16 मार्क्सवादी साहित्येतिहास दृष्टि

डॉ. गोपालजी प्रधान

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा को समझ सकेंगे।
  • उत्पादन के सामाजिक-आर्थिक सम्बन्ध को समझ सकेंगे।
  • समाजिक-सांस्कृतिक विकास में उत्पादन के सम्बन्ध की भूमिका को समझ सकेंगे।
  • साहित्य और समाज के पारस्परिक सम्बन्ध को समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

मार्क्सवादी विचारधारा वर्तमान युग की लोकप्रिय विचारधाराओं में से एक है। उन्‍नीसवीं शताब्दी में जिन चिन्तकों और विचारकों ने मानवतावादी और यथार्थवादी चिन्तन से दुनिया का परिचय करवाया उनमें कार्ल मार्क्स का नाम अग्रगण्य है। मार्क्स के साथ फ्रेडरिक एंगेल्स  का नाम भी जुड़ा हुआ है। दोनों विचारकों में अद्भुत साम्य दिखाई देता है। अतः मार्क्सवाद का अर्थ है मार्क्स और एंगेल्स  की मान्यताएँ। मार्क्स साहित्य चिन्तक नहीं थे, फिर भी उन्होंने दुनिया भर के लेखकों और साहित्य चिन्तकों को प्रभावित किया है। इस प्रभाव को समग्रता में समझने के लिए तथा वर्तमान साहित्य चिन्तन को समझने के लिए मार्क्सवादी साहित्येतिहास दृष्टि को जानना जरूरी है। मार्क्सवादी साहित्य चिन्तन की एक लम्बी परम्परा है। इस परम्परा में समय-समय पर कई बड़े विचारक और विद्वान हो चुके हैं। वर्तमान में भी इस विचारधारा से जुड़े हुए कई विद्वान मौजूद हैं।

 

मार्क्सवादी दर्शन की शुरुआत मुख्यतः मार्क्स और एंगेल्स के विचारों से ही हुई। इसके बाद लेनिन और अन्य विचारकों ने मार्क्सवादी दर्शन में कई संशोधन और परिवर्तन किए। उनके बाद मार्क्सवादी विचारों में गम्भीर मतभेद भी हुए। मार्क्सवाद के समर्थकों का मत है कि मार्क्सवाद कोई जड़ दर्शन नहीं है। वह जीवन्त दर्शन है । इसलिए इसमें परिवर्तन और विकास सम्भव है। हालाँकि यह मतभेद इतने तीव्र है कि यदि एक परम्परा मार्क्सवादी है, तो दूसरी परम्परा को हम मार्क्सवादी नहीं कह सकते। हालाँकि सभी तरह के मार्क्सवादी अपने आप को मार्क्स से ही जोड़ कर देखते हैं और अपने आप को मार्क्सवादी कहलाना ही पसंद करते हैं। मार्क्सवादी दर्शन और राजनीतिक अर्थशास्‍त्र के साथ-साथ मार्क्सवाद के साहित्य सम्बन्धी चिन्तन में भी बहुत परिवर्तन और विकास हुआ है। यहाँ भी पर्याप्त मतभेद हैं। यह अवश्य है की मार्क्स ने साहित्य और कला पर कोई स्वतन्त्र पुस्तक नहीं लिखी परन्तु उन्होंने अनेक सन्दर्भों में साहित्यिक कृतियों की चर्चा की, पत्र व्यव्हार में कुछ टिप्पणियाँ लिखी। उसके आधार पर हम उनकी साहित्येतिहास दृष्टि का स्वरूप निश्‍च‍ित कर सकते हैं।

  1. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद   

 

मार्क्स ने दर्शन द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद कहलाता है। यह उनके चिन्तन की केन्द्रीय पद्धति है, जिसे उन्होंने हीगेल से ग्रहण किया है। हीगेल का द्वन्द्ववाद आदर्शवादी था, जबकि मार्क्स का भौतिकवादी। इस विषय पर गम्भीर बहसें हुई। इनमें से कुछ बातें पुनः उद्धृत करने लायक हैं। मार्क्स ने वाद, विवाद और संवाद के रूप में स्पष्ट किया है। मार्क्स ने एक बीज का उदाहरण देते हुए बताया कि बीज वाद है जिसकी द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया मिट्टी एवं सूर्य के प्रकाश से होती है और फलस्वरूप संवाद के रूप में पौधा उग जाता है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘द्वन्द्वात्मक दर्शन के लिए कोई भी वस्तु अन्तिम, निरपेक्ष और शून्य नहीं है। वह हर चीज में और हर चीज का परिवर्तनशील गुण प्रदर्शित करता है। उसके समक्ष निम्‍नावस्था से ऊपर की ओर उठते हुए अन्तहीन विकासक्रम, उत्पत्ति और विनाश की निरन्तर प्रक्रिया के अलावा और कोई दूसरी चीज टिक नहीं सकती। दूसरी विशेषता का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा कि द्वन्द्ववाद ‘दुनिया को पहले से ही मौजूद वस्तुओं के समुच्‍चय के रूप में नहीं, बल्कि प्रक्रियाओं के समुच्चय के रूप में ग्रहण करता है। अर्थात धारणाएँ भी लगातार पैदा और खत्म होती रहती हैं। द्वन्द्ववाद की एक और विशेषता चीजों को समग्रता में देखना है, क्योंकि प्रकृति में विभिन्‍न वस्तुएँ और मनुष्य के दिमाग में विचार इसी रूप में मौजूद होते हैं, लेकिन पुराने द्वन्द्ववाद के साथ मिलकर यह एक नए विश्‍व दृष्टिकोण का रूप ले बैठा। इसी विश्‍व दृष्टिकोण का जब उन्होंने मानव इतिहास पर लागू किया तो जिस पद्धति का जन्म हुआ उसे आमतौर पर इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या कहा जाता है।मार्क्स ने बताया कि यदि प्रकृति और संसार गतिशील है तो सदैव पुराना शनैः शनैः क्षीण होगा और नवीन का अभ्युदय होगा। जिससे कोई भी सामाजिक व्यवस्था शाश्‍वत नहीं बन सकती। अतः आदिम साम्यवाद, दास प्रथा, सामन्तवाद, पूँजीवाद और इसका चरम रूप समाजवाद फिर साम्यवाद होगा। 

  1. ऐतिहासिक भौतिकवाद

 

मार्क्स की साहित्येतिहास की धारणा का गहरा सम्बन्ध उनकी इतिहास की धारणा से है। मार्क्स के मत को सार-रूप में इस तरह से समझा जा सकता है। उनके अनुसार मनुष्य अपने जिन्दा रहने के लिए श्रम करता है।भोजन,वस्‍त्र और आवास की व्यवस्था करता है। अर्थात् इनका उत्पादन करता है। इस उत्पादन के लिए वह कुछ साधनों का उपयोग करता है। समाज के इतिहास को जानने के लिए सबसे पहले उन साधनों को चिह्नित  करना चाहिए, जिनसे मनुष्य अपनी आजीविका अर्जित करता है। इन साधनों के उपयोग के दौरान मनुष्य के सम्बन्ध बनते हैं। यह दोनों मिलकर उत्पादन पद्धति कहलाती है। मनुष्य अपने उत्पादन के साधनों को लगातार विकसित करता रहता है। उसी के अनुपात में उत्पादन के सम्बन्ध नहीं बदलते। अतः उत्पादन के साधनों और उत्पादन सम्बन्धों में अन्तर्विरोध होता है। इस अन्तर्विरोध से समाज का आधार निश्‍च‍ित होता है। उत्पादन सम्बन्धों से समाज में वर्गों का स्वरूप गठित होता है। ये वर्ग आपस में संघर्ष करते हैं। इस संघर्ष से मानव समाज आगे बढ़ता है।

 

समाज के इस अन्तर्विरोध और वर्ग संघर्ष की अभिव्यक्ति समाज की अधिरचना अर्थात् बाह्य ढॉंचे में होती है। इस अधिरचना में राजनैतिक व्यवस्था, धार्मिक मान्यताएँ, दर्शन, विचार, साहित्य, कला आदि सब शामिल है। परम्परागत मार्क्सवाद के अनुसार आधार और अधिरचना का अन्‍तस्सम्बन्ध होता है। यह सम्बन्ध अक्सर संघर्ष का रूप धारण कर लेता है। यहाँ विभिन्‍न वर्गों के हितों में टकराहट होने लगती है।

 

मार्क्स की इस राय को उनकी पुस्तक राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की आलोचना में योगदान  की भूमिका में देखा जा सकता है। यह उद्धरण अनेक स्थानों पर मिल जाता है।‘अपने जीवन के सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्य कुछ निश्‍च‍ित सम्बन्ध बनाते हैं जो उनकी इच्छा से स्वतन्त्र तथा अपरिहार्य होते हैं। ये उत्पादन सम्बन्ध भौतिक उत्पादक-शक्तियों के विकास के एक निश्‍च‍ित चरण से जुड़े हुए उत्पादन के सम्बन्ध हैं। उत्पादन के इन सम्बन्धों का कुछ योग समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण करता है। यही वह वास्तविक नींव है, जिस पर कानूनी और राजनीतिक अधिरचना उठती है और जिससे सामाजिक चेतना के निश्‍च‍ित रूप जुड़ते हैं। उत्पादन का तरीका ही सामान्य रूप से सामाजिक,राजनीतिक तथा बौद्धिक जीवन-प्रक्रिया को रूप देता है। मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती,बल्कि इसके उलट उनका सामाजिक अस्तित्व ही उनकी चेतना को निर्धारित करता है।’

 

इस तरह मार्क्स की आधार एवम् अधिरचना सम्बन्धी धारणा सामने आती है। यह धारणा सबसे अधिक विवादास्पद है। इसी के विरोध में नव मार्क्सवादी आलोचना विकसित हुई, जिसे परम्परागत मार्क्सवादियों ने मार्क्सवाद से भटकाव की संज्ञा दी। अतः आधार और अधिरचना की अवधारणा को ठीक से समझना जरूरी है

 

प्लेखानोव ने इन पाँच बिन्दुओं में इस अवधारणा को स्पष्ट करने का प्रयास किया है–

  • उत्पादक शक्तियों की स्थिति।
  • आर्थिक नातेदारी जिन्हें ये शक्तियाँ नियन्त्रित करती हैं।
  • समाज-राजनीतिक व्यवस्था जो प्रदत्त आर्थिक आधार पर विकसित हुई है।
  • समाज में मनुष्य की मानसिकता, जो आंशिक रूप में प्राप्त आर्थिक स्थितियों के द्वारा सीधे निर्धारित होती है और आंशिक रूप में उस समग्र समाज-राजनीतिक व्यवस्था के द्वारा निर्धारित होती है, जो उस बुनियाद पर उठ खड़ी हुई है।
  • वे विविध विचारधाराएँ, जो मानसिकता की विशेषताओं को प्रतिबिम्बित करती हैं।

 

मार्क्स ने इस आधार पर मानव इतिहास की रूपरेखा बनाई है–

 

आदिम साम्यवाद

दासप्रथा

सामन्तवाद

पूँजीवाद

समाजवाद

 

इस आधार पर उन्होंने भविष्य में साम्यवादी व्यवस्था की कल्पना की, जो 1917 में सोवियत संघ में अस्तित्व में आई तथा 1990 में ध्वस्त हो गई।

 

मार्क्सवादी साहित्येतिहास दृष्टि यह मान कर चलती है कि साहित्य का सृजन और मूल्यांकन इतिहास की इसी परिधि में होना चाहिए। इसका निहितार्थ बहुत व्यापक है। यदि इसे हिन्दी साहित्य के इतिहास में देखें तो कबीर और बिहारी एक ही युग सामन्तवाद में गिने जाऍंगे। इस कारण अनेक सौन्दर्यशास्त्रीय प्रश्‍न उठ खड़े होते हैं, जिनकी चर्चा मार्क्सवादी आलोचना में होती रहती है।

  1. मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्‍त्र की परम्परा

 

मार्क्स तथा एंगेल्स का मत है कि साहित्य अथवा सौंदर्यबोधी चेतना की उत्पत्ति या उसमें कालानुसार हो रहे परिवर्तनों का कारण मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व में ढूँढा जाना चाहिए। चूँकि सामाजिक अस्तित्व की दशाओं में परिवर्तन होता रहता है, वर्गों में बँटे समाज की अनेक प्रक्रियाओं का प्रभाव मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व पर पड़ता है। अतः कला के अभिप्राय, भाव, सन्देश, शिल्प में भी बदलाव होता रहता है। कला और मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व के बीच यह प्रक्रिया अन्योनाश्रित रूप में चलती रहती है, हमेशा सापेक्ष सम्बन्धों में गतिमान रहती है।

 

साहित्य तथा कला में यथार्थ का सबसे सटीक चित्रण होना चाहिए। मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि ने यथार्थवाद की अवधारणा रखी, जो साहित्य और कला को देखने-परखने का एक बड़ा मापदण्ड है।

 

साहित्य चिन्तन में मार्क्सवादी विचारकों-लेखकों ने दो तरह से योगदान दिया। पहले में विचारकों ने मार्क्सवादी विचारधारा के सन्दर्भ में साहित्य के आधारभूत प्रश्‍नों पर विचार किया। आलोचना का एक मानदण्ड तय किया। मार्क्सवादी सिद्धान्त को साहित्य को देखने-परखने के लायक बनाया। दूसरा महत्वपूर्ण काम मार्क्सवादी या मार्क्सवाद से प्रभावित लेखकों-रचनाकारों ने किया। उन्होंने यह दिखाया कि मार्क्सवादी विचारधारा को अपनाते हुए उच्‍च कोटि की साहित्यिक रचनाएँ की जा सकती हैं।

 

इस तरह कार्ल मार्क्स साहित्य के  इतिहास के बारे में मानते हैं कि-

  • साहित्य एवं कलाऍं विचारधारा का ही एक रूप हैं,
  • वे मूलतः समाज के आर्थिक-भौतिक जीवन से उत्पन्‍न एवं उसी पर स्थित और आधारित हैं,
  • आर्थिक-भौतिक धरातल पर परिवर्तन होने के साथ ही साहित्य, कला अथवा विचारधारा के अन्य रूपों में भी कमोबेश उसी तेजी के साथ परिवर्तन हो जाता है,
  • ऐसे परिवर्तनों पर विचार करते समय उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों –जिन्हें पदार्थ विज्ञान की भाँति ठीक से आँका जा सकता है, एवं विचारधारा के रूपों – जिनमें मनुष्य इस संघर्ष के प्रति सचेत रहता है, के बीच भेद किया जाना चाहिए।

 

हालाँकि मार्क्स साहित्य पर आर्थिक और भौतिक जीवन का निर्णायक प्रभाव मानते हैं तब वे उसकी स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करते हैं। हालाँकि मार्क्सवादी आलोचकों में इस विषय पर पर्याप्त मत भिन्‍नता है।

 

मार्क्सवादी विचारधारा को सहित्य से जोड़ने और उसकी व्याख्या करनेवालों में कई मार्क्सवादी विचारकों का महत्वपूर्ण योगदान है। इन विचारकों में जी.वी.प्लेखानोव, लूनाचारस्की, गोर्की; कॉडवेल, राल्फ फॉक्स ; जार्ज लुकाच ; अर्न्स्ट फिशर,रेमण्ड विलियम्स, वाल्टर बेंजामिन, फ्रेडरिक जेमसन, टेरी ईगलटन आदि का नाम लिया जा सकता है। इनके अलावा भी स्थानीय स्तर पर प्रत्येक देश में मार्क्सवादी साहित्येतिहासकार एवम् आलोचक सक्रिय रहें हैं।

 

प्लेखानोव ने अपनी पुस्तक कला और सामाजिक जीवन में मार्क्सवादी विचारधारा के समाजशास्‍त्र और सौंदर्यशास्‍त्र को समझाने का प्रयास किया है। उन्होंने कला और सामाजिक जीवन की अभिन्‍नता को स्वीकार किया और व्यक्तिवादी प्रवृत्ति का जोरदार विरोध किया। उन्होंने तोल्सतॉय के कला सम्बन्धी विचारों से असहमति दिखाई। तोल्सतॉय का मानना था कि कला मानव और मानव के बीच सम्पर्क का एक माध्यम है। अतः मात्र शब्दों के माध्यम से स्थापित किए जाने वाले सम्पर्क से इस कारण विशिष्ट है कि जहाँ शब्दों के माध्यम से मानव दूसरे मानव तक अपने विचारों को पहुँचाता है, वहाँ कला के माध्यम से वह दूसरे मनुष्यों तक अपने भावों का सम्प्रेषण करता है। प्लेखानोव इससे सहमत नहीं थे। उनका मानना है कि शब्दों के द्वारा केवल विचारों का ही सम्प्रेषण नहीं, भावों का सम्प्रेषण भी होता है। इसका उदाहरण कविता है, जहाँ वस्तुतः शब्द ही माध्यम का काम करते हैं। प्लेखानोव ने डार्विन की सौन्दर्य निष्पत्तियों पर भी विचार किया है।

 

इसी तरह लूनाचारस्की ने भी मार्क्सवादी आलोचना पद्धति के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मार्क्सवादी समीक्षा की समस्याएँ उनका बहुत ही चर्चित निबन्ध हैं। लूनाचारस्की की मूल स्थापना है कि किसी साहित्यिक कृति तथा किसी वर्ग अथवा दूसरे वर्ग के मनोविज्ञान या सामाजिक प्रकृति वाले विस्तृत समुदायों के पारस्परिक सम्बन्धों का निश्चय मुख्यतः साहित्य के वस्तु तत्त्व के आधार पर होता है। लूनाचारस्की के अनुसार, किसी कृति का रूप तत्त्व मात्र उसके वस्तु तत्त्व के आधार पर ही निर्धारित होता है। प्रायः रूप तत्त्व किसी एक कृति से ही सम्बद्ध न होकर पूरे के पूरे स्कूल, यहाँ तक कि एक पूरे के पूरे युग से सम्बद्ध होता है।

 

लूनाचारस्की के बाद गोर्की महत्वपूर्ण मार्क्सवादी रचनाकार और आलोचक हैं। उन्होंने सन् 1934 में सर्वप्रथम समाजवादी यथार्थवाद की रूपरेखा प्रस्तुत की थी। यह अवधारणा भी आगे चलकर बहुत विवादस्पद रही। उनका मानना था कि लेखकों को अपने साहित्य के इतिहास से भलिभाँति परिचित होना आवश्यक है। इसके साथ ही लेखक को मानवीय श्रम तथा सर्जना के इतिहास से भी परिचित होना चाहिए।

 

इसी तरह कॉडवेल ने कविता को आधार बनाकर अपनी बात रखने की कोशिश की। कॉडवेल का मानना है कि कविता का अध्ययन विशुद्ध रूप से सौंदर्यशास्‍त्र की सीमा में रहकर नहीं किया जा सकता। सौंदर्यशास्‍त्र की सीमा में ही बन्धे रहने वाले या तो रचनाकार हो सकते हैं, या भावक, लेकिन कविता की समीक्षा के लिए उससे बाहर निकलना जरूरी है। कॉडवेल ने कविता की परिभाषा देते हुए कहा कि ‘कविता साधारण वाणी का सुथरा अथवा उदात्त रूप’ होती है। साधारण वाणी को यह सुथरापन या उदात्तता छन्द, तुक, लय, तान, अनुप्रास, समान अक्षरवाली पंक्तियों या समान भाव वाले स्वरों आदि से प्राप्त होता है।

 

राल्फ फॉक्स ने मुख्यतः उपन्यास के सन्दर्भ में अपनी मान्यताएँ प्रस्तुत की। उनकी पुस्तक उपन्यास और लोकजीवन  सारे संसार में प्रसिद्ध है। हिन्दी में भी इस पुस्तक का अनुवाद हो चुका है। इन विद्वानों के अलावा कई और भी नाम है जिन्होंने मार्क्सवादी साहित्य सिद्धान्त को बनाने में अपना अहम योगदान दिया है।

 

हिन्दी आलोचना में भी मार्क्सवादी साहित्येतिहास चिन्तन की परम्परा मिलती है। इनमें शिवदान सिंह चौहान, रांगेय राघव,प्रकाश चन्द्र गुप्त, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह,मैनेजर पाण्डेय आदि मुख्य हैं। इन्होंने मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि के अनुरूप हिन्दी साहित्य पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। हालाँकि मार्क्सवाद के अन्य क्षेत्रों की तरह हिन्दी के इन विचारकों के बीच भी गम्भीर मतभेद हैं।

  1. निष्कर्ष

 

मार्क्सवाद प्रत्येक वस्तु को एक गतिमान प्रक्रिया के रूप में ग्रहण करता है। सच है कि जीवन का प्रत्येक पहलू सदा दो बिन्दुओं से टकराता है या तो वो सकारात्मक होगा या नकारात्मक, अच्छा या बुरा, सत्य या असत्य। इन बिन्दुओं से टकराहट कर ही हम किसी निर्णय पर पहुँचते हैं। मार्क्स की द्वन्द्वात्मक प्रणाली में वाद, विवाद व संम्वाद की स्थिति जीवन की गति से भी जुड़ी हुई है। ऐतिहासिक भौतिकवाद प्रत्येक युग में समाज, साहित्य और संस्कृति को समझने का एक पुख्ता आधार बनता रहेगा।

 

मार्क्सवादी विचारधारा की प्रांसगिकता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज भी मार्क्सवादी विचारधारा अपनी तमाम कमियों के बावजूद, चर्चा का विषय बनी हुई है। दुनिया के अधिकतर बुद्धिजीवियों का झुकाव सहज ही मार्क्सवाद की तरफ हो जाता है।या तो वे मार्क्सवाद के समर्थन में है या मार्क्सवाद के विरोध में सक्रिय हैं।

 

मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि को केन्द्र में रखकर साहित्येतिहास सम्बन्धी कई कोण सामने आते रहते हैं। साहित्य और समाज को देखने और परखने का सम्पूर्ण दृष्टिकोण मार्क्सवाद उपलब्ध करवाता है। साहित्य एवं कलाओं के सामाजिक आधार-सम्बन्धी अपनी मान्यता के संदर्भ में मार्क्सवादी साहित्य-चिन्तकों ने साहित्य एवं कला की व्यक्तिवादी, कलावादी-रूपवादी मान्‍यताओं का पुरजोर विरोध किया है। व्यक्तिवाद को एक प्रतिक्रियावादी और घातक प्रवृत्ति मानते हुए मार्क्सवादी विचारकों ने उसकी उत्पत्ति का सम्बन्ध पूँजीवादी व्यवस्था की असंगतियों तथा अन्तर्विरोध से जोड़ा है। मार्क्सवादी विचारकों का मानना है कि व्यक्तिवाद पूँजीवाद की आत्मा है। इसी का एक रूप अहंवाद है, जहाँ व्यक्ति खुद को ही सर्व-सत्ता सम्पन्‍न समझते हुए सम्पूर्ण समाज के विरोध में खड़ा हो जाता है। मानना चाहिए कि मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि समाज और साहित्य के सम्बन्धों पर जोर देने के साथ ही इतिहास और साहित्य के सम्बन्ध को भी समझने का प्रयास करती है।

 

you can view video on मार्क्सवादी साहित्येतिहास दृष्टि

 

वेब लिंक्स

  1. https://www.youtube.com/watch?v=m6nJ-A0ZWts
  2. https://www.youtube.com/watch?v=71G2hlhvFqI
  3. https://en.wikipedia.org/wiki/Marx%27s_theory_of_history
  4. https://en.wikipedia.org/wiki/Marxist_historiography
  5. http://www.marxism.org.uk/pack/history.html