20 हीरा डोम और अछूतानन्द

किशोरी लाल रैगर

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  1. पाठ का उद्देश्य

     इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • हिन्दी दलित साहित्य के प्रारम्भ एवं अस्तित्व के बारे में जान सकेंगे।
  • हीरा डोम को आधुनिक दलित साहित्य के प्रवर्तक के रूप में जान पायेंगे।
  • हीरा डोम की कविता अछूत की शिकायत के मूलपाठ, उसके अर्थ एवं उस पर आलोचनात्मक टिप्पणियों से अवगत हो सकेंगे।
  • स्वामी अछूतानन्द के जीवन से परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • स्वामी अछूतानन्द के दलित साहित्य सम्बन्धी योगदान से परिचित होंगे।
  1. प्रस्तावना

    दलित साहित्य लेखन की सतत और सुदीर्घ परम्परा रही है, जो आजीवक, बुद्ध, सिद्ध, नाथ व निर्गुण सन्तों से प्रवाहित होती हुई आधुनिक युग में ज्योतिबा फुले तक आई है। भले ही साहित्य के इतिहास लेखकों ने इनके योगदान को विस्मृत कर दिया हो, किन्तु बीसवीं शताब्दी में जब दलित लेखन की जोरदार शब्दों में अनुगूँज हुई, तो उनके योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सका। हिन्दी साहित्य के सवर्णधारा के इतिहास लेखकों ने धारणा फैलाई कि दलित लेखन की शुरुआत आधुनिक युग में प्रेमचन्द व निराला से ही हुई है, किन्तु इन इतिहास लेखकों ने सच्‍चाई पर पर्दा डालकर, बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक हिन्दी दलित लेखक हीरा डोम व अछूतानन्द ‘हरिहर’ के साहित्यिक अवदान को भुला दिया। इतिहास लेखकों ने जातीय पूर्वाग्रहों के कारण इन दलित लेखकों की उपेक्षा की और ये महत्त्वपूर्ण लेखक इतिहास के काले पृष्ठों में दबे रहे। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के आन्दोलन से पूर्व भी दलित लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी थी जो साहित्यिक लेखन व अन्य सामाजिक गतिविधियों द्वारा दलित आन्दोलन को बढ़ावा दे रही थी, उनमें हीरा डोम एवं आदि हिन्दू आन्दोलन के प्रवर्तक स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ का नाम आदर के साथ लिया जाता है। इन दोनों के साहित्यिक अवदान की जानकारी के पश्‍चात ही यह कुहासा दूर हो सकेगा कि सत्तर के दशक में उभरे दलित साहित्य से भी पूर्व हिन्दी साहित्य में दलित चेतना दस्तक दे रही थी।

  1. हीरा डोम व उनकी अछूत की शिकायत कविता

    हिन्दी साहित्य के निर्माण में बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध बड़े मायने रखता है। इस युग में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने यशस्वी पत्रिका सरस्वती  का सम्पादन कर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में कई आयाम स्थापित किए। उन्होंने अपनी पत्रिका के माध्यम से कई गुमनाम लेखकों की रचनाओं को प्रकाशित कर उन्हें इतिहास प्रसिद्ध कर दिया, क्योंकि इतिहास जिनकी हत्या करता है, कला उनको जीवन देती है। इतिहास जिनकी आवाज सुनने से इनकार करता है, कला में उनकी आवाज सुनाई देती है।” (मैक्सिकन उपन्यासकार कार्लोस फुएँते, नये विमर्श और हिन्दी साहित्य, पृ. 31, सं.डॉ. इकरार अहमद) सितम्बर, 1914 की सरस्वती  पत्रिका के भाग 15, खण्ड 2, पृ. 512-513 पर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पटना के किसी गुमनाम कवि हीरा डोम की कविता अछूत की शिकायत  प्रकाशित कर इतिहास द्वारा कला की हत्या को बचा लिया। अज्ञात कुलशील हीरा डोम की यह कविता भोजपुरी में है, और सम्भवतः सरस्वती  में यह भोजपुरी की पहली रचना है। यद्यपि हिन्दी में उस समय तक दलित साहित्य जैसी कोई प्रवृत्ति नहीं थी, तथापि इस कविता की मर्मस्पर्शिता ने द्विवेदी जी को इसे प्रकाशित करने को विवश किया। उस समय किसी डोम के द्वारा इस तरह के तीखे तेवरवाली कविता लिखने की कल्पना करना भी दूभर बात कही जा सकती थी, किन्तु जातिवाद व सामन्तशाही को धता बताती अछूत की शिकायत  कविता अपनी अनूठी पहचान रखती है। इस कविता की विषय-वस्तु एवं तीखे तेवर को देखते हुए आलोचक इसे ‘हिन्दी दलित साहित्य की पहली कविता मानते हैं।’

 

इस कविता का मूल पाठ यहाँ प्रस्तुत है –

अछूत की शिकायत (मूल पाठ)

हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी,

हमनी के सेहेबे से मिनती सुनाइबि।

हमनी के दुख भगवनओं न देखताबे,

हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।

पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजाँ,

बेधरम होके रंगरेज बनि जाइबि

हाय राम! धरम न छोडत बनत बाजे,

बेधरम होके कैसे मुँहवा दिखाइबि।।1।।

खम्भवा के फारि पहलाद के बँचवले जाँ,

ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले।

धोतीं जुरजोधना कै भइआ छोरत रहै,

परगट होके तहाँ कपड़ा बढ़वले।

मरले रवनवाँ कै पलले भभिखना के,

कानी अँगुरी पै धैके पथरा उठवले।

कहँवा सुतल बाटे सुनत न वाटे अब,

डोम जानि हमनी के छुए से डेरइले।।2।।

हमनी के राति दिन मेहनत करीलेजाँ,

दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।

ठकुरे के सुखसेत घर में सुतल बानीं,

हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि।

हकिमे के लसकरि उतरल बानीं।

जेत उइओं बेगरिया में पकरल जाइबि।

 मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानीं,

ई कुल खबरि सरकार के सुनाइबि।।3।।

बभने के लेखे हम भिखिया न माँगवजाँ,

ठकुरे के लेखे नहिं लउरि चलाइबि।

सहुआ के लेखे नहि डाँड़ी हम मारबजाँ,

अहिरा के लेखे नहिं गइया चोराइबि।

भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबजाँ,

पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइबि।

अपने पसिनवा कै पइसा कमाइबजाँ,

घर भर मिलि जुलि बाँटि-चोंटि खाइबि।।4।।

हड़वा मसुइया कै देहियाँ है हमनी कै,

ओकारै कै देहियाँ बभनओं कै बानीं।

ओकरा कै घरे घरे पुजवा होखत बाजे,

सगरै इलकवा भइलैं जिजमानी।

हमनी के इनरा के निगिचे न जाइलेजाँ,

पाँके में से भरि-भरि पिअतानी पानी।

पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,

हमनी के एतनी काही के हलकानी।।5।।

(दलित देवो भव: किशोर कुणाल, पृ. 745-746)

  1. भावार्थ

    अछूत की शिकायत कविता मूलतः भोजपुरी में है, कविता का मर्म अच्छी तरह समझ में आ सके इसलिए यहाँ इसका हिन्दी अनुवाद भी अवलोकनीय है –

  1. हम लोग रात-दिन दुःख भोग रहे हैं, हमलोग साहेब (भगवान, वैसे साहेब का तात्पर्य अंग्रेज सरकार भी हो सकता है) से अपनी विनती सुनाएँगे। हम लोगों का दुःख भगवान भी नहीं देख रहे हैं। हम लोग कब तक क्लेश उठाएँगे। पादरी साहब की कचहरी में जाएँगे तो विधर्मी होकर अंग्रेज बन जाएँगे। हे राम! धर्म छोड़ते हुए नहीं बनता है, विधर्मी होकर कैसे मुँह दिखलाएँगे?
  2. जिन्होंने खम्भे को फाड़कर प्रह्लाद को बचाया, ग्राह के मुख से गजराज को बचाया, दुर्योधन का भाई दुःशासन जब द्रौपदी का चीर हरण कर रहा था, तब प्रकट होकर चीर को बढ़ाया, रावण का संहार किया और विभीषण का पालन किया तथा कानी उँगली पर पहाड़ उठाया। वह भगवान कहाँ सोया हुआ है, हमारी बात नहीं सुन रहा है, क्या हमें डोम जानकर छूने से डर रहा है?
  3. हम लोग रात-दिन मेहनत करते हैं, मात्र दो रुपये वेतन पाते हैं। ठाकुर तो अपने घर में सुख से सोया हुआ है और हम लोग उनका खेत जोत-जोतकर उपजा रहे हैं। हाकिम का लश्कर उतरने पर हम लोग वहाँ भी बेगार करने के लिए पकड़े जाते हैं। मुँह बाँधकर हम ऐसी नौकरी कर रहे हैं, यह सारी खबर सरकार को सुनायेंगे।
  4. ब्राह्मण की तरह हम लोग भीख नहीं माँगेंगे, ठाकुर की तरह लाठी नहीं चलाएँगे, साहु (बनिये) की तरह हम डण्डी मारकर बेईमानी नहीं करेंगे और अहीरों की तरह गायों की चोरी नहीं करेंगे, भाटों की तरह कबित्त जोड़कर किसी की चाटुकारिता नहीं करेंगे और न ही पगड़ी बाँधकर कचहरी में झूठा मुकदमा करने जाएँगे। हम लोग अपने पसीने से पैसे कमाएँगे और पूरे घर में मिल-जुलकर बाँट-चोंट कर खाएँगे।
  5. हम लोगों का शरीर भी हाड़-माँस का बना हुआ है। इसी प्रकार का शरीर ब्राह्मण का भी है। उसकी पूजा घर-घर में हो रही है, सारे क्षेत्र में उसकी यजमानी चल रही है। हम लोगों को कुएँ के पास भी नहीं जाने दिया जाता है और पाँक में से ही पानी भरकर हम पीते हैं। जूते से पीट-पीटकर हमारे हाथ-पैर तोड़ दिए जाते हैं। हमलोगों पर इतनी परेशानी व अत्याचार क्यों?(यह अनुवाद दलित देवोभव किशोर कुणाल, पृ. 746-747 से उद्धृत है।)

    5. विवेचना

 

हीरा डोम द्वारा रचित उक्त कविता सशक्त और क्रान्तिकारी तेवर के कारण हिन्दी साहित्य की अक्षुण्ण निधि है। “कविता मनुष्य की संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने का सबसे पुराना माध्यम रही है। हिन्दी की दलित कविता भी इसका अपवाद नहीं है। हिन्दी दलित कविता की परम्परा रैदास और कबीर से होती हुई, हीरा डोम और अछूतानन्द तक आई।” (हिन्दी मराठी दलित साहित्य: एक मूल्यांकन, डॉ. सुनीता साखले, पृ. 31) अछूत की शिकायत  कविता के रचयिता हीरा डोम अज्ञात कुलशील हैं। इस कविता के अतिरिक्त उनके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है। “श्री माता प्रसाद ने हीरा डोम को ‘वाराणसी’ का निवासी बताया है। जबकि रमणिका गुप्‍ता उन्हें पटना का निवासी लिखती हैं। वस्तुतः हीरा डोम के जीवन और साहित्य पर अभी शोध होना शेष है क्योंकि सम्भव है, उन्होंने कुछ और भी कविताएँ लिखी हों। उनके जन्म और जन्म स्थान का भी पता लगाया जाना चाहिए।” (दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ. एन. सिंह, पृ. 95) दलित देवोभव  में किशोर कुणाल ने लिखा है कि ”यह कविता भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्‍वविद्यालय के पाठ्यक्रम में ‘भोजपुरी पद्य-संग्रह’ में संकलित है। इस संकलन में उनका संक्षिप्‍त परिचय भी है, जिसके अनुसार हीरा डोम का जन्म पटना के दानापुर-मनेर के बीच भोजपुरी भाषी गाँव में बताया है। इसके अतिरिक्त कवि के बारे में अभी तक कोई प्रामाणिक विवरण नहीं मिल पाया है। “बहुत अनुसन्धान करने के बाद भी प्रमाणपूर्वक इतना ही कहा जा सकता है कि वे बिहारवासी थे और पटना दानापुर मनेर के आस-पास गंगा के दियारा में गंगा के दक्षिण या उत्तर क्षेत्र में उनका जन्म हुआ था। भोजपुरी उनकी मातृभाषा थी। ‘हमनी के राति-दिन… दरमहा में पाइबि’ से ऐसा संकेत मिलता है कि वे सरकारी नौकरी में थे और सन् 1914 में या उसके कुछ पहले दो रुपये उन्हें दरमहा यानी वेतन में मिलते थे।” (दलित देवोभव, किशोरकुणाल, पृ. 747-748)

 

हीरा डोम रचित अछूत की शिकायत दलित संवेदना की मर्मस्पर्शी कविता है। यह कविता जहाँ एक ओर ब्राह्मणवादी सामन्तशाही व्यवस्था की पोल खोलती है, दूसरी ओर दलितों की हृदयविदारक स्थिति का भी यथार्थ चित्रण करती है। इस कविता के माध्यम से हीरा डोम ने बेबाक रूप से अपनी बात कही है। जिस युग में दलितों को अपना पक्ष रखने की तनिक भी छूट नहीं थी, ऐसे में हीरा डोम द्वारा तत्कालीन समाज की विसंगतियों पर बयान देना अपने आप में महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष भी है, क्योंकि भारत की स्वतन्त्रता से पूर्व दलितों की पीड़ा को सुनने वाला कोई नहीं था। यह कविता गहरे समाजशास्‍त्रीय महत्त्व की है। कविता भले ही छोटी हो, किन्तु इसमें शुरू से अन्त तक कथित मुख्यधारा (सवर्णों) के लोगों से प्रश्‍न पूछे गए हैं, जिनका उत्तर उनके पास नहीं है। वस्तुतः यह शिकायत नहीं है, क्योंकि शिकायत में भाव यह छुपा होता है कि वह झूठी भी हो सकती है। इसलिए मैं इसे इतिहास का प्रामाणिक दस्तावेज समझता हूँ। हीरा डोम की प्रश्नाकुलता सवर्ण समाज की धज्जियाँ उड़ाती हैं।

 

यह कविता एक हीरा डोम की ही प्रतिवेदना नहीं है, पूरे दलित समाज की प्रतिवेदना है। यह प्रतिवेदना भगवान को प्रस्तुत नहीं की गई है, अंग्रेज साहब को प्रस्तुत की गई है, क्योंकि दलितों के प्रति अंग्रेजों का रुख सकारात्मक एवं सहयोगात्मक था। इसलिए हीरा डोम अंग्रेज साहब से भगवान तक की शिकायत करते हैं कि दलितों के दुःख को तो वह भी (भगवान भी) अनदेखी कर रहा है। इसलिए वे पादरी साहेब की कचहरी में न्याय की माँग भी करते हैं। हिन्दू धर्म के जातिवाद व अस्पृश्यता से दलित समाज त्रस्त था। इसलिए हीरा डोम धर्मान्तरण का विकल्प भी खुला रखते हैं, किन्तु वे धर्मान्तरण करते नहीं, क्योंकि उनके जातीय संस्कार उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं देते।

 

हीरा डोम कई पौराणिक उदाहरण देकर कहते हैं कि जिस भगवान ने प्रह्लाद को ग्राह के मुख से गजराज को दुःशासान से द्रौपदी को बचाया, रावण को मारा तथा विभीषण का पोषण किया व कानी उँगली (अनामिका) पर पहाड़ उठाकर ब्रजवासियों की रक्षा की, आज वही भगवान दलितों के दुःख दर्द देखकर द्रवित क्यों नहीं हो रहे हैं? क्योंकि ईश्‍वर भी मनुवादी व्यवस्था के रंग में रंगकर भ्रष्ट हो गए हैं। इसलिए वे दलितों को छूने से डरते हैं। हीरा डोम आगे कहते हैं कि उनके वर्ग से बलात् बेगारी करवाई जाती है तथा रात-दिन काम करने के बावजूद दलित वर्ग को सम्मानपूर्वक दो जून की रोटी नसीब नहीं होती है। वे कहते हैं कि दलित लोग रात-दिन ठाकुर के खेत में चाकरी करते हैं, इसके बावजूद उन्हें भरपेट खाना नहीं मिलता। दूसरी ओर ठाकुर सुख की नीन्द सोता है, ऐसा क्यों? हीरा डोम ने यहाँ सामाजिक असमानता के साथ-साथ वर्ग वैषम्य की बात भी उठाई है। तत्कालीन अंग्रेज सरकार में जमीन्दारों द्वारा दलितों से बेगारी लेना आम बात थी। अतः यहाँ कवि ने ऐतिहासिक सत्य भी प्रकट किया है। हीरा डोम आगे अन्य जातियों के पेशों की तुलना करते हैं कि अपने-आप को उच्‍च जाति के कहलाने वाले ये लोग कैसा कार्य करते हैं। ब्राह्मण भीख माँग कर अपनी रोजी चलाता है, तो ठाकुर लड़ाई-झगड़ा करके, बनिया डण्डी मारकर, अहीर गाय चुराकर, भाट चाटुकारिता कर कवित जोड़कर अपनी आजीविका चलाते हैं। इनके कर्म कितने घृणित हैं। यह भगवान क्यों नहीं देखता? जबकि दूसरी ओर दलित व्यक्ति दिन-रात पसीना बहाकर अपनी मेहनत की रोटी मिल-बाँटकर खाता है। कविता के अन्त में हीरा डोम मनुष्य-मनुष्य के बीच बने सामाजिक विभेद की ओट में हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। कवि बहुत ही वैज्ञानिक बात कहते हैं कि उसी हाड़-माँस की देह ब्राह्मण की भी है और दलित की भी। फिर दलित के साथ अस्पृश्यता क्यों की जाती है, जबकि ब्राह्मण पूजे जाते हैं। यहाँ हीरा डोम अपने पूर्ववर्ती सन्त कवियों कबीर व रैदास की विचारधारा से अपने को जोड़ते हैं, क्योंकि सन्त कवियों ने भी मानव-मानव के बीच भेदभाव की कड़े शब्दों में निन्दा की थी। दलितों को कुएँ के नजदीक भी जाने नहीं दिया जाता? उसे पाँके में से गन्दा पानी पीने को विवश होना पड़ता है। यदि उसने कुछ हिमाकत कर भी ली तो लाठी और जूतों से पीट-पीटकर उसके हाथ-पैर तोड़ दिए जाते हैं। आखिर ऐसा क्यों ? पूरी कविता गहरे व मर्मस्पर्शी यक्ष प्रश्‍न छोड़ती है। जिसका उत्तर न मुख्यधारा के समाज के पास है, न अंग्रेज सरकार के पास और न ही तथाकथित भगवान के पास। यह कविता गहरे आक्रोश और वेदना की कविता है, जो तत्कालीन दलितों की मनोदशा व्यक्त करती है।

 

हीरा डोम ने ईश्‍वर को भी सीधे-सीधे कठघरे में खड़ा किया है, क्योंकि उसने भी दलितों के प्रति आँख मूँद रखी है, इसलिए उनके दुःख क्लेश के प्रति उसका ध्यान नहीं है। कवि की दृष्टि में भगवान भी सवर्णों के ही हैं। अतः इस कविता में हीरा डोम का सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध सीधा विद्रोह है। वे हर स्थिति से टकराने को तैयार हैं। इस कविता की अभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि यह हृदय को स्पर्श करती हुई मर्म को भेदती है। इसकी भाषा बहुत ही संवेदित है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि “हीरा डोम की अछूत की शिकायत कविता में विचारोत्तेजक दलित विमर्श है। यह विशुद्ध रूप में दलित संवेदना की कविता है, जिसमें एक अछूत अपने कष्टों का वर्णन कर रहा है। भगवान के सामने, शायद हम सबके सामने। यह वर्णन मर्मस्पर्शी है, संवेदना को हिला देने वाला।” (दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, पृ. 110)

  1. अछूतानन्द हरिहर: सामान्य परिचय

    बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दलित आन्दोलन की कमान सँभालने वालों में स्वामी अछूतानन्द का नाम आदर से लिया जाता है। वे न केवल एक समाज सुधारक थे, अपितु प्रतिभाशाली कवि, चिन्तक एवं प्रखर वक्ता भी थे। इनके सम्बन्ध में श्यौराज सिंह बेचैन ने लिखा है कि “स्वामी अछूतानन्द आधुनिक दलित साहित्य-इतिहास के जनक हैं। इनका जन्म 6 मार्च, 1876 को गाँव सौरिख, जिला फर्रूखाबाद, उत्तर प्रदेश में पिता श्री मोतीराम और माता श्रीमती रामप्यारी देवी के घर में हुआ। बचपन में इनका नाम हीरालाल था।” (चिन्तन की परम्परा और दलित साहित्य, डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन एवं डॉ. देवेन्द्र चौबे, पृ. 188)

 

स्वामी अछूतानन्द की जन्मतिथि को लेकर काफी विवाद है। जैसा कि उपर्युक्त उद्धरण में डॉ. श्यौराजसिंह उनकी जन्मतिथि 6 मार्च, 1876 मानते हैं, वहीं डॉ. राजपाल सिंह ‘राज’ 6 मई, 1879 ई. मानते हैं, तो अन्यत्र उनका जन्म दिवस 20 जनवरी 1879 माना गया है। इतने मत मतान्तर से परे “स्वामी जी की 6 मई, 1879 ई. पूर्णिमा गुरुवार की जन्म तिथि सर्वमान्य है।” (आदि हिन्दू आन्दोलन के प्रवर्तक: स्वामी अछूतानन्द हरिहर, डॉ. राजपाल सिंह ‘राज’, पृ. 14-15)

 

हीरालाल से अछूतानन्द बनने की उनकी कहानी बहुत संघर्ष भरी है। वे अछूत कही जाने वाली दलित जाति के जाटव थे। बचपन में ही उनके पिता का आकस्मिक देहान्त हो गया, इसलिए छह भाई-बहनों के पालन-पोषण का भार उनकी माताजी ने ही उठाया। बचपन में ही इन्हें छुआछूत का सामना करना पड़ा। अतः दलित-शोषित, प्रताड़ित समाज में स्वाभिमान का भाव जगाना इनका प्रमुख उद्देश्य हो गया। प्रारम्भ से ही उन पर सन्त कबीर, रविदास और गुरु नानक की रचनाओं का प्रभाव पड़ा। उनकी रचनाओं का इन्होंने गहन अध्ययन किया। अध्ययन के कारण उन्हें हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं- संस्कृत, फारसी, मराठी, बंगला और गुरुमुखी का ज्ञान हो गया था। उन्होंने अपने जीवन के 10 वर्ष साधुओं की संगत व देशाटन में बिताए। उनकी भक्ति भावना से प्रभावित होकर श्री 108 स्वामी श्री सच्‍च‍िदानन्दजी ने उन्हें गुरुमन्त्र देकर उनका नाम हीरालाल संन्यासी कर दिया।

 

हीरालाल ने गृहस्थ धर्म भी बखूबी निभाया। युवावस्था में उनका विवाह इटावा की दुर्गाबाई से हुआ, जो सुशील एवं पतिव्रता महिला थीं। उनके तीन पुत्रियाँ भी थीं। पत्‍नी ने उनका तन-मन से साथ दिया। उस समय आर्य समाज का प्रचार-प्रसार बड़े जोर-शोर से चल रहा था, जो हिन्दू धर्म में सुधार का पक्षधर था। हीरालाल संन्यासी उसकी विचारधारा से प्रभावित हुए और सन् 1905 में राजस्थान के अजमेर में आकर वे आर्य समाज में दीक्षित हुए। आर्य समाज ने उनका नाम स्वामी हीरालाल के स्थान पर पण्डित हरिहरानन्द रख दिया। इसके पश्‍चात वे आर्य समाज के प्रचार में लग गए। समय-समय पर आर्य समाज ने उनकी परीक्षा भी ली। उन्होंने अपनी वाक्पटुता, योग्यता एवं कार्य कुशलता से हिन्दू से ईसाई या मुसलमान बने कई लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में लौटाया। इससे कई ईसाई व मुसलमान उनके दुश्मन हो गए तथा कई बार उन पर प्राणघातक हमले भी हुए। इस तरह ये हरिहरानन्द बन कर आर्य समाज के शुद्धिकरण आन्दोलन में भाग लेते रहे, किन्तु आर्य समाज के साथ उनका सम्बन्ध अधिक दिनों तक नहीं रह पाया। आर्य समाज की विभेदीकरण की नीति उन्हें जल्दी ही समझ में आ गई। जाटव बच्‍चों की शिक्षा के लिए बने विद्यालय का जब उद्घाटन हो रहा था, उस समय अछूत बच्‍चों को भूमि पर बैठाया गया तथा सवर्ण बच्‍चों को फर्श पर। इस भेदभावपूर्ण नीति से हरिहरानन्द को बड़ा आघात लगा। उन्होंने तुरन्त आर्य समाज से त्यागपत्र दे दिया तथा निर्भीक होकर कहा “अभी तक मैं समझता था कि आर्य समाज जातीय भेदभाव से रहित है, इसलिए हम प्राण प्रण से आर्य समाज का कार्य सम्पादन कर रहे थे, किन्तु आज तक हम अन्धकार में रह रहे थे, इस समारोह ने हमारी आँखें खोल दीं। हमारी चेतना को झकझोर कर रख दिया और हमें अपने पैरों पर खड़े होने का एक नया मार्ग प्रशस्त किया है।” (स्वामी अछूतानन्द हरिहर, डॉ. राजपाल सिह राज, पृ. 19)

 

स्वामी अछूतानन्द आर्य समाज की दोगली नीति से बहुत आहत हुए। उन्होंने मेरठ में दलितों का एक विशाल सम्मेलन कर आर्य समाज का भण्डाफोड़ किया और कहा कि “यह ईसाई और मुसलमानों के प्रहारों से ब्राह्मणी धर्म को बचाने के लिए गढ़ा गया वैदिक धर्म का एक ढोंग है। इसकी बातें कोरा ढोंग और सिद्धान्त उटपटांग हैं। इसकी शुद्धि महज धोखा और गुण कर्म की वर्ण व्यवस्था का झूठा शब्दजाल है। यह इतिहास का शत्रु, सत्य का हन्ता और झूठी गप्पें मारने में पूरा ढपोल शंख है। इसकी दृष्टि दोषग्राही, वाणी कुतर्की, स्थापना थोथी और वेदार्थ निरा मनगढ़न्त है। यह जो कहता है, उस पर इसका अमल नहीं। इसका उद्देश्य ईसाई, मुसलमानों में शत्रुता कराकर हिन्दुओं को वेदों और ब्राह्मणों का दास बना देना है। सत्य के खोजियों को इतिहास और विज्ञान की खोजों का अध्ययन करना चाहिए।” (वही, पृ. 19 से उद्धृत)

 

इस प्रकार सात वर्ष तक आर्य समाज की सेवा कर सन् 1917 में वे दिल्ली आ गए,और कुछ दलित समाज सुधारकों के साथ मिलकर ‘अखिल भारतीय अछूत महासभा’ की स्थापना की तथा अछूत  हिन्दी मासिक का सम्पादन एवं प्रकाश किया। अब उन्होंने अपना नाम पण्डित हरिहरानन्द से ‘स्वामी अछूतानन्द हरिहर’ रख लिया।

  1. आदि हिन्दू आन्दोलन और स्वामी अछूतानन्द

    स्वामी अछूतानन्द ने अपने क्रान्तिकारी व्यक्तित्व व दलित साहित्य लेखन का परिचय ‘आदि हिन्दू आन्दोलन’ की स्थापना के साथ दिया। अब वे एक प्रखर चिन्तक व वक्ता ही नहीं रह गए थे, अपितु अपने नाटकों, व्याख्यानों व कविताओं के माध्यम से दलित पीड़ा को उजागर करने लगे थे। आदि हिन्दू आन्दोलन की सभा करने के लिए अछूतानन्द को तत्कालीन वायसराय की अनुमति भी मिल गई थी। अछूतानन्द सन् 1923 से ही इस आन्दोलन में लग गए थे और सन् 1928 में उन्होंने ‘आल इण्डिया आदि हिन्दू महासभा’ की स्थापना कर आदिवंश का डंका बजा दिया। स्वामी अछूतानन्द का आदि हिन्दू आन्दोलन इतना प्रसिद्ध हुआ कि इसके आयोजन दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, नागपुर, इलाहाबाद, मद्रास, अमरावती, मेरठ आदि स्थानों पर भी हुए। आदि हिन्दू आन्दोलन बहुजन समाज का अभियान था, जिसमें दलित-पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व था। इसका मुख्य उद्देश्य दलित-पिछड़ों के मूल इतिहास को खोजना और अपना स्वाभिमान लौटाना था। इसमें सन्तमत का पालन किया जाता था, तथा अन्ध-परम्पराओं का खण्डन किया जाता था। अछूतानन्द ने आदि हिन्दू शब्द को भारत की आदि सनातनी मौलिक संस्कृति का प्रतीक बताया तथा आर्यों को बाहरी सिद्ध किया। यहाँ के मूल निवासी नाग थे, जिसकी पुष्टि ऐतिहासिक प्रमाणों से भी होती है। स्वामी अछूतानन्द ने इस सम्बन्ध में अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा कि “हमलोग हिन्द के आदि निवासी हैं, हमारे सौ-सौ पत्थर के किलों का जिक्र वेदों में है। आर्यों के आने से पूर्व हमलोग इस देश के राजा थे। आर्य द्विजों ने हमारे पूर्वजों को युद्ध में नहीं जीता, छल व पाखण्ड से देश पर अपना अधिकार जमा लिया और वर्ण-विधान बनाकर आप तो प्रभु बन गए तथा हम मूल-निवासियों से उन लोगों को, जिन्होंने विवश हो आर्य-धर्म स्वीकार नहीं किया और युद्ध में पकड़े गए, उन्हें नीच वृत्तिवाला ‘अछूत’ बनाया और जो भागकर जंगलों में चले गए वे कोल, भील, संथाल, कंजड़, साँसी, गोण्ड, द्रविड़, मुण्डा, उराँव आदि अब तक मौजूद हैं, जिन्हें ‘ट्राइबल रेस’ या ‘कबीला’ कहा जाता है। इधर हम लोगों में से जिन लोगों ने पढ़-लिखकर व्यापार द्वारा कुछ धन कमा लिया है और पनप गए हैं, उन्हें फिर गुण-कर्म का जाल फैलाकर आर्य-समाज चुन-चुनकर निगल लेना चाहता है, ताकि द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों) का गिरोह तो बढ़ता रहे और हम ‘आदि हिन्दू’ घटते रहें और सदा दरिद्र बने रहें। हमारे भोले भाई द्विजों की इस कूट-चाल को समझ नहीं पाते और उनके माया-जाल में फँस जाते हैं।” (आदि हिन्दू आन्दोलन के प्रवर्तक स्वामी अछूतानन्द हरिहर, डॉ. राजपाल सिंह, पृ. 41)

 

आदि हिन्दू आन्दोलन द्वारा स्वामी अछूतानन्द ने देश में जगह-जगह घूम-घूमकर दलितों को जाग्रत करने का प्रयास किया तथा अपने मूल इतिहास एवं संस्कृति के सम्बन्ध में जानकारी लेकर उनमें स्वाभिमान जगाने का आह्वान किया। इस समय तक दलितों के दूसरे नेता बाबा साहेब अम्बेडकर का उदय भी हो चुका था। वे भी अपनी सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों द्वारा दलित चेतना का अलख जगा रहे थे। उन दोनों महापुरुषों का उद्देश्य एक था। इसलिए बाबा साहब ने स्वामी अछूतानन्द के आदि हिन्दू आन्दोलन का समर्थन किया तो स्वामी अछूतानन्द ने भी बाबा साहेब की नीतियों का समर्थन किया। साईमन कमीशन के समक्ष दलितों का पक्ष रखने में दोनों नेताओं की समान राय थी और जब द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के समय बाबा साहेब लन्दन गए तो उन्होंने स्वामीजी को अपने उद्देश्य के बारे में बताया, जिसका स्वामीजी ने समर्थन किया तथा बाबा साहेब के लन्दन चले जाने के पश्‍चात अनेक पत्र लिखकर, तार भेजकर उनका उत्साहवर्द्धन करते रहे। इस प्रकार स्वामी अछूतानन्द ने जी जान से दलित चेतना का आह्वान किया तथा निर्भीकता से अपनी बात दलित समाज तक पहुँचाई। पूना पैक्ट के समय अछूतानन्द बीमार थे। इसलिए स्वयं उपस्थित नहीं हो सके, किन्तु वे अनशनरत गाँधीजी के प्राण बचाने में डॉ. भीमराव अम्बेडकर के समर्थक थे। हालाँकि पूना पैक्ट से दोनों ही नेता सहमत नहीं थे, लेकिन गाँधीजी के प्राणों की खातिर उन्हें यह समझौता करना पड़ा।

 

इसप्रकार स्वामी अछूतानन्द दलित जागरण के लिए दिन-रात संघर्ष करते रहे, जिससे उनके स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, और अन्ततः लम्बी बीमारी के बाद दिनांक 22 जुलाई, 1933 को उनका महापरिनिर्वाण हो गया।

  1. अछूतानन्द का साहित्यिक अवदान

    स्वामी अछूतानन्द ने आदि हिन्दू आन्दोलन द्वारा दलितों में चेतना जाग्रत करने के लिए जातिवाद एवं वर्ण-व्यवस्था पर प्रहार करने वाला प्रचारात्मक साहित्य लिखा, जिसकी दलित साहित्य में व्यापक महत्ता है। दलितों में चेतना जाग्रत करने के लिए अछूतानन्द कविता किया करते थे। उनकी अधिकांश रचनाएँ आज भी अप्रकाशित हैं। उनके साहित्य के बारे में डॉ. राजपाल सिंह ‘राज‘ कहते हैं कि “अपने जीवनकाल में जो कुछ प्रकाशित हो सका, उसमें शम्बूक मुनि रामराज्य नाटक, मायानन्द-बलिदान, पारख पद  और बलिछलन नाटक  अपूर्ण और अमुद्रित स्थिति में रह गया, भजनों की छोटी-छोटी कई पुस्तकें हरिहर भजनमाला, विज्ञान भजनमाला  और आदि हिन्दू भजनमाला  नाम से मुद्रित एवं प्रकाशित हुई। किन्तु इन भजनमालाओं में कोई उपलब्ध नहीं है। केवल आदिवंश का डंका  उपलब्ध है। इनके अतिरिक्त स्वामीजी ने सन् 1922-1923 में दो साल दिल्ली से प्राचीन हिन्दू और सन् 1924-1932 तक कानपुर से आदि हिन्दू  पत्र का प्रकाशन किया।” (स्वामी अछूतानन्द हरिहर, डॉ. राजपाल सिंह, राज, पृ. 62)

 

इस प्रकार स्वामी अछूतानन्द कवि होने के साथ-साथ नाटककार एवं पत्रकार भी थे। इन रचनाओं के माध्यम से उन्होंने दलितों को अपने इतिहास से परिचित करवाया तथा उनमें स्वाभिमान पैदा किया। कुछ विद्वान हीरा डोम की अछूत की शिकायत कविता से भी पहले अछूतानन्द की कविता का प्रकाशन बताते हैं। इस सम्बन्ध में कँवल भारती कहते हैं कि “स्वामीजी की एक कविता सन् 1912 की छपी हुई मिलती है, जिससे पता चलता है कि वे हीरा डोम से पहले के कवि थे।।” (दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, पृ. 112) लेकिन वह कौन-सी और कविता थी, और किस पत्रिका में छपी इसका उल्लेख कँवल भारती नहीं करते और न ही अब तक केशोध में वह कविता आई है।

 

जो कार्य महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले ने किया, उत्तर भारत में वही कार्य स्वामी अछूतानन्द ने किया। स्वयं डॉ. अम्बेडकर ने पत्र लिखकर तथा व्यक्तिगत रूप से मिलकर स्वामीजी के कार्यों की सराहना की थी। स्वामीजी ने दलितों को भारत के मूलनिवासियों के रूप में प्रस्तुत किया तथा आर्यों को विदेशी के रूप में। दलितों को अपने इतिहास का ज्ञान करवाते हुए

 

उन्होंने कहा–

आये थे जब आर्य हिन्द में तिब्बत कर स्थान,

रहती यहाँ सदा से थी इक जाति सभ्य महान।

जिनके थे सैकड़ों किले पाषाणों के मजबूत,

उनको कहे असभ्य नीच जो वह पूरा ऊत।

शंबर कुयब कृष्ण विश्‍वक थे महावीर बलवान।

कम्पित होते आर्य नाम सुन, छिप जाते भयमान।।

(वहीं, डॉ. राजपाल सिंह राज, पृ. 72)।

 

स्वामी अछूतानन्द मानते थे कि दलितों को मानवीय अधिकारों से वंचित करने वाले कानून ‘मनुस्मृति‘ में निहित है। अतः दलितों के दुःखों का मूलकारण वे मनुस्मृति  को मानते हुए लिखते हैं कि –

 

निश दिन मनुस्मृति ये, हमको जला रही है।

ऊपर न उठने देती, नीचे गिरा रही है।

ब्राह्मणों व क्षत्रियों को, सबका बनाया अफसर।

हमको पुराने उतरन पहनोबता रही है।।

दौलत कभी न जोड़े गर हो तो छीन ले वह।

फिर नीचकह हमारा, दिल भी दुःखा रही है।।

कुत्ते व बिल्ली, मक्खी, से भी बना के नीचा।

हा शोक! ग्राम बहार हमको बसा रही है।।   

(वही, डॉ. राजपाल सिंह राज, पृ. 73)

 

स्वामी अछूतानन्द की प्रमुख कविताओं का संग्रह हमें आदिवंश का डंका  नामक पुस्तिका में मिलता है। जिसमें इक्‍कीस कविताएँ संकलित की गई हैं। उन्होंने स्पष्ट लिखा कि –

 

आदि हिन्दू का डंका बजाते चलो।

कौम को नीन्द से अब जगाते चलो।

हम जमीं-हिन्द के आदि-सन्तान हैं,

और आजाद हैं, खूब सज्ञान है।         (वही, पृ. 75)

 

इस गीत में उन्होंने आगे लिखा है कि आर्य, शक, हूण, मुस्लिम, ईसाई सब बाहर से आए हैं और उन्होंने मूल निवासी दलितों को छल-बल से हराकर उनपर कब्जा कर लिया है। अतः आदि हिन्दुओं को संगठित होकर इनके विरुद्ध लड़ना होगा। स्वामीजी बहुत ही निर्भीक और बेबाक वक्ता थे। अतः कबीर की तरह सच बात कहने से तनिक भी नहीं डरते थे। उन्होंने सवर्णों को चेतावनीनामक कविता में मनुवादियों को आड़े हाथों के लेते हुए लिखा है कि–

 

राम-कृष्ण की पूजा करके चन्दन-तिलक लगाते हो।

किन्तु कुकर्मों के करने में, नेक न कभी लजाते हो।

मन्दिर में हम जाते हैं, तो बाहर हमें भगाते हो,

बड़ी-बड़ी शानें भरते हो, हमें अछूत बताते हो। (वही, पृ. 78)

 

स्वामीजी ने मन्दिरों को धूर्तों का अड्डा बताया है, जिनमें रात-दिन व्यभिचार होता है। उन्होंने आगे कहा कि साम्प्रदायिकता का जहर उगलने वाले ये पण्डे-पुरोहित ही हैं, जो परस्पर एक कौम को दूसरी से लड़वाते हैं। स्वामी जी के ये विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उनके समय में थे। इस प्रकार स्वामीजी ने सतर्क सवर्णों को ललकारते हुए उन्हें निरुत्तर कर दिया।

 

हम तो शुद्ध-बुद्ध मानव हैं, पर तुम परख न पाते हो।

घुसे छूत के कीड़े सिर में इससे तुम चिल्लाते हो।

हम करते अब छूत झड़ौवल, ठहरो, क्यों घबराते हो।

हरिहर क्यों अपने ही हाथों, नष्ट हुए तुम जाते हो।(वही, पृ. 78)

 

सवर्ण लोग दलितों को घृणा और अपमान भरी दृष्टि से देखते थे। ऐसे परम्परावादी और कर्मकाण्डी व्यक्तियों को फटकार लगाते हुए स्वामी अछूतानन्द कहते  हैं –

 

मैं अछूत हूँ, छूत न मुझमें, फिर क्यों जग ठुकराता है।

छूने में भी, पाप मानता, छाया से घबराता है,

मुझ देखकर नाक सिकोड़ता, दूर हटा वह जाता है।

हरिजन भी कहता है मुझको, हरि से विलग कराता है।(वही, पृ. 84-85)

 

दलितों को गाँधीजी द्वारा दिया गया नाम ‘हरिजन’ पर अछूतानन्द ने गहरी आपत्ति की है, क्योंकि हरिजन का तात्पर्य वेश्या पुत्र या हराम की औलाद होता है। अतः अछूतानन्द कहते हैं “हम पूछते हैं, हम अगर हरिजन हैं तो द्विज लोग कौन जन हैं ? हमें यह नाम मान्य नहीं है, यह नाम हमारी बेइज्जती करता है।” (वही, पृ. 58)

 

अछूतानन्द ने अपने साहित्य द्वारा स्पष्ट किया कि सवर्णों ने दलितों पर कई तरह के सामाजिक व धार्मिक वर्जनाएँ लादकर उन्हें मानवोचित अधिकारों से वंचित किया तथा उनपर बेरहमी से अत्याचार किया। इन पंक्तियों में सवर्णों के अत्याचार का चित्रण स्पष्ट होता है –

 

जबाँ काटी व सीसा कान में तब ही पिलाया है,

तपस्वी सन्त श्री शम्बूक का शिर भी गया काटा।

महा अपराध तप करना, गया उनका बताया है।

गया काटा अँगूठा भी धनुर्धर एकलव्य जी का।(वहीं, पृ. 83)

 

इतिहास गवाह है कि यदि दलितों में से किसी ने वेद मन्त्र का उच्‍चारण कर लिया तो उसकी जीभ काट दी जाती थी और सुन लिया तो उसके कानों में शीशा पिघलाकर डाल लिदा जाता था। राम द्वारा दलित ऋषि शम्बूक का वध, द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा कटवाना ऐसी दर्दनाक घटनाएँ हैं, जो दलितों के साथ सदियों से घटित होती रही है, इसलिए अछूतानन्द ने अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध दलितों का आह्वान करते हुए कहा है –

 

उठो, जागो, बढ़ो, आगे, आजादी मिली, तुमको।

तुम्हारी जाति उन्‍नति का सुअवसर ठीक आया है।”  (वही, पृ. 83)

 

द्विजों ने दलितों को कई तरह की यातनाएं देकर सताया है तथा उनकी स्थिति को जानवर से भी बदतर बनाया है। रात-दिन मेहनत करने के बावजूद भी दलितों को दो जून की रोटी भी उपलब्ध नहीं हो पाती थीं। अपने साहित्य द्वारा अछूतानन्द ने इन सबको उजागर करते हुए सवर्णों को गहरी फटकार लगाई है। सवर्णों ने दलितों की इस स्थिति के लिए उनके प्रारब्ध कर्मों को जिम्मेदार बताया है। अछूतानन्द ने इस सबकी पोल खोलकर उन्हें शिक्षित होने का आह्वान करते हुए कहा  कि –

 

विद्या, ज्ञान, कला से, हों परिपूर्ण सभी।

पूर्ण मनोरथ होवे पावें सुगति सभी।।(वही, पृ.84)

 

वस्तुतः अछूतानन्द ने अपने लेखन और व्याख्यानों द्वारा दलितों को दलितपन से मुक्त होने का आह्वान किया है। “वे भारतीय सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था में दलितों की स्थिति का ऐतिहासिक चित्रण करते हुए आर्यों द्वारा दलितों पर किए गए अत्याचार के सवाल को उठाते हैं।” (आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेन्द्र चौबे, पृ. 182-183)

  1. निष्कर्ष

    उपर्युक्त अध्ययन के पश्‍चात संक्षेप में कहा जा सकता है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दलित चेतना का शुभारम्भ हो गया था, जो हीरा डोम की अछूत की शिकायत कविता व स्वामी अछूतानन्द के साहित्य में मिलती है। अछूत की शिकायत कविता जहाँ एक ओर सवर्ण समाज, कथित ईश्‍वर व अंग्रेजी सरकार से दलितों की दयनीय दशा का कारण पूछती है तो आदि हिन्दू आन्दोलन के प्रणेता स्वामी अछूतानन्द इतिहास में उन कारणों की खोज करते हैं। वे कहते हैं कि भारत के आदि निवासी तो आज के दलित ही हैं, आर्य तो बाहर से आए थे, लेकिन उन्होंने दलितों पर अत्याचार कर उनको गुलाम बना दिया तथा उन पर अनेकानेक वर्जनाएँ लादकर उनके मानवीय अधिकारों का हनन किया। वस्तुतः हीरा डोम व अछूतानन्द अपने समय के प्रखर दलित कवि थे, जिन्होंने निःसंकोच होकर दलितों की दयनीय स्थिति को चित्रित किया। जिस प्रकार महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले के विचारों का व्यापक असर हुआ, उसी तरह उत्तर भारत में स्वामी अछूतानन्द का दलित वर्गों पर व्यापक असर पड़ा। उनके उल्लेखनीय कार्यों के फलस्वरूप आगे चलकर साहित्य में स्वस्थ दलित परम्परा विकसित हुई। अतः दलित साहित्य के अध्ययन में हीरा डोम व स्वामी अछूतानन्द सदैव स्मरण किए जाएँगे।

you can view video on हीरा डोम और अछूतानन्द

 

अतिरिक्त जानें-

 

पुस्तकें

  1. आदि हिन्दू आन्दोलन के प्रवर्तक: स्वामी अछूतानन्द हरिहर, डॉ. राजपाल सिंह ‘राज’, सिद्धार्थ बुक्स, दिल्ली
  2. दलित चेतना : कविता, रमणिका गुप्ता(संपा.), नवलेखन प्रकाशन, हजारीबाग
  3. दलित कविता का संघर्ष: हिन्दी दलित कविता के सौ वर्ष, कँवल भारती, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली
  4. नवें दशक की हिन्दी कविता, रजत रानी मीनू, दलित साहित्य प्रकाशन संस्था, दिल्ली
  5. दलित साहित्य का समाजशास्त्र, हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
  6. इक्कीसवीं सदी में दलित आन्दोलन (साहित्य एवं समाज-चिंतन), डॉ.जयप्रकाश कर्दम, पंकज पुस्तक मंदिर,दिल्ली
  7. दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ.एन.सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  8. दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली

     वेब लिंक्स

  1. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%85%E0%A4%9B%E0%A5%82%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A4_/_%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%A1%E0%A5%8B%E0%A4%AE
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%80_%E0%A4%85%E0%A4%9B%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6
  3. http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=954&pageno=1
  4. http://www.maina.co.in/2014/10/achhut-ke-shikaayat-heera-dom.html
  5. http://www.dalitmat.com/index.php/kala-sahitya/1221-2013-03-14-04-45-22