिहास से लेकर राजनीतिक और आर्थिक इतिहास होते हुए अलग-अलग अनुशासनों के इतिहास में मनुष्य विरोधी और समाज विरोधी शक्तियों ने इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। साहित्य के इतिहास में यही काम कलावादियों ने किया।उन्हें साहित्य से समाज के सम्बन्धों पर कोई भरोसा नहीं था। इसीलिए वे साहित्य के किसी इतिहास की न तो जरूरत समझते थे और न ही इसकी किसी संभावना पर विचार करने की जरूरत समझते हैं। प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने इस इतिहास विरोधी साहित्य चिन्तन पर विचार करते हुए लिखा है कि “पिछले चालीस-पचास वर्षों में इतिहास विरोधी साहित्य चिन्तन के जो प्रमुख सिद्धान्त और सिद्धान्तकार आलोचना के क्षेत्र में आए हैं वे मूलतः रूपवादी ही हैं।”
इसी सन्दर्भ में मैनेजर पाण्डेय ने आधुनिक काल के कुछ प्रमुख इतिहास विरोधी आलोचना सिद्धांतों की चर्चा की है, जिसमें प्रभाववादी आलोचना, मनोवैज्ञानिक आलोचना, नई समीक्षा, मिथकीय और आद्यबिम्बात्मक आलोचना, सरंचनावाद और संरचनावादी आलोचना, शैली वैज्ञानिक आलोचना, सौन्दर्यशास्त्रीय आलोचना प्रमुख हैं।
सन् 1970 ई. में नई समीक्षा के प्रवक्ता एलेन टेट ने साहित्य के इतिहास की निरर्थकता को सिद्ध करने में अपना पूरा जोर लगा दिया था। वे साहित्य के रूप के चिन्तक थे। चिन्तक न कहिए आराधक और पूजक कहिए और जो चीज इस रूप की आराधना के काम में नहीं आती वह आलोचना का विषय भी नहीं हो सकती, ऐसा उनका विचार था। रूपवादी समीक्षा के इतिहास-विरोधी चिन्तन के वे सबसे बड़े प्रतिनिधि के रूप में उभरे।
- साहित्य के इतिहास की सार्थकता
साहित्य के इतिहास विरोधी इस वातावरण में रेने वेलेक (सन् 1903-1995 चेक-अमेरिकन साहित्य आलोचक) ने साहित्य के इतिहास के पक्ष में रूपवादी समीक्षा की इतिहास विरोधी धारणा का खण्डन करते हुए लिखा कि “रूपवादी समीक्षा के अनुसार कलारूप स्वायत्त होते हैं, नई कविता और नए चित्र, पुरानी कविता और पुराने चित्रों से पैदा होते हैं। न कि नवीन रचना परिवेश से; रचना में परिवेश,अन्तर्वस्तु या अनुभूति की नवीनता से रूप की मौलिकता उत्पन्न नहीं होती।” (साहित्य और इतिहास दृष्टि, पृ.-28) साहित्य के इतिहास के प्रयोजन पर विचार करते हुए रेने वेलेक ने इसे ‘साहित्य की प्रगति, परम्परा, निरन्तरता और विकास की पहचान के साथ जोड़ा था।’(वही, पृ-5) रेने वेलेक सिर्फ साहित्य के इतिहास की अवधारणा का विरोध करने वाले को साहित्य के इतिहास का प्रयोजन बताने वाले आलोचक नहीं थे बल्कि वे साहित्य के इतिहास को कितना जरूरी मानते थे इसका प्रमाण आठ भागों में लिखी हुई उनकी किताब आधुनिक आलोचना का इतिहास (सन् 1750-1950) भी है। इसके अन्तिम दो भागों को उन्होंने अपने जीवन के आखिरी क्षणों में (90 वर्ष की उम्र में) अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए, बोलकर पूरा कराया। किसी भी प्रकार के साहित्य की आलोचना या उस पर वस्तुगत ढंग से विचार करने के लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि किस काल खण्ड में उक्त साहित्य की रचना हुई एवं अपने समकालीन साहित्यिक एवं कला माध्यम के साथ उसके सम्बन्ध किस प्रकार के थे। मूल्यांकन के लिए आलोचक को यह जानकारी बुनियादी आधार प्रदान करती है। यदि किसी आलोचक को आलोच्य साहित्य के इतिहास की ठोस जानकारी नहीं है तो वह सिर्फ भावनात्मक रूप से साहित्य का मूल्यांकन नहीं कर सकता। साहित्य को महज भाववाद या रूपवाद की वस्तु मात्र होने से बचाने का कार्य साहित्य के इतिहास की ठोस अवधारणा के द्वारा ही किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में जी.हर्टमैन की स्पष्ट मान्यता थी कि “साहित्य का इतिहास एक बौद्धिक अनुशासन के रूप में नहीं बल्कि साहित्य की रक्षा के लिए आवश्यक है।”(न्यू लिटरेरी हिस्ट्री, सन् 1970, उ., सहित्य और इतिहास दृष्टि, पृ-4) प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने ‘नई समीक्षा’ द्वारा निर्मित इतिहास विरोधी मान्यता पर विचार करते हुए लिखा है कि “नई समीक्षा की आलोचना दृष्टि को स्वीकार करने के बाद साहित्य के इतिहास की संभावना समाप्त हो जाती है और अगर कोई इतिहास बनता है तो वह स्वतन्त्र, स्वायत्त,परस्पर विच्छिन्न रचनाओं की श्रृंखला मात्र होगा। जो इतिहास होगा ही नहीं। नई समीक्षा ने इतिहास और आलोचना के अलगाव को चरम तक पहुँचा दिया। नई समीक्षा आलोचना के उस द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण की दुश्मन है जिसके अनुसार साहित्य और समाज की कलात्मक संवेदनशीलता और सामाजिक संवेदनशीलता की परस्पर सम्बद्धता से इतिहास विवेक उत्पन्न होता है।” (वही, पृ-28) ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’ में प्रो.मैनेजर पाण्डेय ने साहित्य के इतिहास की अवधारणा के विरोध में खड़े आलोचना के जिन स्कूलों की चर्चा की है उसको देखते हुए यह लगता है कि वह चाहे फ्रायड हो या लेवी स्त्रास जिनकी वजह से क्रमशःमनोवैज्ञानिक और मिथकीय आलोचना के सिद्धान्त विकसित हुए या फिर अन्य, ये सभी आलोचना सिद्धान्त मार्क्सवाद के विरोध में पुष्पित और पल्लवित हुए। इतिहास के अन्त का ढोल बजाने वाले फ़्रांसिस फुकोयामा भी उसी की एक अगली कड़ी हैं। इतिहास के अन्त की घोषणा जिस तरह से की गई उसे दुनिया के अन्त की तरह प्रचारित किया गया। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद एक ध्रुवीय अमेरिकी वर्चस्व के प्रतीक बने इस चिन्तन ने ठीक उस समय इतिहास के अन्त की घोषणा की जिस समय पूर्वी यूरोप में साम्यवादी सरकारों का अन्त हो रहा था।सन् 1989 में एक लेखक के रूप में शुरू हुआ इतिहास का अन्त सन् 1992 में एक किताब के प्रकाशन के रूप में हुआ। इस किताब में फ्रांसिस फुकोयामा का मानना है कि “हम जिस दौर से गुजर रहे हैं वह सिर्फ शीत युद्ध का अन्त नहीं है और न ही सिर्फ युद्धोत्तर इतिहास की एक खास अवधि का अन्त है बल्कि यह इतिहास का भी अन्त है। ठीक उसी प्रकार यह मनुष्य जाति की वैचारिक उत्पत्ति का भी अन्त है। मानवीय राज्य-व्यवस्था के रूप में यह पश्चिमी ‘उदारवादी लोकतंत्र’ का वैश्वीकरण है।” फुकोयामा यहाँ सिर्फ कार्ल मार्क्स की उस अवधारणा का ही खण्डन नहीं करते जहाँ उन्होंने पूँजीवाद के ऊपर साम्यवाद की जीत को एक इतिहास के अन्तिम स्तर के रूप में देखा था बल्कि उससे भी महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ मनुष्य, इतिहास और विचारधारा का वह सम्बन्ध और सन्दर्भ है जिसकी चर्चा उस लेख की शुरुआत में ही कार्ल मार्क्स के उद्धरण के रूप में हो चुकी है।
साहित्य के इतिहास की अवधारणा के सन्दर्भ में कार्ल मार्क्स से लेकर फ्रांसिस फुकोयामा तक की चर्चा का आशय यह है कि साहित्य के इतिहास में विचारधारा की स्थिति और इतिहास लेखन के दृष्टिकोण के स्वरूप के विशेष महत्त्व हैं। प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने इस सन्दर्भ में विचार करते हुए लिखा है कि “साहित्य के, कला के वस्तु तत्व और रूप के विकास में विचारधारा की भूमिका मार्क्सवाद विरोधी चिन्तक अस्वीकार करते हैं। लेकिन कुछ मार्क्सवादी आलोचक मूल्य के निर्धारण में विचारधारा की महत्ता स्वीकार करते हुए भी एक तरह के असमंजस से आक्रांत प्रतीत होते हैं। रचनाकार की विश्व दृष्टि या विचारधारा और रचना के कलात्मक-ज्ञानात्मक मूल्य के बीच सम्बन्ध की समस्या, निश्चय ही एक जटिल समस्या है। जिसका सरलीकृत समाधान सम्भव नहीं है।” (साहित्य और इतिहास दृष्टि, पृ-17-18) यह सही है कि सिर्फ विचारधारा के आधार पर साहित्य की कोई भी विधा सम्भव नहीं है,ठीक उसी तरह सिर्फ विचारधारा के आधार पर साहित्य का इतिहास भी सम्भव नहीं है। हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचकों में राहुल सांकृत्यायन, मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय ने साहित्य का कोई मुकम्मल इतिहास नहीं लिखा, यह उन पर एक आरोप है। ये सभी आलोचक साहित्य के ज्ञान और विचारधारा की शक्ति से लैस हैं। उनकी इसी शक्ति ने उन्हें हिन्दी साहित्य के अलग-अलग पक्षों पर अलग-अलग काल खण्डों पर, अलग-अलग रचनाकारों पर और अलग-अलग विधाओं पर विचार करने के लिए प्रेरित किया है। उनके कामों को मिलाकर हिन्दी साहित्य का एक मुकम्मल इतिहास लिखा ही जा सकता है। साहित्य का इतिहास लिखने के लिए सिर्फ प्रबंधकीय तैयारी अपनी जगह है पर उससे उन प्रयासों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए जो लेखों के संग्रह के रूप में हमारे बीच हैं। ऐसे कई प्रयास इतिहास का आभास देने वाली किताबो से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, ज्यादा सार्थक हैं।
- साहित्य के इतिहास से अतीत और वर्तमान का सम्बन्ध
साहित्य के इतिहास के सन्दर्भ में अतीत और वर्तमान के सम्बन्ध को विचारणीय मानते हुए प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि “इतिहास मूलतः मूल्यांकन परक होता है। प्रश्न यह है कि अतीत की रचनाओं का मूल्यांकन अतीत के अनुभव के रूप में किया जाए या वर्तमान के अनुभव के रूप में ? कलात्मक अनुभव को शाश्वत अनुभव के रूप में परखा जाए या नए अनुभव के रूप में ? रचना का मूल्यांकन रचनाकालीन सन्दर्भ में हो या समकालीन सन्दर्भ में ? इन प्रश्नों में कलाकृति के अतीत और वर्तमान के रचनाकाल और आस्वादन की एकता और अन्तर्विरोध की व्यंजना होती है।आलोचक इतिहासकार रचना के अतीत और वर्तमान को, उसके सृजन और अस्वाद को, एक दूसरे से अलग करके नहीं देख सकता। रचना के केवल अतीत की मीमांसा करना विधेयवादी इतिहास की कमजोरियों का शिकार होना है और रचना के केवल वर्तमान को या उसके वर्तमान आस्वाद्य रूप की मीमांसा करना नई समीक्षा की प्रवृत्ति को स्वीकारना है। रचना की उत्पत्ति और उसकी वर्तमान सार्थकता दोनों पर विचार करना इतिहास का उद्देश्य है।”
साहित्य के इतिहास की अवधारणा सामाजिक और राजनीतिक इतिहास की अवधारणा से अलग नहीं है बल्कि वह उससे जुड़ी हुई है और दोनों के बीच एक सजीव सम्बन्ध है। आप याद रखें कि दुनिया के हर देशों के इतिहास में साहित्य के इतिहास तभी सम्भव हुए हैं जब उस देश में अपनी भाषाओं के अस्तित्व को लेकर संघर्ष की स्थिति बनी है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण अपने देश में मौजूद है। न सिर्फ हिन्दी बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य के इतिहास ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उस दौर में लिखे गए जब देशी भाषाओं के लिए साम्राज्यवाद ने किसी तरह के ‘स्पेस’ की जरूरत नहीं समझी थी।हिन्दी के साहित्य इतिहास लेखन पर विचार करें और उसके प्रारम्भिक इतिहास को देखें तो एक बात स्पष्ट रूप से सामने आएगी कि वे सभी प्रारम्भिक इतिहासकार जो भले ही साम्राज्यवादी मन-मिजाज न रखते हों लेकिन उन्हीं देशों के नागरिक हैं जिन देशों का साम्राज्यवाद देश में मौजूद हैं, मसलन फ्रांस और ब्रिटेन। वे हमारे साहित्य को जिस रूप में देख रहे थे या देखना चाह रहे थे उसकी सीमाओं की पहचान करते हुए ही नवजागरण के लेखकों ने हिन्दी में आलोचना की जरूरत को समझा। आलोचना की यही जरूरत इतिहास लेखन के लिए एक जमीन तैयार करती है।आचार्य शुक्ल जैसे आलोचक का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ इस बात का प्रमाण है कि साहित्य के इतिहास की अवधारणा सिर्फ जनता की चित्तवृत्ति का मामला नहीं है बल्कि यह उससे भी ज्यादा उस जनता के समाज और देश का मामला है। शुक्ल जी का इतिहास जनता की चित्तवृत्ति से जनता के देश के बीच जिस सेतु का निर्माण करता है, वही सेतु अपनी भाषा के साहित्य के साथ-साथ देश और विदेश की तमाम भाषाओं के साहित्य के बीच भी एक सेतु का काम करता है। प्रो. मैनेजर पाण्डेय का मानना है कि शुक्ल जी का इतिहास शुरू से लेकर आखिर तक स्वाधीनता आन्दोलन की चेतना से प्रेरित होकर लिखा गया इतिहास है।
- साहित्य का इतिहास और समाज का इतिहास
साहित्य का इतिहास समाज के इतिहास से क्या सम्बन्ध रखता है, इसका प्रमाण भी शुक्ल जी के इतिहास में मौजूद है। इसके साथ ही यह बात भी विचारणीय है कि साहित्य का इतिहास लिखने के लिए किस तैयारी और आत्मविश्वास की जरूरत होती है। आई. ए. रिचर्डस की किताब को उसी साल पढ़कर गंभीरतापूर्वक विचार करना, क्रोचे की अभिव्यंजनावाद की सीमा को पहचानना शुक्ल जी की तैयारी के प्रमाण हैं। यह भी ध्यान देने लायक है कि जिस क्रोचे के बारे में अपने इतिहास की किताब में शुक्ल जी ने जो लिखा है बाद में वही बात ग्राम्शी लिखते हैं। रही बात आत्मविश्वास की तो अपने समय के प्रसिद्ध और प्रचलित राजनीतिक, वैचारिक और सांस्कृतिक प्रतीक बन चुके कार्ल मार्क्स, गांधी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर से शुक्ल जी तनिक आतंकित नहीं हैं बल्कि इसके ठीक उलट तीनों के विरोध में हैं।बहरहाल शुक्ल जी के इतिहास लेखन की इस चर्चा का आशय यह है कि साहित्य का इतिहास एक विशेष सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति और प्रक्रिया का परिणाम होता है। एक तरह से देखें तो जिस तरह से महाकाव्य और उपन्यास दोनों अलग-अलग दौर की साहित्यिक उपलब्धियाँ हैं, महाकाव्य के समय में साहित्य का इतिहास नहीं लिखा जा सकता उसी तरह साहित्य का इतिहास उपन्यास के साथ ही सम्भव है। एक साहित्यिक विधा के रूप में भी साहित्य के इतिहास पर विचार होना चाहिए। प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने साहित्य के इतिहास को एक बौद्धिक अनुशासन के रूप में विकसित करने की संभावना पर विचार करते हुए लिखा है कि “साहित्येतिहास को ऐतिहासिक आलोचना से स्वतन्त्र एक बौद्धिक अनुशासन के रूप में विकसित करने के लिए यह आवश्यक है कि रचना, रचनात्मक प्रवृतियों और कलात्मक बोध के उदय तथा द्वंद्वात्मक विकास को एक गतिशील प्रक्रिया के रूप में विवेचित किया जाये और इस विकास प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले ऐतिहासिक यथार्थ से विकास-प्रक्रिया के सम्बन्ध की व्याख्या की जाए। इस विकास-प्रक्रिया से उत्पन्न परिवर्तनों के कारण और प्रभाव की व्याख्या करना भी इतिहासकार का काम है।” ऐतिहासिक अन्तर्दृष्टि और आलोचनात्मक चेतना के संयोग को मैनेजर पाण्डेय किसी भी साहित्यिक इतिहास की सफलता की पूँजी मानते हैं। इसी संयोग के कारण रामचन्द्र शुक्ल का इतिहास एक क्लासिक कृति है जबकि बाकी दूसरे इतिहास इसी संयोग के अभाव में उस ऊंचाई तक नहीं पहुँच पाए हैं।
हिन्दी में साहित्य के इतिहास की अवधारणा पर विचार करते हुए नामवर सिंह का यह कहना ठीक लगता है कि “इतिहास लिखने की ओर कोई जाति तभी प्रवृत होती है जब उसका ध्यान इतिहास के निर्माण की ओर जाता है। यह बात साहित्य के बारे में उतनी ही सच है जितनी जीवन के बारे में। हिन्दी में आज इतिहास लिखने के लिए यदि विशेष उत्साह दिखाई पड़ रहा है तो यही समझा जाएगा कि स्वराज्य-प्राप्ति के बाद सारा भारत जिस प्रकार सभी क्षेत्रों में इतिहास निर्माण के लिए आकुल है उसी प्रकार हिन्दी के विद्वान एवं साहित्यकार भी अपना ऐतिहासिक दायित्व निभाने के लिए प्रयत्नशील हैं। पहले भी जब साहित्य का इतिहास लिखने की परम्परा का सूत्रपात हुआ था तो सम्पूर्ण राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के इतिहास निर्माण के साथ ही। यदि आरम्भिक इतिहासों के इतिहास में न जाकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास को ही लें, जो हिन्दी साहित्य का पहला व्यवस्थित इतिहास माना जाता है, तो उसकी ऐतिहासिकता द्योतित करने के लिए उस युग का राष्ट्रीय आन्दोलन समानांतर दिखाई पड़ेगा। राजनीतिक इतिहास ग्रंथों का सिलसिला भी उसी ऐतिहासिक दौर में जमा। परन्तु शुक्ल जी के इतिहास के सन्दर्भ में जो सबसे प्रासंगिक तथ्य है वह है तत्कालीन रचनात्मक साहित्य की ऐतिहासिक क्रांति – कविता और कथा-साहित्य का नवीन सृजनात्मक प्रयत्न। साहित्य का वैसा इतिहास तभी सम्भव हुआ जब साहित्य रचना के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक परिवर्तन आया, जब सच्चे अर्थों में इतिहास बना।” इस उद्धरण से स्पष्ट है कि नामवर सिंह इतिहास लेखन को गहरे दायित्त्व का कार्य मानते हैं क्योंकि इतिहास की अवधारणा की समझ और साहित्य इतिहास लेखन की जरूरत सिर्फ साहित्य ही नहीं बल्कि अपने समय और समाज के निर्माण की प्रक्रिया से आवश्यक रूप से जुड़ा होता है। मार्क्स ने भी इतिहास लेखन की सामाजिकता को दृष्टि में रखते हुए इतिहास को विज्ञान और वैज्ञानिक विचारधारा से जोड़ा था।
साहित्य के इतिहास लेखन पर या यों कहें साहित्य के इतिहास लेखन की अवधारणा पर विचार करते हुए नामवर सिंह ने लिखा है, “जिसे मैं नियामक घटना कहना चाहता हूँ वह यह है कि इतिहास वही लिखता है और लिख सकता है, सार्थक इतिहास, जो इतिहास बनाने में योग दें। यदि आप स्वयं इतिहास से तटस्थ हों, आज जो साहित्य लिखा जा रहा है उससे तटस्थ हों, तो आप साहित्य का इतिहास नहीं लिख सकते। अपने सामाजिक जीवन का इतिहास बनाने में यदि आप भूमिका अदा करेंगे और इस सामाजिक जीवन को बदलने में आज का साहित्य जो भूमिका अदा कर रहा है, उससे आप संलग्न होंगे, प्रतिबद्ध होंगे तभी आप सार्थक इतिहास लेखन का कार्य कर सकेंगे। वरना आप एंटी-क्वेरियन की तरह से काम करेंगे। आप एक अतीतवादी यानी गड़े मुर्दे उखाड़ने वाले होंगे।
- निष्कर्ष
अस्मितामूलक विमर्श में शामिल लेखक और विचारक आज जब हिन्दी साहित्य के इतिहास की अवधारणा पर सवाल उठा रहे हैं तब भी यह बात विचारणीय है कि इतिहास सदैव अपने समय की आवश्यकता और उपलब्ध सामग्री के आधार पर ही सम्भव होता है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में हिन्दी साहित्य के जो इतिहास लिखे गए वे अपने समय की आवश्यकता और उपलब्ध सामग्री के आधार पर ही लिखे गए। जिन इतिहासकारों ने इन दोनों संभावनाओं का अधिकतम उपयोग किया वे अपने समय के बड़े इतिहासकर माने गए। कार्ल मार्क्स ने एक जगह लिखा है कि कोई भी इतिहासकार उतना ही कपड़ा सिलेगा जितना कपड़ा उसे इतिहास उपलब्ध कराएगा। यही उन इतिहासकारों की सीमा भी है। अपने पूर्ववर्ती इतिहाकारों की सीमाओं का आकलन होना चाहिए। जो सिर्फ उनकी शक्ति का मूल्यांकन करते हैं और सीमा का आकलन नहीं करते वे भावी इतिहासों की भूमिका का आधार नहीं तैयार कर सकते। इसके ठीक उलट जो सिर्फ उनकी सीमाओं के आकलन तक सीमित रहते हैं वे भी भावी इतिहास की संभावना को ठोस आधार नहीं प्रदान कर सकते। साहित्य के इतिहास की अवधारणा का जन्म और विकास किसी निर्वात (vaccum) में नहीं होता बल्कि उसका सीधा सम्बन्ध इतिहासबोध, साहित्यबोध और जीवनबोध से है। कोई भी बेहतर इतिहास इन तीनों के संयुक्त प्रक्रिया से ही सम्भव है।
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