26 साजिश
किशोरी लाल रैगर
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- हिन्दी दलित कहानी के विविधयामी विषयों से परिचित होंगे।
- दलित कहानी में सूरजपाल चौहान के अप्रतिम योगदान से परिचित होंगे।
- भारतीय स्वतन्त्रता के पश्चात भी दलितों को नए कार्य करने से रोककर पुश्तैनी धन्धों की ओर धकेले जाने की बर्बरता से परिचत होंगे।
- सवर्णों की कुटिलता व दलितों के प्रति रची जा रही साजिश के बारे में जान पाएँगे।
- सामाजिक रूपान्तरण की पहल एवं दलित चेतना के लिए संघर्ष की आवश्यकता का परिचय प्राप्त कर सकेंगे।
- प्रस्तावना
आठवें दशक के पश्चात हिन्दी दलित चेतना की अभिव्यक्ति न केवल कविता, आत्मकथा या कुछ लेखों के रूप में हुई, बल्कि कहानियों के माध्यम से भी प्रकट हुआ। दलित कहानियों में वर्ण एवं जाति आधारित असमानता तथा शोषण, दमन के विरुद्ध प्रतिरोध की चेतना विकसित हुई।
ओमप्रकाश वाल्मीकि, रत्नकुमार सांभरिया, मोनहदास नैमिशराय, दयानन्द बटोही, सत्यप्रकाश, एस.आर. हरनोट, शत्रुघ्न कुमार, श्यौराज सिंह बेचैन, कुसुम वियोगी, अजय नावरिया, सुशीला टाकभौरे, बुद्धशरण हंस, विपिन बिहारी, सूरजपाल चौहान आदि दलित साहित्यकारों ने दलित कहानी लेखन में अप्रतिम योगदान देते हुए कहानियों के माध्यम से न केवल दलित समाज के यथार्थ को प्रकट किया, अपितु सदियों से सोए दलित समाज में चेतना भी जाग्रत की। “दलित उन्नायकों ने अपनी कहानियों के माध्यम से इस वर्ग के जीवन का यथार्थ निरूपण किया है। इन कहानियों में दलित जीवन की वेदना, निरन्तर संघर्ष करते रहने की अनिवार्यता, सुविधा भोगी लोगों के प्रति उनकी विरोध मुद्रा, प्रतिकूल नारकीय स्थिति में भी जीने की विवशता और अपने माननीय अधिकारों की प्राप्ति हेतु आत्मसजगता जाग्रत हुई।” (आधुनिक हिन्दी कहानियों में दलित चेतना, रमेश कुमार, आजकल, जनवरी 1992)
दलित कहानियों का वर्ण्य विषय दलित जीवन की त्रासदी रहा है, जिसमें उस समाज का दुःख, दारिद्र, गरीबी के साथ-साथ वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद तथा सामन्तवाद के कहर का कारुणिक और भयावह चित्रण है। दलित कहानिकारों ने अपनी कहानियों के माध्यम से जहाँ एक ओर दलित जीवन की व्यथा-कथा व्यक्त की, दूसरी ओर दलित जीवन संघर्ष व नारकीय जीवन से मुक्ति की छटपटाहट को भी अभिव्यक्ति दी। ये कहानियाँ समाज की कड़वी सच्चाइयों को सामने लाती हैं। ये कहानियाँ दबे-कुचले, शोषित-पीड़ित जन-समूह की करुण पुकार ही नहीं, अपितु सदियों के शोषण से मुक्ति की राह भी दिखाती हैं। इन कहानियों के माध्यम से बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की मूल चेतना ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो तथा संघर्ष करो’ बखूबी प्रकट हो रही है। वस्तुतः दलित कहानियों के माध्यम से समाज के उपेक्षित एवं पीड़ित जनसमुदाय का जीवन-दर्शन मुखरित हो रहा है। ये कहानियाँ सामाजिक रूपान्तरण की पहल करती दृष्टिगोचर होती हैं। इसलिए ये कहानियाँ हमें तृप्त ही नहीं करतीं, अपितु दलित-पीड़ित समुदाय में संघर्ष का आह्वान भी करती हैं। इन दलित कहानियों में “दलित जीवन के कोण हैं – जीवन से जूझने के, जिन्दा रहने के, पीड़ा सहने के और उससे उबरने के। समय के लम्बे अन्तराल को छूती हैं ये कहानियाँ। इसलिए दलित-चेतना के उदय से लेकर संकल्प बनने तक का विकास इनमें उजागर होता है। हीन भावना से उबरना, निर्मित होता आत्मसम्मान, तनकर खड़ी होती अस्मिता और परिवर्तन का संकल्प विकसित होता नजर आता है इनमें।” (दलित कहानी संचयन, सं. रमणिका गुप्ता, पृ. 17)
इन दलित कहानियों के इन्हीं वर्ण्य विषयों को प्रस्तुत करती प्रसिद्ध दलित रचनाकार सूरजपाल चौहान की कहानी साजिश की हम यहां चर्चा करेंगे।
- लेखक परिचय
हिन्दी के दलित रचनाकारों में सूरजपाल चौहान का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। “कवि एवं कथाकार श्री सूरजपाल चौहान का जन्म 20 अप्रैल, 1955 को ग्राम फुसावली, जनपद अलीगढ़ (उ.प्र.) में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रोशनलाल है।” (दलित साहित्य के प्रतिमान,डॉ. एन. सिंह, पृ. 113) सूरजपाल चौहान का जीवन अन्य दलित रचनाकारों की ही तरह संघर्ष पूर्ण रहा, जिसका उल्लेख उनकी आत्मकथा के दोनों भागों तिरस्कृत एवं संतप्त में मिलता है। सूरजपाल चौहान सफाईकर्मी के कार्य से अपनी रोटी-रोजी प्रारम्भ करते हुए वाणिज्य मन्त्रालय के एस.टी.सी. विभाग, नई दिल्ली से 30 अप्रैल 2015 को प्रबन्धक पद से सेवा-निवृत्त हुए। उन्होंने एक साक्षात्कार में स्वयं बताया कि उन्होंने जिन्दगी गर्दिश में ही गुजारी, किन्तु कभी हार नहीं मानी। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सदैव उनके आदर्श रहे, उन्होंने जीवन संघर्ष बाबा साहेब से सीखा। आत्मकथा के अतिरिक्त क्यों विश्वास करूँ, प्रयास, कब होगी वह भोर, वह दिन जरूर आएगा उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं। इसी तरह हैरी कब आएगा, नया ब्राह्मण, धोखा उनके तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं तथा हिन्दी के दलित साहित्यकारों की पहली प्रकाशित कहानी उनकी सम्पादित रचना है। उन्होंने बाल साहित्य में भी लेखन किया है।
सूरजपाल चौहान जुझारू प्रवृत्ति के दलित रचनाकार हैं। उन्होंने सर्दी की ठिठुरन तथा लू के थपेड़े झेलकर जीवन जिया है। इसलिए उनकी रचनाओं में वर्ण-व्यवस्था एवं जातिवाद के थपेड़ों को झेलते पात्रों की कारुणिक स्थिति के चित्रण के साथ-साथ उनसे मुक्ति के लिए संघर्ष भी बेजोड़ है। उनका मानना है कि सामाजिक व्यवस्था ने सदियों से दलितों को गूँगा रहने को मजबूर किया, किन्तु दलित लेखन उस गूंगेपन की ही प्रतिक्रिया है, जो विषमता, संकीर्णता एवं जातीय वैमनस्य को तोड़कर सदियों से सोए हुए दलितों में चेतना जाग्रत करता है। इसलिए बचपन के संस्कार एवं स्मृतियाँ उन्हें न केवल बेचैन करती हैं, अपितु लिखने के लिए भी विवश करती हैं। सूरजपाल चौहान वस्तुतः एक दलित आत्मकथाकार, कवि के साथ-साथ दलित कहानीकार के रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
- साजिश कहानी की कथावस्तु
सूरजपाल चौहान की साजिश कहानी उनके प्रथम कहानी-संग्रह हैरी कब आएगा में संकलित है। यह संग्रह अपने प्रकाशन काल से ही काफी चर्चित रहा है। इस संग्रह की कहानी साजिश दलित हिन्दी कहानी की मुख्यधारा की कहानी रही है। यह कहानी दलित-विमर्श का व्यापक हिस्सा रही है। इस कहानी की संक्षिप्त कथावस्तु इस प्रकार है – पढ़ा-लिखा दलित नत्थू मेटाडोर खरीदने के लिए बैंक में लोन लेने के लिए जाता है, किन्तु बैंक मैनेजर रामसहाय शर्मा उसे उल्टी पट्टी पढ़ाता है कि ट्रांसपोर्ट के धन्धे में कई लफड़े हैं तथा लोहा हर किसी को नहीं फलता। अतः उसे मेटाडोर के लिए नहीं अपितु पिगरी लोन के लिए आवेदन करना चाहिए। नत्थू के मना करने के बावजूद बैंक मैनेजर अपने सहकर्मी सतीश भारद्वाज से मिलकर साजिश रचता है कि यदि दलित अपने पुश्तैनी धन्धे को छोड़कर दूसरे आधुनिक धन्धों को अपना लेंगे तो उनके घरों की गन्दगी कौन साफ करेगा ? ऐसे में दलितों को पुश्तैनी धन्धा करने के लिए ही मजबूर किया जाये। बैंक मैनेजर शर्मा व भारद्वाज साजिश रचकर नत्थू को जबरन पिगरी लोन स्वीकृत कर देते हैं। नत्थू जब इस सम्बन्ध में अपनी पत्नी शान्ता से बातचीत करता है, तो वह समझ जाती है कि उसके भोले-भाले पति नत्थू को बैंक वाले साजिश में फँसाकर पुश्तैनी धन्धा करने के लिए विवश कर रहे हैं। शान्ता की बातों से नत्थू की विचारधारा में परिवर्तन आता है और वे लोग दलितों का संगठन बनाकर बैंक मैनेजर व उसके सहकर्मी के विरुद्ध आन्दोलन करते हैं। विवश होकर बैंक मैनेजर को नत्थू का पिगरी लोन रद्द करके मेटाडोर का लोन स्वीकृत करना पड़ता है और अन्ततः उसे अपना स्थानान्तरण भी अन्यत्र करवाना पड़ता है। यह कहानी सवर्ण मानसिकता की साजिश का भण्डाफोड़ करने वाली सशक्त कहानी है तथा यह सामाजिक रूपान्तरण का आह्वान करती है।
- कहानी का आलोचनात्मक विश्लेषण
भारतीय समाज की चातुर्वर्ण व्यवस्था ने इस प्रकार का षड्यन्त्र रचा है कि जो जिस वर्ण व जाति में जन्म ले,वह उसी जाति के परम्परागत पेशे अपनाए। ऊँची जाति का व्यक्ति चाहे कितना भी नालायक क्यों न हो अपनी उच्च जातीयता के अहंकार के कारण वह अपनी बपौती को छोड़ने को तैयार नहीं। दूसरी ओर निम्न कही जाने वाली जातियों में यदि कोई पढ़ लिखकर अपनी प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ना चाहे या अपना पुश्तैनी पेशा बदलना चाहे तो सवर्ण समाज उसे बदलने नहीं देता। इस क्रूर सामाजिक अव्यवस्था को धर्मग्रन्थों एवं स्मृतिग्रन्थों ने प्रश्रय दिया है। उनमें व्यवस्था की गई है कि –
“यो लोभादधमो जात्या जीवेदुत्कृष्टकर्मभिः।
तं राजा निर्धनं कृत्वा क्षिप्रमेव प्रवासयेत्।।
अर्थात् कोई नीच (शूद्र) यदि लोभ से श्रेष्ठ जाति की जीविका धारण करे तो राजा उसका सर्वस्व हरण कर तत्काल ही उसे निर्वासित कर दे।” (आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेन्द्र चौबे, पृ. 119)
यह जाति व्यवस्था का ही षड्यन्त्र है, जिसके कारण दलित जातियों को हाशिये का जीवन जीने को विवश होना पड़ता है। जाति व्यवस्था समाज को जड़ीभूत बनाती है। डॉ. अम्बेडकर पर लिखित चर्चित पुस्तक ‘भीमराव अम्बेडकर’ में जाति-प्रथा के मूल सिद्धान्तों की चर्चा करते हुए डब्ल्यु.एन. कुबेर ने लिखा है कि “जाति प्रथा के मूल सिद्धान्तों का सार यह है – 1. जन्म के आधार पर मनुष्यों में असमानता, 2. व्यवसायगत असमानता और 3. चारों मुख्य वर्णों में पूर्ण एवं कठोर सामाजिक विभाजन और उनकी उपजातियों के मध्य उतना ही कठोर भेदभाव।” (भीमराव अम्बेडकर, डब्ल्यु.एन. कुबेर, पृ. 1)
साजिश कहानी में भी जातिवाद के इसी सिद्धान्त का पर्दाफाश किया गया है। मैनेजर रामसहाय की दृष्टि में दलित नत्थू द्वारा अपने पुश्तैनी पेशे गन्दगी साफ करने को त्याग कर मेटाडोर चलाने का धन्धा अपनाना पाप है। साजिश कहानी में सूरजपाल चौहान ने बताया है कि किस प्रकार दलित समाज का युवक नत्थू जब बी.ए. की पढ़ाई के बाद अपना जातिगत पेशा छोड़ना चाहता है तो बैंक मैनेजर रामसहाय शर्मा उससे कहता है – “नत्थू तू पागल है क्या? मेरी बात क्यों नहीं मानता? इस ट्रांसपोर्ट के धन्धे में रखा ही क्या है? दिन-रात की मेहनत और तमाम तरह की सिर खपाई, कहीं दुर्घटना हो गई तो जीवन बर्बाद। ऊपर से सबसे बड़ी बात ये कि लोहा तुझे फले या न फले। कैसे चुकाएगा बैंक का कर्जा?” (दलित कहानी संचयन, सं. रमणिका गुप्ता, पृ. 66) बैंक मैनेजर नत्थू को पिगरी लोन लेने हेतु दबाव डालता है, क्योंकि बैंक मैनेजर की दृष्टि में ट्रांसपोर्ट का धन्धा बड़े-बड़े व्यापारियों का है, छोटे लोगों का धन्धा नहीं। नत्थू पिगरी लोन के लिए साफ मना कर देता है, पर मैनेजर शर्मा इतने में ही सन्तुष्ट नहीं होता। वह अन्य दलित व्यक्तियों का उदाहरण देकर कहता है कि “बस, तुम लोगों में यही कमी है। दो-चार किताबें क्या पढ़-लिख गए कि समझने लगे अपने आपको बड़ा आदमी। कल्लन जाटव के लड़के श्यामा को देखें, तेरी तरह बी.ए. पास है। उसने भी तो बैंक से कर्जा लेकर अपने चमड़े के व्यापार को आगे बढ़ाया है। यह नेक सलाह उसे मैंने ही दी थी। आज लाखों में खेल रहा है।” (दलित कहानी संचयन, सं. रमणिका गुप्ता, पृ. 67)
ऊपर से देखने पर यह लगता है कि बैंक मैनेजर शर्मा नत्थू का हितैषी है, उसके साथ उसकी पूर्ण सहानुभूति है, इसलिए वह नेक सलाह दे रहा है, किन्तु इस नेक-सी दिखने वाली सलाह के पीछे सामाजिक व्यवस्था का बहुत बड़ा षड्यन्त्र है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था यथास्थितिवाद का समर्थन करती है। वह पेशे को जन्म से जोड़ने की पक्षधर है कर्म से नहीं। अतः मैनेजर शर्मा जैसे जातिवादी व्यवस्था के पोषक कभी नहीं चाहेंगे कि दलित वर्ग के व्यक्ति अपना पुश्तैनी पेशा छोड़कर कोई नया व्यवसाय अपनाए। इसलिए हेडक्लर्क सतीश भारद्वाज से मिलकर साजिश रचते हुए मैनेजर शर्मा नत्थू का तुरन्त पिगरी लोन स्वीकृत कर देता है तथा अपने सहकर्मी भारद्वाज को हिदायत देता है कि “भविष्य में ध्यान रखना कि कोई भी अछूत वर्ग का युवा अपना धन्धा शुरू करने के लिए बैंक से पैतृक धन्धे में ही लगने हेतु प्रेरित करना है। उसे ऐसा विश्वास दिलाओ कि वह अपना पैतृक धन्धा छोड़कर दूसरे धन्धों की कल्पना भी न करे।” (दलित कहानी संचयन, सं. रमणिका गुप्ता, पृ. 68)
ब्राह्मणवाद अपने षड्यन्त्रों में इसलिए सफल होता है कि वह दूर की कौड़ी मारता है। मैनेजर शर्मा भी दूर की कौड़ी मारने में माहिर है। उसके लिए मानवतावाद कोई मायने नहीं रखती। वह अपने हेड क्लर्क भारद्वाज को स्पष्ट कह देता है कि यदि “ये अछूत अपना खानदानी धन्धा बन्द कर कोई नया धन्धा करने लगेंगे, तो आनेवाली पीढ़ियाँ हमारे घरों की गन्दगी कैसे साफ करेंगी। उस स्थिति में घर की गन्दगी क्या तुम खुद साफ करोगे?” (दलित कहानी संचयन, सं. रमणिका गुप्ता, पृ. 68)
मैनेजर रामसहाय शर्मा जातिवाद को बढ़ावा देते हुए स्पष्ट कहता है कि “जो लोग जूठन खाकर बड़े हुए हैं, वे हमारे साथ कैसे उठ-बैठ सकते हैं ?” मैनेजर रामसहाय की सोच जाति व्यवस्था को उकसाने का प्रतिनिधित्व करती है, क्योंकि ऐसी दकियानूसी सोच के कारण ही आज भी हमारा समाज ऊँच-नीच व जातिवाद से मुक्त नहीं हो पा रहा है। स्वाधीनता के बाद संवैधानिक संरक्षण के कारण भले ही बाह्य अस्पृश्यता नहीं दिखाई देती, किन्तु मानसिक जातीयता का कोढ़ अन्दर ही अन्दर अधिक फैल रहा है। मैनेजर शर्मा की यह सोच मानसिक जातिवाद का ही घिनौना उदाहरण है। आज मानसिक जातिवाद ही देश के पिछड़ेपन का प्रमुख कारण है।
मैनेजर शर्मा अपनी प्रारम्भिक साजिश में सफल हो जाता है और वह नत्थू का ब्रेनवॉश कर उसे पिगरी लोन के लिए सहमत कर लेता है। किन्तु नत्थू की पत्नी शान्ता को जब इस साजिश का पता चलता है तो वह अपने पति को समझाते हुए कहती है कि पिगरी लोने देने में मैनेजर की साजिश है, क्योंकि वह दलितों को अपना पुश्तैनी धन्धा नहीं छोड़ने देना चाहता है। शान्ता की बातों से नत्थू के विचार बदलते हैं तथा अगले ही दिन उसने आस-पास के गाँवों में जाकर दलित जातियों को संगठित कर बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के स्वप्न को साकार करने के लिए गांव में एक सभा बुलाई “शान्ता भी उस सभा में गई, दोनों ने बैंक मैनेजर द्वारा दलित युवकों को केवल पिगरी का कर्ज देकर उन्हें उनके सुअर पालने के पुश्तैनी धन्धे में रखने और दूसरे धन्धों-पेशों में ना जाने देकर समाज की मूलधारा से अलग रखने की साजिश पर प्रकाश डाला।” (दलित कहानी संचयन, रमणिका गुप्ता, पृ. 69)
दलितों के जनसमूह ने आन्दोलन खड़ा कर दिया तथा मनचाहे पेशे के लिए कर्ज देने व बहुमुखी विकास के अवसर देने की माँग करने लगे। उनके इस आन्दोलन से बैंक मैनेजर के हाथ-पाँव फूलने लगे तथा पूरा जिला प्रशासन सकते में आ गया। बैंक मैनेजर तुरन्त अपना रुख बदलते हुए ट्रांसपोर्ट लोन स्वीकृत कर देता है। दलितों का जनसमूह मैनेजर को हिदायत देता है कि “आइन्दा फिर किसी को गलत पट्टी पढ़ाई तो अच्छा नहीं होगा शर्मा जी। जो जैसा कर्ज माँगे, वैसा दीजिए। आदेश-उपदेश देने का धन्धा बहुत हो चुका। अब यह सब बन्द कीजिए। अब सुनना सीखिए, नहीं तो अच्छा नहीं होगा।” (दलित कहानी संचयन, रमणिका गुप्ता, पृ. 70)
यह दलितों द्वारा महज धमकी नहीं अपितु ब्राह्मणवादी व्यवस्था को सिरे से खारिज करने के लिए जन आन्दोलन है। वस्तुतः यह कहानी सामाजिक रूपान्तरण का अच्छा उदाहरण है, क्योंकि “दलित कहानियाँ सामाजिक बदलाव लाने का आह्वान करती है। इन कहानियों में आक्रोश है, आग है, लावा है, गुस्सा है तो साथ-साथ संवेदना, मनवीयता और सब्र भी है। न्याय की उत्कट लालसा है तो समानता की तीव्र ललक भी है।” (दलित चेतना: साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार, रमणिका गुप्ता, पृ. 95)
सूरजपाल चौहान की इस कहानी ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था की साजिश के विरुद्ध जो जनान्दोलन खड़ा किया गया, वह सामाजिक परिवर्तन की सांविधानिक माँग है, जो सामाजिक न्याय की अवधारणा को पुष्ट करती है। लेखक की यह कहानी समाज द्वारा बनाई गई उत्कृष्टता एवं पवित्रता के मानदण्डों को तोड़ती है तथा शोषण एवं दमन का प्रतिकार कर हाशिए के समाज को मुख्यधारा के केन्द्र में खड़ा करने के लिए संघर्ष का आह्वान करती है।
शैल्पिक दृष्टि से यह कहानी साधारण प्रतीत होती है, कथाकार का कहानी कहने का ढंग सपाट है। सपाटबयानी में कही गई यह कहानी भावों और विचारों की सुदृढ़ता के कारण सीधे चोट करती प्रतीत होती है। यह परम्परागत सौन्दर्य शास्त्रीय मूल्यों सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम को नए सिरे से परिभाषित करती है। दलित समाज की त्रासदी, जातिवाद इस कहानी का सत्य है तो उससे मुक्ति व चेतना जागृति के लिए जनआन्दोलन ही इसके शिवम् व सुन्दरम् तत्त्व है। इस कहानी में ब्राह्मणवादी ताकतों की साजिश के विरुद्ध गहरा आक्रोश है, जो साधारण शैली के बावजूद इस कहानी को सशक्त बनाता है। कहानी घटना प्रधान है, जिसे कथाकार ने सहज रूप में ही सरल व बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत किया है, अतः अभिव्यक्ति में कहीं बाधा नहीं पहुँचती।
- निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन के पश्चात कहा जा सकता है कि सूरजपाल चौहान की कहानी साजिश दलित कहानी आन्दोलन को सुदृढ़ करने वाली कहानी है। इस कहानी के माध्यम से कथाकार ने एक गहरी साजिश का पर्दाफाश किया है कि दलितों की प्रगति चेतना को रोकने को लिए सवर्ण मानसिकता वाले लोग किस तरह का खेल, खेल सकते हैं। ऊपर से दलितों के हिमायती दिखने वाले ऐसे लोगों के मन में क्या-क्या चाल चलती रहती है। यह कैसी विडम्बना है कि भारत की आजादी के इतने वर्षों बाद भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषक दलितों को अपना मनचाहा पेशा चुनने की स्वतन्त्रता नहीं देते। बैंक मैनेजर रामसहाय शर्मा की चाल का पर्दाफाश कर कहानीकार ने इस सत्य को उजागर किया है कि सवर्ण मानसिकता वाले लोग किसी न किसी तरीके से दलितों को पुश्तैनी पेशे में ही फँसाए रखना चाहते हैं ताकि दलित गुलामी की बेड़ियों से आजाद न हो सके। मैनेजर शर्मा द्वारा नत्थू को मेटाडोर का लोन न देकर जबरन पिगरी लोन देने की पेशकश इसी यथार्थ को उजागर करती है। किन्तु आज दलित चुप बैठने वाले नहीं। जब मैनेजर की इस साजिश का पता लगता है तो दलित जनान्दोलन को उद्यत होकर, इसमें अपनी जीत प्राप्त करते हैं और कहानीकार सामाजिक रूपान्तरण की पहल में सफल सिद्ध होता है। अतः यह कहानी कथ्य एवं शिल्प दोनों ही दृष्टि से सफल एवं सार्थक कहानी है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- दलित जीवन की कहानियाँ, गिरिराज शरण (संपा.), प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
- दलित कहानी संचयन, रमणिका गुप्ता, साहित्य अकादेमी, दिल्ली
- दलित समाज की कहानियाँ, रत्नकुमार सांभरिया, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली
- दलित चेतना की कहानियाँ बदलती परिभाषाएँ, राजमणि शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेन्द्र चौबे, ओरियंट ब्लैक स्वान, दिल्ली
- नयी सदी की पहचान, श्रेष्ठ दलित कहानियाँ, मुद्राराक्षस, लोकभारती प्रकाशन, दिल्ली
- दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ.एन.सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- दलित चेतना: साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार, रमणिका गुप्ता, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली
- आधुनिक हिन्दी कहानियों में दलित चेतना, रमेश कुमार, आजकल, जनवरी 1992
वेब लिंक्स
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