12 इतिहास और आलोचना

डॉ. गजेन्द्र कुमार पाठक पाठक

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  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्‍ययन से आप  –

  • आलोचना क्या है? इसे समझ सकेंगे।
  • साहित्य और इतिहास के सम्बन्ध से परिचित हो पाएँगे।
  • इतिहास और आलोचना के बीच भेद और अन्तस्सम्बन्ध को समझ पाएँगे।
  • आलोचना के सन्दर्भ में इतिहास की सार्थकता से परिचित हो पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

 

इतिहास और आलोचना के सम्बन्ध पर विभिन्न विचारधाराओं के बीच तीखे मतभेद रहे हैं। एक ओर रूपवाद, संरचनावाद और उत्तर आधुनिकतावाद जैसी विचारधाराएँ आलोचना में इतिहास की कोई भूमिका नहीं मानती, वहीं दूसरी तरफ आलोचकों का एक हिस्सा बिना इतिहास दृष्टि के आलोचना को अपूर्ण समझता है। ऐसी स्थिति में इतिहास और आलोचना के सम्बन्ध पर क्या बहसें रही हैं? इन्हें जानना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ में इतिहास और आलोचना को सम्मिलित किया गया है।

  1. आलोचना क्या है?

 

सामान्यतः यह माना जाता है कि किसी भी रचना के गुण-दोष का निर्णय करना ही आलोचना है। किसी भी रचना के गुण-दोष का उद्घाटन और उसके सौन्दर्य का प्रकाशन निःसन्देह आलोचना का अंग है, लेकिन आलोचना की सीमा यहीं तक सीमित नहीं है। साहित्य क्या है? साहित्य का उद्देश्य क्या है? किसी रचना को साहित्य मानेंगे या नहीं? आलोचना इन प्रश्नों की खोज भी करती है। सच्ची आलोचना साहित्य के प्रयोजन को पाठकों के सामने स्पष्ट करती है। साहित्य से लगाव के तत्त्वों की खोज आलोचना का मुख्य विषय होता है। आलोचना में साहित्यिक कला के बौद्धिक विवेचन द्वारा उसके सौन्दर्यानुभव और सौन्दर्यात्मक मूल्य को प्रकट किया जाता है। आलोचक की आलोचना-दृष्टि की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इस प्रकार आलोचना ‘साहित्य-सिद्धान्त’ का निर्माण भी करती है। अतः हम कह सकते हैं कि किसी भी रचना में ‘साहित्यिकता’ की खोज ही आलोचना का मूल उद्देश्य है। ‘साहित्यिकता’ के आधार पर ही किसी कृति के महत्त्व को स्थापित किया जा सकता है। सुन्दर और उदात्त या सामान्य और विशिष्ट का निर्धारण आलोचना ही करती है। इसके लिए आलोचना का रचना से जुड़ाव जरूरी है। रचना से जुड़ाव ही आलोचना को सही व्याख्या और विश्लेषण तक ले जाता है। आलोचना सिर्फ साहित्य के प्रयोजन को ही स्पष्ट नहीं करती, बल्कि पाठक की रुचि में भी परिष्कार करती है और रचना तथा रचनाकार को सही दिशा प्रदान करती है। आलोचना एक साथ आलोचक, रचनाकार और पाठक के भीतर ‘नीर-क्षीर विवेक’ का परिमार्जन करती है।

  1. साहित्य और इतिहास

 

इतिहास और आलोचना के अन्तस्सम्बन्ध पर विचार करने से पहले साहित्य और इतिहास के सम्बन्ध पर विचार करना जरूरी है। साहित्य में इतिहास की आवश्यकता के महत्त्व को समझे बिना आलोचना और इतिहास के जटिल सम्बन्धों को नहीं समझा जा सकता। इसका कारण है कि जो वर्ग यह मानता है कि साहित्य के इतिहास की कोई आवश्यकता नहीं है, वही वर्ग इतिहास को आलोचना से दूर रखने का पैरोकार है। डब्ल्यू. पी. केर का तर्क है कि हमें साहित्य के इतिहास की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि इसकी वस्तुएँ सदा वर्तमान रहती हैं, ‘शाश्‍वत’ होती हैं और सही मायने में उनका कोई इतिहास होता ही नहीं है। यह सत्य है कि साहित्य में जो विगत है वह वर्तमान भी। यह भी एक तथ्य है कि राजनीतिक-सामाजिक इतिहास और कला के इतिहास में अन्तर होता है। साहित्य का विकास जैव-विकास से भिन्न होता है। लेकिन ‘साहित्य की शाश्‍वतत्ता’ के आधार पर साहित्य के इतिहास की उपेक्षा नहीं की जा सकती। साहित्य की महत्ता, प्रासंगिकता अपने कालक्रम के अनुसार बदलती रहती है। उदाहरण के लिए रामचरितमानस का जो अर्थ तुलसीदास के समय में था, जरूरी नहीं की उसका अर्थ आज भी उसी तरह समझा जा रहा हो। कालजयी कृति की अर्थवत्ता भी ऐतिहासिक प्रक्रिया के अभिन्न अंग के रूप में ही बनी रहती है। कोई भी रचना ‘शाश्वत’ तो होती ही है साथ ही वह ‘ऐतिहासिक’ भी होती है। वास्तव में ‘साहित्य की शाश्‍वतत्ता’ ऐतिहासिक प्रक्रिया में साहित्य के नैरन्तर्य और गतिशीलता को द्योतित करती है। साहित्य का इतिहास इस तथ्य को स्थापित करता है कि साहित्य राजनैतिक-सामाजिक और बौद्धिक विकास का निष्क्रिय प्रतिबिम्ब नहीं है। निःसन्देह साहित्य सामाजिक अन्तःक्रिया का ही एक उत्पाद है लेकिन अपनी उत्पत्ति के बाद साहित्य स्वयं सामाजिक परिवर्तन का एक वाहक बन जाता है। साहित्य का इतिहास साहित्य और समाज के इसी जटिल सम्बन्ध को रेखांकित करता है। अतः किसी भी साहित्य की सम्पूर्ण विशेषता को बिना साहित्य के इतिहास के समझना असम्भव है। रैक के अनुसार कहें तो ‘इतिहास दर्शन का लक्ष्य है और कला में हमें इसकी आवश्यकता है।’

  1. बेटसन और लीविस का विवाद

 

एफ. डब्लू. बेटसन और एफ. आर. लीविस के बीच इतिहास और आलोचना के रिश्ते को लेकर गम्भीर बहस हुई। बेटसन ने सन् 1934 में English poetry and the English Language पुस्तक लिखी। लीविस ने स्कूटनी  पत्रिका में इसकी कठोर आलोचना की। इसका प्रत्युत्तर बेटसन ने दिया। इस बहस में उस दौर के अन्य आलोचक और विचारक भी सहयोगी बने। रेने वेलेक ने इस बहस को अपने ढंग से समझा। इसे हम इस तरह से समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए ‘क’ के बाद ‘ख’ आता है। अतः ‘क’ का अपना ऐतिहासिक महत्त्व है। ‘ख’ ‘क’ से श्रेष्ठ ध्वनि है। प्रेमचन्द ने गोदान  लिखा और प्रेमाश्रम भी लिखा। प्रेमाश्रम  पहले लिखा इसलिए उसका ऐतिहासिक महत्त्व है। फिर बेटसन ने कहा कि आलोचक कृति को स्वतः पूर्ण वस्तु के रूप में देखता है, जबकि उसका अन्य सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं से गहरा सम्बन्ध होता है। कृति सिर्फ ‘पाठ’ ही नहीं होता। पाठ का निर्माण सन्दर्भ से होता है। सन्दर्भ कृति से बाहर होते हैं और वह सन्दर्भ वस्तुगत रूप में मौजूद रहते हैं। उनको समझे बिना हम पाठ को नहीं समझ सकते। इसलिए आस्वाद और मूल्य निर्णय के लिए ज्ञान की, विद्वता की, पाण्डित्य की आवश्यकता पड़ती है।

 

लीविस ने प्रश्‍न उठाया कि क्या हम उस सामाजिक सन्दर्भ के बिना भी कृति को समझ सकते हैं, जिसमें उस कृति का जन्म हुआ है या नहीं। लीविस का मत है कि तथाकथित इतिहास भी आलोचना के भीतर ही आता है।

 

ये दोनों अलग-अलग नहीं है। लीविस का तर्क है कि साहित्य का मूल्यांकन, भले ही वह प्राचीन साहित्य का हो हम समकालीन जीवित और प्रासंगिक मूल्यों तथा आधुनिक युग की सम्वेदनाओं के माध्यम से ही कर पाते हैं। इसलिए प्राचीन साहित्य भी हमारे लिए समकालीन साहित्य ही है। फिर लीविस के अनुसार इतिहास भी उतना वस्तुगत नहीं होता, उसमें भी आत्मगत तत्त्व होते हैं। इसलिए आलोचना अपने आप में पर्याप्त है।

  1. इतिहास और आलोचना के बीच भेद और सम्बन्ध

 

इतिहास और आलोचना के सम्बन्ध को लेकर मुख्यतः दो तरह की राय है। पहली धारा आलोचना और इतिहास के बीच अन्तर को मानते हुए भी इसे एक दूसरे का पूरक मानती है। दूसरी धारा रूपवादियों की है। ये आलोचना में इतिहास को अनावश्यक मानते हैं। रूपवादी आलोचकों के अनुसार आलोचना का मुख्य उद्देश्य किसी भी कृति की सौन्दर्यानुभूति को प्रकट करना होता है और इस सौन्दर्यानुभूति का सम्बन्ध रूप से होता है, इसलिए साहित्य रूपों, विधाओं, तकनीकों और शैलियों का ही इतिहास हो सकता है। इनके अनुसार इतिहास विश्‍लेषणात्मक और आलोचना संश्‍लेषणात्मक होती है। इस कारण किसी रचना के आस्वादन में इतिहास की कोई भूमिका नहीं होती है। रूपवाद, संरचनावाद, आधुनिकतावाद आदि विचारधाराओं से प्रभावित ‘नई समीक्षा’ से जुड़े आलोचकों ने आलोचना में इतिहास की प्रासंगिकता पर प्रश्‍नचिह्न लगाया है। इनकी आलोचना दृष्टि सौन्दर्यपरक आलोचना दृष्टि है। भाषा की नवीनता और विस्मय रूपवादी दृष्टिकोण के आधार हैं। रूसी रूपवादी विक्टर श्कोलोव्सकी के अनुसार ‘कविता भाषा को नया बनाती है, इसमें विलक्षणता लाती है’। बोसांके ने काव्य-सौन्दर्य को ‘इजी ब्यूटी’ और ‘डिफिकल्ट ब्यूटी’ में विभाजित किया है। ‘इजी ब्यूटी’ से बोसांके का तात्पर्य सामान्य सौन्दर्य से है। ‘डिफिकल्ट ब्यूटी’ को बोसांके अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। बोसांके के अनुसार ‘डिफिकल्ट ब्यूटी’ में जटिलता,तनाव और विस्तार होता है जो काव्य को विशिष्ट और उदात्त बनाता है। अतः गठन की जटिलता ही रूपवादी आलोचना के लिए महत्त्वपूर्ण है। यह सही है कि एक मूल्यप्रणाली के रूप में कलाकृति का स्वतन्त्र अस्तित्व होता है, परन्तु सिर्फ भाषिक सौन्दर्य का उद्घाटन आलोचना का लक्ष्य नहीं है और न ही इससे किसी कृति की महानता स्थापित होती है। इस सन्दर्भ में कुछ विद्वानों के मत महत्त्वपूर्ण हैं –

 

टी० एस० इलियट के अनुसार ‘हमें साहित्य की साहित्यिकता को सौन्दर्य के मानदण्ड पर और इसकी महानता को सौन्दर्य-बाह्य मानदण्ड से परखना चाहिए’।

 

एल० ए० रीड के अनुसार ‘ महानता किसी कलाकृति में वस्तुपक्ष से आती है’।

 

ऑस्टिन वारेन और रेनेवेलेक के अनुसार ‘ किसी साहित्यिक कलाकृति की सामग्री एक स्तर पर तो शब्द होते हैं और दूसरे स्तर पर मानवीय आचरण और अनुभव तथा तीसरे स्तर पर मानवीय विचार और भावनाएँ।’

 

उपर्युक्त विद्वानों के उद्धरणों से स्पष्ट है कि साहित्य में भाषा के महत्त्व को सभी मान रहे हैं लेकिन काव्य सिर्फ भाषा ही नहीं होता है। मानवीय आचरण, अनुभव, विचार और भावना भी साहित्य के लिए उतने ही महत्त्वपूर्ण अंग हैं जितनी कि भाषा। रचना के आस्वादन में रचना में अभिव्यक्त मानवीय विचार, भावना और अनुभव का उतना ही योगदान है जितना योगदान भाषा का है। यहीं से इतिहास और आलोचना के सम्बन्ध शुरू होते हैं और आलोचना में इतिहास की आवश्यकता स्थापित होती है। ‘साहित्यिकता’ या रचना की सार्थकता सिर्फ कला-पक्ष से सिद्ध नहीं होती है। साहित्य की महानता उसकी विषय-वस्तु से निर्धारित होती है। रचना की महत्ता इतिहास में उसके स्थान और समाज पर उसके प्रभाव से तय होती है।अतः रचना के मूल्यांकन में विषय-वस्तु की प्रमुख भूमिका हो जाती है। रचना की विषय-वस्तु पर विचार करते समय आलोचक को संबंधित विषय-वस्तु का ऐतिहासिक और तात्कालिक, दोनों प्रकार के महत्त्व का उद्घाटन करना होता है। इसी कारण आलोचना को ‘सभ्यता-समीक्षा’ भी कहा जाता है। कालजीवी रचना ही कालजयी हो सकती है क्योंकि रचना की समकालीनता उसकी ऐतिहासिक प्रक्रिया से ही सिद्ध हो सकती है। साहित्य के इतिहास से ही रचना की प्रासंगिकता की खोज हो सकती है। इतिहास के माध्यम से ही हम विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियों का निरूपण कर सकते हैं। हालाँकि यह निरूपण आलोचनात्मक मानदण्ड द्वारा ही तय होगा लेकिन इतिहास की इन मानदंडों के निर्धारण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

 

इतिहास और आलोचना साहित्यिक अनुशासन के भिन्न क्षेत्र हैं। अतः अध्ययन और विषय के दृष्टिकोण से दोनों में व्यवहारगत भेद हैं। ये भेद दोनों की भिन्न विशेषता के कारण हैं। एफ० डब्ल्यू० बेटसन के अनुसार– ‘इतिहास का सम्बन्ध ऐसे तथ्यों से है जिनकी जाँच की जा सकती है, सिद्धान्त और आलोचना का सम्बन्ध मत या राय और विश्‍वास से है।’ अर्थात् इतिहास वस्तुपरक होता है और आलोचना आत्मपरक, लेकिन कोई इतिहास लेखन न विशुद्ध रूप से वस्तुपरक होता है और न ही कोई आलोचना पूरी तरह आत्मपरक। इतिहास लेखन में तथ्यों के वर्णन या विवेचन में इतिहासकार की दृष्टि की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। यहाँ इतिहासकार आलोचक की भूमिका में होता है। इसी तरह किसी साहित्यिक कृति की आलोचना में उस कृति की ऐतिहासिक भूमिका को दरकिनार नहीं किया जा सकता। एक ही ऐतिहासिक तथ्य पर अलग-अलग दृष्टिकोण से इतिहास लेखन किया जा सकता है। इसी प्रकार एक ही साहित्यिक कृति की अलग-अलग आलोचना हो सकती है। दोनों जगहों पर आत्मपरकता विद्यमान है लेकिन इतिहास लेखन में तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती है। यही कारण है कि इतिहास में वस्तुपरकता महत्त्वपूर्ण होती है और आलोचना में आत्मपरकता।

 

इतिहास लेखन में शोध या अनुसन्धान आवश्यक है, आलोचना के लिए यह आवश्यक नहीं। उदाहरण के लिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का हिन्दी साहित्य का इतिहास  हिन्दी आलोचना के लिए भी महत्त्वपूर्ण है लेकिन इसमें तथ्य, शोध और अनुसन्धान पर भी ध्यान दिया गया है। इस पुस्तक में काल-विभाजन और नामकरण में तो साहित्यिक कृतियों का ही उपयोग हुआ है। रचनाओं और कवियों का मूल्यांकन भी ऐतिहासिक प्रक्रिया के अंग के रूप में हुआ है। दूसरी तरफ आचार्य शुक्ल चिन्तामणि के निबन्धों में शायद ही कहीं ऐतिहासिक तथ्यों का उपयोग करते हैं। दोनों पुस्तकों में आलोचना विद्यमान है लेकिन हिन्दी साहित्य का इतिहास अपनी वस्तुपरकता के कारण मूलतः इतिहास है और आत्मपरकता के कारण चिन्तामणि आलोचना। दोनों पुस्तकों में यह अनुशासन के दृष्टिकोण का भेद है,परन्तु यह नहीं है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास में आलोचना दृष्टि नहीं है और चिन्तामणि में इतिहास बोध का अभाव है। वस्तुतः आचार्य शुक्ल की रचनाएँ इतिहास और आलोचना के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध के सटीक उदाहरण हैं। उनका इतिहास बोध उनकी आलोचना दृष्टि से और उनकी आलोचना दृष्टि उनके इतिहास बोध से निर्मित हुई है। शुक्लजी की रचनाएँ आलोचना दृष्टि और इतिहास बोध के बीच जीवन्त साहित्य बोध का निर्माण करती हैं।

 

साहित्यिक इतिहास का मुख्य उद्देश्य यह पता लगाना होता है कि लेखक ने किस आशय से किसी कृति की रचना की थी जबकि आलोचना में अर्थ-निर्णय, प्रवृत्ति-निरूपण और मूल्यांकन जैसे सूक्ष्म तत्त्वों की प्रधानता होती है। परन्तु केवल कला चेतना से ही आलोचक का कर्म पूरा नहीं हो जाता। वास्तव में किसी भी कला चेतना के निर्माण में ऐतिहासिक चेतना की भी भूमिका होती है। किसी भी कृति का मूल्यांकन बिना इतिहास बोध के अपूर्ण है। वस्तुतः हर रचना की प्रासंगिकता हर युग में बदलती रहती है। उदाहरणस्वरुप रामचरितमानस  का आस्वादन पाठक जिस तरह से भक्तिकाल में करते थे, जरूरी नहीं कि आज के समय में भी रामचरितमानस का उसी रूप में पाठ हो। ऐसा सिर्फ इतिहास बोध के बदलने के कारण है क्योंकि सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव आ गया है। इतिहास और आलोचना के बीच सृजनात्मक सम्बन्ध है। यह सही है कि इतिहास लेखन में वस्तुपरकता पर जोर दिया जाता है और आलोचना में आत्मपरक ढंग से किसी भी कृति का मूल्यांकन किया जाता है परन्तु किसी कृति कि ऐतिहासिक महत्ता को उजागर किए बगैर यह आलोचना अधूरी है। किसी भी रचना के मूल्यांकन में इतिहास बोध एक अनिवार्य शर्त है। अतः आलोचना और इतिहास को अलग-अलग करके देखना आलोचना और इतिहास दोनों को एकांगी बनाना है।

  1. आलोचना में इतिहास की सार्थकता

 

साहित्य को दो दृष्टियों से देखा जाता है– एक तो समूचे साहित्य को एक साथ अपने सामने रखकर और दूसरे इसे कालक्रम से व्यवस्थित करके और ऐतिहासिक प्रक्रिया का अभिन्न अंग मानकर। हर युग की अपनी अलग आलोचनात्मक मान्यताएँ और रूढ़ियाँ रही हैं। युग बदलने पर मानदण्ड भिन्न हो जाते हैं। इसी कारण किसी युग के साहित्य की तुलना अन्य युग के साहित्य से नहीं की जा सकती।इस कारण साहित्यिक आलोचना में इतिहास दृष्टि की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है।इतिहास और आलोचना एक दूसरे के पूरक हैं। रचना, समय और उसका समाज ये तीनों आलोचना और इतिहास के उपजीव्य हैं। प्रयोग और परिवर्तन के बीच साहित्य की निरन्तरता की तलाश ही आलोचना में इतिहास को सार्थकता प्रदान करती है। आलोचना के लिए समकालीनता और इतिहास के लिए निरन्तरता महत्त्वपूर्ण होती है, लेकिन रचना की समकालीनता को बिना ऐतिहासिक नैरन्तर्य के स्थापित नहीं किया जा सकता। रचना की समकालीनता ऐतिहासिक परम्परा द्वारा ही सिद्ध होती है। कोई भी कृति अपने समय में क्यों और कैसे महत्त्वपूर्ण है? इसे साहित्य के इतिहास के द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है। यहाँ तक कि भाषिक सौन्दर्य के दृष्टिकोण से भी किसी कृति की विशिष्टता दिखाने के लिए भाषा की ऐतिहासिक परम्परा का सहारा लेना पड़ेगा। अतः व्यवस्थित आलोचक व्यवस्थित इतिहासकार भी होता है। साथ ही साहित्य के इतिहासकार को इतिहासकार बने रहने के लिए भी जरूरी है कि वह आलोचक भी हो। रेनेवेलेक और ऑस्टिन वारेन अपनी पुस्तक साहित्य-सिद्धान्त में आलोचना में इतिहास की सार्थकता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, ‘बिना आलोचना और इतिहास के साहित्य-सिद्धान्त की या बिना साहित्य-सिद्धान्त और आलोचना के इतिहास की या बिना इतिहास और साहित्य-सिद्धान्त के आलोचना की कल्पना नहीं की जा सकती।’ वास्तव में इतिहास और आलोचना एक दूसरे पर निर्भर साहित्यिक अनुशासन हैं। आलोचना की पूर्णता इतिहास बोध से तो इतिहास लेखन की पूर्णता आलोचनात्मक आत्मपरकता से सुनिश्चित होती है। आलोचनात्मक विवेक से हीन साहित्यिक इतिहास को इतिहास नहीं कहा जा सकता। इतिहास की वस्तुपरकता को आलोचकीय आत्मपरकता ही सजीव करती है। आलोचनात्मक विवेक की सम्पूर्णता इतिहास बोध में निहित है।

  1. निष्कर्ष

 

इतिहास और आलोचना में अनुशासनिक दृष्टि से भिन्नता होने के बावजूद दोनों एक दूसरे के पूरक है। एक के अभाव में दूसरा पक्ष अपूर्ण है। इतिहास बोध आलोचनात्मक दृष्टि को दिशा प्रदान करता है तो आलोचना इतिहास लेखन को जीवन्त करती है। आलोचना में रचना की अस्मिता की खोज, इतिहास में रचना के अस्तित्व की खोज के बिना सम्भव नहीं है।अतः इतिहास और आलोचना को एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं। इतिहास बोध के अभाव में आलोचना दिशाहीन है तो आलोचनात्मक विवेक के अभाव में इतिहास गतिहीन। इतिहास आलोचना की दिशा सुनिश्‍चि‍त करता है तो आलोचना इतिहास को गतिशील करती है। आलोचना की आत्मपरकता के बगैर इतिहास की वस्तुपरकता और इतिहास की परम्परा के बगैर आलोचना की समकालीनता अर्थहीन है। इनकी एकता से ही सार्थक इतिहास और सच्‍ची आलोचना का निर्माण होता है। साहित्य की क्रमबद्धता और परम्परा को बनाए रखने के लिए इतिहास और आलोचना का ऐक्य आवश्यक है।

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वेब लिंक्स

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/Theses_on_the_Philosophy_of_History
  2. http://plato.stanford.edu/entries/history/
  3. http://www.cod.edu/people/faculty/bobtam/website/an_very_brief_overview_of_contem.htm
  4. http://www.jstor.org/stable/1404861?seq=1#page_scan_tab_contents