7 परम्परा की अवधारणा और साहित्य का इतिहास

प्रो. मैनेजर पाण्डेय पाण्डेय

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • परम्परा की आवधारणा एवं क्रमिक विकास समझ पाएँगे।
  • परम्परा और साहित्य के इतिहास का अन्तस्सम्बन्ध जान सकेंगे।
  • परम्परा निर्मिति के सहायक तत्त्वों की पहचान कर सकेंगे।
  • साहित्य में परम्परा और रूढ़ि के भेद जान सकेंगे।
  • परम्परा और परम्परावाद का अन्तर समझते हुए उसके खतरों से परिचित हो सकेंगे।
  • साहित्य के इतिहास में परम्परा के महत्त्व एवं भूमिका को रेखांकित कर सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

परम्परा की अवधारणा और साहित्य के इतिहास में उसकी भूमिका पर विचार करते हुए सबसे पहले उसके अर्थ पर विचार करना आवश्यक है। शब्दकोशों  में परम्परा का अर्थ है अविच्छिन्‍न शृंखला, निरन्तर सिलसिला और निरन्तरता। नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा है, ‘‘परम्परा का व्यापकतम अर्थ है – वे सारी संस्कारगत रूढ़ियाँ, साहित्यिक मान्यताएँ और अभिव्यंजना की प्रणालियाँ, जो एक लेखक को अतीत से प्राप्त होती हैं। हम किसी विशिष्ट साहित्यिक मान्यता की परम्परा की चर्चा कर सकते हैं, उदाहरणार्थ दुखान्तम न नाटकम, जो संस्कृत साहित्य में निरपवाद रूप से तथा हिन्दी नाटक-साहित्य में बहुत अधिक मात्रा में, और हिन्दी रंगमंच एवं चित्रपट में भी, जाने-अनजाने व्याप्त था और है। हम किसी साहित्यिक रूप की परम्परा पर विचार करते हैं, यथा, महाकाव्य का रूप, जो संस्कृत के महाकाव्य रचयिताओं से लेकर, तुलसीदास, मैथिलीशरण गुप्त तक एक अव्याहत प्रवाह है। किसी भाषा या शैली की भी परम्परा हो सकती है।’’

  1. परम्परा की अवधारणा का विकास

 

परम्परा की धारणा चार प्रमुख सैद्धान्तिक शाखाओं में विकसित हुई है – आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक या सौन्दर्यबोधीय। परम्परा विकासोन्मुख जीवन्त मूल्यों की निरन्तरता का बोध है और यह बोध ही परम्परा के विभिन्‍न रूपों के बीच एकता का कारण है। देशकाल के सन्दर्भ में मूल्यों का स्वरूप और प्रभाव बदलता है। हमारा सम्बन्ध परम्परा की साहित्यिक धारणा से है क्योंकि उसी का उपयोग साहित्य के इतिहास और आलोचना में होता है। टी.एस. एलियट ने लिखा है कि परम्परा में ऐतिहासिक चेतना समाहित है, जिसका बोध प्रत्येक महत्त्वपूर्ण कवि के लिए अनिवार्य है। ऐतिहासिक चेतना में अतीत की व्यतीतता का ही नहीं, बल्कि उसकी वर्तमानता का बोध भी शामिल है। ऐतिहासिक चेतना केवल अपनी पीढ़ी की निकटता में ही कवि को सृजनशील नहीं बनाती बल्कि उसमें एक ऐसी अनुभूति जाग्रत करती है कि उसके राष्ट्र के सम्पूर्ण साहित्य की एक समकालिक सत्ता है तथा वह साहित्य एक समकालिक विन्यास निर्मित करता है। यह ऐतिहासिक चेतना, जो समयातीत और सामयिक की अलग-अलग और संयुक्त चेतना भी है, उसके बोध से ही कोई लेखक परम्परणीय बनता है।

  1. साहित्य और परम्परा का सम्बन्ध

 

साहित्य की परम्परा में सौन्दर्यबोधीय धारणा का सम्यक विवेचन और विकास टी.एस. एलियट ने किया है। उनके अनुसार किसी एक काल में या किसी एक व्यक्ति का साहित्य अपना अलग अस्तित्व नहीं रखता, सम्पूर्ण साहित्य अखण्ड है, जिसमें परम्परा की अविच्छिन्‍न धारा बहती रहती है। अतीत और वर्तमान इसी अखण्ड परम्परा में स्थित है। अतीत का तो वर्तमान पर प्रभाव पड़ता है, वर्तमान भी अतीत को प्रभावित करता है। अपने पूर्ववर्ती संस्कारों का उत्तराधिकारी होने के कारण वर्तमान उसका जन्मजात सहयोगी है। परन्तु अपने मन के अस्तित्व के लिए अतीत की शृंखला में स्थान बनाते हुए, उसमें परिवर्तन भी करता है। प्रत्येक राष्ट्र और जाति की विशिष्ट सृजनात्मक प्रतिभा होती है। जब किसी कलाकार का अध्ययन और उसकी आलोचना परम्परा में रखकर की जाती है तो उसका समुचित मूल्यांकन सम्भव होता है। अपनी परम्परा का निर्भ्रांत ऐतिहासिक ज्ञान प्रत्येक कवि और आलोचक के लिए अनिवार्य है। कवि को अपनी चेतना का ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसको अपने समाज, जाति और राष्ट्र की अखण्ड चेतना का ज्ञान भी होना चाहिए। यह राष्ट्रीय चेतना सतत विकासशील है। कवि को अपने राष्ट्र के मानस का, जो उसके वैयक्तिक मानस से अधिक महत्त्वपूर्ण है, और परिवर्तनशील भी, उसका ज्ञान होना चाहिए।

 

कोई भी साहित्यिक कृति या धारा अपने में निरपेक्ष और असंपृक्त नहीं होती। उसके पीछे एक लम्बी काव्य परम्परा होती है। वह काव्य-परम्परा किसी विशेष जाति या समाज के बहुमुखी सांस्कृतिक कृतित्व का एक अंग मात्र होती है और उसके पीछे उस जाति के सुख-दुख, संघर्ष-समन्वय, चिन्तन और अनुभूति के सैकड़ों-हजारों वर्षों के इतिहास की संचित परम्परा रहती है। वह क्षण जिसमें कोई कृति रची गई है, एक लम्बे इतिहास की एक जुड़ी हुई कड़ी है, फिर भी विशिष्ट अनूभूति की प्रक्रिया और रचना प्रणाली के बल पर सृजन का वह क्षण समस्त परम्परागत इतिहास से अधिक सजीव और मर्मस्पर्शी बन जाता है।

 

विभिन्‍न युगों में कला और काव्य का जो उत्कृष्टतम रूप हमें मिलता है, उससे हमारा विरोध नहीं हो सकता और न होना चाहिए। कलाकार का विरोध उस व्यवस्था से होना चाहिए, जिसमें कला और साहित्य के मूल्यों को कुछ व्यक्तियों तक सीमित रखा जाता है। सच्‍चा कवि वही है जो वर्तमान से दूर पड़ गई परम्परा की लकीर का फकीर नहीं होता, बल्कि अपनी सृजनात्मक क्षमता द्वारा परम्परा के खोए हुए सजीव सूत्रों को नवीन रूप देता है और उसकी संवेदनशीलता के तत्त्वों की सुरक्षा करता है। अपनी साहित्यिक परम्परा के प्रति उदासीनता किसी राष्ट्र को असंस्कृत बना देती है और जाति कला और साहित्य का सृजन नहीं करती, वह विचार और संवेदनशीलता के लोक से दूर हट जाती है।

 

कोई भी कलाकार अपनी परम्परा का अनायास और स्वतः उत्तराधिकारी नहीं होता। वह परम्परा के सम्यक अध्ययन और चिन्तन के बाद ही उसे प्राप्त करता है। परम्परा के उत्तराधिकार के प्रति सचेत कवि को वर्तमान की चेतना से सम्पन्‍न होना चाहिए, तभी वह अपनी परम्परा से युक्त सार्थक साहित्य का सृजन कर सकता है। कलाकार के परम्परा के ज्ञान में दो तरह की सजगता जरूरी है। एक तो परम्परा के स्वस्थ, सजीव और सार्थक रूप का ज्ञान और दूसरे परम्परा के जड़ीभूत, मृत और निरर्थक रूप का ज्ञान, जिसको उसे छोड़ना होता है। कलाकार को कभी परम्परा का आंशिक त्याग और कभी परम्परा के अनावश्यक अंश का पूर्ण त्याग भी करना पड़ता है। यद्यपि प्रत्येक सजग कलाकार के व्यक्तित्व में उसकी जीवित विकासोन्मुख परम्परा संस्कार के रूप में विद्यमान रहती है, लेकिन परम्परा के पूरे ज्ञान के लिए अध्ययन और चिन्तन अनिवार्य है।

  1. परम्परा के निर्माण के तत्त्व

 

परम्परा के निर्माण में चार तत्त्व मुख्य रूप से सहायक होते हैं – अखण्ड काल, अखण्ड मानव-चेतना, जीवन का अनन्त प्रवाह और कलाकार का विशिष्ट व्यक्तित्व। काल की अखण्डता के बोध में प्राचीनता और आधुनिकता दोनों मौजूद होते हैं। अतीत, वर्तमान और भविष्य कालचक्र के परिवर्तन के क्रम में एक-दूसरे का रूप धारण करते हैं। वर्तमान अतीत की देन है और वर्तमान ही भविष्य का निर्माता है। इस अतीत, वर्तमान और भविष्य की अखण्डता की ओर संकेत करते हुए टी.एस. एलियट ने अपनी एक कविता में कहा है, ‘‘वर्तमान और अतीत दोनों भविष्य में स्थित हैं और भविष्य अतीत में निहित है। अगर हर क्षण वर्तमान है तो हर क्षण बँधा हुआ है।’’

 

व्यक्ति केवल वर्तमान के नवीन अनुभवों से ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। अगर व्यक्ति केवल वर्तमान में ही जीता है, तो वह वर्तमान की सीमाओं में बँध जाता है और उसके भविष्य की सम्भावनाएँ घट जाती हैं, इसलिए एक विवेकशील व्यक्ति अतीतयुक्त वर्तमान को स्वीकार करता है। वर्तमान के सन्दर्भ में आने पर अतीत स्वयं परिवर्तित हो जाता है। प्राचीन कला का किसी कलाकार के लिए सदैव महत्त्व है, क्योंकि मूल प्रवृत्तियाँ जो सृजन के स्वरूप हैं, बहुत कम बदलती हैं। काव्य और अन्य कलाओं के परम्परा सापेक्ष अध्ययन और मूल्यांकन का तात्पर्य यह है कि प्राचीनता की सुरक्षा ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि नवीनता से उसका पोषण भी होना चाहिए।

 

प्रत्येक समर्थ और सार्थक साहित्य में बहुत से पूर्ववर्ती रचनाकारों के विभिन्‍न सूत्रों का विकास होता है, उनकी पुनरावृत्ति नहीं, उनकी समन्विति होती है। नवीनता की पारम्परिकता की दृष्टि से साहित्यिक रचना  जो कुछ पूर्णता प्राप्त करती है, उसकी जड़ बहुत पीछे कहीं अतीत में होती है। परम्परा का जो अंश अर्थहीन हो जाता है, अपनी जीवन्तता खो देता है, वह परम्परा से अलग होकर रूढ़ि बन जाता है। वह स्मृति की वस्तु हो जाता है, रचना की नहीं। टी.एस. एलियट ने ठीक ही लिखा है कि मौलिकता काव्यालोचन में कोई प्रतिमान नहीं है। मौलिकता केवल विकास है। यदि विकास ठीक हुआ तो अन्त में वह इतना अनिवार्य दिखने लगता है कि वह कवि की मौलिकता हो जाती है। कवि स और जीवन्त मौलिकता के कारण जनमानस को झकझोर देता है। प्रत्येक युग और प्रत्येक पीढ़ी का साहित्यकार एक स्थिति में पहुँचकर परम्परा और मौलिकता के सम्बन्ध का दबाव महसूस करता है और उससे अनिवार्यता के साथ सामना होने पर एक निश्‍चित त प्रतिक्रिया करता है। कभी-कभी नवीन युगों की माँग तथा परम्परा से प्राप्त मान्यताओं के बीच समन्वय और सन्तुलन बनाए रखना कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में कलाकार या तो परम्परा को तोड़कर पूर्णतया नवीनतावादी हो जाता है या नवीनता को छोड़कर उसका विरोधी बन जाता है। वास्तव में नए और पुराने परम्परागत और क्रान्तिकारी का विभाजन काल के अनुसार नहीं, बल्कि कलाकार की रचना में व्यक्त संवेदनशीलता के स्वरूप के आधार पर होना चाहिए।

  1. परम्परा, परम्परावाद और रूढ़ि

 

किसी भी कलाकार को परम्परा एकदम साफ-सुथरी और सजी-सँवरी नहीं मिलती, रूढ़ियाँ भी उसके साथ लिपटी रहती हैं। ऐसी स्थिति में एक को दूसरे से अलग कर जो बेहतर है, उसे अपनाने और जो बदतर है, उसे छोड़ने का काम रचनाकार करता है। परम्परा को रूढ़िवादिता का शिकार नहीं होना चाहिए, बल्कि जो बेहतर और जीवन्त है, उसे अपनाना चाहिए।  परम्परा को रूढ़िवादिता का नहीं, विकास और जीवन्तता का कारण बनना चाहिए। परम्परा को खोकर विकास की दिशा पाना कठिन है, लेकिन परम्परा में खुद को खोकर गतिशील होना भी असम्भव है। जड़ीभूत परम्परा रोग है, जिससे समाज पीड़ित होता है। विवेक और अनुभव द्वारा रचनाकार परम्परा को विकसित करता है। प्रत्येक युग अपने अतीत की नवीन व्याख्या करता है, उसे अपनी युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप ढालता है और अतीत का जो अंश वर्तमान के लिए सार्थक नहीं है, उसे छोड़ देता है।

 

परम्परा के प्रति अन्ध-आस्था रूढ़िवादिता को प्रश्रय देती है। जबकि परम्परा के प्रति सजग और विवेकशील दृष्टि उसके ऐतिहासिक बोध का सहायक और साहित्य सृजन की सहयोगी है।  कलाकार का अनुभव ही उसकी रचनाशीलता का आधार होता है। इसलिए अनुभव का जितना विस्तार होता है, उतना ही कृति का विकास होता है। परम्परा पूजा की वस्तु नहीं, आलोचना और मूल्यांकन की वस्तु है। पूजा की भावना से परम्परा में निष्क्रियता आती है, उसकी जीवन्तता घटती है। परम्परा जब पूजा की वस्तु बन जाती है, तो परम्परावाद का रूप धारण करती है। परम्परा सदैव परिवर्तन के सन्दर्भ में नए मूल्यों को विकसित करती है, जबकि परम्परावाद नए मूल्यों के विकास में बाधक है। परम्परा में आस्था कला और साहित्य के विकास में सहायक होती है, जबकि परम्परावाद कलादृष्टि को संकुचित करता है और कला के विकास की गति को अवरुद्ध। परम्परा दिशा-सूचक है, जबकि परम्परावाद बन्धन है।

 

परम्परा जब परम्परावाद का रूप धारण करती है, तो उससे दो प्रकार के खतरे उत्पन्‍न होते हैं। एक तो कलाकार अतीतवादी बनकर परम्परा से चिपक जाता है, वह मरी हुई परम्परा की पुनः स्थापना का प्रयास करता है। दूसरी बात यह है कि कलाकार परम्परा को स्थिरता का पर्याय मान लेता है और वह प्रत्येक परिवर्तन का विरोधी बन जाता है। परम्परावादी कलाकार परम्परा का दास होता है, जबकि सृजनशील कलाकार परम्परा का स्वामी और निर्माता होता है। एजरा पाउन्ड ने ठीक ही लिखा है कि परम्परा वह सौन्दर्य है जिसकी हम रक्षा करते हैं, वह हमें बाँधने वाली कोई बेड़ी नहीं है।

  1. परम्परा की आधुनिकतावादी धारणा तथा द्वन्द्व

 

टी.एस. एलियट की परम्परा की आधुनिकतावादी धारणा और उसके साथ ही साहित्यिक संवेदनशीलता और ऐतिहासिक चेतना के बीच अलगाव की आलोचना रॉबर्ट वॉइमान ने की है। उन्होंने लिखा है कि टी.एस. एलियट, क्रोचे और ऑर्टेगा के अनुसार परम्परा हमेशा कलाकार के सन्दर्भ में व्याख्यायित हुई है, कवि या कलाकार के पाठ के सन्दर्भ में नहीं। यही नहीं, उसमें हमेशा आदर्श व्यवस्था की चिन्ता है। समकालीन परिवर्तनों और सामाजिक आन्दोलनों के बीच इतिहास की दुनिया को खारिज करने की प्रक्रिया में परम्परा की आधुनिकतावादी धारणा अपने मुख्य प्रयोजन में असफल हुई है। परम्परा का मुख्य प्रयोजन है वर्तमान के व्यवहार को प्रेरित करना; ताकि हम जिस संस्कृति को अतीत से प्राप्त करते हैं और जिसे पीछे छोड़ते हैं, उनके बीच सम्बन्ध और कभी-कभी संघर्ष हो। इस दृष्टि के अनुसार परम्परा अतीत की ऐसी देन है, जो वर्तमान को पैदा करने में मदद करे और जिसमें अतीत की संस्कृति वर्तमान क्रियाशीलता में प्रकट हो। इस तरह परम्परा वर्तमान के पुनर्नवीकरण में सक्रिय भूमिका निभाती है। परम्परा ऐसी वस्तु है जो हमेशा बदलती है, हमेशा गतिशील रहती है और जिस पर अतीत और वर्तमान के प्रभाव निरन्तर काम करते हैं। इस परस्पर सम्बद्धता का जीवित साहित्य के मूल और उसके परिणाम के बीच सम्बन्ध बना रहता है। यह एक ऐसी शक्ति है, जो जीवित अतीत से वर्तमान के जीवन को जोड़ती है। इस प्रक्रिया में वह द्वन्द्वात्मक बन जाती है।

 

इस प्रकार परम्परा के धारणात्मक और व्यावहारिक पक्षों के बीच सम्बन्ध की पहचान केवल सैद्धान्तिक मामला नहीं है। इससे यह बात निकलती है कि परम्परा सृजनात्मक लेखन और आलोचना के बीच मध्यस्थता का काम करती है। वह उनके आपसी सम्बन्धों को प्रतिबिम्बित भी करती है। परम्परा का बोध सृजन और सिद्धान्त, संवेदना और सचेतनता, बिम्ब और विचार के बीच एकता का निर्माण करता है। परम्परा की कोई भी आधुनिक परिभाषा ऐसी नहीं है, जिसमें सृजनशीलता और सैद्धान्तिकता का सहयोग न हो। इस तरह परम्परा साहित्य के इतिहास और आलोचना के इतिहास दोनों के लिए जरूरी है।

  1. महान परम्परा तथा लघु परम्परा के बीच सम्बन्ध और द्वन्द्व

 

साहित्य के इतिहास में परम्परा पर विचार करते समय महान परम्परा और लघु परम्पराओं के बीच सम्बन्ध और द्वन्द्व का बोध भी जरूरी है। प्रायः लघु परम्पराएँ महान परम्पराओं से अलग ही नहीं होती, उसके विरोध और विकल्प की चेतना से भी संयुक्त होती हैं। भारत जैसे अनेक प्रकार से विभाजित समाज में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक परम्पराओं में अनेकता मिलती है। शासक-वर्ग अपनी परम्परा को मुख्य और महान मानता है और लघु परम्पराओं को उपेक्षा या तिरस्कार की दृष्टि से देखता है। भारतीय साहित्य का इतिहास लिखते समय प्रायः लघु परम्पराओं की चिन्ता नहीं होती। भारत एक विशाल देश है। इसमें असंख्य मातृभाषाएँ हैं, जिनमें मौखिक और लिखित रूप में लगातार साहित्य की रचना होती है, लेकिन उन मातृभाषाओं के साहित्य को प्रायः भारतीय साहित्य के इतिहास में जगह नहीं मिलती।

 

हिन्दी साहित्य का इतिहास भी इस विडम्बना का शिकार है। मध्यकाल का हिन्दी साहित्य का इतिहास, जो वास्तव में कविता का इतिहास है, विभिन्‍न लोकभाषाओं में रचित कविताओं और कवियों का ही इतिहास है। उसमें मैथिली, अवधी, ब्रजभाषा, राजस्थानी और खड़ी बोली के इतिहास का समावेश है। लेकिन हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के इतिहास में खड़ी बोली में लिखे गए साहित्य के इतिहास की ही चिन्ता होती है, जबकि आधुनिक काल में भी खड़ी बोली के समानान्तर मैथिली, भोजपुरी, अवधी, ब्रजभाषा और राजस्थानी में मौखिक और लिखित साहित्य निरन्तर रचा जा रहा है। इन लोकभाषाओं के साहित्य की परम्पराओं को लघु परम्पराएँ मानकर अब पराई परम्पराएँ समझा जाता है। ऐसे में भारतीय साहित्य के इतिहास में देश के विभिन्‍न भागों की जनता की मातृभाषाओं में रचित साहित्य की परम्पराओं को कैसे जगह मिलेगी?

  1. भारतीय साहित्य के इतिहास में परम्परा

 

साहित्य के इतिहास में परम्परा का बहुत महत्त्व है। साहित्य के इतिहास का एक लक्ष्य परम्परा या परम्पराओं के स्वरूप की पहचान है तो दूसरा लक्ष्य परम्पराओं का बोध भी है। इसीलिए आर्नल्ड हाउजर ने अपने ग्रन्थ कला का इतिहास दर्शन के आमुख में लिखा है, ‘‘सभी ऐतिहासिक विकासों का सार यही है कि पहला दूसरे चरण को तय करता है और ये दोनों मिलकर तीसरे चरण को आगे की ओर बढ़ाते हैं। किसी एक चरण को देखकर सभी परवर्ती चरणों की दिशा के बारे में निष्कर्ष निकालने में कोई समर्थ नहीं, सभी पूर्ववर्ती चरणों के ज्ञान के बगैर किसी एक चरण की व्याख्या नहीं की जा सकती और बावजूद इस समस्त ज्ञान के उस चरण की भविष्यवाणी तो कतई नहीं की जा सकती।’’

 

साहित्य के इतिहास के स्वरूप पर विचार करने वाले आलोचकों ने प्रायः साहित्य की परम्पराओं की खोज और पहचान का काम किया है। हिन्दी साहित्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है। उन्होंने साहित्य के इतिहास के लिए परम्परा के महत्त्व का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्‍चित है कि चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए, साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।’’ अपने इतिहास में आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में मौजूद परम्पराओं के स्वरूप और स्वभाव पर बराबर ध्यान दिया है। उन्होंने वीरगाथा काल के अन्त में लिखा है, ‘‘हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक विशेषता यह रही है कि एक विशिष्ट काल में किसी रूप की जो काव्य सरिता वेग से प्रवाहित हुई, वह यद्यपि आगे चलकर मन्द गति से बहने लगी, पर 900 वर्षों के हिन्दी साहित्य के इतिहास में हम उसे कभी सर्वथा सूखी हुई नहीं पाते।’’

 

आचार्य शुक्ल के इतिहास में हिन्दी साहित्य के निर्माण में अनेक परम्पराओं की भूमिका की पहचान की गई है। उन्होंने एक साथ कम से कम तीन परम्पराओं की निरन्तरता और बदलते हुए रूप की व्याख्या की है। पहली है भाव और विचारों के प्रयोग की परम्परा, दूसरी है रचना के रूप की परम्परा, जिसके अन्तर्गत महाकाव्य और गीतकाव्य की विभिन्‍न परम्पराओं का विवेचन है। तीसरी है काव्यभाषा के रूप में हिन्दी के विकास की परम्परा, जिसका सम्बन्ध संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और लोकभाषाओं की रचनाशीलता की परम्परा से है। आचार्य शुक्ल के इतिहास और आलोचना में परम्परा शब्द का इतना प्रयोग है कि कुछ लोग उन्हें परम्परावादी आलोचक समझने लगते हैं।

 

हिन्दी साहित्य के दूसरे महत्त्वपूर्ण इतिहासकार हैं हजारीप्रसाद द्विवेदी। उन्होंने अपनी पुस्तक हिन्दी साहित्य की भूमिका में एक तो हिन्दी साहित्य को भारतीय चिन्ता का स्वाभाविक विकास कहकर भारतीय साहित्य की परम्परा के अंग के रूप में हिन्दी साहित्य की परम्परा की व्याख्या की है। दूसरी बात यह है कि द्विवेदी जी हिन्दी साहित्य के भीतर अनेक परम्पराओं की उपस्थिति को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। द्विवेदी जी परम्परा को अविभाज्य, अखण्ड, विशुद्ध और एक नहीं मानते। उनका मत है कि भारतीय संस्कृति और साहित्य में भारतीय समाज की ही तरह परम्पराओं का मिला-जुला विकास हुआ है। द्विवेदी जी परम्परा को सनातन मानने के भी विरोधी हैं। परम्परा के प्रति अन्ध-श्रद्धा का एक रूप परम्परा को विशुद्ध और एक प्रकार की विचारधारा का ही पोषक मानने में प्रकट होता है, तो दूसरे हर प्रकार के बाहरी प्रभाव को अछूत समझने में। द्विवेदी जी ने इन दोनों प्रकार की मनोवृत्तियों का खण्डन किया है। उन्होंने लिखा है, ‘‘आए दिन श्रद्धापरायण आलोचक यूरोपीय मतवादों को धकिया देने के लिए भारतीय आचार्य विशेष का मत उद्धृत करते हैं और आत्मगौरव के उल्लास से घोषित कर देते हैं कि ‘हमारे यहाँ’ यह बात इस रूप में मानी या कही गई है। यह रास्ता गलत है। प्रत्येक बात में ऐसे बहुत से मत पाए जाते हैं, जो परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध पड़ते हैं।’’ परम्परा के बारे में अपनी इसी राय के कारण द्विवेदी जी कबीर के क्रान्तिकारी महत्त्व को समझ सके और उसकी व्यवस्थित व्याख्या कर सके। हिन्दी साहित्य की परम्पराओं के निर्माण में महाभारत, रामायण और पुराणों के साथ ही बौद्ध और जैन साहित्य का भी बहुत योगदान है। द्विवेदी जी ने हिन्दी साहित्य की विभिन्‍न परम्पराओं को समझने-समझाने के लिए ही हिन्दी साहित्य की भूमिका में संस्कृत साहित्य के साथ महाभारत, रामायण, पुराण, बौद्ध साहित्य और जैन साहित्य का भी व्यवस्थित परिचय दिया है। इन सबके ज्ञान से हिन्दी साहित्य के इतिहास के पाठक हिन्दी साहित्य के परम्पराओं के निर्माण में इन सबके योगदान को ठीक से समझ सकते हैं।

 

नलिन विलोचन शर्मा ने अपनी पुस्तक साहित्य का इतिहास दर्शन में हिन्दी साहित्य की पाँच परम्पराओं की चर्चा की है। उन पाँचों परम्पराओं को उन्होंने भारतीय साहित्य और संस्कृति की भी परम्पराएँ माना है। उनके अनुसार भौतिकता हिन्दी साहित्य की मुख्य परम्पराओं में से एक है। वे यह भी कहते हैं कि भौतिकता के दो रूप हैं, जो भारतीय साहित्य में दीख पड़ते हैं – मर्यादित और अतिवादी। उनके अनुसार भारतीय साहित्य की दूसरी प्रमुख परम्परा है यथार्थता। तीसरी परम्परा है मानववाद और चौथी परम्परा मानवतावादी। उनके अनुसार पाँचवीं और अन्तिम परम्परा है धार्मिकता। इन परम्पराओं को नलिन जी ने सदानीरा धाराएँ भी कहा है। नलिन जी की इन पाँचों परम्पराओं के साथ कठिनाई यह है कि ये परम्पराएँ संसार की किसी भी भाषा के साहित्य में खोजी और पाई जा सकती हैं। किसी साहित्य की वास्तविक परम्पराएँ वे होती हैं, जो उसकी ऐसी विशेषता या विशेषताओं को प्रकट करे, जो शेष में न हो।

 

डॉ. रामविलास शर्मा ने परम्परा का मूल्यांकन नामक निबन्ध में लिखा है ‘‘जो महत्त्व ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिए इतिहास का है, वही आलोचना के लिए साहित्य की परम्परा का है। इतिहास के ज्ञान से ही ऐतिहासिक भौतिकवाद का विकास होता है, साहित्य की परम्परा के ज्ञान से ही प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है।’’ रामविलास जी के इस कथन में आलोचना की जगह साहित्य के इतिहास को रख दीजिए तो उनका कथन अधिक प्रासंगिक बन जाएगा। यह सही है कि आलोचना के लिए परम्परा का ज्ञान जरूरी है, पर साहित्य के इतिहास के लिए परम्परा का ज्ञान अनिवार्य है।

 

10. निष्कर्ष

 

साहित्य और कला के इतिहास में परम्परा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह परम्परा कला के विविध रूपों में पाई जाती है। यह संस्कारगत रूढ़ियाँ, मान्यताएँ तथा अभिव्यजंना की प्रणालियाँ है, जो लेखक या कलाकार को अतीत से प्राप्त होती हैं। हम साहित्यिक, सांस्कृतिक, वास्तु या शिल्प की परम्परा को उदाहरण के रूप में  देख सकते हैं। यह अध्यात्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक या सौन्दर्यबोधीय चार प्रकार सैद्धान्तिक शाखाओं में विकसित हुई है, जो विकासोन्मुख जीवन्त मूल्यों की निरन्तरता का बोध कराती है। टी. एस. एलियट नें परम्परा में ऐतिहासिक चेतना के समाहित होने का जिक्र किया है, जिसका बोध हर महत्त्वपूर्ण कवि के लिए आवश्यक है। ऐतिहासिक चेतना में अतीत का ही नहीं, वर्तमानता का भी बोध शामिल होता है। किसी काल में साहित्य का अस्तित्व अलग नहीं, बल्कि अखण्ड होता है, जिसमें परम्परा की अविच्छिन्‍न धारा बहती रहती है। अतीत और वर्तमान इसी अखण्ड परम्परा में स्थित है।

 

सच्‍चा कवि किसी परम्परा की लकीर का फकीर नहीं होता, बल्कि वह अपनी सृजनात्मक क्षमता द्वारा, परम्परा द्वारा, खोए हुए सजीव सूत्रों को नया रूप देता है और उसकी संवेदनशीलता के तत्त्वों की सुरक्षा करता है। किन्तु कोई भी कलाकार अपनी परम्परा का अनायास और स्वतः उत्तराधिकारी नहीं होता, बल्कि वह परम्परा उसे सम्यक अध्ययन और चिन्तन के बाद ही प्राप्त होती है। कलाकार को परम्परा के ज्ञान में दो तरह की सजगता जरूरी है। पहला सजीव और सार्थक रूप का और दूसरा जड़ीभूत और निर्रथक रूप का। किसी भी लेखक या कलाकार को परम्परा साफ-सुथरी और सजी-सँवरी नहीं मिलती, बल्कि रूढ़ियाँ भी उसके साथ लिपटी मिलती हैं। ऐसे में जो बेहतर है, उसे अपनाने और जो बदतर है, उसे छोड़ने का काम कलाकार करता है। इस अर्थ में परम्परा को रूढ़िवादिता का शिकार नहीं होना चाहिए, जो जीवन्त है, उसे अपनाना चाहिए। परम्परा के प्रति अन्ध-आस्था रूढ़िवादिता को प्रश्रय देती है। इसके साथ ही कलाकार को परम्परावाद के खतरे से भी बचना चाहिए, जिसमें एक तो वह अतीतवादी बनकर परम्परा से चिपक जाता है, और मरी हुई परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयास करता है। दूसरा कलाकार परम्परा को स्थिरता का पर्याय मानकर प्रत्येक परिवर्तन का विरोधी बन जाता है। साहित्य के इतिहास में परम्परा पर विचार करते समय महान परम्परा और लघु-परम्परा के बीच सम्बन्ध और द्वन्द्व का बोध भी जरूरी है। भारत जैसे अनेक प्रकार से विभाजित समाज में परम्पराओं में अनेकता मिलती है। नलिन विलोचन शर्मा ने साहित्य का इतिहास दर्शन पुस्तक में हिन्दी साहित्य की पाँच परम्पराओं की चर्चा की है। साहित्य के इतिहास में परम्परा के महत्त्व को स्वीकरते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा कि ‘जो महत्त्व ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिए इतिहास का है, वही आलोचना के लिए साहित्य की परम्परा का है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी हिन्दी साहित्य की विभिन्‍न परम्पराओं को समझने-समझाने के हिन्दी साहित्य की भूमिका में व्यवस्थित परिचय दिया है। इस प्रकार साहित्य या कला के इतिहास के लेखक या कलाकार को परम्परा का ज्ञान बहुत जरूरी है। नामवर सिंह ने भी अपनी पुस्तक दूसरी परम्परा की खोज के माध्यम से महान परम्परा के साथ ‘अन्य’ परम्पराओं के महत्त्व को समझने पर भी जोर दिया है।

you can view video on परम्परा की अवधारणा और साहित्य का इतिहास

 

वेब लिंक्स

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/Tradition_and_the_Individual_Talent
  2. https://www.youtube.com/watch?v=gBG9lwdFgRs
  3. http://wikieducator.org/T.S.Eliot_Tradition_Individual_Talent
  4. https://en.wikipedia.org/wiki/History_of_literature
  5. https://hangingodes.wordpress.com/2007/02/10/a-tradition-of-literature/
  6. http://www.poetryfoundation.org/bio/ezra-pound