24 सलाम
प्रो. रामचन्द्र
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- कहानीकार की कहानी संवेदना और दलित प्रश्नों के सरोकारों को जान सकेंगे।
- भारतीय समाज में मौजूद अस्पृश्यता, असमानता और जाति के वर्चस्व को परख सकेंगे।
- थोपी गई सलाम प्रथा के निहितार्थ और हिन्दू-व्यवस्था की असमान स्थितियों से अवगत हो सकेंगे।
- दलित लेखन में आत्मसम्मान एवं गरिमा की आकांक्षा के महत्त्व को समझ सकेंगे।
- हिन्दू सामाजिक व्यवस्था की जड़ता में पल रहे बच्चों के मनोभावों की पड़ताल कर सकेंगे।
- दलित साहित्य के मुक्तिकामी परिप्रेक्ष्य को समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति की हम चाहे जितनी भी विशिष्टताएँ गिनाकर आह्लादित हो लें, परन्तु हिन्दू समाज के व्यावहारिक जीवन में गतिमान जातिगत वर्चस्व, अस्पृश्यता, असमानता, अन्याय एवं उत्पीड़न के सच से मुँह नहीं मोड़ सकते। इस व्यवस्था में वर्चस्व और असमानता को स्थायित्व देने वाली कुछ ऐसी प्रथाएँ, परम्पराएँ एवं मानसिकताएँ निर्मित की गई हैं, जो मनुष्य विरोधी हैं, अमानवीय हैं। उन्हीं में से एक है ‘सलाम प्रथा’, जिसको केन्द्र में रखकर कहानीकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने जातिगत वर्चस्व एवं दमन की मानसिकता को उजागर किया है। मानवीय अधिकार और बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखकर एक साजिश के तहत दलित वर्ग को हीनतर एवं निम्नतर बनाए रखने के लिए सलाम प्रथा को परम्परा का हिस्सा बनाया गया होगा। ऐसी प्रथाओं एवं परम्पराओं को सामाजिक वैधता देते हुए शोषण एवं दमन का तन्त्र चलता रहा है, जिसका प्रतिरोध दलित लेखन में मिलता है। इसी अर्थ में दलित साहित्य मुक्तिकामी लेखन भी है।
दलित साहित्य आन्दोलन की महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं, वर्ण-जाति के वर्चस्व का विरोध एवं नकार और इस वर्चस्व के कारण व्याप्त अपमान, अन्याय, असमानता, उत्पीड़न, घृणा, हिंसा एवं लिंगभेद का प्रतिरोध। वर्ण-जाति के वर्चस्व एवं शोषण के विविध रूपों की वैधता के स्रोत माने जाने वाले धर्म एवं ईश्वर के आडम्बर तथा अन्धविश्वासों का पुरजोर खण्डन एवं विरोध दलित लेखन का मुख्य ध्येय है। वर्चस्वशाली हिन्दू व्यवस्था के समानान्तर दलित लेखन ने बौद्ध दर्शन एवं अम्बेडकरवादी विचारधारा के आधार पर मनुष्य की गरिमा, आत्मसम्मान एवं मानवता को सर्वोपरि मानते हुए समता, स्वतन्त्रता, बन्धुता, मैत्री, प्रेम, न्याय एवं अहिंसा की स्थापना को अपना मुख्य सरोकार एवं उद्देश्य बनाया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की सलाम कहानी इन्हीं सरोकारों का प्रतिफलन है। इस कहानी का मूल मन्तव्य वर्ण एवं जातिविहीन समाज की निर्मिति के सपने को साकार करना है। संवेदनहीनता को संवेदनशीलता में परिवर्तित कर समाज में व्याप्त किसी भी तरह के भेदभाव को समाप्त करना कहानीकार का मुख्य लक्ष्य है। हिन्दू परम्परा में सलाम प्रथा जैसी घृणित सोच की मौजूदगी भारत के विकास में कितनी बड़ी बाधा रही है – इस ओर हिन्दी के लेखकों का अब तक ध्यान क्यों नहीं गया था? इस प्रश्न को सलाम कहानी में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने स्वानुभूति एवं सहानुभूति के माध्यम से कलात्मक प्रस्तुति दी है। दलितों के स्वाभिमान को तोड़ने वाली प्रथा का प्रतिरोध एवं नकार के माध्यम से कहानीकार हिन्दी कहानी परम्परा को नया आयाम दिया है।
- कथानक
ओमप्रकाश वाल्मीकी की सलाम कहानी का कथानक परम्परागत हिन्दी कहानी से भिन्न है। इस कहानी की संवेदना दलित वेदना पर आधारित है, जिसमें हिन्दू व्यवस्थाओं की जड़ताओं एवं विद्रूपताओं का यथार्थ अंकन करते हुए पात्रों के मानसिक द्वन्द्व, संघर्ष, स्वाभिमान एवं आत्मविश्वास को सृजनात्मक रूप दिया गया है। हिन्दू समाज में सदियों से चली आ रही मनुष्य विरोधी सलाम प्रथा को केन्द्र में रखकर कथानक की निर्मिति की गई है। सलाम प्रथा के मूल में विद्यमान जाति-प्रथा एवं वर्चस्व की मानसिकता को बेनकाब किया गया है। हिन्दू वर्चस्व में निहित अपमान,घृणा और अस्पृश्यता के बीच पलते बालमन पर अंकित गहरी खरोचों का चारित्रिक विकास अद्वितीय है। ओमप्रकाश वाल्मीकी की इस कहानी का कथानक सलाम जैसी अमानवीय प्रथा की परिधि में मौजूद शोषण और दमन की वर्चस्ववादी व्यवस्था को बदलकर मानवता आधारित समतापरक जातिविहीन समाज की निर्मिति की पृष्ठभूमि तैयार करता है।
सलाम कहानी के कथानक का आरम्भ हरीश की शादी की रस्म और विवाह-मण्डप से होता है, जिसकी व्यवस्था में घर-परिवार वालों के अलावा उसका प्रिय सहपाठी दोस्त कमल उपाध्याय भी लगा हुआ है। जुम्मन की बेटी से ब्याह करने हेतु जिस गाँव में हरीश की बारात गई है, वहाँ राँघड़ समुदाय के लोगों का बाहुल्य और वर्चस्व है। राँघड़ समुदाय के लोग चूहड़े समुदाय से नफरत और जाति-पाँति का हीनतर व्यवहार रखते हैं। वहाँ सलाम प्रथा की मौजूदगी दलितों को अपमानित करती है एवं हीनतर व्यवहार का साबित करने की कोशिश करती है। रोजगार और शिक्षा के उद्देश्य से गाँव से नगरों की ओर गए दलित समुदायों में आई चेतना के कारण हिन्दू कुप्रथाओं का विरोध और आत्मसम्मान का बोध जाग्रत हुआ है। हरीश और हरीश का परिवार दलित चेतना के प्रतीक हैं। देहरादून में कमल उपाध्याय हरीश के सहपाठी और घनिष्ठ मित्र हैं। दो अलग-अलग समुदायों के बच्चों के मनोभावों और संस्कारों के माध्यम से कहानीकार ने बालमन की गहनतम परतों को खोलते हुए स्वानुभूति और सहानुभूति के अर्थ को रचनात्मक ढंग से कहानी में प्रस्तुत किया है। जब गाँव का चाय वाला कमल उपाध्याय को चूहड़ा समझकर चाय नहीं पिलाता, बल्कि उसे गालियाँ देते हुए अपमानित करता है, तब कमल को हरीश द्वारा दलित दमन एवं शोषण के बारे में बताई गई सारी बातें सच लगने लगती हैं। बारात की विदाई से पहले रांघड़ समुदाय के दबंग दूल्हे को अपने घरों में सलाम पर आने के लिए बाध्य करते हैं, धमकाते हैं, जिसका पुरजोर विरोध हरीश और उसके परिवार के लोग करते हैं। अन्ततः सलाम पर गए बिना गाँव से बारात विदा कर लेने में हरीश को असफलता मिलती है। अन्ततः वह स्वाभिमान और आत्मविश्वास को बचाने में सफल हो जाता है। इस प्रकार यह कहानी दलित चेतना की विशिष्टता की कहानी बन जाती है।
- ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी संवेदना और सलाम में अभियक्त स्वानुभूति के प्रश्न
दलित जीवन के सन्दर्भों से जुड़े लेखकों ने हिन्दी कहानी परम्परा की संवेदना को विस्तार दिया है। भारतीय सामाजिक संरचना की संश्लिष्टता और वैषम्य जीवन में बहुत कुछ ऐसा था जो अनकहा-अनछुआ रह गया था। उन्हीं संवेदनशील पहलुओं एवं घटनाओं को दलित कहानियों ने विस्तार दिया। ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचनाधर्मिता ने दलित लेखन की वैचारिकता एवं उसके सरोकारों की प्रतिबद्धता के साथ हिन्दी कहानी संवेदना को नया तेवर एवं परिप्रेक्ष्य दिया है। हिन्दू समाज में मौजूद ऊँच-नीच तथा भेदभाव आधारित मानसिकताओं की परतों को पात्रानुकूल एवं भावानुकूल प्रस्तुति देते हुए वाल्मीकि जी की कहानियाँ भाषा एवं शिल्प को अर्थवान बनाती है। शोषण, दमन, घृणा एवं अन्याय के बीच जी रहे संघर्षमय एवं पीड़ादायी मनःस्थितियों को साहित्यिक तेवर देकर कहानीकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने हिन्दी साहित्य के इतिहास के अधूरेपन को सम्पूरित किया है। इस अर्थ में दलित साहित्य आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण योगदान है। हिन्दी आलोचना के केन्द्र में दलित विमर्श के परिप्रेक्ष्य में स्वानुभूति और सहानुभूति का प्रश्न लम्बे समय तक बहस तलब रहा है। इन प्रश्नों का प्रामाणिक उत्तर सलाम कहानी में रचनात्मक ढंग से मिलता है। सलाम कहानी में हरीश और कमल उपाध्याय के बालमन के विकास-क्रम में घट रही सामाजिक घटनाओं के बीच से स्वानुभूति एवं सहानुभूति के प्रश्न का रचनात्मक जवाब मिलता है। दोस्त हरीश की शादी में शामिल कमल सुबह-सुबह गाँव की चाय की दुकान पर चाय पीने गया; चायवाले के द्वारा उसका परिचय पूछने के बाद उसे चाय नहीं मिली, उल्टे अपमान और अनादर का सामना करना पड़ा। चायवाला मानने को तैयार ही नहीं था कि एक दलित की शादी में कोई ब्राह्मण का बालक आ सकता है। उस गाँव के बल्लू राँघड़ के बेटे दबंग रामपाल को आते देखकर चायवाला बिफर कर बोला, “चूहड़ा है। खुद कू बामन बतारा है। जुम्मन चूहड़े का बाराती है। इब तुम लोग ही फैसला करो। जो यो बामन है, तो चूहड़ों की बारात में क्या मूत पीणे आया है। जात छिपाके चाय माँग रा है। मैन्ने तो साफ़ कह दी। बुद्धू की दुकान पे तो मिलेगी ना चाय चुहड़ों-चमारों कू, कहीं और ढूँढ़ ले जाके।’’ दुकान के आस-पास खड़ी भीड़ से मदद और समर्थन के लिए कमल उपाध्याय ने जैसे ही ‘भाइयो’ कहकर सम्बोधन किया, वैसे ही रामपाल ने उसे डाँटा और ढेर सारी गालियाँ दे डाली। आस-पास खड़े लोगों ने भी कमल की हँसी उड़ाई। ओमप्रकाश वाल्मीकि सलाम में लिखते हैं, “कमल को लगा जैसे अपमान का घना बियाबान जंगल उग आया है। उसका रोम-रोम काँपने लगा। उसने आस-पास खड़े लोगों ने निगाहें डालीं। हिंसक शिकारी तेज नाखूनों से उस पर हमला करने की तैयारी कर रहे हैं।’’ कमल उपाध्याय के मनोभावों का चरित्रांकन करते हुए पूरी भीड़ को घृणा और अपमानित करने की वृत्ति के नेपथ्य में वैषम्य एवं जातिगत व्यवस्था के सच को कहानीकार ने उजागर किया है। सहानुभूति से स्वानुभूति के बोध का रचनात्मक एहसास कराते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि संवेदना को और घनीभूत करते हैं। कमल उपाध्याय को उस घटना से जो महसूस हुआ उससे उसे पिछली बातें याद आई,“उसने पहली बार अखबारों में छपी उन खबरों को शिद्दत से महसूस किया। जिस पर विश्वास नहीं कर पाता था वह। फलाँ जगह दलित युवक को पीट-पीटकर मार डाला, फलाँ जगह आग में भून दिया। घरों में आग लगा दी। जब-जब भी हरीश इस तरह का समाचार कमल को सुनाता, वह एक ही तर्क दुहरा देता था।…‘हरीश अपने मन से हीन भावना निकालो। दुनिया कहाँ से कहाँ निकल गई और तुम लोग वहीं के वहीं हो। उगते सूरज की रोशनी में देखो। अपने आप पर विश्वास करना सीखो। पढ़-लिखकर ऊपर उठोगे तो सब कुछ अपने-आप मिट जाएगा।’ लेकिन इस वक्त कमल के सामने हरीश का एक-एक शब्द सच बनकर खड़ा था। सच साबित हो रहा था।’’
सलाम कहानी में घटनाओं के क्रिया-व्यापार के माध्यम से कहानीकार ने सहानुभूति और स्वानुभूति के सवालों को अर्थवान बनाया है। आत्मानुभूति के माध्यम से कमल उपाध्याय को हरीश के द्वारा सुनी गई दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर विश्वास होता है। दलित लेखक इन्हीं एहसासों से समाज को परिचित कराना चाहता है और सामाजिक परिवर्तन के लिए सर्वसमाज को एकजुट करना चाहता है, जिससे समाज में व्याप्त भेदभाव, अन्याय और अपमान खत्म हो तथा एकतापरक समाज का निर्माण का रास्ता खुल सके। सलाम प्रथा इसीलिए परम्परा का हिस्सा बनती चली गई होगी, क्योंकि इससे होने वाले अपमान का एहसास अन्य समाज के लोगों एवं लेखकों को नहीं था। दलित लेखन इसी सन्दर्भ में विशिष्ट लेखन है।
- सलाम में चित्रित अस्पृश्यता, असमानता और जातिगत वर्चस्व
अपमान और अनादर की आत्मानुभूति से चोटिल कमल उपाध्याय के जेहन में पन्द्रह वर्ष पुरानी घटना की स्मृति मात्र से कहानी में अस्पृश्यता और असमानता की तस्वीरें उभर आती हैं। कमल अपने दोस्त हरीश को जब पहली बार अपने घर ले गया था और अपनी माँ से मिलवाने के बाद खाना खाते समय मुँह में पहला कौर रखते ही हरीश की जाति का भान होते ही कमल की माँ का आग-बबूला होना तथा कमल को झन्नाटेदार थप्पड़ का पड़ना, हरीश को हरामी आदि ढेर सारी गालियाँ देकर घर से भगा देना और इस दुत्कार, फटकार से हरीश का बुरी तरह आहत होना तथा कमल के बालमन का फटी-फटी आँखों से माँ के गुस्से से भरे चेहरे को देखते रह जाना, कहानी के ऐसे संवेदनशील चित्र हैं, जिससे हिन्दू सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था का वैषम्य उजागर होता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि हरीश और कमल उपाध्याय के बालमन के मनोभाव का चित्रण करते हैं, “उसे पहली बार लगा था कमल और वह दोनों अलग-अलग हैं। दोनों के बीच कोई फासला है।’’ “कमल के बालमन में भी एक दरार पैदा हो गई थी। वह चुपचाप जाकर अपने कमरे में लेट गया था। ढेरों सवाल उसके मन को कचोट रहे थे; आखिर माँ ने ऐसा क्यों किया? क्या कमी है हरीश में? दिनभर उसने कुछ नहीं खाया था।’’ हरीश को दुत्कार कर भगा देने के बाद कमल की माँ द्वारा पूरे घर की धुलाई और गंगाजल छिड़ककर जमीन का पवित्र किया जाना, आखिरकार किस सभ्यता और संस्कृति का सूचक है? अस्पृश्यता के दंश को झेलने वाले समाज के लिए आज भी ढेरो कानून बन गए हैं, संवैधानिक व्यवस्था भी लागू है, परन्तु भारतीय समाज अस्पृश्यता से अभी पूर्णतः मुक्त नहीं हो सका है। समाज में मौजूद असमानता और जातिगत वर्चस्व ने अस्पृश्यता को वैध बना रखा है। सलाम कहानी भेदभाव की वैधता पर सवाल उठाती है और इसके खात्मे की पृष्ठभूमि तैयार करती है।
असमानता और वर्चस्व की मानसिकता सभी वर्णों जातियों में है। यह एक मनोरोग की तरह व्याप्त है। सलाम कहानी में चित्रित बल्लू राँघड़ के वर्चस्व और जातिगत रवैये से लेखक ने असमानता के वैचित्र्य का सटीक रेखांकन किया है। सलाम प्रथा की परम्परा को बनाए रखकर दलितों के स्वाभिमान को रौंदने की प्रवृत्ति को जिन्दा रखने का काम एक राँघड़ समाज कर रहा है। असमान हिन्दू व्यवस्था में जीने वाले समाजों की इस विडम्बना के कारण ही भारत का पिछड़ापन बरकरार है। सलाम कहानी ब्राह्मण बालक की आत्मानुभूति और राँघड़ जैसी पिछड़ी जातियों के समुदायों में बरकरार वर्चस्व के भाव के माध्यम से भारतीय सामाजिक संरचना की वैषम्यपूर्ण तहों को बेनकाब करती है तथा बुनियादी बदलाव के लिए यह कहानी उत्प्रेरित करती है।
- सलाम प्रथा के निहितार्थ तथा आत्मसम्मान एवं गरिमा की आकांक्षा
सलाम प्रथा मानवीय गरिमा और आत्मसम्मान को रौंदने की प्रथा रही है। श्रमशील वर्गों के पसीने पर पलने वाला हिन्दू समाज किस तरह स्वाभिमान को रौंदकर वर्चस्व का दम्भ भरता है उसकी बानगी सलाम कहानी प्रस्तुत करती है। सलाम प्रथा को उपहार और आमदनी से जोड़कर विवाह के नए जोड़े को शुरू से ही गुलाम बनाए रखने की मानसिकता को जीवित रखा गया था, जिसका विरोध हरीश और हरीश के घरवाले करते हैं। इस चेतना में शिक्षा की बहुत बड़ी भूमिका रही है। डॉ. अम्बेडकर ने इसीलिए शिक्षा को प्राथमिकता दी थी। शिक्षा से ही मुक्ति का रास्ता तय किया जा सकता है। शिक्षित नई पीढ़ी का प्रतिनिधि पात्र हरीश ही इस कहानी में चेतना का नायक बना है, साथ ही कमल उपाध्याय की उपस्थिति से कहानी में विविधता आई है। सलाम प्रथा के विरोध में खड़ा हरीश अपने निर्णय में प्रतिरोधी चेतना का प्रतिरूप एवं आत्मविश्वास और स्वाभिमान से भरा हुआ दिखाई देता है। गाँवों की संरचना में परम्परा के नाम पर वर्चस्व और शोषण की अनेक परम्पराएँ आज भी जीवित हैं। उन परम्पराओं को जीवित बनाए रखने में धर्मसत्ता की भी बड़ी भूमिकाएँ होती हैं। मर्यादा और रीति के नाम पर सुविधाहीन दलितों का शोषण कैसे कायम रखा जा सकता है, इसका प्रतिबिम्बन सलाम में देखा जा सकता है। बल्लू राँघड़ ने बारातियों के सामने ही जुम्मन को फटकार लगाते हुए कहा, “जुम्मन तेरा जँवाई अब तक सलाम पर क्यों नहीं आया। तेरी बेटी का ब्याह है तो हमारा बी कुछ हक बनता है। जो नेग-दस्तूर होता है, वो तो निभाना ही पड़ेगा। हमारी बहू-बेटियाँ घर में बैठी इन्तजार कर रही हैं। उसे ले के जल्दी आ जा…।’’
नेग-दस्तूर के नाम पर गुलाम बनाए रखने की परम्परा को ग्रामीण समाज में वैधता इसलिए मिलती रही, क्योंकि वे दलित समुदाय अधिकार विहीन हैं, भूमिहीन हैं, उन्हें बेबस और लाचार बना दिया गया है। उनके पास आत्मनिर्भर जीवन जीने का कोई मौका नहीं था। इसीलिए वे चेतनाहीन बने रहे, सताए जाते रहे, परन्तु शिक्षा ने उन्हें अधिकार सम्पन्न बनाया, दलितों को अपने अधिकारों के प्रति सचेत किया। शिक्षित नई पीढ़ी में आ रहे बदलाव और अम्बेडकरवादी चेतना की लहर ने आत्मसम्मान और गरिमा की आकांक्षा को बलवती किया। सलाम पर न जाने की जिद और ऐसी प्रथा को बन्द करने की पुरजोर कोशिश से हरीश का आत्मबल बढ़ गया। कमल उपाध्याय ने हरीश की ओर देखकर महसूस किया, “हरीश की आँखों में आत्मविश्वास और स्वाभिमान के उगते सूरज की चमक दिखाई पड़ रही थी। दोनों ने एक-दूसरे का हाथ गर्मजोशी से दबाया। आँखों ही आँखों में एक-दूसरे को आश्वस्त किया। नीम के पेड़ पर हरी नर्म पत्तियाँ हिल रही थीं, मानो हौसला दे रही हों।।”
हरीश और कमल उपाध्याय की गर्मजोशी और उनकी आश्वस्ति से कहानीकार के सरोकारों एवं प्रतिबद्धता की विराटता को महसूस किया जा सकता है। सम्पूर्ण समाज की जवाबदेही गैर जिम्मेदारी का बोध कराने की प्रवृत्ति सलाम में देखी जा सकती है। इन सब प्रतिबद्धताओं, जिम्मेदारियों, सरोकारों के बीच जिस स्वाभिमान, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की चेतना दिखाई देती है, उन्हीं के बीच सामाजिक जटिलता, संश्लिष्टता एवं जड़ता के विस्तार की मानसिकता को भी कहानीकार उजागर करता है। अपमान, घृणा और वर्चस्व के शिकार परिवार एवं समाज में भी बारातियों का खाना बनाने वाले को मुसलमान समझकर दीपू जैसे बच्चे द्वारा खाना खाने से मना कर देना स्कूली शिक्षा और नई पीढ़ी की सोच को प्रभावित करने वाली संस्कृति को भी प्रश्न के कठघरे में खड़ा करके ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कहानी को नया मोड़ दे दिया है। भारतीय समाज की जटिलतम परम्पराएँ, संस्कृति एवं सोच को पुनर्विवेचन के लिए कहानीकार ने बाध्य किया है।
- निष्कर्ष
शहर से गाँव में ब्याह के लिए गई बारात से शुरू हुई कहानी का अन्त 10-12 साल के बच्चे के मन में बैठी जाति एवं धर्म की दीवारों की घृणा से होता है। बारात ठहराने के लिए गाँव का स्कूल खोल देने की प्रधान जी की हामी के बावजूद बारातियों को ठहरने के लिए मात्र बारामदा ही मिल सका। बिजली और पानी की सुविधाओं से वंचित किए जाने की विवशताओं के बीच शादी सम्पन्न हुई। दलित वर्ग में जन्मे हरीश की शादी में दोस्त कमल उपाध्याय का अतिरिक्त उत्साह और घर-परिवार के सदस्य की तरह सारी व्यवस्था में शरीक होना समाज की दूरियों को पाटने की कहानी बन जाती है। बारात में गाँव गए कमल उपाध्याय को घृणा, अपमान, तिरस्कार और जातिगत वर्चस्व का एहसास तब हुआ, जब उसे चायवाले चूहड़ा समझकर चाय नहीं दी, बल्कि हिकारत भरे स्वर में फटकारता रहा। गाँव के बल्लू राँघड़ के लड़के रामपाल ने बड़ी भद्दी गालियाँ दी। इस घटना से कमल की संवेदना के तार झंकृत हो गए। पन्द्रह वर्ष पुरानी बातें उसे याद आई, जब हरीश को घर लाने और खाना खिलाते समय जाति जान लेने पर, उसे अपनी माँ का झन्नाटेदार थप्पड़ खाना पड़ा था। हरीश की वे बातें भी कमल को सच लगने लगी, जो अखबारों में छपी दलित उत्पीड़न की घटनाओं को हरीश द्वारा सुना करता था। कमल उपाध्याय की आत्मानुभूति से स्वानुभूति और सहानुभूति के प्रश्नों का उत्तर कहानीकार ने रचनात्मक कसौटी के आधार पर दिया। शादी की सुबह सलाम पर बुलाने की हठधर्मिता एवं धमकियों से डरे बिना उस प्रथा को न मानने की हरीश की जिद उसकी दलित चेतना से कहानी को वैचारिक परिप्रेक्ष्य मिलता है। हरीश और कमल की दोस्ती तथा एक-दूसरे का सहयोग, सानिध्य एवं मैत्री से लेखक के सरोकारों को कहानी पुष्ट करती है। सलाम कहानी अन्ततः परम्परा एवं प्रथा के अमानवीय पहलुओं को उजागर करते हुए उसके नेपथ्य में काम कर रही जातिप्रथा एवं वर्चस्व की सोच को उजागर करती है। यह कहानी असमानता, अस्पृश्यता, भेदभाव एवं जातिगत वर्चस्व की मानसिकता को बदलने तथा समतापरक भारत के निर्माण की आकांक्षा को साकार करने का लक्ष्य सामने रखती है। सम्पूर्ण समाज को सामाजिक विषमता की सोच से मुक्त होने की कहानी के रूप में सलाम को पढ़ा जाना चाहिए।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- दलित साहित्य का समाजशास्त्र, हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
- दलित जीवन की कहानियाँ, गिरिराज शरण (संपा.), प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
- दलित कहानी संचयन, रमणिका गुप्ता, साहित्य अकादेमी, दिल्ली
- दलित महिला कथाकारों की चर्चित कहानियाँ, डॉ.कुसुम वियोगी (संपादक), साहित्य निधि प्रकाशन, दिल्ली
- बीसवीं शताब्दी के अन्तिम द्विदशक की हिन्दी कहानी में दलित जीवन, डॉ.गौतम सोनकाम्बले, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
- हिन्दी दलित कथा-साहित्य अवधारणाएं और विधाएं, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली
- परम्परागत वर्ण-व्यवस्था और दलित साहित्य, साक्षान्त मस्के, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- नयी सदी की पहचान, श्रेष्ठ दलित कहानियाँ, मुद्राराक्षस, लोकभारती प्रकाशन, दिल्ली
- आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेन्द्र चौबे, ओरियंट ब्लैक स्वान, दिल्ली
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%93%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BF
- http://www.hindisamay.com/writer/%E0%A4%93%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6-%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BF.cspx?id=54&name=%E0%A4%93%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6-%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BF
- http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3115&pageno=1
- https://docs.google.com/file/d/0Bwvi_WaL_v3GOTJOalFyNVpYeGc/edit
- http://www.bharatdarshan.co.nz/author-profile/94/om-prakash-valmiki-biography.html