11 संकट में साहित्य का इतिहास
प्रो. मैनेजर पाण्डेय पाण्डेय
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- इतिहास के अन्त की धारणा तथा उसकी पृष्ठभूमि समझ पाएँगे।
- साहित्य के इतिहास के संकट की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
- साहित्य के इतिहास से आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता का सम्बन्ध समझ सकेंगे।
- साहित्य के इतिहास-बोध और आलोचना के सिद्धान्त से परिचित होंगे।
- साहित्येतिहास लेखन की समस्या एवं उसके नए दृष्टिकोण से परिचित होंगे।
- प्रस्तावना
यूरोप के चिन्तन में 19वीं सदी को इतिहासवाद की स्थापना की सदी माना जाता है। दूसरी तरफ 20वीं सदी इतिहासवाद के अन्त की सदी साबित हुई। जब से इतिहास के अन्त की घोषणा हुई, साहित्य का इतिहास ही नहीं, समाज का इतिहास लेखन भी संकटग्रस्त हो गया।
सन् 1806 में पर्सिया पर नेपोलियन की विजय के बाद हीगेल ने कहा था कि इतिहास ठहर गया है। लगभग दो सदी बाद सोवियत संघ के विघटन के उपरान्त फ्रांसिस फुकोयामा ने घोषणा की कि इतिहास का अन्त हो गया है। उन्होंने सन् 1989 में द एण्ड ऑफ हिस्ट्री एण्ड दी लास्ट मैन शीर्षक से एक निबन्ध लिखा, जो साहित्य के इतिहास का संकट, इतिहास के अन्त की घोषणा से जुड़ा हुआ है। इतिहास के अन्त का नारा उत्तर-आधुनिकतावादियों ने बार-बार दिया। इसके पक्ष-विपक्ष में बहुत कुछ लिखा भी गया। यह एक तरह से उस अन्त की धारणा का प्रचार ही था। तथ्य यह है कि इतिहास हमारे बीच प्रतीक रूप में बना रहता है। वह कभी दिखता है, कभी नहीं दिखता। पर जिस तरह प्रतीक अपना अर्थ नहीं खोते, इतिहास भी अपना अर्थ नहीं खोता। बौद्रिलार्द के अनुसार परिस्थितियाँ ऐसी बन गई हैं, जिनमें ऐतिहासिक परिस्थितियाँ खत्म हो गई हैं। ऐतिहासिक परिस्थितियों के अभाव में इतिहास अनुपस्थित रहेगा। किन्तु प्रतीक अनुपस्थित नहीं होगा। अब सवाल यह है कि यदि समाज के इतिहास का अन्त होगा, तो समाज के इतिहास लेखन की सम्भावना का भी अन्त होगा; क्योंकि इतिहास, भविष्य को ध्यान में रखकर, वर्तमान में अतीत की विवेक-यात्रा का परिणाम होता है।
- इतिहास का संकट और नई परिस्थितियाँ
ऐतिहासिक परिस्थितियों के अवसान के उद्घोषक उत्तर-आधुनिकतावादी यह भूल गए कि ऐतिहासिक परिस्थितियों के गायब हो जाने की धारणा के प्रचार से वे गायब नहीं हो जातीं। उल्लेखनीय है कि सिर्फ उत्तर-आधुनिक विचारकों ने ऐतिहासिक परिस्थितियों को देखना बन्द कर दिया था। कभी-कभी समाज का इतिहास, विचारों के इतिहास से भी आगे चलता है। ईराक पर अमेरिका के पहले और दूसरे आक्रमण ने इतिहास के अन्त की घोषणा का अन्त कर दिया, क्योंकि उस आक्रमण के समय और बाद में ईराकी जनता ने अमेरिकी आक्रमण का जो प्रतिरोध किया, उसके परिणाम-स्वरूप सारी दुनिया में अमेरिका के तौर-तरीके की आलोचना हुई; स्वयं अमेरिका के कवियों और लेखकों ने ईराक पर उन अमेरिकी हमलों की निन्दा की। अमेरिका की एक कवयित्री मार्गी पियर्सी ने तुम्हारे नाम पर शीर्षक से कविता लिखी। इस कविता में कवयित्री ने अमेरिका की निन्दा की है। वे कहती हैं –
‘तुम्हारे नाम पर हमने हवाई जहाजों,
टैंकों और तोपो से इस देश पर हमला किया है
हम चकित हैं कि ये हमें नापसन्द क्यों करते हैं।’
कविता का लहजा व्यंग्यात्मक है।
- उत्तर-आधुनिकतावाद और मुक्ति का प्रश्न
समाज और साहित्य के इतिहास-लेखन का संकट केवल इतिहास के अन्त की घोषणा से पैदा नहीं हुआ है। वस्तुतः वह उत्तर-संरचनावाद और उत्तर-आधुनिकतावाद के व्यापक नकारवादी सर्वग्रासी भाषा से भी पैदा हुआ है। उत्तर-आधुनिकतावाद के ‘उत्तर’, ‘अन्त’ और ‘मौत’ की निरन्तर घोषणाओं से इतिहास लेखन का संकट गहरा हुआ। इस प्रक्रिया में आधुनिकतावाद, यथार्थवाद आदि ‘उत्तर’ के शिकार हुए हैं, तो विचारधारा और कला आदि ‘अन्त’ के। इन ‘उत्तरों’ और ‘अन्तों’ के साथ ही ‘चेतना की मौत’, ‘विवेक की मौत’, ‘सामाजिक की मौत’, ‘साहित्य की मौत’ और ‘लेखक की मौत’ की घोषणाएँ भी हुई हैं। इतने उत्तरों, अन्तों और मौतों के बाद इतिहास-लेखन किसके सहारे होगा!
समाज के इतिहास-लेखन में इस बीच उत्तर-आधुनिकतावादी मोड़ के साथ, और भी कई मोड़ आए। वे मोड़ हैं – आख्यानपरक मोड़, भाषिक मोड़, सौन्दर्यबोधीय मोड़ और पाठपरक मोड़। हेडेन ह्वाइट ने अपने चिन्तन के माध्यम से इतिहास-लेखन को जिस तरह आख्यानपरक बनाया, उससे पुराने इतिहास-लेखक परेशान हैं। इन मोड़ों के कारण समाज का इतिहास-लेखन, साहित्य के इतिहास-लेखन के करीब आया। हेडेन ह्वाइट ने समाज के इतिहास-लेखन को साहित्यिक बनाया, तो रिचर्ड रोर्टी और जॉक दरिदा ने दर्शन और साहित्य का फर्क मिटाया।
यह सब देखकर साहित्य के प्रेमियों और साहित्य के इतिहास की चिन्ता करने वालों को अधिक प्रसन्न होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि इन मोड़ों के साथ ही इतिहास से सुसंगति, कालबोध, सत्य, अनुभव, यथार्थवाद और समग्रता का निष्कासन भी हुआ। यही नहीं, इतिहास-चिन्ता से प्रगति और सोद्देश्यता की धारणाओं का भी बहिष्कार हुआ, क्योंकि ये सब ज्ञानोदय और आधुनिकता से जुड़े हुए माने जाते हैं।
उत्तर-आधुनिकतावाद ने इतिहास को आख्यानपरक तो बनाया, पर इस आख्यानपरकता में मुक्ति के वृहद् आख्यान के लिए कोई जगह नहीं बनी। उत्तर-आधुनिकतावाद की चिन्ता सोद्देश्य और अर्थपूर्ण इतिहास से छुटकारा पाने की है। इसका अर्थ यह भी है कि उत्तर-आधुनिकतावाद में चिन्ता, मुक्ति के वृहद् आख्यान से मुक्ति की है, न कि छोटे-छोटे आख्यानों और इतिहासों से। उत्तर-आधुनिकतावाद की विचारधारा में आधुनिकता के साथ ही मानवीय समानता, ऐतिहासिक प्रगति, श्रमिकों और स्त्रियों की मुक्ति, वैयक्तिक स्वतन्त्रता, विवेक और बुद्धि की सर्वोच्चता आदि धारणाओं का भी अस्वीकार है। असल में, उत्तर-आधुनिकतावाद अपने समय के पूँजीवाद की विचारधारात्मक अभिव्यक्ति है। इसलिए उसमें विघटन, बिखराव और केन्द्र के अभाव की बात तो होती है, लेकिन प्रतिरोध, संघर्ष और मुक्ति के प्रयासों की कोई चिन्ता और चर्चा नहीं होती। वृहद् आख्यान केवल मुक्ति का ही नहीं, गुलामी का भी होता है। उत्तर आधुनिकतावादियों से पूछा जाना चाहिए कि भूमण्डलीकरण का आख्यान वृहद् है या छोटा। अमेरिकी सम्राज्यवाद का अभियान वृहद् है या छोटा। पूँजीवाद के सार्वभौम होने का आख्यान वृहद् है या छोटा।
- पाठ, लेखक और पाठक
जब साहित्य और लेखक की मौत हो चुकी है तो फिर किसका इतिहास साहित्य का इतिहास होगा। प्रसिद्ध फ्रांसीसी आलोचक रोलाँ बार्थ ने लेखक की मौत शीर्षक से एक लेख लिखा था। उनका यह लेख उनके निबन्धों के संग्रह इमेज-म्यूजिक-टेक्स्ट (1977) में संकलित है। इस लेख में रोलाँ बार्थ ने लिखा है कि लेखक की मौत के बाद ही पाठक का जन्म सम्भव है। अगर यह मान लिया जाए तो क्या साहित्य का इतिहास पाठकीय बोध का इतिहास होगा? साहित्य के उत्पादन और उत्पादक को छोड़कर केवल उसके उपभोक्ता और उपभोग की चिन्ता में आज के पूँजीवादी दौर के उपभोगतावाद की प्रतिध्वनि है।
रोलाँ बार्थ कहते हैं कि लेखक की धारणा पूँजीवादी विचारधारा की उपज है। वे इस बात से परेशान लगते हैं कि साहित्य के इतिहासों में लेखक की जीवनी, साक्षात्कारों, डायरियों और संस्मरणों को महत्त्व मिलता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि यह जानते हुए भी वे स्वयं ये सब लिखते रहे हैं। वे यह भी कहते हैं कि लेखन लिखता है, लेखक नहीं। तब प्रश्न उठता है कि लेखन क्या है। केवल भाषा या भाषा की विशिष्ट संरचना – जो लेखक रचता है। उत्तर-संरचनावाद ने भाषा को मनुष्य का मालिक बना दिया है। रोलाँ बार्थ कहते हैं कि भाषा बोलती है, मनुष्य नहीं।
रोलाँ बार्थ लेखक की मौत के बाद जिस पाठक के जन्म की बात करते हैं, वह पाठक कौन है ? क्या पाठक समाज और साहित्य की इतिहास-प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है? बार्थ कहते हैं कि पाठक इतिहास, जीवनी, मनोविज्ञान से मुक्त इकाई होता है। ऐसा पाठक दुनिया में शायद ही कोई मिले। भारत के पुराने काव्यशास्त्र में सच्चे पाठक को सहृदय और रसिक कहा गया है। वह समाज और साहित्य के इतिहास की उपज होता है। यह ठीक है कि पहले की आलोचना में पाठक को महत्त्व नहीं मिला था, लेकिन अब पाठक को लेखक की मौत की कीमत पर महत्त्व देना एक अतिवाद ही है।
जिस सोच के अनुसार प्रकृति, संस्कृति, सत्य, विवेक आदि सर्वभाषिक निर्मितियाँ हैं, उसके अनुसार साहित्य का इतिहास भाषा या लेखन का इतिहास होगा। अधिक से अधिक वह पाठक से पाठक के सम्बन्ध का इतिहास होगा। लेकिन साहित्य की पूरी प्रक्रिया लेखक, कृति और पाठक के बीच क्रियाशील होती है। साहित्य की वह प्रक्रिया सामाजिक प्रक्रिया के अन्तर्गत सम्भव होती है और वह सामाजिक प्रक्रिया ऐतिहासिक प्रक्रिया के भीतर। भाषा ऐतिहासिक प्रक्रिया से सामाजिक प्रक्रिया को और सामाजिक प्रक्रिया से साहित्यिक प्रक्रिया को जोड़ती है। इसीलिए रचना की सम्यक आलोचना के लिए शब्द और संसार के बीच सम्बन्ध की पहचान जरूरी है। शब्द और संसार के बीच सम्बन्ध के बोध के लिए शब्द का अर्थ से, अर्थ का संवेदना से, संवेदना का अनुभव से, अनुभव का जीवन के यथार्थ से, यथार्थ का सामाजिक सन्दर्भ से, सामाजिक सन्दर्भ का ऐतिहासिक प्रक्रिया से सम्बन्ध-बोध आवश्यक है।
- ‘अन्त’ की घोषणाओं का दौर और वैचारिक सम्भावनाएँ
बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में आलोचना के क्षेत्र में सिद्धान्तों की बाढ़ आई। उन सिद्धान्तों का सम्बन्ध साहित्य की व्याख्या और साहित्य के इतिहास-लेखन से भी है। लेकिन उनके व्यावहारिक रूप कम ही सामने आए। इसीलिए एफ.डब्ल्यू. गलान ने लिखा कि कोई चाहे तो आधुनिक आलोचना का ऐसा नकारात्मक इतिहास लिख सकता है, जिसमें साहित्यिक इतिहास की सर्वश्लेषी और सुसंगत इतिहास दृष्टि विकसित करने की असफलता मौजूद हो।
उत्तर-आधुनिकतावाद के उत्तरवाद से आलोचक चाहे जितने आतंकित हों, लेकिन रचनाकार आतंकित नहीं लगते। आयरलैण्ड के प्रसिद्ध कवि सीमस हीनी ने एक कविता में उत्तरवाद के आतंक को नकारते हुए लिखा है –
यह उत्तर वह उत्तर अन्य भी उत्तर लेकिन अन्त में कुछ भी अतीत नहीं।
उत्तर आधुनिकतावाद के उत्तर, अन्त और मौत के शोर के बीच पश्चिम में साहित्य के इतिहास लेखन की वास्तविकताओं और सम्भावनाओं पर विचार की प्रक्रिया रुकी नहीं। सन् 1985 में न्यू लिटरेरी हिस्ट्री नाम की पत्रिका के पूरे अंक पर वाल्टर एल. रीड की राय है कि इन लेखों को पढ़ते हुए साहित्य के इतिहास लेखन की राष्ट्रीय परम्पराओं की विविधता सामने आती है। उनके अनुसार साहित्य के इतिहास लेखन की एक समस्या यह भी है कि उसमें ऐतिहासिकता को अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए या साहित्यिकता को।
साहित्य के इतिहास के सिद्धान्त, स्वयं साहित्य की आलोचना के इतिहास के अन्दर होते हैं, इसलिए उन पर विवाद स्वाभाविक है। इस अंक में कुछ ऐसे लेख हैं, जो ऐतिहासिक पुनर्प्रस्तुति पर अधिक जोर देते हैं, तो कुछ साहित्यिक अनुकरण को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इस अंक में एक लेख सोवियत संघ के आलोचक यूरी बी. वाइपर का है, जिसमें उन्होंने सोवियत संघ द्वारा प्रकाशित विश्व साहित्य के इतिहास में निहित सिद्धान्त और पद्धति का विश्लेषण किया है। जाहिर है, उनके विश्लेषण में साहित्य के इतिहास लेखन में समाज का प्रतिबिम्बन विशेष महत्त्वपूर्ण है। इस अंक में एक लेख गम्बेरख्त का है जिसमें समग्रता की धारणा की केन्द्रीयता की बात की गई है। लेखक की राय है कि पुराना इतिहास इसलिए कामयाब नहीं हुआ क्योंकि उसने इतिहास-प्रक्रिया की समग्रता और सोद्देश्यता की अभिव्यक्ति पर आवश्यकता से अधिक बल दिया। नया इतिहास कृति के बदले पाठ पर अधिक ध्यान देगा और उसके साथ ही सम्प्रेषण की परिस्थितियों पर भी। इस प्रक्रिया में पाठ के सांस्कृतिक सन्दर्भ और मानसिकताओं के इतिहास की खोज आवश्यक होगी। इस अंक में एक लेख गिलवार्ट और गूबर नाम की दो महिला आलोचकों का है, जिन्होंने साहित्य की आलोचना और इतिहास लेखन की भाषा के प्रसंग में स्त्रियों की भूमिका पर ध्यान दिया। उन्होंने यह भी लिखा है कि प्रायः भाषाओं को मातृभाषा कहने में यह अर्थ निहित है कि भाषाओं के निर्माण और विकास में स्त्रियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
अपनी टिप्पणी के अन्त में रीड की राय है कि एक सुसंगत और समावेशी साहित्य का इतिहास ज्ञान की नई राजनीति पर निर्भर है। इस नई राजनीति में विरोधियों के बीच विवाद तो होना चाहिए पर वैर नहीं। साहित्य के आलोचकों और इतिहासकारों को अपनी पद्धति की शक्ति के साथ-साथ उसकी सीमाओं को भी जानना चाहिए। एक उदार दृष्टिकोण सभी तरह के विचारों के विकास का मौका प्रदान करता है। आज के समय में धीरे-धीरे रूपवादी और इतिहासवादी दृष्टिकोणों के बीच समन्वय की सम्भावना बनती दिखाई दे रही है।
- साहित्य के इतिहास लेखन की समस्या और दृष्टिकोण
जी. डील्यूज और एफ. गातारी ने साहित्य के इतिहास लेखन की एक आवश्यक समस्या पर विचार किया। उन्होंने साहित्य के इतिहास लेखन में गौण साहित्यकारों या गौण साहित्यों पर ध्यान दिया। उन दोनों ने काफ्का के लेखन को ध्यान में रखकर गौण साहित्य के लेखन की समस्या पर लिखा। उन्होंने गौण साहित्य को अल्प संख्यकों के साहित्य के रूप में देखा है और भाषा तथा शक्ति के सम्बन्धों का विवेचन भी किया। अल्पसंख्यक समुदाय का लेखक अपने समुदाय की भाषा और आवाज में बोलता है। काफ्का की राजनीति आकांक्षा की राजनीति है, वह किसी स्थिति का प्रतिबिम्ब नहीं है, बल्कि उसमे आतंककारी सम्भावनाओं के प्रतिरोध की अभिव्यक्ति है। यह प्रभुत्वशाली समाज की शक्ति का प्रतिरोध है, भले ही वह रहस्यमय लगे या अपर्याप्त लगे। इस दृष्टि से अमेरिका के अश्वेतों, भारत के दलितों और स्त्रियों के साहित्य को देखना सम्भव है।
बहुत पहले हिन्दी के एक विशिष्ट आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने साहित्य के इतिहास में गौण लेखकों के महत्त्व पर ध्यान दिया था। उन्होंने अपनी पुस्तक साहित्य का इतिहास दर्शन (सन् 1960) में लिखा, ‘साहित्यिक इतिहास का विषय भी यदि विस्तार है, तो महान् लेखकों से अधिक महत्त्व उन गौणों का है, जिनसे विस्तार निर्मित होता है। हिन्दी साहित्य के इतिहासों में इन महान् गौणों की उपेक्षा हुई है और इसका कारण यह है कि शोध ने अपने वास्तविक कर्तव्य का पालन नहीं किया है। वह उन पथ-चिह्नों तक ही सीमित रहा है, जो वस्तुतः आलोचना के विषय हैं। यदि इसका उत्तर यह है, और नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता कि अभी तो पथ-चिह्न ही पूर्णतः उद्घाटित नहीं है, तो इतिहास को तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, जब तक शोध को अपना कार्य पूरा कर लेने का अवकाश नहीं मिलता।
जिस समय न्यू लिटरेरी हिस्ट्री का साहित्य के इतिहास पर विशेषांक प्रकाशित हुआ था, उसी समय पोयटिक्स नाम की पत्रिका का भी एक विशेषांक साहित्य के इतिहास पर छपा था, जिसमें 21 लेखकों के साहित्य के इतिहास लेखन के विभिन्न पक्षों पर लेख मौजूद हैं। पोयटिक्स के इस अंक के सम्पादक एस.जे. स्मित थे। इस अंक में जर्मनी और नीदरलैण्ड के लेखक मौजूद हैं। सम्पादक ने उन लेखों का सारांश देते हुए अपनी राय भी दी है। संपादक के अनुसार पी. बर्गर की मान्यता है कि साहित्य के इतिहास के लिए नए प्रकार के शोध की जरूरत है जिसमें साहित्य के प्रकार्य और मूल्यांकन की नई दृष्टि का विकास जरूरी है। उनकी समझ है कि साहित्य की अवाँगार्द अवधारणा ही नए इतिहास लेखन में मदद कर सकती है।
दूसरे लेखक गम्बेरख्त ने सम्प्रेषण की प्रक्रिया को साहित्य के इतिहास लेखन से जोड़ने का समर्थन किया। उनका यह भी कहना है कि साहित्य का ऐसा इतिहास होना चाहिए, जिसमें पाठ का स्वरूप और उसके सम्प्रेषण की प्रक्रिया का बोध हो। इस अंक के एक अन्य लेखक ने फूको की इतिहास-दृष्टि के आधार पर साहित्य का इतिहास लिखने की बात की। इसके साथ ही एक अन्य लेखक ने साहित्य के इतिहास लेखन के लिए रचनात्मक दृष्टिकोण की वकालत की है। अनेक लेखकों ने इस बात पर जोर दिया है कि साहित्य के इतिहास को साहित्य का सामाजिक इतिहास होना चाहिए और साहित्यिक परिवर्तनों की व्याख्या में सामाजिक परिवर्तनों का समावेश भी होना चाहिए। कुछ लेखकों ने साहित्य के नए इतिहास लेखन के लिए भाषाविज्ञान सम्बन्धी मान्यताओं का उपयोग करने की सलाह दी है। एक लेखक ने यह भी लिखा कि स्वयं साहित्य के इतिहास लेखन में भाषा का उपयोग एक तरह का नहीं होता, आख्यान रचने, उद्धरण देने और व्याख्या करने की भाषा में अन्तर होता है। न्यू लिटरेरी हिस्ट्री और पोयटिक्स के सन् 1985 के विशेषांकों से साबित होता है कि यद्यपि उत्तर-आधुनिकतावाद के कारण साहित्य का इतिहास संकट में है लेकिन उस संकट से बाहर निकलने के प्रयत्न करने वाले लेखक और विचारक भी क्रियाशील हैं।
- निष्कर्ष
इतिहास लेखन की ओर कोई जाति तभी प्रवृत्त होती है जब उसके भीतर इतिहास निर्माण की आकांक्षा होती है। इस ऐतिहासिक भावना से ही वह उसके निमित्त कोशिश करता है। हिन्दी में इतिहास लेखन का उत्साह तब दिखाई दिया जब हिन्दी के विद्वानों व साहित्यकारों ने इस ऐतिहासिक दायित्व को समझा। भारतीय चिन्तन में 20 वीं सदी में यह कार्य शुरू हुआ। यूरोप में 19 वीं सदी को इतिहासवाद की सदी माना जाता है। लेकिन 20 वीं सदी इतिहास के अन्त की सदी साबित हुई। इस सदी के अन्त में उत्तर-आधुनिकतावादियों की बहसों में इतिहास के अन्त की घोषणा की जा चुकी थी। इतिहास के अन्त के साथ समाज व साहित्य के लेखन की सम्भावनाओं के अन्त होने की चर्चाएँ शुरू हो गईं। उत्तर-आधुनिकता तथा उत्तर-संरचनावादियों की नकारवादी धारणाओं ने साहित्य व समाज दोनो के इतिहास को संकटग्रस्त बना दिया।
कला और विचारधारा के अन्त की घोषणा के साथ ही चेतना की मौत, सामाजिक की मौत, विवेक की मौत, साहित्य की मौत और लेखक की मौत की भी घोषणाएँ हुईं। अन्त की इस धारणा के बाद यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि इतिहास लेखन अब किसके सहारे होगा? लेकिन इस उत्तर-आधुनिकतावादी मोड़ के साथ और कई मोड़ आए जिसमें इतिहास लेखन को आख्यानपरक, भाषिक, सौन्दर्यबोधीय और पाठपरक बनाया गया। हेडेन ह्वाइट ने अपने चिन्तन व इतिहास लेखन को आख्यानपरक बनाया, जिससे इतिहास लेखन साहित्य के इतिहास लेखन के करीब आया। जॉक दरिदा ने दर्शन और साहित्य का फर्क मिटाया। इस संकट की धारणा के प्रचार के साथ लेखन के नए तरीकों का निष्कासन हुआ। अब लेखक का महत्त्व कम करके लेखन, भाषा, पाठक, सौन्दर्यबोध तथा उपभोक्ता की महत्ता को प्रकाश में लाया गया। इतिहास लेखन की परम्परा में विविधता दृष्टिगोचर होती है।
इतिहास लेखन के संकट के साथ लेखन की समस्या का भी सवाल सामने आया। विद्वानों के बीच बहस का विषय बना कि साहित्य के इतिहास लेखन में ऐतिहासिकता को अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए या साहित्यिकता को। साथ ही यह दुविधा भी सामने आई कि इतिहास को विश्लेषण प्रधान अनुशासन के रूप में देखा जाए या उसे इतिहास लेखन की घटना का रूप समझा जाए। एस.जे. स्मिथ के सम्पादकत्व में पोयटिक्स नाम की पत्रिका का साहित्येतिहास पर विशेषांक छपा था, जिसमें 21 लेखकों ने अपने लेखों के माध्यम से लेखन के संकट तथा साहित्येतिहास लेखन के विविध पक्षों एवं सिद्धान्तों की वकालत की। इस प्रकार अन्त और संकट की धारणाओं के बरक्स ऐतिहासिक परिस्थितियों में बदलाव के चलते इतिहास लेखन की विभिन्न दृष्टियों का विकास हुआ।
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वेब लिंक्स
- https://www.youtube.com/watch?v=vZWJETpfbzM
- https://en.wikipedia.org/wiki/Roland_Barthes
- https://en.wikipedia.org/wiki/Death_of_the_Author
- http://www.britannica.com/biography/Roland-Gerard-Barthes
- https://en.wikipedia.org/wiki/The_End_of_History_and_the_Last_Man
- https://en.wikipedia.org/wiki/End_of_history
- http://www.wesjones.com/eoh.htm