5 लोक साहित्य और साहित्य का इतिहास

प्रो. मैनेजर पाण्डेय पाण्डेय

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1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • लोक साहित्य और लोकसंस्कृति के पार्थक्य को समझते हुए सहित्येतिहास लेखन में इनकी भूमिका को समझ सकेंगे।
  • लोक साहित्य की प्रमुख विशेषताओं से परिचित हो सकेंगे।
  • साहित्येतिहास और लोक साहित्य के आपसी रिश्ते को समझ सकेंगे।
  • लोक साहित्य और शिष्ट साहित्य के प्रमुख भेदों को जान सकेंगे।

 

2. प्रस्तावना

 

किसी भी भाषा के साहित्य की इतिहास दृष्टि का निर्माण सामान्यतः उस भाषा की शास्त्रीेय रचनाओं और बड़े रचनाकारों को आधार बनाकर ही किया जाता है। यह साहित्य के इतिहास दृष्टि के निर्माण की शुरुआती प्रक्रिया होती है। इसीलिए किसी भी भाषा के साहित्य के शुरुआती इतिहास को देखा जाए तो उनके केन्द्र में अधिकतर बड़े रचनाकार और शास्त्रीीय रचनाएँ ही दिखेंगी। ऐसे में यह प्रश्नइ उठता है कि लोक भाषाओं के साहित्य का साहित्य के इतिहास में क्या महत्व होना चाहिए? किसी भी भाषा के साहित्य इतिहास की दृष्टि के निर्माण में लोक भाषाओं की क्या भूमिका होती है? आगे हम इन्हीं सवालों का जवाब ढूँढ़ने की कोशिश करेंगे।

 

3. लोक साहित्य और लोक संस्कृति

 

‘फोकलोर’ और ‘लोक साहित्य’ को लेकर आशय-सम्बन्धी भ्रम विद्वानों में रहे हैं। इस भ्रम से होने वाली दिक्कनतों की ओर संकेत करते हुए लोक साहित्य के अधिकारी विद्वान डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने कहा है कि ‘आजकल अनेक विद्वान इन दोनों शब्दों के पार्थक्य को बिना समझे बूझे एक शब्द का दूसरे के लिए प्रयोग भ्रमवश कर दिया करते हैं जिससे उनके भावों को समझने में बड़ी कठिनाई होती है।’ उनका स्पष्ट मानना है कि लोकसंस्कृति शब्द के लिए ‘फोकलोर’ उचित है जबकि लोक साहित्य के लिए ‘फोक लिटरेचर’। लोक साहित्य, लोकसंस्कृति के अन्तर्गत है जबकि लोकसंस्कृति की व्याप्ति लोक साहित्य से अधिक और विविधरूपात्मक है। संक्षेप में लोक साहित्य जनता का वह साहित्य है जो लोक के द्वारा लोक के लिए कहा या लिखा गया हो।

 

लोक साहित्य के विषय में इतिहास और इतिहास दृष्टि का सम्बन्ध इसी तरह के साहित्य से है। इस साहित्य को समझने-समझाने के दृष्टिकोण, उद्देश्य और पद्धति/प्रविधि के लिए भी इतिहास दृष्टि की आवश्यकता वैसे ही है जैसे शिष्ट साहित्य के लिए।

 

4. साहित्येतिहास लेखन में लोक साहित्य का स्थान

 

शिष्ट समाज लोक साहित्य को किंचित उपेक्षा के साथ देखता आया है। गौरतलब है कि साहित्यिक प्रतिमान निर्माण के कार्य में वर्चस्व शिष्ट समाज और उसकी अभिरुचियों का रहा है इसलिए लोक साहित्य के साथ अनुदार रवैया स्वाभाविक है। लेकिन लोक साहित्य की महत्ता साहित्येतिहास लेखकों को अपनी ओर खींचती रही है। प्रमाण के रूप में हिन्दी साहित्य का इतिहास के लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, जिनके साहित्यिक प्रतिमान में ‘संस्कृत बुद्धि, संस्कृत वाणी, संस्कृत हृदय’ का विशेष स्थान है, की यह स्वीकारोक्ति देखी जा सकती है कि ‘भारतीय जनता का सामान्य स्वरूप पहचानने के लिए पुराने परिचित ग्रामगीतों की ओर भी ध्यान देने की आवश्य्कता है; केवल पण्डितों द्वारा प्रवर्तित काव्य-परम्परा का अनुशीलन ही अहम् नहीं है।’ और भी कि ‘जब जब शिष्टों का काव्य पण्डितों द्वारा बँधकर निश्चे ष्ट और संकुचित होगा तब तब उसे सजीव और चेतनप्रसार देश की सामान्य जनता के बीच स्वच्छन्द बहती हुई प्राकृतिक भावधारा से जीवनतत्त्व ग्रहण करने से ही प्राप्त होगा।’ यही वजह है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को कवि सूरदास के गेय पदों की सिद्धि में बहुत पहले से किसी गतिशील गीतकाव्य परम्परा, ‘चाहे वह मौखिक ही रही हो’, की ऊर्जा की प्रतीति होती है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन का मानना है कि ‘वास्तविक बात तो यह है कि शिष्ट साहित्य लोक साहित्य का ही विकसित, संस्कृत और परिमार्जित स्वरूप है।’ यह विडम्बनापूर्ण है कि लोक साहित्य की इतनी आधारभूत भूमिका होने के बावजूद उसे अनेकानेक उपेक्षाओं का शिकार होना पड़ा है और उसके इतिहास लेखन और इतिहास दृष्टि का उतना विकास नहीं हो सका है जितना होना चाहिए था।

 

5. लोक साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ

 

लोक साहित्य को देखने की इतिहास दृष्टि में कहीं अधिक सतर्कता की जरूरत है। लोक साहित्य जनता की वाणी है, मूल रूप में अथाह मौखिक राशि! इसमें लोकगीत हैं, लोककथाएँ हैं, स्थानिक जनश्रुतियाँ हैं, कहावतें हैं, बुझौवल हैं और अधिकांशतः लेखकों का कोई ऑंकड़ा नहीं। लोक साहित्य के इतिहास लेखक को लोक साहित्य के संग्रहकार और संग्रह पर विश्वाअस कर लेना ही पर्याप्त नहीं होगा। लोक में गतिशील साहित्य के इतने प्रारूप जनता द्वारा बना दिए जाते हैं, जो किसी संग्रहकर्ता द्वारा छूट जाएँ तो क्या आश्चार्य! लोक साहित्य की एक विशेषता यह भी मानी जाती है कि उसमें नया जुड़ता जाता है। उसका पाठ वैसे ही निर्धारित नहीं होता जैसे शिष्ट साहित्य का। शिष्ट साहित्य में बतौर लेखक व्यक्ति प्रमुख होता है जबकि लोक साहित्य में व्यापक समूह लेखन का कार्य करता है। समूह की सकारात्मकता व नकारात्मकता, सीमाएँ व शक्तियाँ उसमें निहित होती हैं। लोक साहित्य के इतिहास लेखक को ज्यादा मेहनत करनी होती है कि उसे सभी पाठों तक जाना होता है। उसकी इतिहास दृष्टि में इन सभी पाठों की महत्ता होती है। ‘वैज्ञानिकता’ की कसौटी एक जगह कमजोर पड़ती दिखती है तो दूसरी जगह दूसरे रूप में चुनौती बन कर सामने आती है; और वह यह कि यह देखा जाय कि विविध पाठों और पाठान्तरों का स्थान भेद व काल परिवर्तन से क्या सम्बन्ध है! लोक साहित्य के पाठों में नई चुनौतियों के समक्ष क्या और कैसे परिवर्तन आते हैं!

 

6. लोक साहित्य और शिष्ट साहित्य का सम्बन्ध

 

शिष्ट साहित्य लोक साहित्य से बहुधा ‘कच्चां माल’ ग्रहण करता है। उदाहरण के लिए मलिक मोहम्मद जायसी की रचना पद्मावत में लोक साहित्य की उपस्थिति देखी जा सकती है। इस हेतु बारहमासा वर्णन जैसे स्थल देखे जा सकते हैं। मध्यकालीन साहित्य में इस लोक साहित्य का ‘कच्चा माल’ इतना ज्यादा है कि उसके एक बहुत बड़े हिस्से को लिखित लोक साहित्य मान लेना भी अनुचित नहीं होगा। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘सच पूछा जाय तो कुछ थोड़े से अपवादों को छोड़ कर मध्ययुग के सम्पूर्ण देसी भाषा के साहित्य को लोक साहित्य के अन्तर्गत घसीट कर लाया जा सकता है।’ कहना न होगा कि शिष्ट साहित्य के इतिहास के ‘कच्चेस माल’ को भी लोक साहित्य के इतिहास के कच्चे माल के रूप में घसीट कर लाया जा सकता है। लोक साहित्य और शिष्ट साहित्य का इतिहास कई बार एक दूसरे में मिलता और अलग होता चलता है।

 

लोक साहित्य को देखने वाली इतिहास दृष्टि का जोर और दायित्व सामाजिक सच को देखने पर अधिक होता है। शिष्ट साहित्य में किसी व्यक्ति की कृति को देखा जाता है अतः वहाँ व्यक्ति-सत्य देखने की चेष्टा होती है यानी कि उस व्यक्ति द्वारा कोई वस्तु कैसे देखी गई या प्रस्तुत की गई, उसके आग्रह और भाव क्या रहे। लोक साहित्य में इसकी जगह पर समूह-सत्य या समाज सत्य देखना होता है। कई बार इतिहासकार साहित्येतिहास का विभाजन करते हुए व्यक्ति आधारित काल-निर्धारण कर देते हैं लेकिन लोक साहित्य में ऐसा सम्भव नहीं है। यहाँ वर्गीकरण के अन्य आधार देखने पड़ेंगे।

 

ऐतिहासिक अन्वेषण में अन्वेषणकर्ता जिस युग में होता है वह उस युग की भावधारा और रुचि की छाप अपने साथ लिए रहता है। इसलिए लोक साहित्य को देखने की इतिहास दृष्टि भी अपनी समकालीनता से प्रेरित व प्रभावित रहती है। क्रोचे का इसी अर्थ में मानना है कि समस्त इतिहास समकालीन इतिहास होता है। यहाँ भी लोक साहित्य के ऐतिहासिक विवेचन के प्रसंग में यह कहा जा सकता है कि कोई एक इतिहास व इतिहासकार की दृष्टि पर्याप्त नहीं।

 

लोक साहित्य को देखने वाली ऐसी भी इतिहास दृष्टियाँ मिलती हैं जिनमें लोक में व्याप्त मत को इतिहास लेखक अपने ढंग से सुधारने की कोशिश करता चलता है। यह दूसरे रूप में एक इतिहास लेखक के ‘व्यक्ति-सत्य’ या वैयक्तिक मान्यता की सामूहिक या सामाजिक सत्य अथवा मान्यता से मुठभेड़ भी है। सूरदास, तुलसीदास व अन्य कवियों के मूल्यांकन या कहिए कि लोक-मूल्यांकन को व्यक्त करता एक दोहा इस प्रकार है –-

 

सूर सूर तुलसी ससी, उड्गन केसवदास।

अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकास॥

 

इस लोक-मूल्यांकन का जिक्र करते हुए साहित्येतिहास लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि ‘न जाने किसने यमक के लोभ में यह दोहा कह डाला ‘सूर सूर तुलसी ससी, उड्गन केसवदास’ यदि कोई पूछे कि जनता के हृदय पर सबसे अधिक विस्तृत अधिकार रखने वाला हिन्दी का सबसे बड़ा कवि कौन है तो उसका एक मात्र यही उत्तर ठीक हो सकता है कि भारतहृदय, भारतीकण्ठ, भक्तचूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदास।’

 

बात यहीं तक नहीं रही, आचार्य शुक्ल ने अपनी तरफ से दोहे की पहली पँक्ति में बदलाव भी इस रूप में प्रस्तावित कर दिया –-
‘रवि तुलसी सूर ससी, उड्गन केसवदास।’लोक साहित्य को देखने की ऐसी भी इतिहास दृष्टियाँ हमें दिखती हैं जिनमें ‘लोक मत’ पर ‘व्यक्ति मत’ को रखने का प्रयत्न होता है। इसमें व्यक्तिगत रुचि का हस्तक्षेप या ‘दुरुस्त करने का प्रयास’ साफ देखा जा सकता है। इसे इतिहास लेखक की दृष्टि की सीमा कहना अनुचित नहीं होगा।

 

7. साहित्येतिहास लेखन और लोक साहित्य

 

लोक साहित्य के इतिहास को देखे बिना किसी देश की ‘जनता की चित्तवृत्ति के संचित प्रतिबिम्ब’ के इतिहास को सम्पूर्णता में जानना सम्भव नहीं होगा। लोक साहित्य को दरकिनार करके बनी साहित्येतिहास दृष्टि स्वस्थ नहीं कही जा सकती। कई ऐसी घटनाएँ हैं, ऐतिहासिक सच हैं जो लोक साहित्य में दर्ज हैं, जिन्हें छोड़ना किसी युगीन सच्चासई को नजरअन्दाज करना है। भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम -– 1857 की क्रांति –- की अभिव्यक्ति को देखने के लिए लोक साहित्य का अवगाहन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। शिष्ट साहित्य में क्रांति के उन नायकों का उल्लेख तक नहीं मिलेगा जिनकी कीर्ति का गायन लोक साहित्य ने किया है। लोक साहित्य को अनदेखा कर उन्नीसवीं सदी की भारतीय ‘जनता की चित्तवृत्ति’ की पड़ताल करने वाली इतिहास दृष्टि अनिवार्य रूप से अपने उद्देश्य को पूर्ण करने में चूक जाएगी। यह वह समय है कि जब भारत में ब्रिटिश हुकूमत के प्रेस एक्ट आदि नियन्त्रणों द्वारा ‘लिखित’ या ‘मुद्रित’ साहित्य में सच लिख पाना खतरे से खाली नहीं था। इस समय अपना जातीय गौरव सुरक्षित रखने में मौखिक या लोक परम्परा अधिक सफल रही। अवधी, भोजपुरी, बुन्देली आदि लोकभाषाओं में ऐसे लोकगीतों व गेय लोककथाओं की भरमार है जो भारतीय वीरों/नायकों और खलनायकों के बीच स्पष्ट विभाजन करती हैं। इसे विस्तार से अमृतलाल नागर की पुस्तक ‘गदर के फूल’ में देखा जा सकता है। अवधी लोकभाषा और लोक साहित्य में 1857 के क्रान्तिकारियों के साथ उन दगाबाजों का भी नाम ले लेकर उल्लेख है जो अंग्रेजों से मिले हुए थे:

 

नक्कीर मिले, मानसिंह मिलिगे, मिले सुदर्सन काना छत्रौ बंस एक न मिलिहैं जानै सकल जहाना।

 

(नक्कीब, मानसिंह और सुदर्सन काना अंग्रेजों से मिल गये और दगाबाजी कर गए, जबकि लोग जानते हैं कि क्षत्रिय वंश का एक व्यक्ति भी अंग्रेजों से नहीं मिलेगा।)

 

लोक साहित्य के स्वरूप व विकास को ऐतिहासिक दृष्टि से देखने व समझने पर लोक साहित्य की क्रान्तिकारी भूमिका को पहचाना जा सकता है। यह देखना कम दिलचस्प नहीं है कि चैती, कजरी आदि से कूजित लोककण्ठ आवश्यकता पड़ने पर किस तरह देश व समाज के लिए जरूरी मुद्दों को अपना विषय बना कर अपने ऐतिहासिक दायित्व का निर्वाह करता है।

 

8. इतिहास लेखन और लोक साहित्य के अन्तर्विरोध

 

ऐसा नहीं है कि लोक साहित्य में अन्तर्विरोध और अतःसंघर्ष नहीं हैं। लोक साहित्य का इतिहास लेखक इन पर चुप्पी साध कर आगे नहीं बढ़ सकता। जो अन्तर्विरोध और अन्तःसंघर्ष हमारे समाज में है वह लोक साहित्य में भी है। शिष्ट साहित्य से ज्यादा स्पष्ट रूप से इन्हें लोक साहित्य में देखा जा सकता है। जाति, धर्म, अन्धविश्वाकस आदि से सम्बन्धित जो नकारात्मकताएँ हमारे समाज में हैं वे हमारे लोक साहित्य में भी हैं। चूँकि लोक साहित्य में अनौपचारिकता है, गढ़ाव-बनाव नहीं है, सीधे-सादे लबो-लहजे में बोलने की कोशिश है, अतः ये सामाजिक सीमाएँ जाहिर रूप में मिलती हैं। जातियों और धर्मों से सम्बन्धित कई ऐसी टिप्पणियाँ लोक साहित्य में प्रचलित रूप में रही हैं जिन्हें सभ्य समाज में अशोभन माना जाता है। इन्हें छोटी-छोटी लोक कहावतों में आसानी से रेखांकित किया जा सकता है। लोकमत की सीमा देखने का कार्य भी लोकमत में मिलता है। इस तरह एक द्वंद्व साफ पहचाना जा सकता है जहाँ हम लोकमत की नकारात्मकता से संघर्ष करते हुए लोकमत को देखते हैं। यहाँ कबीर दास के काव्यचिन्तन को इस रूप में पढ़ा जा सकता है। ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को लोकमत में पर्याप्त जगह दी गई है और इसे स्वीकृति भी लोक साहित्य में मिली हुई दिखती है लेकिन कबीर की कविता भी एक अलग लोकवाणी में इसका प्रत्याख्यान करती है –- ‘एक ही बाट से सब उपजाया को बाम्हन को सूदा’। लोकमत अपने को ठीक करने के लिए शास्त्रर परम्परा का मुँह नहीं देखता। अपने को दुरुस्त करने का तर्क भी वह लोक से ही उठाता है। लोकमत में व्याप्त था कि जो काशी में प्राण त्यागे उसे स्वर्ग मिलेगा और जो मगहर में प्राण त्यागे उसे नरक। कबीर दास की ये पंक्तियाँ भ्रान्त लोकमत के विरुद्ध जागरूक लोकमत का परिचय देती हैं –-लोकामति के भोरा रे!जो कासी तन तजै कबीरा, रामहिं कौन निहोरा रे!

 

मुक्त होने के लिए काशी में प्राण त्यागा जाए तो प्रभु की क्या प्रभुता! इस भ्रान्त लोकमत का विरोध कबीर ने रचना के माध्यम से ही नहीं बल्कि अपना जीवन जी कर भी किया। कबीर दास ने अपना शरीर मगहर में जा कर छोड़ा। शिष्ट साहित्य की श्रेष्ठता के संस्कार वाली इतिहास दृष्टि लोक साहित्य की इस विशेषता को लक्षित नहीं कर पाती। लोक साहित्य की अपनी तर्क-पद्धति है। एक उदाहरण यहाँ देना चाहूँगा। पितृसत्तामक भारतीय समाज में सन्तान न होने के लिए स्त्रीम ही दोषी मानी जाती रही है। जब यह ‘मेडिकल साइन्स’ से सिद्ध नहीं हुआ था तब भी लोकमत और लोक साहित्य में स्त्रीठ की तरफ से पुरुष के दोष को देखने का ‘तर्क’ मिलता है। राजा दशरथ को एक हेलिनि ने निरवंशी कह दिया जिस पर उसके पति ने आपत्ति की। इसके जवाब में हेलिनि ने सहज ही कहा कि ‘हे हेला! तीन रानियाँ हैं, भला तीनों बाँझ

 

हो जाएँगी!’ (अतः कमी तो राजा दशरथ में होगी!) :

चुप रहु हेलिनि छिनारि तैं जतिया क पातरि।

तीन भुवन कर राजा कहिउ निरबंसी॥

चुप रहु हेलवा दाढ़ीजार तैं जतिया क पातर।

हेलवा तीनि उन्हा करि रानी तीनिउ जनि बाँझिनि॥

 

लोकमत की अपनी तर्क-प्रक्रिया है जिसे यहाँ देखा जा सकता है। एक दूसरी बात यह भी काबिले गौर है कि एक दलित स्त्रीय अपने पति के सामने अधिक मुखर और तार्किक रूप में प्रस्तुत है। वह अपने तर्क के साथ अधिक निडर है भले ही बात किसी राजा की ही क्यों न हो। अक्सर लोक को अतार्किक व अगंभीर कहा जाता है। लोक साहित्य को निरखने वाली इतिहास दृष्टि को इस पूर्वग्रह से बचना होगा तभी वह लोक साहित्य के साथ न्याय कर सकेगी।

 

9. लोक साहित्य और लोकप्रिय साहित्य

 

लोक साहित्य के साथ लोकप्रिय साहित्य की भी चर्चा की जाती है। लोकप्रिय साहित्य वही नहीं है जो लोक साहित्य है। लोक साहित्य जहाँ बहुत प्राचीन काल से हमारी साहित्यिक विरासत में शामिल है वहीं लोकप्रिय साहित्य पूँजीवाद के विकास के साथ और छापाखाने के आने के बाद विकसित व छपा साहित्य है। यह बाजारू साहित्य के रूप में भी देखा जाता है। यह पर्याप्त विवाद का विषय है कि लोक साहित्य में ही लोकप्रिय साहित्य को रखा जाए अथवा नहीं। लोक साहित्य के बहुतेरे अनुरागी लोकप्रिय साहित्य को कूड़ा-कचड़ा मानकर उससे पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं। लोकप्रिय साहित्य के विषय जहाँ एक ओर रहस्य-रोमांच से भरे, अपराध कथाओं वाले, प्रेमपरक व कामोत्तेजक हैं तो दूसरी ओर सत्यकथाओं से मिलने वाले भी। लोक साहित्य की तरह बहुत से लोकप्रिय साहित्य के लेखकों को कोई नहीं जानता या वे छद्म नाम वाले हैं। इनकी सबसे बड़ी खासियत है व्यापक जन-समुदाय द्वारा पढ़ा जाना। निश्चंय की लोकप्रिय साहित्य को कूड़ा-कचड़ा या बाजारू कह कर उससे पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता। लोक साहित्य को देखने वाली इतिहास दृष्टि को लोकप्रिय साहित्य को भी देखना होगा। इसके विश्ले षण के जरिये भी वैसे ही व्यापक जन समुदाय की अभिरुचियों को जानने का अवसर मिलेगा। आज जबकि भारी मात्रा में श्रमगीत, मौसम के गीत, जातियों के गीत, संस्कार गीत, लोककथाएँ, लोकवार्ताएँ नहीं उत्पादित हो रही हैं तो नवीन परिस्थितियों में सम्भवतः उस जगह को भर रहे इस लोकप्रिय साहित्य को देखा जाना उतना ही आवश्यक है।

 

10. निष्कर्ष

 

समाज में होने वाले परिवर्तनों का लोक साहित्य भी अपनी तरह से साक्षी है जिस तरह से ज्ञान-विज्ञान के अन्य अनुशासन। अतीत में हुए परिवर्तन, वे चाहे सामाजिक हो या सांस्कृतिक, लोक साहित्य में दर्ज हुए मिलते हैं। प्रियतम के परदेश में होने की पीड़ा लोक साहित्य में विविध रूपों में व्यक्त हुई है। रेलगाड़ी का आना एक ऐतिहासिक घटना है और लोक की स्त्रिएयों को यह रेलगाड़ी ‘बैरिन’ लगती है जो पति को परदेश लिए जा रही है। बारहमासा में दुखी होने वाली स्त्रीी कालान्तर में थोड़ा दूसरी मुद्रा अख्तियार किए हुए कहती है : ‘रेलिया बैरिन पिया को लिहे जाय रे!’..पानी बरसे टिकस गलि जाय रे!’ जागरूक इतिहास दृष्टि लोक साहित्य के भीतर से कालिक परिवर्तनों की गूँजों-अनुगूँजों को पकड़ने का कार्य भी करती है। वह लोक साहित्य की विकासशील और परिवर्तनशील प्रवृत्तियों को लक्षित करती है।

 

लोक साहित्य में विविध वर्गों की अभिव्यक्तियाँ शामिल हैं। अतः इसके विवेचन व विश्लेकषण के क्रम में इतिहास दृष्टि में वर्ग-विश्लेकषण दृष्टि भी कार्यरत होती है। भारतीय लोक साहित्य में वर्ग-विश्लेषषण को वर्ण-विश्लेदषण के रूप में भी देखा जा सकता है। यहाँ भी देखा जा सकता है कि सवर्ण वर्ग की ‘हीजेमनी’ यानी प्रभुत्व को अवर्णों ने किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। यद्यपि विरोध के स्वर भी हैं। सतीप्रथा सामंतयुगीन सवर्ण समाज द्वारा अभिनन्दित प्रथा है लेकिन लोक साहित्य की कहावतों, मुहावरों और लोककथाओं में यह ‘हीजेमनी’ के तहत व्याप्त दिखती है। कबीर जैसे जागरूक लोककवि के यहाँ भी यह देखा जा सकता है : ‘सूरौ कहाँ मरन है डरपत, सती न संचै भाड़ौ!’ या फिर, ‘डगमग छाड़ि दे मन बौरा! / अब तौ जरे बरे बनि आवै लीन्हें हाथ सिधौरा।’ कई बार अवर्ण जातियों के अपने जातीय गीतों में अपने शोषण को न समझ कर या उसे अपनी नियति समझ कर ऐसी बातों का प्रस्तुतीकरण या समर्थन किया जाता है जो आश्चिर्य में डालता है। लोक साहित्य का विवेचन करने वाली इतिहास दृष्टि भारतीय सवर्ण समाज की प्रभुत्वशीलता की जटिलता को ज्यादा नजदीक से और स्पष्ट रूप से दिखा सकती है।

 

लोक साहित्य की परम्परा अत्यन्त विशाल, सुदीर्घ और समृद्ध है। उसमें अनेक स्वर हैं, सम और विषम दोनों तरह के। उसमें भी द्वंद्व है, गतिशीलता है। गुणाढ्य की बृहत्कथा से लेकर वर्तमान तक लोक साहित्य के सृजन में कमी नहीं आयी है। अलग-अलग समयों में उसके रूप बदलते रहे हैं। आदिम से लेकर वर्तमान तक इस परम्परा को थाहने और उसे वर्तमान में प्रासंगिक रूप में रखने की कोशिश इतिहास दृष्टि में होती है। जितना वैविध्य अनगढ़ लोक साहित्य में है उतना परिष्कृत साहित्य और गढ़े हुए में नहीं। इस वैविध्य से जहाँ एक तरफ अनेकानेक अलक्षित पक्षों के सामने आने की उत्कट संभाव्यता है वहीं दूसरी तरफ सबको समेटने वाली इतिहास दृष्टि को विकसित करने की जटिलता और कठिनाई भी है। डॉ. ग्रियर्सन ने भोजपुरी लोकगीतों की चर्चा के दौरान महत्वपूर्ण बात कही है कि ‘लोकगीत उस खान के समान हैं जिनको खोदने का काम अभी आरम्भ ही नहीं हुआ है। यदि इन गीतों का प्रकाशन किया जाए तो इनकी प्रत्येक पंक्ति में ऐसी बहुमूल्य सामग्री उपलब्ध होगी जिससे भाषाशास्त्रृ सम्बन्धी अनेक समस्याएँ सुलझाई जा सकती हैं।’ ग्रियर्सन ने जो बात लोकगीतों के संदर्भ में कही है उसे लोक साहित्य के संदर्भ में भी समझा जा सकता है। लोक साहित्य का इतिहास लेखन, तज्जरन्य इतिहास दृष्टि का विकास, अत्यंत आवश्यक है। इससे भाषाशास्त्री्य ही नहीं ऐतिहासिक, साहित्यिक, नृतत्वशास्त्रीतय, समाजशास्त्रीमय और संस्कृति सम्बन्धी अनेक स्थितियों और समस्याओं को समझने और सुलझाने के अनेक सूत्र मिल सकेंगे। इस दिशा में बहुत प्रयास होना शेष है।

you can view video on लोक साहित्य और साहित्य का इतिहास

 

वेब लिंक्स

  1. https://www.youtube.com/watch?v=eV3bfxR9Ic0
  2. http://www.indiaculture.nic.in/literature-folklore
  3. http://docsouth.unc.edu/southlit/folklore.html
  4. http://www.afsnet.org/?page=FolkloreLit
  5. http://www.jstor.org/stable/538280?seq=1#page_scan_tab_contents