16 सरहपा 2
रामबक्ष जाट
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ अध्ययन के उपरान्त आप–
- सरहपा कृत दोहाकोश से परिचित हो सकेंगे
- दोहाकोश में अभिव्यक्त सरहपा के चिन्तन का साक्षात्कार कर पाएँगे
- दोहाकोश के काव्य स्वरूप को पहचान पाएँगे
- प्रस्तावना
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार सरहपा हिन्दी के प्रथम कवि हैं। राहुलजी ने सरहपा के 7 संस्कृत ग्रन्थों और 17 अनूदित अपभ्रंश ग्रन्थों का उल्लेख किया है, परन्तु उनकी कोई भी रचना अपने मूल रूप में आज उपलब्ध नहीं है। राहुल जी ने सरहपा के जिस दोहाकोश का सम्पादन किया है उसमें 165 छन्द हैं। इस ग्रन्थ की भूमिका में शिवपूजन सहाय ने लिखा है कि “इस ग्रन्थ में सिद्ध सरहपाद की कविता भोट-भाषा में रूपान्तरित है, जिसकी अविकल छाया प्राचीन हिन्दी में स्वयं राहुल जी ने प्रस्तुत की है।” स्वयं राहुल सांकृत्यायन ने भी अफ़सोस व्यक्त किया है कि “सरह की इस अनमोल कृति को अभी मूल भाषा में नहीं पाया गया और उसके तिब्बती अनुवाद से ही हमें सन्तोष करना पडे़गा।” अर्थात आज जब हम सरहपा की चर्चा करते हैं तो वह दोहाकोश अनुवाद का पुनरुनुवाद है। अब हमारे लिए राहुल सांकृत्यायन द्वारा किया गया पुनरुनुवाद ही मूल रचना है।
- दोहाकोश : परिचय
दोहाकोश की पाण्डुलिपि राहुल सांकृत्यायन को ‘तिब्बत के ऐतिहासिक मठ स. स्क्य में सन् 1934 में’ प्राप्त हुई थी। दोहाकोश में राहुल जी ने सरहपा के चार चर्यापदों को भी शामिल किया है, जो म.म. हरप्रसाद शास्त्री द्वारा सम्पादित है। राहुल जी का मत है कि दोहा-चौपाई की शुरुआत अपभ्रंश से हुई और “जब तक और पुराना उदहारण नहीं मिलता, तब तक के लिए हम कह सकते हैं कि सरह ही साहित्य में इसके विधाता हैं।” परन्तु दोहाकोश में सिर्फ दोहा छन्द ही नहीं सोरठा, पद्धतिया आदि अन्य छन्द भी हैं। अपभ्रंश के जानकार विद्वानों का विचार है कि दोहा और चर्यापद अपभ्रंश के छन्द हैं। चर्या का अर्थ बताया जाता है : आचरण, अभ्यास और अनुष्ठान। नेपाल के बौद्धों के बारे में प्रसिद्ध है कि ये अपनी गुप्त पूजा को चर्या या चचा कहते हैं, इस पूजा में ये पद गाए जाते हैं।
सरह के उपलब्ध चार चर्यापदों में रागों का उल्लेख किया गया है : राग गुंजरी, राग देशाख, राग भैरवी, राग मालाशी आदि है। यही परम्परा कबीर, सूर, मीरा आदि भक्तिकालीन कवियों ने भी अपनाई है। राहुल जी का अनुमान है कि ऐसे बहुत से पद सरह ने रचे होंगे, जो अब अनुपलब्ध हैं।
- दोहाकोश : सरहपा का चिन्तन संग्रह
दोहाकोश सरहपा के स्फुट चिन्तन का संग्रह है। सम्भव है इनकी रचना अलग-अलग समय में हुई हो। यह भी सम्भव है कि ऐसे अनेक दोहे सरहपा ने लिखे हों, जो अब उपलब्ध नहीं है। यदि उपलब्ध होते तो उनका समग्र चिन्तन समग्रता में अभिव्यक्त होता। अब हमें इन बिखरे हुए विचार-कणों से उनको समग्रता में समझने का प्रयास करना है।
दोहाकोश के आरम्भ में सरहपा ने अन्य मतावलम्बियों की आलोचना की है। सबसे पहले उन्होंने ब्राह्मण की, फिर पाशुपत, जैन और बौद्ध मतावलम्बियों की आलोचना की है। इन आलोचनाओं में अतिरिक्त आवेग नहीं है, जो आवेग हम कबीर की रचनाओं में देखते हैं। वे सामान्य तथ्य कथन की तरह कहते हैं कि ब्राह्मण चारों वेद पढ़ते हैं, परन्तु वेदों के रहस्य को नहीं जानते। कथन में आक्रामकता नहीं है, पछाड़ने का भाव भी नहीं है। कथन में एक निष्कर्ष है जो उनके दीर्घ चिन्तन से आया है। पाशुपत या जैन उनके तर्कों का प्रत्युत्तर दे पाएँगे, इसकी लेशमात्र भी आशंका सरहपा को नहीं है।
दीर्घनखी यति मलिने भेसे। नंगे होइ उपाडे केसे।।
यदि नंगे रहने से मोक्ष मिलने की सम्भावना हो तो कुत्ते और सियारों को तो वह मिल ही जाएगा। तर्क देते समय सरहपा सामान्य जीवन के सामान्य प्रसंगों को सामने रखते हैं, उस समय कोई दार्शनिक तर्क नहीं देते। सम्भवतः अन्य मतावलम्बियों को सरहपा इस लायक न समझते हों कि उनसे शास्त्रार्थ किया जाए।
यहाँ जिस तर्क पद्धति को सरहपा अपनाते हैं, उसी पद्धति से मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए कबीर कहते हैं कि पत्थर को पूजने से भगवान् मिलते हों तो मैं पहाड़ को पूजना शुरू कर देता हूँ। उससे तो आटा पीसने वाली चक्की अच्छी है, जिससे पीसकर संसार भोजन करता है। या सर मुंडाने से क्या होगा? भेड़ को बार-बार मूण्डा जाता है, लेकिन वह बैकुण्ठ कहाँ जा पाती है? यह तर्क पद्धति लगभग चार-पाँच सौ वर्षों तक हिन्दी में चलती है, जिसका प्रारम्भ सरहपा से हुआ।
- दोहाकोश : काव्य का स्वरूप
सरहपा आम तौर से अपने मत का समर्थन करते हैं। उसे पुष्ट करने के लिए लिखते हैं। कविता लिखना सरहपा का उद्देश्य नहीं है। वे मानवता को नया सन्देश देना चाहते थे। वे जानते थे कि उनके पास कहने के लिए कुछ नया है। ऐसा है , जो दूसरों के पास नहीं है। उनमें यह भी विश्वास दिखाई देता है कि जो वे कहना चाहते हैं, वह दूसरे मनुष्यों के लिए हितकर है। दूसरों को भी यह जानना चाहिए। इस विश्वास से उनकी कविता पैदा होती है।
एवं लहै परमपद, क्या बहु बोलिए एहिं।
हौं पुनि जानउ येन मन, छाड़ै चिन्ता तत्व।।
इस तरह परमपद को प्राप्त करना चाहिए। अब इससे ज्यादा मैं क्या बोलूं? मैं तो सिर्फ इतना जनता हूँ कि तब मन (या चित्त) चिन्ता छोड़ देता है। यदि आगे सरहपा कहते हैं कि यदि आपसे अपना मन भी नहीं जीता जाता, तो परमतत्त्व को कैसे प्राप्त करोगे?
इस तरह हम देखते हैं कि सरहपा की कविता में अनुभव तथ्य कथन की तरह आता है। कविता में उपदेशात्मकता एवं रूखापन दिखलाई पड़ता है। उनकी कविता उन लोगों के लिए नहीं है, जो कविता से मनोरंजन चाहते हैं। वे आवेगात्मक कविताएँ नहीं लिखते। वे ज्ञान चर्चा करते हैं। उसे श्रोता ध्यानपूर्वक सुनते हैं। उन्हें ज्ञान का आनन्द प्राप्त होता है। उनकी जिज्ञासा शान्त होती है। सरहपा का यह ज्ञान दीर्घकालीन चिन्तन से आया है, इसे अलग से कहने की आवश्यकता नहीं है। इस तरह के चिन्तन की विशेषता यह भी होती है कि उनका यह निष्कर्ष अन्तिम होता है। सरहपा बहस की प्रस्तावना के रूप अपनी बात नहीं कहते। बहस का निष्कर्ष देते हैं, जहाँ आगे फिर बहस करने की कोई सम्भावना नहीं होती। बस वही है। इतना ही है और इसी रूप में हैं। इस तरह हम इस निष्कर्ष पर भी पहुँच सकते हैं कि दोहाकोश की ये कविताएँ उनकी किशोरावस्था या युवावस्था की कविताएँ नहीं है। ये उनके प्रौढ़ मन की अभिव्यक्तियाँ हैं। ये सूत्र उनके अपने जीवन के निष्कर्ष हैं।
इसके साथ ही यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि ये कविताएँ मुक्तक हैं। इनमें कोई कथा नहीं है। इनमें एक बात एक दोहे में कह दी गई है। वह अपने में पूर्ण है। उसका अर्थ करने के लिए अगला या पिछला दोहा पढ़ने की जरूरत नहीं है। इन दोहों में कई बार पुनर्कथन मिल सकता है, लेकिन पूर्वापर क्रम नहीं है। इसलिए दोहाकोश के दोहों को आप कहीं से भी पढ़ सकते हैं।
दोहाकोश को पढ़ने से कभी-कभी यह भ्रम हो सकता है कि इन कविताओं में सपाट बयानी है। सतह पर ऐसा लग सकता है, लेकिन इनका अर्थ सरल नहीं है। वे जटिल बातों को सहजता से कहते हैं। यह सहजता प्रयास पूर्वक अर्जित की गई है, लम्बी और कष्टदायी ज्ञान साधना से आई है। सरहपा की विशेषता है कि वे साधारण को असाधारण और असाधारण अनुभव को सहज तथ्य कथन में बदल देते हैं। साधारण प्रतीत होने वाले दोहों के भीतर शास्त्रीय अर्थ छिपा हुआ है।
सरहपा कहते हैं कि अपने आप रमण करने वाला ही श्रेष्ठ होता है। यह एक सरल-सा तथ्य कथन प्रतीत होता है। परन्तु अपने आप में रमण कैसे किया जाता है? कौन कर सकता है? कैसे करें? दूसरों के साथ रमण करने वाला श्रेष्ठ क्यों नहीं होता? ‘रमण’ में दूसरे की उपस्थिति कितनी जरूरी है? इस तरह के अनेक प्रश्न खड़े हो जाते हैं। इन प्रश्नों के सम्यक उत्तर जानने के लिए सरहपा के समग्र चिन्तन को जानना जरूरी हो जाता है इसी तरह वे कहते हैं कि शंका ने सारे संसार को खा लिया है, किन्तु शंका अब भी बनी हुई है, उसे कोई नहीं खा पाया। इसका अर्थ विश्लेषण करने के लिए मानव ह्रदय की बारीकियों की जानकारी प्राप्त करनी होती है। मध्यकाल का विश्वासी पाठक किस रूप में अपने आपको शंकारहित कर पाता होगा? इसकी भावनात्मक-मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया कैसे घटित होती है? यह प्रक्रिया सरल नहीं है।
अतः हम कह सकते हैं कि सरल प्रतीत होने वाली इन कविताओं के भीतर दार्शनिक मर्म छिपा हुआ है। इसका सौन्दर्य तभी उद्घाटित होता है, जब पाठक उस मर्म को पहचानने में सक्षम हो जाए। बिना किसी उलटबाँसी के भी ये कविताएँ दार्शनिक रहस्यवाद की सृष्टि करती है।
- मध्यकालीन रहस्यवाद : ज़रा-मरण (सरहपा का रहस्यवाद)
मध्यकालीन सिद्धों, सन्तों और भक्तों के रहस्यवाद का क्या कारण रहा होगा? उनका सारा चिन्तन रहस्यवाद में आकर समाप्त क्यों हो जाता है? ऐसा लगता है कि जब चिन्तक के सारे तर्क समाप्त हो जाते थे, तब वह रहस्यवाद के आवरण में छुप जाता था और जनता को विश्वास बनाए रखने की सलाह देने लगता था।
दरअसल सरहपा ने ज्ञान चर्चा तब की थी, जब संसार में स्वतन्त्र रूप से समाज वैज्ञानिक चिन्तक नहीं थे, मानव मनोविज्ञान की बारीकियों को जानने वाले लोग बहुत कम थे, मानव शरीर की वैज्ञानिक जानकारी रखने वाले स्वास्थ्य विशेषज्ञ नहीं थे। सब कुछ धर्म के भीतर था। बीमारी का कारण पता नहीं चलता था। एक दिन चलते-चलते अचानक एक आदमी संसार से उठ जाता था। अपने-अपने अनुभवों के आधार पर लोग निष्कर्ष निकालते थे और जीवन में उसका उपयोग करते थे। अनुभव और दर्शन में कोई तालमेल नहीं था। ईश्वर सत्य है, या सत्य ईश्वर है। यह एक ही बात नहीं है। यदि ऐसा है तो मनुष्य क्या है? अगर मनुष्य है और वह भी ‘सत्य’ ही है तो वह मरता क्यों है? मरने के बाद वह कहाँ चला जाता है। या वह बूढ़ा क्यों होता है? मनुष्य बीमार क्यों पड़ता है? कुछ ऐसा उपाय होना चाहिए कि मनुष्य न तो बीमार पड़े, न उसे बुढ़ापा आए और न वह मरे। क्या ऐसा हो सकता है? क्या विचार के स्तर पर ऐसा सम्भव है? क्या वास्तव में ऐसा सम्भव है?
ज़रा-मरण का भय मध्यकालीन मनुष्य की सबसे बड़ी चिन्ता थी। यह भय सबसे अधिक भयावह था। इस भय पर विजय पाने के लिए धर्म, दर्शन और भक्ति का लम्बा-चौड़ा शास्त्र खड़ा किया गया। अनेक साधु-महात्मा अपने उपदेशों में कहते हुए पाए जाते हैं कि अमुक कार्य कर लोगे तो जन्म-मरण के बन्धक से मुक्त हो जाओगे या ‘जरा-मरण’ से बच जाओगे। अमरता की कामनाओं से हमारा मध्यकालीन साहित्य भरा-पड़ा है। इस एक चीज के लिए हजारों उपाय बताए गए। विश्वासी जनता अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार उन उपायों का जीवन में उपयोग करती थी। सभी मध्ययुगीन शास्त्र एक दूसरे के विरोध में हजार तर्क देते हैं परन्तु सभी इस बात पर एकमत हैं कि उनके पास मनुष्य के ‘जरा-मरण’ से मुक्त होने का उपाय है। सभी उस उपाय को ढूंढ़ते हैं।
एक बार एक व्यक्ति के शरीर में कुछ कष्ट हुआ। बुखार हो गया होगा। फोड़ा-फुंसी हो गई होगी। वह बाबाजी के पास पहुँच गया। उन के पास इसकी कोई दवा तो थी नहीं। परन्तु वे भक्त को निराश नहीं करना चाहते थे, तो बोले–
देह धरै को दण्ड है, सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगतै ज्ञान से, मूरख भुगतै रोय।।
शरीर की बीमारी शरीर धारण करने का दण्ड है, वह तो होगा ही। उसे चाहे तो रोकर भुगत लो या ज्ञान से भुगत लो। अर्थात दर्शन या ज्ञान आपके दर्द की अनुभूति को कम कर सकता है। यदि उन आदिम जिज्ञासाओं को इकट्ठा किया जाए, तो सामान्य जनता के मन में ये प्रश्न उठते थे–
मृत्यु क्यों होती है? और कैसे होती है?
क्या मृत्यु आवश्यक है?
धीरे-धीरे शरीर बूढ़ा क्यों हो जाता है?
आप सिद्ध पुरुष हैं। ज्ञानी-महात्मा हैं। कुछ इसका उपाय बताइए। इसके लिए अनेक दार्शनिक उपाय बताए गए हैं। यह पूर्वजन्म के कर्मों का फल हैं। यही नहीं यह ‘पितृदोष’ है आपके पूर्वजों ने जो पाप किया उसका फल है। या आपका भाग्य है। भाग्य के बाद तो कोई तर्क बचता ही नहीं।
इन मौलिक और आदिम जिज्ञासाओं का उत्तर सिद्धों, सन्तों और महात्माओं के पास भी नहीं था। सम्भवतः वे इस बात को जानते हो, सम्भवतः वे स्वयं भी न जानते हों कि उनके पास इन प्रश्नों का समाधान नहीं है। इसलिए वे रहस्यवाद में इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते थे और जनता को धीरज प्रदान करते थे। रहस्यवाद से जनता की जिज्ञासा शांत तो नहीं होती थी, परन्तु जनता भ्रम में पड़ जाती थी और कठिनाइयों को सहन करने की हिम्मत आ जाती थी। रहस्यवाद ने वर्षों तक जनता में जीवनी शक्ति का संचार किया, इसमें कोई सन्देह नहीं। अन्यथा लोग पागल हो जाते या मानसिक अवसाद में चले जाते या मृत्यु आने से पहले ही मृत्यु भय से मर जाते। भूत-प्रेत-जादू-टोना-टोटका-मन्त्र-तन्त्र सब इन्हीं आदिम जिज्ञासाओं को शान्त करने के दार्शनिक उपाय थे जो भारत के मध्यकालीन महान सिद्धों, सन्तों और भक्तों ने विकसित किये। सरहपा की कविताओं के दार्शनिक आधार को इसी रूप में देखना चाहिए।
सरहपा ने अपनी कविता में अपने दर्शन को व्यक्त करने के साथ-साथ मानव जीवन की विविध गतिविधियों का सूक्ष्म निरीक्षण भी किया है। वे मानते हैं और कहते हैं कि आदमी जिस तरह पैदा होता है, वैसे ही उसका नाश भी होता है। अर्थात उसकी मृत्यु भी होती है। अब होती है तो होवे। उस पर चर्चा करने से बेहतर है कि मनुष्य जन्म पाकर उसे ‘परम महासुख की सिद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न’ करना चाहिए। सरहपा के मन में उन लोगों के लिए करुणा और दुःख है कि जो लोग यह नहीं समझते कि उन्हें क्या करना चाहिए? और सिर्फ पशु-तुल्य जीवन जीते रहते हैं। पशु-तुल्य का अर्थ है विचारहीन जीवन; उद्देश्यहीन जीवन। सिर्फ खाना-सोना और मर जाना। यह मानव जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता।
- मनुष्य की भौतिक लालसा
सरहपा ने धन संचय करने की प्रवृत्ति का निरीक्षण किया और बहुत सुन्दर ढंग से कहा कि इस संसार में एक व्यक्ति ने खूब धन संचित किया। थोड़ी देर बाद एक दूसरा व्यक्ति आया और उसने वह धन छीन लिया। फिर कुछ समय गुजरा और वे दोनों इस संसार से चले गए। वह धन तो यहीं रह गया। अब इस बात को ‘कहना और न कहना’ बराबर ही है, क्योंकि जाने कब से यह परम्परा चली आ रही है अर्थात पता नहीं कब तक यह चलती रहेगी–
एकने संचा धन प्रवर, और ने दिया शताइ।
काल बीतते दोनों गये, कहते कहा न जाइ।।
इसलिए सरहपा चिन्तित होकर कहते हैं कि यह संसार अपनी गलतियों को दोहराता रहता है। (कभी सीखता ही नहीं) “को पतियाये कासु कहउँ” । सरहपा को भी कभी-कभी कष्ट होता है कि मैं किससे कहूँ? और यदि कह दूँ तो क्या वह विश्वास कर लेगा? विश्वास का संकट सरहपा के काल में भी था। सरहपा कहते हैं कि जिसको हम देख सकते हैं, वह भ्रान्ति नहीं है। परन्तु ब्रह्म, विष्णु और महेश को तो हम देख ही नहीं सकते। ये हैं भी या नहीं। तो यहाँ भ्रान्ति की सम्भावना है। ये विचार है। भले ही संसार इनसे उत्पन्न हुआ हो। ऐसी सब चीजें भ्रान्तिमय हो सकती हैं–
“रवि शशि दोनों ना करु भान्ती। ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वर भ्रान्ति।”
- निष्कर्ष
इस तरह सरहपा अपनी रचनाओं में गूढ़ दार्शनिक विचारों को सहज रूप में हमारे सामने रखते हैं, जो सतही तौर पर तथ्य कथन प्रतीत होते हैं, परन्तु जिनके भीतर गहन अर्थ छिपा हुआ है। लेकिन आज हमें सरहपा की वे उक्तियाँ अधिक मार्मिक लगती हैं, जहाँ वे अपने दर्शन के समर्थन में सामान्य जीवनानुभव को तर्क के रूप में उद्धृत करते हैं। उदाहरणार्थ एक स्थान पर वे कहते हैं कि भूसा को कूटने से चावल नहीं निकलता। इसका एक लौकिक अर्थ भी है कि निरर्थक श्रम करने से कुछ भी उपलब्धि प्राप्त नहीं होती। श्रम सार्थक होना चाहिए। श्रम की सार्थकता उसके उद्देश्य में होती है। अतः पहले अपना उद्देश्य निश्चित करना चाहिए और तब श्रम करना चाहिए। इसके बाद इन पंक्तियों का अलौकिक अर्थ भी हो सकता है। अन्यथा व्यक्ति “शास्त्रों के मरुस्थल में प्यासा” ही रह जाएगा।
सरहपा ने दैनिक जीवन की दैनिक क्रियाओं की कभी उपेक्षा नहीं की। वे कहते हैं–
देक्खउ सुणउ पईसउ साद्दउ। जिघ्घउ भ्रमउ बईसउ, उठ्ठउ।।
आलमाल बवहारें बोल्लउ। मण च्छडु एका ओर म्म चलउ।।
अब इस संसार में आए हो तो सब कुछ देखो, सुनो, सूंघो, घूमो-फिरो, उठो-बैठो, खाओ-पीओ। कोई आलमाल मिले तो प्रेम-प्यार से बोलचाल सब करो। सब कुछ करो उसके बाद कोई योग की बात सोचो। मान लिया कि इस संसार में दुःख बहुत है, परन्तु सुख भी यहीं है।
सरहपा परमपद पाने के उपाय बताने से पहले चाहते हैं कि आप संसार को देख-सुनकर आओ। अज्ञानी बनकर मत आओ। अनुभव प्रवीण बनकर आओ और तब वे लौकिक तर्कों के माध्यम से वे अलौकिक अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- सिद्ध साहित्य, डॉ. धर्मवीर भारती किताब महल, इलाहाबाद
- दोहाकोश: भाषा वैज्ञानिक अध्ययन, डॉ. रमाइन्द्र कुमार,मॉ पार्वती बैजनाथ प्रकाशन, दिल्ली
- हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली, खण्ड-3, सं.मुकुन्द द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
- चौरासी सिद्ध औरदोहाकोश, रमाइन्द्र कुमार, नौद्ध श्रमण बिहार प्रकाशन, दिल्ली
- युग प्रवर्तक सरह औरदोहाकोश, डॉ. रमाइन्द्र कुमार,मॉ पार्वती बैजनाथ प्रकाशन,दिल्ली
- दोहा कोश/ सिद्ध सरहपाद, अनुवादक और संपादकराहुल सांकृत्यायनबिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना
- सिद्ध सरहपा, डॉ.विश्वम्भरनाथ उपाध्याय , वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली
- सरहपा, भारतीय साहित्य के निर्माता, डॉ.विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, साहित्य अकादमी
- हिन्दी साहित्य का सबाल्टर्न इतिहास (सिध्द साहित्य से संत साहित्य तक), राजेन्द्र प्रसाद सिंह, गौतम बुक सेन्टर, दिल्ली
- हिन्दी साहित्य का आदिकाल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य का अतीत भाग-1, विश्वनाथप्रसाद सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- अपभ्रंश भाषा और साहित्य, राजमणि शर्मा, लोकोदय ग्रन्थमाला, भारतीय ज्ञानपीठ, नई
वेब लिंक्स
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%AA%E0%A4%BE
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7_%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%AA%E0%A4%BE
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%AA%E0%A4%BE
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%B6
- https://books.google.co.in/books?id=9cpge0N_4QcC&printsec=frontcover&source=gbs_ge_summary_r&cad=0#v=onepage&q&f=false
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%B6_%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE