9 नव-इतिहासवाद और साहित्य का इतिहास

प्रो. मैनेजर पाण्डेय पाण्डेय

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • नव इतिहासवाद की अवधारणा समझ सकेंगे।
  • नव इतिहासवाद सिद्धान्त के प्रतिपादक ग्रीनब्लात की प्रमुख मान्यताओं से परिचित हो सकेंगे।
  • ग्रीन ब्लात पर बेकन का प्रभाव जान सकेंगे।
  •  नव इतिहास में संस्कृति की अवधारणा समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

अस्त-व्यस्त मानवीय स्मृतियों, आकांक्षाओं और महत्त्वकांक्षाओं को व्यवस्थित और सार्थक बनाने के लिए इतिहास की जरूरत होती है। उत्तर-आधुनिकतावाद के समय में अमेरिका में ऐसा ही प्रयास नव-इतिहासवाद के रूप में सामने आया। नव-इतिहासवाद साहित्य के इतिहास के क्षेत्र में भी क्रियाशील है। इसके प्रमुख विचारक हैं स्टीफन ग्रीनब्लात। वे स्वयं को साहित्य का इतिहासकार भी कहते थे। नव-इतिहासवाद में जीवन की मीमांसा होती है, उसके सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक सन्दर्भों की व्याख्या भी की जाती है। एक प्रकार से किसी भी रचना को कालजीवी और कालजयी होने की प्रक्रिया की इसमें पहचान की जाती है। इसमें पाठवाद की प्रधानता है। नव-इतिहासवाद में मार्क्सवाद के सोद्देश्यतावादी दृष्टिकोण से दूरी, समग्रता की धारणा का विरोध और वृहद आख्यान के बदले उपाख्यानों को महत्त्व दिया जाता है।

  1. नव इतिहासवाद और ग्रीनब्लात

 

ग्रीनब्लात की प्रमुख पुस्तकें हैं रिनेसाँस सैल्फ-फैशनिंग, फ्रॉम मोर टू शेक्सपियर (1980), शेक्सपियर नेगोशियेशन्स : दी सर्कुलेशन ऑफ सोशल एनर्जी इन रिनेसाँस इंग्लैण्ड (1988), लर्निंग टू कर्स : एसेज इन मॉर्डन कल्चर (1990), मार्वेलस पॉजेसंस (1991)। नव-इतिहासवाद राजनीतिक प्रतिबद्धता को महत्त्व नहीं देता। ग्रीनब्लात ने लिखा है कि पुनर्जागरण के पाठों में प्रतिरोध या विद्रोह के तत्त्व हैं, जो सतह पर उन पाठों के विमर्श की विचारधारा में हस्तक्षेप करते हैं, साथ ही वे उस विमर्श को सहज बनाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि वर्चस्वशाली विचारधारा हस्तक्षेप को नियन्त्रित करना चाहती है। यह दृष्टि उस पुरानी ऐतिहासिक आलोचना से अलग है, जो सामाजिक परिवर्तन को महत्त्व देती है, लेकिन ग्रीनब्लात कहते हैं कि हमारी पद्धति परोक्ष रूप से परिवर्तन को बढ़ावा देती है, क्योंकि वह उस वर्चस्वशाली विचारधारा के काम करने की प्रक्रिया का विश्लेषण करती है। इस प्रकार हमारी आलोचना की पद्धति पाठकों को अपने समकालीन सांस्कृतिक परिस्थितियों को समझने और बदलने में मदद करती है।

  1. नव इतिहासवाद और संस्कृति

 

ग्रीन ब्लात अपने लेखन में मुख्यतया व्याख्या पर जोर देते हैं और व्याख्या की दृष्टियों का विवेचन करते हैं। वे सारवाद को अस्वीकार करते हैं और कहते हैं कि अर्थ की सांस्कृतिक व्यवस्था विशेष प्रकार के व्यक्तियों का निर्माण करती है। इस प्रक्रिया में वह अमूर्त्त सम्भावनाओं से ऐतिहासिक मूर्त्तताओं को खोज निकालती है। उनके अनुसार साहित्य के तीन परस्पर सम्बद्ध कार्य हैं। एक तो लेखक के व्यवहार की अभिव्यक्ति की खोज, दूसरे उन संकेतों की खोज, जिससे व्यवहार बनते हैं, और तीसरे उन संकेतों पर विचार की प्रक्रिया। ग्रीन ब्लात इस प्रक्रिया से अधिक सांस्कृतिक और मानव-शास्त्रीय आलोचना का विकास करना चाहते हैं। उस आलोचना का काम व्याख्या के रूप में अपने स्वरूप को पहचानना भी है और साहित्य को संकेतों की व्यवस्था के अंग के रूप में स्वीकार करना है। इसका लक्ष्य उन्हीं के शब्दों में ‘संस्कृति का काव्य-शास्त्र’ निर्मित करना है। वे यह भी कहते हैं कि साहित्यिक कृतियों की भाषा हमेशा सामाजिक सार्थकताओं में निहित होती है। हमारी व्याख्या का लक्ष्य इस बात की पहचान करना, कृति की दुनिया में सामाजिक की उपस्थिति की जाँच-परख करना और समाज में कृति की उपस्थिति की परीक्षा करना है।

 

बाद के दिनों में ग्रीन ब्लात ने लिखा कि संवाद  के माध्यम से कृतियाँ पैदा होती हैं। वे कहते हैं कि कला-कृतियाँ ऐसे सृजनताओं, समाज की संस्थाओं और व्यवहारों के बीच संवाद से पैदा होती हैं। इसलिए आलोचना पाठ की स्वायत्तता और यथार्थवादी सिद्धान्त को अस्वीकार करना चाहती है। कला के यथार्थवादी दृष्टिकोण को भी अस्वीकार करना चाहती है और बदले में व्याख्या का ऐसा प्रारूप तैयार करना चाहती है, जो वस्तुओं और विमर्शों के अनिश्‍चित व्यवहार की व्याख्या कर सके। इसीलिए समकालीन सिद्धान्त को व्याख्या के बाहर नहीं, संवाद और विवेक के बीच में रहना चाहिए। वे यह भी लिखते हैं कि अगर सांस्कृतिक काव्य-शास्त्र अपने व्याख्याकारी हैसियत के बारे में सचेत है तो उसे अपनी ऐतिहासिक स्थिति के बदले व्याख्येय की संस्कृति में प्रवेश करना चाहिए।

 

ग्रीन ब्लात की आलोचना में गाडामेर और हाबरमास के प्रभाव मौजूद हैं। उनकी आलोचना पर बीसवीं सदी के सांस्कृतिक सिद्धान्तकार क्लिफॉर्ड गीर्ज और फूको का प्रभाव है। ग्रीन ब्लात संस्कृति को शक्ति के सन्दर्भ में देखते हैं। वे कहते हैं कि शक्ति विशेष संस्थाओं में केन्द्रित होती है और अर्थों की विचाराधारात्मक संरचनाओं में भी मौजूद होती है। साथ ही वह अभिव्यक्ति के रूपों और आख्यान के ढाँचों में भी होती है।

 

ग्रीन ब्लात के आलोचनात्मक व्यवहार में परिष्कृत अन्तर्पाठीयता दिखाई देती है। वे जिस साहित्यिक पाठ की आलोचना करते हैं, उसको दूसरे समकालीन पाठों से, और कभी-कभी कुछ गैर-साहित्यिक पाठों से जोड़ते हैं। ग्रीन ब्लात अपनी आलोचना में अतीत की वर्तमानता की बात करते हैं। लेकिन पुराने इतिहासवाद में भी यह प्रवृत्ति मौजूद है। ‘टैम्पेस्ट’ पर अपने निबन्ध में उसके पात्रों के विचारों और भाषा के प्रयोग के प्रसंग में उन्होंने सिसरो को याद किया है। उनकी आलोचना पर उदार-औपनिवेशिकतावाद का भी प्रभाव दिखाई देता है। ग्रीन ब्लात की आलोचना की एक महत्त्वपूर्ण मान्यता है – विद्रोही चेतना की खोज और पहचान। उन्होंने यह काम फूको की मदद से किया। वे शेक्सपियर की आलोचना के प्रसंग में कहते हैं कि हम अपने समय के लिए शेक्सपियर की विद्रोही सम्भावनाओं की खोज कर रहे हैं। वे शेक्सपियर के नाटकों में से ऐसे तत्त्वों की भी खोज करते हैं, जो हमारी वर्तमान की स्थिर मान्यताओं के मन्तव्यों की पहचान करा सके।

 

ग्रीन ब्लात के अनेक आलोचकों ने कहा है कि उनकी आलोचना में एक प्रकार का निराशावाद है, जो हमारे ऐतिहासिक को पहचानने की क्षमता और विचारधारा से बचने की क्षमता को ताकत नहीं देता। हम वर्तमान की चुनौतियों का सामना करने में भी सक्षम नहीं हैं। गीर्ज की तरह ग्रीन ब्लात भी मानते हैं कि संस्कृतियों में अन्तर का एक पक्ष भौतिक मानवीय आधार भी होता है। अपनी पुस्तक लर्निंग टू कर्स : एसेज इन मॉडर्न कल्चर के अन्तिम अध्याय में यह भी लिखा है कि नव-इतिहासवाद को कला में मौजूद प्रतिध्वनि और आश्चर्य के बारे में भी सजग रहना चाहिए। यही नहीं, कला में अपनी सीमाओं के बाहर पहुँचने की जो क्षमता होती है, उसी में उसकी विशिष्टता होती है और हम उस पर आश्‍चर्य करते हैं। ग्रीन ब्लात यह भी कहते हैं कि कलात्मक अभिव्यक्ति कभी भी आत्मनिर्भर नहीं होती। वह सामाजिक व्यवहारों को सांस्कृतिक क्षेत्र में पहुँचाती है। उदाहरण के लिए – माता, पिता और बच्‍चों के बीच सम्बन्ध अधिक व्यापक बनकर किंगलियर की चिन्ता के रूप में सामने आते हैं।

 

ग्रीन ब्लात जिन कलाकृतियों की व्याख्या करते हैं, वे अपने वर्तमान से हमारे वर्तमान तक पहुँचती है। जाहिर है इस पद्धति पर स्पष्टतः फूको का असर दिखाई देता है। वे जिस सम्वाद की पद्धति का उपयोग करते हैं, उसमें भी अतीत को वर्तमान से जोड़ने की प्रक्रिया मौजूद है। पॉल हैमिल्टन ने ‘इतिहासवाद’ नाम की किताब में लिखा है कि ग्रीन ब्लात की आलोचना उस शक्ति से हमें मुक्त नहीं करती, जिसकी यह आलोचना करती है; बल्कि वह अपने लिए उसकी पुनर्व्याख्या करती है। पॉल हैमिल्टन ने यह भी लिखा है कि वस्तुपरकता से परहेज के कारण नव-इतिहासवाद में राजनीतिक सक्रियता के लिए राजनीतिक निराशावाद पैदा होता है। ग्रीन ब्लात पर उत्तर-आधुनिकतावाद का भी असर है, क्योंकि उनके यहाँ इतिहास और कुछ नहीं, खुद को शक्तिशाली बनाए रखने के लिए कथाएँ कहने की और उनकी आलोचना करने की प्रवृत्ति है।

  1. साहित्य का बदलता अर्थ और साहित्य का इतिहास-लेखन

 

ग्रीन ब्लात ने यूरोपीय समाज और संस्कृति के इतिहास में साहित्य के बदलते अर्थ और महत्त्व की भी चर्चा की है। वे यह भी कहते हैं कि साहित्य और साक्षरता दोनों ही यूरोप में बहुत पुराने नहीं हैं। वे मध्यकाल और प्रारम्भिक आधुनिक काल में अपना नया अर्थ ग्रहण करते हैं और साहित्य का ज्ञान किसी भी व्यक्ति के लिए समाज में विशेष हैसियत का सूचक बनता है। वे साहित्य के इतिहास को विश्‍वविद्यालयों की देन मानते हैं। वे यह भी कहते हैं कि साहित्य शब्द के अर्थ में बाहरी दबावों के विरुद्ध हस्तक्षेप का गुण होता है, जो व्याख्याकारों से अधिक स्थायी होता है। यह भी सच है कि व्याख्याकारों का समूह साहित्य के इतिहास का एक छोटा-सा हिस्सा है। उनके अनुसार साहित्य का व्याख्याकारों पर असर पड़ता है।

 

साहित्य का एक परा-ऐतिहासिक आयाम भी होता है, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है, जिसे साहित्य के इतिहास का अंग होना चाहिए। साहित्य के इतिहास के सन्दर्भ में उन आकस्मिकताओं का विशेष महत्त्व है, जिनसे साहित्यिक कृतियाँ सम्भव होती हैं और वही आकस्मिकताएँ रचनाकारों को भी प्रभावित करती हैं। आकस्मिकताएँ ही साहित्य को हमारे लिए भी सम्भव बनाती हैं। इस तरह साहित्य का इतिहास हमेशा साहित्य की सम्भावनाओं का इतिहास होता है। इस बात को हम आज के सन्दर्भ में भी देख-समझ सकते हैं। आज भी ऐसे बहुत सारे साहित्य के रचनाकार हैं, जिनकी रचनाएँ लिखी जाने के बाद वर्षों तक नहीं छपती हैं और नहीं छपने के कारण न वे पाठकों तक पहुँच पाती हैं और न साहित्य की दुनिया में उनके लिए जगह बनती है। साहित्य को साहित्य बनाने के लिए प्रकाशन, पुस्तक बाजार, पुस्तक विक्रेता, आलोचक आदि की जो भूमिका होती है, उसे भी आकस्मिकताएँ ही कहा जा सकता है।

 

साहित्य के इतिहास में कभी-कभी रचनाकारों के नाम, रचनाओं से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं और उन्हें हर पीढ़ी अपनी जरूरत के अनुसार समझती और व्याख्या करती है। ग्रीन ब्लात ने बेकन के चिन्तन के आधार पर लिखा है कि आरम्भ में साहित्य का इतिहास ज्ञान के इतिहास का अंग था। उसका केवल एक अंश कविता के इतिहास से जुड़ा है। बेकन के लिए कविता में एक ओर अलंकृत भाषा जरूरी थी और दूसरी ओर झूठे इतिहास की भी आवश्यकता थी। इस प्रक्रिया में शब्दों की सुन्दरता और आख्यान की उत्कृष्टता आवश्यक थी। इससे साहित्य निर्मित होता था। यह सब इतिहास या दर्शन में नहीं होता। कविता जिस साहित्य की धारणा के भीतर थी, उसे आज के सन्दर्भ में संस्कृति का काव्य-शास्त्र कहा जा सकता है। जिसके अन्तर्गत सब लिखित विमर्श आता है, जिससे हम संसार को समझते हैं और संसार में क्रियाशील होते हैं। इसके साथ ही एक ऐसा विमर्श, जिसके भीतर काल्पनिक और वास्तविक का भेद होता है।

 

कुँवर नारायण अपनी किताब शब्द और देशकाल में कहते हैं कि ‘‘मीशेल फूको ने (जिनके विचारों का नव-इतिहासवाद पर गहरा असर रहा है) पहले ही अपनी पुस्तक ‘ज्ञान का पुरातत्त्व’ (आर्कियोलॉजी आफ नॉलेज) में संस्कृतियों के इस तरह ‘पढ़े’ जाने पर जोर दिया है, मानो वे मूलतः ‘पाठ’ हों। फूको जिस तरह अपनी पुस्तकों का नामकरण करते रहे हैं, उसमें भी हम ‘ऐतिहासिक’ और ‘गैर-ऐतिहासिक’ विषयों के बीच गहरे अन्तर्सम्बन्धों को खोज निकालने की कोशिश को साफ पहचान सकते हैं, जैसे – ‘ज्ञान का पुरातत्त्व’, ‘सभ्यता और विक्षिप्तता’ (मैडनेस एण्ड सिविलाइजेशन), ‘स्व की तकनीकें’ (टेक्‍नॉलॉजीज ऑफ दी सेल्फ) आदि। यहाँ इतिहास से सम्बन्धित फूको की अवधारणाओं पर एक संक्षिप्त दृष्टि डाल लेना उपयोगी होगा, खासकर ऐसे कुछ बिन्दुओं पर जो हमें भारतीय इतिहास को भी नई तरह सोचने-विचारने की सामग्री दे सकते हैं।’’

 

कुँवर नारायण आगे लिखते हैं, ‘‘फूको के चिन्तन में कुछ शब्द उनके विचारों की कुँजी की तरह हैं, जैसे – वर्तमान, वंशावली/वंशक्रम, ज्ञानमीमांसा, तकनीक और विच्छिन्नता। यहाँ मैं फूको की इतिहास-सम्बन्धी कुछ अवधारणाओं की चर्चा तक अपने को सीमित रखूँगा। प्रसंगवश इस ओर भी ध्यान जाता है कि फूको विभिन्न विषयों से लिए गए शब्दों को अपने चिन्तन में इस तरह स्थानान्तरित करते हैं कि एक ओर जहाँ उन शब्दों का पारम्परिक अर्थाभास बना रहता है, दूसरी ओर उनमें नए चिन्तन का संचार भी होता है; यानी एक तरह से उनमें नई प्राण प्रतिष्ठा होती है।’’

  1. नव इतिहासवाद की सीमाएँ

 

ग्रीन ब्लात ने यह भी लिखा है कि नव-इतिहासवाद में कुछ समस्याएँ भी हैं। उसमें ईमानदारी से भरी निराशा है। रिनेसाँस सेल्फ-फैशनिंग, फ्रॉम मोर टू शेक्सपियर  के आखिरी हिस्से में यह बात भी कही गई है कि मैं इस भ्रम को बनाए रखना चाहता हूँ कि मैं अपनी अस्मिता का निर्माता स्वयं हूँ। इसमें एक तरह से उस व्यवस्था की आलोचना करने से बचना भी है, जो हमें ऐसी स्वतन्त्रता नहीं देती। पॉल हैमिल्टन ने लिखा है कि आत्मकथा की तरह से यह इतिहासवाद और चीजों के साथ-साथ चेतना की आत्मवंचना को भी भौतिक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करता है। यह सम्भव है कि कोई नया इतिहासवादी शेक्सपियर को पुराणपन्थी विचारधारा का मानता है और साथ ही अपने बिम्बों, चरित्रों और कथानक के माध्यम से उन्हें पुराणपन्थी विचारधारा के बाहर निकलने की बात भी करे। नया इतिहासवाद इतिहास को कथाओं का युद्ध स्थल समझता है।

 

हैडेन व्हाइट ने ठीक ही लिखा है कि नव-इतिहासवाद की पद्धति किसी भी ऐतिहासिक आख्यान को अभिलेखागार के बाहर आपस में युद्ध करने के लिए आमन्त्रित करती है। इस युद्ध में विजेता वह है जिसकी बात ऐतिहासिक संघर्ष में स्वीकार की जाती है। यह एक तरह से गाडामेर की पद्धति को स्वीकार करना होगा। नव-इतिहासवाद साहित्य को केवल कथाओं का खेल बना देता है। नव-इतिहासवाद की पद्धति विकेन्द्रीकरण विनियमन बनती दिखाई देता है।

 

यद्यपि ग्रीन ब्लात ने साहित्य का कोई इतिहास नहीं लिखा, लेकिन उनका साहित्य के इतिहास के बारे में एक लेख जरूर छपा है, जिसका शीर्षक है ह्वाट इज हिस्ट्री ऑफ लिटरेचर। यह लेख क्रिटिकल इन्क्वायरी  के स्प्रिंग 1997 के अंक में छपा है। इस लेख के आरम्भ में उन्होंने यह स्थापना दी है कि मैथ्यू आर्नोल्ड ने राष्ट्रीय सन्दर्भ में साहित्य के इतिहास की धारणा पर आपत्ति की थी। प्रकारान्तर से ग्रीन ब्लात की आलोचना में साहित्य के इतिहास को राष्ट्र से जोड़कर देखने का समर्थन नहीं है। उन्होंने अमेरिकी साहित्य का उदाहरण देते हुए कहा कि उस साहित्य का इतिहास इतना विखण्डित है कि उसे राष्ट्रीय संस्कृति के ढाँचे में नहीं रखा जा सकता।

  1. नव इतिहासवाद और बेकन

 

बेकन ने प्रत्येक कला के आविष्कार और सम्प्रेषण पर ध्यान देना जरूरी माना और उनके संस्थागत इतिहास को महत्त्व दिया। वे यह भी कहते हैं कि मुख्य लेखकों, किताबों, शाखाओं, उत्तराधिकारियों, ज्ञान की संस्थाओं और व्यवस्थाओं का ध्यान इतिहास में रखा जाना चाहिए, ताकि वे ज्ञान की दशा को बता सकें। यद्यपि बेकन कविता को मानवीय ज्ञान से अलग रखते थे लेकिन वे यह भी मानते थे कि इनका इतिहास अलग-अलग नहीं होना चाहिए। वे बार-बार मानवीय ज्ञान की बात करते थे, जिसका तात्पर्य सम्भवतः सांस्कृतिक सृजनशीलता से है, न कि केवल अर्जित ज्ञान से। उनका संयुक्त इतिहास महत्त्वपूर्ण है। वे इतिहास में कारणों की खोज और उल्लेख को जरूरी मानते थे। वे एक समाज की विचारधारात्मक संरचना को दूसरे समाज की विचारधारात्मक संरचना से अलग समझते थे, ताकि यह सुनिश्‍चित किया जा सके कि कौन-सा समाज ज्ञान के उपयुक्त है, कौन-सा अनुपयुक्त है और कौन-सा ज्ञान से उदासीन है। ग्रीन ब्लात ने लिखा है कि बेकन के इस चिन्तन के अनुसार साहित्य का समुचित इतिहास न केवल अन्तर्विषयक होना चाहिए, बल्कि कविता के इतिहास को अन्य विमर्शों एवं अन्य संस्कृतियों के साथ रखकर देखना चाहिए। केवल अपनी राष्ट्र की सीमा में रहना पर्याप्त नहीं है। एक संस्कृति के स्वरूप और महत्त्व को दूसरी संस्कृति के सामने रखकर देखने पर ही जाना जा सकता है।

 

इस विचार के अनुसार साहित्य के इतिहास को केवल अन्तर्विषयक ही नहीं, अन्तर्सांस्कृतिक भी होना चाहिए, जिसमें काव्यात्मक आविष्कारों को विमर्श के दूसरे रूपों के साथ रखकर देखना चाहिए। बेकन के अनुसार ऐसे इतिहास में आलोचकों की तरह प्रशंसा या दोषारोपण के बदले तथ्यों को ऐतिहासिक रूप से रखना चाहिए, जिसमें थोड़ा सा व्यक्तिगत निर्णय भी मिला रहे। ग्रीन ब्लात के अनुसार साहित्य के इतिहास के बारे में बेकन की इस धारणा में साहित्य के इतिहास का नहीं बल्कि की साहित्य का सम्मान बढाना जरूरी है। इसमें ज्ञान के प्रति निष्पक्ष प्रेम का समर्थन नहीं, जिज्ञासा के लिए ज्ञान की खोज जरूरी है। बेकन यह भी कहते हैं कि इस तरह का इतिहास विद्वानों के विवेक और कुशलता की मदद करेगा। ग्रीन ब्लात कहते हैं कि बेकन की इस बात पर ध्यान देने से हम सांस्कृतिक पद्धति के बारे में मोहमुक्त दृष्टिकोण से सम्पन्न होंगे और इससे सांस्कृतिक विकास और सांस्कृतिक मुक्ति भी सम्भव होगी।

 

बेकन कहते हैं कि साहित्य के पुराने इतिहास कमजोर हैं। वे ऐसे इतिहास की बात करते हैं, जो नया और बेहतर हो। उस इतिहास के बारे में वे लिखते हैं कि मैं विशेष रूप से यह सलाह दूँगा कि उसकी सामग्री केवल इतिहासों और टीकाओं से नहीं ली जानी चाहिए, बल्कि हर शताब्दी में लिखे गए आरम्भिक अवस्था से लेकर बाद तक लिखे गए इतिहासों की जाँच-परख करना, उनके तर्कों पर ध्यान देना, उनकी शैली और पद्धति को पहचानना जरूरी है ताकि उनके माध्यम से प्रत्येक युग की साहित्यिक चेतना प्रकट हो सके।

 

ग्रीन ब्लात कहते हैं कि पुराने इतिहासों में साहित्य से बाहर जाने को पहले हतोत्साहित किया जाता है। यही नहीं, उसमें पुरानी विच्छिन्नताओं और असंगतियों पर ध्यान नहीं दिया जाता। सौन्दर्यबोधीय निर्णयों को किनारे किया जाता है। पुराने इतिहासों में साहित्यिक घटनाओं के कारणों की खोज की जाती थी, उनका विस्तार किया जाता था। साहित्यिक कृतियों के गहन पाठ से पाठों के बीच परस्पर सम्बन्ध पर ध्यान नहीं दिया जाता। यह सब आलोचना का काम माना जाता था।

 

इस आधार पर आधुनिक साहित्य का इतिहास एक मुक्तिधर्मी प्रयास था, जो फ्रांस के साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासकार गुस्ताव लासों के इतिहास में व्यक्त हुआ है। लासों ने माना था कि साहित्यिक कृतियों को केवल अभिलेखागार का दस्तावेज नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि लेखकों की व्यक्तिगत भावनाओं को भी मूल्य और महत्त्व मिलना चाहिए। बाद में यह प्रक्रिया केवल पाठों तक सिमट गई और साहित्य के इतिहास केवल स्रोतों और प्रभावों की खोज बन गए, जिसमें विधेयवाद का बोलबाला था। साहित्य के इतिहासों में परस्पर विरोधी सांस्कृतिक व्यवस्थाओं की चिन्ता नहीं है। ग्रीन ब्लात के अनुसार बेकन को परम्परागत इतिहास लेखन का पिता कहा जा सकता है, जिसमें कालक्रमिक निरन्तरता, कार्य-कारण सम्बन्ध की पहचान और प्रमुख पुस्तकों के चुनाव की पद्धति थीं। उसके साथ ही उसमें यह भी समझ थी कि साहित्य की सृजनशीलता के प्रयोग और प्रशासन की समझ भी होनी चाहिए।

  1. निष्कर्ष

 

ग्रीन ब्लात के अनुसार साहित्य के इतिहास में साहित्यिक प्रतिभाओं की खोज की उपेक्षा नहीं की जा सकती। पुराने जमाने में प्रतिभा आनन्द का स्रोत और अग्रगामी विकास का कारण होती थी। बेकन ने इसे प्रत्येक युग की साहित्य-चेतना के रूप में ग्रहण किया, उसमें किसी एक लेखक की नहीं, एक भाषा की, एक युग की सृजनात्मक प्रतिभा अभिव्यक्त होती है। साहित्य के इतिहास के लिए कुछ और जरूरी शर्तें हैं, उनमें से पहली है भाषा की अभिव्यंजना-शक्ति में विश्वास। दूसरी शर्त है रचना में मौजूद कथनों में अपने समय के पार प्रभाव डालने वाली स्मृतियों और उनकी खोज की सम्भावनाएँ तलाशना। तीसरी शर्त है प्रतीकों, कथाओं, दृष्टान्तों और सामाजिक रूप से स्वीकृत झूठों के प्रति सांस्कृतिक सहनशीलता का भाव। ये सभी शर्तें हैं, जो सीमाओं का निर्माण करती हैं, और उन्हें तोड़ती भी हैं। इसीलिए समझा जाना चाहिए साहित्य का इतिहास साहित्य की सम्भावनाओं का इतिहास होगा।

 

मार्लो के आधार पर ग्रीन ब्लात के निर्मित दृष्टिकोण के अनुसार साहित्य का इतिहास जिन प्रतिबन्धों का वर्णन करता है, उनसे स्वयं मुक्त महसूस कर सकता है। वे प्रतिबन्ध कभी-कभी व्यक्ति की पराधीनता की ओर भी संकेत करते हैं। हम इंग्लैण्ड के रिनेसाँ काल के चर्च और राज्य के प्रतिबन्धों के शिकार भले न हों, लेकिन पूँजीवादी दुनिया की दमनकारी सहनशीलता रिनेसाँ कालीन प्रतिबन्धों से अधिक कठोर है।

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वेब लिंक्स

  1. https://www.youtube.com/watch?v=6gSF5FELZ_E
  2. https://www.youtube.com/watch?v=FZjHEk0FmLw
  3. https://en.wikipedia.org/wiki/Stephen_Greenblatt
  4. https://en.wikipedia.org/wiki/New_Historicism
  5. https://www.cla.purdue.edu/english/theory/newhistoricism/modules/introduction.html
  6. http://www.britannica.com/topic/New-Historicism