25 फुलवा और उपमहाद्वीप
किशोरी लाल रैगर
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- फुलवा और उपमहाद्वीप कहानी का कथ्य समझ पाएँगे।
- दलित जीवन की समस्याओं एवं संघर्षों से अवगत हो पाएँगें।
- दलित समाज में शिक्षा से आए बदलाव का स्वरूप समझ पाएँगें।
- प्रस्तावना
जीवन की गतिशीलताओं, विसंगतियों, उद्भावनाओं, विद्रूपताओं, अन्तर्विरोधों एवं जटिलताओं के प्रति कोई रचनाकार कितना सजग एवं संवेदनशील होता है, यह उसकी व्यापक समझ पर निर्भर करता है। आज का दलित साहित्यकार इन सबकी ओर अत्यन्त सजग है। दलित साहित्य को व्यापकता एवं परिपूर्णता देने में वैसे तो साहित्य की सभी विधाओं में लेखन हो रहा है, किन्तु जिस यथार्थ रूप में दलित जीवन की उभरती चेतना कहानी में प्रकट हुई है, उतनी तल्खी से अन्य विधाओं में प्रकट नहीं हुई। समकालीन परिदृश्य में दलित कहानियाँ तेजी से उभरी हैं, इसमें कई दलित कथाकारों ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाई है। जब दलित कथाकारों की बात आती है, तो इनमें ओमप्रकाश वाल्मीकि, रत्नकुमार साम्भरिया, मोहनदास नैमिशराय, एन.सिंह, कुसुम वियोगी, सूरजपाल चौहान, दयानन्द बटोही, अजय नावरिया, जयप्रकाश कर्दम, श्यौराज सिंह बेचैन, सुशीला टाकभौरे, कुसुम मेघवालआदि का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। ये दलित कहानीकार भारतीय समाज व्यवस्था व उसके परिवेश की गम्भीर चुनौतियों से टकराकर हिन्दी कहानी को एक नया रूप प्रदान करते हैं तथा समाज व्यवस्था की पोल खोलकर रख देते हैं, जिनकी झलक हमें प्रेमचन्द की कुछ कहानियों में भी मिलती है। दलित समाज के लिए जाति एवं वर्ण व्यवस्था एक गम्भीर चुनौती रही है। दलित कथाकारों ने उसी व्यवस्था की विसंगतियों में पिस रहे दलित समाज की पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति इन कहानियों के माध्यम से की है। “दलित कहानी ने समस्याओं से मुठभेड़ की है। अपने सृजनात्मक, आक्रोशित स्वर को यथार्थ की भूमि पर खड़ा करके बदलाव के नए आयाम स्थापित किए हैं। यथार्थ की संघर्ष स्थितियों, सामाजिक विषमताओं, भेदभाव, अन्तर्विरोधों को चित्रित करने की प्रवृत्ति उसने किसी दबाव या प्रतिक्रिया के तहत ग्रहण नहीं की है, बल्कि यह उसका अपना स्वाभाविक और वस्तुनिष्ठ स्वरूप है। आवेगपूर्ण विरोध के द्वारा परिवर्तन की पक्षधरता उसका जीवन-मूल्य है।’’ (ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृ. 110-111)
इस पाठ में रत्नकुमार साम्भारिया की कहानी फुलवा और अजय नावरिया की कहानी उपमहाद्वीप का अनुशीलन इन्हीं प्रसंगों में करेंगें।
- फुलवा कहानी का कथ्य
रत्नकुमार साम्भरिया की फुलवा कहानी का प्रकाशन राजेन्द्र यादव द्वारा सम्पादित पत्रिका हंस के मई 1997 के अंक में हुआ। अब यह कहानी उनकी दलित समाज की कहानियाँ में संकलित है। उस समय दलित लेखन जोरदार शब्दों में अपनी दस्तक देने लगा था। प्रकाशन के साथ ही इस कहानी ने दलित कहानी में अपनी महत्त्वपूर्ण पहचान बना ली। दलित कहानी की चर्चा कहीं भी होगी तो फुलवा की चर्चा अवश्य होगी। इसलिए फुलवा न केवल इनकी कहानी की चरित्र नायिका है, अपितु वह दलित समाज व उसकी चेतना की प्रणेता भी हैं। फुलवा प्रतीक है उस संघर्ष का जो बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने दलितों में फूँका था। दलित चेतना का मूल मन्त्र ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो तथा संघर्ष करो’ है। इसमें भी यदि दलित समाज के प्रत्येक व्यक्ति ने शिक्षा ग्रहण कर ली तो अन्य बातें अपने आप ही अनुकूल हो जाती है, क्योंकि डॉ.अम्बेडकर के अनुसार ‘शिक्षा शेरनी का दूध होती है।’ इसी से सदियों की गुलामी से दलितों को मुक्ति मिल सकती है। फुलवा कहानी में साम्भरिया ने इसी शिक्षा के महत्त्व को प्रतिस्थापित कर सामन्ती दर्प के फन को कुचला है। कहानी पर विचार करने से पहले इसके कथानक को संक्षेप में समझना होगा। गाँव के दलित परिवार की फुलवा, जो वैवाहिक जीवन के प्रारम्भ में ही विधवा हो जाती है, जमीन्दार की टहलुवाई कर अपना और अपने बेटे का पेट भरती है। उसके मानस में एक ही बात रहती है कि वह अपने एक मात्र बेटे को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाना चाहती है और इसमें वह सफल भी होती है। पढ़-लिखकर उसका बेटा राधामोहन पुलिस का बड़ा अधिकारी, यानी एस.पी. बन जाता है और वह अपनी माँ को साथ लेकर शहर में बड़े ठाट-बाट व अधिकार भाव से रहता है। फुलवा के गाँव का ही जमीन्दार रामेश्वर सिंह अपने बेटे की नौकरी के बहाने फुलवा के शहर आता है। वह फुलवा के घर आकर उसके ठाट-बाट, मकान की साज-सज्जा, उपलब्ध सुविधाएँ आदि देखकर हक्का-बक्का हो जाता है। फुलवा भी उसकी आँखों में अंगुली डाल-डालकर अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि करने वाली हर चीज उसे दिखाकर अपनी भव्यता प्रकट करती है। यहाँ ‘रस्सी जल गई, पर ऐंठन नहीं गई’ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए रामेश्वर सिंह का जात्याभिमान जाग्रत हो जाता है। उसे फुलवा की पुरानी स्मृतियाँ प्रकट होने लगती है, अतीत की उन स्मृतियों में फुलवा की जाति को ध्यान में रखकर, वह दाँत दर्द का बहाना करके फुलवा के यहाँ से बिना कुछ खाए पीए, उसी गाँव के शहर में आ बसे पण्डित माता प्रसाद के घर आ जाता है। जब वह पण्डिताइन से अपने बेटे की नौकरी पर लगवा देने की चिरौरी करता है, तो पण्डिताइन उसे फुलवा की बहू के पाँव पकड़कर फुलवा के एस.पी बेटे की सिफारिश से काम बनाने की सलाह देती है। रामेश्वर का जात्याभिमान ऐसा नहीं करने देता। रात को पण्डिताइन के घर असुविधा के रहते उसे नीन्द नहीं आती। वह रात के अन्धेरे में उठता है और फुलवा की कोठी की ओर चल पड़ता है। वस्तुतः रामेश्वर का हृदय परिवर्तन हो जाता है। यही सामाजिक रूपान्तरण का सन्देश है।
- फुलवा कहानी की अन्तर्वस्तु
इस संक्षिप्त से कथानक के माध्यम से लेखक ने दलित चेतना सम्बन्धी कई बातों का खुलासा किया है। सबसे पहले उन्होंने गाँव और शहर के सामाजिक स्तर के अन्तर को स्पष्ट कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि गाँव सामन्तशाही के अड्डे रहे हैं और आज भी हैं। “डॉ. अम्बेडकर ने गाँव को भारतीय गणतन्त्र की अवधारणा का शत्रु माना था। उनके अनुसार हिन्दुओं की ब्राह्मणवादी और पूँजीवादी व्यवस्था का जन्म भारतीय गाँव में ही होताहैं।डॉ.अम्बेडकर का कहना है कि भारतीय गाँव हिन्दू-व्यवस्था के कारखाने हैं। उनमें ब्राह्मणवाद, सामन्तवाद और पूँजीवाद की साक्षात् अवस्थाएँ देखी जा सकती हैं। उनमें स्वतन्त्रता, समता और बन्धुत्व के लिए कोई स्थान नहीं हैं। भारतीय गाँव ब्राह्मणों के लिए स्वर्ग हो सकते हैं, परन्तु दलितों के लिए तो वे नरक ही है।’’ (दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ. 31)
अतः दलितों को जितना हो सके उतना जल्दी शिक्षित होकर गाँव से शहर की ओर उन्मुख होना चाहिए। कहानी का यह उद्धरण देखिए- “गाँव में रामेश्वर की फूँक से घास जल उठती है। शहर आकर दो कौड़ी का हो गया रामेश्वर! शहर मजाक की आँखों में देखता है, उसे जैसे वह रामेश्वर नहीं, कोई विचित्र जीव हो।’’ (दलित समाज की कहानियाँ, फुलवा, रत्नकुमार साम्भरिया, पृ.17) शहर आकर सामन्ती अभिमान किस तरह पानी-पानी हो जाता है, लेखक ने इसे बडी शिद्दत से प्रकट किया है। इतना ही नहीं जिस गाँव में पण्डित जी की तूती बोलती थी, वही पण्डित शहर में गुमनाम जीवन जीने को विवश है। जब रामेश्वर शहर में पण्डित माता प्रसाद के मकान को ढूँढता है, तो गली-गली थाह लेने के बाद भी उसे पण्डित जी का घर नहीं मिलता। इस पर कथाकार की टिप्पणी देखिए- “समूचा गाँव पण्डित जी को ढोक देता था, शहर आकर बौने हो गए। ऐसे बौने, कोई जानता तक नहीं हैं।’’ (वही, पृ. 17-18) लेखक ने इस प्रकार अपनी बात कहकर जात्याभिमान व सामन्तशाही पर गहरा प्रहार किया है।
कहानी को विस्तार देने के लिए कथाकार ने फुलवा की अतीत की स्मृति को रामेश्वर के जेहन में प्रस्तुत किया है कि जिस फुलवा की जाति वालों को गाँव में जमीन्दार अपने कुओं पर नहीं चढ़ने देते थे, जो फुलवा उनके खेत में टहलुवाई करती थी, वह आज अपने बेटे को शिक्षित करवाकर इतनी बदल गई। यहाँ उसका वैभव देखते ही बनता है। यहाँ कथाकार ने शिक्षा के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। शिक्षा जहाँ व्यक्ति में समझ पैदा करती है,वहीं समाज में समानता का अधिकार देकर प्रतिष्ठा पैदा करती है। शिक्षा के बल पर ही दलित फुलवा का बेटा पुलिस में बड़ा अधिकारी बना है, जिसकी बदौलत समाज में उसकी प्रतिष्ठा बनती है, तथा जाति-पाँति के भेदभाव टूटते दृष्टिगत होते हैं। फुलवा की बहू सन्ती का बिना घूँघट रामेश्वर से अभिवादन करना, जहाँ सामन्तवाद को तमाचा है,वहीं दूसरी ओर जब फुलवा पण्डिताइन परती के घर जाती है, तो पण्डिताइन द्वारा फुलवा को अपने बराबर खाट पर बैठना और खाट के भी सिरहाने बैठाना जातीय रूपान्तरण की बड़ी पहल है। पहली बात तो गाँव में दलित न तो पहले और न ही आज भी ब्राह्मणों के साथ खाट पर बैठ सकते हैं। पर कथाकार ने ऐसी पहल कर ब्राह्ममणवादी जाति व्यवस्था की धज्ज्यिाँ उड़ा दी है, और ऊँच-नीच की कुत्सित व्यवस्था पर तमाचा मारा है। संदेश दिया है कि पद व पैसे के आगे जातिवाद का अहम् इस तरह भागता नजर आता है, जैसे खरगोश के सिर से सींग। रामेश्वर अपनी संकीर्णता एवं जात्याभिमान का परिचय देते हुए पण्डिताइन से कहता है कि उसने फुलवा के घर का पानी तक नहीं पिया क्योंकि उसकी दृष्टि में भले ही फुलवा सोने की हो जाए, रहेगी वह अपनी जाति की ही। इस पर रामेश्वर पर पण्डिताइन का तमाचा देखिए – “तू तो कुएँ का मेंढक ही रहा रामेसरिया। अब तो पद और पैसे का जमाना है, जात-पाँत का नहीं।’’ (वही, पृ. 27) पण्डिताइन का यह कथन एक ओर सामाजिक रूपान्तरण की ओर संकेत करता है तो दूसरी ओर एक गहरे विमर्श को भी जन्म देता है कि इस वास्तविकता को अब सवर्णों द्वारा भी स्वीकार किया जाना चाहिए। पद और पैसे के आगे जातिवाद समाप्त होते दिखता है। दूसरी ओर लेखक ने शहर और गाँव के अन्तर को भी स्पष्ट किया है। फुलवा रामेश्वर की अपनी नौकरानी कुँवर के सम्बन्ध में कहती है – “हमने तो आज तक बेचारी से पूछा नहीं, किस जात की है। खुद ही कहती है, राजपूत हूँ। शहर में दो ही जात होती है, अमीर और गरीब।’’ (वही, पृ. 23) फुलवा के माध्यम से प्रकट किया गया कथाकार का यह दृष्टिकोण बाबा साहेब अम्बेडकर के सपने को साकार करता प्रतीत होता है तथा दलित चेतना के नए सन्दर्भों की ओर संकेत करता है। यद्यपि शहर में भी जातिवाद है, गाँव जैसा नहीं। अतः कथाकार का यह दृष्टिाकोण सदियों से आई तिरस्कार की परम्परा को खारिज कर दलितों में साहस, सम्बल और स्वाभिमान पैदा करता है तथा दलित अस्मिता का बोध करवाता है।
इस कहानी की कथानायिका फुलवा जीवट वाली महिला है। जवानी में ही वैधव्य की पीड़ा के साथ अछूत होने के दर्द को वह झेलती है, लेकिन बावजूद इसके वह गिड़गिड़ाने वाली, समझौता-परस्त व पलायनवादी नहीं। वह परिस्थितियों से समझौता नहीं करती उनसे खुले टक्कर लेती है, जिसमें वह विजयी होती है। दलित महिला होने के बावजूद वह दलितत्व को आडे़ नहीं आने देती। वह शिक्षा को मूल मन्त्र समझती है तथा एक ओर सामन्तवाद से मुक्त होती है, तो दूसरी ओर अपने बेटे को शिक्षित बनाकर बड़े पद पर प्रतिष्ठित करती है। दलित कहानी के नायक के सम्बन्ध में स्वयं लेखक का विचार है कि “जीवट दलित कहानी के पात्रों में होना चाहिए तथा समाज के नए ‘नायकत्व’ की स्थापना में अपने आपको सिद्ध करने के लिए, उसमें हर पल संघर्ष की तमन्ना होनी चाहिए।’’ (दलित समाज की कहानियाँ, रत्नकुमार साम्भारिया, पृ. 11)
संघर्ष की इस तमन्ना ने ही फुलवा को नायकत्व प्रदान करते हुए, इस कहानी को चरित्र प्रधान बनाया है, जिसमें फुलवा दलित समाज की प्रेरणा-स्रोत है। स्त्री, और उस पर भी विधवा होना कहीं आड़े नहीं आता। फुलवा रूढ़िवादी सोच को नेस्तनाबूद कर शोषकों, उत्पीड़कों, सामन्तवाद और ब्राह्मणवाद को गहरी चुनौती देती है। यही इस कहानी की सबसे बड़ी सफलता है।
- फुलवा कहानी का शिल्प
शैल्पिक दृष्टि से यह कहानी अत्यन्त सम्प्रेषणीय है। इसमें वर्णनात्मकता एवं विश्लेषणात्मकता समान्तर रूप में देखने को मिलती है। प्रकृति-परिवेश व स्थानों का चित्रण, वर्णनात्मक शैली में है तथापात्रों का चरित्रांकन विश्लेषाणत्मक शैली में, जिसमें लेखक सफल हुआ है। कहानी की भाषा सहज व सरल है, तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है,पर वह अधिकतर बोलचाल के शब्दों से ही गूँथा हुआ है। भाषा में रवानगी एवं प्रवाह है, जो कथानक को गति देता हुआ उसे फलागम तक पहुँचाता है।
कहा जा सकता है कि रत्नकुमार साम्भरिया की फुलवा कहानी दलित चेतना का अलख जगाने वाली एक सशक्त कहानी है। सामन्तवादी सवर्ण मानसिकता के दर्प को यह कहानी सहजता से तोड़ती प्रतीत होती है। कहानीकार का कथा कहने का ढंग ऐसा मजबूत है कि वे लचकदार भाषा के साथ मौलिक मुहावरों व प्रचलित कहावतों के माध्यम से अपनी बात पाठकों तक सम्प्रेषित करता है। जिस बात को कहने में बडे़-बड़ों का पसीना छूटता है, उसको साम्भरिया सहज में ही उलीच देते हैं। वस्तुतः सच्ची एवं अनुभूत बात कहने में बड़ी हिम्मत चाहिए और यह हिम्मत उनकी चरित्र नायिका फुलवा में है। फुलवा सकारात्मक सोच रखने वाली जीवट की स्त्री है। प्रतीत होता है कि उसने डर पर विजय पा ली है। अपनी बात बेधड़क कहती है। फुलवा के चरित्र की यही सबसे बड़ी विशेषता है। सामाजिक रूपान्तरण को सही मायने में प्रस्तुत करने वाली यह सशक्त कहानी है, रचना की दृष्टि से भी और शिल्प की दृष्टि से भी।
- ‘उपमहाद्वीप’ कहानी का कथ्य
हंस पत्रिका के दलित विशेषांक में अगस्त 2004 में अजय नावरिया की कहानी ’उपमहाद्वीप’ प्रकाशित हुई थी। अब यह कहानी लेखक के कहानी संग्रह ‘पटकथा और अन्य कहानियाँ’में संकलित है। अपने प्रकाशन के दिनों से ही यह कहानी दलित विमर्श को नये सन्दर्भ देने के अर्थ में चर्चित रही है। इस कहानी का शीर्षक प्रतीकात्मक है। उपमहाद्वीप भारत का प्रतीक है। यह देश न द्वीप है, न महाद्वीप, बल्कि उपमहाद्वीप के नाम से जाना जाता है। भौगोलिक दृष्टि से यह देश तीन ओर से समुद्र से घिरा है। जिसमें छोटे-बड़े कई राज्य सम्मिलित हैं। यह राज्यों एवं संघ क्षेत्रों का समूह है। सामाजिक व्यवस्था के स्वरूप की दृष्टि से इस देश में कई जातियाँ व उपजातियाँ है। उनमें परस्पर उच्चता व निम्नता का भाव बना हुआ है। प्रत्येक जाति एक द्वीप बनी हुई है, जिनकी अपनी-अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक विलक्षणताएँ हैं। इन जातीय द्वीपों के समूह के रूप में ही भारत देश उपमहाद्वीप के रूप में जर्जर समाज व्यवस्था को ढोए जा रहा है। इस उपमहाद्वीप की जातीय व्यवस्था के नियम इतने संकीर्ण और निर्मम हैं कि तथाकथित उच्च जातियाँ निम्न कही जाने वाली जातियों पर सदियों से अत्याचार करती रहती है। इस कहानी के माध्यम से नावरिया ने जाति व्यवस्था की मार झेल रहे दलित समाज की दारुण यन्त्रणा का कारुणिक चित्र प्रस्तुत किया है तथा उससे बाहर निकलने का उपाय भी बताया है। कथानायक सिद्धार्थ निर्मल के अतीत चिन्तन से कहानी शुरू होती है। सिद्धार्थ शहर में किसी बडे़ सरकारी संस्थान में मार्केटिंग मैनेजर के पद पर कार्यरत है। गाँव में उनकी ताई के लड़के की शादी है। उसकी पत्नी व बेटी इस शादी के बहाने गाँव देखने की जिज्ञासु हैं। इसी बात को लेकर कथानायक अतीत में चला जाता है। जहाँ उसे अपने माता-पिता व समाज पर होने वाले दारुण अत्याचारों की तस्वीर चलचित्र की भाँति मानस पटल पर उभरती दृष्टिगत होती है। उसे स्मृत होता है कि किस तरह बिना किसी कारण के गाँव में उनके पिताजी को सवर्ण समाज के ठेकेदारों द्वारा बेरहमी से पीटा जाता था, उसकी माँ को थूक चाटने पर मजबूर किया जाता था। लुटेरे उनसे पैसे भी छीन लेते थे। गाली-गलोच, मार-पीट, छीना-झपटी कर उन्हें बेइज्जत किया जाता है। उसे स्मृत होता है की भीमा की शादी में किस तरह गाँव के दबंग जातिवादी लोगों ने दूल्हे को घोड़ी से उतारकर बारात के साथ मारपीट की थी और दलित जब थाने में उस त्रासदी की रपट लिखाने गए तो थानाधिकारी ने दलितों को गाली-गलोच कर रपट लिखने से मना कर दिया था, और उन्हें थाने में बन्द करने की धमकी देकर भगा दिया था। कथानायक को गाँव व शहर का अन्तर समझ में आता है। उसने निश्चय किया कि वे अपनी पत्नी व बेटी को ‘गार्गी’ नहीं ‘अम्बपाली’ का मनोबल सिखाएगा। उन्हें स्मृत होता है कि उनके स्वयं के कार्यालय में भी एस.सी. के साथ किस तरह का भेदभाव होता है। अन्त में जब उसकी तन्द्रा टूटती है और पत्नी के यह पूछने पर कि उन्हें गाँव में ताई जी के लड़के की शादी में जाना है अथवा नहीं, तो कथानायक गाँव लौटने का निश्चय करता है कि उन्हें गाँव “जाना तो होगा ही। नहीं जाएँगे तो हम मर जाएँगे।’’ (पटकथा और अन्य कहानियाँ, पृ. 50) पर कथानायक गाँव लौटने के साथ अपनी सुरक्षा का बन्दोबस्त भी करके जाता है। वह अपनी लाईसेन्सी रिवाल्वर साथ लेकर जाता है।
- उपमहाद्वीप कहानी की अन्तर्वस्तु
उपमहाद्वीप कहानी इतिहास के उन गहरे जख्मों से शुरू होती है जो बर्बरता के निर्मम उदाहरण है। उन्होंने अतीत की सुरंग से बार-बार लौटते भेड़ियों का जिक्र किया है। ये भेड़िये समय-समय पर हूण, कुषाणों के रूप में प्रकट हुए थे, तो आधुनिक काल के इतिहास में हिटलर जैसे तानाशाही के रूप में उभरे हैं, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध का क्रूरतम रूप दुनिया को झेलने को विवश किया। ये भेड़िये इस कहानी में सामन्तवादी व ब्राह्मणवादी आतताइयों के रूप में प्रकट हुए हैं, जिन्होंने दलितों के साथ बर्बरतापूर्वक अत्याचार किया। लेखक कहती है कि अत्याचारों और निर्ममता की काली रात में ये भेड़िये निरीह लोगों पर बर्बरतापूर्वक आक्रमण करते हैं, लेकिन जब विस्तृत नभ में चेतना की लाली फूटती है और शिक्षा व संघर्ष का सूर्योदय होता है तो ये जातिवादी, मनुवादी भेड़िये भाग खड़े होते हैं तथा भेड़ की तरह अशक्त हो जाते हैं। कहानी में बीच-बीच में आई इस तरह की प्रतीकात्मकता कहानी को दलित चेतना का संवाहक बनाकर पाठकों में प्राण फूँकने का काम करती है।
रत्नकुमार साम्भरिया की कहानी फुलवा की तरह अजय नावरिया ने भी इस कहानी में गाँव और शहर के अन्तर को अभिव्यक्त किया है। उन्होंने लिखा है–“इधर गाँव है, हमारी जड़ें, हमारी जमीन, जहाँ जलालत है, अपमान है, लाचारी और बेबसी है। हर पल बेइज्जत होने का डर है, हर क्षण छोटे होने का एहसास है। दूर-दूर तक रेत है, पानी से निचुड़ी, जहाँ हमारे लिए न थाना-पुलिस है, न अस्पताल, न कचहरी। गाँव की पंचायत है, पर वह हमारी नहीं है। उस पंचायत में हमारे लिए न्याय नहीं है। सुनवाई नहीं है। सिर्फ उपहास है। वहाँ खेत न थे। जमीन न थी हमारी, बस मेहनत थी। फसल उनकी थी, खेत उनके थे, घर उनके थे, धरती उनकी थी, हमारे पास एक झोंपड़ी थी। हमारे पास सिर्फ नमक था, मिर्च थी। आधे पेट के लिए रोटी थी, आधे के लिए पानी था। पर कुआँ नहीं था। हमारे पास नया कपड़ा नहीं था। जूती नहीं थी।’’ (उपमहाद्वीप, अजय नावरिया, पटकथा व अन्य कहानियाँ, पृ. 48) इस उद्धरण में दलित जीवन की त्रासदक् स्थिति का बड़ा ही कारुणिक किन्तु यथार्थ चित्रण कहानीकार ने किया है, जिससे सहृदय पाठकों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बाबा साहब डॉ. अम्बेड़कर ने इसीलिए गाँवों को सामन्तवाद, ब्राह्मणवाद व विषमता का गढ़ कहा है, जहाँ दलितों की तनिक भी इज्जत नहीं, बस वहाँ इनके हिस्से केवल दरिद्रता व बेचारगी है। अब कथाकार की शहर सम्बन्धी मान्यता भी देखिए–“इधर शहर है, जहाँ एक बडे़ सरकारी संस्थान में मैं मैनेजर हूँ। एक अधिकारी मिस्टर सिद्धार्थ निर्मल, मार्केटिंग मैनेजर। मेरी पत्नी की काँलेज लेक्चरार की नौकरी है। हमारे पास घर है। मेरा और मेरी पत्नी का एक कमरा, बेटी के लिए एक अलग कमरा, मेहमानों के लिए बैठक और पढ़ने के लिए एक स्टडी रूम। जब बेटी बीमार थी। तब डॉक्टर पुंज को फोन करके घर बुलाया था मैंने।… यहाँ हमारे सामने, हमारे लिए सिर्फ मुस्कराहटें हैं, हमारी कोई हँसी नहीं उड़ा सकता। यहाँ पुलिस हैं। यहाँ महँगा वकील है, शहर के इस नितान्त अपरिचित संसार में हमारे लिए सुख-ही-सुख है। अनवरत, ता उम्र। यह अपरिचय हमारे इन्द्र धनुषी सपनों में लगातार रंग भरता है।’’ (वही, पृ. 48-49)
दलितों को गाँव में आज भी उपेक्षा, उत्पीड़न व अत्याचार का शिकार होना पड़ता है। अजय नावरिया ने इस कहानी में दलित जीवन की त्रासदी का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है। बात-बात में दलितों को प्रताड़ना एवं गाली-गलौच का सामना करना पड़ता है। गाँव के सामन्तवादी लोग कथानायक के पिता की पिटाई कर रहे थे। उस समय बीच-बचाव करने कथानायक की माँ आती थी। उसके साथ भी गाली गलौच की जाती थी। “बड़े आए तेरे बच्चे! साली राँड! तूने पैदा किए होंगे ये? पण्डित जी इसके नहीं है ये! इसके यार के हैं, हरकू का है यह हरामजादा!’’ पिताजी की तरफ उँगली करते हुए उसने कहा था। “बडे़ बुजरग सही कह गए हैं पण्डित जी कि राँड और साँड का इतबार नहीं करना चाहिए।’’ (वही पृ. 43) दलितों को जीवन में मिला ही क्या है? दुत्कार, मारपीट व गाली-गलौच। मानो ये सब उनके जवीन की विडम्बना ही बन गई है।
यदि दलितों में किसी तरह चेतना जाग्रत हो भी जाती है, तो उन्हें धर्म व भगवान का भय दिखाकर वहीं लौटने को विवश कर दिया जाता है। भीमा की शादी में दूल्हे की जिद पर उसे घोड़ी पर बिठाया गया, लेकिन गाँव के सवर्णों ने इसका विरोध किया। बारात के साथ मार-पीट हुई। दलित हारे हुए से प्रतीत होने लगे। इस घटना पर दूल्हे के दादा ने सवर्णों से क्षमा याचना की, लेकिन पण्डित ने उसे भगवान का भय दिखाकर और भी डराते हुए कहा–“धरम-ईमान का नाश करने पर तुला है। तेरी बिरादरी ने नहीं समझाई तुझे यह बात। तू हैजा-प्लेग फैलाएगा गाँव में। सूखा पडे़गा, देख लेना इस बार! गाँव की परम्परा तोड़ी है, हजारों साल की इसने। इसका पातक लगेगा गाँव को। गूजरों के गाँव में यह अधर्म। कलजुग है, कलजुग।’’ (वही पृ.45) इस तरह ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषक कृत्रिम भय पैदा कर दलित चेतना का गला घोंटते रहते हैं, परिणामस्वरूप दलितों के साथ मार-पीट होती है। विडम्बना यह देखिए कि इस तरह के अत्याचारों की थानों में रपट दर्ज नहीं होती, क्योंकि थाने भी दबंगों, सामन्तवादियों और ब्राह्मणवादियों की गिरफ्त में हैं। थाने में भी दलितों को यही सुनने को मिलता है–“भाग जाओ यहाँ से हरामजादों! खाने को तुम्हारे पास है नहीं। गहने-जेवर लूटेंगे तुम्हारे। यहीं बन्द कर दूँगा सबको। एक-एक से चक्की पिसवाऊँगा। भैनचो, इज्जतदार लोगों की इज्जत पर बटा लगाने चले आए यहाँ पर।’’ (वहीं, पृ. 47) भारत की स्वाधीनता के अड़सठ वर्ष पश्चात आज भी दलितों के साथ इस तरह की दुर्घटनाएँ आम बात हो गई हैं। विडम्बना यह है कि इस जातिवादी जहर को सींचने वाले ब्राह्मणों के साथ वे जातियाँ भी हैं, जिन्हें धर्म शास्त्रों में शूद्र कहा गया है, पर उन जातियों में सामन्तवाद कूट-कूट कर भरा हुआ है।
अतीत की इन दुर्घटनाओं तथा दलितों के धूमिल इतिहास से सीख लेकर ही कथानायक जब अपनी ताई के लड़के की शादी में गाँव लौटना चाहता है, तो आत्मरक्षा के लिए वह अपने साथ पिस्तौल ले जाना चाहता है। अपनी रक्षा के लिए शस्त्र उठाना उचित है या अनुचित, यह बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन जब दलितों को न समाज सुरक्षा दे रहा है, न पुलिस प्रशासन, तो ऐसे में दलितों को क्या करना चाहिए? यह प्रश्न विचारणीय है। यहाँ लेखक ने दलित अस्मिता पर खतरे की ओर संकेत किया है। उनकी दृष्टि में दलित अस्मिता तब ही बचाई जा सकती है,जब दलित स्वयं सचेत होंगे, भले ही आत्मरक्षा के लिए उन्हें स्वयं अस्त्र-शस्त्र उठाने पड़ें। दलित अस्मिता के लिए गठित मिलिटेण्ट संगठन ‘दलित पैन्थर’ अपने घोषणा पत्र में इसी बात का समर्थन करता है। दूसरी ओर कथानायक का गाँव जाने का निर्णय दलित अस्मिता की रक्षा के लिए उचित है क्योंकि यदि दलितों में पढे़ लिखे लोग गाँव को भूल जाएँगें तो फिर गाँवों में दलित चेतना कैसे जाग्रत होगी?
वस्तुतः यह कहानी दलित समस्याओं के कई अनुत्तरित प्रश्नों का उतर देती हुई प्रतीत होती है। जब यह कहानी प्रकाश में आई, तो कई दलित लेखकों तक को पच नहीं पाई, क्योंकि उनकी दृष्टि में इस कहानी में दलित-आलाप के सिवा कुछ नहीं था। किन्तु सूक्ष्मता से विश्लेषण करने पर यह कहानी दलित चेतना की प्रखर कहानी प्रतीत होती है। यह कहानी जहाँ एक ओर दलित जीवन की नारकीय विभीषिकाओं की सचाई प्रकट करती है,वहीं दूसरी ओर दलित अस्मिता की तलाश के लिए व्यापक स्तर पर अपने अधिकारों के प्रति सजगता भी प्रकट करती है।
- उपमहाद्वीप कहानी का शिल्प
भाषा और शिल्प की दृष्टि से यह मजबूत कहानी है। इसमें जहाँ एक ओर दलित जीवन की विभीषिका चित्रित की है, वहीं ठेठ ग्रामीण शब्दावाली के प्रयोग से कहानी को यथार्थ की ओर ले जाने की चेष्टा है। लेखकीय चिन्तन प्रस्तुत करते हुए सहज-सरल भाषा के साथ तत्सम शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। कुछ आलोचक इस कहानी के साथ-साथ कई अन्य दलित रचनाओं पर अश्लीलता का आरोप लगाते हैं। नावरिया ने दलित जीवन की त्रासदी का चित्रण करते हुए सवर्ण समाज द्वारा दलितों को दी गई गालियों का भी स्पष्ट चित्रण किया है। इसे आलोचक साहित्य की विद्रूपता व भदेसपन मानते हैं, लेकिन दलितों के लिए सारा समाज ही विद्रूप व भदेस है, फिर लेखक इतिहास की उन बर्बरताओं से अपने आप को कैसे बचा सकता है। इसलिए कथा में आई गालियाँ, वे गालियाँ हैं जो दलित सदैव से सवर्ण समाज से सुनते आए हैं। अतः बर्बर समाज के सच को उगलने के लिए लेखक का यह प्रयोग प्रशंसनीय भले ही न हो, कथावस्तु की जरूरत तो है! स्थान-स्थान पर प्रतीकों, मिथकों और बिम्बों का प्रयोग सराहनीय है।
इस कहानी में भेड़ियों का बार-बार उल्लेख हुआ है। यहाँ पर भेड़िये बर्बर संस्कृति के प्रतीक हैं, जो जंगल राज को जन्म देते हैं। दलितों के लिए भेड़िये सवर्ण समाज के वे लोग हैं, जो उन पर क्रूरता-पूर्वक अत्याचार करते हैं तथा दलितों की दयनीय स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं।
सारांशत; उपमहाद्वीप कहानी एक ऐसी रचना है, जिसके माध्यम से लेखक ने दलित उत्पीड़न को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया है। यह कहानी सामाजिक विसंगति, भेदभाव व अन्तर्विरोधों को बेबाक रूप से प्रस्तुत करती हैं। जातियों के द्वीपों से निर्मित भारतीय उपमहाद्वीप की यह तल्ख सचाई है कि उसकी समाज व्यवस्था को जातियाँ घुन की तरह खा रही हैं। दलित अस्मिता की रक्षा जातियों की समाप्ति से ही सम्भव है और इसके लिए दलितों को आत्मरक्षा के उपाय ढूँढने ही होंगे।
- निष्कर्ष
आज दलित कहानियाँ अपनी रचनात्मकता के साथ खूब लिखी जा रही है।रत्नकुमार साम्भरिया की फुलवा और अजय नावरिया की उपमहाद्वीप कहानी इसके उदाहरण हैं। वस्तुतः दलित कहानियाँ बदलते हुए सामाजिक परिदृश्य में यथार्थ चित्रण की एक विशिष्ट धारा के रूप में सामने आई है, जो हमें कल्पना लोक एवं रोमानी संसार से मुक्त करवाकर सामाजिक विद्रूपताओं और उनकी तल्ख सचाइयों का बोध कराती है। ये कहानियाँ जहाँ एक ओर दलित जवीन, उन पर होने वाले अत्याचारों की करुण कहानी बयाँ करती है, तो दूसरी ओर दलित समाज को उन समस्याओं से मुठभेड़ करने को भी उद्यत करती है। इन कहानियों ने भारतीय समाज व्यवस्था की बर्बरता की पोल खोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इनके मूल में बाबा साहेब अम्बेडकर की प्रेरणा रही है। अतः दलित अस्मिता की रक्षा और दलित चेतना जाग्रत करना इनका मूल उद्देश्य है। भाषा और शिल्प की दृष्टि से ये कहानियाँ नए आयाम स्थापित करने वाली हैं, जिनकी अपनी भाषा, मुहावरे, प्रतीक व बिम्ब है। अन्त में यही कहा जा सकता है कि कुछ सीमाओं के बावजूद ये दोनों कहानियाँ दलित चेतना की सक्रिय कहानियाँ हैं।
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अतिरिक्त जानें-
पुस्तकें
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- दलित साहित्य का समाजशास्त्र, हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
- दलित जीवन की कहानियाँ, गिरिराज शरण(संपा.), प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
- दलित जीवन की कहानियाँ, गिरिराज शरण (संपा.), प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
- दलित कहानी संचयन, रमणिका गुप्ता, साहित्य अकादेमी, दिल्ली
- दलित महिला कथाकारों की चर्चित कहानियाँ, डॉ.कुसुम वियोगी (संपादक), साहित्य निधि प्रकाशन, दिल्ली
- दलित चेतना की कहानियाँ बदलती परिभाषाएँ, राजमणि शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- नयी सदी की पहचान, श्रेष्ठ दलित कहानियाँ, मुद्राराक्षस, लोकभारती प्रकाशन, दिल्ली
- ‘हंस’, राजेन्द्र यादव (संपा.)मई 1997
- ‘उपमहाद्वीप’ अजय नावरिया ‘हंस’ अगस्त 2004 के दलित विशेषांक
वेब लिंक्स
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%85%E0%A4%9C%E0%A4%AF_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
- http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=352&pageno=1
- http://www.hindisamay.com/writer/%E0%A4%85%E0%A4%9C%E0%A4%AF-%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE.cspx?id=32&name=%E0%A4%85%E0%A4%9C%E0%A4%AF-%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF_/_%E0%A4%85%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%95_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE