14 साहित्य के इतिहास का भाषा और समाज के इतिहास से सम्बन्ध
प्रो. मैनेजर पाण्डेय पाण्डेय
1. पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
• साहित्य के इतिहास और समाज के इतिहास के अन्तर्सम्बन्धों को जान सकेंगे।
• भाषा के इतिहास और साहित्य के इतिहास के अन्तर्सम्बन्धों को समझ सकेंगे।
• साहित्येतिहास में जातीय साहित्य की भूमिका से परिचित हो सकेंगे।
• साहित्य की रचना में समाज और भाषा के प्रभाव को समझ सकेंगे।
2. प्रस्तावना
समाज, भाषा और साहित्य के बीच सहज सम्बन्ध होता है। भाषा का निर्माण बिना समाज के सम्भव नहीं है। किसी भी भाषा का अस्तित्व सामाजिक या सामूहिक होता है, वैयक्तिक नहीं। साहित्य भाषा में लिखा या कहा जाता है। सम्वाद के लिए समाज और भाषा जरूरी है। भाषा समाज में पैदा होती है। सामाजिक सत्य भाषा और साहित्य में विविध रूपों में उपस्थित होते हैं। ऐसी स्थिति में यह मानना असम्भव है कि साहित्य का इतिहास भाषा और समाज के इतिहास से सम्बन्धित नहीं है या इससे निरपेक्ष होता है। हाँ, इसके सम्बन्ध के स्वरूप, निर्माण, परिवर्तन, सातत्य, प्रभाव आदि को देखने और विश्लेषण करने के नजरिये में मतभेद हो सकते हैं, लेकिन साहित्य का इतिहास भाषा और समाज के इतिहास से सम्बन्धित होता है, इसे निर्विवाद रूप से मान लेने में कोई दुविधा नहीं है।
3. साहित्य का इतिहास और भाषा का इतिहास
भाषा का मूल आधार व्याकरण है। व्याकरण वह नियम है जिसे भले पहली बार कोई व्यक्ति दर्ज करे लेकिन वह किसी भी हालत में उसके निजी मानस या बुद्धि की उपज नहीं कहा जा सकता। ऐसा होना असम्भव है कि किसी भाषा का व्याकरण कोई लेखक बना दे और फिर कोई समूह या समाज उस व्याकरण के अनुसार भाषा का व्यवहार करने लगे। व्याकरण लेखक किसी भाषा के व्यवहार की किसी सामाजिक या सामूहिक ‘व्यवस्था’ को व्याकरण के रूप में दर्ज करता है और इन्हीं सामाजिक या सामूहिक शर्तों को प्राथमिक रखते हुए भाषिक मानकीकरण को प्रस्तुत करता है। भाषा का उद्भव और विकास समाज अथवा समूह से कटा हुआ नहीं होता। साहित्य लिखा या कहा भाषा में जाता है, अस्तु वह भी भाषा में और समाज में हुए परिवर्तनों से अपने आपको बचा नहीं सकता। साहित्य की गतिशीलता को देखने वाली और उसका विवेचन व विश्लेषण करने वाली इतिहास-दृष्टि सामाजिक और भाषिक सत्यों व तथ्यों को नजरअन्दाज नहीं कर सकती।
साहित्य का इतिहास लेखक कई बार किसी भाषा के व्याकरण और शब्दों की सहायता से अपनी साहित्येतिहास दृष्टि को समृद्ध करता है। एक भाषा का साहित्य कब अपनी नजदीक की किसी दूसरी भाषा के साहित्य से मिल जाता है और उसमें शब्दों और व्याकरण की क्या भूमिका होती है, इसका ध्यान साहित्येतिहास लेखक रखता है। जैसे कुछ परिवर्तनों के साथ जब अपभ्रंश से हिन्दी का साहित्य अलग होता है, जिसे चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने पुरानी हिन्दी कहा है, वह शब्दों में दिखने लगता है। एक लक्षण के रूप में हम क्षतिपूरक दीर्घीकरण की बात करें तो यह देखना दिलचस्प है कि इसके तहत अपभ्रंश के शब्द हिन्दी भाषा और साहित्य के आरम्भ में, अर्थात आदिकालीन हिन्दी में, दिखने लगते हैं। उदाहरण के लिए कज्ज से काज, कम्म से काम और सत्त से सात आदि शब्द। यहाँ एक अक्षर की आवृत्ति का ह्रास आरम्भिक अक्षर को ह्रस्व की बजाय दीर्घ करके पूरा किया जा रहा है। इसी तरह शब्द विज्ञान व अर्थ विज्ञान, जो कि भाषाशास्त्रीय पहलू हैं, उनका भी सहारा साहित्येहास लेखक लेता है।
भाषा का इतिहास लेखक यह गम्भीरता से देखता है कि कब किसी भाषा में दूसरी भाषाओं से शब्द आए और किन परिवर्तनों के चलते आए। किस तरह वे उस भाषा का हिस्सा बने। हिन्दी या उर्दू जैसी भाषाएँ अपने पर-भाषायी शब्द ग्रहण के लिए खास तौर पर लक्षित की जा सकती हैं। शब्द ग्रहण की इस प्रवृत्ति को इन भाषाओं की उदारता व शुद्धतावाद विरोधी प्रवृत्ति के रूप में देखा जा सकता है। यह भाषायी प्रवृत्ति है। इन भाषाओं के साहित्य और साहित्यकारों में भी दिखती है। उदाहारणस्वरूप मीर तकी मीर के यहाँ हिन्दी के चलते हुए शब्द मिल जाएँगे और तुलसीदास के यहाँ उर्दू के। तुलसी के राम ‘गरीब नेवाज’ हैं। साहित्येतिहास लेखक भाषा की इन गतिशील विशेषताओं को देखता है जिससे किसी साहित्यकार और साहित्य की मानसिकता और रुचि की जानकारी मिलती है।
साहित्य का इतिहास लेखन उन पेचीदगियों और जटिलताओं का शिकार हो जाता है, जिन्हें हम खास करके भाषायी पेचीदगी या जटिलता कह सकते हैं। साधारणतः अगर दो भाषाओं का व्याकरण मिलता है तो यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि वे दो नहीं एक भाषा हैं। परन्तु हिन्दी और उर्दू के सम्बन्ध में हमें एक अलग और अद्भुत बात देखने को मिलती है। वह यह है कि एक ही व्याकरण के बावजूद दो शैलियों की दो पृथक भाषाओं के रूप में पहचान और मान्यता। गौरतलब है कि हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं का व्याकरण एक ही, अर्थात खड़ी बोली का है। एक ही व्याकरण पर चलने वाली एक शैली को हम हिन्दी कहते हैं, जिसमें अपेक्षाकृत संस्कृत के शब्दों का व्यवहार अधिक है और दूसरी शैली को उर्दू कहते हैं, जिसमें अपेक्षाकृत अरबी-फारसी शब्दों का व्यवहार अधिक है। इन दोनों शैलियों ने अपने लिए अलग अलग लिपियाँ रखी हैं। हिन्दी की लिपि नागरी है जबकि उर्दू की फारसी। लिपि भेद को भाषा के अलग होने का कारक नहीं माना जा सकता। आज बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो हिन्दी को ‘रोमन लिपि’ में लिख रहे हैं, ऐसी स्थिति में यह तो नहीं कह सकते कि वे हिन्दी के अलावा किसी दूसरी भाषा का व्यवहार कर रहे हैं। अब सवाल उठता है कि एक ही व्याकरण और एक ही जमीन की पैदावार होने पर हिन्दी और उर्दू दो भाषाएँ मानी गई हैं तो इतिहास लेखक अगर हिन्दी का है तो वह उर्दू के साहित्य और साहित्यकार को कैसे छोड़े या उर्दू का है तो वह हिन्दी के साहित्य और साहित्यकार को कैसे अपने इतिहास की सामग्री से बाहर कर दे। इतिहास लेखन की इस विडंबना को हम इन दोनों भाषाओं के साहित्य के इतिहास लेखकों में देख सकते हैं। उर्दू साहित्य का इतिहास लेखक कबीर, सूर और तुलसी को अपने इतिहास की सामग्री के रूप में सहज स्वीकार नहीं कर पाता। हिन्दी साहित्य का इतिहास लेखक मीर, गालिब और जौक को अपने विवेचन और विश्ले षण के आधार के रूप में ग्रहण नहीं कर पाता। इस तरह भाषायी, भाषाशास्त्रीय या भाषायी इतिहास की बहुतेरी उलझनों का प्रभाव साहित्य के इतिहास लेखन पर पड़ता है।
भाषा प्रयोग से वर्गीय सच और वर्ग दृष्टि का संकेत भी मिलता है। साहित्यकार कई बार सचेत या अचेत रूप से किसी दूसरे वर्ग की स्थिति, उपस्थिति या दशा को दिखाने के लिए अपने ही साहित्य में दूसरी भाषा का प्रयोग करता है। जैसे कालिदास के यहाँ जब स्त्रियाँ अपनी अभिव्यक्ति करती हैं तो वे संस्कृत की जगह प्राकृत भाषा का व्यवहार कराते हैं। इसी तरह आज के समय में खड़ी बोली-हिन्दी के साहित्य और फिल्मों में हम देख सकते हैं कि ब्रज, अवधी या भोजपुरी पँक्तियों को इसलिये रखा जाता है कि अमुक पात्र ग्रामीण पृष्ठभूमि से है। वहीं श्रेष्ठ वर्ग के पात्रों की स्थिति को अंग्रेजी के शब्दों या वाक्यों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। साहित्येतिहास लेखक की पैनी निगाह इन भाषा सम्बन्धी सचों या लक्षणों पर रहती है या रहनी चाहिए।
भाषा में शब्दों की उपस्थिति और उनका साहित्य में व्यवहार अपनी सांस्कृतिक पहचान को व्यक्त करता है। जैसे अंग्रेजी भाषा में मछलियों के लिए बहुत से नाम हैं। कारण है कि वह समुद्र के विविध तरीके से कटे-फटे तटों के पास विकसित भाषा है, इसलिए वहाँ के समाज का मछलियों से ज्यादा करीबी सम्बन्ध रहा। इसी तरह हिन्दी में सूरज के लिए कई शब्द हैं, कारण है कि विशाल स्थलीय क्षेत्र होने के कारण और विभिन्न भाषा संस्कृतियों के मेलजोल के कारण सूर्य के लिए अनेक शब्दों की उपस्थिति सम्भव हुई। साहित्येतिहास लेखक भाषा सम्बन्धी इन सांस्कृतिक सच्चाजइयों को भी अपने विवेचन में शामिल कर सकता है।
4. साहित्य का इतिहास और समाज का इतिहास
जिस तरह साहित्येतिहास भाषा के इतिहास से विभक्त नहीं होता, वैसे ही समाज के इतिहास से भी। साहित्य के इतिहास का विवेचन, विश्लेषण, प्रवृत्ति-निरूपण और उसका काल विभाजन आदि समाज-सापेक्ष होता है। इस तथ्य को हिन्दी के पहले व्यवस्थित इतिहास लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी शब्दसागर की भूमिका में स्थान दिया है – ‘जब कि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति में परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक और धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। अतः कारण स्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित दिग्दर्शन भी साथ ही साथ आवश्यक होता है।’ निश्च य ही साहित्य के इतिहास का जनता की चित्तवृत्ति को प्रेरित-प्रभावित करने वाली इन साहित्येतर परम्पराओं के इतिहास से गहरा सम्बन्ध होता है। किसी विशिष्ट समय में जनता की रुचि किस तरह की थी और कौन सी साहित्येतर परम्पराएँ उसका पोषण-संवर्धन कर रही थी, इसे जानना आवश्यक है। यह साहित्येतिहास लेखक पर निर्भर करता है कि वह अपने लेखन में इन इतर परम्पराओं को कितना महत्व देता है। साहित्य का इतिहास दर्शन में नलिन विलोचन शर्मा हिन्दी के दूसरे महत्त्वपूर्ण इतिहास लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी की इतिहास-दृष्टि को शुक्ल जी से अलग साहित्यिक परम्पराओं पर केंद्रित पाते हैं। ऐसा कहते हुए वे हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ के इस ‘निवेदन’ वाक्य को उद्धृत करते हैं –- ‘ऐसा प्रयत्न किया गया है कि हिन्दी साहित्य को संपूर्ण भारतीय साहित्य से विच्छिन्न करके न देखा जाए। मूल पुस्तक में बार-बार संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के साहित्य की चर्चा आई है….।’ हजारी प्रसाद द्विवेदी शुक्ल जी की तुलना में साहित्येतर परम्पराओं पर कम जाते हैं। वे भाषायी इतिहास की भूमिका को शामिल करते ही हैं व साहित्यिक परम्पराओं का ज्यादा सहारा लेते हैं। परन्तु इन दोनों दृष्टियों में प्राथमिकता सम्बन्धी अन्तर मुख्य है, हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्येतिहास पढ़ने वाला आसानी से समझ सकता है कि वे सामाजिक परम्पराओं से नितान्त कटते हुए नहीं चलते। जैसे हिन्दी साहित्य में सिद्धों-नाथों के आक्रोश में व्यक्त सामाजिक सच को वे देखते हैं और कबीर को नवधर्मान्तरित वयनजीवी जाति की स्थिति-अवस्थिति से जोड़ कर उनकी कविता में सामाजिक स्थिति कैसे अभिव्यक्त हुई है, यह भी दिखाते हैं। कोई भी साहित्येतिहास लेखक भाषा, समाज और साहित्य के इस सहज सम्बन्ध की नितान्त उपेक्षा नहीं कर सकता।
5. साहित्येतिहास और जातीयता
साहित्य किसी ‘जाति’ (नेशन) का साहित्य भी होता है। यहाँ देखना आवश्यक है कि ‘जाति’ से क्या आशय है! भाषा और साहित्य के सन्दर्भ में जाति के निर्माण और विकास पर लेनिन और स्टालिन ने पर्याप्त विचार किया है और इनके चिन्तन का प्रभाव भारतीय लेखक रामविलास शर्मा पर पड़ा है। इन पर स्टालिन के विचारों का असर अधिक है। रामविलास शर्मा के यहाँ साहित्यिक ‘परम्परा के मूल्यांकन’ में जातीय चिन्तन की खासी भूमिका है। स्टालिन का मानना है कि ‘जाति’ का विकास एक निश्चित ऐतिहासिक समय में होता है। यह समय वही है जिसमें पूँजीवाद का उदय होता है और सामन्तवाद का ह्रास होता है। रामविलास शर्मा इन्हीं लक्षणों के साथ भारत में जाति निर्माण और जातीय भाषा के विकास को देखते हैं। पहले वे मानते थे कि भारत में यह प्रक्रिया 15 वीं, 16 वीं और 17 वीं सदी से शुरू हुई परन्तु बाद में वे इसे 12 वीं सदी से मानने लगते हैं। रामविलास शर्मा आधुनिक भारतीय भाषाओं में जो साहित्य लिखा गया है उसे जातीय साहित्य के रूप में देखे व समझे जाने के पक्षधर हैं। एकान्तिकता व निरपेक्षता से अलग समाज-सापेक्षता पर जोर देते हुए, साहित्य के जातीय स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उन्होंने अपनी पुस्तक महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण में लिखा है –- ‘जो लोग कला की एकांत साधना पर जोर देते हैं या उसके शाश्वत मूल्यों पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं, उनकी समझ में यह बात जरा मुश्किल से आती है कि साहित्य का जातीय स्वरूप भी होता है। जैसे किसी भाषा के बोलने वालों के बिना उस भाषा के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती, वैसे ही उस भाषा के माध्यम से साहित्य रचने, उसे पढ़ने और सुननेवालों के बिना साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। बंगला, मराठी, तमिल, आदि भाषाएँ बोलने वाले समुदाय आधुनिक जातियाँ हैं। इन भाषाओं में रचा हुआ साहित्य उनका जातीय साहित्य है।’
साहित्य के इस जातीय रूप को देखते हुए साहित्येतिहास लेखक की सजगता और दाय अतिरिक्त हो जाती है कि वह अपनी दृष्टि को अधिक प्रखर, पूर्वग्रह रहित और वस्तुनिष्ठ बनाए रखे। सामाजिक विकास में हम जनवादी और जनविरोधी प्रवृत्तियों का स्पष्ट टकराव या द्वंद्व देखते हैं। इस तरह सामाजिक गतिशीलता में एक संघर्ष है, वर्ग-संघर्ष। यह साहित्य में भी व्यक्त होता है। अधिकांश भारतीय साहित्य में घटित हुए भक्ति आन्दोलन को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है। भक्ति और समाज में ब्राह्मण श्रेष्ठता व ब्राह्मण वर्चस्व की जनविरोधी प्रवृत्तियों के विरुद्ध समता और मानवीय प्रेम की व्यापकता की जनवादी प्रवृत्तियों का टकराव या द्वंद्व अखिल भारतीय भक्ति साहित्य में देखा जा सकता है। इसी तरह स्वातंत्र्योत्तर भारतीय साहित्य में यह प्रवृत्तिगत टकराव देखा जा सकता है। एक तरफ जनविरोधी प्रवृत्तियाँ हैं जो प्रतिगामी हैं, अतीतोन्मुखी हैं। दूसरी तरफ जनवादी प्रवृत्तियाँ हैं जो वंचितों के संघर्ष एवं अधिकार को साहित्य में मुखर करती हैं, ये प्रगतिगामी और भविष्योन्मुखी हैं। साहित्येतिहास लेखक को, साहित्येतिहासिक मूल्यांकन करने वाले को साहित्य के वर्गीय लक्षणों और वर्गीय व विचारधारात्मक अंतर्विरोधों को देखने में किसी सरलीकरण, पूर्वग्रह या लापरवाही का शिकार नहीं होना चाहिए। हिन्दी साहित्य परम्परा के ऐतिहासिक मूल्यांकन के विषय में ‘जातीयता’ की सराहनीय चर्चा करने वाले रामविलास शर्मा के यहाँ भी ऐसी चूकें मौजूद हैं। परम्पराओं को सामाजिक मानने वाले रामविलास शर्मा जब व्यक्ति-आश्रयी परम्परा का आग्रह करते हुए उपन्यासकार प्रेमचन्द की परम्परा में उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु के मैला आँचल की ‘आंचलिकता’ को देखते हुए मैला आँचल में प्रगतिविरोधी प्रवृत्तियों के होने की बात करते हैं, तो वे स्पष्टतः पूर्वग्रही होते हैं। वे प्रेमचन्द के सामाजिक चित्रण को एक निर्धारित ‘मानक’ की तरह मान बैठते हैं और रेणु के यहाँ व्यक्त सामाजिक चित्रण में सामाजिक गतिशीलता, द्वंद्व और जटिलता को नहीं देख पाते। साहित्येहासिक परम्परा का मूल्यांकन करते समय परम्परा को ‘रूढ़ि’ की तरह ग्रहण करने और नए सामाजिक सत्यों और गतिशीलता के बरक्स प्रतिमान विषयक आग्रहों से बचना चाहिए।
6. साहित्य और समाज का सम्बन्ध
साहित्य के इतिहास को समाज के इतिहास से असम्बद्ध मानने वाले साहित्य और समाज के बीच के सम्बन्ध को भी स्वीकार नहीं करना चाहते। वे मानते हैं कि रचना तो कल्पना का खेल है फिर साहित्य से निकलने वाले सामाजिक सत्य का स्वरूप कैसे सही होगा। इसमें सामाजिक अभिव्यक्ति किस तरह और किस रूप में होगी। साहित्यिक चेतना में सामाजिक चेतना को किस तरह निहित माना जाए और उस चेतना में सामाजिक यथार्थ कैसे व्यक्त होगा। और सबके बाद यह कि कैसे और किस प्रणाली द्वारा रचना में सामाजिकता या सामाजिक यथार्थ की खोज की जाए।
यह बात साहित्यिक समाजशास्त्रियों द्वारा युक्तिसंगत रूप से प्रस्तुत की जा चुकी है कि समाज किसी साहित्यिक रचना की अन्तर्वस्तु में ही अभिव्यक्त नहीं होता बल्कि वह रचना के अन्य पक्षों में भी व्यक्त होता है। जैसे उसकी संरचना, शिल्प और भाषा में भी। साहित्यिक रचना में वह ‘खोज’ महत्त्वपूर्ण है जो किसी समाज, जहाँ की उपज वह रचना है, को सम्पूर्णता में समझने में सहायक होती है। इसी तरह वह साहित्येतिहास भी महत्त्वपूर्ण है। साहित्यिक कल्पनाओं में सामाजिक अभिप्राय की खोज की जाती है। अगर कोई साहित्यकार भारत के किसी पिछड़े हुए गाँव में रह कर लिख रहा है तो उसके द्वारा रचना में कल्पित समाज में अमेरिका के न्यूयार्क शहर की छाप नहीं मिल सकती। इसी तरह इस कल्पना के अन्य सामाजिक यथार्थ होंगे जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। कई बार साहित्य और समाज के सम्बन्ध को नकार कर कला कला के लिए व साहित्य साहित्य के लिए का नारा बुलन्द करने वाले अभिव्यक्ति की किसी एक ही शैली पर आश्रित होकर उसी को अन्तिम मान बैठते हैं। यद्यपि तथाकथित वह शैली भी सामाजिक आधार व जमीन से पूर्ण पृथक होकर निहायत गोपनीय गगन-विहारी नहीं होती।
समाज में कलाकार और साहित्यकार की स्थिति भी बदलती रहती है जिसका विश्ले षण पहले कला और साहित्य के इतिहास के अन्तर्गत होता था। यूरोपीय लेखकों ने समाज के विकास को दिखाने के साथ साथ कला और साहित्य के विकास को दिखाने का कार्य किया है। इस लिहाज से आर्नल्ड हाउजर की पुस्तक कला का इतिहास दर्शन देखी जा सकती है। इसमें विभिन्न प्रभावों के फलस्वरूप विभिन्न कालों में कलाकार की सामाजिक स्थिति कैसे बदलती रही और उससे साहित्यिक रूप कितना व कैसे प्रभावित होता रहा, इसे देखा जा सकता है।
साहित्येतिहास लेखक को किसी साहित्यिक रचना की निर्मिति में ही समाज की उपस्थिति देखने के साथ-साथ उस रचना के पाठकीय ग्रहण पर भी निगाह रखनी चाहिए। कब कैसी रचना किस तरह के पाठक समाज को आकर्षित करती रही, यह देखना कम दिलचस्प नहीं। साहित्येतिहास लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में यह दिखाया है कि किस तरह देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों को पढ़ने के लिए एक व्यापक पाठक समाज टूट पड़ा था और उसी तरह के उपन्यास को पढ़ने के लिए वह हिन्दी भाषा सीखने लगा था। ऐसे सामाजिक तथ्य भी अनिवार्यतः साहित्येतिहास में अपनी भूमिका निभाते हैं।
7. निष्कर्ष
भाषा, साहित्य और समाज के सहज सम्बन्ध को देखते हुए यह सहज ही स्वीकारना होगा कि इसमें से किसी एक का भी इतिहास लेखन अन्य के इतिहास की उपेक्षा करके संपूर्णता को प्राप्त नहीं होगा। इनमें से किसी का भी इतिहास लेखन चाहे वो भाषा का हो या साहित्य का या फिर समाज का, उसे सम्पूर्णता के लिए एक दूसरे का सहारा लेना पड़ता है। साहित्य के इतिहास लेखन के सन्दर्भ में यह और भी अनिवार्य है। साहित्य के इतिहास लेखन में साहित्यिक परम्परा की गतिशीलता को भी दिखाने के लिए भाषा और समाज के इतिहास की आवश्यकता हमेशा पड़ती है। इसके बिना साहित्यिक परम्परा में आए परिवर्तनों की समुचित व्याख्या नहीं हो पाएगी।
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वेब लिंक्स
- https://www.youtube.com/watch?v=kpAIiPaoHiM
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