17 रविदास 1
श्रीप्रकाश शुक्ल
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- रविदास के कृतित्व एवं व्यक्तित्व के बारे में जानेंगे।
- रविदास के बारे में प्रचलित किंवदन्तियों की जानकारी हासिल करेंगे।
- भक्ति आन्दोलन में रविदास का महत्त्व समझेंगे।
- रविदास की रचनाओं में अन्तर्निहित सामाजिक मूल्यों का आधुनिक सन्दर्भ में मूल्यांकन कर सकेंगे।
- प्रस्तावना
मध्यकालीन धर्म साधना में रविदास का विशिष्ट स्थान है। उनके समतामूलक समाज के स्वप्न में दलित और गैरदलित बराबर हैं। पारम्परिक प्रतिमान के रूप में उन्होंने ‘जाति’ और ‘वर्ण’ दोनों का तिरस्कार किया। सवर्ण जहाँ भारतीय समाज को अतीत के सुनहरे खण्डहरों में ले जाकर सोने की चिडि़या का दम्भ भरता है और उसी के नीचे हाँफते, काँपते मिट्टी के स्वरों को अचीन्हा करने का उपक्रम रचता है, वहीं मानव जीवन की मूलभूत कसौटी ‘समता’ को ‘वर्णव्यवस्था’ कभी प्रत्यक्ष नहीं होने देती, वह शोषण के तमाम कुचक्र रचती है। सर्वप्रथम ये दोनों संस्कृति को भ्रष्ट करते हैं, फिर राजनीति को आधार बनाकर समाज को प्रगति विरोधी बनाते हैं। इन प्रवृत्तियों को रविदास ने छह सौ वर्ष पूर्व समझ लिया था, जिस कारण आज भी उनकी बातें प्रासंगिक लगती हैं। आज जब एक तरफ का अतीतगान है और दूसरी तरफ का आर्तनाद; ऐसे में सामाजिक समरसता की बात करने वाला ही प्रासंगिक हो सकता है; रविदास ऐसे ही सन्त साधक थे।
- जीवन परिचय
अन्य सन्त कवियों की तरह रविदास के जीवन के बारे में भी प्रमाणिक जानकारी का अभाव है। उनके जीवन की अधिकांश जानकारी जनश्रुतियों पर आधारित है। जिन थोड़े पदों में उनके बारे में जानकारी मिलती है, उनसे पता चलता है कि वे जाति के चमार थे और उनका जीवन काफी संघर्षपूर्ण था। ‘ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार’, या फिर ‘नागर जना मेरी जाति विख्यात चमार’, जैसे पदों से उनकी जाति का पता चलता है।
अब जहाँ तक उनके जन्म स्थान की बात है, सभी लोग मानते हैं कि उनका जन्म काशी में हुआ। जन्म स्थान के बारे में दो मत हैं। कुछ लोग माँहुर (मँडुआडीह) मानते हैं, तो कुछ सीरगोवर्धनपुर। ‘माँडुर’ को मानने वालों में शुकदेव सिंह प्रमुख हैं। जिन्होंने काशी में यक्षों, वीरों की परम्परा के आधार पर मँडुआडीह के पहारूवीर की तरह रविदास का जन्म-स्थान उसी क्षेत्र में बताया, जो शहर के पश्चिम में है। जहाँ ढोर दोवन्ता चर्मकार काफी संख्या में रहते थे। शुकदेव सिंह ने रैदास रामायण पुस्तकीय स्रोत को वीर विनायक वाली लौकिक परम्परा से भी जोड़कर मँडुआडीह को ही जन्म स्थान माना है। इस सन्दर्भ में वे लिखते हैं – ‘‘इस तरह पुस्तकीय ज्ञान और जनाधार दोनों के आधार पर यह तथ्य सामने आता है कि सन्त रैदास मँडुआडीह में ही पैदा हुए होंगे और उन्होंने राजा के निवास स्थान राजघाट के पास उस स्थान पर धर्म परीक्षा दी, जहाँ सिकन्दर लोदी जैसे तुर्क और काशी के पुरोहितों ने कबीर और रैदास दोनों को आहूत किया।” (गैर अभिजात परम्परा और रैदास, शुकदेव सिंह)
दूसरी तरफ पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट, वाराणसी (जिसका ऑफिस डेरा श्री 108 सरवण दास जी सच्च खण्ड, बल्ला, जालन्धर है) रविदास का जन्म स्थान काशी के दक्षिणी परिसर में स्थित सीरगोवर्धनपुर को मानता है और इस दृष्टि ने डेरा सच्च खण्ड, बल्ला के श्री सुरिन्दर दास बाबा के सम्पादन में जगत गुरु रविदास अमृतवाणी नाम से टीका व संक्षिप्त जीवन भी प्रकाशित किया है, जिसमें सीरगोवर्धन (काशी) में 14 जून 1965 (आषाढ़ की सक्रान्ति) को श्री गुरु रविदास जन्म स्थान मन्दिर के नींव के पत्थर रखने की बात बताई गई है। इस जगह को जन्मस्थान मानने में महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि यह शहर के ठीक दक्षिण में स्थित है, जहाँ सामान्यतः दलितों की बस्तियाँ हुआ करती थीं। दूसरी बात यह है कि यह जगह लौटूवीर के बिल्कुल पास पड़ती है जो काशी के वीरों की परम्परा में एक महत्वपूर्ण वीर हैं। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस जगह में आया ‘पुर’ प्रत्यय ‘बेगमपुरा’ का ‘पुर’ ही है जिसके बारे में रविदास का एक पद ही है – ‘बेगमपुरा शहर का नाँव, दुख अन्देस नहीं तिहि ठाऊँ।’ मुझे लगता है कि ‘सीरगोवर्धनपुर’ को ही रविदास ने ‘बेगमपुरा’ की ध्वनि पर याद किया है और इसी ध्वनि साम्य को आधार बनाकर उन्होंने अपने जन्मस्थान का संकेत दिया है, जहाँ ‘काइम दाइम सदा पातसाही, दाम न साम एक सा आहीं।’ निश्चित रूप से ‘बेगमपुरा’ एक मूल्यबोध है, जहाँ समता, समानता व भातृत्व बोध है, फिर भी व्यक्ति के अपने जन्मस्थान की गूँज को इस रूप में तो देखा ही जा सकता है। इसलिए ‘सीरगोवर्धनपुर’ ही रविदास का जन्म स्थान ठहरता है।
रविदास के जन्मस्थान की तरह जन्म वर्ष भी विवादित है। श्री रविदास जन्म स्थान पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट रविदास का जन्मवर्ष सन् 1377 (माघी पूर्णिमा) मानता है और निर्वाण वर्ष के रूप में 1528 (काशी) स्वीकार करता है। इस रूप में उनकी कुल उम्र 151 वर्ष की हुई। ये लोग उनके पिता का नाम सन्तोष दास व माँ का नाम कलसी देवी मानते हैं। पत्नी का नाम लोना देवी तथा पुत्र का नाम विजय दास था। चूँकि रविदास रविवार को प्रकाश पुंज के रूप में पैदा हुए थे, इसलिए वे रविदास ही थे, रैदास नहीं। इससे यह भी सिद्व होता है कि वे आयु में कबीरदास से बड़े थे और उनका निधन भी कबीर के बाद ही हुआ। इस सन्दर्भ में दो पुस्तकें उल्लेखनीय हैं – रविदास की सत्यकथा (राम चरण कुरील) और जीवन चरित्र (चन्द्रिका प्रसार जिज्ञासु)। राम चरण कुरील रविदास का जन्म माघी पूर्णिमा को मानते हैं और इसी तिथि को प्रत्येक वर्ष रविदास का जन्म दिन भी मनाया जाता है। इन पुस्तकों के साक्ष्य पर कँवल भारती (सन्त रैदास : एक विश्लेषण) रविदास का जन्म वर्ष 1398 और मृत्यु 1518 मानते हुए 120 वर्ष जीने की बात करते है। इस क्रम में वे कबीर से 1 वर्ष ही बड़े ठहरते हैं और दोनों की मृत्यु 1518 में हुई।
उपर्युक्त जन्म स्थान व जन्म तिथि के साथ उनके मृत्यु स्थान को लेकर विवाद है। कुछ लोग उनका निर्वाण काशी में मानते हैं, तो कुछ लोग चितौड़ में। नाभा दास ने भक्तमाल में चितौड़ को मृत्यु स्थल माना है। कँवल भारती ने भी रामचरण कुरील की सत्यकथा के आधार पर रैदास का निधन चितौड़ में बताया है। वहाँ उन्होंने श्री कुम्भ श्याम के मन्दिर में एक आरती का पाठ गाया था जिसे सुनकर बाहर निकलते ही ब्राह्मणों ने उनकी हत्या कर दी। इस हत्या-प्रसंग पर सतनाम सिंह ने एक पूरी पुस्तक ही लिखी है – गुरु रविदास की हत्या के प्रामाणिक (सम्यक् प्रकाशन, नई दिल्ली-वर्ष 2005)। इसमें सतनाम सिंह ने रविदास की हत्या चितौड़ के कुम्भ श्याम मन्दिर में मीरा की उपस्थिति में दिखाई है। जिसको सहन न करने के कारण मीरा ने चितौड़ छोड़ दिया और अपने पीहर में मेड़ता चली गई। इस हत्या की पुष्टि के लिए उन्होंने पुस्तक में आचार्य गुरु प्रसाद, शान्ति स्वरूप बौह, रामचरण कुरील के मतों को भी उद्धृत किया है और जिस तरह से काशी में रविदास उपस्थित हुए, उससे निष्कर्ष निकलता है कि रविदास मीरा के कहने पर चितौड़ गए होंगे, जहाँ मीरा का बदला रविदास जी से लिया गया। यदि सन् 1528 की तिथि मान ली जाए तो यह बात ठीक लगती है, जब मीरा ने चितौड़ का परित्याग किया।
- भक्ति आन्दोलन और रविदास
रविदास भक्ति आन्दोलन के प्रणेताओं में माने जाते हैं। भक्ति जागरण को लोक जागरण बनाने का कार्य भी उन्हीं जैसे सन्तों ने ही किया है, जहाँ से प्रतिरोध की ‘देशज आधुनिकता’ के स्वर सुनाई देते हैं। उन्होंने तात्कालिक समाज में उपेक्षितों व वंचितों के मुक्ति की बात बार-बार की है। प्रतिरोध व संघर्ष की चेतना उनकी रचनाओं में मौजूद है। जहाँ कहीं भी भक्ति का सन्दर्भ आता है, वहां भी भक्ति के माध्यम से मुक्ति की ही बात की गई है। वास्तव में रविदास का सन्त मत जिस विद्रोही चेतना को लेकर आगे बढ़ा, वह नाथों, सिद्धों, योगियों, शैवों, जैसे जन उभार की चेतना का अगला सोपान था। इन सभी ने अपनी बात को बेबाकी से कहने का साहस किया और इस साहस में पुरोहित व सामन्त दोनों की निरंकुशता इनके निशाने पर थी।
इस रूप में रविदास का चिन्तन बुनियादी तौर पर प्रतिरोध का चिन्तन है । उनकी भक्ति भी समतामूलक समाज के निर्माण के लिए है, जहाँ कोई बड़ा और कोई छोटा नहीं। भक्ति उनके यहाँ अच्छे-बुरे चेहरों की वैधता स्थापित करने का उपक्रम नहीं है, बल्कि हर प्रकार की दूरियों को मिटाने का माध्यम है। रैदास एवं अन्य दलित सन्तों का ईश्वर पूरी तरह निर्गुण है। रामानन्द से राम भी शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी, रविदास जैसे दलित सन्तों ने ‘राम’ को सामाजिक परिवर्तन का हथियार बनाया।
‘प्रतिरोध’ के इसी पक्ष पर अन्य कई विद्वानों ने भी अपनी बात कहीं है। इस सन्दर्भ में जे.एस. हाली ने अपनी पुस्तक ‘Songs of saints of India’ में भक्ति व सामाजिक प्रतिरोध की बात उठाई है। वे सवाल करते हैं कि क्या भक्ति का सन्देश सामाजिक प्रतिरोध का सन्देश है? जिस समानता की बात रविदास करते हैं, वह मूलतः सामाजिक समानता ही है। रविदास की भक्ति सामाजिक मुक्ति से ज्यादा जुड़ती है, बजाय आध्यात्मिक मुक्ति के। इसके लिए उन्होंने यह तथ्य भी रेखांकित किया है कि उनका बार-बार अपनी जाति के बारे में बयान देना यह दर्शाता है कि वे इसको लेकर बहुत विचलित थे। हाँ इस बात का भी वे जिक्र करते हैं, कि रविदास सामाजिक मुक्ति की अपेक्षा तो करते हैं किन्तु इसके लिए वे कोई ठोस सामाजिक पहल नहीं कर पाते।
- रविदास की विचारधारा
रविदास की विचारधारा का मूल स्रोत ‘श्रमण परम्परा’ से है और यह वही ‘श्रम’ की परम्परा है जिसका आरम्भ बुद्ध से होता है। रविदास की मुख्य चिन्ता दलितों के बीच बौद्ध परम्परा के आधार पर समता व समानता का बोध कराते हुए मुक्ति मार्ग प्रशस्त करना था। रविदास बौद्ध मत को आधार बनाकर ब्राह्मण वर्चस्व को चुनौती देते थे। वे अन्य सन्तों की तरह प्रच्छन्न बौद्ध उपदेशकों की परम्परा में ही आते हैं, जो सुदूर गाँवों में जाकर दलितों को उपदेश देते थे और सामाजिक मुक्ति का बौद्धिक विकल्प देते थे। जाहिर-सी बात है रविदास का परिवार भी पीढ़ियों से इसी परम्परा में दीक्षित था। आचार्य रजनीश के शब्दों में, मुख्यतः रविदास बौद्ध थे और जिन्हें मजबूरी में दलित बनना पड़ा। उन्होंने लिखा है – ‘‘रैदास चमार हैं। जैसे किसी गहन अन्तस्थल में बुद्ध अभी भी गूँज रहे हैं। वही आग लेकिन रैदास ने उस आग को आग नहीं बनने दिया। उस आग को रोशनी बना डाला। आग जला भी सकता है और प्रकाश भी दे सकती है। बुद्ध के वचन अंगारों जैसे हैं। बड़ा साहस चाहिए उन्हें पचाने का। अंगारे पचाना है तो साहस तो चाहिए ही। रैदास के वचन फूलों जैसे हैं। पचा जाओगे, तब पता चलेगा कि आग लगा गए हैं। वे आग के फूल हैं।” (आग के फूल, आचार्य रजनीश) दलित सन्त बुद्ध की तरह ही जातीय रक्त पर प्रहार करके वैदिक मान्यताओं को प्रश्नांकित करते थे। इस सन्दर्भ में कँवल भारती ठीक लिखते हैं – ‘‘सन्त काव्य का वास्तविक आधार बौद्ध धर्म है। बौद्ध धर्म के पतन के बाद जो बुद्ध वचन परम्परा से जन जीवन में संचित थे, सन्त काव्य में उन्हीं की अभिव्यंजना हुई है। इसका सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि सन्तों का साहित्य जीवन की स्वीकृति का साहित्य है, उसमें निहित जन का आक्रोश और आवेश, सुखी समाज की आकांक्षा और शोषक श्रेणी के प्रपंचों पर आघात है। और सबसे बढ़कर समता, स्वतन्त्रता और बन्धुत्व की स्पष्ट अभिव्यक्ति है।” (सन्त रैदास : एक विश्लेषण, पृ. 24)
- किंवदन्तियों में रविदास
नाम की महत्ता और ईश आराधना के दरवाजे सभी को सुलभ करने के क्रम में रविदास ने मध्यकाल में अपनी उपस्थिति का एहसास कराया। सामान्य जन के इन्हीं सम्बन्धों को साकार करने के क्रम में वे जनता के बीच समादृत हुए और फिर जैसा कि होता है, जनता ने उन्हें एक चमत्कारी पुरुष के रूप में देखते हुए उनके महत्त्व को लेकर तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ ली। इनकी ऐतिहासिक महत्ता से अधिक उन किंवदन्तियों में वैकल्पिक बौद्धिक निर्मित की चेतना है और आगे चलकर इसी चेतना की निर्मित करने वाले लोग रैदास के अनुयायी हुए। इन किंवदन्तियों के सन्दर्भ में कबीर के माध्यम से डेविड लारेंजस ने अपनी पुस्तक में लिखा कि ‘इन किंवदन्तियों का प्राथमिक उद्देश्य किसी स्थापित वर्चस्व को उचित ठहराने की बजाय सामाजिक भेदभाव और आर्थिक शोषण का विरोध करना है। ये किवदन्तियाँ गरीब व कमजोर तबके की विचारधारा को अभिव्यक्त करती हैं, किसी सम्पन्न और शक्तिशाली वर्ग की विचारधारा को नहीं।” (निर्गुण सन्तों के स्वप्न : अनुवाद धीरेन्द्र कुमार सिंह) इसी में वे आगे लिखते हैं कि ‘कुल मिलाकर ये किंवदन्तियां सिर्फ मनोरंजक कहानियाँ या शिक्षाप्रद धार्मिक कथाएँ नहीं हैं, ये भारतीय समाज में सामाजिक प्रतिष्ठा तथा राजनीतिक और आर्थिक शक्ति के चरित्र व बटवारे के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज हैं।’ डेविड ने इन किंवदन्तियों को स्वयं में ही एक सक्रिय ऐतिहासिक शक्ति माना है। जहाँ ‘बदले की भावना’ प्रबल रूप में दिखाई देती है।
रविदास से जुड़ी किंवदन्तियों का मूल आधार भी अनन्तदास की रैदास परिचयी है और ये वही अनन्तदास हैं जिन्होंने नामदेव, कबीर, पीपा, अंगद एवं त्रिलोचन की परिचय पुस्तिका लिखी है। शुकदेव सिंह के अनुसार ये अनन्तदास सन्त कबीर के समकालीन पीपा (एक समय में गागरोन के राजा) के पौत्र हैं। रैदास की मृत्यु (सन् 1540) के अड़तालीस वर्षों बाद अनन्तदास ने सन् 1588 में रविदास परिचयी लिखी। इस ‘परिचयी’ का एक खास महत्त्व इस बात में है कि अनन्तदास ने परम्परा से हटकर पौराणिक व अवतारी चरित्रों का परिचय देने की बजाय साधारण मनुष्य का परिचय दिया है, जो अपने संघर्ष व साधना के बल पर समाज में ‘लोक मान्यता’ हासिल करता है। वह अपनी उपस्थिति को एक दिशा देता है, न कि कुछ तय आधारों पर अपनी भूमिका का निर्वाह मात्र करता है।
रविदास के जीवन को लेकर उनकी लोकसिद्धि, चमत्कार, तर्क व ईश्वर कृपा को आधार बनाकर, जो जनश्रुतियां प्रचलित हैं, उनमें प्रमुख रूप से जन्म के समय रविदास का दूध न पीना और रामानन्द जी के आने पर ही दूध ग्रहण करना; साधु द्वारा पारस पत्थर के दिए जाने के बाद भी उसे स्वीकार न करना; सालिगराम को गंगा पर तैरते हुए वापस आना; चित्तौड़ की रानी झाली का रविदास से मिलने बनारस आना और उनका शिष्य हो जाना; झाली के बुलाने पर चित्तौड़ जाना और ब्राह्मणों के भोजन में अपनी सर्वत्र उपस्थिति से ब्राह्मणों को पराजित करना; फिर इन्हीं ब्राह्मणों को अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाते हुए खुद को ब्राह्मण बताना ऐसी अनेक कथाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। ये सभी कथाएं रविदास परिचयी में मौजूद है। इनके अलावा मेवाड़ की मीरा का रविदास का शिष्य होना भी है।
इन किंवदन्तियों में गंगा से जुड़े किस्से काफी रोचक हैं। मुझे लगता है कि ऐसे किस्सों का कारण हिन्दू धर्म में गाय व गंगा पर ब्राह्मणों की अधिकार चेतना से उदभूत है। रविदास जी को गंगा से जोड़कर दिखाने की कोशिश की गई है कि ‘गंगा’ सभी की है। यह गंगा जातियों से अपवित्र नहीं होती, बल्कि यह ‘कचरे की मानसिकता’ से अपवित्र होती है। आज भी मेले के अवसर पर रविदास मन्दिर आया हुआ हर भक्त, सबसे पहले गंगा का दर्शन करता है। जल भरने के लिए नहीं, रविदास की ओर से कृतज्ञता ज्ञापन करने के लिए। गंगा की पवित्रता के संकल्प के लिए।
इसी प्रकार ‘कंचन का प्रसंग’ कई बार आया है। रविदास परचयी में तो कंचन का काफी महत्त्व बताया गया है और तब भी रविदास इससे अप्रभावित रहते हैं। यहाँ ‘प्रदत्त’ से ज्यादा ‘अर्जित’ पर भरोसा है और अपनी कई ‘साखियों’ में रविदास ने श्रम के महत्त्व को बतलाया है। ‘‘श्रम को ईसर जानि कै जउ पूजहिं दिन रैन/ ‘रविदास’ तिन्हहिं संसार महं सदा मिलहि सुखचैन।’’ नामक प्रसिद्ध साखी उन्हीं की है। यहां स्पष्ट है कि रविदास द्वारा पारस मणि का न लेना अपने ‘मोचीकर्म’ के प्रति विश्वास व्यक्त करना है।
रविदास जीवन भर इस विप्रसंस्कृति से संघर्ष करते रहे और जनता उनके इस तेजोमय व्यक्तित्व को रेखांकित करती हुई अपने भीतर पल रहे समता की आकांक्षाओं को ही स्वर देती है। इस सन्दर्भ में शुकदेव सिंह ने उचित ही लिखा है कि ‘एक तरह से जनता अपनी पीड़ा को ही सम्मान और देवत्व में अतिक्रमित और उदात्तीकृत करती है।’ (रैदास बानी, पृ. 251) तब यह कहा जा सकता है कि रविदास में ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा एक तरह से वैकल्पिक मुक्ति की आकांक्षा का परिणाम है।
- रविदास की रचनाओं में अन्तर्निहित सामाजिकता और उसके आधुनिक सन्दर्भ
उच्च वर्ग के पास व्यक्तिगत पीड़ाओं से मुक्ति की भक्ति है, रविदास जैसे दलित सन्त के पास सामाजिक पीड़ाओं से मुक्ति की प्रार्थनाएं है, क्योंकि यदि यही जन्म उनका अकारथ गया है, तो अगले जन्म की बात सोचना ही व्यर्थ है। इसलिए भक्ति भाव के भीतर से विकसित ‘भगवान’ (निर्गुण राम) को सुनाते हैं, जैसे दलित जन तत्कालीन सामन्त के सामने अपनी पीड़ाएँ रखते हैं; दलित जन के लिए भगवान भी एक सामन्त ही हैं, जिसे दलितों एवं वंचितों पर शासन करने के लिए पुरोहितों ने गढ़ा था। इसलिए रविदास जैसे सन्त भगवान को ‘आलम्बन’ मानकर उच्च वर्ग को अपनी बात सुनाते हैं। इस रूप में यह ‘प्रभुता’ का स्मरण होकर प्रभुता का एक शालीन प्रत्याख्यान ही है। इस रूप में रविदास प्रभुता की मदता का बोध कराने वाले सन्त कवि हैं। यही उनकी सृजनात्मकता है। जहाँ सामाजिकता के अंकुर पलते हैं। वे अपने एक पद में लिखते हैं – ‘‘सरीरू आराधै मोकउ विचारू देहि/ रविदास समदल समझावै कोऊ’’/ तब यहाँ ‘समदल’ का अर्थ काफी व्यंजक है। यहाँ समान दृष्टि वाले सन्तों की अपेक्षा है। माने आज इसी का संकट है, तो इसी की उपलब्धता के लिए वे ‘प्रभु’ से प्रार्थना करते हैं। रविदास के पदों में जहाँ तहाँ ‘‘ओछी जाति, ओछा करम, ओछा जनम’’ का जिक्र आता है। रविदास ने इन्हें हमेशा ही एक नए अर्थ से दीप्त किया है। ‘ओछापना उनके लिए गाली हैं। इसे वे मनुष्य मात्र से जोड़ देते हैं। वे कहते हैं कि मानव जीवन ही ओछा है। इसमें जातिगत विभेद की बात करना व्यर्थ है। इस रूप में वे ओछेपन की ‘वैयक्तिकता’ को व्यापक सामाजिक मानव भूमि पर प्रतिष्ठित कर देते हैं और उन सामन्त ब्राह्मणों को प्रश्नांकित करते हैं जिन्होंने ओछेपन के विशेषण से एक व्यापक जन समुदाय को ‘अलंकृत’ कर रखा है। यहाँ उनके नैराश्य की भावना से ज्यादा प्रबोधन का स्वर सुना देना है। ऐसे पद रविदास के आरम्भिक पद नहीं हैं, बल्कि मध्यवर्ती पद हैं। रविदास की रचनाओं में अन्तर्निहित यही सामाजिकता आधुनिक काल में दलित चेतना के उभार का कारण बनती है। इसीलिए आज की दलित चेतना साम्प्रदायिक विसंगतियों से ज्यादा सामन्ती विसंगतियों पर चोट करती है, तब वह सीधे रविदास से जुड़ती है।
रविदास के कई पदों में ‘नाम स्मरण’ की बात उठाई गई है। यह ‘नाम स्मरण’ असल में मूर्ति पूजा व अवतारवाद की प्रतिक्रिया का ही परिणाम है। नाम एक ऐसी संज्ञा है जो अतिव्याप्त है, जिसको कोई भी सुमिरण कर सकता है। जब यह नाम ‘संस्थाबद्ध’ हो जाता है, तब यह विभाजनकारी हो जाता है। रविदास जी ने नाम के कालजयी महत्त्व को स्थापित किया है। ‘नाम’ के प्रति जिसकी अनुरक्ति होगी वह सामान्य ‘भक्ति’ को अतिक्रान्त कर सकेगा। उसे किसी भी प्रकार की ‘संस्थाबद्ध मान्यता की जरूरत नहीं होगी। नाम की महत्ता व्यक्ति के अन्तर्जगत से आती है। इसीलिए रविदास ‘नाम’ के चरितार्थता की बात करते हैं। इस रूप में उनका यह पद बहुत महत्त्वपूर्ण है – ‘‘नाम तेरो आरती भजनु मुरारे/हरि के नाम बिनु झूठे सगल पसारे।” यही अनुगूँज उनके इस पद में भी मिलती है- ‘‘हौं बनिजारों राम को, हरि को टांडों लादै जाइ रें/ राम नाम धन पायो तातें सहज करौं व्यौपार रे।’’ इसमें बाजार की भाषा में वे जवाब देते है और ऐसा लगता है कि धर्म के व्यापारियों को वे इस पद के माध्यम से प्रश्नांकित करते हैं।
- निष्कर्ष
रविदास के पदों में तात्कालीन व्यवस्था पर व्यंग्य है। इस भाषा से पता चलता है कि रविदास भी कभी-कभी कबीर की शैली अपनाते हुए काफी आक्रामक हो जाते हैं। जैसे यह पद देखें – ‘‘पाण्डे हरि विचि अन्तर डाढ़ा/मूँड मुडावै सेवा पूजा, भ्रम का बन्धन गाढ़ा/माला तिलक मनोहर बानों लागौ जम की फाँसी’’। ‘प्रेमभाव’ ही वह भाव है जो व्यक्ति को सामाजिक आधार देता है और उसके मानस का विस्तार करता है। रविदास ने मूर्ति पूजा का विरोध किया है – ‘‘पाण्डे कैसी पूजि रची रे/सति बोलें सोय सतवादी, झूठी बादबदी रे/जो अबिनासी सबकी करता व्यापि रहे सब ढोर रे/…। अही भरोसे सब जग बूड़ा सुण पण्डित भी बात रे/या कैं दरसि कूण गुण छूटा, सब जग आया जात रे।’’
रविदास मध्यकाल के एक क्रान्तिकारी कवि हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन की दिशा में पहल की। अपने ‘पदों’ में उन्होंने ‘ज्ञान’ पर बहुत जोर दिया है, क्योंकि ‘ज्ञान’ के बिना ‘मुक्ति’ सम्भव नहीं है। उनके यहाँ ‘ज्ञान’ भक्ति से जुड़कर लौकिक होता है और मुक्तिगामी भी।
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अतिरिक्त जानें-
पुस्तकें
- गुरू रविदास, आचार्य पृथ्वीसिंह आजाद, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नयी दिल्ली
- हिन्दी साहित्य का सबाल्टर्न इतिहास (सिध्द साहित्य से संत साहित्य तक), राजेन्द्र प्रसाद सिंह, गौतम बुक सेन्टर, दिल्ली
- महाकवि रविदास समाज चेतना के अग्रदूत, डॉ. विजय कुमार त्रिशरण, गौतम बुक सेण्टर,दिल्ली
- संत रैदास, योगेन्द्र सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का उद्भव ओर विकास, हजारीप्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- रैदास की परिचयी, अनंत दास, शुकदेव सिंह (सम्पादक), राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- गुरू नानक देव- जीवन और दर्षन, जयराम मिश्र,लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद,1997
- उतरी भारत की सन्त परम्परा, परशुराम चतुर्वेदी,भारती भण्डार, प्रयाग,1951
- रविदास की सत्यकथा, रामचरन कुरील,कानपुर,1997
- सन्त प्रवर रविदास साहब- चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु,बहुजन कल्यान प्रकाशन,लखनऊ,1959
- मध्यकालीन निर्गुन चेतना, धर्मपाल मैनी, लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद,1972
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A4_%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B0%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/2013/sant_ravidas.htm
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B0%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- http://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/literature/569/raidas-dohe.html