4 इतिहास और साहित्य का सम्बन्ध

डॉ. गजेन्द्र कुमार पाठक पाठक

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस अध्याय को पढ़कर आप–

  • इतिहास और साहित्य का सम्बन्ध जान पाएँगे।
  • साहित्य में अभिव्यक्त इतिहास का महत्त्व समझ पाएँगे।
  • इतिहास और साहित्य के प्रारम्भिक दौर में नायकत्व की केन्द्रीय अवधारणा में अभिव्यक्त ऐतिहासिकता से परिचित हो पाएँगे।
  • औपन्यासिक यथार्थ और यथार्थवाद में अभिव्यक्त ऐतिहासिकता से परिचित हो सकेंगे।
  • समकालीन विमर्श पर आधारित साहित्य में अभिव्यक्त इतिहास का महत्त्व जान पाएँगे। 
  1. प्रस्तावना

 

इतिहास और साहित्य के पारस्परिक सम्बन्धों पर विचार करने के क्रम में प्राथमिक स्तर पर जो बात सबसे पहले समझ में आती है, उसका सम्बन्ध दोनों की विषय-वस्तु से है। इतिहास में जहाँ हो चुके की बात होती है, वहीं साहित्य में जो हो सकता है, उसकी बात होती है। विषय-वस्तु के धरातल पर इतिहास और साहित्य की इस भिन्‍नता के बावजूद जो दूसरी बात बेहद महत्त्वपूर्ण है, उसका सम्बन्ध समाज से है, समाज की इकाई व्यक्ति से है। जहाँ इतिहास और साहित्य क्रमशः हो चुके और हो सकने की बात करते हैं, वहीं समाज के स्तर पर दोनों उसे समझने की प्रक्रिया में लगभग एक ही तरह की भूमिका निभाते हैं।  यहाँ एक बात और उल्लेखनीय है कि समाज की समझ के आधार पर ही इतिहास और साहित्य की रूपरेखा अवलम्बित है।

  1. भक्ति आन्दोलन और भक्ति कविता में अभिव्यक्त इतिहास और साहित्य का सम्बन्ध

 

भक्ति आन्दोलन और भक्ति कविता के हवाले से अनेक इतिहासकारों का इतिहास और साहित्य के सम्बन्धों पर विचार करने का एक ठोस आधार है। निश्‍चय ही यह कविता उस सामन्ती समय और समाज की आन्तरिक उथल-पुथल और प्रतिरोध की संस्कृति को समझने के लिए एक ऐतिहासिक साक्ष्य है। अपने मशहूर निबन्ध इतिहास धारा  में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने नानक और कबीर जैसे उपदेशकों  के ऐतिहासिक योगदान का मूल्यांकन करते हुए लिखा है– “उन्होंने ध्यान योग से स्पष्ट देखा था कि बिखराव और असंलग्‍न के बीच भारत किसी निभृत सत्य पर प्रतिष्ठित है। मध्ययुग में एक के बाद एक कबीर जैसे आचार्यों का अभ्युदय हुआ। जो बोझ भारी हो उठा था, उसे हल्का करना ही उनका एक मात्र प्रयास था। लोकाचार, शास्‍त्रविधि और अभ्यास के रुद्ध द्वार पर आघात करके उन्होंने भारत को जगाने का प्रयत्‍न किया।” इस उद्धरण से स्पष्ट है कि साहित्य ने इतिहास की धारा को मोड़ने में किसी भी अन्य अनुशासन से कम भूमिका नहीं निभाई। यह भी ध्यातव्य है कि जिस भारी बोझ का उल्लेख यहाँ है, उसी की ओर संकेत करते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी ने पण्डिताई को एक भारी बोझ माना था। बार-बार पोथी को उद्धृत करने वालों द्वारा निर्मित बोझ। कबीर जैसे लोग इस बोझ को अपनी तरह से हल्का करने का प्रयास कर रहे थे। टैगोर के इसी निबन्ध में साहित्य और इतिहास के प्राचीन सम्बन्धों के सन्दर्भ भी शामिल हैं। रामायण और महाभारत की कथाओं में छिपे ऐतिहासिक सन्दर्भों की व्याख्या करते हुए उन्होंने महसूस किया था कि ‘आरम्भ में ही भारतवर्ष के दोनों महाकाव्यों का मूल विषय यही प्राचीन सामाजिक संघर्ष अर्थात समाज के भीतर नूतन और पुरातन का विरोध।’ वे इसी क्रम में इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि ”महाभारत की समीक्षा करने से स्पष्ट देखा जा सकता है कि विरोध के बावजूद अनार्यों का मिलन और धर्म-मिलन हो रहा था। इस तरह जब वर्ण संकर और धर्म संकर होने लगा, समाज की आत्मरक्षण शक्ति ने सीमा निर्णय करके बार-बार अपने को बचाने का प्रयत्‍न किया। जिसका त्याग सम्भव नहीं था, उसको ग्रहण करके एक वेष्टन में बाँध दिया गया। मनुस्मृति  में वर्ण संकर के विरुद्ध जो प्रयास है और मूर्ति पूजा व्यवसायी  ब्राह्मणों के प्रति जो घृणा व्यक्त की गई है उससे पता चलता है कि अनार्यों के साथ रक्त मिश्रण और धर्म-मिश्रण स्वीकृत होने पर भी उनका विरोध बन्द नहीं हुआ था।”  टैगोर का यह निष्कर्ष इस बात का प्रमाण है कि वे साहित्य के आधार पर इतिहास के संघर्ष को पहचानने की क्षमता रखते थे। साहित्य में इतिहास का सन्दर्भ वही पहचान सकता है जो साहित्य और समाज के गतिशील सम्बन्धों पर भरोसा रखता हो। इतिहास की धाराएँ और साहित्य की धाराएँ जरूरी नहीं कि एक साथ चलें, वे अलग-अलग चल सकती हैं, लेकिन उनके इस अलगाव को पहचानने के लिए भी दोनों के बीच जो समाज है, उस समाज की संरचना को पहचानना होगा। साहित्य और इतिहास का सम्बन्ध जो यूरोप में होगा, जरूरी नहीं कि वही भारत में भी हो।

  1. इतिहास में नायकत्व

 

कई इतिहासकारों ने इतिहास में हाशिए की आवाजों को प्रमुखता दी है अब तक नायकत्व की पुरानी अवधारणा में उलझी हुई इतिहास-दृष्टि हाशिए की इन आवाजों को सुनने की इच्छा नहीं रखती थी। यह विचारणीय विषय है कि प्रेमचन्द जैसे लेखक हाशिए की इन्हीं आवाजों को अपने कथा साहित्य का विषय बनाते हैं। यह विचार करने का विषय है कि साहित्य के इतिहासबोध और सामाजिक और राजनीतिक इतिहासबोध में यहाँ कौन आगे है और कौन पीछे ? सामाजिक इतिहासकार जब वैदिक काल का इतिहास लिखते हैं तब उन्हें साहित्य के पास जाने में कोई हिचक नहीं होती। अर्थात जिस समय का कोई इतिहास नहीं है, उस समय का साहित्य लेकर अगर इतिहास लिखा जा सकता है, तो फिर जिस समय का इतिहास उपलब्ध है, उस समय के साहित्य को लेकर इतिहासकारों के बीच इतनी लापरवाही क्यों है? यहाँ इस बात पर भी विचार करने की जरूरत है कि सबाल्टर्न के आधार पर जो सामाजिक इतिहास लिखना चाहते हैं, वे कई बार साहित्य के पास जाते तो हैं, लेकिन वे लगभग एक परदेशी की तरह जाते हैं। साहित्य के पास जाने का अर्थ होता है, साहित्य को साहित्य की तरह पढ़ने और समझने की इच्छा या जरूरत। जिन लोगों के पास यह इच्छा न हो और जो इस जरूरत को नहीं समझते वे कई बार साहित्य के पास जाकर भी सही निष्कर्ष के साथ वापस नहीं लौटते।

 

इतिहास लेखन के इतिहास और साहित्य के इतिहास पर साथ-साथ विचार करते हुए कि दोनों जगह प्रारम्भिक चरणों में महानायकत्व की परम्परा का पालन दिखता है। इतिहास के नायक और साहित्य के नायक लगभग एक जैसे रहे। इस प्रसंग में यूनान के प्राचीन साहित्य और इतिहास को याद करें तो प्लेटो के साहित्य की विश्‍वसनीयता पर सवाल खड़ा करना एक विचारणीय प्रश्‍न है। होमर जैसे कवियों के बावजूद प्लेटो के साहित्य पर यह सन्देह समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों के मद्देनजर तत्कालीन परिस्थिति की देन लगती है। कला और संस्कृति के मुरीद एथेन्स का स्पार्टा के बलशाली लोगों द्वारा पराधीन होना साहित्य के प्रति सन्देह की ठोस जमीन तैयार करता है। एक तरफ होमर जैसे कवियों के महाकाव्यों में उपस्थित महानायक, तो दूसरी तरफ एथेन्स की पराजय निश्चित रूप से विडम्बना पूर्ण लगता है। साहित्य के प्रति प्लेटो का सन्देह इसी विडम्बनाजनक परिस्थिति से जुड़ा हुआ है। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर विचार करें तो भी हम लगभग इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे। वीरगाथा काल से रीति काल तक के महाकाव्यों और उन महाकाव्यों के महानायकों और उनकी कथाओं पर विचार करें तो यह बात थोड़ी परेशान करती है कि क्रमशः कमजोर और पराधीन होते जा रहे देश के साहित्य में इन महानायकों की कल्पना का सम्बन्ध इतिहास से कितना है ? पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता से लेकर पद्मावत में इतिहास और कल्पना से जुड़े हुए सवाल आज तक विश्‍वविद्यालयों की परीक्षा में पूछे जाते हैं, पढ़ाए भी जाते हैं। रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में रामराज्य की परिकल्पना, वास्तविकता और उसकी विडम्बना पर भी बहस आज तक जारी है। क्या हिन्दी के इन महाकाव्यों की परिकल्पना ‘हारे को हरिनाम’ है, या इसका सम्बन्ध इतिहास की वास्तविकता से भी है? ‘प्राकृत जन’ को साहित्य में महानायक बनाने वाला वीरगाथा काल हो या रीति काल या फिर उससे भागने वाला या बचने वाला भक्तिकाल हो, हर जगह साहित्य में इतिहास के स्वरूप और उसकी वास्तविकता को लेकर टकराव की स्थिति दिखाई पड़ती है। इस टकराव के समाजशास्‍त्र पर या राजनीतिशास्‍त्र पर विचार करने का अवकाश यद्यपि यहाँ नहीं है फिर भी एजरा पाउण्ड का सहारा लेते हुए यह तो कहा ही जा सकता है कि ‘महाकाव्य इतिहास-युक्त कविता है।’ अब इस कविता में इतिहास की मात्रा और स्वरूप को लेकर सवाल उठ सकता है। किसी जगह यह दाल में नमक की तरह हो सकता है, तो किसी जगह नमक में नमी की तरह।

  1. उपन्यासों में अभिव्यक्त नायकत्व की अवधारणा और हिन्दी उपन्यास में अभिव्यक्त इतिहास बोध

 

अपने महाकवियों के इतिहासबोध और साहित्यबोध की सम्मिलित संस्कृति से निर्मित नायकत्व की अवधारणा के आधार पर दिखता है कि हिन्दी के आधुनिक साहित्य में उपन्यास के उदय के साथ साहित्य में नायकत्व की अवधारणा बदल जाती है। नायकत्व की इस अवधारणा में आए क्रन्तिकारी परिवर्तन का सम्बन्ध उपन्यास, और विशेष रूप से प्रेमचन्द के उपन्यासों से है। सीमान्त किसान और मजदूरों को अपने उपन्यासों का नायक बनाकर उन्होंने हिन्दी साहित्य को भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन की उस चेतना से जोड़ने का काम किया जिसका अभाव समकालीन राजनीतिक संस्कृति में दिखाई पड़ा था। जिस दौर में नेहरू जैसे लोगों को जमीन्दारी प्रथा उन्मूलन की बात बेवक्त की बाँसुरी लगती थी, उस दौर में प्रेमचन्द के उपन्यास साहित्य और राजनीति के सम्बन्ध पर ही नहीं, साहित्य के इतिहासबोध और राजनीति के इतिहासबोध पर भी प्रकाश डालते हैं। प्रगतिशील साहित्य में सौन्दर्य के जिन नए मेयरों की प्रेमचन्द ने बात की थी उन मेयरों की पृष्ठभूमि में अवध से लेकर बिहार तक के किसान आन्दोलन की भी अनुगूँज थी। जमीन्दारों के खिलाफ छोटी रैयतों का विद्रोह स्वाधीनता आन्दोलन के साथ ही शुरू हुआ था। पूरी दुनिया में स्वाधीनता की चेतना और शोषण और दमन के विरोध की चेतना का विस्तार हो रहा था और इस चेतना के विस्तार को मैक्सिम गोर्की, लू शुन और प्रेमचन्द जैसे साहित्यकार अपनी जमीनी वास्तविकताओं के साथ अभिव्यक्त कर रहे थे। यह अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि यह नई चेतना साहित्य की जिस नई विधा में व्यक्त हो रही थी, वह विधा उपन्यास थी।

 

साहित्य और इतिहास के सम्बन्ध पर विचार करने हेतु सबसे प्रमाणिक विधा उपन्यास है। जो काम सामन्ती समय और समाज में एक समय में महाकाव्यों ने किया था, वैसा ही काम पूँजीवादी समय और समाज में उपन्यास कर रहे थे। अगर महाकाव्य इतिहास युक्त कविता थे, तो उपन्यास इतिहास युक्त गद्य हैं। निराला ने जब गद्य को जीवन-संग्राम की भाषा कहा होगा, तब निश्‍चय ही उनके सामने प्रेमचन्द जैसों के उपन्यास रहे होंगे। प्रेमचन्द के उपन्यासों के आधार पर स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आर्थिक नीतियों से उपजे शोषण और दमन के कुचक्र का इतिहास लिखा जा सकता है। जाहिर है इस कुचक्र का सर्वाधिक दुष्प्रभाव छोटे किसानों और मजदूरों पर हुआ, इसलिए प्रेमचन्द का साहित्य अपने दौर का आर्थिक और सामाजिक इतिहास भी  है।

  1. औपन्यासिक यथार्थ और यथार्थवाद में अभिव्यक्त ऐतिहासिकता

 

महाकाव्यों में अभिव्यक्त इतिहासबोध पर विचार करने के बाद उपन्यासों में अभिव्यक्त यथार्थ की चेतना और यथार्थवाद पर विचार करना साहित्य और इतिहास के सम्बन्ध को समझने के लिए अत्यावश्यक है। स्मरणीय है  कि जार्ज लुकाच ने यथार्थ और यथार्थवाद की अभिव्यक्ति के लिए उपन्यास विधा को सबसे ज्यादा उपयोगी माना। यथार्थवाद के नाम पर चली लम्बी बहस का प्रभाव दुनिया भर के साहित्य पर पड़ा। उसके समर्थन में कुछ ऐसे लोग भी खड़े थे जो इसे गतिशील विचारधारा के रूप में स्वीकार करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। ऐसे लोगों की कमी हिन्दी में भी नहीं थी। ये लोग भूल गए थे कि स्वयं लुकाच ने काफ्का के बारे में अपनी राय बदली थी। यथार्थवाद के स्वरूप में समय के साथ परिवर्तन हुआ और इस परिवर्तन को समझने के लिए गाब्रियल गार्सिया मार्केज़ की रचनाओं में अभिव्यक्त जादुई यथार्थवाद को देखा जा सकता है। उपन्यास के साथ यथार्थवाद की चर्चा सिर्फ यूरोप में ही नहीं, बल्कि हिन्दी में भी साथ-साथ हुई। शुक्ल जी के इतिहास में यथार्थवाद का उल्लेख भी उपन्यास के सन्दर्भ में ही हुआ है। यथार्थवाद से उपन्यास का सम्बन्ध भी इस बात का प्रमाण है कि सामाजिक वास्तविकता का सीधा सम्बन्ध उपन्यास से है और साहित्य के इतिहासबोध पर विचार करने की सबसे अधिक सम्भावना उपन्यास में है।

 

यूरोप में उपन्यास का इतिहास लगभग तीन सौ साल पुराना है। हिन्दी में भी उपन्यास लगभग डेढ़ सौ साल पुराना हो चुका है। जब साहित्य के क्षेत्र में युग परिवर्तन की गति तेज हो और आलोचना दृष्टियों में भी निरन्तर परिवर्तन जारी हो, तब भी साहित्यिक विधा के रूप में उपन्यास का इतने समय से लोकप्रिय बने रहना मायने रखता है।

 

आधुनिक यूरोपीय इतिहास की अन्तर्धाराओं को समझने के लिए मादाम बावेरी और अन्‍ना केरेनिना उपन्यास का एक प्रसंग यहाँ उल्लेखनीय है। इतिहास और आलोचना में सम्मिलित निबन्ध व्यापकता और गहराई में नामवर सिंह ने इन दोनों मशहूर औपन्यासिक कृतियों की तुलना करते हुए उसमें छिपे सामाजिक और ऐतिहासिक सत्य को समझने का प्रयास किया। उन्होंने लिखा कि “दोनों की नायिकाएँ अपने पति को छोड़कर दूसरे पुरुष की ओर आकृष्ट होती हैं। फिर भी अन्‍ना के चरित्र में जो गहराई है, वह मादाम बावेरी में नहीं है। अपने पुत्र सेरेजा के प्रति अन्ना का जो प्रेम है, वह उसे मादाम बावेरी से बहुत ऊँचा उठा देता है। यही नहीं अपने प्रेमी ब्रोंसकी में कभी-कभी उसे सेरेजा की झलक मिलने लगती है। इसके अतिरक्त अन्‍ना में जो अन्तर्द्वन्द्व है उसका शतांश भी मैडम बावेरी में नहीं है।” तत्कालीन फ़्रांसीसी और रूसी समाज में नैतिकता का जो बोझ था उस बोझ को हल्का करने में मादाम बावेरी और अन्ना करनिना जैसे चरित्रों को जिन आन्तरिक संघर्षों का सामना करना पड़ा उसको समझे बगैर यूरोपीय समाज की आधुनिकता को समझना सम्भव नहीं है। महान उपन्यास महान महाकाव्यों की तरह अमर चरित्रों का सृजन करते हैं। ऐसी रचनाएँ जहाँ एक तरफ साहित्य के इतिहास में अपनी अलग पहचान बनाते हुए कालजयी और विश्‍वजनीन सिद्ध होती हैं, वहीं दूसरी तरफ अपने समय और समय की विडम्बनाओं को अपनी रचनाओं में जगह देने के कारण साहित्य और इतिहास के बीच एक सेतु का भी काम करती हैं। उपन्यास में यथार्थ की खोज का मतलब है यथार्थ के गतिशील रूप की पहचान और उसकी सम्भावनाओं की तलाश। इतिहास-प्रक्रिया में क्रियाशील वास्तविकता के बदलते रूपों, अर्थों और सम्भावनाओं की तलाश के कारण ही प्रेमचन्द और रेणु के उपन्यास वर्तमान से भविष्य को जोड़ते हैं।

 

भारत की स्वाधीनता के साथ-साथ विभाजन हुआ, उस समय छायावाद के तीन कवि निराला, पन्त और महादेवी मौजूद थे। उसी दौर में प्रगतिवाद के चार बड़े कवि– नागार्जुन, मुक्तिबोध, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल भी कविता लिख रहे थे। आश्‍चर्य की बात है कि इन सभी महाकवियों ने भारत के इतिहास के सबसे भीषण दुःख पर एक भी कविता नहीं लिखी। केवल प्रयोगवाद के कवि अज्ञेय ने इस विषय पर कविता लिखी, जबकि इसी विषय पर तमस और झूठा-सच जैसे उपन्यास लिखे गए, कई महत्त्वपूर्ण कहानियाँ भी लिखी गईं। साहित्य के इतिहास की यह घटना उपन्यास की यथार्थ चेतना को रेखांकित करती है। हिन्दी कविता की दुनिया में विभाजन की त्रासदी की अनुपस्थिति और हिन्दी कथा साहित्य में उसकी अभिव्यक्ति कवियों और कथाकारों की मानसिकता से अधिक कविता और कथा साहित्य के स्वभाव की भिन्‍नता से जुड़ी हुई सच्‍चाई है। उपन्यास का सीधा सम्बन्ध लेखक के इतिहासबोध, इतिहास चेतना और सामाजिक यथार्थवाद की समझ से जुड़ा होता है।  किन्तु पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी में समकालीन वास्तविकता से उपन्यास के गहरे सम्बन्ध और उसका लोकतान्त्रिक स्वभाव ठीक उल्टा दिख रहा है। इस बीच वेदों, उपनिषदों, पुराणों और महाकाव्यों की कथाओं को एक ओर उपन्यासों में ढालने की कोशिश हो रही है तो दूसरी ओर ऐसी कथाओं के माध्यम से उपन्यास को अतीतोन्मुखी और स्मृतिजीवी बनाया जा रहा है। यह एक भविष्योन्मुखी और समकालीनता से जुड़ी विधा को अतीतोन्मुखी रूप देने की कोशिश है। साहित्य और इतिहास के सम्बन्ध पर विचार करते हुए इस खतरे को भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि लोकप्रिय साहित्यिक विधाओं का सिर्फ उपयोग ही नहीं, दुरुपयोग भी हो सकता है। रेमण्ड विलियम्स ने इसलिए सावधान करते हुए बताया था कि जहाँ प्रगतिकामी शक्तियाँ साहित्य का उपयोग इतिहास के हवाले से समाज की प्रगतिशीलता को मजबूत बनाने के लिए करती हैं, वहीं फासिस्ट शक्तियाँ साहित्य का इस्तेमाल प्रतिक्रियावादी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए करती हैं।

 

यह भी ध्यान रखना है कि उपन्यास और इतिहास का एक गहरा सम्बन्ध लम्बे समय से चला आ रहा है। ऐतिहासिक उपन्यासों की समृद्ध परम्परा इस बात का प्रमाण है। बाँग्ला में डी. एल. राय से लेकर हिन्दी में वृन्दावनलाल वर्मा आदि के उपन्यासों को देखें तो यह पाएँगे कि इतिहास को लोकप्रिय और दिलचस्प बनाने में उपन्यासों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। सरहपा, तुलसीदास और दाराशिकोह जैसे साहित्यिक-सांस्कृतिक व्यक्तियों पर लिखे हुए उपन्यास भी इतिहास, मिथक और उपन्यास के सम्मिलन के उदाहरण हैं।

 

दलित, स्‍त्री और आदिवासी  जीवन की अस्मिता से जुड़ा हुआ लेखन आज हिन्दी के लोकतन्त्र को विस्तार दे रहा है। इस विस्तार में आत्मकथा के साथ-साथ सर्वाधिक लोकप्रिय विधा उपन्यास ही है। साहित्य के इतिहास के इस परिवर्तन के दौर को पहचानने में उपन्यास सबसे आगे हैं। भूमण्डलीकरण से पैदा हुई चुनौतियों और पर्यावरण के संकट और सवाल से जुड़े हुए उपन्यास भी अपने समय और इतिहास को पहचानने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। हिन्दी साहित्य की भूमिका में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य के पास जाने की जरूरत को भारत के एक हजार साल के इतिहास को जानने के लिए जरूरी माना था। साहित्य और इतिहास के सम्बन्ध पर विचार करने के क्रम में इस बात को भी ध्यान में रखना आवश्यक है।

  1. निष्कर्ष

 

यह मानने में किसी को कोई संशय नहीं होना चाहिए कि साहित्य और इतिहास का पारस्परिक सम्बन्ध बहुत सघन है। विभिन्‍न विधाओं में लिखा गया भिन्‍न-भिन्‍न समय का साहित्य न केवल उस दौर की समाज-व्यवस्था से हमारा परिचय कराता है, बल्कि अधिकतर समय में इतिहास लेखन को भी सहयोग देता है। भक्तिकाल की कविताएँ समकालीन सामन्ती मनोवृत्ति और सामाजिक जीवन के उद्वेलन को समझने का महत्त्वपूर्ण आधार देती हैं। नायकत्व आधारित वीरगाथा काल की कृतियों के साथ इतिहास का गहरा जुड़ाव देखा जा सकता है। इतिहासबोध और साहित्यबोध की सम्मिलित संस्कृति से निर्मित महाकवियों के नायकत्व की अवधारणा उपन्यास विधा के आगमन से परिवर्तित हुई, सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति उपन्यास का महत्त्वपूर्ण उपक्रम बना। यथार्थ की अभिव्यक्ति के साथ-साथ इतिहासबोध और इतिहास चेतना से भी उपन्यास का गहरा जुड़ाव होता है। विधात्मक शिष्टाचार के अधीन हरेक विधा अपने समय के इतिहास बोध से समन्वय बनाए रखती है।

 

you can view video on इतिहास और साहित्य का सम्बन्ध

 

वेब लिंक्स :

 

1. https://www.youtube.com/watch?v=4YY4CTSQ8nY

2. http://www.cajunc.com/art-literature-history

3. http://www.wisegeek.com/what-is-the-connection-between-literature-and-history.htm

4. http://www.bartleby.com/56/1.html