18 रविदास 2
श्रीप्रकाश शुक्ल
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- रविदास की सामाजिक उपस्थिति के बारे में जान सकेंगे।
- रविदास की सांस्कृतिक उपस्थिति के बारे में समझ सकेंगें।
- समाज में रविदास की प्रासंगिकता के बारे में अवगत हो सकेंगे।
- रविदासिया समुदाय में रविदास के प्रति भक्ति भावना को विश्लेषित कर पाएँगे।।
- प्रस्तावना
रविदास भक्तिकाल की निर्गुण परम्परा के सन्त कवि हैं। रविदास कबीर के समकालीन माने जाते हैं। कबीर की भाँति उन्होंने जाति-पाँति का विरोध किया और तत्कालीन समय में व्याप्त धार्मिक आडम्बरों, पाखण्ड एवं अन्धविश्वासों का खण्डन किया। उन्होंने अपनी वाणी द्वारा समाज को सही मार्ग पर चलने का सन्देश दिया। उनकी वाणी रैदास बानी में संकलित है। रविदास ने एक समतामूलक समाज का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने ‘बेगमपुरा’ की संकल्पना दी, जिसका तात्पर्य ‘गम रहित समाज’ से है; अर्थात् ऐसा शहर जहाँ कोई दीन-दुखी न हो, जहाँ सभी सुखी-सम्पन्न हो एवं सभी समान हों।
- रविदास की सामाजिक उपस्थिति
प्रत्येक माघी पूर्णिमा को सीरगोवर्धन स्थित रविदास मन्दिर में रविदास की भव्य जयन्ती का आयोजन होता है। रविदासी समाज के लोग पंजाब व राजस्थान से काफी संख्या में यहाँ आते हैं। जहाँ धूप, दीप व नैवेद्य की जगह सिर्फ ‘नाम की महत्ता’ का एहसास होता है। यहाँ नाम ही ‘आरती’ है और ‘भजन’ भी। सब कुछ ‘गुरपरसादि निरंजन पावउँ’ की भाव भगति ही है। यहाँ ‘चित्त को कागज बनाना है और आँखों को स्याही। अर्थात् आँखों की स्याही से चित्त रूपी कागज पर लिखने वाला भाव है –
मन रे! चलि चटसार पढ़ाऊँ
चितु कागद करि मसि नैनन री, बाराखड़ी सिखाऊँ।
नाम तेरो आरती भजनु मुरारे। (रविदास)
सन्त रविदास के इस पद के पीछे एक गहरी सांस्कृतिक बेचैनी है और वे पारम्परिक आरती के वर्चस्व के समानान्तर एक मुक्तिकामी आरती का विकल्प देना चाहते हैं। यह गरीब व असहाय वर्ग की विचारधारा को व्यंजित करती है, जहाँ बगैर अनुष्ठानों के भी ईश्वर को पुकारा जा सकता है। ऐसा लगता है कि सामाजिक विषमता दूर करने से पहले रविदास सांस्कृतिक विषमता को सम्बोधित करना चाहते हैं और एक अपरिवर्तनीय जड़ समाज की सांस्कृतिक चेतना को झकझोरना चाहते हैं।
स्पष्ट है कि रविदास भारतीय संस्कृति में व्याप्त उस पुरोहित वर्ग के वर्चस्व का प्रतिवाद करते हैं जिसने अपने प्रपंची अनुष्ठानों के माध्यम से ईश्वर को ‘अपने ईश्वर’ में बदल दिया है। भूख, प्यास, गरीबी से अधिक रविदास को तत्कालीन समाज में वर्चस्व की इस सत्ता से टकराना पड़ा था। इसी कारण हम देखते हैं कि वे कई पदों में ‘आरती’ शब्द की अनुष्ठानिक मनोवृति की तीखी आलोचना करते हैं और ईश्वर के समक्ष अपने पक्ष को विनम्रतापूर्वक रखते हैं। यह असल में ‘पुरोहितवर्ग’ के समक्ष अपनी बात को बड़े ही तर्कपूर्वक ढंग से रखने की कोशिश है; कई बार वे इसमें सफल होते हैं; बहुत से लोगों का हृदय परिवर्तन करते हैं।
इस पद से जुड़ी एक किंवदन्ती यह भी है कि यह पद रविदास ने मीरा के सामने गाया था जब मीरा रविदास से मिलने उनकी कुटिया में गई थी और इसी पद को सुनने के बाद मीरा ने दीप जलाकर आरती करना बन्द कर दिया था। (सन्दर्भ : भक्त रविदास जी/ ज्ञानी नरैण सिंध जी/ प्रकाशक : भाई चतर सिंह जीवन सिंह, अमृतसर) इस कथ्य की ऐतिहासिकता चाहे जितनी सन्दिग्ध हो, किन्तु इसकी प्रासंगिकता यह है कि रविदास ने आरती की पारम्परिक छवि को ध्वस्त करके इसे जनसामान्य के लिए सुलभ बनाया है। ‘आरती’ की भाषा में ही ‘आरती’ का यह ‘विखण्डन’ रविदास को अग्रगामी मूल्यों का पोषक बनाता है। शुकदेव सिंह द्वारा सम्पादित रैदास बानी (राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली) के 193 पदों में ‘आरती’ शब्द की यह जनतान्त्रिक उपस्थिति आठ पदों में हुई है और सबसे ज्यादा आवृत्तिमूलक यही ‘शब्द’ है। इन सभी स्थितियों में ‘नाम’ के महत्त्व पर बहुत बल है और इस आधार पर एक मानवीय चेतन तत्त्व की उपस्थिति का एहसास कराया गया है।
- रविदास के प्रति भक्ति भावना
नाम के महत्त्व और नाम को आरती के रूप में स्वीकार करने की इच्छा रविदास के कई पदों में मिलती है। जहाँ ‘राम नाम’ का धन मिलता है, वहाँ व्यापार भी सहज होता है अर्थात् समानता के दायरे में यह घटित होता है। जहाँ यह नहीं होता वहाँ ‘समानता’ व ‘भ्रातृत्व’ के मूल से मनुष्य वंचित हो जाता है। जहाँ अपने पराये का भेद रहता है, वहाँ मनुष्य अपने मूल से वंचित हो जाता है। रविदास कहते हैं कि ‘‘ऐसी भगति हमारी सन्तों प्रभु तो इहै बड़ाई/ आपन अनत और नहिं मानत, तातें मूल गवाई।’’ असल में यहाँ यह ‘मूल’ ईश्वर को पाना नहीं है, बल्कि प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर की लीला के विस्तार को देखना है। जहाँ यह नहीं होता, वहाँ स्वयं रविदास जी बहुत उदास होते हैं और यह अकारण नहीं कि उनके कई पदों में ‘तातें रहूँ उदास’ जैसे वाक्य आते हैं। जहाँ ‘प्रेम भगति’ नहीं मिलती, जहाँ यज्ञ व योग का वर्चस्व रहता है, वहाँ रविदास खुद ही उदास हो जाते हैं। रविदास की यह उदासी उनकी आधुनिक जनतान्त्रिक स्वप्नों के साकार न होने की उदासी है, इसीलिए वे आज के इन सीमान्त के लोगों के बीच ज्यादा पूज्य हैं, जिन्होंने अपने संघर्षों के माध्यम से रविदास के मध्यकालीन सपनों को साकार होते देखा है। इसी के माध्यम से रविदास आज भी जनता में समादृत हैं, क्योंकि उन्होंने बार-बार कहा है कि वे उसी को पूजते हैं, जिसका कोई और ठिकाना नहीं होता। अर्थात् जो सभी का होता है ‘‘कह रैदास में ताहि को पूजूँ, जाके ठाँव नाव नहिं कोई।’’ एक प्रकार से यह निर्गुण के प्रति संकेत है, क्योंकि जहाँ ‘सगुण’ होना है, वहाँ तेरा-मेरा वाला भाव रहता है, जिससे आदमी ईश्वर के मूल स्वरूप से वंचित हो जाता है। एक पद में उन्होंने कहा भी है कि ‘‘जोग जग्य गुन कछू न जानूँ/ तातें रहूँ उदासा।’’ यानी योग, यज्ञ व सगुण ईश्वर रूप के प्रति यह गहरा अविश्वास है। इसी पद में उन्होंने ‘‘मैं से मूल गवाई।” (पद–161, रैदास बानी, सं. शुकदेव सिंह) कहा है जिसका आशय अहंकार के वर्चस्व से है। ईश्वर पर कब्जा, इसी अहंकार का परिणाम हुआ करता है और जब यह अहंकार चला जाता है, तब ईश्वर सबके लिए बराबर हो जाता है। मतलब यह है कि सगुन की उपस्थिति, रविदास के यहाँ एक प्रकार के अहंकार की उपस्थिति ही है। क्योंकि सगुन रूप को मानने वाला ‘अन्य’ की उपस्थिति, खासकर मन के भीतर ईश्वर की उपस्थिति का निषेध करता है। कहा भी है कि आपन अनत और नहिं मानत, तातें मूल गवाई’।” (पद -2, रैदास बानी, सं. शुकदेव सिंह) मतलब अपने को श्रेष्ठ कहना और दूसरे को न मानना, यह वास्तविक ईश्वर की समझ में सबसे बड़ा अवरोध है। रविदास जीवन भर इसी अवरोध को दूर करते रहे, क्योंकि धर्मसत्ता की आन्तरिक विसंगतियों को उद्घाटित करना उनका प्रमुख उद्देश्य रहा था। आज के ज्ञान मीमांसा के दृष्टिकोण से यह काफी प्रासंगिक पक्ष है और क्रान्तिकारी भी। मूल का संकेत करता हुआ रविदास का यह दर्शन, आधुनिक मूलगामी, चिन्तकों के लिए एक प्रकार की चुनौती है।
- सीरगोवर्धन में रविदास
रविदास जी ने अपने एक प्रसिद्ध पद में अपने जन्म स्थान को ‘बेगमपुरा’ कहा है। गुरु ग्रन्थ साहब में यह पद यहीं से शुरू होता है – ‘‘बेगमपुरा सहर को नाऊँ, दुःख अन्देश नहीं तिहिं ठाऊँ।’’ इसके बाद की पंक्ति है – ‘‘अब हम खूब वतन घर पाया, ऊँचा खेर सदा मन भाया।’’ यूँ तो किंवदन्ती के अनुसार, यह पद रविदास जी ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में गाया था और यह भी कहा जाता है कि गुरुनानक देव से गोष्ठी के पश्चात इस पद को वे गुनगुनाने लगे थे। यह पद रविदास के समता मूलक स्वप्न का साकार रूप है। यह ‘बेगमपुरा’ वह स्थल है, जहाँ कोई दुख, चिन्ता, गम नहीं है। रविदास जी के सपनों में काशी की कुछ ऐसी ही परिकल्पना थी, जिसे उन्होंने इस पद के माध्यम से व्यक्त किया है। आज सीरगोवर्धन को ‘बेगमपुरा’ के नाम से याद किया जाता है और ‘डेरा’ सच्चखण्ड, वल्ला के सौजन्य से प्रत्येक वर्ष सन्त निरंजनदास के नेतृत्व में भक्तों का जो जत्था सीरगोवर्धन स्थित रविदास मन्दिर आता है, वह ‘बेगमपुरा एक्सप्रेस’ के माध्यम से सम्भव होता है। पंजाब एवं राजस्थान से काफी संख्या में भक्त इस विशेष रेल से प्रत्येक माघी पूर्णिमा को आते हैं। यह रेल भक्तों के सहयोग से आती है और इसके लिए बाकायदा ट्रस्ट की ओर से रेलवे को भुगतान किया जाता है।
यहाँ लोगों के आने का सिलसिला माघी पूर्णिमा के पाँच दिन पहले से ही आरम्भ हो जाता है। विभिन्न शिविरों में इनके ठहरने की व्यवस्था होती है और हर पण्डाल खचाखच भरा हुआ होता है। कार्यक्रम के दिन पूरा सीरगोवर्धन एक लघु पंजाब में बदल जाता है। एक तरफ विभिन्न पण्डालों में भक्तगण झाल व मजीरे की ताल पर रविदास जी के भजनों पर नृत्य करते हैं, तो दूसरी तरफ ‘सन्त समागम’ वाले पण्डाल में सन्त लोग रविदास के जीवन दर्शन पर अपना वक्तव्य दे रहे होते है।
यहाँ पंजाब और राजस्थान से आई कुछ महिलाओं द्वारा झाल, मजीरे पर जिस तरह से नृत्य किया जाता है, उसमें चित्तौड़ की झाली रानी की याद आना स्वाभाविक है। उस समय जो भी इसे देखता है, उसे सहज ही यह बात समझ में आती होगी कि अपने समय में सब कुछ भूलकर किस तरह झाली बाई ने रविदास के पदों पर नृत्य किया होगा। यह ‘नृत्य’ असल में बन्धन के प्रति विद्रोह ही है, जो ‘आजादी’ के स्वाद जैसा है। ‘झाला’ का मतलब ‘झल्ली’ से है जिसका अर्थ ‘पागल’ होने से होता है। किंवदन्ती के अनुसार झाली बाई जब रविदास से मिलने उनकी कुटी में गई, तो रविदास ने उनके सम्मुख ‘‘जल की भीति पवन का खम्भा, रक्त बून्द का गारा/ हाड़ मांस नाड़ी पिंजर पंखी बसै विचारा’’ वाला पद गया था। यह संयोग है कि ये भक्तगण हर समय इसी पद को गाते हुए नृत्य कर रहे होते हैं।
इस अवसर पर ‘भण्डारे’ व ‘सफाई’ का बड़ा महत्त्व होता है। ‘भण्डारे’ का आयोजन ही छूआछूत की समस्या से मुक्ति पाने के लिए होता है। इसके पीछे धारणा यही है कि ‘भूख’ की कोई जाति नहीं होती। इसलिए जो भी भूखा है या कि जिसे भी जरूरत है, वह यहाँ आकर समान भाव से भोजन ग्रहण कर सकता है। यहाँ ‘सफाई’ के माध्यम से कर्म की पवित्रता के प्रति बड़ा संकल्प लिया जाता है। यहीं से ‘आत्मशुद्धि’ की प्रक्रिया शुरू होती है, जिसको लेकर जीवन भर रविदास सन्देश देते रहे। इस आयोजन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष मुझे जो लगता है, वह है ‘आत्मानुशासन’ है। यहाँ ‘‘जोड़ा घर’’ से लेकर ‘‘भोजनालय’’ तक में गजब का अनुशासन दिखाई देता है। आत्मानुशासन की यह प्रवृत्ति उनकी सफाई व्यवस्था में देखने को मिलती है, जहाँ हर स्त्री एवं पुरुष, वे किसी भी वय के हों, किसी भी स्तर के हों, खुद ही झाडू लगाना शुरू कर देते हैं।
इसी प्रकार यहाँ की पूरी सुरक्षा व्यवस्था ‘सेवादारों’ के हाथ में रहती है और यह लोग बड़े ही ‘संवेदनशील कलात्मकता’ के साथ पूरी सुरक्षा को अंजाम देते हैं। रविदास ने जिस बेगमपुरा की कल्पना की है, वे उसी बेगमपुरा के चौकीदार हैं, यह इनके समता, समानता व बन्धुत्ववादी व्यवहार में आसानी से देखा जा सकता है।
बहरहाल, सीरगोवर्धन के इस लक्खी मेले से रविदास के बारे में जो बात समझ में आती है, वह यह है कि आत्मानुशासन, कृतज्ञ मन और मुक्ति चेतना के क्षेत्र में रविदास जनता में काफी गहरे धँसे हैं। इस आयोजन की पूरी तैयारी डेरा सच्च खण्ड, बल्ला के मुखिया सन्त निरंजनदास के संरक्षण में होती है और इन्हीं की देखरेख में समारोह स्थल पर सन्त समागम होता है। इधर कुछ वर्षों से इस सन्त समागम में प्रायः हर वक्ता ‘रविदासीया धर्म’ पर जोर दे रहा होता है।
खास बात यह रही है कि जितने भी वक्ता इस अवसर पर बोलते हैं, उनके वक्तव्य में ज्यादातर धार्मिक चिन्ताएँ ही प्रकट होती हैं। ये चिन्ताएं जनता के बीच रविदास की एक ‘राजनीतिक उपस्थिति’ तो दर्शाती है लेकिन रविदास के चिन्तन के प्रति उनमें कोई खास रुझान विकसित नहीं कर पातीं।
इस सन्दर्भ में शुकदेव सिंह ने रैदास बानी में उचित ही सवाल उठाया है कि “वे कौन सी स्थितियाँ होती हैं जो एक कामगार शूद्र या दलित को साधु महात्मा की ऊंचाई तक उठाती हैं, वेदों, शास्त्रों, पुराणों अर्थात् स्थापित महत्ताओं के खण्डन का बल विकसित करती हैं और वे कौन-सी परिस्थितियाँ होती है, जब कोई प्रतिष्ठा के प्रकर्ष पर पहुँच जाता है तो उसे पुनः आश्रम, मन्दिर, पूजा, पाखण्ड, अवतार, विश्वास, चमत्कार तमाम तरह के श्रद्धा कंचुक में आवृत्त कर दिया जाता है।” (पृष्ठ – 251, रैदास बानी) जब कोई व्यक्ति, अपने विवेक के बल पर अपने विश्वास की ताकत पर, किसी वर्चस्व की सामाजिक सत्ता को चुनौती देता है, तब वह अपने सम्पूर्ण संघर्षशील जीवन में अपने लोगों के लिए संघर्ष का प्रतीक होता है, किन्तु अपनी मृत्यु के बाद वह जनता में वर्चस्व के प्रतीक के रूप में पूज्य हो जाता है। यह वर्चस्व की सत्ता में, कुछ जगह पाने के संघर्ष के रूप में घटित नहीं होता, बल्कि जनता इसे स्वाभाविक रूप से उसके श्रम एवं संघर्ष को महत्त्व प्रदान करती है। इसके लिए ‘प्रतिमान’ वह पारम्परिक वर्चस्व की संस्कृति से ही ग्रहण करती है, किन्तु इसके मूल स्वरूप को अधिक मानवीय व उदात्त बना देती है।
- रविदास का महत्त्व
रविदास मध्यकालीन धर्मसाधना में एक ऐसे सन्त के रूप में आते हैं, जिन्होंने अपनी सामाजिक उपस्थिति से अपने जीवनकाल में ही लोकनायक का दर्जा हासिल कर लिया था। उन्होंने पोथी संस्कृति का प्रतिवाद करते हुए ‘मानुष संस्कृति’ की बात की है, जिसका सीधा असर आधुनिक समाज पर पड़ा है। उन्होंने हिन्दू संस्कृति की रूढि़यों, कर्मकाण्डों पर विनम्रतापूर्वक प्रतिवाद करते हुए अपना पक्ष रखा, जिससे आधुनिक समाज में वे सामाजिक जागरूकता और चरित्र बल के प्रतीक बन गए। ‘साधुता’ उनके स्वभाव में थी और ‘स्वाभिमान’ उनके संस्कार में। इस कारण से उन्होंने अपने पदों व साखियों में काम करने वाले मजदूरों को पर्याप्त प्रतिष्ठा दी। अपने निर्मल मन और सतत संघर्षशील आलोचनात्मक विवेक से उन्होंने जन सामान्य में शीघ्र ही सम्मान अर्जित किया और कालान्तर में जन नायक के रूप में उभरे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने मानवीय समस्याओं के समाधान के लिए कोई अलौकिक समाधान न खोजकर नितान्त ही मानवीय समाधान सुझाए। अपना दारिद्रय दूर करने के लिए उन्होंने अपने श्रम व कर्म को ही आधार बनाया। यह जानना यहाँ रोचक है कि रविदास ने अपने पदों में जहाँ ‘विप्रसंस्कृति’ की आलोचना की, वहीं अपनी साखियों में सामाजिक प्रतिष्ठा में श्रम व कर्म का महत्त्व भी बताया। उनकी साखियाँ कर्म साधना, जाति-पाँति विरोध, प्रेम, स्वाधीनता का उद्घोष करने वाले महत्त्वपूर्ण दस्तावेज हैं। सहजता, अहंकार का त्याग, मायामोह से दूरी, ये सभी उनके व्यक्तित्व के महत्त्वपूर्ण आभूषण हैं। इसमें भी श्रम, कर्म और स्वाधीनता की चेतना उनके नस-नस में बसी हुई है। जाति-पाँति का रविदास ने जोरदार खण्डन किया है। उन्हें लगता है कि इस भेद के कारण मनुष्य अपने नैसर्गिक गुणों से काफी दूर चला गया है। वे हर व्यक्ति में ईश्वर की एक ही ज्योति को प्रकाशित होते देखते हैं। इसीलिए ईश्वर के आधार पर उन्होंने मनुष्य की एकता पर बल दिया क्योंकि यह ईश्वर मानवीय समानता में सबसे बड़ा अवरोधक है। उन्होंने इस सन्दर्भ में लिखा हैं –
जात पाँत के फेर मँहि, उरझि रहइ सभ लोग।
मानुषता को खात हइ, रविदास जात कर रोग।।
रविदास जन्म के कारनै होत न कोऊ नीच।
नर कूँ नीच करि डारि है, ओछे करम कौ कीच।।
स्पष्ट है कि तुलसीदास के ‘‘पूजहि विप्र सकल गुनहीना’’ का पक्षधर न होकर, रविदास ‘‘पूजहिं पाँव चण्डाल के, जो होवहिं गुन प्रवीन’’ के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। मध्यकाल में ‘जाति’ के ऊपर ‘कर्म’ की यह एक बड़ी विजय है। आगे तुलसी दास नहीं चल सके, रविदास ही चले, क्योंकि इसमें मनुष्य द्वारा अर्जित श्रम का सौन्दर्य है।
‘स्वाधीनता’ को लेकर मध्यकाल में उनकी चिताएँ स्पष्ट हैं। उनके अनुसार, ‘पराधीन’ व्यक्ति मनुष्य होने के गौरव से वंचित हो जाता है। इसीलिए उन्होंने ‘पराधीनता’ को पाप कहा है। फिर चाहे वह विदेशी शासन की औपनिवेशिक पराधीनता हो, विषय वासनाओं की आत्मपोषित पराधीनता हो या फिर सामन्ती संस्कृति की थोपी हुई पराधीनता। रविदास इन सभी से संघर्ष का उपाय सुझाते हैं। उनके अनुसार –
पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रविदास दास पराधीन को, कौन करै है पीत।।
पराधीन को दीन क्या, पराधीन बेदीन।
रविदास दास पराधीन को, सबही समझै हीन।।
इस पराधीनता से मुक्ति का मार्ग श्रम व कर्म की प्रतिष्ठा है। इसलिए रविदास के यहां श्रम जनित आर्थिक स्वाधीनता पर बहुत बल है। श्रम को उन्होंने एक तरफ ‘स्वकर्म’ से जोड़ा, तो दूसरी तरफ ईश्वर से –
रविदास हौं निज हत्थहिं, राखों रांबी आर।
सुकिरित ही मम धरम है, तारैगा भव पार।।
जिहवा सो ओंकार जप, हत्थन सों कर कार।
राम मिलहिं घर आई कर, कह रविदास विचार।।
सम कउ ईसर जानि कैं, जउ पूजति दिन रैन।
रविदास तिन्हहि संसार महँ, सदा मिलति सुख चैन।।
स्पष्ट है कि मध्यकाल में ‘श्रम’ को लेकर रविदास के विचार क्रान्तिकारी रहे हैं।
- निष्कर्ष
कुल मिलाकर रविदास भक्ति आन्दोलन के एक ऐसे सन्त पुरुष है जो जीवन भर श्रम की महत्ता व मुक्ति की आकांक्षा को व्यक्त करते रहे। लेकिन यह भी सच है कि उनकी सर्वाधिक ऊर्जा अपने समय के पाखण्ड से लड़ने में व्यतीत हुई, क्योंकि ‘विप्रसंस्कृति’ की आन्तरिक जटिलताओं से ये सबसे अधिक परेशान रहे। रविदास जी इस बात को समझते रहे कि पाखण्ड का निषेध किए बगैर समता और समानता के आदर्श को हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए उन्होंने ईश्वर की अवधारणा को खारिज नहीं किया, बल्कि उसे बदलने की कोशिश की। इसलिए वे पश्चिमी दर्शन के उस अर्थ में आधुनिक नहीं है, जहाँ ईश्वर की मृत्यु की घोषणा से आधुनिकता का जन्म होता है। बल्कि ठेठ भारतीय देशज अर्थ में आधुनिक हैं, जहाँ ईश्वर की सत्ता के बावजूद आधुनिक हुआ जा सकता है। इसके लिए उन्होंने सीधे ईश्वर को ‘श्रम’ से जोड़ दिया और प्रक्रिया में ‘श्रम’ को ही ईश्वर बना दिया। ‘श्रम’ को ईश्वर बनाने का उनका यह योगदान मध्यकालीन धर्म साधनाओं में सबसे क्रान्तिकारी है।
you can view video on रविदास 2 |
अतिरिक्त जानें-
पुस्तकें
- रैदास बानी, शुकदेव सिंह(संपा.), राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- संत रैदास, योगेन्द्र सिंह, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- पंचनाद, शमीम शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-1, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
- सन्त कवि रविदास-भगवती प्रसाद निदारिया, इन्द्रप्रस्थ इन्टरनेशनल, नयी दिल्ली
- गुरू रविदास, आचार्य पृथ्वीसिंह आजाद,एन.बी.टी, नयी दिल्ली
- सन्त रैदास-एक विष्लेषण, कंवल भारती,बोधिसत्व प्रकाशन,रामपुर
- सन्त रविदास, इन्द्रराज सिंह, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार,नयी दिल्ली
- रैदास की परिचयी, अनंत दास, शुकदेव सिंह (सम्पादक), राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- उतरी भारत की सन्त परम्परा, परशुराम चतुर्वेदी,भारती भण्डार, प्रयाग
वेब लिंक्स
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B0%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A4_%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
- http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/2013/sant_ravidas.htm
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B0%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- http://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/literature/569/raidas-dohe.html