3 कालजयीपन की अवधारणा और साहित्य का इतिहास

प्रो. मैनेजर पाण्डेय पाण्डेय

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • कालजयीपन की अवधारणा समझ सकेंगे।
  • साहित्य के कालजयी होने के प्रतिमानों से अवगत हो सकेंगे।
  • ज्ञान के विविध रूपों की कालजयी विशेषताएँ जान सकेंगे।
  • कालजयी साहित्य के वैचारिक आधार जान सकेंगे।
  • यूरोपीय साहित्य में कालजयीपन के प्रतिमानों को समझ पाएँगे।
  • साहित्य और कला के कालजयी बनने से सम्बन्धित मार्क्सवादी विचार जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

साहित्य के इतिहास में कालजयीपन की अवधारणा एक महत्त्वपूर्ण एवं व्यापक विषय है। इतिहास के हर कालखण्ड में साहित्य सृजन की परम्परा कायम रही है। हर युग में साहित्य चिन्तन की विविध धाराएँ भी मौजूद रही हैं, जिससे साहित्य की विपुलता भी सर्वज्ञात है। किन्तु इस विपुल साहित्य लेखन के इतिहास में कुछ ही रचनाएँ हैं जिन्हें कालजयी रचना  का दर्जा हासिल हुआ। अतः कालजयीपन का सवाल इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि वह कौन-सा गुण-धर्म है, जो साहित्य को कालजयी बनाता है।  कालजयीपन का प्रश्‍न केवल साहित्य और उसके इतिहास से जुड़ा प्रश्‍न नहीं है, उसका सम्बन्ध कला और साहित्य के साथ-साथ ज्ञान के विभिन्न रूपों से भी है। उदाहरण के लिए अजन्ता की गुफाओं के चित्र, लियोनार्दो द विंची का प्रसिद्ध चित्र मोनालिसा, पिकासो का गुएर्निका, माइकेल एंजिलो की कृतियाँ, देलवाड़ा के जैन मन्दिर, ऋग्वेद, उपनिषद, प्लेटो और अरस्तू के ग्रन्थ उसी तरह कालजयी माने जाते हैं, जैसे भारतीय साहित्य में रामायण, महाभारत, अभिज्ञान शाकुन्तलम तथा हिन्दी के कवि कबीर, सूर, तुलसी और मीरा का काव्य। इस तरह साहित्य, कला और ज्ञान के इतिहास में कालजयीपन की अवधारणा की व्यापकता सामने आती है।

 

प्रत्येक कलाकार, कवि और लेखक की आकांक्षा कालजयी कृति रचने की होती है, इसलिए उसकी सृजनशीलता काल से होड़ करती हुई विकसित होती है। हिन्दी कवि शमशेर बहादुर सिंह ने इस आकांक्षा और विश्वास को एक कविता में व्यक्त किया है। कविता का शीर्षक है काल, तुझसे होड़ है मेरी

  1. कालजयीपन की अवधारणा

 

यहाँ यह समझन लेना आवश्यक है कि कोई रचना कालजयी बनती कैसे है? कालजयी रचना के निर्माण में आधारभूत कारण क्या है, जो रचना को इन उदात्त गुणों से परिपूर्ण बनाते हैं। यहाँ कालजयीपन की अवधारणा को जानना जरूरी है। कला और साहित्य की जो कृति किसी समाज, उसकी सभ्यता, संस्कृति और अस्मिता का निर्माण करती है, और उन सबको पहचानने, समझने में मदद करती है, वह कालजयी होती है। यूरोप में ऐसी क्षमता प्राचीन यूनान के काव्यों और नाटकों में है तथा रोमन सभ्यता के काव्यों में भी है, इसीलिए उन्हें यूरोप में कालजयी कृतियाँ माना जाता है। भारत में यह क्षमता रामायण और महाभारत जैसी काव्य कृतियों में है। डॉ. रामविलास शर्मा ने रवीन्द्रनाथ के हवाले से कहा, ‘‘वाल्मीकि उस काव्य-परम्परा को जन्म दे रहे थे जो देवोपासक नहीं, बड़ी गहराई से मानवतावादी है। उनके काव्य के आरम्भ में किसी देवता की वन्दना नहीं है। वह घोषित करते हैं कि वह काव्य द्विजों के लिए ही नहीं, शूद्रों के लिए भी है। उनके चरित नायक राम अपने मनुष्य होने की सगर्व घोषणा करते हैं। सीता को रावण हर ले गया, यह भाग्य की बात थी, दैव-सम्पादित दोष था, उसे राम ने मनुष्य होकर दूर कर दिया है। व्यास धर्म के लिए कहते हैं कि उसका तत्त्व गुफा में छिपा हुआ है, सार तत्त्व यह है कि संसार में मनुष्य से बढ़कर और कुछ नहीं है।’’

  1. कालजयीपन का वैचारिक आधार

 

किसी वस्तु या कला की सर्वग्राह्यता के पीछे समष्टिगत वैचारिक आधार विद्यमान होता है। किसी भी उदात्त रचना की सृष्टि में एक सार्वभौमिक दृष्टि समाहित होती है। अतः कालजयी के सन्दर्भ में विचारधारा की भूमिका विचारणीय है। प्रायः दुनिया भर में साहित्य की श्रेष्ठता के प्रतिमानों का निर्माण प्रभुत्वशाली वर्ग और उसकी विचारधारा के पोषक विद्वान ही करते हैं। भारतीय काव्य-शास्त्र में एक ओर काव्य को विदग्ध-जन की वाणी कहा गया, उसके बोध के लिए नागरिक और सहृदय को अनिवार्य बताया गया तो दूसरी ओर काव्य में गाँव की जनता द्वारा प्रयुक्त भाषा के प्रयोग को ग्राम्यत्व दोष कहा गया। इससे स्पष्ट है कि भारतीय काव्य-शास्त्र के अनुसार काव्य के स्रष्टा और भोक्ता दोनों ही उच्‍च वर्ग और उच्‍च वर्ण के व्यक्ति थे। वही महाकाव्य या नाटकों के नायक भी बनते थे। ऐसी स्थिति में साधारण जन और उनकी भाषा स्वभावतः उपेक्षा की शिकार होती थी। आज के समय में, जब कविता की दुनिया बहुत बदल गई, अब वह केवल विदग्ध-जन तक सीमित नहीं रह गई है। हिन्दी में भक्ति काल के दो कवि कालजयी माने जाते हैं – एक हैं कबीरदास और दूसरे तुलसीदास। इन दोनों की कविता को अलग-अलग वर्गों, वर्णों और विचारधाराओं के लोग स्वीकार और अस्वीकार करते हैं। हिन्दी साहित्य में जब से दलित दृष्टि और स्त्री दृष्टि का विकास हुआ है, तबसे प्रायः तुलसीदास की आलोचना हो रही है और कबीरदास को ही कालजयी कवि माना जा रहा है। यही नहीं स्त्रीवादी दृष्टि ने मीराँ के काव्य का नया मूल्यांकन किया है और उनको कालजयी कवि के रूप में स्थापित किया है।

  1. साहित्य के कालजयीपन का मानदण्ड और हिन्दी साहित्य

 

साहित्य के इतिहास के सन्दर्भ में हमने ऊपर समझा कि कालजयी साहित्य की सृष्टि में किन गुण-धर्मों की उपस्थिति आवश्यक है। लेकिन उक्त गुणों के साथ ही साहित्य के इतिहास का एक दायित्व साहित्य के मानदण्डों या कालजयी कृतियों की पहचान और व्याख्या भी है। हिन्दी में ऐसा प्रयत्‍न बहुत कम हुआ है। बहुत पहले मिश्र बन्धुओं ने हिन्दी नवरत्‍न नाम की पुस्तक लिखी थी, जिसमें हिन्दी के नौ कवियों को हिन्दी कविता का नवरत्‍न कहा था। यह एक तरह से प्रतिमान निर्माण का पहला प्रयत्‍न था। हिन्दी नवरत्‍न पहली बार सन् 1910 में छपा था। इसमें हिन्दी के नौ कवि – गोस्वामी तुलसीदास, महात्मा सूरदास, महाकवि देवदत्त या देव, महाकवि बिहारीलाल, त्रिपाठी बन्धु (भूषण और मतिराम), महाकवि केशवदास, महात्मा कबीरदास, महाकवि चन्दबरदाई और भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र को शामिल किया गया। हिन्दी नवरत्‍न में कवियों के रत्‍न या मानदण्ड या कालजयी होने का कोई आधार स्पष्ट नहीं किया गया है। कवियों का क्रम और उनका कालजयीपन मिश्र बन्धुओं की कविता सम्बन्धी समझ पर ही आधारित है। मिश्र बन्धु रीतिकाल के प्रशंसक थे, इसलिए हिन्दी कविता के नवरत्नों में पाँच रत्‍न रीतिकाल के ही हैं। कबीर की कविता के महत्त्व के बारे में भी मिश्र बन्धु दुविधाग्रस्त थे, इसलिए हिन्दी नवरत्‍न के पहले संस्करण में कबीर हिन्दी कविता के रत्‍न नहीं थे। दूसरे संस्करण में वे नवरत्नों में शामिल हुए। तीसरे संस्करण में तीसरे स्थान पर लेकिन बाद के संस्करणों में वे देव, बिहारी, भूषण, मतिराम और केशवदास के बाद रख दिए गए। यह एक तरह का मनमानापन ही था।

 

महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सन् 1912 में हिन्दी नवरत्‍न की लम्बी समीक्षा लिखी थी। उस समीक्षा में द्विवेदी जी ने मिश्र बन्धुओं की न्यायशीलता, मानसिक दृढ़ता और सत्यपरता की प्रशंसा की है, साथ ही उनकी निर्भीकता और विचार-स्वातन्त्र्य की भी प्रशंसा की। लेकिन द्विवेदी जी ने यह भी लिखा कि ‘‘जिन कवियों के चरित और जिनकी पुस्तकों की आलोचनाएँ हिन्दी-नवरत्‍न में हैं, उन्हें लेखकों ने रत्‍न-श्रेणी (Reserved Class) में रक्खा है। परन्तु इस श्रेणी का लक्षण क्या है, यह उन्होंने नहीं बताया। यह कवि साधारण श्रेणी का है, वह नीच श्रेणी का; इसकी कविता उससे उत्तम है, उसकी उससे; यह अमुक की श्रेणी का है, वह अमुक की। यह तो लेखकों का कथन मात्र हुआ; यह कोई लक्षण नहीं। वे अपनी रुचि के अनुसार जिसको जैसा चाहें समझ सकते हैं। यदि किसी को रामायण से आल्हा अच्छा जँचे तो वह उसे ही रत्‍न समझ सकता है। पर यदि वह यह चाहता हो कि और लोग भी उससे इस विषय में सहमत हों तो उसे अपने मन की पुष्टि में कुछ कहना भी चाहिए। ऐसा करने ही से लोग उसके मत की सारता या असारता की परीक्षा कर सकेंगे।’’

 

महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी कविता के रत्नों की मिश्र बन्धुओं की समझ के बारे में प्रश्‍न करते हुए लिखा, ‘‘होमर और वर्जिल, शेक्सपियर और मिल्टन, व्यास और वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति का अपने-अपने साहित्य में जो स्थान है सूर और तुलसी का प्रायः वही स्थान हिन्दी में है। अथवा यह कहना चाहिए कि सूर और तुलसी हिन्दी में प्रायः उसी आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं, जिस दृष्टि से ये उल्लिखित कवि संस्कृत और अंग्रेजी आदि भाषाओं में देखे जाते हैं। जिन सूर और तुलसी के ग्रन्थों की पूजा झोपड़ियों से लेकर राज-प्रासादों तक में होती है, जिनके कविता-कुसुमों को, छोटे से लेकर बड़े तक, सादर अपने सिर पर धारण करते हैं; जिनकी उच्‍च भाव-पूर्ण उक्तियाँ पापियों को पुण्यात्मा और अधार्मिकों को धार्मिक बनाने का सामर्थ्य रखती हैं; जिनके सदुपदेश और सरस पद्य सुन कर दुराचारी भी सदाचारी हो जाते हैं और पाषाण-हृदयों के भी हृदय पिघल उठते हैं; उन्हीं से देवकवि को रत्ती भर भी कम न समझना कदापि युक्तिसंगत नहीं माना जा सकता। जिसने उच्‍च भावों का उद्बबोधन नहीं किया; जिसने समाज, देश या धर्म को अपनी कविता द्वारा विशेष लाभ नहीं पहुँचाया; जिसने मानव-चरित्र को उन्‍नत करने योग्य सामग्री से अपने काव्यों को अलंकृत नहीं किया – वह भी यदि महाकवि या कविरत्‍न माना जा सकेगा तो प्रत्येक देश क्या, प्रत्येक प्रान्त में भी, सैकड़ों महाकवि और कविरत्‍न निकल आवेंगे।’’

  1. अंग्रेजी साहित्य में कालजयीपन का मानदण्ड

 

अंग्रेजी में कालजयी को क्लासिक्स कहा जाता है। क्लासिक्स का या कालजयी का एक अर्थ महान भी है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि और आलोचक टी.एस. इलियट ने क्लासिक्स पर लम्बे समय तक गम्भीरता से विचार किया। उनका एक निबन्ध सन् 1942 का है। जिसका शीर्षक है दी क्लासिक्स एण्ड दी मैन ऑफ लैटर्स। इस निबन्ध में इलियट ने लिखा है कि राष्ट्रीय साहित्य के सन्दर्भ में ही कृतियों के कालजयीपन पर विचार होना चाहिए। उन्होंने यह भी लिखा है कि साहित्य के इतिहास में केवल महान कवियों और लेखकों की चर्चा और चिन्ता पर्याप्त नहीं है, उसमें साधारण लेखकों की भी चर्चा होनी चाहिए, क्योंकि वही अपने समय के साहित्य में सहमति और वातावरण का निर्माण करते हैं। यही नहीं, वे बड़े लेखकों के पाठकों का भी निर्माण करते हैं। इलियट के अनुसार साहित्य के इतिहास में महानता से अधिक महत्त्वपूर्ण है अविच्छन्नता, जिसका निर्माण साधारण लेखक करते हैं। कभी-कभी छोटे लेखक अपने महान पूर्ववर्तियों के विरुद्ध विद्रोह भी करते हैं।

 

टी.एस. इलियट का एक दूसरा निबन्ध है व्हाट इज क्लासिक?’। यह निबन्ध सन् 1944 का है। वे कहते हैं कि किसी लेखक या रचना के कालजयीपन की खोज ऐतिहासिक सन्दर्भ में ही की जानी चाहिए। ऐतिहासिक का अर्थ समाज, भाषा और साहित्य से जुड़ा हुआ है। कालजयीपन की पहली शर्त है परिपक्‍वता। कालजयी रचना तभी लिखी जाती है, जब वह जिस समाज की रचना हो, उसकी सभ्यता में परिपक्‍वता हो और साथ ही उसकी भाषा और उसके साहित्य में भी। प्रायः कालजयी रचना परिपक्‍व मानस की उपज होती है। एक व्यक्ति की तरह एक समाज और उसका साहित्य हर प्रकार से एक ही समय परिपक्‍व नहीं होता। परिपक्‍व मानस का एक अर्थ परिपक्‍व रचना की रीति भी है। रचना की भाषा में परिपक्‍वता तब आती है, जब रचनाकार के मानस में अतीत का आलोचनात्मक बोध हो, वर्तमान में विश्वास हो और भविष्य के बारे में कोई सन्देह न हो। किसी समाज में साहित्य की सृजनशीलता में  स्तर होने की निरन्तरता परम्परा-बोध से जुड़ी हुई हो, तभी रचना में मौलिकता और जीवन्तता आती है। कालजयी कृतियों में केवल अन्तर्वस्तु में ही परिपक्‍वता नहीं होती, बल्कि भाषा और शैली में भी होती है।

 

इलियट के अनुसार कालजयी कृतियों में व्यापकता भी होनी चाहिए। यह व्यापकता रचनाकार के मानस की परिपक्‍वता से ही आती है। मानस की परिपक्‍वता के लिए इतिहास-बोध की जरूरत होती है। यह इतिहास-बोध तभी सार्थक होता है, जब रचनाकार अपने समाज के साथ-साथ अन्य समाजों के इतिहास के बारे में सजग और सचेत है। कभी-कभी स्थानीयता का आग्रह रचना को सीमित बनाता है। इलियट के अनुसार शैली की परिपक्‍वता के लिए अपनी भाषा में निहित काव्यत्व की पहचान जरूरी है।

 

किसी साहित्य के इतिहास में कालजयी कृति का आना प्रायः वरदान माना जाता है, लेकिन कभी-कभी वह अभिशाप भी साबित होता है; क्योंकि वह कालजयी कृति भावी रचनाशीलता के लिए संकट बन जाती है। इसलिए नए कवियों को अपनी रचनाशीलता की नई भाषा, नई शैली और नई काव्यचेतना की खोज करनी पड़ती है। यह स्थिति साहित्य के दूसरे रूप में भी दिखाई देती है। प्रेमचन्द का गोदान एक कालजयी कृति है, इसलिए उसके बाद हिन्दी में वैसा उपन्यास लिखना सम्भव नहीं रहा। यही कारण है कि जैनेन्द्र और अज्ञेय ने अपने लिए नई कथा-दृष्टि और नई कथा-भाषा का आविष्कार किया। बाद के कथाकार प्रेमचन्द की राह पर चलकर बड़े कथाकार नहीं बन सकते थे। यही कारण है कि फणीश्वरनाथ रेणु ने मैला आँचल में प्रेमचन्द से भिन्न कथा-दृष्टि, कथा की संरचना और कथा-भाषा विकसित की। इलियट ने ठीक ही लिखा कि महान कविता बाद में वैसी ही महान कविता की रचना को मुश्किल बना देती है।

 

इलियट के अनुसार हम जिस समाज में रहते हैं और जिस भाषा को बोलते हैं और जिस संस्कृति के हिस्से हैं, उस सभ्यता ने अगर अतीत में महान साहित्य पैदा किया है, तो हम उस पर गर्व करते हैं, पर उसके साथ ही हमें यह भी विश्वास होना चाहिए कि हम भविष्य में रचनाशीलता के स्तर पर क्या कुछ कर सकते हैं। अगर हम भविष्य में विश्वास नहीं करेंगे तो अतीत भी हमारे लिए अर्थहीन होगा और तब वह अतीत एक मृत सभ्यता का अतीत होगा। कभी-कभी किसी भाषा के साहित्य में कालजयी कृति का रचा जाना एक सौभाग्य की बात है।

 

इलियट के अनुसार कालजयी कृतियाँ भी दो तरह की होती हैं। कुछ सापेक्ष कालजयी होती हैं, और कुछ निरपेक्ष। सापेक्ष कालजयी वे होती हैं, जो अपनी भाषा में कालजयी होती हैं। निरपेक्ष वे होती हैं, जो दूसरी भाषाओं के सन्दर्भ में भी कालजयी मानी जाती हैं। सापेक्ष कालजयी कृतियों में वैसी गूढ़ता और परिपक्‍वता नहीं होती, जैसी निरपेक्ष कालजयी कृतियों में होती है। निरपेक्ष कालजयी कृतियों में जो पूर्णता होती है, वह सापेक्ष कालजयी कृतियों में नहीं होती। निरपेक्ष कालजयी कृतियों में एक समाज की सम्पूर्ण प्रतिभा प्रकट होती है। इसलिए कालजयी कृतियों में समग्रता की खोज और पहचान भी जरूरी है। उस समग्रता में एक समाज की अनुभूतियों की विविधता के साथ-साथ उस समाज के चरित्र की अभिव्यक्ति भी होती है। जब कोई कृति अपनी भाषा के प्रसंग में समग्रता से संयुक्त होती है और उसी मात्रा में अन्य भाषाओं में भी समग्रता का बोध जगाती है, तब वैसी कृति को सार्वभौम कहा जाता है। भारतीय साहित्य की ऐसी दो कालजयी कृतियाँ हैं – रामायण और महाभारत।  भारत की अधिकांश भाषाओं के साहित्य को रामायण और महाभारत ने प्रभावित किया है। उनमें इन दोनों के सृजनात्मक अनुवाद मौजूद हैं।

  1. कालजयीपन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण

 

मार्क्सवादी परम्परा में साहित्य के कालजयीपन पर विचार हुआ है। इसकी शुरुआत स्वयं कार्ल मार्क्स ने की थी। इन्ट्रोडक्शन टू दी क्रिटीक ऑफ पॉलिटिकल इकॉनोमी (1857) में मार्क्स ने समाज के विकास से कला के विकास के असमान सम्बन्ध पर विचार किया है। मार्क्स ने लिखा है कि प्रगति की धारणा को अमूर्त रूप से नहीं समझना चाहिए। समाज और कला के विकास के असमान सम्बन्ध को तब समझना मुश्किल नहीं होता, जब उसकी जटिलताओं को ध्यान में रखा जाए। कला के सन्दर्भ में यह जानी-पहचानी बात है कि उसकी कुछ श्रेष्ठतम कृतियों की रचना से समाज के विकास के सामान्य स्वरूप का कोई सम्बन्ध नहीं है। उन्होंने यूनानी कला से आधुनिक कला की तुलना की है। वे यह भी मानते हैं कि कला के कुछ रूप, जैसे कि महाकाव्य अपने युगान्तकारी स्वरूप में आधुनिक काल में निर्मित नहीं किए जा सकते। अगर कला के क्षेत्र के विभिन्न रूपों के साथ यह स्थिति है, तो समाज के सामान्य विकास से कला के विकास की जटिलता समझी जा सकती है। हम जानते हैं कि यूनानी मिथक माला यूनानी कला का, विशेष रूप से महाकाव्य का आधार है। यूनानी मिथक माला में प्रकृति की अवधारणा और सामाजिक सम्बन्धों की अवधारणा यूनानी कल्पना के माध्यम से व्यक्त हुई है, जो आधुनिक काल के मशीनी युग में सम्भव नहीं है। सभी प्रकार के मिथकों में प्रकृति की शक्तियों पर कल्पना में विजय पाई जाती है और जब प्रकृति की शक्तियों पर मनुष्य का नियन्त्रण होता है तो मिथकों की जरूरत समाप्त हो जाती है।

 

मार्क्स ने यूनानी महाकाव्यों के बारे में जो लिखा है, उस सन्दर्भ में रामायण और महाभारत जैसे भारतीय महाकाव्य भी समझे जा सकते हैं। यूनान के होमर के महाकाव्यों की तरह रामायण और महाभारत भी विकसनशील महाकाव्य हैं। जैसे यूनानी महाकाव्य का आधार यूनानी मिथक माला है, वैसे ही रामायण और महाभारत का आधार भारतीय मिथक माला है। सारे विकसनशील महाकाव्य जनपदीय युग की कृतियाँ हैं। यूनानी और भारतीय महाकाव्यों में मिथकों से स्वतन्त्र कवियों की कल्पनाएँ भी अपनी पूर्णता में क्रियाशील हैं। आज के मशीनी युग में राम और लक्ष्मण की तीरन्दाजी और महाभारत के अर्जुन तथा कर्ण की तीरन्दाजी का विशेष महत्त्व नहीं रहता। आज का जीवन और कवियों की कल्पना मिथकों पर आधारित नहीं है, इसीलिए आज के समय में वैसे महाकाव्य नहीं लिखे जा सकते। इसका यह भी तात्पर्य हुआ कि महाकाव्य जैसे कालजयी काव्य सामाजिक विकास की आरम्भिक अवस्था में ही रचे जा सकते हैं।

 

कार्ल मार्क्स ने यूनानी महाकाव्यों के प्रसंग में एक प्रश्‍न सामने रखा है। उन्होंने लिखा है कि यह समझना मुश्किल नहीं है कि कैसे यूनानी कला और यूनानी महाकाव्य यूनान के सामाजिक विकास की विशेष अवस्था और विशेष रूपों से जुड़े हुए हैं। सबसे अधिक कठिनाई यह समझने में है कि वे कलाकृतियाँ और महाकाव्य अब भी हमें सौन्दर्यबोधीय आनन्द क्यों देते हैं और अब भी वे मानदण्ड और अलभ्य आदर्श क्यों बने हुए हैं? इस तरह मार्क्स के अनुसार जो कलाकृतियाँ और साहित्यिक रचनाएँ अनन्तकाल तक सौन्दर्यबोधीय आनन्द दें और अलभ्य आदर्श बनी रहें, उन्हें ही कालजयी कहा जा सकता है। मार्क्स ने यूनानी कला और महाकाव्य से मिलने वाले सौन्दर्यबोध को समझने की कठिनाई का उत्तर भी दिया है। वे कहते हैं कि यूनानी कला और महाकाव्य मानवता के बचपन की अभिव्यक्तियाँ हैं। इसलिए वे आज भी हमें आनन्द देती हैं। वे यह भी मानते हैं कि अपरिपक्‍व सामाजिक अवस्थाएँ ऐसी कलाएँ पैदा करती हैं, जिनकी पुनरावृत्ति नहीं हो सकती।

 

कार्ल मार्क्स ने यूनानी कला से मिलने वाले सौन्दर्यबोधीय आनन्द की और उस कला की रचना के कारणों की जो व्याख्या की है, उस पर मार्क्सवादी कला और साहित्य-चिन्तन में लम्बे समय से बहस चल रही है। मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र के बारे में स्तेफान मोरावस्की का विचार है कि जिन कलाओं में आधारभूत मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति होती है, वही कालजयी होती हैं। मैक्स राफेल नाम के एक कला-विचारक ने तीन बातों पर ध्यान दिया है। उनके अनुसार यूनानी कला में रूपात्मक सामंजस्य की अभिव्यक्ति है, इसलिए वे कालजयी हैं। दूसरी बात यह है कि जिन कलाकृतियों में समाज की समग्र सार्थकता व्यक्त होती है, वे कालजयी होती हैं। तीसरी बात यह है कि यूनानी कला में उच्‍चतम मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति हुई है और उनके माध्यम से मनुष्य की मनुष्यता के प्रमाण मिलते हैं। मार्क्स ने हमेशा कला के मूल्यांकन के प्रसंग में ऐतिहासिक और सौन्दर्यबोधीय मूल्यों को महत्त्व दिया है।

 

बीसवीं सदी के कुछ और मार्क्सवादी आलोचकों और सौन्दर्यशास्त्रियों ने इस समस्या पर विचार किया है। टेरी ईगलटन की राय है कि हमारे (यूरोपीय मनुष्य की) अस्तित्व की परिस्थितियाँ यूनानी परिस्थितियों से एकदम भिन्न नहीं हैं, क्योंकि हम एक ही इतिहास को जीते हैं। एक दूसरे विचारक लिफ्शित्ज़ के अनुसार यूनानी कलाएँ एक आदर्श की अभिव्यक्ति करती हैं, क्योंकि यूनानी समाज स्वतन्त्र समाज था और वे कलाएँ मानवता के सार को व्यक्त करती हैं। एक और विचारक हैस ने लिखा है कि यद्यपि कला एक काल और समाज में पैदा होती है, लेकिन उसे परवर्ती काल और समाज में पुनः खोजा और पाया जा सकता है। अन्‍र्स्‍ट फिशर का विचार है कि कला का यह स्वभाव ही है कि अपने मूल से मुक्त होकर भिन्न समय और समाज के साथ संवाद स्थापित कर सके।

 

कालजयी कृतियों के सन्दर्भ में यह भी विचारणीय है कि वे समाज की किस अवस्था में पैदा होती हैं, शान्ति के समय, या संकट के समय, या संक्रान्ति के समय। भारतीय साहित्य का इतिहास यह साबित करता है कि कालजयी कृतियाँ तीनों समयों में पैदा हो सकती हैं, बशर्ते कि रचनाकार अपने समय और समाज की बुनियादी वास्तविकताओं और आकांक्षाओं को समझता हो। कालिदास का अभिज्ञान शाकुन्तलम नाटक शान्ति के समय पैदा हुआ था, तो भक्ति-काव्य संक्रान्ति के समय और गोदान  तथा कामायनी जैसी कृतियाँ भारतीय समाज के संकट के समय पैदा हुई थीं। जो कृति अपने रचनाकाल के बाद के समाज की आकांक्षा के क्षितिज को छूती है, वही कालजयी होती है। जो कृति, चाहे वह किसी रूप में लिखी गई हो, अनिवार्य और अपरिहार्य हो और जिसकी उपेक्षा सम्भव न हो, वही कालजयी होती है। प्रत्येक कालजयी रचना कालजीवी भी होती है। कालजीवी होने का अर्थ है अपने समय और समाज के सच को सम्पूर्णता में समझने और व्यक्त करने वाली।

  1. निष्कर्ष

 

कालजयीपन की अवधारणा बहुत व्यापक है। वह केवल साहित्य और उसके इतिहास तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कला तथा ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न रूपों में समाहित है। चाहे वह शिल्पकला हो, मूर्तिकला हो, चित्रकला हो, या फिर समाज व राजनीति से जुड़े ग्रन्थ। अजन्ता की शिल्पकारी, पिकासो की पेण्टिग, वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, होमर, प्लेटो, अरस्तू आदि के ग्रन्थ इसके उदाहरण हैं। यह कालजयीपन की अवधारणा इतिहास के हर कालखण्ड में सार्थकता ग्रहण करती रही है। साहित्य और कला के कालजयीपन के मानदण्डों को भी उपर्युक्त भारतीय तथा विदेशी चिन्तकों या आलोचकों ने समय-समय पर व्याख्यायित किया है। यह धारणा विकसित की गई कि वही कृति कालजयी मानी जाएगी जो किसी समाज, सभ्यता, संस्कृति और अस्मिता का निर्माण करने, पहचानने और समझने में मदद करती हो। साहित्य और कला के  कालजयीपन के प्रतिमानों के निर्माण का वर्गीय चरित्र भी है। प्रायः यह देखा गया कि साहित्य की श्रेष्ठता के मानदण्डो का निर्माण प्रभुत्वशाली वर्ग और उसकी विचारधारा के पोषक विद्वान ही करते हैं, जैसा कि हिन्दी नवरत्‍न के लेखक तथा रीतिकाल के प्रशंसक मिश्रबन्धुओं ने नौ में से पाँच कवि रीतिकाल से रखे। यह बात सबको पता है कि अधिकतर रीतिकालीन कवि राजाश्रयी कवि थे। अंग्रेजी में कालजयी को क्लासिक कहा जाता है। टी. एस. इलियट तथा कई अन्य यूरोपीय आलोचकों ने लम्बे समय से इस क्लासिक्स पर विचार किया है। इलियट ने कालजयीपन के सन्दर्भ में महान कवियों और लेखकों की चर्चा को अपर्याप्त बताया और साधारण कवियों की भूमिका पर बल दिया। वे कालजयीपन को ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखते हैं, और परिपक्‍वता को पहली शर्त मानते हैं, जो कृतियों में व्यापकता का प्रतिपादक है। इसके साथ ही उन्होंने कालजयी कृतियों की सापेक्ष और निरपेक्ष दो कोटियाँ भी बताईं। कार्ल मार्क्स ने कला के विकास से समाज के विकास के असमान सम्बन्ध का तुलानात्मक विश्‍लेषण करते हुए कला व साहित्य के कालजयीपन पर विचार किया। यूनानी महाकाव्यों के प्रसंग में उन्होंने कहा कि यह समझना  मुश्किल नहीं है कि कैसे यूनानी कला और यूनानी महाकाव्य यूनान के सामाजिक विकास की विशेष अवस्था और विशेष रूपों से जुड़े हैं। यूरोपीय विचारक हैस ने लिखा की यद्यपि कला एक काल और समाज में पैदा होती है लेकिन उसे परवर्तीकाल के समाज में पुनः खोजा और पाया जा सकता है। इस प्रकार समाज की किसी भी अवस्था में कालजयी कृतियाँ पैदा हो सकती हैं, बशर्ते कि रचनाकार अपने समय और समाज की बुनियादी वास्तविक्ताओं और आकांक्षाओं को समझता हो।

 

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वेब लिंक्स

  1. http://www.ancient-literature.com/
  2. http://www.britannica.com/art/classical-literature
  3. http://www.jstor.org/stable/468585?seq=2#page_scan_tab_contents
  4. https://jhupbooks.press.jhu.edu/content/literary-history-possible