17 संरचनावादी और उत्तर-संरचनावादी साहित्येतिहास दृष्टि

डॉ. प्रेमशंकर सिंह

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  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन से आप

  • संरचनावाद की संक्षिप्‍त जानकारी प्राप्‍त करेंगे।
  • संरचनावादी इतिहास दृष्टि से परिचित हो सकेंगे ।
  • विखण्डनवाद की अवधारणा समझ पाएँगे।
  • इतिहास के साथ इन चिन्तनधाराओं के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध जान पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

रूसी रूपवादियों ने साहित्य को देखने-परखने की एक नई दृष्टि विकसित की। उन्होंनेरचना को रचनाकार या परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य से पृथक करके देखने-परखने की शुरुआत की। रूपवादियों ने पाठ को रचनाकार और परिस्थिति से अलग कर ‘पाठ’ की अवधारणा के जो बीज रखे, बाद में वे संरचनावाद और उत्तर संरचनावाद के बुनियादी और निर्णायक पद बने।

  1. संरचनावादी इतिहास दृष्टि

सस्यूर को संरचनावाद का प्रवर्तक माना जाता है, उन्होंने भाषा के विश्‍लेषण के जरिए संरचनावाद की नींव रखी। सस्यूर मानते हैं कि शब्दों के अर्थ बाहरी दुनिया की चीजों, यानी वस्तुओं के सन्दर्भ से निर्धारित नहीं होते, बल्कि ये संकेतों के जरिए निर्धारित होते हैं। इसे साफ करने के लिए संकेतों को भी दो हिस्सों– संकेतक और संकेतित में तोड़ देते हैं। एक हिस्सा जो पन्‍ने पर लिखा जाता है जिसे वे सिग्‍नीफायर यानी संकेतक कहते हैं। जबकि दूसरे हिस्से को वे संकेतित यानी सिग्‍नीफाइड मान लेते हैं। सिग्‍नीफायर वाला हिस्सा पन्‍ने पर रहता है जबकि सिग्‍नीफाइड हमारे मस्तिष्क में तस्वीर बनाता है। ये कुछ इस तरह है जैसे आपने पन्‍ने पर ‘जाल’ लिखा। ये संकेतक यानी सिग्‍नीफायर है और ‘जाल’ की जो तस्वीर हमारे मस्तिष्क में बनी, वह सिग्‍नीफाइड है। सस्यूर मानते हैं कि यह सिर्फ इस रूप में अर्थवान है कि यह माल, डाल, खाल, नाल जैसे संकेतकों से अलग दिखता है। अब यहाँ वे पन्‍ने पर लिखे शब्द को मस्तिष्क में उभरी तस्वीर से अलग करते हैं। सस्यूर का मानना था कि सिग्‍नीफायर (संकेतक) और सिग्‍नीफाइड (संकेतित) में यादृच्छिक सम्बन्ध होता है, जिसे किसी तर्क से नहीं समझा जा सकता। वे मानते थे कि इसका कोई तर्क नहीं है कि क्यों क, म, ल, जैसे चिह्न इसी क्रम में एक खास फूल का निरूपक है। इनके बीच का सम्बन्ध किसी अन्तर्निहित तर्क के चलते नहीं है बल्कि सांस्कृतिक-ऐतिहासिक रिवाज के कारण है। भाषिक तन्त्र में हर संकेत चिह्न का अर्थ उसके भीतर निहित नहीं होता बल्कि दूसरे संकेत चिह्नों से उसकी भिन्‍नता से उत्पन्‍न होता है। यानी कमल का अपने आप में कोई अर्थ नहीं। उसका अर्थ इस बात से पैदा होता है कि वह ‘कमर’ या ‘विमल’ नहीं है। सस्यूर साफ तौर पर कहते हैं कि भाषा की व्यवस्था में केवल भिन्‍नताओं का अस्तित्व है। उनका मानना था कि प्रत्येक शब्द अपने बाइनरी अपोजिशन (परस्पर विलोम) के कारण अर्थवान होता है, जिससे उनका तात्पर्य ‘अन्यता’ की धारणा से था। जैसे स्‍त्री-पुरुष, काला-गोरा आदि। किसी भाषायी रूप में अर्थ देने के लिए उन्हें खास क्रम में पिरो दिया जाता है।

भाषा अगर संकेत तन्त्र है तो उसका अध्ययन समकालिक (synchronic) होना चाहिए न कि उसके ऐतिहासिक विकास क्रम (Diachronic) में। मान्यताओं की इस बुनावट में कोई खास संकेत अपनी जगह पर चिपक जाता है, फिर जाकर वह पूरे वाक्य की संरचना में अपना कोई अर्थ देता है। लेकिन सस्यूर ने भाषा के इस अध्ययन के लिए एक शर्त बना ली थी। शर्त यह थी कि इसकी संरचना स्थिर रहती है। वे भाषा के ऐतिहासिक विकास की अवधारणा से दूर रहते हैं। सस्यूर बोलचाल वाली भाषा को जगह नहीं देते। वे केवल उसी भाषा को वैज्ञानिक नजरिए से विश्‍लेषण के योग्य मानते थे, जिसमें संकेत नजर आए।

 

आगे चलकर संरचनावाद के मूल सिद्धान्त को विस्तारित किया गया। इस सिद्धान्त को भाषाशास्‍त्र से बाहर के समाज विज्ञान में लागू किया गया। ‘विक्टर श्क्लोवस्की और बी. एम. आईकेन बाम ने सन् 1920 के आसपास साहित्य में रूपवाद की स्थापना की और इस रूपवाद के समानान्तर ही एम.एम. बारावालिन तथा वी.या. प्राप आदि ने साहित्य और लोककथाओं के विवेचन में संरचनात्मक विश्‍लेषण पद्धति का विकास किया। रूस के इन संरचनावादियों के साहित्य चिन्तन में रूपात्मक विश्‍लेषण, ऐतिहासिक विश्‍लेषण का अंग था, उसमें दोनों का समन्वय था।

 

माना जाता है कि संरचनावाद को भाषा विज्ञान से साहित्य के क्षेत्र में रोमन याकोब्सन के द्वारा प्रतिष्ठित किया गया। रूस के रूपवादी आन्दोलन से जुड़े यकोब्सन ने सन् 1920 के आसपास प्राग में यान मुकारोवस्की के साथ मिलकर संरचनावादी काव्यशास्‍त्र का विकास किया। उनका कथन है कि ‘साहित्यिक अध्ययन का विषय साहित्य नहीं वरन साहित्यिकता की वे विशेषताएँ हैं जिनसे कलाकृति साहित्य बनती है।’ याकोब्सन ने स्पष्ट किया कि कविता की भाषा का सौन्दर्यपरक तत्त्व उसके सम्प्रेषण तत्त्व को पराभूत कर देता है। सामान्य भाषा में शब्द बहिर्जगत से अपने सन्दर्भ में पहचाना जाता है, जबकि काव्यभाषा में यह सन्दर्भ अवलम्बित हो जाता है और शब्द अर्थ से अर्थ पैदा करने की एक अन्तहीन क्रीड़ा में सहभागी बन जाता है। कविता में अर्थोत्पत्ति की यह प्रक्रिया भाषा के दैनन्दिन प्रयोग की एकरूपता और सपाटपन से अलग है।

 

फ्रांसीसी संरचनावाद के संस्थापक क्लाउद लेवी स्‍त्रॉस (सन् 1960) पहले दार्शनिक और मानवशास्‍त्री थे,जिन्होंने संरचनावाद का इस्तेमाल संस्कृतियों के अध्ययन में किया। वे संस्कृतियों की संरचना में, मिथकों के अध्ययन में संरचनावाद को लागू करते हुए कहते हैं कि हर मिथक भी छोटे मिथकीय हिस्सों से निर्मित है। इन हिस्सों को उन्होंने ‘Mytheme’ नाम दिया। भाषा की तरह ये भी अपनी जगह की वजह से अर्थ देते हैं। लेवी स्‍त्रॉस मानते थे कि मिथकों की संरचनाएँ मनुष्य की मानसिक संरचना से मेल खाती हैं। लेकिन वे इस बात के कायल थे कि मनुष्य के दिमाग में मिथक बनने से पहले मिथकों की संरचना मौजूद रहती है। मिथकों के अनुरूप गढ़ी गई संरचना उस कर्ता की चेतना का निर्माण करती है जो इस गफलत में रहता है कि अपनी चेतना और अपनी इच्छा शक्ति का स्रोत वह खुद ही है। मनुष्य मिथक नहीं गढ़ता बल्कि मिथक मनुष्यों को गढ़ते हैं।

 

दरअसलसंरचनावादी समग्रता को अंशों से ज्यादा महत्त्व देते हैं, लेकिन वे एक ओर अंशों के आपसी सम्बन्ध और दूसरी ओर अंशों से समग्रता के सम्बन्ध का विवेचन करते हैं। संरचनावाद का दूसरा आधारभूत सिद्धान्त है ‘समकालिक’ और ‘ऐतिहासिक’ में अन्तर स्थापित करना। उनकी तीसरी मान्यता यह है कि संरचनाएँ सतह के नीचे रहती हैं, इसलिए आलोचना में रचना का गहरा विश्‍लेषण होना चाहिए, ऊपरी विवेचन नहीं।

  1. संरचनावाद और साहित्य

 

प्रत्येक प्रकार के संरचनावादी, संरचना पद्धति की सार्वभौमिकता में विश्‍वास रखते हैं। एल.एस. रोडिएज की पुस्तक ‘बुक्स एब्राड’के हवाले से साहित्य सम्बन्धी संरचनावाद की पाँच मान्यताओं को रेखांकित करते हैं–

  • क.संरचनावादकेअनुसारकिसीकृतिकीसंरचनाओंकेविश्‍लेषणकेमाध्यमसेउसकाअर्थनिश्‍च‍ितकियाजासकताहै।इसप्रक्रियामेंविचारात्मकआग्रहोंकेकारणरचनापरबाहरीअर्थकाआरोपनहींहोता।
  • ख. ऐतिहासिक और जीवनीपरक आलोचना पद्धतियों से उत्पन्‍न मोहभंग की समस्या का समाधान संरचनावादी पद्धति से हो जाता है।
  • ग. ऐसा कोई भी आलोचनात्मक दृष्टिकोण जो पाठ के सन्दर्भ में अभिप्राय या स्रोत की अवहेलना करता है, परोक्षतः संरचनावादी ही है। लेकिन खतरा यह है कि केवल वस्तुतात्त्विक विश्‍लेषण में रचना के बिखर जाने की सम्भावना है, जबकि संरचनावादी पद्धति के प्रत्यक्ष प्रयोग से रचना की एकता और सुसंगति पुनः स्थापित हो जाती है।
  • घ. चूँकि संरचनाओं की अनुभूति न तो सृजनात्मक चेतना को होती है और न आलोचनात्मक चेतना को, बल्कि संरचनाओं से एक बुनियादी ढाँचा निर्मित होता है; इसलिए संरचनात्मक विश्‍लेषण मनोविश्‍लेषण या मार्क्सवाद से प्रभावित वर्गीकरण की पद्धति से मुक्त होता है। संरचनाओं से वस्तुपरक बोधगम्यता का एक सिद्धान्त निर्मित होता है।
  • ङ. संरचनावाद देशकाल की दृष्टि से दूरस्थ रचनाओं के विश्‍लेषण में सर्वाधिक सफल होता है, लेकिन एक आलोचक समकालीन रचना की संरचनात्मक व्याख्या करके उसका नया अर्थ उद्घाटित कर सकता है।

 

इस प्रकार विचारधारात्मक आग्रह से रचना की मुक्ति, रचना के अभिप्राय के प्रति अवहेलनात्मक दृष्टि, और रचना को देश काल से परे रखकर देखने का आग्रह संरचनावादी इतिहास दृष्टि की आधारभूत विशेषताएँ हैं। यहाँ हम यह भी पाते हैं कि शब्द और अर्थ के परम्परागत सम्बन्ध को संरचनावाद ने ध्वस्त कर दिया था। अब संस्कृति को उसकी द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक विकास यात्रा की बजाय एक ऐतिहासिक निर्मिति के बतौर देखा जाने लगा। यहाँ अगर हम समाज के विकास को समझाने की मार्क्सवादी दृष्टि पर नजर डालें तो पता चलेगा कि मार्क्स ने समाज के विकास को समझाने के लिए एक आर्थिक ढाँचा प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि समाज की गति का आधार उसकी आर्थिक गतिविधियाँ होती हैं। जिस तरहसे समाज की आर्थिक गतिविधियाँ विकसित होती हैं, उसी प्रकार समाज के संस्कार भी विकसित होते हैं। किन्तु ये संस्कार आर्थिक गतिविधियों से प्रभावित होते हुए भी उनके अधीन नहीं होते हैं। बल्कि वे उन गतिविधियों पर भी अपना असर डालते हैं। इस प्रकार से संस्कारों और गतिविधियों के बीच की द्वन्द्वात्मकता से समाज की गति बढ़ती है और समाज आगे बढ़ता है। लेकिन संरचनावाद ने गतिविधियों की जगह पर सम्प्रेषण को स्थापित कर दिया। यह बताया कि हमारी सारी आर्थिक और इसी तरह राजनीतिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का मूल आधार सम्प्रेषण है और सम्प्रेषण का मूल आधार भाषा है। जिसे हम सामाजिक यथार्थ, इतिहास बोध, आदि से सम्बन्धित करके देखने के आदी थे, वह दुनिया को एक ख़ास संरचना, संकेत तन्त्रों से अभिव्यक्त करने की कोशिश थी। इसीलिए ऐसा माना गया कि संरचनावाद गहरे अर्थों में अनैतिहासिक था।

  1. संरचनावादी इतिहास दृष्टि की सीमाएँ

 

संरचनावादी विचार प्रणाली और साहित्य सम्बन्धी धारणाओं पर प्रश्‍न खड़ा करते हुए उन कारणों की पड़ताल की जा सकती है, जिसके कारण साहित्येतिहास लेखन के लिए संरचनावाद को विशेष उपयोगी नहीं माना जाता। संक्षेप में वे कारण निम्‍न हैं-

  • क. संरचनावादसेसाहित्य के विश्‍लेषण, साहित्य रूप की मीमांसा और साहित्य की भाषिक संरचना के शैलीवैज्ञानिक विवेचन में मदद मिल सकती है, लेकिन साहित्य के इतिहासबोध में नहीं। संरचनावादी विश्‍लेषणात्मक मीमांसा-विधि इतिहास दर्शन की संश्‍लेषणात्मक विचार प्रक्रिया से मेल नहीं खाती। इतिहासबोध के लिए जिस समाकलनात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, उसका संरचनावादी चिन्तन में अभाव है।
  • ख. संरचनावाद और साहित्येतिहास के विरोध का दूसरा कारण यह है कि संरचनावाद में मूल पाठ और उसके सन्दर्भ के बीच सिद्धान्ततः अन्तराल बना रहता है। संरचनावादी साहित्य चिन्तन में पाठ विश्‍लेषण अधिक महत्त्वपूर्ण है, जबकि साहित्येतिहास के लिए पाठ और उसके सामाजिक सन्दर्भ (सामाजिक, ऐतिहासिक, और कलात्मक) का द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध आवश्यक है। इतिहास की मान्यता यह है कि सन्दर्भ के अनुरूप पाठ के अर्थ में परिवर्तन होता है, लेकिन सन्दर्भ की उपेक्षा करने के कारण पाठ के परिवर्तनशील अर्थ की व्याख्या करने में संरचनावादी सक्षम नहीं होते।
  • ग. इतिहासबोध के लिए कृति, कृतिकार, और पाठक के बीच गतिशील सम्बन्ध की जानकारी जरूरी है। रचना के व्यस्त और निरस्त मूल्य तथा पाठक की मूल्य-चेतना पर रचना में व्यक्त मूल्यों के प्रभाव का आकलन आवश्यक है, जबकि संरचनावाद केवल कृति के वस्तुनिष्ठ, स्वायत्त और निर्वैयक्तिक रूप के विश्‍लेषण तक सीमित रह जाता है, इस तरह संरचनावादी साहित्य चिन्तन में रचना की मूल्य-चेतना और पाठक की मूल्य-चेतना में कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता। संरचानावाद से नैतिक और कलात्मक मूल्यों की विकास परम्परा का भी बोध नहीं होता।
  • घ. इतिहासबोध के लिए साहित्यिक कृति की भाषा और सौन्दर्यबोधीय संरचना का महत्त्व है, लेकिन भाषा और सौन्दर्यबोधीय संरचना से अधिक महत्त्वपूर्ण रचना की वैचारिक और भावात्मक संरचना है। संरचनावाद के लिए रचना केवल शाब्दिक या भाषिक संरचना है, इसलिए रचनाकार के वैचारिक तथा भावात्मक अभिप्राय का विवेचन संरचनावाद के अन्तर्गत नहीं आता।
  • ङ. संरचनावादी साहित्य चिन्तन कलाकृति की स्वायत्तता और संरचनाओं की शाश्‍वत समकालिकता की धारणाओं पर टिका हुआ है। ‘स्वायत्तता’ और शाश्‍वत समकालिकता की धारणाओं का ऐतिहासिकता और सन्दर्भसापेक्षता से स्थायी विरोध है। किसी भी तरह का इतिहास सन्दर्भसापेक्षता, परिवर्तनशीलता और विकासशीलता की उपेक्षा करके जीवित नहीं रह सकता।
  • च. रचना में व्यक्त और निहित अर्थसृजन की प्रक्रिया और पाठक के अर्थ-बोध की प्रक्रिया में रचनाकार तथा पाठक की चेतना और परिवेश का सम्बन्ध इतिहास के लिए अनिवार्य रूप से विचारणीय है, लेकिन संरचनावादी विचारक चेतना और परिवेश के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध को अस्वीकार करते हैं। अर्थ की सर्जना, व्यंजना और बोध की प्रक्रियाएँ केवल भाषिक प्रक्रियाएँनहीं हैं, इन प्रक्रियाओं से जीवन मूल्यों का गहरा सम्बन्ध है। कृति की मूल्यवत्ता जीवन मूल्यों से जुड़ी होती है, केवल भाषिक संरचनाओं से नहीं। साहित्य का इतिहास रचनाओं के मूल्यांकन का भी प्रयत्‍न करता है और इस मूल्यांकन की प्रक्रिया में कृति की मूल्यचेतना तथा समाज की मूल्यचेतना का सम्बन्ध भी विवेचित होता है। संरचनावादी साहित्य चिन्तन मूल्य-मीमांसा को अनावश्यक समझने के कारणकृति के मूल्यांकन में अक्षम सिद्ध होता है।
  • छ. इतिहास कलाकृतियों के स्थायीत्व की प्रकृति का विवेचन करता है और इस स्थायीत्व के विवेचन के माध्यम से ही साहित्य परम्परा के विकास में रचनाओं और रचनाकारों के योगदान का भी मूल्यांकन होता है। कला के स्थायीत्व का कारण केवल कृति की रूपात्मक संरचना की श्रेष्ठता ही नहीं है। स्थायी मानव मूल्यों और अपने युग के सामजिक सम्बन्धों की समग्रता की व्यंजना के कारण ही कोई कृति स्थायी बनती है। संरचनावाद कृतियों की रूपात्मक संरचना पर विचार करता है, लेकिन रचना के सम्प्रेष्य मूल्यों की प्रासंगिकता का विवेचन नहीं करता। इसलिए संरचनावाद साहित्य परम्परा में रूप सम्बन्धी परिवर्तनों तक ही सीमित रहता है, जीवन-मूल्यों के परिवर्तन से रचनात्मक व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों की उपेक्षा करता है।
  • ज. संरचनावाद साहित्यिक कृतियों की संरचनाओं की समकालिकता की खोज करता हुआ रचना की वर्तमानता पर विचार करता है, जबकि साहित्य का इतिहास रचना की ऐतिहसिकता और वर्तमानता के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध का विवेचन करता है।
  • झ. ऐतिहासिक चेतना और कला चेतना के संयोग से ही किसी कृति के सृजन की सम्भावना बनती है। साहित्येतिहास के लिए कृति और कृतिकार की ऐतिहासिक चेतना और कला चेतना केस्वरूप और संयोग प्रक्रिया का विश्‍लेषण आवश्यक है। संरचनावादी साहित्य चिन्तन में इसके लिए भी कोई जगह नहीं है।
  • ञ. साहित्य का इतिहास कालक्रम, रचना स्रोत, रचनाकार का व्यक्तित्त्वऔर पाठक की संवेदना की उपेक्षा करके नहीं चल सकता। वह केवल रचनाओं का कोश नहीं हो सकता। संरचनावादी कालक्रम, स्रोत और रचनाकार के अभिप्रायों के विवेचन को अनावश्यक मानते हैं। संरचनावादी साहित्य-सिद्धान्त अनुसन्धान को नहीं, केवल आलोचना को उपयोगी मानता है। साहित्य का सार्थक इतिहास अनुसन्धान और आलोचना के सम्यक संयोग से लिखा जाता है। इतिहास विवेक केवल तथ्यों तक सीमित नहीं होता। लेकिन वह तथ्यों की उपेक्षा भी नहीं कर सकता।
  1. उत्तर संरचनावादी इतिहास दृष्टि

 

उत्तर संरचानावाद के विकास की स्थितियाँ सस्यूर के भाषा सम्बन्धी चिन्तन की सीमाओं के उजागर होने के साथ ही शुरू हुईं। इसीलिए वे कुछ संरचनावादी ही थे, जिन्होंने बाद में उत्तर संरचनावाद की राह पकड़ी। सातवें दशक के अन्तिम वर्षों में शुरू हुए उत्तर संरचनावादी रुझान में संरचनावाद द्वारा पैदा की गई ‘वैज्ञानिक वस्तुपरक अपेक्षाओं का प्रत्याख्यान’ मिलता है।

 

असल में सस्यूर के भाषा चिन्तन के अनुसार भाषिक तन्त्र में हर संकेत-चिह्न का अर्थ उसके भीतर निहित नहीं होता, बल्कि दूसरे संकेत चिह्नों से उसकी भिन्‍नता से उत्पन्‍न होता है– वह असल में संकेत, संकेतक और संकेतित की साफ-सुथरी एकता पर निर्भर करता है। लेकिन उत्तर संरचनावाद का जोर भाषा के भीतर ‘प्रपंचीकरण’ की प्रक्रिया पर है। आशय यह कि जहाँ संरचनावाद अर्थ को एक संकेतक से दूसरे संकेतक की भिन्‍नता का परिणाम मानता है वहीं उत्तर संरचनावाद अर्थोत्पादन को किसी स्थिर प्रक्रिया का परिणाम मानने से इनकार करता है। सस्यूर ने भाषा के अस्तित्व का आधार ‘रिफरेन्स’ को माना था, जैसे एक शब्द गुलाब किसी ऐसी चीज की ओर इशारा करता है जो इस शब्द से बाहर है। यानी जो गुलाब शब्द है, वह बाग में खिले हुए ‘गुलाब फूल’ को व्यक्त करता है। इसे ही कहा गया कि जो गुलाब शब्द है वह गुलाब की अवधारणा को अभिव्यक्त करता है। लेकिन अगर यह बात सही होती तो एक ही शब्द अलग-अलग सन्दर्भ में, या अलग भाषाओं में अलग अवधारणाओं को क्यों व्यक्त करता? फिर इतनी अधिक भाषाओं की भी जरूरत क्यों होती? यह वह जगह है जहाँ हमें उत्तर संरचनावाद की ओर देखना पड़ता है।

 

उत्तर संरचनावाद के सबसे प्रभावशाली विद्वान जॉक देरिदा ने प्रस्तावित किया कि अर्थ चिह्न में प्रत्यक्षतः उपस्थित नहीं रहता। चूँकि किसी चिह्न का अर्थ इस बात से प्रकट होता है कि वह चिह्न ‘क्या नहीं है’, अतः अर्थ एक तरह से चिह्न में अनुपस्थित भी रहता है। अर्थ ‘संकेतकों’ की एक पूरी शृंखला में बिखरा छितराया रहता है, वह कभी किसी एक चिह्न में उपस्थित नहीं रहता। ‘अर्थ’ किसी चिह्न में उपस्थित और अनुपस्थित की झिलमिलाती लौ की तरह है। दूसरे यह कि भाषा एक कालगत प्रक्रिया है। जब हम किसी वाक्य को पढ़ते हैं तो उसका अर्थ किसी न किसी तरह से स्थगित रहता है, एक ऐसी चीज की तरह जो अभी स्थगित है, और आगे आने वाला है। एक संकेतक हमें दूसरे संकेतक तक पहुँचाता है औरपिछला अर्थ आगे आने वाले अर्थों के आलोक में बदलते चले जाते हैं। वाक्य का तो अन्त हो जाता है, पर इस भाषिक प्रक्रिया का कहीं अन्त नहीं होता… वाक्य में हर एक शब्द पहले आ चुके शब्दों की झलक लिए रहता है और आगे आने वाले शब्दों कीझलक के लिए खुदको खुला रखता है। हरेक संकेत चिह्न तमाम दूसरे संकेत चिह्नों में झिलमिलाती, घूमती-विचरती अर्थ-शृंखला में ही सार्थक है… किसी संकेत चिह्न में उन चिह्नों की भी झलक होती है, जिनसे भिन्‍नता के आधार पर उसका अर्थ ग्रहण किया जाता है।’

 

इस प्रकार संरचनावादी चिन्तन में जो महत्त्व ‘रिफरेंस’ (सन्दर्भ) को प्राप्‍त था उसे उलटकर उत्तर संरचनावाद ने ‘डिफरेंस’ (विभेद) को महत्त्वपूर्ण माना। उदाहरण के तौर पर ‘कमल’ शब्द जिस ‘कमल’ को संकेतित कर रहा है वह ‘कलम’ से उसकी भिन्‍नता के आधार पर ही अर्थ ग्रहण करता है। गोपीचन्द नारंग के अनुसार देरिदाविभेद की संकल्पना को एक संरचना एवं आन्दोलन घोषित करते हैं, जिसकी तीन विशेषताएँ हैं : प्रथम– यह कि उसके अनुसार भाषा के तत्त्वों में विभेद तथा उसके कारण अर्थोत्पत्ति का खेल जारी रहता है। दूसरे यह कि उपस्थित तत्त्व तो अर्थ देते ही हैं अदृश्य तत्त्व भी जिनसे विभेद स्थापित होता है, अर्थोत्पत्ति की प्रक्रिया में अपने अदृष्ट से प्रभावकारी होते हैं। देरिदा अदृष्ट की अवधारणा को झलक कहते हैं। तीसरे यह कि भाषा के प्रभावकारी तत्त्वों के मध्य अन्तराल होता है। लेखन हो या वक्तव्य, इस दूरत्त्व या विराम या मौन की फाँक भी अर्थ के विभेद एवं स्थगन की प्रक्रिया में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

 

‘विभेद’ के अलावा जिस चीज को देरिदा ने अर्थ संरचना के सन्दर्भ में और महत्त्वपूर्ण तरीके से उद्घाटित किया, वह है– ‘उपस्थिति का तत्त्व ज्ञान’। अपनी पुस्तकऑफ ग्रामटोलाजी में देरिदा ने विस्तार से इस पर चर्चा की है कि भाषा यानी टेक्स्ट कैसे अपने अर्थ उद्घाटित करते हैं। ऐसा करने के लिए देरिदा ने पूरी पाश्‍चात्य ज्ञान परम्परा– प्लेटो से लेकर क्लाउद लेवी स्‍त्रॉस, सस्यूर , रोलाँ बार्थका अध्ययन किया और कहा कि पाश्‍चात्य पाठ परम्परा में लिखे हुए शब्द की बोले हुए शब्द पर सत्ता स्थापित की गई है। बोलते हुए वक्ता की उपस्थिति, क्रिया कलाप तथा उसके हाव-भाव से भाषा में एक प्रकार की स्पष्टता आ जाती है। लेकिन लिखित शब्द पढ़ते हुए हम वक्ता से, उसके हाव-भाव से, उसकी उपस्थिति के चलते अर्थ पर पड़ने वाले प्रभाव से अपरिचित ही रहते हैं। इससे उस लिखे हुए में एक प्रकार की भ्रष्टता आ जाती है। उसमें क्रिया की अनुपस्थिति के चलते एक अधूरापन रहता है। वाक् और लिखित के आधार पर ही उन्होंने केन्द्र और हाशिए की अपनी अवधारणा प्रस्तुत की है। इसी आधार पर देरिदा ने बताया कि कौन सी चीजें ‘मेटाफिजिक्स ऑफ प्रेजेंस के चलते केन्द्र में हैं जैसे पुरुष, स्वामी, श्‍वेत, पश्‍च‍िम आदि। इसी तरह अपनी अनुपस्थिति के चलते स्‍त्री, दास कला हाशिए पर है। भाषा की तरह समाज में दो ध्रुव होते हैं, जिन्हें स्पष्ट तौर पर हम केन्द्र और हाशिए के रूप में पहचान सकते हैं।

 

देरिदा ने इस अर्थ विज्ञान के सहारे साहित्य और साहित्येतर के बीच की सीमा रेखा को समाप्‍त कर दिया। उनकी राय में भाषा का कोई बन्द ढाँचा नहीं होता। इस बात को स्थापित करने के लिए पूर्व में बनाई गई संरचना को ढहाना जरूरी था। साथ ही यह भी कि पूर्व के ढाँचे कैसे और कितनी बातों को पाठ के भीतर दबाकर ही अन्य बातों को उभारते हैं। गुलाब का सौन्दर्य उसकी खाद चूसने की प्रवृत्ति को दबाकर उभारा गया है। पाठ से उतना ही बाहर आता है जितना अपेक्षित है, बाकी संरचना पाठ के भीतर ही दबी रहती है। देरिदा ने इस अन्तर को मिटाने हेतु कहा कि जो भी संरचना हमें ज्ञात है, वह सत्ता के पक्ष में बनाई गई है। देरिदा का जोर इस बात पर था कि सारी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक गतिविधियाँ पाठ हैं और इस पाठ में जो संरचनाएँ बनाई गई हैं, वह सत्ता द्वारा संचालित शोषण को जारी रखने के लिए निर्मित की गई हैं। देरिदा ने इस बात पर जोर दिया कि इन संरचनाओं को ढहाकर ही हाशिए को केन्द्र में लाया जा सकता है। लेकिन इस प्रक्रिया में जो संरचना हाशिए की ओर धकेली जाएगी ऐसा नहीं है कि वह अब हाशिए पर ही रहेगी। देरिदा कहते हैं कि हाशिए पर गई चीजें पुनः केन्द्र की चीजों को पछाड़ते हुए केन्द्र में आने का प्रयत्‍न करेंगी और इस प्रक्रिया से ही भाषा में एक क्रीड़ा का जन्म होगा,जिसमें अर्थ की संरचनाएँ बनती और बिगड़ती रहेंगी। इस प्रकार पाठ का सम्पादन बन्द होने के बजाय हरदम खुला हुआ रहेगा। इसे ‘खुला हुआ अन्त’ कहा गया।

 

देरिदा के चिन्तन ने शुद्ध ज्ञान और राजनीतिक ज्ञान के बीच के अन्तर को भी समाप्‍त कर दिया। संरचनाओं की स्थिरता को ढहाकर देरिदा ने पाठक को राजनीतिक चरित्र के रूप में व्याख्यायित किया। असल में अठारहवीं सदी के ज्ञानोदय ने जिस तर्क, ज्ञान और विवेक को स्थापित किया था, देरिदा ने उस पूरी पद्धति की राजनीतिक व्याख्या करते हुए बताया कि उस ज्ञानोदय का पूरा स्वरूप गहरे तौर पर राजनीतिक था और उसमें मनुष्य की राजनीतिक मुक्ति के लिए प्रयत्‍न किया गया था। आज का पाठक उस ज्ञानोदय की मुक्तिकामी चेतना से परिमार्जित होने के कारण अपने सामजिक-राजनीतिक अनुभव के आलोक में ही रचना का पाठ करने के लिए अभिशप्‍त है। अतः शुद्ध या अराजनीतिक ज्ञान सिर्फ छलावा है। इसका सीधा मतलब तो यह हुआ कि पूरी-पाठ प्रक्रिया राजनीतिक होती है। अब साहित्य एकान्त साधना की चीज नहीं रही।

 

अतः यह कहा जा सकता है कि देरिदा ने आधुनिकतावाद को समस्याग्रस्त घोषित करते हुए उसकी सीमाओं को उजागर किया। उनकी विखण्डनवादी दृष्टि से आधुनिकतावादी केन्द्रिकता नष्ट हुई और भाषा तथा उसमें निहित पाठ का बहुलतावादी सन्दर्भ सामने आया। यथार्थ एकांगी नहीं होता। बल्कि कई कई यथार्थ एक बड़े यथार्थ में निहित होते हैं। केन्द्रीय यथार्थ जैसी कोई चीज नहीं रही। अतः पाठ की दुनिया सिवाय एक ‘प्रपंच’ के कुछ नहीं है। प्रपंचीकरण का यह खेल भाषा के भीतर चलता रहता है। आधुनिकतावादी ‘सत्य’की असत्यता इस ‘प्रपंचीकरण’ की प्रक्रिया के बगैर सम्भव न थी। इतिहास, परम्परा, मुक्ति, ज्ञान, विवेक सब खोखले दावे के सिवाय कुछ नहीं। हाशिए के विमर्शों (स्‍त्री, दलित, अल्पसंख्यक आदि) के सन्दर्भ में पूर्व के ‘ज्ञान राशि के संचित कोष’ एक अभाव की ही सृष्टि करते हैं, उसे समझाने की दृष्टि उत्तर संरचानावादी दृष्टि की देन मानी जा सकती है।

 

लेकिन ‘सत्य’ के रहस्योद्घाटन की यह प्रक्रिया किसी अन्य ‘सत्य’ की खोज तक नहीं पहुँचती। या यह भी कहा जा सकता है कि सत्य की खोज उसका अभिप्रेत भी नहीं। उसका समूचा आकर्षण ‘भाषा में निहित प्रपंचीकरण’ तक ही सीमित है। यह इसकी सबसे बड़ी सीमा के रूप में प्रकट हुआ। प्रमुख अमेरिकी विखण्डनवादी डी मान ने सन्1942 के आस-पास एक नाजी अखबार में यहूदियों के कत्लेआम का समर्थन किया था। यह खबर विखण्डनवाद के विरोधियों के हाथ लग गई और उन्होंने देरिदा से इसका स्पष्टीकरण माँगा। देरिदा चाहते तो चुप भी रह सकते थे। पर डी.मान का बचाव करने के लिए देरिदा ने उक्त अखबार में छपे लेख का विखण्डन करके यह साबित करने की चेष्ठा की कि यहूदी विरोधी(नाजी समर्थक) दृष्टिकोण इस पाठ का एक यथार्थ तो है ही, इसका दूसरा यथार्थ नाजी विरोध और लोकतन्त्र समर्थक दृष्टिकोण भी है। एक यथार्थ को नजरअन्दाज कर दूसरे यथार्थ को तरजीह देना अपने आप में एक तानाशाही कृत्य है। इस तरह देरिदा ने अपने तमाम विरोधियों को एक केन्द्रिक तानाशाही से ग्रस्त बताया और इसे उनकी सीमा मानाकि उक्त लेख में नाजी समर्थन तो वे देखते हैं, नाजी विरोध को नहीं। देरिदा के इस प्रयास ने विखण्डनवादी प्रपंचीकरण की सीमा उजागर कर दी। अवसर मिले तो नाजीवाद का समर्थन कर लिया जाए और जब स्थितियाँ बदले तो उसका विरोध भी हो जाए। विखण्डन मौकापरस्त साबित हो चुका था। द्वितीय विश्‍वयुद्ध की ऐतिहासिक हकीकत ने ‘इतिहास के अन्त’ की घोषणा करने वालों से बदला ले लिया था। विखण्डनवादी प्रपंचीकरण ठस्स हो चुका था। झूठ का पर्दाफाश करते करते वह स्वयं एक झूठ में तब्दील हो चुका था। उत्तर आधुनिकता भी लोकतन्त्र की समर्थक और विरोधी दोनों दृष्टियों का ‘कॉमन ट्रैफिक’ है, यह अब छुपा न था। इस बिन्दु पर प्रबोधन और उत्तर आधुनिकतावाद का साम्य स्पष्ट हो चुका था। यह विखण्डन का अवसान था। मगर इस पर गौर किया जाना चाहिए कि देरिदा के विखण्डनवाद ने हमें क्या सौंपा है? उसने हमें प्रबोधन के ध्वंसावशेष सौंपे हैं, जिन पर नव-प्रबोधन की बुनियाद खड़ी की जानी है। यह विखण्डनवादी प्रपंच को नकार कर नहीं, बल्कि एक द्वन्द्वात्मक रिश्ता कायम करके ही हो सकेगा।

  1. निष्कर्ष

 

भाषा के विश्‍लेषण के जरिए सस्यूर ने संरचनावाद की नींव रखी। उनके अनुसार हरेक शब्द अपने द्विआधारी प्रतिपक्ष के कारण अर्थधारण करता है। संरचनावाद को भाषाविज्ञान से साहित्य के क्षेत्र में याकोब्सन ने प्रतिष्ठित किया। क्लाऊद लेवी स्‍त्रॉस ने इसका इस्तेमाल संस्कृतियों के अध्ययन में किया। संरचनावाद देशकाल की दृष्टि से दूरस्थ रचनाओं के विश्‍लेषण में सर्वाधिक सफल होता है, लेकिन एक आलोचक समकालीन रचना की संरचनात्मक व्याख्या करके उसका नया अर्थ उद्घाटित कर सकता है। वैसे एक तथ्य यह भी है कि साहित्येतिहास के लिए कृति और कृतिकार की ऐतिहासिक चेतना और कलाचेतना के स्वरूप और संयोग प्रक्रिया का विश्‍लेषण आवश्यक है; जिसके लिए संरचनावादी साहित्य चिन्तन में जगह नहीं है।

 

 

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