15 विधेयवादी साहित्येतिहास दृष्टि
डॉ. गजेन्द्र कुमार पाठक पाठक
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप
- विधेयवाद की अवधारणा को समझ सकेंगे।
- तेन के विधेयवादी दर्शन से परिचित हो सकेंगे।
- साहित्य के इतिहास लेखन की विधेयवादी दृष्टि से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
विधेयवाद ऐसा दर्शन है जिसमें तार्किक और गणितीय पद्धति तथा ऐन्द्रिक अनुभवों को आधिकारिक ज्ञान के अनन्य स्रोत के रूप में देखा जाता है। यह दर्शनशास्त्र और काव्य के बीच आधुनिक बहस की परिणति है।
इतिहास दर्शन के अन्तर्गत विधेयवाद के प्रवर्तन का श्रेय अगस्त काम्ते (सन् 1760-1825) को जाता है। इससे पूर्व इतिहास दर्शन और विज्ञान को बिल्कुल अलग-अलग अनुशासन के रूप में देखा जाता था। विधेयवाद के अन्तर्गत अगस्त काम्ते ने यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया था कि हर प्रामाणिक ज्ञान वास्तविक प्रमाण पर आधारित होता है और प्रत्येक प्रामाणिक ज्ञान में यह दावा अन्तर्भूत होता है कि अंतिम रूप से स्वीकृत ज्ञान विज्ञान ही होता है। यूरोप में 17वीं-18वीं सदी में सांस्कृतिक प्रबोधन-आन्दोलन (Enlightenment movement) के बुद्धिजीवियों ने परम्परा की जगह तर्क और व्यक्तिवाद पर सर्वाधिक जोर दिया। बुद्धिजीवियों का लक्ष्य परम्परागत विश्वास को तर्क के आधार पर चुनौती देकर समाज का पुर्ननिर्माण करना था इसलिए विज्ञान और वैज्ञानिक प्रविधि पर इनका ज्यादा जोर था।
- विधेयवादी दर्शन और काव्य
अगस्त काम्ते ने विधेयवाद की व्याख्या सर्वप्रथम सन् 1830 से 1842 ई. के मध्य प्रकाशित अपनी पुस्तक द कोर्स इन पोजिटिव फिलास्फी में शृंखलागत रूप से प्रस्तुत की थी। बाद में ए जनरल व्यू ऑफ पोजिटीविज्म पुस्तक में काम्ते के विचारों का विस्तार देखने को मिलता है। यह पुस्तक सर्वप्रथम फ्रेंच में सन् 1848 में प्रकाशित हुई, बाद में सन् 1865 में इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ। इन पुस्तकों में विधेयवादी प्रविधि का विकास दिखाई देता है।
सामाजिक इतिहास के अध्ययन के लिए विधेयवाद की आवश्यकता पर जहाँ अगस्त काम्ते ने विचार किया वहीं साहित्य के इतिहास-दर्शन में विधेयवाद का प्रादुर्भाव इपालित अडोल्फ तेन (21 अप्रैल1825 से 5 मार्च1893) के प्रभाव से हुआ। विधेयवाद पर विचार करते हुए हमें काम्ते और तेन दोनों के विचारों को देखना होगा। तेन फ्रांसीसी साहित्य के एक प्रमुख आलोचक और इतिहासकार थे। फ्रांसीसी यथार्थवाद पर तेन का सर्वाधिक प्रभाव था। साथ ही तेन समाजशास्त्रीय विधेयवाद के प्रमुख सिद्धान्तकार और इतिहास दर्शन मूलक आलोचना के प्रथम प्रयोक्ता के रूप में जाने जाते हैं। साहित्य का इतिहास दर्शन तेन के साथ ही शुरू हुआ माना जाता है। तेन का विशेष महत्त्व कला एवं साहित्य के अध्ययन तथा विश्लेषण के लिए उनके द्वारा बताई गई पद्धति के कारण है। तेन ने इस सन्दर्भ में तीन चीजों को सर्वाधिक महत्त्व योग्य माना– प्रजाति, वातावरण और क्षण। उन्होंने अंग्रेजी-साहित्य के इतिहास में प्रतिपादित किया कि किसी भी साहित्य के इतिहास को समझने की धारणा उससे सम्बन्धित जातीय परम्पराओं, राष्ट्रीय और सामाजिक वातावरण एवं सामाजिक परिस्थितियों से अनुशासित होती है। (तेन के इन विचारों का एमिल जोला, मोपांसा जैसे रचनाकारों की रचनाओं पर स्पष्ट प्रभाव दिखता है।) तेन के इस सिद्धान्त का गहरा असर उनके समकालीन पाश्चात्य साहित्य पर दिखाई देता है। इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटानिका में यह स्वीकार किया गया कि एमिल जोला, मोपांसा की रचनाओं पर तेन के विचारों का प्रभाव सहज ही देखा जा सकता है।
- इपालित अडोल्फ तेन का विधेयवादी दर्शन
तेन का विधेयवादी दर्शन प्रजाति, क्षण एवं वातावरण के आधार पर साहित्य का वैज्ञानिक विधि से विश्लेषण करने वाली पद्धति है। यहाँ पर यह विचार करना आवश्यक है कि विधेयवादी दर्शन के अन्तर्गत जाति, वातावरण एवं क्षण का तात्पर्य क्या है? तेन के इन तीन शब्दों या पदों के सूत्रीकरण के पीछे असल सन्दर्भ क्या थे? विधेयवादी दर्शन के अन्तर्गत तेन ने यह माना कि कोई भी साहित्य उसके रचनाकार के वातावरण से ही जन्म लेता है, इसलिए उस वातावरण का विश्लेषण हमें उस (रचे गए) साहित्य को समझने में सर्वाधिक प्रभावी सिद्ध हो सकता है।
तेन ने विधेयवादी दर्शन के अन्तर्गत प्रजाति शब्द का प्रयोग किसी धार्मिक या क्षेत्रीय समुदाय के विशिष्ट अर्थों में नहीं किया है। तेन ने प्रजाति शब्द का प्रयोग उस सामूहिक सांस्कृतिक स्वभाव के रूप में किया है जिससे प्रत्येक व्यक्ति अचेतन रूप से संचालित होता है। ऐसे में वह क्या है जो इस सामूहिकता से किसी व्यक्ति को अलग करता है ? तेन के अनुसार वह क्षण होता है, एक विशेष परिस्थिति होती है जो किसी व्यक्ति के स्वभाव को बनाती या बिगाड़ती है। तेन के इस क्षण को परिभाषित करते हुए जॉन एच. मूलर ने अपने प्रसिद्ध लेख इज आर्ट द प्रोडक्ट ऑफ इट्स एज़ में लिखा है कि ‘व्यक्ति का संचित अनुभव ही क्षण है, तेन की क्षण सम्बन्धी अवधारणा ‘युगबोध’ से ज्यादा मेल खाती है।’
तेन ने प्रजाति की धारणा को बहुत महत्त्व दिया है। वे प्रजाति के अन्तर्गत व्यक्ति की सहज तथा वंशानुगत विशेषताओं, मानसिक बनावट और शारीरिक संरचना आदि की चर्चा करते हैं। उन्होंने आर्यों का उदाहरण देते हुए लिखा है एक प्रजाति यद्यपि देशकाल की दृष्टि से दूर-दूर फैल जाती है, फिर भी उसमें कुछ-कुछ समान विशेषताएँ मिलती हैं। फोन्तेन पर अपने निबन्ध में उन्होंने लिखा है, किसी प्रजाति की चरित्रगत विशेषताएँ जलवायु, मिट्टी और इतिहास की महान घटनाओं की उपज होती है। चरित्र की बुनियादी विशेषताएँ प्रजाति की विशिष्ट चेतना और सौन्दर्यानुभूति में प्रकट होती है। प्रजाति चरित्र के अनुसार ही सौन्दर्य के आदर्शों का विकास होता है। सत्रहवीं शताब्दी के फ्रांस में फोन्तेन, पुनर्जागरणकालीन इंग्लैण्ड में शेक्सपीयर और हमारे समय के जर्मनी में गेटे इसी प्रक्रिया की देन हैं। एक शक्ति के विकास के अतिरिक्त प्रतिभा और क्या है और वह शक्ति अपने देश में ही सहजता और पूर्णता से विकसित होती है। वहाँ प्रतिभा शिक्षा से बढ़ती है, इतिहास के दृष्टान्तों से शक्ति अर्जित करती है, जातीय चरित्र सुदृढ़ बनाती है और जनता से उसे कभी-कभी चुनौती भी मिलती है। तेन ने प्रजाति की धारणा की व्याख्या में अपने समकालीन डार्विन के चिन्तन से भी मदद ली है। वे प्रजाति की चेतना और चरित्र की विशेषताओं से ही उसके इतिहास, कला और दर्शन आदि का कारण मानते हैं।
तेन की दूसरी महत्त्वपूर्ण धारणा है वातावरण या परिवेश की अवधारणा, जिसका प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने अपनी किताब में विश्लेषण किया है। वातावरण से तेन का आशय मुख्यतः प्राकृतिक परिवेश से है, लेकिन उसके अन्तर्गत वे सामयिक परिवेश को भी शामिल करते हैं। उन्होंने लिखा है कि दुनिया में मनुष्य अकेला नहीं होता, उसके चारों ओर प्रकृति भी होती है, समाज भी होता है। उसकी आदिम प्रवृत्तियाँ तथा प्रजातिगत विशेषताएँ भौतिक-सामाजिक परिस्थितियों, घटनाओं आदि से प्रभावित होती हैं, कभी पुष्ट होती हैं कभी बदलती हैं। उन्होंने मानव स्वभाव और प्राकृतिक परिवेश के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध बिठाने की कोशिश की और उसके आधार पर साहित्य की विशेषताओं की व्याख्या की है। वे मानते हैं कि यूनान और रोम के विशिष्ट प्राकृतिक परिवेश से वहाँ के निवासियों का स्वभाव बना है और उसी स्वभाव की अभिव्यक्ति उनकी संस्कृति, कला तथा साहित्य में हुई है। ऐसे प्रसंगों में वे कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने के लिए बार-बार प्राणीविज्ञान और जीवविज्ञान की मदद लेते हैं। उन्होंने लिखा है कि मनुष्य समाज की स्थिति भी वनस्पतियों के समान होती है। एक ही मिट्टी, पानी और तापमान से विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे पैदा होते हैं। उनके विकास में एक क्रम, एक व्यवस्था होती है, पूर्वापर सम्बन्ध भी होता है। तेन जब भी प्राकृतिक परिवेश और साहित्यिक विशेषताओं के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध देखने लगते हैं तब वे प्रायः सरलीकरण के शिकार हो जाते हैं। यह स्थिति उनके अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में जगह–जगह दिखाई देने लगती है। इसी सन्दर्भ में प्रो. मैनजेर पाण्डेय का कहना है कि ‘उनका वस्तुवाद भाववाद की गोद में जा बैठता है।’
तेन की तीसरी धारणा क्षण का विश्लेषण करते हुए प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि “इस धारणा के मूल में युग चेतना का विचार है जो उस समय जर्मनी और फ्रांस के चिन्तन में जगह-जगह मिलता है। तेन के अनुसार एक युग में कुछ प्रधान विचार होते हैं, उनका एक बौद्धिक सांचा होता है जो पूरे समाज के चिन्तन को प्रभावित करता है। हर युग में मनुष्य की एक परिकल्पना या अवधारणा होती है। मनुष्य की यह परिकल्पना आदर्श का रूप धारण कर लेती है, जैसे कि मध्यकालीन यूरोप में वीर और पुजारी तथा आधुनिक काल में दरबारी और वाक्-पटु। युग के प्रधान विचार का प्रसार जीवन के सभी क्षेत्रों में होता है, व्यवहार में और चिन्तन में। एक लम्बे समय के बाद ऐसे विचार का धीरे-धीरे ह्रास होता है और कोई नया विचार विकसित होकर प्रधान विचार बन जाता है। यह दूसरा विचार पहले से जुड़ा होता है। साथ ही वह राष्ट्रीय प्रतिभा और समकालीन परिवेश से जुड़कर नए प्रकार के चिन्तन और सृजन को प्रेरणा देता है। यद्यपि तेन ने युग प्रधान विचार को विचारधारा नहीं कहा है, लेकिन उन्होंने उसकी जैसी व्याख्या की है वह विचारधारा की धारणा के करीब है। यही नहीं, वह गोल्डमान की विश्वदृष्टि की धारणा का भी पूर्वाभास कराती है। उनकी क्षण की धारणा में संस्कृति और साहित्य की परम्परा की धारणा का भी समावेश है। उसमें परम्परा तथा समकालीनता, राष्ट्रीय प्रतिभा तथा समकालीन सामाजिक सन्दर्भ के बीच के सम्बन्ध से संस्कृति, कला तथा साहित्य के विकास की प्रक्रिया की ओर संकेत है।”
तेन के विधेयवादी दर्शन का फ्रांस की बौद्धिक संस्कृति और साहित्य पर व्यापक प्रभाव था। तेन का फ्रांस के महान लेखक एमिल जोला के साथ विशेष सम्बन्ध था। एमिल जोला के यथार्थवादी उपन्यासों पर तेन के प्रभाव को एकमत से स्वीकार किया जाता है। तेन का प्रभाव विभिन्न देशों के राष्ट्रीय साहित्यिक आन्दोलनों पर पड़ा। तेन के सिद्धांतों को आधार बनाकर यह साबित करने की कोशिश की गई की प्रत्येक देश की अपनी पृथक साहित्यिक-विशेषताएँ होती हैं और इसी कारण साहित्य के इतिहास में उन देशों के साहित्य का अपना विशेष महत्त्व और स्थान होता है। बाद में उत्तर-आधुनिक चिन्तकों ने भी तेन की ‘जाति, वातावरण और क्षण’ सम्बन्धी अवधारणा का किञ्चित बदले हुए अर्थों में साहित्य और सामाजिक इतिहास के सम्बन्ध को विश्लेषित करने के क्रम में प्रयोग किया। जैसे आलोचक जॉन चैपल ने अपनी अवधारणा समन्वित इतिहास को स्पष्ट करने के लिए तेन की अवधारणा का प्रयोग किया था।
महान दार्शनिक नीत्शे के साथ भी तेन का पत्र-व्यवहार था। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक बियोण्ड गुड एण्ड एविल में तेन को ‘द ग्रेटेस्ट लिविंग हिस्टोरियन’ की संज्ञा दी थी। ऑस्ट्रिया के प्रसिद्ध उपन्यासकार और नाटककार स्टीफेन ज्वेइग ने तेन पर अपना शोध द फिलॉसॉफी ऑफ इपोलित तेन शीर्षक से प्रस्तुत किया।
- विधेयवादी दृष्टि की दिशाएँ
विधेयवाद के आलोचकों का मानना था कि जाति, वातावरण और क्षण की अवधारणा कलाकार की व्यक्तिगत विशेषता का अध्ययन करने में अपर्याप्त है, जबकि कलाकार की व्यक्तिगत निष्ठा और विशेषता स्वच्छ्न्दतावाद की प्रमुख विशेषता थी। तेन का विधेयवादी दर्शन, जिसमें सामाजिक पहलू पर ज्यादा बल है, वह इसी स्वच्छ्न्दतावाद के विरोध में आया हुआ दर्शन है। यहाँ तक कि एमिल जोला, जो तेन का बेहद एहसानमन्द था; ने भी तेन के इस दर्शन पर आरोप लगाते हुए कहा कि एक कलाकार की निजी प्रकृति भी उसे विशिष्ट कलाकार बना सकती है। कलाकार का वह वातावरण या देशकाल हमेशा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नहीं होता, जिसमें उसकी सामान्य विचार पद्धति का विकास होता है। जोला ने अपने इस तर्क के समर्थन में फ्रांस के ही उस समय के महान कलाकार एदुआर्द मानेट का उदहारण दिया था। फ्रांसीसी इतिहासकार और आलोचक गुस्तावे लानसन् का मानना था कि ‘जाति, वातावरण, क्षण’ प्रतिभा को तय करने वाले कारक नहीं हैं। उनके अनुसार तेन ने जितने बेहतर ढंग से सामान्य स्तर को व्याख्यायित किया है उस तरह महानता की व्याख्या नहीं कर पाए हैं।
एक दूसरी तरह की आलोचना भी तेन के विधेयवादी दर्शन की हुई है। इस आलोचना की मूल चिन्ता तेन की तीनों अवधारणाओं में मौजूद सम्भावित फिसलन और वैज्ञानिक आधार पर केन्द्रित थी। ऑस्ट्रीयाई शैली वैज्ञानिक लियो स्पाइटजर ने जाति, वातावरण और क्षण के आपसी अवधारणात्मक सम्बन्ध पर ही सवाल उठाया था। उनके अनुसार इन तीनों अवधारणाओं के बीच का आपसी सम्बन्ध ही स्पष्ट नहीं है। उनके अनुसार ‘क्षण’ को गैरजरूरी ढंग से बाकी दो अवधारणाओं के साथ शामिल किया गया लगता है।
तेन कला तथा साहित्य के दार्शनिक इतिहासकार और आलोचक थे। इस सदी के इतिहास लेखन में विधेयवादी दृष्टि, आलोचना में ऐतिहासिक पद्धति और साहित्य के समाजशास्त्र में अनुभववादी दृष्टिकोण का विकास उनके चिन्तन से प्रभावित है। उनकी आलोचना खूब हुई। जर्मनी के एक दार्शनिक विलहेल्म डीलफे ने सन् 1883 में ही यह स्थापना दी थी कि एक वैज्ञानिक एक घटना की व्याख्या उसकी कारण भूत-पूर्व घटनाओं के द्वारा करता है, जबकि इतिहासकार संकेतों या प्रतीकों में उसका अर्थ समझने की कोशिश करता है। समझने की यह प्रक्रिया अनिवार्यतः वैयक्तिक और आत्मनिष्ठ भी होती है।
तेन के दर्शन की आलोचनाएँ तरह-तरह से होती रहीं। रूपवादी उनकी आलोचना इसलिए करते हैं कि तेन साहित्य के विवेचन में सामाजिक सन्दर्भ पर जोर देते हैं। लेखक के व्यक्तित्व को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और रचना में सामाजिक सत्य की खोज करते हैं। अनुभववादियों को तेन की आलोचनात्मक दृष्टि पसन्द नहीं आती। मार्क्सवादियों ने तेन की पद्धति में मौजूद सरलीकरण और यान्त्रिकता की आलोचना करते हुए भी उनका सहानुभूतिपूर्वक मूल्यांकन किया है। रूसी विचारक प्लेखानोव ने तेन के चिन्तन में भौतिकवाद और भाववाद के अनमेल मिश्रण की आलोचना करते हुए कला और साहित्य से सम्बन्धित चिन्तन के समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए उनकी सराहना की है।
- काम्ते और तेन
अगस्त काम्ते ने जिस चिन्तनधारा का आरम्भ किया था, तेन में उसका विकास दिखाई पड़ता है। अध्ययन की जिस चिन्तनधारा का सूत्रपात काम्ते ने सामाजिक इतिहास के अध्ययन-लेखन के लिए किया था, तेन उसे साहित्य इतिहास-दर्शन तक ले कर आते हैं। तेन विज्ञान के साथ सामाजिक विज्ञान को भी इतिहास-दर्शन से जोड़ते हैं। तेन का दृष्टिकोण ऐतिहासिक था, पद्धति वैज्ञानिक थी और समसामयिक समाज उनके चिन्तन के केन्द्र में था।
- साहित्येतिहास लेखन और विधेयवादी दृष्टि
तेन ने प्रजाति, परिवेश और युग को साहित्य के विकास का कारण माना है। लेकिन जब वे कार्य-कारण सम्बन्ध की खोज करने लगते हैं तब कभी प्रकृतिविज्ञान की प्रणाली में फँस जाते हैं और कभी सरलीकरण के शिकार हो जाते हैं। असल में विधेयवादी प्रणाली में असम्बद्ध तथ्य एकत्रित किए जाते हैं। उसमें अन्तर्व्याप्त मान्यता यह रहती है कि साहित्य की व्याख्या भौतिक विज्ञानों की प्रणालियों से, कार्य-कारण मीमांसा के द्वारा और बहिर्भूत निर्धारक शक्तियों को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। विधेयवाद का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य वस्तुनिष्ठता, निर्वैयक्तिकता और निश्चयात्मकता जैसे सामान्य वैज्ञानिक आदर्शों के अनुकरण का प्रयास है। इसके साथ ही कार्य-कारण सम्बन्ध और उद्गम के अध्ययन के द्वारा भौतिक विज्ञान की प्रणालियों के अनुकरण की चेष्टा भी थी, जो किसी भी पारस्परिक सम्बन्ध के निर्देश को युक्तिसंगत ठहराती थी, बशर्ते कि वह तिथि क्रम पर आधारित हो। अधिक संकीर्णता से व्यवहृत होने पर वैज्ञानिक कार्य-कारण पद्धति आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण निर्धारित कर किसी साहित्यिक विशेषता की व्याख्या करती थी। कुछ विद्वानों ने साहित्यिक अध्ययन में विज्ञान की परिमाणमूलक प्रणालियों को भी समाविष्ट करने की कोशिश की थी। वे आँकड़ों और तालिकाओं की सहायता से साहित्यिक अध्ययन को शास्त्रीय बनाना चाहते थे। विद्वानों का एक ऐसा भी दल था जिसने साहित्य के विकास के सूत्रों के निर्धारण के लिए, बड़े पैमाने पर प्राणीशास्त्रीय सिद्धान्तों का व्यवहार किया था। ‘इस प्रकार साहित्य के अध्येता वैज्ञानिक बन गए थे। चूँकि उन्हें एक अनिर्धारणीय पदार्थ का अध्ययन करना था, इसलिए वे निकृष्ट और अयोग्य वैज्ञानिक सिद्ध हुए। वे अपने विषय और प्रणालियों के बारे में सशंक बने रहते थे।’
उन्नीसवीं शताब्दी में विधेयवाद का साहित्येतिहास लेखन के लिए एक प्रणाली के रूप में यूरोप में बहुत प्रचार था। माना जाता है कि हिन्दी में इतिहास लेखन के लिए इस प्रणाली के उपयोग का प्रथम प्रयास ग्रियर्सन ने किया था। साहित्य के इतिहास को प्रवृतियों के आधार पर युगों में बाँटकर देखना, युगीन-परिवेश के प्रभाव एवं साहित्य की सामाजिकता की खोज ग्रियर्सन को हिन्दी में विधेयवाद का प्रवर्तक इतिहासकार बनाता है। इसी कारण तुलसी का काव्य-कौशल उन्हें बेहद प्रभावित करता है। ग्रियर्सन कवियों के व्यक्तित्व तथा कृतित्व का वर्णन तत्कालीन परिवेश के आधार पर करते हैं एवं इसी आधार पर उनकी साहित्यिकता का निर्धारण भी करते हैं। वे स्पष्ट रूप से कार्य-कारण के सम्बन्ध-निर्धारण को इतिहास लेखन के लिए आवश्यक मानते हैं। इसी कारण उन्हें कृष्ण, क्राइस्ट के भारतीय अवतार जान पड़ते हैं और भक्ति आन्दोलन की प्रेरणा के रूप में उन्हें ईसाइयत का प्रभाव दिखाई देता है।
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की इतिहास दृष्टि
आगे चलकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने व्यापक रूप से अपने इतिहास लेखन के लिए विधेयवादी प्रणाली का प्रयोग किया। विधेयवादी प्रणाली का इतिहासकार एक ओर साहित्य सम्बन्धी आँकड़े एकत्र करता है, फिर वह तत्कालीन सामाजिक जीवन का अध्ययन करता है और अन्ततः सामाजिक जीवन और साहित्य में कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापना का उपक्रम करता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में यही पद्धति अपनाई है और साहित्य को तत्कालीन जीवन की छाया के रूप में देखने-दिखाने का आयोजन किया है। इस तरह ऊपरी धरातल पर सामाजिक जीवन और साहित्य का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। उदाहरण के तौर पर हम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा दी गई साहित्य के इतिहास की परिभाषा पर गौर कर सकते हैं। शुक्ल जी हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखते हैं – “जब कि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चलता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।” वातावरण और क्षण की अवधारणा का स्पष्ट प्रभाव शुक्ल जी की उक्त परिभाषा में दिखाई देता है। प्रजाति के रूप में जनता स्पष्ट रूप में मौजूद है। तेन ने भी प्रजाति शब्द का इस्तेमाल सामूहिक सांस्कृतिक स्वभाव के रूप में ही किया है। शुक्ल जी जिस प्रतिबिम्बन की बात करते हैं, तेन के विधेयवाद में वही क्षण है। तेन के यहाँ क्षण व्यक्ति एवं समुदाय का संचित अनुभव ही है। इसी कारण कई विद्वानों ने तेन के इस ‘क्षण’ को युगबोध कहना ज्यादा उचित समझा है। वातावरण या परिवेश के बदलने से साहित्य के स्वरूप के बदलने का स्वीकार शुक्ल जी की इस महत्त्वपूर्ण परिभाषा में दिखाई पड़ता है। विधेयवाद का सामाजिकता पर विशेष जोर था। पहले भी चर्चा की गई है कि तेन का विधेयवादी इतिहास दर्शन स्वच्छ्न्दतावाद के विरोध में आया था। विधेयवाद में यथार्थ परक अभिव्यक्ति पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। यही कारण था कि शुक्ल जी छायावाद को सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाए। हिन्दी साहित्य के इतिहास में आविर्भूत छायावाद पर पश्चिम के स्वच्छ्न्दतावाद का प्रभाव स्पष्ट था। व्यक्तिवादिता, प्रकृति चित्रण और कल्पना का प्रयोग इस युग की विशेषता थी। विधेयवादी चिन्तन इन सब चीजों को स्वीकार नहीं कर पाता, विधेयवाद रूप पक्ष से ज्यादा वस्तु पक्ष को महत्त्वपूर्ण मानता है। इसका भी अभाव शुक्ल जी को छायावाद के अस्वीकार का एक कारण दे देता है। शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है कि – “इस तृतीय उत्थान में जो प्रतिवर्तन हुआ और जो पीछे ‘छायावाद’ कहलाया वह उसी द्वितीय उत्थान की कविता के विरुद्ध कहा जा सकता है। उसका प्रधान काव्य-शैली की ओर था, वस्तुविधान की ओर नहीं। अर्थभूमि या वस्तुभूमि का तो उसके भीतर बहुत संकोच हो गया। समन्वित विशाल भावनाओं को लेकर चलने की ओर ध्यान न रहा।” ‘समन्वित विशाल भावनाएँ’ जिस पर विधेयवाद का विशेष बल होता है; की उपेक्षा के कारण छायावाद शुक्ल जी को विशेष उम्मीद नहीं जगा पाता।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की भक्ति आन्दोलन के उदय की व्याख्या पर भी विधेयवाद का प्रभाव परिलक्षित होता है। जहाँ वे इस्लाम के आगमन को भक्ति आन्दोलन के उदय का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण मानते हैं। यहाँ विधेयवाद के कार्य-कारण सिद्धान्त का उपयोग करते हैं। विधेयवाद तथ्यों के पूर्णरूपेण संकलन के बाद किसी घटित घटना के पीछे स्पष्ट कारण की खोज करता है। इतिहास में घटी किसी घटना के पीछे कोई तात्कालिक कारण नहीं होता। इतिहास एक लम्बे प्रक्रिया का परिणाम होता है।
- निष्कर्ष
विधेयवादी दृष्टि की यह सीमा है कि वह समाज को एक ठोस इकाई के रूप में देखती है। विधेयवादी दृष्टि पर विचार करते हुए यह ध्यान रखना चाहिए कि समाज के अनेक स्तर होते हैं; एक ही युग में उन पर परिस्थितियों का दबाव अलग-अलग प्रकार का होता है; उसका प्रतिफलन भी अलग-अलग रूप में दिखाई देता है। इसलिए देखा जाता है कि एक ही युग के साहित्य में विविधता विद्यमान है। एक ही युग के साहित्य में हमें कई तरह की प्रवृतियाँ एक ही साथ दिखाई दे जाती हैं। ये प्रवृत्तियाँ एक दूसरे की सहायक भी हो सकती हैं और परस्पर विरोधी भी। तुलसी और केशव एक दूसरे के समकालीन हैं पर दोनों की कविता का स्वर एक नहीं हैं। दोनों की जीवन दृष्टि में भी अन्तर है। तुलसी की कविता में जहाँ जनमानस बोलता है वहीं केशव का काव्य काव्यशास्त्रीय जटिलताओं से ओत-प्रोत है। एक का काव्य उसे लोकमंगलकारी बनाता है तो दूसरे का काव्य उसे कठिन काव्य का प्रेत। इसी प्रकार तुलसी और कबीर के बीच भी पर्याप्त भेद है।यद्यपि दोनों कवियों की कविता का लक्ष्य समाज-कल्याण है तथापि दोनों के दृष्टिकोण में पर्याप्त अन्तर है। दोनों कवियों में युग का उतना बड़ा अन्तर नहीं है जितना सामाजिक स्तर का। इसलिए लक्ष्य एक होते हुए भी दोनों की जीवन दृष्टि अलग है और कभी-कभी तो परस्पर विरोधी भी प्रतीत होती हैं। जिन इतिहासकारों ने विधेयवादी प्रणाली का उपयोग करते हुए युगीन वातावरण को तो देखा, लेकिन एक युग की विभिन्न अन्तर्धारा पर गहराई से विचार नहीं किया, वे कई जगहों पर सम्बन्ध स्थापन में धोखा खा गए।
विधेयवादी प्रणाली में ऐतिहासिक दृष्टिकोण को महत्त्व दिए जाने के बावजूद कई बार व्यवहार के स्तर पर इसका अभाव दिखाई देता है। तत्कालीन परिवेश या युगीन परिस्थिति के प्रभाव को ही विधेयवादी इतिहासकार ज्यादा महत्त्व देता दिखाई पड़ता है। किसी भी साहित्यिक प्रवृति के पीछे एक दीर्घकालीन परम्परा होती है, जो धीरे-धीरे ही प्रकाश में आती है। इसलिए किसी भी साहित्य के विवेचन में जितना महत्त्व युगीन परिस्थिति का होता है, उतना ही उसके इतिहास का। उसकी दीर्घकाल से चली आ रही परम्परा का भी महत्व होता है। इसी दृष्टि के अभाव में ही हिन्दी साहित्य के कई इतिहासकरों ने भक्ति आन्दोलन को इस्लामी आक्रमण की प्रतिक्रिया माना और रीतिकालीन शृंगार-प्रधान काव्य की रचना के पीछे दरबारी मनोवृति को प्रधान कारण माना। इसी तरह छायावादी काव्य आन्दोलन को द्विवेदी-युग के विरोध स्वरूप आया हुआ माना गया और प्रगतिवादी काव्य आन्दोलन को छायावाद और प्रयोगवादी काव्य आन्दोलन को प्रगतिवाद के विरोध में आया हुआ माना गया। इस तरह के इतिहास लेखन की प्रणाली से अधूरी सच्चाई ही सामने आती है क्योंकि तात्कालिकता के दबाव में दीर्घकालीन प्रभावों का विश्लेषण इस पद्धति में उपेक्षणीय रहता है।
विधेयवाद की इन सीमाओं के बावजूद, विधेयवाद ने विज्ञान और साहित्य को साहित्य-इतिहास की चिन्तन परम्परा में शामिल करने का द्वार खोला। इसलिए विधेयवादी दर्शन को समझना और उस पर विचार करना साहित्य के इतिहास दर्शन के लिए आवश्यक है।
you can view video on विधेयवादी साहित्येतिहास दृष्टि |
वेब लिंक्स
- https://www.youtube.com/watch?v=ofmnGmI115E
- https://www.youtube.com/watch?v=d-zpIHVNKBw
- https://www.youtube.com/watch?v=JwPXFoU1iyQ
- https://en.wikipedia.org/wiki/Positivism
- http://www.britannica.com/topic/positivism