8 भूमण्डलीकरण और साहित्य का इतिहास

प्रो. मैनेजर पाण्डेय पाण्डेय

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • भूमण्डलीकरण की अवधारणा समझ पाएँगे।
  • भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया जान सकेंगे।
  • पूँजीवाद एवं बाजारवाद से भूमण्डलीकरण के अन्तस्सम्बन्ध समझ पाएँगे।
  • विश्‍ववाद की धारणा एवं सार्वभौमिकता की चिन्ता जान सकेंगे।
  • विश्‍व-साहित्य की अवधारणा एवं अभिव्यक्ति से परिचित हो सकेंगे।
  • भूमण्डलीकरण के दौर में साहित्येतिहास लेखन की चुनौतियों से परिचित हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

भूमण्डलीकरण को आज के युग की विशेषता बताया जाता है। तमाम अच्छी बातों को भूमण्डलीकरण से जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि वैश्‍वीकरण के रथ की गति न थम सकती है, न ही इसका कोई विकल्प है। साथ ही, भूमण्डलीकरण को इतना सकारात्मक, शुभ और वांछनीय माना जा रहा है कि राजनीतिक, समाजिक और आर्थिक नीतियों को भूमण्डलीकरण के पक्ष में ढालने की जोरदार वकालत की जाती है। आजकल भूमण्डलीकरण एक जादुई असर वाला शब्द है। उसका प्रभाव इतना व्यापक है कि इसका जादुई असर उसके शिकार और शिकारी दोनों के सिर चढ़कर बोल रहा है। भारत में कुछ ऐसे आत्ममुग्ध बुद्धिजीवी हैं, जो कहते हैं कि हमारे यहाँ बहुत पहले से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के रूप में भूमण्डलीकरण की धारणा मौजूद थी। भूमण्डलीकरण के बारे में तरह-तरह के मिथक गढ़े जा रहे हैं। बहुत पहले रोलाँ बार्थ ने अपनी पुस्तक माईथोलॉजीज में लिखा था कि मिथक एक राजनीति-विरोधी भाषा है। मिथक में ऐतिहासिक आशयों को प्राकृतिक बनाया जाता है और आकस्मिक को शाश्‍वत। यह बुर्जुआ विचारधारा की प्रक्रिया है। मिथक असल में विचारधारा को उलट-पलटकर पेश करते हैं। भूमण्डलीकरण के बारे में जो मिथक गढ़े जा रहे हैं, उनमें से पहला यह है कि इसका कोई विकल्प नहीं है। दूसरा यह कि इसको रोका नहीं जा सकता। तीसरा यह कि यह मानव-समाज का भविष्य है और चौथा यह कि विकास का यही एक मात्र तरीका है।

  1. भूमण्डलीकरण का दौर तथा प्रक्रिया

 

भूमण्डलीकरण के दो दौर हैं। पहला दौर सोलहवीं सदी से बीसवीं सदी के मध्य तक चला, जिसका नेता यूरोप था और विशेष रूप से इंग्लैण्ड। दूसरा दौर बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से आज तक चल रहा है, इस दौर का नेता अमेरिका है। भूमण्डलीकरण एक आर्थिक प्रक्रिया है, वह एक राजनीतिक प्रक्रिया है और सांस्कृतिक प्रक्रिया भी है। आर्थिक प्रक्रिया के रूप में भूमण्डलीकरण पूँजीवाद के विश्‍वव्यापी प्रसार और प्रभुत्व का दूसरा नाम है। इसमें आवारा पूँजी और बाजारवाद की तानाशाही चल रही है। इसमें आर्थिक को सामाजिक से और सामाजिक को मानवीय से अलग कर दिया गया है। इस बीच उत्तर-आधुनिकतावादी सामाजिक और मानवीय चेतना की मौत की घोषणाएँ कर रहे हैं।

 

पहले दौर के भूमण्डलीकरण के बारे में कार्ल मार्क्स ने कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा-पत्र में लिखा था कि बुर्जुआ वर्ग सभी राष्ट्रों को विनाश के करीब लाकर पूँजीवादी उत्पादन पद्धति को अपनाने के लिए मजबूर करता है। वह जिसे सभ्यता समझता है, उनको अन्य देशों पर थोपता है और साथ ही दुनिया को अपनी आकांक्षा और छवि के अनुरूप बनाता है।

 

भूमण्डलीकरण राजनीतिक प्रक्रिया के रूप में संसार के अमेरिकीकरण का प्रयास है। सन् 1947 में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रूमैन ने कहा था कि अमेरिकी व्यवस्था अमेरिका में भी तभी जीवित रह सकती है जब वह विश्‍व-व्यवस्था बने। अब भूमण्डलीकरण के रूप में उसी उद्देश्य को पूरा किया जा रहा है। अमेरिकी व्यवस्था को विश्‍व-व्यवस्था बनाने को ही नई विश्‍व-व्यवस्था भी कहा जा रहा है। सन् 1999 के एक भाषण में हेनरी किसिंजर ने कहा था कि भूमण्डलीकरण अमेरिकी आधिपत्य का दूसरा नाम है।

  1. भूमण्डलीकरण और उत्तर-आधुनिकतावाद का सम्बन्ध

 

उत्तर-आधुनिकतावाद एक सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में भूमण्डलीकरण के साथ है जो एक प्रकार से भूमण्डलीकरण की ही समर्थक विचारधारा है। उत्तर-आधुनिकतावाद में अनेक विचारों, विचारधाराओं और वास्तविकताओं के उत्तर, अन्त और मौत की घोषणा की जा रही है। इसमें उत्तर-आधुनिकता, उत्तर-धर्मनिरपेक्षता, उत्तर-यथार्थवाद और उत्तर-मार्क्सवाद की घोषणाएँ हो चुकी हैं। इसके साथ ही विचारधारा के अन्त, इतिहास के अन्त, सामाजिक के अन्त, चेतना के अन्त और विवेक के अन्त की भी घोषणाएँ हुई हैं। यही नहीं साहित्य, लेखक और कला के मौत की मुनादी भी की जा चुकी है। इतने उत्तरों, अन्तों और मौतों से निर्मित वातावरण मानव-समाज को निराशा में डुबाने के लिए काफी हैं। इस सबके साथ ही उत्तर-आधुनिकतावाद ने मुक्ति के वृहद आख्यान के अन्त की भी घोषणा कर दी है, ताकि पूँजीवाद के भूमण्डलीकरण के विरोध की सारी सम्भावनाएँ समाप्त हो जाएँ।

 

सन् 1999 में फ्रांसीसी समाज-शास्त्री पीयरे बोर्दिए का लिखा निबन्ध ऑन दी कनिंग ऑफ इम्पेरियलिस्ट रीजन, एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसमें बोर्दिए ने लिखा कि साम्राज्यवादी बुद्धि अपनी विशेष ऐतिहासिक स्थितियों और जरूरतों से उपजे प्रश्नों और विचारों को सार्वभौम प्रश्नों और विचारों के रूप में प्रस्तुत करती है। यह काम अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में यूरोप में हो रहा था और बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से आज तक यह सब अमेरिका की ओर से हो रहा है। इस प्रक्रिया में वस्तुओं के साथ ही विचारों के बाजार पर भी कब्जे की कोशिश हो रही है। भूमण्डलीकरण भी उसी प्रक्रिया का हिस्सा है। आजकल अमेरिका में दुनिया के विचारों के बाजार पर कब्जे के लिए बड़े पैमाने पर भूमण्डलीकरण पर बहस चल रही है। पुस्तकों और पत्रिकाओं के माध्यम से साहित्य को भी भूमण्डलीकरण के विचार के दायरे में लाने की कोशिश हो रही है। सन् 2001 में अमेरिका से प्रकाशित होने वाली दो पत्रिकाओं पी.एम.एल.ए. और कम्परेटिव लिटरेचर के विशेषांक निकले। पी.एम.एल.ए. का विशेषांक जनवरी 2001 में निकला, जिसका शीर्षक था ग्लोबलाइजिंग लिटरेरी स्टडीज। कम्परेटिव लिटरेचर के विशेषांक का शीर्षक था, ग्लोबलाइजेशन एण्ड ह्यूमैनिटीज। सन् 2008 में न्यू लिटरेरी हिस्ट्री का विशेषांक प्रकाशित हुआ है, जिसका शीर्षक है, लिटरेरी हिस्ट्री इन दी ग्लोबल एजपी.एम.एल.ए. के उल्लिखित अंक के सम्पादकीय में भूमण्डलीकरण के दौर में साहित्य के अध्ययन के सामने कुछ सवाल उठाए गए। कहा गया कि साहित्य के अध्ययन को उस प्रक्रिया से कैसे बचाया जाए, जो साहित्यिक पाठों को अन्तर्पाठीय उत्पादन, विनिमय और उपभोग में घटाकर सभी सांस्कृतिक विनिमयों को आर्थिक शोषण का बहाना बनाती है। क्या संस्कृति बाजार की वस्तु बन गई है? क्या पूँजी के प्रवाह में राष्ट्र का अस्तित्व बह जाएगा और साहित्य में व्यक्त राष्ट्रीय चेतना का भी अन्त हो जाएगा? क्या सभी बौद्धिक और सामाजिक व्यवहार बाजार के नियम से संचालित होंगे? क्या लोगों और व्यवहारों की तरह संस्कृतियाँ भी जड़हीन, बेघर और आवारा होंगी? 

  1. भूमण्डलीकरण तथा विश्‍ववाद की चिन्ता

 

भूमण्डलीकरण के पहले दौर में भी विचारों की दुनिया में विश्‍ववाद की चिन्ता थी। उसके एक दार्शनिक थे जर्मनी के काण्ट, जिन्होंने सन् 1784 में विश्‍वव्यापी दृष्टि से सार्वभौम इतिहास लेखन की बात की थी। काण्ट के इस चिन्तन में सार्वभौम और विश्‍वव्यापी शब्दों के भीतर वैश्‍विक या भूमण्डल की चिन्ता है। हाल के वर्षों में कुछ लोगों ने भूमण्डलीय (प्लेनेटरी) बोध की भी चर्चा की है, जिसमें विश्‍वव्यापी का भी समाहार है। भूमण्डलीकरण के दूसरे दौर के नए उदारवादी विचारकों की मुक्त व्यापार सम्बन्धी घोषणा के बहुत पहले ज्ञानोदय काल के काण्ट जैसे विचारकों ने सार्वभौम के बारे में सोचा था। पर साथ ही उन्होंने यूरोप के साम्राज्यवादी प्रभुत्व की भी आलोचना की थी। आज के भूमण्डलीकरण के प्रवक्ता और समर्थक साम्राज्यवादी प्रभुत्व की चिन्ता और आलोचना नहीं करते। भूमण्डलीय संस्कृति के बारे में सोचते हुए हमें यह भी सोचना चाहिए कि क्या संस्कृति की नई राजनीति भी सम्भव है, जरूरी है और विकसित भी हो रही है। एक विचारक केविन रॉबिन ने लिखा है कि यूरोप के बहुत से प्रवासी आत्मसातीकरण की प्रक्रिया को अस्वीकार कर रहे हैं। समकालीन प्रवासी जहाँ बस रहे हैं वहाँ की सभ्यता और संस्कृति को अंशतः स्वीकार करते हैं और अपने मूल को भी याद करते रहते हैं। इसीलिए यूरोप में और अमेरिका में भी बहुसंस्कृतिवाद की चर्चा हो रही है।

  1. भूमण्डलीकरण और विश्‍व-साहित्य की अवधारणा

 

भूमण्डलीकरण के पहले दौर में ही विश्‍व-साहित्य की धारणा सामने आई। इस धारणा की अभिव्यक्ति पहली बार जर्मनी के गेटे ने जनवरी, 1827 में की थी। इस धारणा के निर्माण के पहले गेटे ने संस्कृत के महाकवि कालिदास के प्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम के विलियम जोन्स द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद के जर्मन अनुवाद (सन् 1791) को पढ़ा था। उसके साथ ही गेटे ने चीनी उपन्यास और हाफिज़ की शायरी का भी अध्ययन किया था। इन सारे अनुवादों के अध्ययन से ही गेटे ने विश्‍व-साहित्य की धारणा का निर्माण किया था। गेटे ने विश्‍व-साहित्य की बात की थी, लेकिन उन्होंने साहित्य के राष्ट्रीय चरित्र की उपेक्षा नहीं की थी, बल्कि उनके अनुसार राष्ट्रीय साहित्य में जो विशिष्टता होती है और दूसरे साहित्यों से जो फर्क होता है उसको ध्यान में रखकर उन्होंने राष्ट्रीय साहित्य के महत्त्व को स्वीकार किया था।

 

गेटे के विश्‍व-साहित्य की धारणा के निर्माण में विलियम जोन्स द्वारा भारतीय साहित्य के अनुवादों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। विलियम जोन्स का शकुन्तला का अनुवाद पहली बार सन् 1789 में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ और उसके बाद 1791 में जर्मन में। इन अनुवादों से यूरोप को भारतीय साहित्य, विशेष रूप से संस्कृत साहित्य की समृद्धि और सौन्दर्य का ज्ञान हुआ। साहित्य के साथ-साथ भारतीय दर्शन का भी अनुवाद यूरोप पहुँचा। सन् 1657 में शाहजहाँ के बड़े बेटे दाराशिकोह ने 52 उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया और उसका नाम रखा सिर्रे अकबर। एक प्रसिद्ध फ्रांसीसी अनुवादक दुपरों को दाराशुकोह के उपनिषदों के फारसी अनुवाद की पाण्डुलिपि सन् 1775 में मिली और दुपरों ने उसका फ्रांसीसी तथा लैटिन में अनुवाद किया। वह लैटिन अनुवाद सन् 1801 में दो खण्डों में छपा। इस अनुवाद से ही सारे यूरोप के विद्वानों, दार्शनिकों और साहित्यकारों को उपनिषदों के दार्शनिक महत्त्व का ज्ञान हुआ। यह कहने में कोई अतिरंजना नहीं है कि विश्‍व-साहित्य की धारणा के निर्माण में उपनिषदों के लैटिन अनुवाद की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

 

अमीर आर. मुफ्ती ने ठीक ही लिखा है कि विश्‍व-साहित्य को पूर्व की प्राचीन भाषाओं के ज्ञान और विश्‍व-भाषाओं के पारिवारिक स्वरूप के विवेचन से, पश्‍चिमी भाषाओं में प्रस्तुति से, प्रेरणा मिली है। अनुवाद के माध्यम से पूर्व की तीन भाषाएँ और उनका साहित्य यूरोप पहुँचा, वे भाषाएँ थीं – संस्कृत, फारसी और अरबी। इन भाषाओं के अनुवाद के यूरोप पहुँचने पर ही विश्‍व-साहित्य की धारणा की सम्भावना बनी। बाद के यूरोपीय साहित्य पर पूर्व की इन भाषाओं के साहित्य का प्रभाव पड़ा। जोन्स के अनुवाद का प्रभाव अंग्रेजी के कॉलरिज, शेली और थॉमस मूर आदि के काव्य पर पड़ा। इस तरह विश्‍व-साहित्य की धारणा के निर्माण में भारतीय साहित्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।

 

विश्‍व-साहित्य की गेटे की धारणा की पुष्टि करते हुए कार्ल मार्क्स और फैडरिक एंगेल्स ने सन् 1848 में ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ में लिखा था, ‘‘पूँजीवाद के विकास के कारण पुरानी स्थानीय और राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता और अकेलेपन के बदले सार्वभौम संवाद की स्थिति पैदा हुई और इस तरह राष्ट्रों के बीच परस्पर निर्भरता शुरू हुई। यह केवल भौतिक उत्पादन में ही नहीं, बौद्धिक उत्पादन में भी सम्भव हुआ। अब प्रत्येक देश का बौद्धिक उत्पादन सबकी सम्पत्ति बन गई। राष्ट्रीय अनन्यता और विशेषता लगभग असम्भव हो गई। विभिन्न राष्ट्रीय और स्थानीय साहित्यों में से एक विश्‍व-साहित्य पैदा हुआ।’’ बाद के दिनों में विश्‍व-साहित्य की वास्तविकता अधिक सच होकर सामने आई।

 

बीसवीं सदी के अन्त में यूरोप में अनेक देशों में विश्‍व-साहित्य के निर्माण की कोशिश हुई। जर्मनी में पच्चीस खण्डों में विश्‍व-साहित्य का इतिहास आया, जिसका नाम है न्यू हैण्डबुक ऑफ लिटरेरी स्टडीज। रूस से आठ खण्डों में विश्‍व-साहित्य का इतिहास छपा। उसके बाद सात खण्डों में स्केण्डिनेविया से विश्‍व-साहित्य का इतिहास छपा, जिसका नाम है, दी हिस्ट्री ऑफ लिटरेचर। इन सभी इतिहासों में अधिकांशतः यूरोपीय साहित्य का ही इतिहास है और उसी को विश्‍व-साहित्य का इतिहास भी कहा गया। हाल के वर्षों में विश्‍व-साहित्य के इतिहास से सम्बन्धित कुछ और किताबें छपीं। उनमें एक है, डेविड डमरोस की किताब वॉट इज वर्ल्ड लिटरेचर? दूसरी है, पास्कल कासानोवा की किताब दी वर्ल्ड रिपब्लिक ऑफ लैटर्स। तीसरी है, फ्रेंको मोरेती की किताब ग्राफ्स, मैप्स, ट्रीज : अबस्ट्रक्ट मॉडल्स फॉर ए लिटरेरी हिस्ट्री

 

भूमण्डलीकरण के दौर में साहित्य के इतिहास पर केन्द्रित न्यू लिटरेरी हिस्ट्री के विशेषांक में लिखने वाले लोगों में एक ओर फ्रेडरिक जेमसन हैं, जो मानते हैं कि आज के दौर में नया साहित्य का इतिहास सम्भव ही नहीं है। उन्होंने लिखा कि हम आज साहित्य का इतिहास नहीं लिख सकते, उसे पुराने रूप में प्रस्तुत भी नहीं कर सकते। आजकल साहित्य के इतिहास का पुराने साहित्य के इतिहास के बदले कोई नया दृष्टिकोण सामने नहीं आया है। जो दृष्टिकोण सामने आए हैं वे केवल सैद्धान्तिक हैं। नए इतिहास लेखन में वे ज्यादा मदद नहीं करते। आज के साहित्येतिहास लेखकों को साहित्येतिहास लेखन का ऐसा नया दृष्टिकोण निर्मित करना है, जो पहले कभी सोचा नहीं गया। उन्हें यह भी सोचना है कि नए दृष्टिकोण से लिखे गए साहित्येतिहास को साहित्य का ही इतिहास लगना चाहिए।

  1. भूमण्डलीकरण और साहित्येतिहास की चुनौतियाँ

 

दुनिया में ऐसे अनेक विचारक और आलोचक हैं, जो भूमण्डलीकरण के दौर में इतिहास लेखकों की समस्याओं और चुनौतियों पर विचार करते हैं। डेविड डमरोस ऐसे ही लेखकों में से एक हैं। उन्होंने अपने लेख के आरम्भ में लिखा कि साहित्य के वैश्‍विक इतिहास लेखन की चुनौतियाँ तीन प्रकार की हैं। पहली चुनौती परिभाषा की है, दूसरी ढाँचे की और तीसरी उद्देश्य की। उन्होंने कहा कि साहित्य के नए इतिहास पर इस तरह विचार किया जाना चाहिए कि एक सार्थक इतिहास का स्वरूप सामने आ सके। उनके अनुसार साहित्य का ऐसा इतिहास होना चाहिए, जिसे वस्तुतः कोई भी व्यक्ति पढ़ना चाहे।

 

डमरोस ने साहित्य के इतिहास की परिभाषा पर विचार किया और लिखा कि भूमण्डलीकरण का युग साहित्य के इतिहास के लिए आसान है तो मुश्किल भी। अब तक साहित्य का इतिहास राष्ट्रीय दृष्टि से लिखा जाता रहा है, जिसके अनुसार वैश्‍विक साहित्य का इतिहास या तो असम्भव है, या दिलचस्पी से शून्य। जब लोगों ने राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर देखने की कोशिश की तो वे केवल एक क्षेत्र तक सीमित थे। यही काम एरिक आवरबाख ने अपनी पुस्तक मिमेसिस में किया। उन्होंने पश्चिमी साहित्य के यथार्थ की प्रस्तुति का अध्ययन किया। सन् 1990 के बाद स्थिति बदल गई। अनेक जगहों से विश्‍व-साहित्य के संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। ऐसे में आज के समय में विश्‍व-साहित्य के इतिहास लेखन की सम्भावनाएँ बढ़ गई हैं। पर समस्या है कि भूमण्डलीकरण, इतिहास की पुरानी धारणा और मान्यता का भी अन्त करता है और उसकी विचारधारा के रूप में उत्तर-आधुनिकतावाद ने इतिहास के अन्त की घोषणा कर रखी है। आज के समय में दुनिया भर में दुनिया का साहित्य उपलब्ध है। ऐसे में वैश्‍विक साहित्य के अध्ययन और इतिहास लेखन की सम्भावनाएँ भी बनी हैं। अगर विश्‍व-साहित्य के सभी लिखे हुए पाठों पर ध्यान दें तो उसका इतिहास लिखने के लिए स्थानीय इतिहासों और विभिन्न साहित्यिक संस्कृतियों पर भी ध्यान देना पड़ेगा। अगर वैश्‍विक साहित्य का इतिहास लिखना है तो ऐसी रचनाओं पर भी ध्यान देना होगा, जिसमें वैश्‍विक सन्दर्भ और चेतना मौजूद है।

  1. भूमण्डलीकरण और साहित्येतिहास लेखन की पद्धति और चुनौती

 

डमरोस ने भूमण्डलीकरण के दौर के साहित्य के इतिहास के ढाँचे पर भी विचार किया है। उन्होंने इसे दो तरह से लिखे जाने की बात की। एक तो संक्षिप्त रूप में एच.जी. वेल्स की पुस्तक आउटलाइन ऑफ हिस्ट्री की तरह या फिर विस्तृत रूप में आर्नोल्ड ट्वायनबी की बारह खण्डों में लिखी पुस्तक स्टडी ऑफ हिस्ट्री की तरह। विश्‍व-साहित्य के इतिहास लेखन की एक और पद्धति हो सकती है, जिसे फ्रैंक मोरेती ने अपने उपन्यास के विश्‍व-इतिहास में अपनाया है। ऐसे इतिहास के लिए मोरेती की तरह ही सहयोगी प्रयास की जरूरत होगी। पाँच खण्डों के मोरेती के विश्‍व के उपन्यासों के इतिहास में पचासो लेखक हैं। उसकी पठनीयता की समस्या बनी हुई है, इसलिए उसका संक्षिप्त संस्करण भी प्रकाशित हो रहा है। सहयोगी प्रयास से लिखे गए ऐसे साहित्य के इतिहासों की संख्या अनेक है। ऐसे सहयोगी प्रयासों से लिखे गए इतिहास लेखन के दृष्टिकोण में एकता की समस्या बराबर बनी रहेगी।

 

एक नए ढंग से इतिहास लिखने के लिए ढाँचागत चुनौतियों को ध्यान में रखना होगा। ऐसे इतिहासों में प्रायः सरसरी नजर से ही इतिहास को उपस्थित किया जा सकता है। कुछ लोग इलेक्ट्रॉनिक की मदद से विश्‍व-साहित्य का इतिहास प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसको इण्टरनेट के माध्यम से पढ़ा जा सकता है, लेकिन ऐसे इतिहास के साथ एक कठिनाई यह है कि जिसे इण्टरनेट की जानकारी नहीं है, या उसकी सुविधा नहीं है, उसके लिए इलेक्ट्रॉनिक की मदद से लिखे गए इतिहास का कोई अर्थ नहीं है। अन्त में डमरोस ने यह भी प्रश्‍न उठाया कि ऐसे साहित्य के इतिहास का उद्देश्य क्या है? इस प्रसंग में यह भी सवाल विचारणीय है कि इसका एक सीमित राष्ट्रीय उद्देश्य हो सकता है और दूसरा असीमित वैश्‍विक उद्देश्य भी हो सकता है। सभी जानते हैं कि राष्ट्रीय साहित्य का इतिहास लेखन अधिक आसान है। उसे वैश्‍विक साहित्य के इतिहास में फैलाने से बेहतर है कि ऐसे इतिहास में स्थानीय और वैश्‍विक की एकता स्थापित हो।

 

एक दूसरे विचारक फ्रांसिस फर्ग्युसन ने भूमण्डलीय इतिहास लेखन की समस्या पर विचार करते हुए लिखा कि दुनिया में अनेक भाषाएँ हैं। वैश्‍विक इतिहास के सामने एक समस्या भाषाओं की अनेकता से उपजी कठिनाइयों को हल करने की भी है। सब जानते हैं कि साहित्य भाषा में ही लिखा जाता है, इसलिए चाहे एक राष्ट्र के साहित्य का इतिहास लिखा जाए, या पूरे विश्‍व के साहित्य का इतिहास लिखा जाए, भाषाओं की अनेकता से टकराना आवश्यक होगा। कोई भी एक व्यक्ति दुनिया की सभी भाषाओं को बराबर क्षमता और कुशलता से शायद ही जान सके। अन्तर्भाषायी सम्बन्धों की समस्या को हल करने के लिए अनुवाद की मदद लेना आवश्यक होगा। इसके साथ ही निरन्तर संशोधनों पर भी ध्यान देना जरूरी होगा।

 

फर्ग्युसन ने यह भी लिखा है कि पाठ के गहन अध्ययन और उसके बारे में सौन्दर्यबोधीय निर्णय आलोचना के लिए जितना आवश्यक है, क्या उतना ही आवश्यक इतिहास लेखन के लिए भी है। साहित्य के इतिहास लेखन के सामने एक चुनौती यह भी है कि वह पाठों को इस रूप में प्रस्तुत करे कि पाठक उनकी विशेषताओं को पहचान सके। यह गहन अध्ययन और सौन्दर्यबोधीय निर्णयों से ही सम्भव होगा। एक आलोचक मार्क पॉस्टर ने आज के समय में संस्कृति के प्रश्‍न की जटिलता पर ध्यान दिया है। उन्होंने लिखा है कि भूमण्डलीकरण के कारण राष्ट्रीय, जातीय और विश्‍व में जो विनिमय की प्रक्रिया आजकल चल रही है उसके कारण क्या कोई वैश्‍विक संस्कृति पैदा हो रही है? सवाल यह भी है कि ऐसे विनिमयों के विश्लेषण की कौन-सी पद्धति होगी, क्या अनुवाद, मिश्रण और एकीकरण?

 

बाद में उन्होंने लिखा कि आज के समय में मनुष्यता बहुत बदल गई है। यह एक व्यवहारिक प्रक्रिया है कि लोग, वस्तुएँ और सांस्कृतिक रचनाएँ पूरी दुनिया में आ जा रही हैं। आज मनुष्य विश्‍व-मानव बन गया लगता है। वह एक देश से दूसरे देश जाकर दूसरे देशों के लिए वस्तुएँ पैदा करता है और दूसरे देशों की पैदा की हुई वस्तुओं का स्वयं उपभोग करता है। इस प्रक्रिया में मशीन की भी बड़ी भूमिका है। पॉस्टर ने यह भी प्रश्‍न किया है कि क्या मानवीय क्रिया-कलापों में मशीन की क्रियाशीलता के कारण संस्कृति का स्वरूप बदल गया है? यह पूरी प्रक्रिया समाज, संस्कृति, साहित्य और इतिहास के लिए एक चुनौती की तरह है। इस प्रसंग में यह भी एक सवाल है कि मनुष्य विश्‍व-मानव तो बन गया है, पर क्या वह विश्‍व-नागरिक भी है। उन्होंने लिखा कि साइबर संस्कृति ने वर्ग, लिंग और नस्लों के बीच असमानता को बढ़ाया है, जिसके मूल में आधुनिक पूँजीवाद है।

 

न्यू लिटरेरी हिस्ट्री के विशेषांक पर दो विचारकों ने टीकाएँ लिखी हैं, उनमें एक हैं प्रसिद्ध इतिहास विचारक हैडेन व्हाइट और दूसरे हैं जॉनाथन अरक। हैडेन व्हाइट ने ठीक ही लिखा कि इस विशेषांक के अधिकांश लेखों पर दो किताबों की छाया मौजूद है। वे किताबें हैं फ्रैंको मोरेती की ग्राफ्स, मैप्स, ट्रीज : अबस्ट्रक्ट मॉडल्स फॉर ए लिटरेरी हिस्ट्री और पास्कल कासानोवा की ‘दी वर्ल्ड रिपब्लिक ऑफ लैटर्स’। हैडेन व्हाइट ने यह भी लिखा ‘साहित्य’ की तरह इतिहास का भी एक इतिहास है। इतिहास का एक अर्थ उत्पादन की पद्धतियों में परिवर्तन भी है। आज के जमाने में टैक्‍नॉलॉजी और आणविक शक्ति परिवर्तन का माध्यम है। उसी के साथ संस्कृति भी जुड़ी हुई है और साहित्य भी। भविष्य में लिखे जाने वाले साहित्य के किसी भी इतिहास में इस बात को ध्यान में रखना होगा कि साहित्य की धारणा कैसे और कितनी बदली है।

 

हैडेन व्हाइट ने यह भी लिखा है कि इसका यह अर्थ नहीं है कि आजकल कोई संस्कृति नहीं है और यह भी सच नहीं है कि राष्ट्र और भाषा पर आधारित साहित्य का निर्माण नहीं हो रहा। ऐसा साहित्य उस दूसरी दुनिया में लिखा जा रहा है जहाँ सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष है, जो साहित्यिक यथार्थवाद के प्रेरणास्रोत भी हैं। यही नहीं वास्तविक इतिहास भी गतिशील है इसलिए साहित्य का इतिहास अब भी सम्भव है और वह सामाजिक दृष्टि से सार्थक भी है। यह जरूर सच है कि भूमण्डलीकृत कोई इतिहास नहीं है। आज के समय में साहित्य के इतिहास लेखन की एक समस्या यह भी है कि उत्तर-आधुनिक दृष्टि से मध्यकालीन और आधुनिक युग का इतिहास कैसे लिखा जाए। हैडेन व्हाइट ने ज्याँ-पॉल-सार्त्र का एक कथन उद्धृत किया है कि किसी भी वस्तु का इतिहास किसी न किसी के लिए होता है। सार्त्र के इस प्रश्‍न से यह प्रश्‍न भी पैदा होता है कि भूमण्डलीकरण के दौर में लिखा जाने वाला साहित्य का इतिहास किसके लिए होगा?

 

एन.एल.एच. के विशेषांक में दूसरी दुनिया के साहित्य, उसकी आलोचना और उसके इतिहास की कोई विशेष चिन्ता नहीं है। एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका के साहित्य और उनके इतिहासों की उपेक्षा ही हुई है। इन देशों में साहित्य, समाज से उसकी वास्तविकताओं, जटिलताओं और आकांक्षाओं से जुड़ा हुआ है। वे सब देश अमेरिका और यूरोप से एकदम भिन्न हैं। विश्‍व-साहित्य की पुरानी अवधारणा में दूसरी दुनिया के साहित्यों की चिन्ता थी और भूमिका भी। लेकिन आज के भूमण्डलीकरण के दौर के सोच-विचार में वह नहीं है। दूसरी दुनिया के देशों में साहित्य के इतिहास और समाज के इतिहास उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन और संघर्ष के दौरान लिखे गए। उनका लक्ष्य था अपने राष्ट्र, समाज, भाषा और साहित्य के स्वत्व की पहचान और व्याख्या, उस स्वत्व में मौजूद पराधीनता के यथार्थ और स्वाधीनता की आकांक्षा की अभिव्यक्ति भी है। इन राष्ट्रों के आज के साहित्य में अपने साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की स्मृतियाँ मौजूद हैं जिनकी उपेक्षा करके विश्‍व-साहित्य का कोई भी इतिहास नहीं लिखा जा सकता।

  1. निष्कर्ष

 

उक्त विचारों से यह स्पष्ट हो रहा है कि आज हर विषय-वस्तु को वाद-संवाद की कड़ी में आधुनिकता और भूमण्डलीकरण से जोड़ा जा रहा है। लेकिन भूमण्डलीकरण की यह अवधारणा इतनी भी पुरानी नहीं है कि इसे आत्ममुग्धता में यह कह कर गर्व किया जाए कि जनाब हमारे यहाँ वसुधैव कुटुम्बकम् के रूप में यह धारणा पहले से ही मौजूद है। यह एक तरह का मिथक है जो भूमण्डलीकरण के बारे में गढ़ा गया है। इसी तरह के कई और मिथक पुरातन बुद्धिजीवियों द्वारा गढ़े गए हैं। सोलहवीं सदी से बीसवीं सदी के मध्य भूमण्डलीकरण का पहला दौर शुरू होता है, जिसका केन्द्र यूरोप था। यह एक आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया है जो पूँजीवाद, अमेरिकीकरण और उत्तर-आधुनिकतावाद की विचारधारा से सम्बन्धित है। यह वस्तुओं के साथ विचारों के बाजार पर भी कब्जा करने की एक कोशिश का हिस्सा है। पुस्तकों और पत्रिकाओं के माध्यम से साहित्य को भूमण्डलीकरण के विचार के दायरे में लाने की कोशिश हो रही है। अमेरिका की पत्रिका पी.एम.एल.ए. के 2001 के विशेषांक के सम्पादकीय में भूमण्डलीकरण के दौर में साहित्य के अध्ययन के सामने कुछ सवाल उठाए गए। भूमण्डलीकरण के दौर में विचारों की दुनिया में विश्‍ववाद की चिन्ता को समाहित किया गया। जर्मनी के विचारक काण्ट ने इसी चिन्ता से सार्वभौम इतिहास लेखन की बात कही थी। इसके पहले दौर में ही विश्‍व साहित्य की धारणा के निर्माण की कोशिश शुरू हो गई थी। इसमें जर्मन विचारक गेटे और विलियम जोन्स की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। बीसवीं सदी के अन्त में यूरोप सहित अनेक देशों में विश्‍व-साहित्य के निर्माण की कोशिश की गई। इसी दौर में इतिहास लेखकों की समस्याओं और चुनौतियों पर भी विचार किया गया। ऐसे आलोचकों में डेविस डमरोस प्रमुख हैं। उन्होंने बताया कि यह युग साहित्य के लिए आसान है, तो मुश्किल भी है। उन्होंने साहित्य के इतिहास के ढाँचे पर भी विचार किया। इसके आगे कई आलोचकों ने साहित्य के इतिहास लेखन में राष्ट्रीय और वैश्‍विक एकता स्थापित करने के दौरान उपलब्ध चुनौतियों एवं समस्याओं पर भी विचार किया।

     

you can view video on भूमण्डलीकरण और साहित्य का इतिहास

 

वेब लिंक्स

  1. https://www.press.jhu.edu/journals/new_literary_history/
  2. http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/3832/8/08_chapter%202.pdf
  3. http://www.en.cas.uni-muenchen.de/research_focus/finished/glob_arts/index.html
  4. https://www.youtube.com/watch?v=nSIlsTvLlpo
  5. https://www.youtube.com/watch?v=MNVKoX40ZAo