29 मेरा बचपन मेरे कन्धों पर
गंगा सहाय मीणा and कविता उपाध्याय
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- भारत में दलित समाज की वीभत्स सचाई से रूबरू होंगे
- दलित बालक की यातना, उसकी संघर्ष गाथा के विभिन्न पहलुओं को जानेंगे और उस परिवेश का विश्लेषण कर सकेंगे, जिसमें एक दलित बालक पिता की मृत्यु के बाद खुद अपने जीवन का बोझ अपने कन्धों पर उठाता है।
- दलित समाज की संरचना जान सकेंगे।
- दलित समाज की प्रगति में बाधक तत्त्वों का विश्लेषण कर सकेंगे।
- दलित साहित्य के सन्दर्भ में इस कृति का महत्त्वपूर्ण योगदान समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’ आत्मकथा सन् 2009 में प्रकाशित हुई। हिन्दी साहित्य में उपलब्ध अन्य दलित आत्मकथा की तुलना में इसमें ‘दलित बचपन’ के साथ ही दलित समाज अपनी पूरी संवेदनागत विभिन्नता के साथ मौजूद है। उसका यह स्वरूप दलित साहित्य में नवीनता लिए हुए है, जो समाजशास्त्रीय अध्ययन के अधिक अनुकूल है। यह पुस्तक बारह अध्यायों में विभक्त है। आत्मकथा के अध्याय हैं – ‘बेवक्त गुजर गया माली’, ‘रामलाल : तेज धूप में जर्जर साया’, ‘घर?’, ‘बगुला भक्ति’, ‘कौम के ठेकेदार’, ‘बहन माया का ब्याह’, ‘जीवित बचा स्वराज’, ‘दो रोटी भर के चून की चोरी पेशी प्रधान के’, ‘विरासत’, ‘दिल्ली : बड़ी दुनिया में छोटे कदम’, ‘यहाँ एक मोची रहता था’, ‘भाई साहब : एक प्रेरक पाठ’। पुस्तक रूप में प्रकाशित होने से पहले इस कथा के कई अंश ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित होते रहे । कई भाषाओं में इसके अनुवाद भी होते रहे, जिस पर तमाम विद्वानों ने बेहद गूढ़ और गम्भीर समीक्षाएँ लिखीं। बाल-श्रम, गरीबी, अशिक्षा, अन्धविश्वास, स्त्री-शोषण, दलितों के बीच ब्राह्मणवादी तत्त्व एवं दलितों के दलित शोषक… सबकी स्मृति यात्रा इस कथा का स्वरूप निर्धारित करती हैं। श्यौराज सिंह बेचैन ने अपनी आत्मकथा के माध्यम से दलित समाज की संरचना का जीवन्त चित्रण निहायत ही ईमानदारी से प्रस्तुत किया है। इस आत्मकथा में उनके पांच साल की उम्र से लेकर हाई स्कूल पास करने तक के यथार्थ अनुभव हैं।
शिल्प की दृष्टि से इस आत्मकथा में घटनाओं का दोहराव बहुत अधिक है। अंशों के रूप में प्रकाशित होने के कारण कालक्रमिकता का अभाव है। अध्याय खण्ड-खण्ड हैं। लेखक से समयानुसार कथा की माँग करना बेमानी है। अपनी स्मृति पटल पर अंकित घटनाओं को लेखक बताते गए है; जो अध्यायवार निर्मित हैं और एक पुस्तक का आकार ले लेते हैं।
- दलित समाज की आन्तरिक संरचना
भारतीय समाज में व्यवस्था की दो परस्पर विरोधी दुनिया विद्यमान रही है। एक शोषक है, जो उच्च जाति का है; दूसरी शोषित जो दलित जाति का हैं। मेरा बचपन मेरे कन्धों पर आत्मकथा में हमें दलित समाज का अन्तर्विरोधी स्वरूप एक दलित के माध्यम से चित्रित किये हुए दिखाई देता है। लेखक ने अपनी इस कृति के माध्यम से समूचे भारतीय समाज से संवाद स्थापित करने का प्रयास किया है। “सिर्फ तिलमिलाने से काम नहीं चलता टकराव की स्थिति छोड़कर हमें सामंजस्य का परिवेश निर्मित करना चाहिए।” (दलित साहित्य की अवधारणा, कँवल भारती, बोधिसत्व प्रकाशन, रामपुर, पृ. 67) बल्कि कहना चाहिए कि दलित आन्दोलन जो ब्राह्मणवाद के विरोध से आगे चलकर मनुवाद के विरोध तक पहुँचा, उसकी सशक्त अनुगूँज हमें इस आत्मकथा में मिलती है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री धीरू भाई सेठ ने इस विकास को रेखांकित करते हुए स्पष्ट किया है – “मनुवाद सामाजिक अन्याय के विभिन्न रूपों और बहिर्वेशन पर मुहर लगाने वाली समकालीन जाति-प्रथा को कहीं अच्छी तरह निरूपित कर सकता है। ब्राह्मणवाद मुख्यतः जातियों के कर्मकाण्डीय सम्बन्धों को व्यक्त करता है। मनुवाद के जरिए न केवल ब्राह्मणों द्वारा की जाने वाली नाइनसाफी पर रोशनी पड़ती है, बल्कि राजपूतों, बनियों, रंग-रुतबे वाली किसान जातियों, और कुछ ख़ास तरह की तथाकथित ‘निचली जातियों’ द्वारा थोपे जाने वाले उत्पीड़न की संरचनाएँ भी स्पष्ट होती हैं।” (सत्ता और समाज, धीरू भाई सेठ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 175)
3.1. जाति भीतर जाति
मेरा बचपन मेरे कन्धों पर आत्मकथा दलित समाज को कई आयामों से देखने की दृष्टि प्रदान करती है। लेखक ने अपने गाँव के साथ-साथ अपने आस-पास के गाँव का पेशेवर स्तरीकरण कर दलित समाज संरचना प्रस्तुत की है, जिसमें दलित ही आपस में ब्राह्मणों जैसा व्यवहार करते हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास अपनी पुस्तक ‘आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन’ में लिखते हैं – “हिन्दू धार्मिक आचरण का कोई अध्येता पवित्रता और अपवित्रता की अवधारणाओं की उपेक्षा नहीं कर सकता। अपवित्रता-पवित्रता के लिए शब्द प्रत्येक भारतीय भाषा में मौजूद हैं, और इनमें से प्रत्येक शब्द में अर्थ की ऐसी व्यापकता है कि सन्दर्भ के अनुसार उसके अलग-अलग अर्थ निकल आते हैं… विभिन्न जातियों के बीच संरचनागत दूरी पवित्रता और अपवित्रता के बीच निर्धारित होती है। उच्चतर जाति अपने से निचली जाति से सदा पवित्र होती है।” (आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन, एम. एन. श्रीनिवास, राजकमल प्रकाशन , नई दिल्ली, पृ. 108) श्यौराज सिंह बेचैन ने अपनी आत्मकथा में इसी सन्दर्भ को उकेरा है। आत्मकथा के विरासत अंश में लेखक ने लिखा है – “सवर्ण भी कौन है, मेरे गाँव में? मेरा गाँव यादव बहुल गाँव है। यहाँ अहीर सछूत शूद्र कहलाते हैं । वैसे तो चमार स्वयं को वाल्मीकि भाईयों से थोड़ा ऊपर समझते हैं, लेकिन चमार में भी ऊपर गैर चर्मकार जाटव और जाटवों से ऊपर गैर दलितों में अहीर, बनिये, तेली आदि जातियों के लोग गाँव में रहते हैं।” (मेरा बचपन मेरे कंधों पर, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 185) इस अध्याय के आलावा भी आत्मकथाकार ने अपने समाज की इस आन्तरिक संरचना को अपनी पूरी संवेदना के साथ भिन्न-भिन्न प्रसंगों में प्रस्तुत किया है, “हमारे घर का एक भी बर्तन छुआ नहीं गया, क्योंकि हमारा घर तो जाटवों से छिका हुआ चमार घर था। यह हम अछूतों के बीच की छुआछूत थी, जिसके शिकार मेरे परिवार के सभी लोग थे।” (वही, पृ. 118) “हमारे बैठने की जगह जूठन उठाने वाले हमारे पड़ोसी वाल्मीकि परिवार के साथ होती थी। चमार जूठन नहीं लेते।’… ‘जाने हम चमार क्यों खुद को ऊँचा और भंगियों को नीचा समझते थे।” (वही, पृ. 184)
पेशे के आधार पर भी यह समाज बँटा हुआ है – “रंगईया, चर्मकार, या चर्म- शोधक या भट्ट्ठे पर जाने वाले भूमिहीन थे। जो थोड़ी बहुत जमीन के मालिक थे, वे न चमड़े का काम करते थे न भट्ठों पर जाते थे। सिर्फ खेती और मजूरी करते थे।… चमारों का मोहल्ला दो भागों में बंटा था। दोनों मोहल्लों के बीच एक रास्ता था, रास्ते की ओर दोनों के पिछवाड़े थे। आज भी अलग ही हैं। इनके अलग-अलग कुँए थे। बारातें भी अलग-अलग ठहरती थीं। वैसे दैनिक जीवन में सब साथ-साथ उठते-बैठते थे। इनमें परस्पर खान-पान नहीं होता था।” (वही, पृ. 56) यहाँ दोनों के देवी-देवता भी बँटे हुए थे – “दोनों मोहल्लों में दर्जनों लोग दुनिया से जा चुके हैं, पर देवता अभी मरे नहीं हैं।… परले यानी रास्ते के दूसरी ओर वाले मोहल्ले में, मुख्य देवता हैं। ‘जाहरवीर’।… और इधर ‘सैय्यद बाबा’, ‘बंगाली बाबा’, ‘भोपुर के चामुण्डा’, ‘करानवासवाली’ और ‘बेलनवाली’ देवियाँ पूजी जाती हैं।” (वही, पृ. 79) इस जाति भीतर के जातिवाद ने लेखक को जो पीड़ा, अवमानना और दंश दिया, उसे लेखक ने आलोचनात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है।
3.2. आर्थिक विभाजन और संघर्ष
यहाँ एक ही जाति के भीतर रहने वालों में आर्थिक विभाजन की गहरी खाई दिखाई देती है, जो उनके बीच संघर्ष और दमन का कारण भी बनती है। ‘विरासत’ अंश में ऐसी कई घटनाओं का जिक्र है, जहाँ लेखक को अपने ही भाई-बन्धुओं ने प्रताड़ित किया है। पिता की मृत्यु के बाद निरीह बालक को सहानुभूति के बजाए अपने समाज ने ही पीड़ा पहुँचाई। अपने जीवनयापन के लिए जब वह दिन भर के श्रमसाध्य कार्य से दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाया तो उसे अपने अन्धे गंगी बब्बा के साथ रात भर भट्टी झोंकना और कोल्हू हाँकना पड़ता था। उसका यह कार्य उसके स्वयं के समाज में उसकी उपेक्षा का कारण बन गया। वे कहते, “तुमने बिरादरी की नाक कटाई दई, कि तुम्हारो घर मोहल्ला की दैह पै एकु भद्दो दाग है, कि तुम तो भंगिनु तेंऊ गिर गए।” (वही, पृ. 198) इतनी गालियाँ मिलती थीं दिन-रात जी तोड़ मेहनत करके और भिखारियों सदृश्य पेट भरने के बाद लेखक ने एक घटना का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है। उन्हें रात भर कोल्हू हाँकने के बाद मैली, धोवन भी मिल जाए तो वह अमृत समान होती थी, जबकि उसकी बिरादरी इस श्रम की कमाई को भी भीख में मिली वस्तु के रूप में देखती थी। इस कारण गाँव में पंचायत बैठा कर उन पर सख्त क़ानून लगाए गये कि वे कुएँ से पानी नहीं ले सकते, जानवरों का माँस खाना बन्द करें, ऐसा न करने पर उन पर फरमान जारी किया गया कि, “गधा पै बैठाइ के घुमान दिओ जाइगो। ये फरमान हमारी अपनी चमार बस्ती के थे। सवर्णों, यादवों या मुसलमानों के व्यवहार के तो कहने ही क्या थे।’… इस तरह हम दोहरी हिराकत के शिकार हो रहे थे। उन दिनों न जात-बिरादरी में हमारी कोई जगह थी और न जाति के बाहर कोई वजूद… हांलाकि हमारे जात-भीतर के भेद अन्य जातियों के लिए नहीं थे।” (वही, पृ. 200)
लेखक ने उल्लेख किया है कि ज्यादातर यादव, ब्राह्मणों से भी अधिक कर्मकाण्डी एवं अन्धविश्वासी सवर्ण संस्कृति के वाहक थे। वे दलितों से वही व्यवहार करते जो ब्राह्मण, सवर्ण जातियाँ उनके साथ करती थीं।… “हम अछूतों के भीतर का अछूतपन ही हमें बाँटकर कमजोर करता रहा है। फिर भी हम सब अछूत-अन्त्यज एक हैं। वर्ण-व्यवस्था के हाशिए पर शूद्रों के करीब पर सवर्ण समाज की दृष्टि में दलित।” (वही, पृ. 94) “हम सवर्ण लोगों की नजरों में इनसान भी कहाँ थे।” (वही, पृ. 194) यह है लेखक के जीवन की विडम्बना, जिसका मूल उत्स है उनका जीवन उनके ‘कन्धों पर’। यदि लेखक के पिता असमय मृत्यु को वरण न करते अथवा उनके पास थोड़ी बहुत उपजाऊ जमीन होती तो उन्हें अपनी बिरादरी में शर्मिन्दा नहीं होना पड़ता। शायद यही वजह है कि जाति के दंश को झेलते हुए लेखक ने दलित साहित्य के पैरोकारों के सामने चुनौती स्वरूप दलित समुदाय के भीतर के टकराव को प्रस्तुत किया है।
- दलित बचपन – यातना में बचपन
इस कथा को दो स्तरों पर देखा जा सकता है। पहला जहाँ एक ओर दलित होने का दंश है, वहीं दूसरी तरफ़ बचपन की त्रादसपूर्ण जिन्दगी। इस आत्मकथा का मूल स्वर है संघर्षशील बचपन की मार्मिक कथा है, जहाँ जीवन जीने के लिए अपेक्षित संघर्ष से भी बढ़कर, अपने आत्मसम्मान की रक्षा का प्रश्न है। इसी का परिणाम है कि लेखक की पढ़ने-लिखने की उत्कट इच्छा हुई। यह शिक्षा की लालसा ही आज हमें दलित समाज की उस सचाई से रूबरू कराती है, जो अब तक दलित साहित्य से ओझल रही। अपनी इस आत्मकथा के माध्यम से लेखक उस व्यवस्था को कटघरे में लाकर सवाल करते हैं। जो एक बिन बाप के बच्चे का शारीरिक शोषण तब तक होता रहता है जब तक कि वह विद्रोह न कर दे। शारीरिक प्रहार से भी अधिक मानसिक प्रहार है, जो स्वयं उसके अपने भाई-बन्धुओं के द्वारा हुआ है। उस बच्चे से कहा गया है कि उसे पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने का हक नहीं है, उसकी नियति है कि अपने पेट की आग बुझाने के लिए वह स्वयं काम करे, क्योंकि उसका बाप यहाँ नहीं बैठा है उसका उद्धार करने के लिए। इसीलिए वह अपने भाई-बहनों में भी अछूत है – “श्यौराज भिकारी की दूसरी बऊ कौ है। मेरे आत्मसम्मान को स्वजाती बन्धुओं का ऐसा व्यवहार होता था तो बात चुभती थी। इन अछूतों में भी मैं बाल अछूत था।” (वही, पृ. 54) बिन बाप के और माँ के आँचल से महरूम एक बच्चे का बचपन, अछूत बालक का जीवन कितना त्रासद हो सकता है, यह अपनी पूरी भाव संवेदना के साथ इसमें व्यक्त हुआ है। यह कारुणिक गाथा शब्दातीत है, शायद शब्दबद्ध करने से संवेदना में बिखराव आ जाए, पर यहाँ भावों को शब्दों की पंक्ति देनी ही होगी…।
पूरी पुस्तक में बाल श्रम का जिक्र लेखक ने मार्मिकता से किया है। चाचा की मौत के बाद श्यौराज को बचपन में अपने बब्बा से दयनीय और वीभत्स व्यवहार मिला, उनकी जीवन-दशा याचक की स्थिति में पहुँच गई। वे लिखते हैं – “मैं सस्ता और सहज सुलभ बाल मजदूर था। वर्षों से मैं रहटें, दाएँ हाँक रहा था। मटरू चमार भी मुझसे काम कराते। मेरे लिए काम के घण्टे निर्धारित नहीं थे। भोर का प्रकाश होने से लेकर रात के अन्धेरे तक मुझे काम ही काम करना होता था… ।” (वही, पृ. 93) “मेरे घर में कई सदस्य थे और कमाने वाली अम्मा और बाल-मजदूर था मैं। नहीं कमाता तो दाल-आटे की कमी हो जाती है।” (वही, पृ. 76) दो वक्त की रोटी के लिए लेखक के जीवन में बाल श्रम का यह आलम था। यहाँ तक वे वह एक बार खाने को अपनी माँ के साथ ढडायन भी ले आए, जिसे खाने के बाद उसका परिवार मौत के मुँह को जाते-जाते बचा है। इस बालक का शोषण मात्र परायों ने ही नहीं किया, उनकी भूख को ताऊ, फूफा सबने खरीदा। ‘बाल-पथेरा’ अंश में लेखक ने दिखाया है कि उनका फूफा उन्हें अपने गाँव पथाई के काम में मदद कराने ले जाते थे… परिणामस्वरूप अत्यधिक श्रम करना पड़ता था, जिस कारण हाँथ-पाँवों की त्वचा फट गई थी, पैरों में बिवाईयाँ फट गईं। चार महीने में बालक बुरी तरह बीमार हो गया। लेखक अपनी माँ के साथ काम की तलाश में कई जगह गए। हमेशा यह उम्मीद रहती थी कि श्रम कम करना पड़े और भर पेट खाने को मिले। वे पंजाब के बाजपुर गए, वहाँ उन्होंने समाज का वह द्वन्द्व देखा, जिसमें एक ओर भारी सम्पन्नता थी तो दूसरी ओर उतनी ही भारी विपन्नता। एक ओर असीमित विशेषाधिकार था तो दूसरी ओर अथाह वंचना, दुःख-तकलीफ। “मालिक मजदूरों के हितों-स्वार्थों और शोषण मुक्ति के द्वंन्द्व का यह आलम हर मौसम और हर फार्म हॉउस में था। सरदारों के बच्चे… स्कूल जाते दिखाई देते। हम खेतों पर काम करने जा रहे होते।… हम उन्हें नाचते-गाते खुशियाँ मनाते, जिन्दगी का आनन्द लेते देखते और अपनी कूव्वत से सवाए काम करने में जुट जाया करते थे। …यूँ हम गुलाम थे, जबकि देश सन् 1947 में आज़ाद हो गया था।” (वही, पृ. 148) आत्मकथा में उपस्थित बालमन की इसी पीड़ा से तिलमिला कर समकालीन कवि राजेश जोशी ने व्यवस्था पर सवाल किया है –
बच्चे काम पर जा रहे हैं,
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए सवाल की तरह
काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?
(बच्चे काम पर जा रहे हैं, राजेश जोशी, सामयिक मीमांसा, जुलाई-सितम्बर-2008, पृ. 48)
लेखक की इस दयनीय स्थिति में उनका घर भी दयनीयता का प्रतीक बन कर सामने आया है। घर एकदम जर्जर अवस्था में था। लोगों को परिस्थितियों पर विश्वास ही नहीं होता था। सामाजिक संरचना में तो यह घर अछूतों का था ही, प्राकृतिक प्रकोपों ने इसके संकट और बढ़ा दिए थे – “जामें कोई अन्धों, कोई लंगड़ों ही होत है। सही सलामत होत ही कौन है? और जो होत है, सो मरिजातु है।… उन दिनों मुझे बोझ बनी अपनी जिन्दगी को कन्धों पर धोते रहने का कोई अर्थ नहीं मिल रहा था।” (मेरा बचपन मेरे कंधों पर, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, उपर्युक्त, पृ. 135) इस स्थिति में इस घर में कहाँ सामर्थ्य था कि वह एक विधवा और उनके चार बच्चों को एक वक्त का भी भोजन उपलब्ध करा सके। हर सदस्य जीने के लिए श्रम बेचता था। श्यौराज की माँ का दूसरा विवाह हुआ, जहाँ फिर उनके पुत्र को आश्रय नहीं मिला। यहाँ एक ममतामयी माँ ने अपने बच्चों के सुखद जीवन के लिए एक के बाद दूसरा विवाह किया, और यही विवाह उनकी आजीवन यातना का कारण बन गया।
- दलित स्त्री : दोहरा अभिशाप
दलित समाज में स्त्री का स्थान मुख्यधारा से हमेशा से भिन्न रहा है, जो उसे सामजिक दृष्टि से स्वतन्त्र बनाता है। इस समाज में विधवा विवाह का भी प्रचलन है। हम देखते हैं कि नवजागरण के समय में स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों को बड़े जोर-शोर से उठाया गया। परन्तु विधवा-विवाह, सती-प्रथा, देह के सवाल दलित और आदिवासी स्त्रियों के लिए बेमानी-से नजर आते हैं। इसके बावजूद एक स्त्री का स्त्री होना और वह भी दलित स्त्री होना उसकी नियति है, ‘दोहरा अभिशाप’ है। दलित समाज में मुख्यधारा से अलग सिर्फ स्त्री के शोषण का स्वरूप ही बदलता है, शोषण तो यहाँ भी बदस्तूर जारी है। यहाँ यह पुस्तक आत्मकथा के कलेवर को तोड़ते हुए, आत्मालोचन के स्तर पर स्त्री समानता के अधिकार के प्रश्न को भी उठाती है।
इस कथा में लेखक ने अपनी माँ, बहन आदि के माध्यम से स्त्री का शोषण चित्रित किया है। दलित समाज में स्त्री हर कदम पर पुरुष के साथ शारीरिक श्रम करते हुए घर-परिवार की जिम्मेदारियों का वहन करती है। लेखक अपनी माँ को जब भी याद करते हैं, ठीक वैसा ही अनुभव करते हैं जैसा तेलुगु कवि मददूरी नागेश बाबू की माँ कविता की मूल संवेदना का अनुभव है –
“किसी को माँ दूध पिलाते हुए याद आती है
लोरी गाते हुए याद आती है
मुझे माँ खेतों में काम करते हुए
या टोकरी ढोते हुए याद आती है।”
(माँ, मददूरी नगेश बाबू, (संकलित), दलित साहित्य की अवधारणा, पृ. 183)
भिकारी के साथ माँ का विवाह होने से उसे प्रतिदिन शारीरिक यातना का शिकार होना पड़ा। वह आदमी जानवरों की तरह माँ को पीटता, लात-घूँसे जमाता। यहाँ तक कि माँ का देवर भी कई बार उसे शारीरिक यातना देता। जिससे माँ की हालत दिन-पर दिन बिगड़ती गई और माँ की असमय मृत्यु हो गई। अस्थियों के अक्षर अंश में लेखक ने दिखाया है कि कैसे सिर्फ एक शक की वजह से उसके पति औऱ देवर के द्वारा माँ को प्राणान्तक दशा तक पीटा गया पशुवत व्यवहार का यह आलम था कि इसे भी लोगों ने अपना संस्कार समझा और माँ को अश्लील से अश्लील गालियाँ भी दीं – “भिकारी पाश्विक व्याख्यान दे रहा था और डल्ला विजयी योद्धा की मुद्रा में चारपाई पर तन के अकडूँ बैठा था ससुरी ने एक रुपया चुराई के अपनी चौट्टई शुरू कर दी।” (मेरा बचपन मेरे कन्धों पर, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, पृ. 62) घरेलू हिंसा से ऊबकर माँ हमेशा अपने ससुराल नदरोली चली आती और काम की तलाश में बच्चों को लेकर आस-पास के गाँव भी जाती। यह तो कथन है एक विदुषी का पर एक अनपढ़ और दलित स्त्री में भी इतनी चेतना थी कि वह ऐसे शोषणों को भली-भाँति समझती थी, क्योंकि वह भुक्त-भोगी थी। उसका ज्ञान शब्दों के माध्यम से नहीं, अपने जख्मों के माध्यम से व्यक्त होता था, सिद्धान्त का नहीं व्यवहार प्रतिफल था। अपने कुछ अक्षर ज्ञान के कारण अपने पुत्र से उन्होंने सवाल पूछा – “बेटा सौराज, तैने किताब पढ़ी है, तू जो तो बताई कै जै मर्द इन्दिरा गाँधी के राज कूँ सब औरतनु को राज काहे कूँ कहत हैं? कोई ईमान-धरम वारौ सच्चौ इनसान कहूँ मिलै तो बेटा मैं जरूर पूछऊँगी कै मैं गरीबिनी चमारी कूँ इन्दिरा ने कौन सो राज-पाटु दै दओ है भैया।” (मेरा बचपन मेरे कन्धों पर, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, पृ. 184)
- अशिक्षा और अन्धविश्वास
वर्चस्व की संस्कृति ने हमेशा से दलितों को शिक्षा से वंचित रखा है। अशिक्षा के कारण उनकी संस्कृति जादू-टोना, टोटके, भूत-प्रेत आदि में विश्वास रखने लगी। यहाँ हर बिमारी का इलाज इसी माध्यम से होता है। बाहरी हवा से बचाने के लिए तरह-तरह के ढोंगी उपक्रम होते हैं। इन दलितों में ही ओझा बलि चढाता है। धार्मिक महन्तों, पुजारियों का आलम यह है कि सब तरह के अमानवीय व्यवहार के बावजूद ये दलितों के भगवान के रूप में बने रहते हैं। दलित समाज के पिछड़ेपन का कारण ये कुप्रथाएँ भी हैं। वस्तुतः इस आत्मकथा का उत्स ‘बालक श्यौराज के पिता की मृत्यु’ है, जो इसी कर्मकाण्डीय प्रक्रिया से शुरू होती है। अपने पिता को अपनी नन्हीं-नन्हीं आँखों के सामने लेखक ने तिल-तिल कर तड़पते-मरते देखा, जो अनुभूतियाँ पचास साल बाद भी उनके सामने प्रत्यक्ष हो जाती हैं, “उस वक्त की वह स्याह रात लम्बी और डरावनी लग रही थी, पर वह मिट्टी के दीपक की लौ के सहारे धीरे-धीरे गुजर रही थी। चाचा को बार-बार उल्टियाँ करते देख मेरी नीन्द भाग गई और मैं रोने-बिलखने लगा।… मैं बार-बार चाचा से लिपटता, देखता कि वे कभी चाँटा मारते, तो कभी हवा में लहराकर उनकी पीठ पर चाबुक जमा देते। चाचा बार-बार कहते, मेरे ऊपर कोई भूत-भूतनी नाँय है, काऊ वैध को बुलाइ देउ, मोई जिन्दे कूँ मत मारो।’ चाचा की आँखें मदद की आशा में खुलती और मार खाते ही आँसुओं में डूब जातीं। यह क्रम एक-दो घण्टे नहीं, बल्कि पूरे तीन दिन तक लगातार चलता रहा था।” (वही, पृ. 17) अन्ततः लेखक के पिता की मृत्यु हो गई। इतना ही नहीं, दलितों के दलित-ब्राह्मण उसके जीजा की बिमारी के इलाज के लिए भी कर्मकाण्ड का प्रयोजन पड़ा और उस बालक को दूसरे गाँव बरसात की काली रात में जाकर उनके चढ़ावे के लिए मुर्गा-बकरा लाना पड़ता था। शोषण की हद तब हो गई जब उस अन्धविश्वासी ओझा ने उस भूखे बच्चे को उसी के श्रम से लाए माँस का एक भी टुकड़ा नहीं दिया। पिता के बाद जीजा की मृत्यु ने उनके सम्भावित आश्रय का सहारा भी छीन लिया। इस बढ़ते हुए आर्थिक विपन्नता के सागर में श्यौराज को यह बताया गया कि जिन्हें खुद रोटी का इन्तजाम करना होता है, वे पढ़ने के लिए नहीं, कमाने के लिए पैदा होते हैं। इसलिए लेखक ने यह सिद्धान्त अपनाया कि कमाओ और साथ-साथ पढ़ो भी। बचपन से ही लेखक को पढाई की बहुत लगन थी। परन्तु उन्हें पढ़ता लिखता देख उनके सौतेले पिता को कभी रास नहीं आया। एक बार भिकारी ने बालक श्यौराज की किताबें भी जला दीं। पढ़ने-लिखने के लिए और भूख मिटने के लिए बालक श्यौराज मास्टर प्रेमपाल यादव की बेगार करने को तैयार हो गए। उन्हें उनके स्कूल में दाखिला मिल गया और उनकी शिक्षा प्राप्ति की कमजोरी का भरपूर फायदा मास्टर ने उठाया। उनका भरपूर श्रम शोषण किया। छुट्टियों के समय भी बालक श्यौराज उनके लिए खेत और घर का काम करते। शिक्षा की कामना ने ही श्यौराज से उनका श्रम बिकवाया। यहाँ शिक्षा का नैतिक अधिकार कहीं नहीं था। उन्हें श्रम बेचकर शिक्षा मिलती थी। कुछ समय बाद बालक श्यौराज चौधरी रघुनाथ सिंह के यहाँ मजदूरी करते रहे। वे भी अध्यापक थे। पर यहाँ भी उन्हें अपमान झेलना पड़ा। प्रेमपाल यादव के घर जाति-पाँति का कोई भेद नहीं था। हाँलाकि उनकी पत्नी बड़ी कठोर थीं। फिर भी वे श्यौराज को अपनी माँ जैसी लगती थीं। इस घर ने उन्हें सामाजिक रूप से सुरक्षा दी। इसी शिक्षा ने लेखक को सामाजिक चित्रण की गम्भीरता प्रदान की जिससे उन्होंने अपनी आत्मकथा में अपनी कथा के साथ-साथ दलित समाज के आन्तरिक टकराव और वर्तमान या यूँ कहें कि आजादी के पचास साल बाद भी अपरिवर्तनीय दलित स्थिति को भी दर्शाया है। साथ ही नगरीय संरचना में और ग्रामीण संरचना में जातिगत भेदभाव की भिन्नता को भी लेखक ने इस पुस्तक में सावधानी पूर्वक उकेरा है।
- निष्कर्ष
आज देश में प्रजातन्त्र है, सभी को एक समान जीवन जीने का अधिकार है। संविधान ने सभी नागरिकों को समान अवसर प्रदान किए हैं। उसके बाद भी दलितों को समाज में समानता का जो अधिकार मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला है। श्यौराज सिंह बेचैन ने अपनी आत्मकथा मेरा बचपन मेरे कन्धों पर में इस विषय का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है कि पचास साल पहले जो पेशा चमार जाति का था, वह आज भी बरकरार है, “गंगावासी और बीधे यानी दोनों फूफा लगभग तीस साल पहले मुर्दा मवेशी उठाने, चर्म शोधन करने और चर्बी बेचने का मामूली व्यवसाय किया करते थे। गंगावासी आज भी इक्कीसवी सदी में भी, चालीस साल बाद, वही काम कर रहे हैं।” (वही, पृ. 11) लेखक ने छह–सात वर्ष की उम्र में बूट पॉलिश करना सीखा था। यह काम चन्दौसी के दलित बच्चे आज भी करते हैं। लेखक की बहन के तीन बेटे आज भी जूतियाँ गाँठने का काम किया करते हैं। आज भी मिर्जापुर में ब्राह्मण, जाटों के आठ दस साल के बच्चे स्कूल जाते हैं और चमारों के दस से चौदह साल तक के बच्चे गाँव के आस-पास की नगली, ढवाडास, आदमपुर, उझरी आदि बाजारों में जूतियाँ गाँठने जाते हैं। गाँव के सवर्णों की गंदगियाँ साफ़ करते हैं। लेखक ने यह समस्या जीवित बचा स्वराज पाठ में और खोल कर दिखाई है कि कैसे आजादी के मायने सिर्फ कुछ लोगों के लिए हैं; उनमें दलित, बाल-दलित एवं महिलाओं की आजादी मात्र कोरी कल्पना हैं। लेखक की अम्मा भी यह बात बखूबी समझती है – “गरीबी ने देश छुडाय दयो। मिली होगी बड़ी जाति कू आजादी, हमें तो काम करि केऊ रोटी नाँय दई।” (वही, पृ. 138)
वस्तुतः इस आत्मकथा से गुजरना अपने समय के सामाजिक सरोकारों से गुजरने जैसा है, जिसके केन्द्र में दलित अनाथ बालक की त्रासदपूर्ण पीड़ा एवं संघर्ष है। एक दलित बालक अपनी अस्मिता और अस्तित्व की पहचान की बात दलित समाज की परिधि के भीतर करता है। अपनी आत्मकथा में लेखक ने मात्र दलित समस्या तक अपने को सीमित नहीं रखा, उससे सम्बद्ध व्यापक सामाजिक अन्तर्विरोधों से भी हमें रूबरू कराया। यहाँ इन सबसे बढ़कर सामाजिक विसंगतियों से मुक्ति का स्वर है, क्योंकि ‘लिखने के लिए लिखने का प्रक्रम अपने आप में अकर्मक क्रिया नहीं है, वरन व्यक्ति के सामाजिक समूह के समान सकर्मक क्रिया है।’ सामाजिक अस्मिता के लिए ‘आत्म’ की पहचान के लिए संघर्ष में यह आत्मकथा दलित साहित्य आन्दोलन को एक नए दृष्टिकोण से देखने की दृष्टि प्रदान करती है।
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अतिरिक्त जानें–
पुस्तकें
- मेरा बचपन मेरे कन्धों पर, श्योराज सिंह बैचेन, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित साहित्य की अवधारणा, कँवल भारती, बोधिसत्व प्रकाशन, रामपुर
- सत्ता और समाज, धीरू भाई सेठ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन, एम०एन० श्रीनिवास, राजकमल प्रकाशन , नई दिल्ली
- आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेन्द्र चौबे, ओरियंट ब्लैक स्वान, दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- दलित चेतना: साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार, रमणिका गुप्ता, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली
- दलित साहित्य, जयप्रकाश कर्दम, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
वेब लिंक्स –
- http://timesofindia.indiatimes.com/india/Dalit-literature-has-grown-popular-over-time-Sheoraj-Singh-Bechain/articleshow/46565196.cms
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%AC%E0%A4%9A%E0%A4%AA%E0%A4%A8_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%87_%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%AA%E0%A4%B0_/_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9_%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%9A%E0%A5%88%E0%A4%A8
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9_%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%9A%E0%A5%88%E0%A4%A8_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%86%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%93%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A5%8C%E0%A4%B0_/_%E0%A4%85%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A4