6 साहित्य का इतिहास और समकालीनता

डॉ. गोपालजी प्रधान

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप—

  • साहित्य के इतिहास और बदलते समय का सम्बन्ध समझ सकेंगे।
  • बदलते समय में बदलते विचार और साहित्येतिहास के रूप समझ सकेंगे।
  • साहित्य के इतिहास लेखन पर भूमण्डलीकरण  और उदारीकरण के प्रभाव देख सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

इतिहास अपने आप में अतीत होता है। या यूँ कहें कि अतीत ही इतिहास होता है। ऐसे में यह प्रश्‍न सहज ही उठ खड़ा होता है कि इतिहास और समकालीनता में क्या सम्बन्ध हो सकता है? या फिर साहित्य के इतिहास और समकालीनता में क्या सम्बन्ध है?

 

कई कारणों से साहित्य के इतिहास की आवश्यकता का अनुभव किया जाता है। इतिहास सिर्फ बीती हुई घटनाओं का संकलन और सम्पादन ही नहीं होता है। वह वर्तमान का अतीत भी होता है। वह परम्परा का वाहक भी होता है। किसी युग के बहुसंख्यक समाज में परम्परा का जीवित बोध बना हुआ हो तो शायद साहित्य के इतिहास की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी। जिस जाति के लिए सारी परम्परा एक जीता-जागता सत्य हो, उसे अलग से इतिहास पढ़ने की आवश्यकता ही क्यों पड़ेगी? साफ है कि साहित्य के इतिहास की आवश्यकता का सवाल इस बोध से जुड़ जाता है कि किसी समय के लोगों को अपने अतीत से कैसा रिश्ता उन्हें महसूस हो रहा है?

 

असल में बदले हुए समय में जो नई चुनौतियाँ सामने आती हैं, उनका मुकाबला करने के लिए हम अक्सर अतीत से प्रेरणा लेते हुए उसका सर्वेक्षण करते हैं। यही सर्वेक्षण इतिहास लेखन के रूप में सामने आता है। साहित्य का यह इतिहास केवल छात्रों और अध्यापकों के लिए ही उपयोगी नहीं होता, पाठकों और आलोचकों के लिए भी उपयोगी होता है। साहित्य का इतिहास रचनाकारों, पाठकों और आलोचकों के लिए समान रूप से जरूरी होता है। साहित्य के इतिहास का एक उद्देश्य साहित्य के विकास की गति और उसकी दिशा का बोध कराना है। यह बोध रचनाकार, पाठक और आलोचक सबके लिए आवश्यक होता है। स्पष्ट है कि साहित्य के इतिहास की आवश्यकता कोई अकादमिक रुचि मात्र नहीं, बल्कि व्यापक इतिहास निर्माण की प्रक्रिया का अंग है।

  1. साहित्य के इतिहास की आवश्यकता

 

इतिहास की आवश्यकता के प्रश्‍न पर नामवर सिंह का कहना है कि ‘इतिहास लिखने की ओर कोई जाति तभी प्रवृत्त होती है जब उसका ध्यान अपने इतिहास के निर्माण की ओर जाता है। यह बात साहित्य के बारे में उतनी ही सच है जितनी जीवन के।’ दरअसल, समकालीन साहित्य को समझने के लिए भी कई बार इतिहास की जरूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए, अगर निराला की रचना राम की शक्तिपूजा को ठीक से समझना है, उसका मूल्यांकन करना है तो हमें तुलसीदास के रामचरितमानस से भी परिचित होना पड़ेगा।

 

इसी तरह साहित्य का इतिहास साहित्य के साथ ही साथ समाज के चरित्र और स्वभाव की भी जानकारी देता है। इतना ही नहीं, साहित्य के इतिहास से यह भी पता चलता है कि किसी खास समय के साहित्य का रुझान किस ओर था। इस रुझान का कारण क्या था?

  1. साहित्य का इतिहास, भूमण्डलीकरण और उदारीकरण

 

समय के बदलाव के जिस अनुभव से साहित्य के इतिहास की आवश्यकता का जन्म होता है, वह बदलाव चौतरफा होता है। भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के बाद की दुनिया लगभग हरेक मामले में अपनी पूर्ववर्ती दुनिया से भिन्‍न हुई है। इतिहास, साहित्य और संस्कृति के प्रति लोगों का नजरिया भी बदला है। सबसे पहला बदलाव यह है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के लगभग पचास वर्षीय शीत युद्ध ने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जो माहौल बनाए रखा था, वह छिन्‍न-भिन्‍न हो चुका है। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में एक तरह की स्थिरता थी, हथियारों की मौजूदगी के बावजूद युद्ध थोड़ा दूर का अनुभव प्रतीत होता था। इक्‍कीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही उस परिघटना की वापसी की बातें आम तौर पर हो रही हैं, जिसे सारी मानवता दफ़नाया हुआ मान चुकी थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद चले स्वाधीनता आन्दोलनों की आंशिक ही सही, सफलता के चलते साम्राज्यवाद को खत्म माना जा रहा था, लेकिन आज सारी दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद की चर्चा बिना किसी संकोच के चल रही है। इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोड़ते हुए हम स्वतन्त्र घाना के प्रथम राष्ट्रपति क्‍वामे नक्रूमाह द्वारा सन् 1965 में लिखी किताब निओ कोलोनियलिज्म : द लास्ट स्टेज आफ़ इम्पीरियलिज्म की इस धारणा का उल्लेख कर सकते हैं कि ‘नव-उपनिवेशवाद साम्राज्यवाद की चरम अवस्था’ है। नक्रूमाह का अभिप्राय यह था कि भूतपूर्व औपनिवेशिक ताकतें (यूरोपीय) तथा नई विश्व महाशक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका ने अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक संस्थाओं (विश्व बैंक तथा आई एम एफ) आदि के जरिए विश्व बाजार को नियन्त्रित कर, बहुराष्ट्रीय निगमों का जाल फैलाकर तथा सैकड़ों किस्म की सांस्कृतिक, शैक्षणिक संस्थाओं के जाल के माध्यम से औपनिवेशिक जुए से आजाद हुए मुल्कों को फिर से अपने अधीन कर लिया है। हैरी मैगडाफ सन् 1960 के दशक के अन्त से ही इस अवस्था को ‘उपनिवेश रहित साम्राज्यवाद’ की संज्ञा देते आए हैं। जान बेलामी फास्टर ने अमेरिका के एक परम्परागत राष्ट्र-राज्य से साम्राज्यवादी ताकत में रूपान्तरण को नव-औपनिवेशिक दौर की अभिलक्षक घटना माना है। प्रभात पटनायक ने इसे वित्तीय सट्टा पूँजी की विश्व-व्यवस्था के रूप में व्याख्यायित किया है। वास्तव में नक्रूमाह ने जिसे नव-उपनिवेशवाद कहा था वही प्रक्रिया ही आगे चलकर भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के वर्तमान दौर में विकसित हुई। प्रभात पटनायक के अनुसार भूमण्डलीकरण अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के हित में राष्ट्र-राज्यों को समाप्त करने की जगह उनकी सम्प्रभुता को खत्म करता है और एक नई विश्व-व्यवस्था कायम करता है। भूमण्डलीकरण की इस नई विश्व-व्यवस्था को बनाने और कायम रखने के लिए अमेरिकी महाशक्ति अन्तहीन युद्धों का सहारा ले रही है।

 

भूमण्डलीकरण, बाजारवाद, उदारीकरण और सत्ता के नए समीकरणों के साथ ही एक और प्रक्रिया जारी है जिसने हमारी भाषा से लेकर हमारी सम्वेदना तक में भारी बदलाव किए हैं। यह प्रक्रिया है मास मीडिया। इसकी मौजूदगी पहले भी थी, लेकिन इस बीच इसका बड़ी पूँजी के साथ जुड़ाव दुनिया भर में चिन्ता और चर्चा का विषय बना हुआ है। मीडिया की इस व्यापक उपस्थिति ने साहित्य का फलक विस्तारित किया है और सृजन के नए माध्यमों ने साहित्य को प्रभावित किया है। फिल्मों के लिए लिखी पटकथाओं के अध्ययन से नाटक के एक नए विकासमान रूप को समझने में आसानी हो रही है। मास मीडिया का ही एक रूप पत्रकारिता भी है। साहित्यिक पत्रकारिता न केवल वर्तमान समय में प्रभावी हुई है, बल्कि भारतीय अथवा यूरोपीय पुनर्जागरण के समय से ही साहित्यिक पत्रकारिता के साथ लगभग सभी प्रमुख साहित्यकार जुड़े रहे हैं। हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के इतिहास लेखन में इस पहलू की उपेक्षा सम्भव नहीं बल्कि इस पर जोर देने से हमें आधुनिकता की जटिलताओं की गुत्थियों को समझने में अतिरिक्त सहायता मिलेगी। साहित्य की नई धारणा के बनने और नए तरह के साहित्येतिहास की जरूरत महसूस होने के पीछे इण्टरनेट के जरिए तथा अन्य कारकों से भी निर्मित नया बौद्धिक समुदाय है।

  1. बदलते समय में बदलते विचार

 

संस्कृति के अतिरिक्त विचारों की दुनिया में भी जो नया माहौल बना उसकी एक झलक विचारों के क्षेत्र में भूमण्डलीकरण द्वारा अपनी वैधता के नए मुहावरे गढ़ने में दिखाई दे रही है। इतिहास का अन्त (फुकुयामा) और ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ (हटिंग्‍टन) आदि धारणाएँ इसी की उपज हैं।  इनमें से फुकुयामा की ‘इतिहास का अन्त’ की धारणा पर ध्यान देना जरूरी है, क्योंकि साहित्य का इतिहास लिखने के बारे में हम तभी सोच सकते हैं, जब धारणा के स्तर पर वह इतिहास जीवित हो। इस धारणा का प्रतिपादन फ़्रांसिस फ़ुकुयामा नामक अमेरिकी विद्वान ने सन् 1889 में द नेशनल इण्टरेस्ट नामक पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में किया था और फिर सन् 1992 में इसे विस्तारित करके द एण्ड ऑफ हिस्ट्री एण्ड द लास्ट मैन शीर्षक किताब के रूप में प्रकाशित कराया। इस लेख में उन्होंने मूलत: हीगेल की ‘इतिहास का अन्त’ की धारणा को पुनर्प्रतिपादन किया था। हीगेल को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि इतिहास वस्तुत: विचारों की अग्रगति का नाम है और लोकतन्त्र के बाद विचारों की दुनिया में कोई नई बात प्रकट नहीं हुई है, इसलिए इतिहास का अन्त असल में लोकतन्त्र के विचारों की सार्वभौमिक विजय का ही दूसरा नाम है। उनका कहना था कि लोकतन्त्र की यह अग्रगति बिना बाधा के नहीं होगी, लेकिन अन्तत: इसे ही दुनिया में शासन की एकमात्र वैध पद्धति के रूप में जीवित बचना है। बहुतेरे चिन्तकों ने इसे लोकतन्त्र के नाम पर अमेरिकी लोकतान्त्रिक पद्धति का प्रचार बताया। फुकुयामा का यह भी कहना था कि इस शासन पद्धति के प्रतिरोध का एक मजबूत केन्द्र सोवियत संघ था, लेकिन उसके पराजय ने इसकी वैधता प्रमाणित कर दी है।

 

इस प्रसंग से हम समझ सकते हैं कि इतिहासलेखन की जरूरत और सम्भावना को नकारने के बीसवीं सदी के प्रयासों के मुकाबले इककीसवीं सदी के प्रयास अधिक गम्भीर हैं। आज इतिहास के अन्त को ‘विचारधारा का अन्त’ भी कहा जा रहा है। ‘विचारधारा का अन्त’ की धारणा डेनियल बेल नामक विद्वान ने प्रतिपादित की, जो अपने आपको ‘अर्थतन्त्र में समाजवादी, राजनीति में उदारवादी और संस्कृति के क्षेत्र में अनुदारवादी’ कहते थे। उनका कहना था कि समूची उन्‍नीससवीं सदी और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के चिन्तन पर आधारित पुरानी और महान मानवतावादी विचारधाराएँ चुक गई हैं और अब ‘समझदार’ लोगों के लिए राजनीतिक विचार अप्रासंगिक हो गए हैं तथा भविष्य की राजनीति किसी बड़े बदलाव के सपने के साथ नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में तकनीकी समायोजन की होगी। स्पष्ट है कि सवाल साहित्य के ही इतिहास का नहीं, बल्कि समस्त इतिहास का और केवल इतिहास का भी नहीं, बल्कि विचारधारा का ही खड़ा हो गया है और इसीलिए साहित्य के इतिहास के निर्माण का प्रश्‍न भी विचारधारा और इतिहास निर्माण के प्रश्‍न से अलग नहीं किया जा सकता।

 

दुनिया के हालात में बदलाव, मास-मीडिया के प्रभाव और विचारों की उथल-पुथल ने इतिहास का  दृष्टिकोण बदल दिया, फलस्वरूप राष्ट्र-राज्य की वैचारिक उपस्थिति में सर्वाधिक बदलाव आया। अधिकतर बदलाव राष्ट्रों के आर-पार की आबादियों को प्रभावित कर रहे हैं। इतिहास की किसी भी सूची पर नजर डालें तो राष्ट्र-राज्य का असर वहाँ सबसे अधिक दिखाई पड़ेगा। बहुत कम इतिहास ऐसे हैं जिनमें विशाल भू-क्षेत्रों पर ध्यान रखा गया हो। फ्रांस में अनाल्स स्कूल के इतिहासकार फर्नान्द ब्रादेल ने भूमध्य सागर का इतिहास लिखने की कोशिश की और राष्ट्र-राज्य केन्द्रित इतिहास लेखन को चुनौती दी। यूरोप में ज्यादातर राष्ट्र-राज्य किसी एक भाषा के साथ विकसित हुए, इसलिए पश्चिमी देशों में साहित्येतिहास में सम्बद्ध भाषा के इतिहास के साथ उस देश का भी इतिहास हुआ करता था। भारत जैसे बहुभाषिक देश में यह साहित्येतिहास अलग-अलग भाषाओं का हुआ। लेकिन किसी भी बहुभाषिक देश में कोई भी भाषा पूरी तरह स्वतन्त्र नहीं रहती। सभी क्षेत्रों में कम से कम दो भाषाओं की मौजूदगी दिखाई पड़ती है। मारियो जे वाल्डेस और लिण्डा हचियन ने अमेरिकन कौंसिल आफ़ लर्नेड सोसाइटीज की ओर से जारी ओकेजनल पेपर 27 रीथिंकिंग लिटररी हिस्ट्री कम्पेरेटिवली में साहित्येतिहास लेखन के नवीन क्षेत्रों की झलक प्रस्तुत की है। लैटिन अमेरिकी देशों में इस समस्या का समाधान साहित्य के बहुभाषिक इतिहास के लेखन के जरिए निकाला गया। जलाल कादिर के सम्पादन में तीन खण्डों में प्रकाशित कम्पेरेटिव लिटरैरी हिस्ट्री ऑफ लैटिन अमेरिका ने साहित्येतिहास लेखन के इस उत्तेजक क्षेत्र को रोमांचक बना दिया है। लैटिन अमेरिका जिस तरह की जगह है, उसमें इन इतिहास लेखकों को परिप्रेक्ष्य के रूप में औपनिवेशिक इतिहास, प्रभु देशों की भाषाओं के साथ स्थानीय भाषाओं के सम्पर्क से पैदा स्थितियों, बहुराष्ट्रीय वैचारिक-राजनीतिक परिवर्तनों को तो समाहित करना ही पड़ा, उन्हें साहित्य के भीतर मौखिक साहित्य तथा आचारों को भी गिनना पड़ा। शिक्षा, प्रकाशन, जन-संचार, चर्च, सरकार आदि की भूमिका की पड़ताल भी साहित्य के सन्दर्भ में जरूरी समझी गई। हमारे देश के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि खुसरो, विद्यापति और रहीम तथा अनेक आधुनिक कवियों के लेखन में मौजूद इस बहुभाषिकता के साथ एक भाषा के साहित्येतिहास में पूरी तरह से न्याय नहीं हो पाता है। जिस भाषा के इतिहास में उन्हें शामिल किया जाता है, उससे अलग भाषा का उनका लेखन साहित्येतिहास लेखक के लिए परेशानी का सबब बन जाता है। अगर हम साहित्येतिहास को बहुभाषिक नजरिए से लिखेंगे तो ये लेखक समस्या की बजाए भाषाई और साहित्यिक समृद्धि का सूचक बन जाऍंगे। साहित्येतिहास लेखन के इस प्रयास के इर्द गिर्द साहित्येतिहास के राष्ट्रीय ‘मॉडल’ की जगह साहित्य का तुलनात्मक दृष्टिकोण प्रबल होता जा रहा है। किसी भाषा विशेष के साहित्येतिहास की जगह भूभागीय साहित्येतिहास लेखन, साहित्य के इतिहास को वस्तुनिष्ठता तो प्रदान करता ही है, उसे व्यापक फलक पर अवस्थित भी करता है।

 

इसीलिए साहित्य के इतिहासलेखन का सवाल एक हद तक साहित्य को व्यापक ज्ञानात्मक विमर्श के भीतर शामिल करने से जुड़ा हुआ है, क्योंकि साहित्य की धारणा में भी बदलाव आ रहा है। अब उसे केवल कल्पना-प्रसूत लेखन की सीमा से विस्तारित करके उसमें कथात्मक और तथ्यात्मक, लिखित और मौखिक, क्लासिकीय के साथ लोकप्रिय को भी समाहित किया जा रहा है। इससे न केवल उस सामग्री में बढ़ोत्तरी हो रही है जिसका इतिहास लिखा जाना है, बल्कि किताबों के जन्म के ऐतिहासिक सन्दर्भों को भी नए तरीकों से देखा-खोला जा रहा है। अब साहित्य के इतिहास में साहित्य के उत्पादन के सामाजिक हालात के अतिरिक्त उसके अभिग्रहण के सामाजिक हालात को भी परखा जा रहा है। इसे ही साहित्यिक संस्थान कहकर उसका भी इतिहास समझने की कोशिश की जा रही है क्योंकि इसी के भीतर साहित्य निर्माता से लेकर उसके उन्नायक और पाठक रहते हैं। साहित्य के इन उन्नायकों की ओर भी साहित्येतिहास लेखन में कम ध्यान दिया जाता है लेकिन हम सभी जानते हैं कि साहित्य के प्रचार-प्रसार में विशेष सामाजिक रुचि वाले इन लोगों का निर्णायक योगदान होता है और ये पाठक तथा लेखक के बीच मध्यस्थ का काम करते हैं। विशेष किस्म की साहित्यिक रुचि का निर्माण अधिकतर इनके द्वारा ही किया जाता है। प्रसंगवश, साहित्यिक आस्वाद का इतिहास भी साहित्येतिहास लेखन का नया और विकासमान क्षेत्र है। हिन्दी में साहित्यकारों के चिन्तन में इस तरह की व्यापकता तो दिखाई पड़ती है, लेकिन साहित्येतिहास लेखन के प्रसंग में किंचित घेरेबन्दी कर दी जाती है। विभिन्‍न विधाओं, खासकर उपन्यास के प्रसंग में जिस तरह साहित्य से अन्य ज्ञानानुशासनों की पारस्परिकता का विकास हुआ है, और साहित्य को जिस बड़े पैमाने पर देखा-समझा जा रहा है, उसके चलते ऐसी घेराबन्दी बहुत दिनों तक बनाए रखना कठिन होता जाएगा। हिन्दी में ज्ञान का साहित्य लिखे जाने की जिम्मेदारी भी साहित्यकारों पर ही आ पड़ी। ऐसा होना अच्छा हो या बुरा लेकिन इस वास्तविकता की उपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि संचार माध्यमों का जंजाल हिन्दी की सृजनात्मकता पर खड़ा होगा तो उसके भले-बुरे पहलुओं पर विचार भी हिन्दी में ही होगा। इस तरह का नजरिया अपनाने से उनके साहित्य पर विचार करते हुए न केवल आधुनिक काल में साहित्यकारों के ज्ञानपरक लेखन का ध्यान रखा जाएगा, बल्कि अतीत के साहित्यकारों के साहित्येतर लेखन का महत्त्व उजागर किया जाएगा। भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश में ज्योतिरीश्वर ठाकुर के बारे में रामविलास शर्मा का लेखन इसका एक छोटा-सा नमूना है। रामविलास शर्मा की ही पुस्तक इतिहास दर्शन में पाश्‍चात्‍य काव्यशास्त्रियों, प्लेटो, अरस्तू लोंजाइनस पर विचार हुआ है। तत्कालीन समाज-व्यवस्था के बारे में इनके विचारों का सन्दर्भ ग्रहण करने से लोंजाइनस की उदात्तता से उसके लोकतान्त्रिक चिन्तन का सम्बन्ध खुलकर दिखाई देने लगता है। अलग-अलग समयों या साहित्यकारों का विश्लेषण करते हुए आलोचक इस पहलू का ध्यान तो रखते हैं, लेकिन साहित्येतिहास के सन्दर्भ में इसे भुला दिया जाता है। इस तरह की चतुर्दिक व्यापकता के बिना कोई नया इतिहास केवल पिष्टपेषण बनकर रह जाएगा। गौरी विश्वनाथन की किताब मार्क्स आफ कांकेस्ट में अंग्रेजी राज में भारत में अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के प्रचार-प्रसार का इतिहास लिखते हुए भाषा, साहित्य और सत्ता के सूक्ष्म सम्बन्धों की पड़ताल की गई है। साहित्येतिहास लेखन में नए समय में खुलने वाले नए रास्तों की ओर इशारे के रूप में इसे भी देखा जाना चाहिए। कम्पेरेटिव लिटररी हिस्ट्री ऑफ द अफ्रीकन डायस्पोरा को भी नए किस्म के साहित्येतिहास लेखन के उदाहरण के रूप में  देखा जा रहा है। यह बेहद चुनौती भरा काम है। अफ़्रीकी प्रवासी लेखन कम से कम अंग्रेजी, स्पेनी, फ्रेंच और पुर्तगाली भाषाओं में उपलब्ध है। इस इतिहास को लिखने के दौरान देखा जाएगा कि इन भाषाओं के मूल लेखन और इन भाषाओं में प्रवासी अफ्रीकी लेखन के बीच कैसा रिश्ता बना है? इसके लिए सम्बद्ध भाषा के साहित्य के अतिरिक्त प्रवासी समुदाय के समाजैतिहासिक जीवन की भी गहरी जानकारी जरूरी होगी। इस तरह यह साहित्येतिहास के साथ सांस्कृतिक इतिहास भी होगा। इसमें गुलामी, घेराबन्दी, हाशियाकरण, थोपी गई परिभाषाओं और अस्मिताओं, संघर्ष और प्रतिरोध, समायोजन और एकीकरण की प्रक्रिया भी दिखाई पड़ेगी। इसमें प्रवास से पहले के अफ्रीकी साहित्यिक-सांस्कृतिक खजाने का अध्ययन होगा, जिसके लिए लिखित के साथ मौखिक को शामिल करना आवश्यक होगा। साथ ही प्रवास के उपर्युक्त चारो भाषा क्षेत्रों के द्विभाषिक और सामासिक साहित्य का इतिहास भी देखना होगा, जिसके लिए स्वाभाविक रूप से एक भाषा के साहित्येतिहास लेखन से छुटकारा पाना होगा। चूँकि ये लेखक एक ही भौगोलिक-सांस्कृतिक-सामाजिक स्थान से बाहर निकले हैं, इसलिए इनके लेखन में कुछ जगहों, विषयों और कथा रूढ़ियों का बार-बार दोहराव होगा। इसके साथ ही नई जगह के प्रभाव से विचलन भी होंगे। स्वाभाविक रूप से इस अध्ययन में क्रियोल साहित्य का महत्त्व बढ़ेगा और वह एक महत्त्वपूर्ण स्रोत होगा। अपने देश के मामले में भी देश के विभिन्‍न इलाकों में और देश से बाहर विदेशों में गए प्रवासी भारतीयों के साहित्य को साहित्येतिहास में शामिल करने में इस तरह की कोशिशों से प्रेरणा मिलेगी।

 

यूरोप के आर्थिक एकीकरण की कोशिशों के चलते और द्विध्रुवीय दुनिया के बिखरने से यूरोपीय साहित्य की धारणा को बल मिला है; साहित्येतिहास लेखन की कोशिश में भी ऐसा प्रतिबिम्बित हो रहा है। नए किस्म के इतिहासलेखन में साहित्य-केन्द्र के रूप में नगरों, कद्दावर साहित्यकारों और ऐतिहासिक घटनाओं पर ध्यान दिया जा रहा है। इस तरह साहित्येतिहास लेखन इतिहास के साथ ही अधिकाधिक मानवशास्त्र, समाजशास्त्र, भूगोल, ललितकला, संगीत, संचार, अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र का भी पड़ोसी होता जा रहा है। इस नए साहित्येतिहास लेखन में साहित्य को प्रोत्साहित और हतोत्साहित करने की रजनीति और क्रियाविधि का भी उद्घाटन होगा। हमारे देश के सन्दर्भ में औपनिवेशिक दौर में और उसके बाद भी साहित्यिक रचनाओं पर सामाजिक हलचलों के असर और पुरस्कारों तथा प्रतिबन्धों को साहित्येतिहास का अंग बनाने से अनेक अनकही बातें खुलेंगी। इससे साहित्य के वैध और अवैध उपयोग से साहित्य-सृजन का रिश्ता अच्छी तरह स्पष्ट होगा तथा अनेक स्वनिर्मित और अघोषित बन्धनों की भूमिका भी सामने आएगी।

  1. निष्कर्ष

 

कह सकते हैं कि साहित्य या समाज के परिवर्तन के नए दौर में ही इतिहास पर पुनर्विचार की जरूरत होती है, क्योंकि अतीत और वर्तमान को समझकर ही भविष्य की दिशा तय करना सम्भव होता है। यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि इतिहास को हम वर्तमान की अपनी चेतना और भविष्य की आवश्यकता के अनुसार ही समझने का प्रयास करते हैं। साहित्य का इतिहास लिखते समय समाज को भूमिका या उपसंहार में जगह देने के बदले साहित्य की विकास प्रक्रिया को सम्पूर्ण सामाजिक प्रक्रिया के अंग के रूप में देखना-समझना जरूरी है। साहित्य का ऐसा इतिहास जरूरी है जिसमें व्यापक सामाजिक सन्दर्भ में लेखक, रचना और पाठक का विकासशील सम्बन्ध प्रकट हो, साहित्य-रूप और सामाजिक विकास का सम्बन्ध सामने आए और सामाजिक विकास के साथ साहित्य के विकास का सम्बन्ध भी स्पष्ट हो सके।

 

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वेब लिंक्स

  1. http://iss.sagepub.com/content/15/3/435.abstract
  2. https://www.youtube.com/watch?v=7kL4p3llmHk
  3. http://www.veryshortintroductions.com/view/10.1093/actrade/9780199662661.001.0001/actrade-9780199662661-chapter-7
  4. https://www.youtube.com/watch?v=eBa-pCmuBHU