22 मुर्दहिया
प्रो. रामचन्द्र
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- भारतीय सामाजिक संरचना की विविधता, जड़ता और विषमतापरक जीवन को समझ सकेंगे।
- हिन्दू सामाजिक व्यवस्था की जटिलता में पलते, जूझते दलित वर्ग के एक बालक की अन्तर्व्यथा को जान सकेंगे।
- शिक्षण तन्त्र में व्याप्त जातिगत भेदभाव की मानसिकता को परख सकेंगे।
- लोकजीवन की विविध छवियों और सामाजिक सच्चाइयों की पड़ताल कर सकेंगे।
- समतापरक समाज की आवश्यकताओं को समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
दलित साहित्य आन्दोलन के इतिहास में आत्मकथाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दलित आत्मकथाएँ केवल आत्म विश्लेषण या आत्मवृत्तान्त नहीं हैं, अपितु ‘स्व’ का सामूहिक एवं सामाजिक रूपान्तरण हैं। डॉ.तुलसीराम द्वारा रचित मुर्दहिया मात्र एक आत्मकथा नहीं है, बल्कि लेखक के व्यक्तिगत-पारिवारिक जीवन के साथ-साथ आस-पास के सभी वर्गों-जातियों के सामाजिक-सांस्कृतिक सम्बन्धों और उनकी जटिलताओं की भी रचनात्मक अभिव्यक्ति है। हिन्दू समाज और घर-परिवार में उपेक्षा, अनादर और अपमान झेलते एक बालक की त्रासद जीवन-स्थिति की यह कृति यथार्थ रचती है। हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त जातिगत भेदभाव, अपमान, उत्पीड़न, घृणा, धार्मिक जड़ता, कर्मकाण्ड, अन्धविश्वास और विद्रूप परम्पराओं की बारीक परतों को मुर्दहिया उघाड़ती है। तमाम सामाजिक-आर्थिक विषमताओं एवं जटिलताओं की सच्चाइयों से गुँथी हुई यह आत्मकथा समता, मैत्री, प्रेम और करुणा का मानस रचती है। ज्योतिबा फुले और डॉ.भीमराव अम्बेडकर की विचारधारा पर आधारित दलित साहित्य के मुख्य सरोकारों से यह कृति इन्हीं सन्दर्भों से जुड़ जाती है।
- मुर्दहिया और दलित जीवन की त्रासदी
मुर्दहिया दलित समाज की त्रासदी और भारतीय समाज की विडम्बना का सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक और राजनीतिक आख्यान है। यह कृति समाज, संस्कृति, इतिहास और राजनीति की उन पर्तों को खोलती है, जो अभी तक अनकहा, अनछुआ था; जहाँ न तो ठीक से साहित्य पहुंच सका था और न ही अन्य कोई पद्धतिशास्त्र। यह आत्मकथा वह पन्ना पलटती है, जहाँ किसी साहित्यकार, इतिहासकार और समाजशास्त्री की दृष्टि नहीं पहुँच सकी थी। इस अर्थ में मुर्दहिया साहित्य, इतिहास और समाजशास्त्र के अधूरेपन एवं एकांगीपन को संवर्द्धित कर खालीपन को सम्पूरित करती है। यह कृति हिन्दू व्यवस्था की जड़ता एवं विद्रूपता के तह तक ले जाती है। भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के विकास में मुर्दहिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मुर्दहिया जैसी रचनाएँ विषमतापरक समाज को समता में बदलने की पृष्ठभूमि तैयार कर रही हैं। हिन्दू समाज में व्याप्त हिंसा, घृणा, शोषण एवं वर्चस्व को मुर्दहिया बेपर्दा करती है; साथ ही दलित वर्ग की जटिलताओं एवं विसंगतियों का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य भी उद्घाटित करती है। यह आत्मकथा दलित जीवन संघर्ष की सिर्फ वेदनामयी गाथा ही नहीं है, अपितु हिन्दू जाति-व्यवस्था की जड़ता, अन्धविश्वास, कर्मकाण्ड, धर्मान्धता तथा तमाम विभेदकारी शोषणयुक्त विषम परिस्थितियों के घेरे को तोड़कर उगते सूरज के मानिन्द बालक तुलसीराम की संघर्ष-यात्रा है। अपमान, घृणा, उपेक्षा और विपन्नता की वेदना से गुजरते दलित वर्ग के बालक की मनोदशाओं की सच्ची कहानी है मुर्दहिया । अपने ही देश में विभिन्न जातियों में बँटे हुए समाज की खाइयाँ और मनुष्य से मनुष्य के बीच की दूरियों का चित्रण करती मुर्दहिया जन्म से लेकर मृत्यु तक के अपमानबोध की मार्मिक कथा है।
3.1. हिन्दू व्यवस्था की जड़ता और वैषम्य जीवन
मुर्दहिया हिन्दू धर्म और संस्कृति की विद्रूपता और क्रूरता का दस्तावेजीकरण है। जाति-पाँति, ऊँच-नीच, घृणा और द्वेष से गुँथा हुआ श्रेणीबद्ध समाज कौन-से तथा किस प्रकार का राष्ट्र निर्मित करेगा? यह प्रश्न आत्मकथा में आद्यन्त बना रहता है। डॉ.तुलसीराम को मिला जातिवादी माहौल, विद्रूप सामाजिक मान्यताएँ तथा देवी-देवताओं एवं अन्धविश्वास से भरे हुए विषम जीवन,आजाद भारत की कौन-सी तस्वीर प्रस्तुत करता है? जिस विषमतापरक सामाजिक परिवेश और सीमाओं से घिरा हुआ डॉ. तुलसीराम का गाँव है, वह किस राष्ट्र का बोध कराता है? आत्मकथा में लेखक की जाति की अवस्थिति का कारण सहित वर्णन है, “इन्हीं सीवानों से घिरे हमारे गाँव के सबसे उत्तर में अहीर बहुल बस्ती थी, जिसमें एक घर कुम्हार, एक घर नोनिया, एक घर गड़ेरिया तथा एक घर गोंड़ (भड़भूजा) का था। बीच में बभनौटी (ब्राह्मण टोला) तथा तमाम गाँव की परम्परा के अनुसार सबसे दक्षिण में हमारी दलित बस्ती। एक हिन्दू अन्धविश्वास के अनुसार किसी गाँव में दक्षिण दिशा से ही कोई आपदा, बीमारी या महामारी आती है इसलिए हमेशा गाँवों के दक्षिण में दलितों को बसाया जाता है।”जाति आधारित ऐसी व्यवस्था जहां मनुष्य की पहली पहचान जाति हो, इस विभेद को मुर्दहिया में अंकित करते हुए लेखक ने दलित जीवन की त्रासदी को विस्तार से लिखा है। खेत-मजदूरी पर आश्रित दलित जीवन की विभीषिका और शोषणकारी परम्परा को बड़े निर्विकार भाव से यथार्थवादी चित्रण किया गया है। डॉ.तुलसीराम लिखते हैं कि, “मेरे दादा-परदादा गाँव के ब्राह्मण जमीन्दारों के खेतों पर बँधुआ मजदूर थे। उन जमीन्दारों ने ही कुछ खेत उन्हें दे दिया था। गाँव के अन्य दलित भी उन्हीं जमीन्दारों के यहाँ हरवाही (हल चलाने का काम) करते थे। यह हरवाही पुश्त-दर-पुश्तचली आ रही थी।”जजमानी प्रथा के भयावह स्वरूप का विस्तृत चित्रण करते हुए डॉ.तुलसीराम ने अकाल के दिनों में भुखमरी के शिकार, वंचित समुदायों की बेबसी को दर्शाया है। नाइयों, धोबियों, मुसहरों और नटों की बदहाली का मार्मिक चित्रण मुर्दहिया में मिलता है। यह चित्रण ‘स्व’ और ‘सामुदायिक संवेदना’ का विस्तार है। इस प्रस्तुति से ही मुर्दहिया मात्र एक व्यक्ति, एक जाति या मात्र एक समूह की गाथा नहीं है, अपितु वेदना का सामुदायीकरण है। इस वैषम्यपूर्ण जीवन और हिन्दू-व्यवस्था की जड़ता से मुक्ति ही मुर्दहिया का लक्ष्य है।
मुर्दहिया में शोषण और अपमान के विभिन्न स्तर हैं, जिसे पढ़ते हुए साफ तौर पर लगता है कि इस विषमतापरक व्यवस्था या रीति रिवाजों की पोषक हिन्दू सामाजिक व्यवस्था और हिन्दू धर्म की अवैज्ञानिक मान्यताएँ हैं। हिन्दू समाज में व्याप्त अन्धविश्वास कितना अवैज्ञानिक और मनुष्य विरोधी है – मुर्दहिया में विस्तार से वर्णित है। अपशकुन और अनादर को डॉ.तुलसीराम ने हिन्दू व्यवस्था की जड़ता के रूप में रेखांकित किया है, जिसके शिकार वे स्वयं रहे हैं। आत्मकथाकार ने अपने साथ उन चारो को अपनी आत्मीयता दी है, जिन्हें अपशकुन का पर्याय मान लिया गया था। उनके गाँव में स्वयं उनके अलावा निर्वंश जंगू पाण्डे, विधवा पण्डिताइन, पोखरे वाले उल्लू, खो-खो करने वाली मरखउकी चिड़िया को देख-सुनकर गाँव वालों की रूह काँप जाती थी। लेखक में मनुष्य और प्रकृति की अनुभूति का यह तादात्म्य विशिष्ट है, जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए। दलित लेखन की अनुभूतियों का यह विस्तार है। उल्लुओं के अपशकुन होने का चित्रण करते हुए डॉ. तुलसीराम लिखते हैं, “जब उल्लुओं का वह जोड़ा कुडूक-कुडूक करके जोर से चहकता, तो उनकी एकदम अलग आवाज बड़ी देर तक सुनाई पड़ती। उस आवाज को पूरा गाँव अपशकुन मानता था। मेरी दादी की तरह अनेक औरतें यह कहतीं कि भूतों की पोखरे पर जब पंचायत होती है, तो उल्लू कुडुकते हुए शंख बजाते हैं, जिससे पता चलता है कि ब्राह्मण भूतों की पंचायत हो रही है।”ऐसा लगता है कि वर्चस्वशाली हिन्दू व्यवस्था को कायम रखने के लिए इस तरह के ‘अवमानना’ के तमाम औजारों को विकसित और पोषित किया जाता रहा होगा। ऐसे ही भूत-प्रेत या आत्माओं के माध्यम से भय का आतंक विकसित करके लोगों को अवैज्ञानिक बनाकर ठगने की संस्कृति खड़ी की गई होगी। हैजा और चेचक जैसी बीमारियों को दैवीय आपदा बताकर अभी भी काफी व्यापक स्तर पर गाँवों में अन्धविश्वास फैलाया गया है। ये सारे अन्धविश्वास हिन्दू सांस्कृतिक सत्ता को बनाए रखने के लिए रचे गए हैं – मुर्दहिया इसका पर्दाफाश करती है।
3.2. दलित जीवन: संघर्ष और चेतना
मुर्दहिया दलित जीवन और समाज का जैसा स्वरूप प्रस्तुत करती है, वैसा परम्परागत साहित्य की किसी भी विधा में पढ़ने को नहीं मिलता। डॉ.तुलसीराम की स्वानुभूति और रचनात्मकता ने भारतीय समाज के बहुत बड़े हिस्से का ऐसा सच प्रस्तुत किया है, जिसे कभी साहित्य का व्यापक विषय नहीं बनाया जा सका था। दलित साहित्य इन्हीं अर्थों में विशिष्ट है। मुर्दहिया में गरीबी और भुखमरी का ऐसा पीड़ादायक चित्रण मिलता है, जहाँ किसी अर्थशास्त्री की निगाह शायद ही गई होगी। बरसात के समय कड़की के दिनों में मैदानी चूहों का माँस और बरसाती मछलियाँ खाकर तथा चूहों के बिलों से गेहूँ की बालियों से अनाज निकालना दलित जीवन की विभीषिका को प्रस्तुत करता है। बरसात के दिनों में झोपड़ियों और खपरैल के घरों से पानी टपकने के बीच कई-कई रातें ऐसे ही जागते गुजार देना दलितों की गरीबी का मुर्दहिया मार्मिक चित्रण करती है। डॉ.तुलसीराम ने अपने संयुक्त परिवार की विवशता का चित्रण करते हुए लिखा है कि, “हमारा संयुक्त परिवार बहुत बड़ा था, किन्तु घर में एक भी रजाई या कम्बल नहीं था। वैसे भी घर में कपड़ों की कमी हमेशा रहती थी। मेरे पिताजी पूरी धोती कभी नहीं पहनते। वे एक ही धोती के दो टुकड़े करके बारी-बारी से पहनते। ओढ़ने का कोई इन्तजाम न होने से गाँव के लगभग सारे दलित रात भर ठिठुरते रहते।”ठिठुरन भरे जीवन जीने को अभिशप्त दलितों की पीड़ा की सीमा का कोई अन्त नहीं दिखाई देता। गरीबी और भुखमरी के बीच ब्राह्मण साहूकारी पहली बार किसी आत्मकथा में पढ़ने को मिलता है। एक सेर अनाज के बदले सवा सेर अनाज का भुगतान ब्राह्मण साहूकारी का नमूना थी। धीरे-धीरे चक्रवृद्धि ब्याज में बदलते जाना और ब्राह्मण मुनाफाखोरी के खिलाफ बगावत तथा तनातनी के माहौल का ‘कूर की लड़ाई’ में तब्दील हो जाना, अंकुरित होती दलित चेतना की बानगी है, “जब भी लाठी डंडे की नौबत आती गाँव के सारे दलित पंचायत के लिए हमारे घर चौधरी चाचा के यहाँ आते। उसी कुएँ के चबूतरे पर पंचायत होती और चौधरी चाचा सबकी राय से ‘कूर’ बाँध देते थे। ‘कूर’ बाँधने का मतलब था किसी निर्धारित समय तथा स्थान पर जमीन पर खपरे से एक खूब लम्बी रेखा खींच देना। उस रेखा के दोनों तरफ काफी दूर पर दोनों परस्पर विरोधी पक्ष खड़े होते। रेखा के इस पार खड़े दलित, उस पार खड़े ब्राह्मणों को चुनौती देते कि यदि हिम्मत हो तो रेखा पार करके दिखावें। यदि ब्राह्मण रेखा पार कर लेते, तो तुरन्त दलितों से लड़ाई शुरू हो जाती। ब्राह्मण हमेशा भाले और बल्लम से लैस रहते थे,किन्तु दलित सिर्फ लाठियाँ रखते। ऐसी कूर बंधी लड़ाइयों में दलित महिलाओं की वीरता देखते ही बनती थी।”
यह वह पृष्ठभूमि है जो धीरे-धीरे दलितों में आ रही चेतना का भान कराती है। आत्म सम्मान से आगे बढ़कर अधिकारों के लिए संघर्ष का नमूना है। ‘कूर’ बँधी लड़ाइयों की परम्परा को महाभारत के कुरुक्षेत्र में सम्पन्न युद्ध से जोड़कर डॉ. तुलसीराम मुर्दहिया के माध्यम से साहित्य में दलितों की भूमिका को नया रूप प्रदान करते हैं।
- मुर्दहिया में चित्रित बाल मनोदशा और भेदभावपूर्ण शिक्षण-तन्त्र
मुर्दहिया बाल मन और बाल शोषण का ऐसा क्रन्दन है, जिसकी चीख आद्यन्त आत्मकथा में सुनी जा सकती है; लगभग सभी दलित आत्मकथाओं में बाल मनोदशा का मार्मिक चित्रण मिलता है, जो कुछ सन्दर्भों में मुर्दहिया में भी हृदयविदारक है। परन्तु मुर्दहिया इस अर्थ में विशिष्ट है कि इसके लेखक का संयुक्त परिवार है और जिस परिवार का मुखिया बारह गाँवों से बनी पंचायत का चौधरी भी है, जो उन गांवों के दलितों के लिए नियम-कानून और दण्ड-विधान का पालन करवाता है। लेकिन उसी संयुक्त परिवार के बालक तुलसीराम को अपशकुन का पर्याय बनाकर कदम-कदम पर अपमान और हिकारत का शिकार होना पड़ता है। घर के बाहर जाति के आधार पर गाली और अपमान का घूँट पीकर जीना पड़ता है। घर में ‘कनवा’ और बाहर ‘चमरा’ की गाली बाल मनोविज्ञान तथा बालशोषण का ऐसा पहलू है जिसे किसी भी भाषा साहित्य में ढूँढ़ना कठिन है। आखिर बचपन को रौंदने की वह कौन-सी संस्कृति है? जिसकी शिनाख्त कोई भी साहित्य और पद्धति शास्त्र ठीक से नहीं पहचान पाते। इसकी ही खोज का नाम है मुर्दहिया और सम्पूर्ण दलित साहित्य आन्दोलन।
मुर्दहिया में शिक्षा और शिक्षण-तन्त्र की जिस विद्रूपता का वर्णन मिलता है वह प्रगति के सारे दावों को खोखला साबित करता है। अध्यापक मुंशीराम और विशेषकर सूरतलाल द्वारा दलित बच्चों को बात-बात पर स्कूल में ‘चमरकिट’ कहकर अपमानित करना बालमन पर स्थायी चोट करता है। यह स्थायी घाव बाल मनोग्रन्थि का शिकार बनाता है, जिससे बहुत से दलित बच्चे स्कूल छोड़ने के लिए बाध्य हो जाते हैं। बाल्यावस्था की इस मानसिक यातना से गुजरते हुए डॉ.तुलसीराम का सफर कितना पीड़ादायी रहा होगा, इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है। डॉ. तुलसीराम प्राइमरी पाठशाला में मौजूद भ्रष्टाचार को शब्दबद्ध करते हैं, “कक्षा दो में जाने के लिए मुंशी जी ने हर बच्चे से दो रुपया ‘पसकराई’ यानी पास कराने का घूस लिया। यह दो रुपया मुझे बड़ी मुश्किल से घर से प्राप्त हुआ। यह ‘पसकराई’ सभी अध्यापक लेते थे और जो बच्चा नहीं देता उसे फेल कर दिया जाता।“आत्मकथाकार का स्कूली परिवेश छुआछूत, अपमान और घृणा से भरा हुआ था। उसका एक चित्र खींचते हुए डॉ. तुलसीराम लिखते हैं, “मिसिर शोर मचाते हुए मुंशी जी के पास दौड़े और चिल्लाते रहे कि चमरा ने कुआं छू लिया। मैं बहुत डर गया था। उस दिन मुंशी जी रुक-रुक कर गालियाँ देते रहे। इसके बाद मैं कभी पानी पिलाने के लिए कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।”इस घटना से पहले डॉ. तुलसीराम लिखते हैं, “पानी पीना वास्तव में एक विकट समस्या थी। कभी-कभी तो हम चुपके से पोखरे पर चले जाते; जिसका पानी गहन जलकुम्भियों से ढका रहता था। हम जलकुम्भियों को हटाकर उसका पानी पीते।”
वैषम्यपूर्ण इन स्थितियों को देखकर आजाद भारत पर किन्हें गर्व हो सकता है? जिस देश में समाज के श्रमशील वर्गों के साथ ऐसा अमानवीय और घृणित व्यवहार किया जाता हो, वह देश विकसित देशों की पंगत में कैसे खड़ा हो पाएगा? जिस शिक्षण-तन्त्र में डिप्टी साहेब की पहचान ‘चमार डिप्टी’ सम्बोधन से हो, वहाँ कैसी शिक्षा दी जाती होगी? जिस समाज को सार्वजनिक स्थलों और स्कूलों में पानी पीने तक का अधिकार न हो, उस समाज की मनोदशा कैसी होगी? वर्ण-जाति आधारित व्यवस्था का यह विकृत रूप प्रगतिविरोधी है। मुर्दहिया सामाजिक परिवर्तन के लिए अभिप्रेरित करती है।
मुर्दहिया ही नहीं, आरम्भिक पाठशाला की विद्रूपता का अंकन सभी दलित आत्मकथाओं में मिलता है। बाल्यावस्था से ही दलित वर्ग के बच्चों को मानसिक रूप से प्रताड़ना का दंश झेलना पड़ा है। डॉ. तुलसीराम ने अपने स्कूली परिवेश का जिक्र करते हुए जातिवादी अध्यापकों के क्रूर चेहरे को बेनकाब किया है और शिक्षण तन्त्र के भीतर सदियों से पल रहे भेदभाव और अपमान के बोध को उजागर किया है। लेखक के स्कूली जीवन में प्राइमरी स्कूल का पूरा माहौल जाति-पाँति, छुआछूत और अपमानबोध कराने की प्रवृत्ति से भरा हुआ है। डॉ. तुलसीराम लिखते हैं कि, “पहली पंक्ति रोल नम्बर एक से शुरू होकर तेरह पर समाप्त हो गई। शेष दो पंक्तियों में इसी क्रम में पन्द्रह-पन्द्रह बच्चे बैठते थे। मेरा नाम और स्थान पहली कतार में रोल नं. पांच के साथ होता था। इन तेरह बच्चों में मेरे अलावा चिखुरी, रमझू, बाबूराम, यदुनाथ, मुल्कू, रामकेर, दलसिंगार, जग्गन, रामनाथ, बिरजू, बाबूलाल तथा मेवा थे। शीघ्र ही इस तेरह का रहस्य उजागर हो गया। हम सभी दलित थे। मुंशी जी की उपस्थिति में हमें कोई अन्य बच्चा नहीं छूता था।अस्पृश्यता का ऐसा दंश बालमन पर क्या प्रभाव डालता रहा होगा? वह कौन-सी व्यवस्था है जिसे हमारा राजनीतिक तन्त्र बदल नहीं पाया है? क्या अभी भी हमारे स्कूल इन भेदभावपरक मानसिकताओं से मुक्त हो सके हैं? मुर्दहिया में डॉ. तुलसीराम ने प्रारम्भिक स्कूल के एक अध्यापक मुंशी रामसूरत लाल का जिक्र किया है, जो दलित छात्रों को ‘चमरकिट’ कहकर गालियाँ देते थे। यद्यपि डॉ. तुलसीराम की मेधा की कभी-कभी तारीफ भी करते थे। ऐसे माहौल में पढ़ रहे डॉ. तुलसीराम अपनी बाल मनोदशा का जिक्र करते हैं, “मुंशी जी श्यामपट पर अक्षर लिखते और सभी बच्चों को पटरी पर वैसा ही लिखने को कहते। शुरू-शुरू में डर के मारे नरकट पकड़ते ही हाथ काँपने लगता था और लिखने की हर कोशिश असफल हो जाती थी और ऊपर से मुंशी जी की ‘चमरकिट’ वाली गाली इतना भय पैदा कर देती थी कि अन्ततोगत्वा मैं स्कूल जाने के नाम पर रोने चिल्लाने लगता था।”ऐसे आतंककारी माहौल में एक बालक की मनोदशा पर क्या बीत रही होगी? इसका कोई हिसाब नहीं दे सकता। ऐसे मानसिक प्रताड़ना भरे परिवेश में कैसा व्यक्तित्व बनेगा? परन्तु डॉ. तुलसीराम ने अपने संघर्ष और दृढ़ इच्छा से इन विषम परिस्थितियों के घेरे को तोड़कर उच्च शिक्षा की मंजिल हासिल की और एक बेहतर इनसान, बुद्धिजीवी और चिन्तक के रूप में स्वयं उन्होंने को स्थापित किया। डॉ. तुलसीराम मुर्दहिया के माध्यम से एक भेदभाव-मुक्त समाज निर्माण के लिए सभी को प्रेरित करते हैं।
जातिगत भेदभाव से भरे हुए सामाजिक वातावरण में भी आशा और सम्बल की किरण भी दिखाई देती है। कक्षा एक के अध्यापक संकठा सिंह और हेड मास्टर परशुराम सिंह के सहयोग और संरक्षण से डॉ. तुलसीराम के बचपन को बहुत बड़ा सम्बल मिला। उत्पीड़न, घृणा और शोषण के बीच ऐसा सहयोग मानवीय मूल्यों के बचे होने की आस दिलाता है। ऐसी उम्मीदें प्रतिपक्षी के मन में सहयोगी वृत्ति को बढ़ाती हैं और मिलकर व्यवस्था परिवर्तन की आकांक्षा को बल प्रदान करती हैं। मुर्दहिया शिक्षण-तन्त्र की भेदभावपूर्ण मानसिकता को बदलने का खाका प्रस्तुत करती है। इस विषमतापरक मानसिकता और माहौल की वजह हिन्दू सामाजिक व्यवस्था है, जो अभी हजारों जातियों के ऊँच-नीच के भेदों में बँटी हुई है। यदि इस व्यवस्था को बुनियादी तौर पर नहीं बदला गया तो देश का विकास ठहर जाएगा। यह आत्मकथा व्यवस्था के बुनियादी बदलाव की आकांक्षा का मानस रचती है।
- मुर्दहिया में अभिव्यक्त लोक जीवन की विविध छवियाँ
लोकरंग की पच्चीकारी से सराबोर मुर्दहिया वेदना और पीड़ा की विविध छवियों को उद्घाटित करती है। इन छवियों की भाषा और सौन्दर्यबोध परम्परागत साहित्य से भिन्न है। लोकसंगीत के विविध रूप और लोकनृत्य के विविध रंग मुर्दहिया की अमूल्य थाती है, जिससे पूरी आत्मकथा गुंजायमान है। इसमें पन्द्रह सदस्यीय घुमन्तू नटों के झुण्ड को लेखक ने बड़ी आत्मीयता से याद किया है। ‘आल्हा’ गाने और ढोल बजाने में पारंगत नट समाज के जीवन और शोषण की कहानी भी है मुर्दहिया । करताल बजाते हुए जयश्री यादव का ‘बिरहा गायन’ और उस गायन की समकालीनता का सम्बन्ध अद्भुत ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इन्हीं प्रसंगों के बीच दलितों को अपमानित करने वाली कहावतों का भी जिक्र आत्मकथा के सरोकारों को और सार्थक रूप देता है। डॉ.तुलसीराम लिखते हैं, “लोग अकाल से उत्पन्न दुःख-दर्द को भूल गए थे। धान की अच्छी फसलों के बाद चैत वैसाख के दिनों में जौ, गेहूँ, चना, मटर आदि फसलों की कटाई से दलितों के बीच काफी खुशहाली छा गई थी। इसका कारण था कुछ महीनों के लिए उचित भोजन-व्यवस्था, इस सन्दर्भ में हमारे पूरे क्षेत्र में दूर-दूर तक ब्राह्मण तथा क्षत्रिय जमीन्दारों के बीच चमारों को लेकर एक काव्यात्मक मुहावरा प्रचलित था – ‘भादो भैंसा चैत चमार; इससे कबहूँ लगै न पार’ इस निरादरपूर्ण अमानवीय अभिव्यक्ति में चमारों की पेट भर खाने की खिल्ली उड़ाई जाती थी।” यह इस आत्मकथा की वह सच्चाई है जिसे इतने प्रामाणिक ढंग से किसी भी परम्परागत साहित्य में शायद ही वर्णन किया गया हो। ‘जाति’ कैसे, कब और क्यों गाली का पर्याय बन गई ? यह आत्मकथा इस तथ्यान्वेषण के लिए प्रेरित करती है। यह कृति जाति के मूल में मौजूद अपमान और अनादर के कारणों की तह तक ले जाती है। इस अर्थ में यह कृति एक शोध पुस्तक भी है।
भोजपुरी क्षेत्र के लोकजीवन में बहुप्रचलित बरसाती परिवेश का अद्भुत चित्र प्रस्तुत करती है मुर्दहिया । रोपनी, जरई, लेव, हेंगा, पचरी, जुआठे, नधे, डबरा-डबरी, कियारे, कँटिया, रेउवाँ, चिचियाती, टरराहट, ढिबरी आदि शब्द बरसात के महीने में धान की रोपाई के समय और असाढ़ के महीने का अद्भुत दृश्य उपस्थित करते हैं। ऐसी लोकभाषा का हिन्दी से परिचय कराकर डॉ. तुलसीराम ने साहित्य का संवर्द्धन ही किया है। अकाल के दिनों में जमीन में पड़ी दरारों में प्राकृतिक कलाकृति का आभास देना दलित सौन्दर्यबोध का नमूना है, “पानी की कमी के कारण धान के खेत, जिन्हें ‘कियारा’ कहा जाता, की जमीन फटकर चारो तरफ विभिन्न प्रकार की दरारों में बदल जाती थी। कियारों के इन फटे दरारों से अनेक जगहों पर तरह-तरह की प्राकृतिक कलाकृतियाँ बन जाती थीं। सारे खेत रेखागणित के नमूने लगते थे। कई दरारों में तो चिड़ियों की चोंच, ऊँट की गर्दन समेत मुँह तथा हाथी के सूँड नजर आते थे। उस अकाल का यह एक अनोखा सौन्दर्य था, जिसमें मानव की भुखमरी और असीम पीड़ा का साम्राज्य था।” यह पीड़ा का सौन्दर्य है, जिसे मुर्दहिया ने नया साहित्यिक अर्थ दिया है। मुर्दहिया में बालक तुलसीराम की चिट्ठी पढ़ने की कहानी से लेकर उनकी उपेक्षा, अपमान और गरीबी की संघर्षरूपी दास्ताँ के बीच जोगी बाबा के गाने, चुड़िहारिन के गीत, नटनिया का नृत्य और सौंदर्य, विभिन्न जातियों के बीच प्रचलित लोकगीत और लोकनृत्य, लोकनाट्य, मरे हुए जानवरों के माँस पर जूझते-मँडराते चीलों का सौन्दर्यबोधीय चित्रांकन, स्त्रियों का अपने पतियों से दूरियों के बीच प्रेम और वियोग का वर्णन साहित्य की अमूल्य धरोहर है। इस आत्मकथा में राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, धर्म, संस्कृति, साहित्य और कला का प्रसंगवश विशद वर्णन और बुद्धमय भारत की आकांक्षा की अनुगूँज व्याप्त है। यह अनुगूँज सामाजिक परिवर्तन और समतापरक भारत के सपने की अनुगूँज है। जातिविहीन, अहिंसापरक, प्रेम और मैत्रीपूर्ण समाज की स्थापना ही डॉ. तुलसीराम जी का सपना रहा है।
- निष्कर्ष
मुर्दहिया का फलक बहुत विस्तृत है। कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं के रेखांकन से मुर्दहिया की व्यापकता को समझा जा सकता है, जैसे–
- लेखक की घरेलू पारिवारिक स्थितियां और टूटते बिखरते बालमन की सच्चाइयाँ,
- पाठशाला में मौजूद जातिगत भेदभाव और अपमान का बोध,
- ग्रामीण संस्कृति और सामाजिक-सांस्कृतिक रिश्तों की बनती-बिगड़ती कहानी,
- लोकजीवन, लोकरंग, लोकनृत्य, लोकसंगीत के बीच मुर्दहिया की त्रासद गाथा और इनके बीच विभिन्न भूमिकाओं में भिन्न-भिन्न चरित्र,
- मुर्दहिया में पसरा अन्धविश्वास, कर्मकाण्ड, धर्मांधता, भूत-प्रेत, टोना-टोटका और बलि के नाम पर वध किया जाता हुआ सुअर, छौना और उसकी कराहती, कलपती दर्दनाक चीखें,
- बौद्ध धर्म, बौद्धकालीन भारत और बौद्धों के प्रति नफरत का प्रामाणिक दस्तावेज की पेशगी,
- ग्रामीण क्षेत्र में मौजूद और बदलती धार्मिक-राजनीतिक स्थितियाँ,
- गरीबी, भुखमरी और वैषम्य आर्थिक व्यवस्था की स्थितियों के कारण दलित-गैरदलित व्यक्तियों एवं समाजों का अन्तस्सम्बन्ध,
- स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, नैतिकता, मूल्य और सामाजिक मान्यताओं का यथार्थपरक अंकन,
- लोकभाषा और लोककला की अद्भुत प्रस्तुति,
- आत्मकथाकार की वैचारिकता की निर्मिति,
- यथास्थितिवाद के भीतर से चेतना की निर्मिति की खोज,
- बेगारी प्रथा और दलित चेतना का क्रमिक विकास,
- चेतना के विकास में दलित स्त्रियों की भूमिका का रेखांकन, तथा
- अपमान, अनादर, घृणा, गरीबी, भुखमरी और शोषण के बीच प्रेम, सहयोग और सम्बल आदि। यही व्यापकता इस कृति को अन्य से विशिष्ट बनाती है। यह आत्मकथा मात्र डॉ. तुलसीराम की आत्माभिव्यक्ति नहीं है, अपितु भारतीय हिन्दू सामाजिक संरचना में वैषम्यपूर्ण जीवन जीने वालों की भी आत्माभिव्यक्ति है। हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में मुर्दहिया का अमूल्य योगदान रेखांकन योग्य है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- मुर्दहिया, डॉ.तुलसीराम,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित साहित्य: एक अभ्यास , अर्जुन डाँगले, महाराष्ट्र राज्य साहित्य संस्कृति मण्डल, मुम्बई
- दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचन्द, सम्पा. सदानन्द साही, प्रेमचन्द साहित्य संस्थान, गोरखपुर
- ‘दलित साहित्य की विकास-यात्रा’(ओमप्रकाश वाल्मीकि के साक्षात्कार), डॉ.राम चन्द्र, संकलन एवं संपादन, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
- दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ. एन॰सिंह , वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- दलित साहित्य का समाजशास्त्र, हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
- दलित चेतना साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार?, रमणिका गुप्ता, समीक्षा प्रकाशन, दिल्ली
- परम्परागत वर्ण व्यवस्था और दलित साहित्य, साक्षान्त मस्के, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
वेब लिंक्स
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- http://www.pakhi.in/dec_11/mulyankan_vicharon_ki_parakh.php
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE_/_%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE
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- https://www.youtube.com/watch?v=dtLoL7myNyE
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- https://www.youtube.com/watch?v=cWNzpokMDgc
- https://www.youtube.com/watch?v=cB2c3hdvsaE
- https://www.youtube.com/watch?v=kVMuMQ2gwhc