18 रूसी रूपवाद और साहित्येतिहास दृष्टि

डॉ. गजेन्द्र कुमार पाठक पाठक

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन से आप

  • रूसी रूपवाद से परिचित हो सकेंगे।
  • रूसी रूपवाद की विभिन्‍न धाराओं से परिचित हो पाएँगे।
  • साहित्य के विश्‍लेषण में रूसी रूपवाद पद्धति को समझ सकेंगे।
  • साहित्येतिहास के प्रति रूपवादियों की दृष्टि से परिचित हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

साहित्य जगत में कलावाद समय-समय पर अलग-अलग रूप में प्रकट होता है। कलावाद का एक ऐसा ही रूप रूपवाद के रूप में सन् 1910 से लेकर सन् 1930 तक रूस में प्रकट हुआ। रूस में प्रकट होने की वजह से इसे रूसी रूपवाद के रूप में भी जाना जाता है। रूसी रूपवाद पर विक्टर श्क्लोवस्की, बोरिस ईकेनबाम, रोमन याकोब्सन, यूरी तिन्यानोव, गोकोवस्की के चिन्तन और लेखन का व्यापक प्रभाव पड़ा। रूसी रूपवाद ने काव्य-भाषा और साहित्य की स्वायत्तता का प्रश्‍न उठाकर कलावाद की बहस को अपनी तरफ से आगे बढ़ाने का काम किया।

  1. रूसी रूपवाद की पृष्ठभूमि

 

विक्टर श्क्लोवस्की का जन्म सेट पीट्सबर्ग (सन् 1893) में हुआ था। उन्होंने प्रथम विश्‍व-युद्ध में रूसी सेना में एक स्वयंसेवी के रूप में काम किया था। सन् 1916 में उन्होंने वहीं पर OPOJAZ (Obshchestvo izucheniya poeticheskogo Yazyka – Society for the study of poetic language) की बुनियाद रखी जिसने सन् 1915 में मास्को में फिलिप फोर्तुनातोव द्वारा स्थापित मास्को लिंग्विस्टिक सर्किल की सहयोगी संस्था के रूप में रूपवाद की वैचारिक और व्यवहारिक जमीन तैयार की। हालाँकि इस ‘लिंग्विस्टिक सर्किल’ में बाद में (सन् 1924 तक) रोमन याकोब्सन, ग्रिगोरी वैंकुवर, बोरिस तोम्शचोवास्की और पीटर बोगात्य्रेव क्रमशः जुड़ते चले गए।

 

विशुद्ध सौन्दर्यशास्त्रीय अनुभव पर बल देने वाले रूपवादी दृष्टिकोण ने लगभग सभी क्षेत्रों में आधुनिक कला-रूपों को अत्याधिक प्रभावित किया। इस आन्दोलन का दूसरा बड़ा केन्द्र चेकोस्लोवाकिया बना। यहाँ प्राग लिंग्विस्टिक सर्किल के सदस्यों ने इस आन्दोलन को आगे बढाया। रोमन याकोब्सन (जो रूस से ही इस आन्दोलन से जुड़े हुए थे) के अलावा रेनेवेलेक और यान मुकरोवस्की की भूमिका प्रमुख थी। यह रूस के बाहर रूसी रूपवाद के प्रचार-प्रसार का एक और बड़ा माध्यम सिद्ध हुआ। रूस से आए हुए रोमन याकोब्सन, निकोलाई त्राचासकी और मशहूर चेक साहित्यिक चिन्तक रेनेवेलेक जैसे लोग इसके संस्थापकों में से थे। इस समूह ने एक पत्रिका भी निकाली थी- Travaux du cercle linguistique Prague बाद में द्वितीय विश्‍व-युद्ध के समय यह पत्रिका बन्द हो गई। भाषा विज्ञान और लक्षण विज्ञान के विकास में प्राग स्कूल की ऐतिहासिक भूमिका रही है।

 

‘रूपवाद’ शब्द का पहला प्रयोग रूपवादी आन्दोलन के विरोधियों ने किया था, जिसे रूपवादियों ने पसन्द नहीं किया। प्रमुख रूपवादी आलोचक बोरिस आइसेनबाम ने लिखा कि यह कहना तो मुश्किल है कि रूपवाद शब्द का पहला प्रयोग किसने किया, लेकिन जिसने भी किया हो, यह शब्द society for the study of poetic language की गतिविधियों को कमतर आँकने का एक तरह से प्रयास था। जो भी हो यह शब्द रूसीरूपवाद के रूप में प्रचलित हुआ, और यह लगभग उसी तरह से है जिस तरह से हिन्दी में प्रयोगवादी काव्य-आन्दोलन से जुड़े हुए लोगों द्वारा इस नाम को खारिज करने के तमाम प्रयासों के बावजूद चर्चित, प्रचलित और लोकप्रिय हो गया। हमें इस नामकरण पर नहीं बल्कि उस चिन्ता और चेतना को समझने का प्रयास करना है, जो रूसी-रूपवाद के रूप में जाना जाता है।

  1. रूपवाद की प्रमुख धाराएँ

 

1. यान्त्रिक रूपवाद

2. जैविक रूपवाद

3. सर्वांगी रूपवाद

4. भाषायी रूपवाद

 

1. यान्त्रिक रूपवाद

 

 विक्टर श्क्लोवस्की द्वारा सन् 1916 में स्थापित OPOJAZ मूल रूप से साहित्य के औपचारिक तकनीक और उपकरणों (Techinia and device) पर केन्द्रित था। इस प्रविधि द्वारा साहित्यिक कृति मूल रूप से मानवीय गतिविधि का सचेतन परिणाम थी। वह ऐसी कुशल कला थी, जो कच्‍ची सामग्री को जटिल यान्त्रिकता द्वारा विशेष उद्देश्य के लिए अपनी तरह से रुपान्तरित कर देती थी। साहित्य-सृजन की यह यान्त्रिकता साहित्यिक कलाकृति को उसके लेखक, पाठक और उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से अलग मानती थी। विक्टर श्क्लोवस्की ने अपने एक लेख ‘आर्ट एण्ड डिवाइस (सन् 1916) में कला सम्बन्धी अपनी इस मान्यता को स्पष्ट किया था और इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि ‘कला साहित्यिक और कलात्मक उपकरणों का योगफल है जिसका कलाकार अपने शिल्प के लिए कुशलतापूर्वक प्रयोग करता है।’

 

श्क्लोवस्की का मुख्य उद्देश्य रूस में उस समय प्रचलित साहित्य की अवधारणा और साहित्यिक आलोचना की मूल मान्यताओं को प्रश्‍नांकित करना था। जिस साहित्य को उस समय रूस में सामाजिक और राजनीतिक उत्पाद के रूप में देखा जा रहा था और उसे सामाजिक और राजनितिक इतिहास का अविच्छिन्‍न हिस्सा माना जाता था, उसे एक विशुद्ध कलाकृति के रूप में देखने की जिद श्क्लोवस्की को समकालीन साहित्यिक संसार में एक अलग छवि प्रदान करती है। आशय यह कि साहित्यिक-आलोचना में जब पूरा जोर समाज, राजनीति और इतिहास पर था, तब श्क्लोवस्की ने काव्य-भाषा का सवाल उठा कर अपनी तरह से एक नया हस्तक्षेप किया। साहित्य चूँकि भाषा के भीतर होता है, इसलिए भाषा पर समकालीन उदासी या उपेक्षा निश्‍च‍ित रूप से चिन्तनीय थी।श्क्लोवस्कीका स्पष्ट रूप से मानना था कि कला हमेशा जिन्दगी से मुक्त होती है। इसका ध्वज शहर की चारदीवारी पर फहराते हुए झण्डे के रंग को प्रतिबिम्बित नहीं करता।उसका निश्‍च‍ित मत था कि कला रूपों का विवेचन कला नियमों द्वारा ही होना चाहिए।

 

‘कथानक और शैली’ शीर्षक लेख में श्क्लोवस्की ने लिखा– ‘जो कला रूढ़ ढंग से चुनी हुई सामग्री का उपयोग करती है और रूढ़ ढंग से ही उसका बदल-बदल कर गठन करती है, वह न तो सम्पूर्ण कला है और न उसका अधिकतर भाग ही (साहित्य और सौन्दर्यशास्‍त्र)।’

 

साहित्य को एक उपकरण के रूप में देखने के प्रति OPOJAZ के सभी सदस्य एक मत नहीं थे।हालाँकि समग्र रूप से वे काव्य-भाषा को एक यान्त्रिक रूप में देखने की कोशिश करते थे। जिसमें सारा जोर आवरण पर रहता था और यह समझने की कोशिश नहीं होती थी कि भाषायी संसार मनुष्य के मनोविज्ञान और उसके दर्शन, चिन्तन, राजनीति, इतिहास आदि से भी जुड़ा हुआ है और उसे बनाने बिगाड़ने में इन सारी जटिल स्थितियों-परिस्थितियों की भी भूमिका होती है।

 

जैविक रूपवाद

 

यान्त्रिक रूपवाद की कठिनाइयों और उसकी सीमाओं को महसूस करते हुए कुछ रूसी रूपवादियों ने जैविक रूपवाद की बात शुरू की। उन्होंने जैविक शरीर और साहित्यिक परिघटना के बीच एकसूत्रता की तलाश की और यह दिखाने की कोशिश की कि एक आदमी के काम करने के तरीके लगभग वैसे ही होते हैं जैसे साहित्य के विभिन्‍न अनुशासन। जीव विज्ञान और साहित्य सिद्धान्त के बीच सूत्रों की तलाश करते हुए ब्लादिमीर पोप ने सन् 1928 में मोर्फोलोजी ऑफ द फ़ॉक टेल नामक एक किताब लिखी थी जो जैविक रूपवादी सिद्धान्त का उत्कृष्ट उदाहरण है।यान्त्रिकरूपवाद की मान्यताओं पर रूसीरूपवाद के भीतर ही जो सवाल खड़े होने शुरू हुए थे, उसका भी यह कार्य एक उत्कृष्ट उदाहरण है। हर आन्दोलन की सीमा की पहचान उसके भीतर से शुरू हो जाती है। इस बात का भी प्रमाण जैविक रूपवाद के सिद्धान्तकारों के काम में पर्याप्त रूप से मिलता है। हालाँकि जैविक रूपवादियों ने भी यान्त्रिकरूपवादियों की तरह यह समझने की कोशिश नहीं की कि साहित्यिक परिवर्तन केवल कला के उपकरणों को ही प्रभावित नहीं करते बल्कि विधाओं को भी प्रभावित करते हैं।

 

 सर्वांगी रूपवाद

 

सर्वांगी रूपवाद के सिद्धान्तकार यूरी व्यानियानोव थे। साहित्य उद्भव की अवधारणा के प्रसंग में उन्होंने साहित्य के विभिन्‍न उपकरणों के बीच द्वन्द्व की स्थिति का अनुभव किया था। साहित्य के विभिन्‍न उपकरणों के बीच द्वन्द्व का यही खेल साहित्य संसार में परिवर्तन का सबसे बड़ा यन्त्र सिद्ध होता है। यह यूरी व्यनियानोव की मान्यता थी। साहित्य के सर्वांगी रूपवाद के विचारकों की यह भी मान्यता थी कि साहित्य चूँकि संस्कृति व्यवस्था का हिस्सा है, इसलिए साहित्यिक द्वन्द्व, सांस्कृतिक उद्भव का बहुत बड़ा भागीदार है। इसलिए यह मनुष्य की अन्य गतिविधियों, जैसे उसकी भाषाई सम्प्रेषण की क्षमता इत्यादि का एक जरूरी हिस्सा है। कुल मिलाकर देखें तो सर्वांगी रूपवाद, यान्त्रिक रूपवाद और जैविक रूपवाद को एक साथ जोड़कर देखने वाली रूपवादी पद्धति है।

 

भाषाई रूपवाद

 

OPOJAZ के सिद्धान्तकारों ने व्यावहारिक और काव्य-भाषा में अन्तर किया था। व्यावहारिक भाषा वे उस भाषा को मानते थे जो हमारे दैनन्दिन जीवन संचार, सूचना और सम्प्रेषण का माध्यम बनती है। काव्य-भाषा में भाषा का यह व्यावहारिक पक्ष पृष्ठभूमि में चला जाता है और जैसा कि लियो जैकोविन्स्की ने लिखा है कि काव्य-भाषा में भाषा वैज्ञानिक अवयव अपने आप में एक मूल्य बन जाते हैं और ऐसा जब होता है तब भाषा अपरिचित हो जाती है और कथन काव्य बन जाता है। भाषायी रूपवाद के अन्तर्गत माना जाता है कि कविता अपने में  भाषिक संरचना ही होती है। पाठक पर प्रभाव इसी संरचना का पड़ता है। श्क्लोवस्की का कहना था कि कला का केन्द्रवर्ती बिन्दु अजनबी बनाने में’ में है, यथार्थ का रूप परिवर्तन करने में है, पहचानी हुई चीज पर अनचीह्नेपन का रंग चढ़ाने में है। उसकी स्पष्ट मान्यता थी कि साहित्यिक भाषा को अजनबी होना चाहिए और महान स्तर की साहित्यिक भाषा अजनबी ही होती है।

 

रूपवादी भाषा पर जोर देते हैं, क्योंकि साहित्य की भाषा सामान्य से कहीं उदात्त होती है। कविता में शब्द विचारों का वाहक मात्र नहीं होता है, बल्कि अपने आप में वस्तु है और स्वायत्त इकाईभी है।रूपवाद में यथार्थ के प्रति कवि का दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि भाषा के प्रति उसके दृष्टिकोण का महत्त्व है। क्योंकि वह पाठक को जागरूक बनाकर भाषा की संरचना देखने में मदद करता है। कविता सामन्य भाषा को निरूपित करती है, उसे विलक्षण बनाती है।रूपवादी सिद्धान्तकारों के अनुसार साहित्य एक प्रकार की भाषिक संरचना है जो अपने आप में स्वायत्त, आन्तरिक संगति से पूर्ण और आत्मानुशासित है, और अन्ततः संरचनात्मक भाषिक और नृतत्व शास्‍त्र से सम्बद्ध हो जाती है। हर वैयक्तिक कृति वाक् है। जो मूल भाषा से बँधी हुई है और दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।

 

भाषा सम्बन्धी चिन्ता भारतीय काव्य-शास्‍त्र में भी कुछ भिन्‍न रूप में दिखाई पड़ती है। भारतीय काव्यशास्‍त्र के रीति और वक्रोक्ति सम्प्रदाय भाषा और रूप से सम्बन्धित सम्प्रदाय की तरह है। इतना जरूर कहा जा सकता है कि जहाँ रूपवादियों का सारा जोर भाषा और संरचना पर ही दिखाई देता है, वहीं रीति और वक्रोक्ति सम्प्रदाय के आचार्यों का भाषा और रूप पर जोर होते हुए भी यही लक्ष्य नहीं था। अधिकांश भारतीय काव्यशास्‍त्रि‍यों की तरह उनका मुख्य लक्ष्य काव्य-सौन्दर्य और लालित्य को उद्घाटित करना था। जहाँ तक साहित्य के इतिहास का सम्बन्ध है, रूपवादी समीक्षकों की दृष्टि में वह रूपों के परिवर्तन का इतिहास है। रूपवादियों का ध्यान किसी साहित्यिक कृति के भाषा वैज्ञानिक विश्‍लेषण तक ही सीमित था। इस सन्दर्भ में विक्टर श्क्लोवस्की का मशहूर निबन्ध कथानक और शैली देखा जा सकता है जिसमें उन्होंने उन्‍नीसवीं सदी के अन्त की कहानियों को केन्द्र में रखकर उनका विश्‍लेषण किया है। अपनी मशहूर किताब A post script to the discussion on grammar of poetry में याकोब्सन ने काव्यशास्‍त्र, भाषाविज्ञान और कविता के आन्तरिक सम्बन्धों के बीच शब्द-विन्यास को लेकर जो विश्‍लेषण किया है, इस सन्दर्भ में दृष्टव्य है।

 

रूपवादियों की दृष्टि में साहित्य और इतिहास

 

रोमन याकोब्सन ने साहित्य को सामान्य भाषा के ऊपर एक व्यवस्थित हिंसा के रूप में देखा है। बिम्ब, लय और छन्द का उपयोग साहित्य को सामान्य भाषा से अलग करने के लिए किया जाता है। सामान्य भाषा से दूरी बनाने का यह प्रक्रम रूपवादियों के लिए एक प्रिय विषय है। सामान्य जीवन के ऊपर भाषा की यह कलाकारी उनके चिन्तन का विषय बनती है और वे उपन्यास लेखन और किसी सामान्य पत्रिका के लेखन के बीच अन्तर को भी पहचानने की भी कोशिश करते हैं। टेरी इगलटन ने साहित्य क्या है ? के अन्तर्गत रूपवादियों की साहित्य दृष्टि के बारे में लिखा है कि – ‘In the routine of everyday speech our perception of and responses to reality becomes stale, blunted and as the formalists would say automatized. By forcing us into a dramatic awareness of language, literature refreshes their habitual responses and renders objects more perceptible.’

 

रूसी रूपवादियों की इतिहास दृष्टि पर विचार करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने अपनी पुस्तक साहित्य और इतिहास-दृष्टि में लिखा कि “रूस के रूपवादियों ने साहित्य के इतिहास की आवश्यकता का अनुभव किया था क्योंकि वे साहित्य को एक गतिशील प्रक्रिया मानते थे। लेकिन उनके लिए साहित्य के इतिहास का अर्थ साहित्यिक कृतियों की साहित्यिकता का इतिहास था और साहित्यिकता साहित्यिक कृतियों के रूप-तत्त्व में निहित या अभिव्यक्त होती थी। रूस की समाजवादी क्रान्ति के बाद वहाँ के बुद्धिजीवियों के सामने एक समस्या अपने अतीत के प्रति अपनाए जाने वाले दृष्टियों की थी। रूसी रूपवादी भी इस चिन्ता से मुक्त नहीं थे। उन्होंने साहित्य रूप या कला रूप की विकास प्रक्रिया के अन्तर्गत नए और पुराने के सम्बन्ध रूप में इतिहास को समझने का प्रयास किया। उनका यह विचार भी था कि नया कला-रूप नया वस्तु-बोध निर्मित करता है। सन् 1922 में तिन्यानोव ने यह घोषणा की थी कि साहित्य की परम्परा में कोई कृति स्वतन्त्र और अकेली नहीं होती उसका अर्थ सन्दर्भ से युक्त होता है। रूसी रूपवादी साहित्य-चिन्तन में परम्परा की ऐतहासिक गतिशीलता का बोध था।”

 

रूसी रूपवाद का विरोध

 

इस आन्दोलन के विरोध की ध्वनियाँ महान रूसी साहित्यकार लियो टॉलस्टॉय की रचना व्हाई इज आर्ट और अमेरिकी प्रैगमिटिज्म के प्रमुख प्रवक्ता जॉन डीवी की कृति आर्ट ऐज़ एक्सपीरियंस में सुनाई पड़ी। टॉलस्टॉय का तर्क था कि जो कला मनुष्यों के बीच नैतिक अनुभूतियों का सम्प्रेषण नहीं कर सकती, वह रूपवादी कसौटियों के हिसाब से कितनी भी महान क्यों न हो, उसकी सराहना नहीं की जा सकती। टॉलस्टॉय के अलावा कई अन्य सोवियत लेखकों एवं कलाकारों के तीखे विरोध का सामना रूपवादी आन्दोलन को करना पड़ रहा था। सोवियतों के विरोध के कारण रूपवादी आन्दोलन को अपना केन्द्र रूस से बदलना पड़ा।

 

निष्कर्ष

 

रूसी रूपवाद एकरूपी और एकरैखिक आन्दोलन नहीं था। इसमें अलग-अलग मत रखने वाले सिद्धान्तकार शामिल थे, जो वाद-विवाद और संवाद की संस्कृति से परिचित थे। काव्य-भाषा और व्यावहारिक-भाषा को लेकर उन्होंने ऐतिहासिक और साहित्यिक सन्दर्भ में जिस बहस की शुरुआत की थी उसे वे एक तार्किक परिणति तक पहुँचने की क्षमता रखते थे। उनकी इसी क्षमता से कायल होकर उनके धुर विरोधी आलोचक एफ़ी मोव (yefi mov) ने लिखा था कि “रूसी रूपवादियों का मूल योगदान इस बात में निहित है कि उन्होंने साहित्यिक कार्य-सम्बन्धी हमारी अवधारणा को कई टुकड़ों में बाँटकर देखने की पद्धति का विकास किया। जिस काव्यशास्‍त्र को एक धुँधली छवि के रूप में पेश किया जाता था, उसे उन्होंने एक वैज्ञानिक विश्‍लेषण के जरिए, अपनी साहित्यिक प्रतिभा के बल पर एक ठोस समस्या के रूप में दिखाया।”

 

इसी रूसीरूपवाद ने आगे चलकर प्राग स्कूल द्वारा संरचनावाद का आधार तैयार किया, जिसका विकास सन् 1960-70 के दशक में फ्रांसीसी संरचनावाद के रूप में हुआ। इस तरह रूसी-रूपवाद केवल ऐतिहासिक जिज्ञासा तक सिमटा हुआ कोई साहित्यिक आन्दोलन नहीं है, बल्कि उसकी सजीव उपस्थिति हम अपने दौर में भी महसूस कर सकते हैं।

 

यह जानना भी कितना दिलचस्प है कि एक ही समय में विकसित हुए अपने समय के दो मशहूर साहित्यिक आन्दोलन रूसी-रूपवाद और नई समीक्षा ऐतिहासिक रूप से एक दूसरे से बिल्कुल अलग हैं। इसके बावजूद यह भी कितना दिलचस्प है कि दोनों साहित्य को अपनी शर्तों पर देखने की प्रविधि का विस्तार करते हैं और साहित्य के राजनीतिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक सन्दर्भ से दूर हटकर उसके अपने उपकरणों और शिल्प की बात करते हैं।

 

रूसी-रूपवाद के विरोधी आलोचक लीओन ट्राटस्की ने साहित्य और क्रान्ति  सन् 1924 में साहित्य के प्रति रूपवादियों के दृष्टिकोण का घनघोर विरोध किया था। इसके बावजूद उन्होंने यह स्वीकार किया था कि “रूपवादी विश्‍लेषण आवश्यक है, लेकिन अधूरा है। चूँकि यह उस सामाजिक संसार की उपेक्षा करता है, जिसमें मनुष्य लिखता और पढ़ता है।” ट्राटस्की की मान्यता थी कि “वे कलाकार जो साहित्य का यह रूप रचते हैं और वे दर्शक या पाठक जो इसे देखते या पढ़ते हैं, वे कोई मशीन नहीं हैं, बल्कि वे सजीव लोग हैं। जिनका मनोविज्ञान सामाजिक परिस्थितियों की देन है।”

 

सामाजिक संसार की उपेक्षा और अवहेलना के चलते रूसी रूपवादियों के साहित्यिक-सांस्कृतिक विचार को राजनीतिक रूप से प्रतिक्रियावादी माना गया। जैसा कि ट्राटस्की ने श्क्लोवस्की को उद्धृत किया था कि “कला हमेशा जीवन से मुक्त रही है और इसके रंग उन रंगों से मेल नहीं खाते जो रंग किले के झण्डे पर फहरा रहे हैं।” स्टालिन जब सत्ता में आए तब जाहिर है रूसी-रूपवादियों के लिए अपना सब कुछ समेटने के दिन थे। रूपवाद के रूस से प्राग में स्थान्तरण की यही पृष्ठभूमि थी।

you can view video on रूसी रूपवाद और साहित्येतिहास दृष्टि

 

वेब लिंक्स

  1. https://www.youtube.com/watch?v=11_oVlwfv2M
  2. https://en.wikipedia.org/wiki/Russian_formalism
  3. http://www.newworldencyclopedia.org/entry/Russian_Formalism
  4. http://www.davidlavery.net/Courses/Narratology/JHGTC/Russian%20Formalism.pdf