8 सहानुभूति और स्वानुभूति

गनपत तेली and देवेन्द्र चौबे

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप –

  • स्वानुभूति और सहानुभूति का अन्तर समझ पाएँगे।
  • दलित साहित्य में स्वानुभूति का महत्त्व समझ पाएंगे।
  • स्वानुभूति और सहानुभूति के मुद्दे पर विभिन्‍न लेखकों के विचारों से परिचित हो सकेंगे।
  • गैर-दलित लेखकों के दलित लेखन को दलित आलोचकों के नजरिए से समझे सकेंगे।

    2. प्रस्तावना

 

साहित्य लेखन में अनुभूति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कहानी, उपन्यास, कविता, संस्मरण, रेखाचित्र आदि विधाओं में लिखने के लिए अनुभवों का होना बहुत आवश्यक है, लेकिन इन अनुभवों के स्वरूप और इनकी भूमिका पर आलोचकों के बीच बहस होती रही है। एक तरफ साहित्य में साधारणीकरण, कल्पना सिद्धान्त, कला के तीन क्षण जैसे सिद्धान्त और अवधारणाएँ अनुभवों के साथ-साथ साहित्यिक कौशल को भी महत्त्वपूर्ण मानते हैं, वहीं दूसरी तरफ साहित्य में प्रामाणिक अनुभूति की धारणा भी प्रचलित रही है।

 

दलित साहित्य में स्वानुभूति और सहानुभूति की बहस एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। सामान्य अर्थों में स्वानुभूति अपनी निजी अनुभूति को कहते हैं, जबकि सहानुभूति किसी और की दुरवस्था देखकर अनुभव की जाने वाली समान अनुभूति होती है। साहित्य रचना के अर्थ में स्वानुभूति का अर्थ भोगे हुए यथार्थ से है। दलित साहित्य ही नहीं, बल्कि स्‍त्री लेखन और आदिवासी लेखन में भी स्वानुभूति पर बल दिया जाता है। दलित लेखकों द्वारा दलित लेखन किया जाना स्वानुभूति परक लेखन कहा जाता है और दलितेर लेखकों द्वारा दलितों पर लिखा गया साहित्य सहानुभूति का साहित्य कहा जाता है। मुख्यधारा के लेखकों द्वारा दलित जीवन पर लिखा गया साहित्य इसी सहानुभूति की श्रेणी में आता है।

 

जिस समय दलित लेखन का उभार हुआ, उस समय दलित लेखन के स्वरूप से सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दे उभर कर आए थे कि – दलित लेखन के आगमन से पहले दलित मुद्दे पर रचे गए साहित्य को दलित साहित्य माना जाए या नहीं? दलित साहित्य किसे माना जाए? गैर दलित-साहित्यकारों द्वारा रचे गए साहित्य को दलित साहित्य माना जाए या नहीं? गैर दलित लेखकों द्वारा किए गए दलित लेखन को किस श्रेणी में रखा जाए? इन मुद्दों पर होने वाली चर्चा ही स्वानुभूति और सहानुभूति की बहस का उद्गम है। इस बहस में दलित लेखकों द्वारा किए गए दलित लेखन को स्वानुभूति का लेखन माना गया और गैर दलित लेखकों द्वारा लिखे गए साहित्य को सहानुभूति का लेखन। स्वानुभूति के लेखन के पक्ष में दलित लेखकों द्वारा मुख्य रूप से दो तर्क दिए जाते हैं। पहला अनुभव का तर्क है, जिसके तहत कहा जाता है कि दलित लेखकों के पास दलित जीवन का अनुभव है, इसलिए उनका लिखा साहित्य ही दलित साहित्य है। दलितेर लेखकों के पास यह अनुभव है ही नहीं। दूसरा तर्क जाने-अनजाने ब्राह्मणवादी व्यवस्था से सम्बद्ध संस्कारों का दिया जाता है, जिनके कारण दलितेर लेखक के सरोकार दलित समुदाय से नहीं जुड़ते। इनसे सम्बद्ध कुछ अन्य तर्क भी स्वानुभूति के समर्थन में दिए गए हैं। दूसरी तरफ स्वानुभूति के आग्रह का विरोध भी दलितेतर लेखकों द्वारा किया गया है।

 

3. सहानुभूति का पक्ष

 

कुछ दशकों पहले भारत में साक्षरता की दर बहुत कम थी। साक्षरता की दर की कमी हाशिए पर जीवन जीने वाले समुदायों में अधिक थी। सन् 1931 की जनगणना के आँकड़े से स्पष्ट है कि सामान्य और उच्‍च जातियों में भी साक्षरता दर औसत थी, पिछड़ी जातियों में तो लगभग शून्य थी। ऐसे में साहित्य लेखन में किसी दलित का स्वर आ पाना असम्भव था। बाद के वर्षों में जब दलित वर्ग में साक्षरता का प्रसार हुआ तब स्वयं दलित लेखन करने लगे। इससे पहले दलित वर्ग से सम्बन्धित लेखन दलितेर लेखकों द्वारा ही हुआ। इस लेखन में मानवीय सरोकारों से सम्बद्ध लेखकों ने दलित वर्ग के प्रति सहानुभूति पर लेखन किया। इसलिए दलित विमर्श के उभार से पहले हमें सहानुभूति का साहित्य मिलता है। इस सम्बन्ध में यह भी गौरतलब है कि उस समय एक तरफ संवेदनशील लेखक दलित एवं अन्य हाशिए के समुदायों के प्रति सहानुभूति का साहित्य लिख रहे थे, वहीं दूसरी तरफ साहित्य में संकीर्ण मानसिकता के लेखक भी थे, जिनके साहित्य में यह सहानुभूति भी नहीं थी।

 

स्वानुभूति और सहानुभूति की इस बहस में कई विद्वान साहित्य में स्वानुभूति को आवश्यक नहीं मानते हैं। डॉ. पी. एन. सिंह स्वानुभूति को दलित साहित्य में कथ्यात्मक थकान लाने वाला मानते हुए लिखते हैं कि ‘‘बार-बार यह एहसास होता है कि दलित साहित्य  अब तक कथ्यात्मक थकान का शिकार है। सम्भवतः स्वानुभूति में सिकुड़े रहने का यह परिणाम है। इस लक्ष्मण रेखा ने अन्यों के अनुभवों एवं संवेदनशीलताओं के प्रति उदासीन बनाया है। यहाँ पर कोई बड़ी उपलब्धि सामने नहीं है। उपन्यास और नाटक के लिए कल्पना और अनुभव का जो विस्तीर्ण  फलक और निर्वैयक्तिकता चाहिए, वह अभी इसके पास नहीं है। प्रबन्ध काव्य भी बहुत कम दिखते हैं।” (हिन्दी दलित साहित्य, कुछ शंकाए कुछ सम्भावनाए, सृजन संवाद, अंक-6 पृ. 213) दलित साहित्य की विधाओं के विस्तार से सम्भवत: पी. एन. सिंह का यह मत भी सन्तुलित हो जाएगा।

 

असल में स्वानुभूति की अवधारणा साहित्य में भोगे हुए यथार्थ और अनुभूति की प्रामाणिकता जैसी मान्यताओं के रूप में पहले भी आती रही हैं, लेकिन कल्पनाशीलता और साधारणीकरण जैसे साहित्य सिद्धान्तों का महत्त्व बना रहा। कई लेखकों ने ऐसी संवेदनशील रचनाएँ लिखी हैं, जो परकाया प्रवेश जैसी हैं। उदाहरण के लिए, दो बैलो की कथा  में हीरा-मोती का प्रेमचन्द द्वारा किया गया चित्रण एकदम सजीव है। इसी तरह फ्रेंज काफ्का की चर्चित कहानी मेटामोर्फोसिस (कायान्तरण) के नायक के शरीर का मकड़ी जैसे जानवर में बदल जाने के बाद का वर्णन भी देखा जा सकता है।

 

अगर स्वानुभूति के तर्क का विस्तार किया जाए, तो इस जगत का बड़ा हिस्सा साहित्य के दायरे से बाहर रह जाएगा, जिसमें निर्जीव वस्तुओं, पशु-पक्षियों, प्राकृतिक विशिष्टताओं के अतिरिक्त अशिक्षित और अक्षम लोग भी सम्मिलित होंगे। ओमप्रकाश वाल्मीकि इस सन्दर्भ में काशीनाथ सिंह के एक मत का उल्लेख करते हैं कि “घोड़े पर लिखने के लिए घोड़ा होना अनिवार्य नहीं है।” घोड़े की जो थकान और पीड़ा है, उसे लेखक नहीं अनुभव कर सकता है, लेकिन लिखता तो लेखक ही है। अस्मितामूलक लेखन के शुरू होने से पहले एक अन्य प्रसंग में कथाकार यशपाल ने अपने लेखन के हवाले से एक बातचीत में कहा था कि एक व्यक्ति कल्पना के आधार पर उतना ही स्वाभाविक चित्रण कर सकता है, जितना अपने जीवन में भोग कर। मैं नहीं मानता कि किसी चीज का चित्रण करने से पहले लेखक उसे भोगने जाए। … उदाहरण लीजिए देशद्रोही । उसमें एक स्थान आता है, जो अफगानिस्तान और रूस के बीच है। राहुल सांकृत्यायन ने तो उस पुस्तक को पढ़ कर उस स्थान के चित्रण के बारे में लिखा कि इतना सशक्त और स्वाभाविक चित्रण उन्होंने और कहीं नहीं पढ़ा। राहुल जी वहाँ जा चुके हैं… मैं वहाँ कभी नहीं गया। केवल सुनकर और पढ़कर मैंने कल्पना के बल पर उस स्थान का चित्रण किया था। प्रसंगवश, यशपाल प्रसिद्ध लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि के पसन्दीदा लेखकों में से एक है और वे उनके ‘झूठा सच’ की ताकत यशपाल के पंजाब के अनुभवों को मानते हैं।

 

4. स्वानुभूति का पक्ष

 

दलित लेखक प्राय: साहित्य के लिए स्वानुभूति को आवश्यक मानते हैं। स्वानुभूति को परिभाषित करते हुए कँवल भारती लिखते हैं कि “अनुभूति की प्रामाणिकता और स्वानुभूति जैसे शब्द मूलत: दलित साहित्य के शब्द हैं, जो दलितों के यथार्थवादी सृजन से उपजे हैं।” (दलित साहित्य की अवधारणा, पृ. 75) स्वानुभूति के पक्ष में दलित साहित्यकारों का तर्क यह है कि दलितों ने जो पीड़ाएँ भोगीं उनका सच्‍चा बयान वे स्वयं ही कर सकते हैं, क्योंकि यह उनका अनुभव है। जिन्हें उस उत्पीड़न और अपमान का अनुभव नहीं है, वे उस पीड़ा को अभिव्यक्त नहीं कर सकते हैं। ‘जाके पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई’ और ‘राख ही जानती है, जलने का दर्द’ जैसी उक्तियाँ इस सन्दर्भ में उद्धृत की गईं। दलित साहित्यकार इसी तरह स्वानुभूति को दलित साहित्य का निकष मानते हैं। इस स्वानुभूति की अभिव्यक्ति हम दलित साहित्य में भरपूर रचनाशीलता के साथ लिखी गई आत्मकथाओं में देख सकते हैं। हिन्दी में ही जूठन (ओमप्रकाश वाल्मीकि), अपने-अपने पिंजरे (मोहनदास नैमिशराय), मेरा बचपन मेरे कन्धों पर (श्यौराज सिंह बेचैन), तिरस्कृत (सूरजपाल सिंह चौहान), मुर्दहिया (तुलसी राम) आदि आत्मकथाएँ जितनी लोकप्रिय हैं, उतनी अन्य विधाओं में की गई रचनाएँ नहीं हुई हैं।

 

इसके साथ ही, दलित लेखक गैर-दलित साहित्यकारों द्वारा दलितों के मुद्दे पर लिखे गए साहित्य को सहानुभूति का साहित्य मानते हैं, क्योंकि उत्पीड़न और अपमान के दंश का अनुभव ना होने के कारण, उसमें अनुभूति की प्रामाणिकता नहीं दिखाई देती है। अखिलेश, दूधनाथ सिंह आदि लेखकों की दलित विषयक कहानियों को इसी आधार पर सहानुभूति की रचनाएँ माना गया। ओमप्रकाश वाल्मीकि का मानना है कि अनुभव महत्त्वपूर्ण है, गैर दलित लेखकों के पास वह अनुभव नहीं है, इसलिए गैरदलित वैसा दलित साहित्य नहीं लिख सकता है, जैसा एक दलित लेखक लिखता है। स्वानुभूति और सहानुभूति जैसे पदबन्धों से अलग हटकर उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि “ये सहानुभूति से स्वानुभूति का मसला नहीं है, ये मसला है आपके जीवन के अनुभवों का। अनुभवजन्य लेखन दो तरह के होते हैं। एक तो जानकार, दूसरा सहजानकार होता है, दोनों में अन्तर होता है। आप बताएँ जानकार सही लिखेगा या सह-जानकार? जाहिर-सी बात है कि जानकार ही लिखेगा। सह-जानकार तो सुनकर ही लिखेगा। इन दोनों शब्दों को जिन लोगों ने बना रखा है, उन्हें लड़ने दीजिए। आप इसे दूसरी तरह से समझ सकते हैं कि अनुभवजन्य लेखन और गैर अनुभवजन्य लेखन। जैसे एक डॉक्टर है और दूसरा मरीज, तो डॉक्टर उतना ही जानता है, जो उसे बता रहे हैं। फिर वह कल्पनाओं से जोड़ता है, ऐसे हो सकता है। डॉक्टर उस तकलीफ को कभी महसूस नहीं कर पाता है जो एक बीमार करता है।” (बनास, जन-अप्रैल 2014, पृ. 10) हालाँकि ओमप्रकाश वाल्मीकि स्वानुभूति और सहानुभूति जैसे पदबन्धों का इस्तेमाल नहीं करते हैं, लेकिन अनुभव पर जोर वे भी देते हैं और अपने पहले के लेखन में वे स्वानुभूति की बात कर चुके हैं।

 

ओमप्रकाश वाल्मीकि की तरह ही अन्य दलित लेखकों ने भी स्वानुभूति पर बल देते हुए यह माना कि दलित लेखकों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है। कँवल भारती लिखते हैं कि “क्या दलित द्वारा दलितों के लिए लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है? इसका उत्तर ‘हाँ’ में ही दिया जा सकता है, क्योंकि सामाजिक विशेषाधिकारों का उपभोग करने वाले गैर दलित विशेषाधिकार विहीन दलित जीवन की पीड़ा कैसे समझ सकते हैं?” (दलित साहित्य की अवधारणा, पृ. 31) दलित लेखकों के साथ ही कई गैर दलित लेखक भी स्वानुभूति का तर्क मानते हैं, इनमें मैनेजर पाण्डेय, शिवकुमार मिश्र, राजेन्द्र यादव आदि महत्त्वपूर्ण हैं। मैनेजर पाण्डेय ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि “मेरे विचार में करुणा और सहानुभूति के सहारे गैर-दलित लेखक भी दलितों के बारे में अच्छा साहित्य लिख सकते हैं। लेकिन सच्‍चा दलित साहित्य वही है, जो दलितों के द्वारा अपने बारे में लिखा जाता है, क्योंकि ऐसा साहित्य सहानुभूति और करुणा से नहीं, बल्कि स्वानुभूति से उपजा होता है।” अर्थात प्रो. मैनेजर पाण्डेय यह मानते हैं कि दलित और गैर दलित दोनों लेखक अच्छा दलित साहित्य लिख सकते हैं, लेकिन सच्‍चा दलित साहित्य दलित लेखकों द्वारा लिखा गया साहित्य ही होगा। राजेन्द्र यादव को हिन्दी में दलित लेखन और स्‍त्री लेखन का मंच प्रदान करने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने स्वानुभूति और अनुभव की प्रामाणिकता को यर्थाथ से जोड़कर देखते हुए लिखा है कि “हाशिए के लोग अपनी जमीन और जीवन स्थितियों से जितने जुड़े हैं, उतने मुख्यधारा वाले हिन्दी लेखक नहीं।” अर्थात जिन अनुभवों की बात की जा रही है, वे दलित जीवन के यथार्थ के अनुभव हैं।

 

सहानुभूति के दायरे में प्राय: दलित लेखन के उभार से पहले के साहित्य में दलित समाज पर लिखा गया साहित्य माना जाता है। इसी दृष्टि से प्रेमचन्द के साहित्य पर भी विवाद होता रहा है। गैर दलित साहित्यकार प्रेमचन्द के सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ के चित्रण के कारण उन्हें एक समग्र रचनाकार मानते हैं, वहीं दलित साहित्यकार उनके साहित्य को दलित साहित्य की कोटि में नहीं रखते हैं। लेकिन इसके बाद भी, प्रेमचन्द को लेकर दलित लेखन में मतैक्य नहीं है। एक तरफ डॉ. धर्मवीर उन्हें ‘सामन्त का मुंशी’ मानते हैं, तो दूसरी तरफ ओमप्रकाश वाल्मीकि उन्हें किसान जीवन का यथार्थ चित्रण करने वाला लेखक तो मानते हैं, लेकिन उन्हें दलित चेतना सम्पन्‍न लेखक नहीं मानते हैं क्योंकि प्रेमचन्द की महज  ठाकुर का कुँआ  और दूध का दाम  जैसी गिनी-चुनी कहानियों में ही दलित चेतना दिखाई देती है। उनकी अन्य रचनाओं के पात्र जैसे सूरदास, दुखी आदि शोषित, प्रताड़ित तो हैं, लेकिन उनमें प्रतिरोध की चेतना नहीं है। सबसे ज़्यादा विवाद प्रेमचन्द की कफन  कहानी पर हुआ, जिस पर दलित साहित्यकारों ने दलितों का अपमान और उन्हें असंवेदनशील रूप में चित्रित करने का आरोप लगाया। श्यौराज सिंह बेचैन ने इस कहानी के बारे में लिखा है कि “प्रेमचन्द ने चमारों को इन्सानियत से गिरा हुआ साबित करने के लिए इरादतन यह काल्पनिक कथा गढ़ी है। यथार्थ में ऐसे पात्र मिलना सम्भव नहीं।… प्रेमचन्द को चमारों को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐसे पात्रों की कल्पना करनी थी, जिनके बहाने पूरे दलित वर्ग को गरियाया जा सके।” दलित लेखकों ने प्रेमचन्द ही नहीं, बल्कि हिन्दी के अन्य स्थापित साहित्यकारों की भी दलित दृष्टि से आलोचना की।

 

हालांकि राजेन्द्र यादव स्वानुभूति का पक्ष लेते हैं, लेकिन वे सहानुभूतिपरक साहित्य का महत्त्व भी रेखांकित करते हैं। उन्होंने लिखा है कि “दलित चेतना को जगाने में सहानुभूति पहला कदम है। जब हम कहते हैं (या गाँधी जी कहते थे) कि ये भी मनुष्य हैं। इनको दरिद्रावस्था में क्यों रखा जाए। तो यह सहानुभूति है। इससे यह ज़रूर हुआ कि दलितों के भीतर भी यह भावना जागी कि हम भी मनुष्य हैं और हमें भी अधिकार और सुविधाएँ मिलनी चाहिए। यह चेतना पैदा हुई। लेकिन कभी भी सहानुभूति का साहित्य स्वानुभूति के साहित्य का स्थान नहीं ले सकता।” (कल के लिए, दिसम्बर 1998, पृ. 61) राजेन्द्र यादव का यह मत तर्क संगत है कि सहानुभूति के नज़रिए ने दलितों की दुरावस्था की तरफ लोगों और स्वयं दलितों का ध्यान आकर्षित किया और वे उसे सिर्फ नियति न मानकर अपने जीवन को गरिमामयी बनाने की दिशा में प्रवृत हुए।

 

5. साहित्येत्तर पक्ष

 

अनुभवों की प्रामाणिकता के साथ ही दलित लेखकों द्वारा लिखे गए साहित्य को ही दलित साहित्य माने जाने के एक अन्य कारण की तरफ कँवल भारती संकेत करते हैं। उन्होंने लिखा है कि यह “सवाल नेतृत्व का भी है। यदि दलित जीवन पर गैर दलित लेखक के लेखन को दलित साहित्य मान लिया जाएगा, तो नेतृत्व गैर दलित लेखकों के हाथों में जा सकता है और इस प्रकार दलित साहित्य लक्ष्य से भटक सकता है या भटकाया जा सकता है।” (कँवल भारती, दलित साहित्य की अवधारणा, पृ. 31) इस आशय की बात तेज सिंह भी करते हैं – “इधर जब से हिन्दी क्षेत्र में दलित साहित्य पर चर्चा शुरू हुई है, तभी से हिन्दी साहित्य में दलित चेतना या दलित लेखन के नाम पर गैर दलितों द्वारा शोध कार्य के साथ-साथ बड़ी संख्या में आलोचनात्मक लेखन होने लगा है। ज्यादातर ऐसा लेखन दलित साहित्य को दिग्भ्रमित करने के लिए किया जा रहा है। गैर दलित इसी इरादे से हिन्दी साहित्य में दलित चेतना के नाम पर दलित लेखन कर रहे हैं ताकि दलित साहित्य में उनकी चोर-दरवाज़े से घुसपैठ हो जाए।” (हिन्दी उपन्यास, दलित विमर्श का पुराख्यान, हंस, जनवरी, 2001, पृ. 28) कँवल भारती और तेज सिंह के इन मतों से यह स्पष्ट होता है कि स्वानुभूति और सहानुभूति की बहस में दलित लेखक द्वारा लिखे गए साहित्य को ही दलित साहित्य मानने के साहित्येतर कारण भी हैं। दलित साहित्य के नेतृत्व को दलितों के हाथ में ही रखना और दलित साहित्य में गैरदलितों की चोर दरवाज़े से घुसपैठ रोकना सांगठनिक कारण हो सकते हैं, साहित्यिक नहीं।

 

6. आलोचकों की नज़र में गैर-दलित लेखन

 

दलित साहित्यकारों द्वारा स्वानुभूति के पक्ष में एक महत्त्वपूर्ण तर्क यह दिया जाता है कि मुख्यधारा के हिन्दी साहित्य के लेखकों में ब्राह्मणवादी प्रवृत्तियों की मौजूदगी के कारण दलितों का संवेदनशील चित्रण नहीं हो पाया। इसे विश्लेषित करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि ने लिखा कि “मुख्यधारा एक वर्ण विशेष (वर्ग नहीं) की इच्छाओं-आकांक्षाओं से उत्पन्‍न मान्यताओं, स्थापनाओं की धारा और इस धारा के लिए एक दलित को अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़े तब यह मुख्यधारा बेहद खूँखार और निर्दयी होकर अपने तमाम दाँव-पेंचों, कलाबाजियों, बौद्धिक विमर्शों, साहित्य शिल्पों आदि के साथ दीवार की तरह खड़ी को जाती है और दलित के अस्तित्व को ही नकार देती है। उसके साथ छल करती है, उसे ठगती है, उसे खारिज करती है या फिर उसे दोयम या उससे भी नीचे का दर्जा देकर अपना पिछलग्गू बनाने में सफल हो जाती है, जिसका अर्थ है, दलित का मनुष्य होना बेमानी है।” (मुख्यधारा और दलित साहित्य, पृ. 28)  अर्थात दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है, इस तर्क के पीछे सरोकारों का तर्क भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। दलित साहित्यकारों का मानना है कि मुख्यधारा के लेखक अपने ब्राह्मणवादी संस्कारों और पूर्वग्रहों के कारण दलितों का संवेदनशील चित्रण नहीं कर पाते हैं। अमृतलाल नागर के उपन्यास नाच्यौ बहुत गोपाल को दलित जीवन पर गैर दलित रचनाकार द्वारा लिखी रचना के रूप में प्राय: उद्धृत किया जाता है, लेकिन दलित साहित्यकार उसे दलित चेतना से संपन्‍न नहीं मानते हैं। वे हिन्दी आलोचना में तुलसीदास को मिले महत्त्व का कारण भी उनकी वर्ण व्यवस्था समर्थक दृष्टि को मानते हैं।

 

दलितों के संदर्भ में मुख्यधारा के साहित्य में अभिव्यक्त रवैये के बारे में मुद्रा राक्षस लिखते हैं कि “सवर्ण बुद्धिजीवी की समूची करुणा में कहाँ सूराख रह जाता है और कहाँ वह अन्तत: करुणा से अधिक सामन्ती उदारता बन जाती है, यह सिर्फ दलित ही जान सकता है।’’ अर्थात सवर्ण या गैर दलित लेखकों द्वारा दलित पात्रों का वर्णन या तो करुणाहीन होकर करता है या उसकी करुणा सामन्ती उदारता बन जाती है। यह उदारता दलित पात्रों को उनकी प्रतिरोधी चेतना से वंचित कर देती है, जो दलित साहित्य की आधारभूत विशेषता है। इस पक्ष को विस्तार से स्पष्ट करते हुए शिवकुमार मिश्र ने लिखा है कि “हिन्दी या अन्यान्य भाषाओं में दलितों के बारे में जो भी लिखा गया है, नामी-गिरामी रचनाकारों द्वारा भी, उसकी अपनी सीमाएँ हैं। वह अधिकांशत: उदार मानसिकता और मानववादी चेतना के सवर्ण रचनाकारों द्वारा ही लिखा गया है। इस लेखन में दलित जीवन की सच्‍चाइयाँ और उसका यथार्थ ज़रूर सामने आया है, किन्तु अपवादों को छोड़कर प्राय: इसमें दलितों की नारकीय जीवन-स्थितियों, उनके प्रति बरते जानेवाले सामाजिक भेदभाव एवं शक्ति सम्पन्नों तथा सवर्णों द्वारा किए जाने वाले उनके उत्पीड़न पर या तो आँसू बहाए गए हैं, उन पर दया या सहानुभूति प्रकट की गई है या फिर अधिक से अधिक इस उत्पीड़न के जिम्मेदार व्यक्तियों, वर्गों और संस्थाओं आदि की आलोचना की गई है।” लेकिन इस साहित्य में परम्परागत सामाजिक संरचना में दलितों की ‘निम्‍न’ सामाजिक स्थिति निश्‍च‍ित करनेवाले और उन्हें नारकीय जीवन के मूल धर्मशास्‍त्रों और वर्णाश्रम व्यवस्था के खिलाफ मुखर आवाज प्राय: नहीं दिखाई देती हैं। मनुस्मृति जैसे धर्मशास्‍त्रों के द्वारा स्थापित निर्मम न्याय तन्त्र और इसे प्रचलित रखने वाली व्यवस्था के खिलाफ रचनात्मक हस्तक्षेप भी अपवादस्वरूप ही हुए हैं।

 

7. निष्कर्ष

 

स्वानुभूति और सहानुभूति की बहस के इस अध्ययन से स्पष्ट है कि दलित साहित्यकारों द्वारा मुख्यत: दो आधारों पर स्वानुभूति पर बल दिया जाता है। जहाँ पहला आधार प्रामाणिक अनुभव का है, वहीं दूसरा आधार मुख्यधारा के साहित्य के पूर्वग्रह का है। दलित लेखकों द्वारा लिखे गए साहित्य ने (अन्य अस्मितामूलक विमर्शों ने भी) हिन्दी साहित्यिक के परिदृश्य को मानवीय और संवेदनशील बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। परम्परागत मुख्यधारा के साहित्य में मूल्यों, भाषा, मुहावरों, प्रतीकों, बिम्बों और मिथकों में वचर्स्वशाली समुदायों के प्रभाव दृष्टिगत हो जाते हैं। दलित लेखकों द्वारा किए गए लेखन ने न केवल ऐसे प्रभावों को चिह्नित किया और बल्कि अपनी रचनाशीलता में ऐसे तत्त्वों का निषेधकर साहित्य को व्यापक मानवीय भावभूमि पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास भी किया। स्वानुभूति पर बल दिए जाने का एक कारण यह भी है कि साहित्य में जाति और वर्ण आधारित असंवेदनशीलता समाप्‍त हों और दलितों को एक सम्मानजनक स्थान मिले। इसीलिए सूरज बड़त्या का कहना है कि “स्वानुभूति और सहानुभूति का विभाजन किसी पूर्वाग्रह के आधार पर नहीं किया गया है, बल्कि समाज की अनिवार्यता को ध्यान में रखकर किया गया है।” यह बात सही है कि स्वानुभूति से लिखे गए साहित्य में प्रामाणिक अनुभव और भोगे हुए यथार्थ का वर्णन होता है और सहानुभूति परक लेखन में यह उस अनुभव और यथार्थ का अभाव होता है तथा प्राय: उसकी दृष्टि सामन्ती दया और उदारता को अभिव्यक्त करने लगती है, फिर भी हमें अतीत में किए गए सहानुभूतिपरक लेखन की ऐतिहासिक प्रासंगिकता भी समझनी होगी। उसकी ऐतिहासिक प्रासंगिकता यही है कि जिस समय स्वानुभूति के साहित्य का परिदृश्य तैयार नहीं था, उस समय वह साहित्य दलित समाज को साहित्य में दर्ज कर रहा था, जिसे राजेन्द्र यादव दलित चेतना जगाने का पहला कदम मानते हैं।

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अतिरिक्त जानें –

पुस्तकें

  1. मुख्यधारा और दलित साहित्य, ओमप्रकाश वाल्मीकि, सामयिक प्रकाशन, नयी दिल्ली
  2. दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
  3. दलित साहित्य की अवधारणा, कंवल भारती, बोधिसत्व प्रकाशन, रामपुर
  4. दलित हस्तक्षेप(रमणिका गुप्ता द्वारा लिखित आलेखों का संकलन), ओमप्रकाश वाल्मीकि (संपा.), अक्षर शिल्पी, दिल्ली
  5. आधुनिकता के आईने में दलित, अभय कुमार दुबे (संपा.), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. बाबासाहेब डॉ.अम्बेडकर :सम्पूर्ण वांग्मय, खंड-2, 5, 6, 13, 17, डॉ.अम्बेडकर प्रतिष्ठान नई दिल्ली,
  7. भारतीय समाज और दलित राजनीति, चन्द्र भान प्रसाद, गौतम बुक सेन्टर, दिल्ली
  8. आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेन्द्र चौबे,  ओरियंट ब्लैकस्वान प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली
  9. महानायक बाबा साहेब-डॉ. आम्बेडकर, मोहनदास नैमिशराय, धम्म ज्योति चैरिटेबल ट्रस्ट, दिल्ली
  10. दलित महिला कथाकारों की चर्चित कहानियां, डॉ.कुसुम वियोगी (संपा.) साहित्य निधि प्रकाशन, दिल्ली
  11. दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ.एन.सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  12. दलित साहित्य के बुनियादी सरोकार, कृष्णदत्त पालीवाल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  13. हिन्दी उपन्यास: दलित विमर्श का पुराख्यान, हंस, जनवरी, 2001,

    वेब लिंक्स-

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
  2. https://www.youtube.com/watch?v=A-vFqNWYmm0
  3. https://www.youtube.com/watch?v=cWNzpokMDgc
  4. https://www.youtube.com/watch?v=cB2c3hdvsaE
  5. https://www.youtube.com/watch?v=kVMuMQ2gwhc