30 शिकंजे का दर्द
रमेश चन्द मीणा
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- हिन्दी के दलित साहित्य में आत्मकथा लेखन की प्रवृत्ति के बारे में जानकारी ले सकेंगे।
- दलित साहित्य में सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा के बारे में जानकारी हासिल करेंगे।
- दलित बालिक के बचपन, समाज, परिवेश और शिक्षा को लेकर किए गए संघर्ष से परिचित हो सकेंगे।
- दलित समाज में जन्मे बच्चों के लिए शिक्षा अर्जन की दुरूहता, जटिलता से परिचित होंगे।
- प्रस्तावना
दलित साहित्य में आत्मकथा महत्त्वपूर्ण विधा है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर की मराठी में लिखी पहली आत्मकथा मेरा जीवन सन् 1954 में प्रकाशित हुई। ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन (सन् 1997), सूरजपाल चौहान की दो भागों में प्रकाशित तिरस्कृत’ (सन् 2002),सन्तप्त (सन् 2006), प्रो. श्यामलाल की एक भंगी कुलपति की अनकही कहानी, रूपनारायण सोनकर की नागफनी और भगवान दास मोरवाल की आत्मकथा मैं भंगी हूँ आदि प्रमुख दलित आत्मकथाएँ हैं। सामाजिक पिछड़ेपन व अशिक्षित रहने के पीछे हिन्दू समाज के सदियों पुराने रीति-रिवाज, सामाजिक परम्पराएँ, छुआछूत व जातिवादी धारणाएँ रहीं हैं। कौशल्या बैसन्त्री की आत्मकथा दोहरा अभिशाप दलित महिला के दंश को अभिव्यक्त करती है। इसी तरह सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा शिकंजे का दर्द में पारम्परिक सवालों के साथ दलित पुरुष को कठघरे में खड़ा करने में किसी तरह की कोताही नहीं बरती गई है। दलित पुरुष जो मंच पर स्त्री के अन्याय एवं भेदभाव के खिलाफ़ आवाज उठाता है, वह अपने घर में स्त्री के साथ भेदभाव करता है। शिक्षा पाने के लिए आत्मकथाकार का अनवरत संघर्ष, लगन और जिद्द अनुकरणीय है। लेकिन वह चाहते हुए भी अपने पति के शिकंजे से मुक्त नहीं हो पाती है। यह आत्मकथा पुरुषसत्ता पर सवाल खड़ा करती है।
- छुआछूत एवं जातीय दंश
जाति एवं वर्ण-व्यवस्था भारतीय समाज की ऐसी दुखती रग है, जिस पर उँगली रखते ही कराह उठती है।पर समाज का एक तबका इतना असंवेदनशील है कि वह इसे धर्म और नैतिकता के आवरण में लपेटकर बेहद जरूरी व्यवस्था के रूप में मानता है। इसमें भेदभाव, छुआछूत और शोषण के कई रूप दर्शाए गए हैं। इसमें रचयिता की नानी के समय का क्रूरतम रूप दिखाई देता है, तो उनकी माँ और स्वयं उन पर छुआछूत का बदला हुआ रूप दिखता है।
आत्मकथाकार के साथ छुआछूत का पहला वाकया स्कूल में प्रवेश करने के साथ ही हुआ है। उन्हें स्कूल में सबके पीछे बिठाया जाता था। एक दिन वे जगह खाली देखकर तीसरे नम्बर पर बैठ गईं तो अध्यापक ने उन्हें उसके लिए निर्धारित स्थान पर बैठने को मजबूर किया और उनकी औकात एवं स्तर का एहसास कराया है। समाज में चपरासी भी उन्हें उनकी हैसियत बतलाते रहते थे। घर से बाहर निकलते ही उन्हें कदम-कदम पर एहसास कराया जाता कि वे नीच, अछूत जाति की हैं। कोई छू न जाए, इसका ध्यान उन्हें ही रखना होता था। स्कूल में छुआछूत ऐसी थी कि उनके दोनों भाई डर के मारे स्कूल का नाम लेते ही बहाना बनाने लगते थे। फलतः वे आधी अधूरी शिक्षा ही ले पाए। उन्हें शिक्षा से दूर रखने की साजिशें की गईं। स्कूल में सजा भी मिलती तो सवर्ण बच्चों को कम, दलित को अधिक। दलित बालिकाएँ इस भेद को समझ चुकी थीं,उनके साथी बच्चों से उसके छू जाने पर घर जाते ही उनकी माँ उन्हें नहलातीं। बालिका सुशीला टाकभौरे इस बात का बराबर ध्यान रखतीं कि ऐसी नौबत न आए –“वे मुझसे दूर रहे, इसकी अपेक्षा मैं स्वयं उनसे दूर रहती थी, ताकि मेरे कारण किसी को तकलीफ न हो। बचपन में सिखाई बातों से यह आदत बन गई थी। सबसे अलग रहना, सबके पीछे रहना ताकि कोई मेरा अपमान न करे, मुझे बुरा न कहे, मुझे सजा न दे। मैं सिर झुकाए, अपनी स्लेट पर बार-बार लिखती और मिटाती रहती।” (शिकंजे का दर्द, पृ. 18) श्रम करने वाले निम्न जातीय लोग भी उनके नजदीक आने पर घृणा करते हुए यूँ मुखातिब होते- “कैसा काम कर रहे हो यार? तुम तो छाती पर चढ़े आ रहे हो… ।” (वही, पृ. 72) उनकी छाया तक से दूर रहने का प्रयास किया जाता था।
बालिका सुशीला टाकभौरे के साथ छुआछूत के कई वाकये हैं। तेलन से तेल लेते समय, किराने की दुकान पर सामान लेने व रुपये देते समय। मुहल्ले की चक्की पर गेहूँ पिसाने पहुँचे तो उनके गेहूँ नहीं पीसे जाते। हिन्दू समाज में कंजर भी घृणा के पात्र रहे हैं, कोढ़ी की तरह -“कोढ़ जैसी बीमारी से पीड़ित लोग भी हमें अछूत मानकर छुआछूत करते। चोर और भिखारी भी जैसे हमसे बड़े और उच्च थे।” (वही, पृ. 65) राह चलते एक छोटे बच्चे को हाथ लगा दिया तो उसकी माँ बहुत दूर तक यह पूछती चली आती है कि तुम कौन हो? कौन जात होकर लड़के को छुए हो?” (वही, पृ. 89) जाति सुने बिना बात आगे नहीं बढ़ती, उच्च है तो ठीक, वर्ना बोलने का स्वर ही बदल जाता।
हिन्दू व्यवस्था के किले की बेहद मजबूत दीवार है-जाति। जाति और धर्म का बन्धन ऐसी डोर से जकड़ा गया है, जो दिखाई नहीं देती, पर कोई भी आसानी से इस बन्धन से मुक्त नहीं हो पाता। बालिका के पिता को जब कोई पशुओं को उठाने के लिए बुलाता और पिता मना करदेते, तो उन पर सवर्ण समाज प्रतिबन्ध लगा देता। “मकान किराये पर लेने के लिए तो जाति का अपना महत्त्व है। जाति के बिना समाज नहीं हो सकता, जाति के बिना इनसान नहीं हो सकता, जाति की जानकारी के बिना सामाजिक व्यवहार नहीं हो सकता।” (वही, पृ. 166) निम्न जाति के कारण किराये पर मकान नहीं मिल पाता। मकान देने से पहले जाति पूछी जाती। फिर तुरन्त मना कर देते-‘नहीं देना है मकान किराये पर।’ कामरेड, जो जाति नहीं मानते, पर उनकी पत्नीबड़ी मुश्किल से दुगने किराये पर तैयार हुई और कई शर्तों के साथ कहा -“तुम्हारे रिश्तेदार यहाँ नहीं आएँगे। तुम यहाँ कोई कार्यक्रम नहीं करोगे। तुमसे पड़ोसियों को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।” (वही, पृ. 165) उनके हाथोंभिखारी भी भीख नहीं लेता, पता चलने पर कहता, “अच्छा हुआ माताजी, आपने बता दिया। भला उनके घर का आटा कैसे ले सकता हूँ?” (वही, पृ. 167) सास के मरने पर क्रियाकर्म मकान में नहीं करने दिए गए। दुख की घड़ी में भी कोई पलभर के लिए घर से निकलकर नहीं आया। असहिष्णुता की मिसाल थी कि कुत्ते के मरने पर उसे स्वर्ग में पहुँचने की बात की जाती है, पर इन्सान के मरने पर कोई दो बोल संवेदना के नहीं बोल पाता। यह सब सिर्फ जाति के कारण होता, “क्या हम कुत्तों से भी गए गुजरे हैं?” (वही, पृ. 174) यह सवाल पाठक के ह्रदय पर सीधी मार करता थी। कथित शिक्षितों में जाति मानसिक रूप में परिलक्षित होती थी।
- शिक्षा के लिए संघर्ष
कौसल्या बैसन्त्री (दोहरा अभिशाप) हो, उमेशकुमार सिंह हो (दुख-सुख के सफर में), या श्यौराज सिंह ‘बेचैन’(मेरा बचपन मेरे कन्धों पर) हो… सभी आत्मकथाओं में पढ़ाई को लेकर समकक्ष दलित बालकों में लगाव, रुचि और मेहनत है। शिक्षा के क्षेत्र में जातिगतभेदभाव के कारण दलित समाज अक्सर पिछड़ जाता है। शिक्षण-संस्थानों में जातिगत-भेदभाव के कारण दलित विद्यार्थियों को शारीरिक एवं मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता था। छुआछूत, भेदभाव और अपमान का व्यवहार इनके साथ हर पल किया जाता था, इसीलिए दलितों के लिए शिक्षा पाना बहुत ही कठिन होता था, उन्हें शोषणकारी एवं भेदभाव आधारित व्यवस्था से संघर्ष करना पड़ता है। आत्मकथा में बालिका मान-अपमान से परे रहकर ही शिक्षा हासिल कर पाई, तो इसलिए कि वे उनका अपना लक्ष्य निर्धारित था, जिसे अन्ततः प्राप्त करना था। स्कूल में उन पर कई तरह के सवाल किए जाते थे। मक्खनलाल दुबे व्यंग्य और उपहास करते हुए कहते थे कि – “तुम क्या पढ़ सकोगी।” (शिकंजे का दर्द, पृ. 77) बच्चों का व्यवहार दोस्ताना कभी नहीं होता। सफेद ड्रेस पर वे स्याही छिड़कने से बाज नहीं आते। “दीक्षित सर दलित बालकों की गलती पर जमकर पिटाई करते और बालिका पर कामुक दृष्टि डालने से बाज नहीं आते थे।…श्रीवास्तव सर कक्षा में प्रश्न करते समय यह उम्मीद करते कि जवाब मुझे ही देना है। लड़कियां अगर आपस में बातें कर रही हों, तब वे मुझे ही डाँटते थे।” (शिकंजे का दर्द, पृ. 78) दलित बालक को हरसम्भव प्रताड़ित किया जाता, जिससे वे स्कूल आना छोड़ दे और ऐसा होता भी रहा।
दलित बालिकाओं के लिए तो स्कूल में पढ़ना और भी मुश्किल होता था। आत्मकथा में स्कूल में दलित छात्र तो कई थे, लेकिन दलित बालिका (वाल्मीकि) अकेली ही थीं। दलित बालिका की प्रकृति सबसे अलग ठहरती। वे पढ़ सकीं इसके पीछे उनका समझौतावादी व्यवहार भी था। ब्राह्मणवादी सवर्ण लोगों से मुकाबला करने के बजाए वे उनसे दूरी बनाकर अपना काम करती थीं। “सबसे अलग रहना, सबके पीछे रहना ताकि कोई मेरा अपमान न करे, मुझे बुरा न कहे, मुझे सजा न दे। मैं सिर झुकाए, अपनी स्लेट पर बार-बार लिखती और मिटाती रहती।” (वही, पृ. 18) बालिका के पढ़ने में यह प्रवृत्ति सहायक होती है।
आत्मकथा में बालिका परीक्षा के दिनों में मन लगाकर पूरी किताबें पढ़ डालती थीं। खेलने में खूब मन लगाकार खेलती, सो उन्हें जिला स्तर तक जीत हासिल करने पर प्रशंसा मिली। परीक्षा में अच्छे अंक आए, कुछ शिक्षकों से प्रशंसा भी मिली। शिक्षा का सवाल रचना में प्रमुख था। स्कूल स्तर की शिक्षा दिलाने में नानी एवं माँ की भूमिका थी तो बाद वाली शिक्षा उन्होंने अपने बलबूते हासिल की। प्रतिकूल वातावरण होने के बावजूद उच्च शिक्षा पाने जैसे मुश्किल कार्य को उन्होंने मुमकिन बनाया।
नौकरी की जद्दोजहद में परिवार के पालन-पोषण के साथ एम.ए, पीएच.डी की डिग्री हासिल करना, वह भी तब जब घर में पढ़ने-लिखने का वातावरण प्रतिकूल था। दलित बालिका को शिक्षा के विपरीत माहौल मिला, जब महाविद्यालय में प्रवेश की बात उठी; तो सब विरोध करने लगे। लेकिन दृढ़ निश्चय के आगे घर वालों को झुकना पड़ा। वे तब तक भूखी रही; जब तक सब प्रवेश दिलाने के लिए तैयार नहीं हो गए। छुईमुई होकर जीने वाली लड़की, एक लड़के द्वारा कॉलेज में देखे जाने से इतनी भयभीत हो गई कि उसे जयशंकर प्रसाद की कहानी का पात्र गुण्डा समझ बैठी। कॉलेज से आते समय कुछ लड़कों ने फिल्मी अन्दाज में चारों तरफ घेरकर साइकिल खड़ी कर दी। उस समय अपनी उम्र से कम वय के लड़कों से घबराए बिना, उनकी तरफ देखती रही और वे कच्चे रास्ते से भाग गए।घर से बाहर कदम रखने पर छुआछूत, भेदभाव और जाति-पांति से भरा व्यवहार उन्हें हर पल अपमान का एहसास कराता है। उन्हें शिक्षा से वंचित रखने का प्रयास किया जाता है। क्योंकि ब्राह्मणवादी समाज को डर है कि शिक्षा से इनकी तमाम भेदभाव आधारित शोषणकारी साजिशों का पर्दाफ़ाश न हो जाए। और फिर शिक्षित दलित समाज इस घृणित वर्णव्यवस्था को नकार न दें। दलित समाज शिक्षा के माध्यम से अपने हक प्राप्त करते हैं। इस सन्दर्भ में बाबा साहेब डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने कहा था कि ‘शिक्षा शेरनी हा वह दूध है, जिसे पीकर कोई भी दहाड़ सकता है।’ यानी शिक्षा ही वह शस्त्र है, जिसके माध्यम से दलित समाज इस वर्ण-व्यवस्था को चुनौती दे सकता है।
- भाग्य एवं भगवान का प्रतिकार
आस्था, श्रद्धा और अन्धविश्वास का बसेरा दलित आदिवासी और पिछड़ों में कुछ अधिक ही होता है। बालिका सुशीला की नानी को परम्परा में पूरी आस्था थी। लेकिन बाद में नानी तो भगवान से बहस करती हुई लगने लगीं। जिनके लिए सब कुछ अच्छा है, वे उसकी स्तुति करेंगे, लेकिन जिनके लिए कुछ अच्छा नहीं है, जिन्हें सुख सुविधा, अवसर अधिकार जैसी कोई चीज नहीं है, भला भगवान को क्यों न कोसें? ऐसे समय में नानी कहतीं -“किसका भगवान? कौन-सा भगवान? कैसा भगवान?” (वही, पृ. 27) नानी को कई बार भगवान को गालियाँ देते वे सुनती थीं। नानी की गालियाँ होतीं- “तेरी ठठरी बँध जाए, तेरो बुरा हो जाए, भगवान! तेरो सिंहासन डोल जाए…तेको सब भूल जाए…।” नानी गन्दगी साफ करने के अलावा दाई का काम भी करती थीं। दलितों को भाग्यवादी हिन्दू संस्कारों ने बनाया है, सन्त, महात्माओं के प्रवचनों में सन्तोष को परम सुख बताया। दलितों ने अपने सारे कष्टों व दुखों का कारण पूर्व जन्म के कर्मों को मान लिया। वे अपने भाग्य को दोष दे कर प्रतिरोध नहीं कर पाते। विवाह सम्बन्ध ईश्वर की देन होने से सुख हो या दुख, बदला नहीं जा सकता, अधिक उम्र वाले पुरुष से शादी करने को इसीलिए घर वाले गलत नहीं मान पाते, क्योंकि “हिन्दू धर्मग्रन्थ मनुस्मृति में निर्देश है कि, लड़की की उम्र से तीन गुणा बड़ी उम्र के वर से विवाह किया जा सकता है।” (वही, पृ. 134) ईश्वर और धर्म के नाम पर दुख सहते हुए घुट-घुटकर जीते रह सकते हैं, लेकिन प्रतिरोध नहीं कर पाते। बेमेल विवाह भी वेबर्दाश्त करती हैं।
- अन्धविश्वास का बोलबाला
गरीबी, बीमारी और भुखमरी के शिकार जब कभी बीमार होते तो ऊँचे पहाड़ों पर स्थित देवी के थान पर पहुँच जाते। मोहन जब बीमार पड़ा, तो देवी के यहाँ ले जाए गए। बालिका को जब मोतीझरा निकला तो देवी-देवताओं से मनौतियाँ माँगी गई। नारियल और शक्कर का प्रसाद चढ़ाया जाता। बाबाओं पर विश्वास करके चिकित्सकीय इलाज से दूर रहे। बाबा लोग बार-बार बुलाते -“पाँच मंगलवार तक बैठक के लिए आओ, तबीयत ठीक हो जाएगी।” (वही, पृ. 89) दादी के शरीर में दशहरे के दिन बाबा आते थे। उनकी सवारी निकलती। “दादी उत्साह के साथ झूम-झूमकर आगे पीछे झुकते हुए चलती, मानो बाबा प्रसन्न हो रहे हैं।” (वही, पृ. 98) एक रात दादी के शरीर में दाना बाबा आ गए है। बाबा बोले-“क्यों तुम इधर-उधर भटकते हो? घर के देवी देवताओं पर विश्वास नहीं है? किसलिए रोजी-रोटी के लिए अपनी जन्मभूमि छोड़कर भटकते फिर रहे हो।” (वही, पृ. 99) ननद भी ऐसा ही करती-“वह ऊँचे और अलग स्वर में कहतीं -‘ऐ…तुम मुझे भूल गए? देखो यदि अच्छे रहना है, तो मीरा को नाराज नहीं करना।” (वही, पृ. 193) चाचा ससुर की दो बेटियाँ रमला और कमलाबाई दोनों मिलने आईं, उनको देवी आती थीं, वे ऊँची आवाज में बोलती है-“ऐ… शीला तू जानती है, हम कौन है? हमारी सेवा कर। तेरा भला होगा। हमारे नाम का दीपक जला।” (वही, पृ. 194) वे इन्हें देखती-सुनती रही, उसे इन पर विश्वास नहीं था, पर वे पहले कुछ कह भी नहीं पाती थी, लेकिन बाद में जब वे हाथ ठोक कर कहतींतब वे चुप हो जातीं। डर तब तक डराता, जब तक सामने वाला डरता है। उन्हें बहुत बाद में अनुभव हुआ, “डराने वाले के सामने शेर बन जाओ, तो वह भी दुम दबा लेता हैं।” (वही, पृ. 195)
- प्रतिरोध
दलित साहित्य का मुख्य स्वर रहा है-प्रतिरोध। दलित सौन्दर्यशास्त्र में यह प्रमुखता से स्वीकारा गया है। बचपन में बालिका सुशीला प्रतिरोध नहीं कर पाई, यहाँ तक कि उनके घर वाले, पिता, माँ और नानी में यह बात देखी जा सकती है। छुआछूत करने वालों पर माँ गुस्सा करती थीं। जब पिताजी शराब पीकर आते तो गाँव के बामन, बनियों को जमकर गरियाते-“इन सालों ने ही हमको छोटा बनाकर रखा है, इन्होंने ही हमको अछूत और लाचार बनाकर रखा है। ये साले हमको आगे नहीं बढ़ने देते हैं।” (वही, पृ. 65) बालिका के भाई में हिन्दू महाजनों के बच्चों से बराबरी करने की भावना प्रबल थी। इस बात को लेकर गांव के लड़कों से कई बार झगड़ा भी हुआ। भाई और पिताजी ने नानी द्वारा जूठन लाने का विरोध किया। अपने को जातिक्रम में कुछ ऊपर समझने वाले मजदूर जब छुआछूत करते, तो भाई तुरन्त प्रतिरोध करता, “क्यों इतनी छियाछीत लगती है, तो क्यों आते हो हमारे साथ काम करने? बड़े बनकर घर में रहो… ।” (वही, पृ. 72) ऐसे समय में पिताजी उसे समझाकर चुप कराते। पर घर आकर उन्हे गालियाँ देने से नहीं चूकते-“हगते-मूतते समय उन्हें खुद से छीत नहीं लगती, हमसे छीत लगती है। घर में भूंजी भांग नहीं, रईसी बताते हैं।” (वही, पृ. 80) सवर्ण कभी नहीं चाहते कि दलित प्रश्न करे। शंकर भैया बचपन से बहुत उद्यमी थे, वे महाजनों के बच्चों से मार-पीट करके भागकर छिप जाते। गाँव वाले उलाहना देने आते। कई बार पिताजी से पीटे जाते फिर भी वे न्याय की माँग करते हुए कहते, “उसने मुझे मारा, इसलिए मैंने उसे मारा।” (वही, पृ. 80) इन बातों से माँ अक्सर डर जाती और उसे भी डरातीं। यह डर उनमें सदियों से था। माँ डरतीं, माँ की माँ भी डरतीं। डर उनके संस्कारों में बसा दिया गया। गाँव में किसी तरह का झगड़ा होता तो पिताजी भाइयों को दूसरे गाँव भेज देते। उनका डर उन्हें ऐसा करने को बाध्य करता क्योंकि “सवर्ण गुण्डों, बदमाशों का दोष अछूतों के सिर मढ़ दिया जाता। उन्हें मार पीटकर जबरन कसूर कबूल करवा लिया जाता। हमारे गाँव के लोग हर समय डरे रहते।” (वही, पृ. 83) दीपावली के दिन पिताजी जिद करके मछली बनवाते, माँ मना करती तब पिताजी गुस्से से कह बैठते-“ये त्योहार हमारे नहीं है। हमारे पास कहाँ लक्ष्मी है, जो हम उसकी पूजा करें।” (वही. पृ. 41) पिताजी का यह आक्रोश घर में बाहर आता रहता।
रचना में प्रतिरोधी स्वर जहाँ-तहाँ दिखाई पड़ते हैं, लेकिन लेखिका के जीवन काल में कुछ दौर ऐसे आए, जब वे हलके प्रतिरोध ही दर्ज कर पाई। अपनी पढ़ाई की बात मनवाने में सफल रहीं। शिक्षा पाने का हक बाद में चलकर उन्होंने पति से भी हासिल किया। “जुल्म करने वाले से सहने वाला ज्यादा गुनहगार होता है, यह बात मैंने बाद में समझी थी।” (वही, पृ. 141) पति की प्रताड़ना से वे तब बच पाई जब बच्चे प्रतिरक्षा में ढाल बनकर खड़े होने लगे। मिलने वाले वेतन पर हक न होना, अपने ऊपर हो रहे जुल्म सहना और पत्नी के अधिकार के बिना जीती रहना, कमजोर किस्म की दलित भारतीय नारी की पहचान रही है।
- दलित महिला
दलित महिला दलितों में भी दलित कही जाती है। माँ और नानी उनके प्रेरणा-स्रोत हैं। वे जब बहू बनकर ससुराल पहुँचती थी, तो वह जगह उनके लिए दूसरा शिकंजा साबित हुआ। पति का व्यवहार क्रूर, कठोर और ह्रदयहीन पुरुष का रहा। उनकी सास, बेटी और बहू में भेदभाव करने वाली महिला साबित हुईं। ननद और सास मिलकर पति को बहू के खिलाफ भड़काने से बाज नहीं आतीं। पति, अपनी बहन से जितना प्रेम करता, पत्नी की उतनी ही पिटाई करता। पति-पत्नी के बीच संवादहीनता बनी रहती। एक ग्रेजुएट पत्नी के साथ पशु जैसा व्यवहार करना पाठक के रोंगटे खड़े कर देता है। पति कसाई-सा लगता है, जब बात-बात पर मारने दौड़ता। बिना किसी गलती के पैरों में सिर रखकर माफी मँगवाना हद दर्जे की नीचता लगती। पत्नी से नौकरी करवाई जाती और पहनने को बहन की पुरानी साड़ी दी जाती। वेतन पति ही लेकर आता। बहन और माँ के कहने पर उसे जब-तब पीटा जाता है। मार-पिटाई की आवाज को दूसरे न सुने इसके लिए रेडियो की आवाज ऊँची कर दी जाती। घर वालों को खाना खिलाकर जब वे खाने बैठतीं तब पति गुस्से में उसकी थाली को ठोकर मार देता, वे सब्जी और बिखरी रोटी को समेटने लग जातीं। हिन्दू संस्कार पुरुष को पत्नी पर हर तरह के जुल्म करने, डाँट डपटकर कर रखने के हक देता। हिन्दू संस्कारों में पली बड़ी महिला कितनी कमजोर, लिजलिजी साबित होती है। बालिका के संस्कार नानी और माँ से बने और आधे काल खण्ड तक धर्मभीरु हो कर वे जीती रही। नानी उनकी रोल मॉडल रही थीं, पर ‘वे अपनी पीड़ा को सहज मानती थी।वे अपनी पीड़ा से छटपटाती, तड़पती और सामाजिक व्यवस्था से प्रश्न करती। शिक्षित होकर बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर से वे प्रभावित होती थी। साथ ही साथ सभा, संगोष्ठियों और वाल्मीकि कार्यक्रमों में जाती थी। अब उनका अपना दर्द नहीं, समाज का दर्द बोलने लगा था,वे अपने लिए नहीं अछूत समाज के लिए सोचने लगीं थी, समझने और जीने लगी थी।
कौशल्या बैसन्त्री की दोहरा अभिशाप और सुशीला टाकभौरे की शिकंजे का दर्द आत्मकथा कई मायने में एक ही धरातल पर खड़ी नजर आती है। दोनों का बेमेल विवाह हुआ, शिक्षा के लिए संघर्ष किया, छुआछूत और जाति-पाँति की शिकार हुई। सुशीला टाकभौरे की शादी अपने बड़ी उम्र वाले से हुई तो कौसल्या बैसन्त्री की शादी दुआजू से हुई। शिकंजे का दर्द में पति माँ, बहन से इतना प्रेम करता है कि पत्नी को नजर अन्दाज करता है। दोहरा अभिशाप में पत्नी पति के लिए सिर्फ “खाना बनाने और उसकी शारीरिक भूख मिटाने के लिए चाहिए थी।” (दोहरा अभिशाप, पृ. 17) दोनों दलित महिला शिक्षित होते हुए भी पति प्रताड़ना की पीड़ित हैं। एक अलग होकर (कौशल्या) पति से खाने पीने का हर्जाना माँगती हैं। दूसरी (सुशीला) सब कुछ सहते हुए भी साथ बनी रहती हैं। कौसल्या का प्रतिरोध पति से भी है, पर सुशीला पति से कभी खुल कर प्रतिरोध नहीं कर पाती।
- चेतनाशील जाग्रत दलित महिला
आरम्भिक दौर की दलित महिला की आत्मकथा कमजोर महिला की गाथा है। रचना में अन्तर्विरोध भी झलकता है। शिक्षा के प्रति वे बेशक लगनशील रहती हैं, पर इसी कारण पति से दबकर जीने के बावजूद पीएच.डी. हासिल कर लेती है। पाठक असमंजस में रहता है कि शिक्षित महिला होने के बावजूद पति के सामने इतनी भयभीत क्यों रहीं? संस्कार महिला को भीरु, दब्बू और डरपोक बनाते हैं। संस्कार शिक्षा से भी प्रबल साबित होने लगते हैं। शिक्षा अधिकार पाने का जरिया है लेकिन वे शिक्षा से सिर्फ वेतन ही पाती हैं, अपने व्यक्तित्व को ऊपर नहीं उठा पातीं। पुरुष की बराबरी वे तब कर पाती हैं, जब बच्चे बड़े हो जाते हैं। सन्तानों के बूते वे अपना बचाव कर पाती हैं। कविता और कहानियों में वे अपनी बात जिस तरह रख सकी हैं, उतनी दृढ़ता जीवन के शुरुआती दौर में नहीं थी। रचना के अन्त तक रिश्ते, घटनाएँ, बीते क्षण, स्मृति में आते रहे, वर्णित होते रहे, जिससे तारतम्य बिगड़ गया। रचना के पहले खण्ड के बाद कथात्मकता खत्म होकर टुकड़ों में खींची जाने लगी। दूसरे दौर, जिसे दूसरा खण्ड कहा जाना चाहिए, में लेखिका केबदले हुए रूप देखे जा सकते है। वे क्रमशः बदलती हैं, व्यक्तित्व हासिल करती हैं, तब शिक्षा, संगठन और अन्दर से मिलने वाले साहस से वे खड़ी होने लगती हैं, जो अब तक पति को थामे चल रही थीं, या पीछे-पीछे घिसट रही थीं, अब अपने पैरों पर खड़ी होती हैं।
दब्बू, अन्तर्मुखी, परावलम्बी से बदलकर स्वावलम्बी, आत्मनिर्भर और सचेत दलित महिला का रूप पाठक के सामने उभरने लगता है। सचेत दलित महिला शिक्षा पा जाने पर नहीं, परिस्थितियों से मुठभेड़ करते हुए, दलित महिला संगठन के सम्पर्क में आने के बाद बदलाव की स्थिति में आती हैं। कुमुद पावड़े के साथ गोष्ठियों में जाना, रेखा से खरा नुस्खा मिलना… आदि प्रसंग इनके स्वाभिमान को बढ़ाते हैं। संगठन, गोष्ठियों के बतौर देश-विदेश की यात्राएँ करने पर आत्मनिर्भरता बढ़ती है। अपने पैसों से ख़रीदे हुए फ़्लैट को पति के नाम करवाने का विरोध करती है। पति का अहम एवं पुरुषत्व पर चोट तब पड़ती है, जब पत्नी के हाथ में चाय के बाद चप्पल लेकर प्रतिकार करते हुए देखते है–“क्रोध और आवेग को देखकर वे चुप रह गए थे और भविष्य के किसी दुष्परिणाम के डर से इस प्रसंग को खत्म करना चाहते थे।” (वही, पृ. 223) पति अब दोस्त, समकक्ष और समानधर्मी की भूमिका में आ जाते हैं। पत्नी अब सही अर्थ में सशक्त स्त्री की भूमिका में नजर आने लगती है।
- निष्कर्ष
दलित महिला की शुरुआती आत्मकथा दलित स्त्री के शोषण की दास्ताँ बयान करती है। लेखिका शिक्षा के प्रति जितनी दृढ-निश्चयी रही हैं, उतनी पति के सामने नहीं रह पाती। इस रचना से साबित होता है कि संस्कार महिला को भीरु, दब्बू और डरपोक बनाते है; शिक्षा से ये प्रबल साबित हो सकते हैं। शिक्षा भले ही अधिकारों को पाने का जरिया रही है, पर अपना व्यक्तित्व अगर नहीं है तो पुरुष की बराबरी नहीं की जा सकती है। यह आत्मकथा इस अर्थ में उल्लेखनीय कही जा सकती है कि शिक्षा के माध्यम से वर्णव्यवस्था एवं पुरुषसत्ता को चुनौती दी जा सकती है।
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अतिरिक्त जानें-
पुस्तकें
- ‘अम्बेडकरवादी स्त्री-चिंतन’ (सामाजिक शोषण के खिलाफ आत्मवृत्तात्मक संघर्ष), तेज सिंह (संपा.), स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिन्दी दलित कथा साहित्य : अवधारणायें और विधाएँ, रजत रानी मीनू, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्युटर्स (प्रा.)लि., नयी दिल्ली
- समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध, अनीता भारती, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- विमर्श के विविध आयाम, डॉ.अर्जुन चव्हाण, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
- दलित चेतना साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार?, रमणिका गुप्ता, समीक्षा प्रकाशन, दिल्ली
- स्त्री एवं दलित चेतना, डॉ. भूरेलाल एवं सिद्धार्थ, अक्षरशिल्पी प्रकाशन, दिल्ली
वेब लिंक्स-
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
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