19 दादूदयाल: जीवन और साहित्य

रामबक्ष जाट

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप

  • दादूदयाल की जीवन के बारे में यथासम्भव प्रमाणिक जानकारी प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • उनके विचारों से परिचित हो सकेंगे
  • उनकी कविताओं की प्रकृति समझ पायेंगे।
  1. प्रस्तावना

   दादूदयाल निर्गुण परम्परा के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्होंने मध्यकाल में सामाजिक समानता के पक्ष में वातावरण तैयार किया तथा असमानता की संस्कृति का विरोध किया। अपने मत के समर्थन में उन्होंने कविताओं की रचनाएँ की तथा सामाजिक जागरण के लिए जीवन भर सक्रिय रहे। उनके अनेक शिष्य हुए जिन्होंने बाद में दादू के विचारों का प्रचार किया तथा उनके नाम से दादू द्वारों का निर्माण किया। उनके विचारों का प्रसार उत्तर भारत में हुआ, जहाँ आज भी अनेक दादू पन्थी लोग निवास करते हैं।

  1. जीवन

   हिन्दी के मध्यकालीन भक्तों और सन्तों की तरह दादूदयाल के प्रारम्भिक जीवन के बारे में प्रमाणिक जानकारी का अभाव है। फिर भी विद्वानों ने प्रयास पूर्वक इनके जीवन सम्बन्धी कुछ तथ्यों को संकलित करने का प्रयास किया है। हालाँकि यह निर्विवाद नहीं है। अधिकांश विद्वानों का मत है कि उनका जन्म फाल्गुन सुदी आठ वृहस्पति संवत् 1601 (सन् 1544) और मृत्यु जेठ बदी आठ शनिवार संवत् 1660 (सन् 1603) ई. में हुई। इस तरह उन्हें लगभग 59 वर्ष की आयु प्राप्‍त हुई। एक क्‍व‍िदन्ती के अनुसार दादू कुंवारी ब्राह्मणी की अवैध सन्तान थे, जिन्हें लोक-भय से अहमदाबाद की साबरमती नदी में प्रवाहित कर दिया गया। फिर इनका लालन-पालन एक धुनिया परिवार में हुआ। इसलिए ये अपने आपको ‘पिंजारा’ या धुनिया कहते हैं। दादूदयाल अपने आपको इसी जाति का मानते थे, अतः इस विषय पर अब विवाद करने का कोई कारण नहीं बनता। एक बार किसी ने उनके कुल के बारे में प्रश्‍न पूछ लिया। एक से अधिक बार पूछा होगा, तभी सबको शान्त करने के लिए उन्होंने लिखा –

 

कौण आदमी कमीण बिचारा, किसकौं पूजै गरीब पिंजारा।

 

इसलिए यह निश्‍च‍ित है कि दादूदयाल रूई धुनने वाली पिंजारा जाति के थे। उनकी रचनाओं में इस अनुभव की अभिव्यक्ति हुई है। दादूदयाल साहित्य के जानकार श्री चन्द्रिका प्रसाद त्रिपाठी के अनुसार अठारह वर्ष की आयु की अवस्था तक दादू अहमदाबाद में रहे। बाद में लगभग छः वर्षों तक मध्यप्रदेश में घूमते रहे। इसके बाद वे राजस्थान में आकर साम्भर में बस गए। ऐसा भी कहा जाता है कि दादू ने फतेहपुर सीकरी में अकबर से भेंट की थी। दादूदयाल ने पर्याप्‍त देश भ्रमण किया था। अपने अन्तिम दिनों में वे नरैना (राजस्थान) में रहने लगे, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई।

 

निर्गुण काव्य धाराओं के सभी कवि गुरू की महिमा का बखान करते हैं। दादू ने भी गुरू की आराधना में अनेक रचनाएँ की हैं, लेकिन उनके गुरू कौन थे? इस विषय में अभी तक कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।

 

दादू दयाल शिक्षित थे या नहीं थे, इसकी जानकारी भी नहीं मिलती। धर्म का शास्‍त्रीय अध्ययन उन्होंने किया था, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। इसलिये हम कह सकते हैं कि अन्य सन्तों की तरह उन्हें सत्संग से ही ज्ञान प्राप्‍त हुआ था। इस शास्‍त्रीय ज्ञान के अभाव की कसक दादू की रचनाओं में कहीं कहीं मिलती है।

 

           आगम मो पै जाण्यो न जाई, इहै विमासनि जियड़े माहि।

                                                                                       दादूदयाल ग्रन्थावली, पृ. 469

एक जगह उन्होंने लिखा-

           ना मैं पण्ड़ि‍त पढि़ गुनि जांनौं, ना कुछ ग्यान विचारा।

           ना मैं आगम जातिग जांनौ, ना मुझे रूप सिंगारा।।

                                                                                       दादूदयाल ग्रन्थावली, पृ. 400

 

‘दादूदयाल’ की रचनाओं का प्रारम्भ साम्भर से होना प्रतीत होता है। यहीं से भक्ति अभिव्यक्त होने लगी और वे उपदेश देने लगे होंगे। इस कारण उनके बहुत शिष्य बन गए। इन शिष्यों में समन्वय करने के लिए उन्होंने ‘‘पर ब्रह्म सम्प्रदाय’ की स्थापना की थी, जिसे उनकी मृत्यु के पश्‍चात् ‘दादू पन्थ’ कहा जाने लगा।

 

आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है, ‘‘दादूदयाल जी के देहान्त हो जाने के लगभग सौ वर्षों के अन्दर दादू पन्थ के अनुयायियों की विचारधारा, वे नरैना शभूषा, रहन-सहन तथा उपासना प्रणाली में क्रमशः न्यूनाधिक परिवर्तन आरम्भ हो गया और यह बात प्रधान केन्द्र नरैना तक में दीख पड़ने लगी। नरैना के महन्तों का जैतराम जी (सं. 1750-1789) से अविवाहित रहा करना आरम्भ हो गया, दादू वाणी का उच्‍च स्थान पर रखकर उसका पूजन आरम्भ हो गया, विधिवत आरती एवं भजनों का गान होने लगा, स्वर्गीय सद्गुरू के प्रति परमात्मवाद भाव प्रदर्शित किया जाने लगा तथा साम्प्रदायिकता के भाव में उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली गई। जब तक दादूदयाल जी के रज्जब जी सुन्दरदास जी, बनवारी दास जी जैसे शिष्य जीवित रहे उनकी मूल बातों की ओर लोगों का ध्यान अधिक आकृष्ट रहा। किन्तु इनके भी मर जाने पर जब पृथक-पृथक थाम्भों की प्रतिष्ठा हो चली और उक्त विचारधारा का दूर-दूर तक प्रचार हो चला तो, कुछ स्थानीय विशेषताओं के कारण और कुछ व्यक्तिगत मतभेदों के भी आ जाने से, उप सम्प्रदायों तक की सृष्टि आरम्भ हो गई। दादू मत का मौलिक सार्वभौम रूप क्रमशः तिरोहित-सा होता चला गया और उसकी जगह एक न्यूनाधिक ‘हिन्दू धर्म प्रभावित पन्थ’ निर्मित हो गया।’’ (दादूदयाल ग्रन्थावली, भूमिका पृ. 10)

 

दादूदयाल स्वयं अपनी रचनाओं को लिखते नहीं थे। वे तो सिर्फ उपदेश देते थे। ऐसा माना जाता है कि उनके एक शिष्य मोहन जी दफ्तरी उनकी रचनाओं को संगृहीत करने का काम करते थे। दादूदयाल की रचनाओं का प्रामाणिक पाठ आचार्य परशुराम चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित दादूदयाल ग्रन्थावली माना जाता है। इसमें उनकी कुल 2453 साखियाँ हैं तथा 438 पद सम्पादित किये हुए हैं। आज इसी के माध्यम से हम दादूदयाल को जानते समझते हैं। हालाँकि अन्य ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं।

  1. दादूदयाल के विचार

    दादूदयाल निर्गुण भक्ति परम्परा के कवि हैं अतः उन्होंने निर्गुण परम्परा के विचारों को अपनी रचनाओं में उद्धृत किया है। स्वयं दादू किसी मौलिक विचार को व्यक्त करते हैं, यह दावा दादू नहीं करते। दादू परम्परागत रूप से मान्य विचारों को ही अभिव्यक्त करते हैं।

 

दादू के अनुसार राम है। राम की सत्ता है, परन्तु उसे कोई जान नहीं पाता। इसी राम ने सृष्टि का निर्माण किया है। राम की इस सृष्टि का रहस्य भी हमारी समझ में नहीं आता। उन्होंने एक पद में लिखा-

 

           कादिर कुदरति लषी न जाई, कहाँ तै उपजै कहाँ समाई।। टेक

           कहाँ तै कीन्ह पवन अर पांणी, धरती गगन गति जाइ न जांणि ।।1।।

           कहाँ थै काया ज्ञान प्रकासा, कहाँ पंच मिलि एक निवासा।। 2।।

           कहाँ थै अेक अनेक दिषावा, कहाँ थै सकल एक ह्वै आवा।। 3।।

           दादू कुदरति बहु हेराना, कहाँ थैं राषि रहे रहिमानाँ।। 4।।

                                                                                                       दादूदयाल ग्रन्थावली, पृ. 326

 

कैसे ईश्‍वर ने पवन और पानी बनाया? धरती और आसमान बनाया? एक चाँद बनाया और एक सूरज बनाया? एक को ठण्डा दूसरे को गरम कैसे बनाया होगा? यह कुदरत देखकर दादू हैरान है। न केवल हैरान है, वरन् इस राम का कोई अन्त ही नहीं है। यहाँ तक कि उसके बारे में यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह हल्का है या भारी? उसका नाप-तोल तो कुछ हो ही नहीं सकता।

 

           कीमति लेषा नहीं परबान, सब पचि हारे साधु सुजान।।

           आगौ पीछौं परिमिति नाहीं, केते पाष आवे जाहीं।।

           आदि अन्ति मधि कहै न कोइ। देषै दादू अचिरज होई।।

                                                                                                       दादूदयाल ग्रन्थावली, पृ. 326

 

इस परमात्मा की कीर्ति अपार है और मुझ में इतना सामर्थ्य नहीं है कि मैं उसका वर्णन कर सकूं। वह तो गूंगे के गुड़ के समान है। दादू ने इस परमात्मा के सिर्फ एक ही गुण की ओर इशारा किया है कि वह सर्जनकर्ता है और अद्भुत सर्जनकर्ता है। उस सर्जन के रहस्य को भी हम समझ नहीं पाते। जब उसका रंग, रूप, रेखा कुछ नहीं है। तब उसकी मूर्ति कैसे बनाई जा सकती है? जब मूर्ति नहीं तो उसका कोई मन्दिर या मस्जिद भी नहीं हो सकती। इस तरह धर्म सम्बन्धी समस्त ब्रह्याचारों का खण्डन अपने आप हो जाता है।

 

उस परमात्मा का वर्णन किसी किताब में नहीं हो सकता इसलिए पुस्तकों में लिखा हुआ आध्यात्मिक ज्ञान भी दादू के अनुसार मिथ्या है।

 

           पढ़ि पढ़ि थाके पण्डिता, किनहु न पाया पार।

           कथि, कथि थाके मुनि जनां, दादू नांई अधार।।

                                                                                                          दादूदयाल, पृ. 73

 

युगों से पण्डित पढ़ रहे हैं और पढ़कर थक गए, लेकिन इस रहस्य को नहीं समझ पाए। दादू तो मानते हैं कि जिसको पूजना है वह तो हमारे पास ही है और यहाँ तक कि हमारी देह में वह देवता निवास करता है। यहाँ तक कि धर्म और सम्प्रदाय भी कुछ नहीं है। यदि सारी चीजें विभिन्‍न धर्मों में बँटी हुई हैं तो धरती और आसमान किसके पन्थ में हैं? वे हिन्दू है या मुसलमान।

 

           दादू ए सब किसके पन्थ में, धरती अर असमान।

           पांणी पवन दिन राति का, चन्द सूर रहिमांन।।

                                                                                                           दादूदयाल, पृ. 76

 

दादूदयाल कहते हैं कि हिन्दू अपना मार्ग बताते हैं, तुर्क अपनी राह बताते हैं परन्तु उस अलख का पन्थ हैरान करने वाला है। इस विवाद के बीच दादू का कथन है-

 

           दादू सिरजनहार के, केते नांव अनंत।

           चिति आवैं सो लीजिए, यूं साधू सुमिरै सन्त।।

 

इसलिए दादू साम्प्रदायिक वैमनस्य का विरोध करते हैं। निर्गुण भक्ति की इस परम्परा के अनुरूप वे वेद को प्रमाण नहीं मानते। किसी भी पुस्तक को प्रमाण नहीं मानते। वे अनुभव को प्रमाण मानते हैं। कितने ही लोग वेद और पुराण को पढ़ते-पढ़ते मर गए, लेकिन किसी ने राम को नहीं पहचाना।

 

राम सम्बन्धी यही विचार कबीर आदि पूर्ववर्ती सन्तों में भी मिलते हैं। इसी तरह माया सम्बन्धी परम्परागत धारणा का उल्लेख भी इनकी रचनाओं में मिलता है। दादू मानते हैं कि हमारी यह काया, हमारा घर-परिवार, माता-पिता, भाई-बहिन, जाति-बिरादरी ‘सब झूठा’ है। सच तो सिर्फ ईश्‍वर है। माया के आवरण के कारण हमें सामान्य जनता को यह सत्य प्रतीत होते हैं। इस माया की सम्पत्ति के कारण मन में अहंकार आ जाता है।

 

           दादू माया का बल देष कर, आया अति अहंकार।

           अन्ध भया सूझै नहीं, का करिहै सिरजनहार।।

 

मनुष्य जब इस अहंकार से अंधा हो गया है, तब सर्जनकर्ता भी उसका कुछ नहीं कर सकता। दादू अपनी रचनाओं में बार-बार माया के विरुद्ध उपदेश देते हैं। मनुष्य के सुधार की सम्भावना तलाशते हैं। इसके बावजूद यह भी तथ्य है कि दादूदयाल की कविता में, सामाजिक व्यवहार का सामाजिक आदर्श नहीं मिलता। ‘‘मध्यकालीन साहित्य में समाज के परिवर्तन की चेतना नहीं मिलती। उस दौर के कवि, भक्त और अन्य बुद्धिजीवी तत्कालीन समाज – व्यवस्था को शाश्‍वत समाज व्यवस्था मानते थे। उनमें यह बोध नहीं था कि किसी सामूहिक पहलकदमी के द्वारा इस क्रूर समाज-व्यवस्था को बदला भी जा सकता है। यहाँ तक कि उनके अपने दौर में हो रहे परिवर्तनों की भी चेतना उनमें नहीं थी। उन्हें वे परिवर्तन दिखाई भी नहीं दे रहे थे। इसलिए तत्कालीन अन्य बुद्धिजीवियों की भाँति दादू ने भी सामाजिक परिवर्तन का कहीं जिक्र नहीं किया है। चूँकि समाज-व्यवस्था में परिवर्तन सम्भव नहीं है, अतः व्यक्ति को ही गतिशील होना पड़ेगा। इसलिए उनके साहित्य में व्यक्ति को ही बेहतर व्यक्ति बनने की प्रेरणा दी गई है ताकि प्रकारान्तर से बेहतर समाज का निर्माण हो सके। इसलिए दादू की रचनाओं में सामाजिक परिवर्तन की सुसंगत योजना नहीं मिलती। दादू दयाल के अनुसार व्यक्ति की मुक्ति समाज की मुक्ति से जुड़ी हुई नहीं है। पतित समाज में रहते हुए भी अपनी वैयक्तिक साधना के द्वारा मुक्त हो सकता है। इस तरह कहा जा सकता है कि दादूदयाल की कविता ‘व्यक्ति’ को सम्बोधित कविता। कवि जैसे अपनी श्रोता मण्डली के प्रत्येक सदस्य से अलग-अलग बात करता है और श्रोता भी उसे ‘निजी’ उपदेश मानकर ग्रहण करता है, भले ही उनकी वाणियों-उपदेशों का सामूहिक पाठ हो रहा हो।’’ (दादूदयाल, पृ. 37, लेखक – रामबक्ष, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली संस्करण-2014)

 

इसलिए वे कहते हैं कि यह संसार तो दुःख की नदी है। धन, यौवन का बल झूठा है, इससे उत्पन्‍न अहंकार भी झूठा है। इसलिए तुम किसी से डरो मत। निर्भयता का जीवन जीओ। जिसकी रक्षा परमात्मा कर रहा हो, उसे कौन मार सकता है। जिस परमात्मा ने गर्भ के भीतर भोजन पहुँचा दिया और जठराग्नि के रहते हुए कोमल काया को सुरक्षित रखा, वह ईश्‍वर समर्थ है इसलिए तुम्हें इन कागज के मनुष्यों से डरने की जरूरत नहीं है।

 

जहाँ तक मृत्यु भय का प्रश्‍न है। मृत्यु तो अटल है। जो जन्म लेता है वह मरता है। जब मृत्यु होनी ही है, तो मनुष्य को मृत्यु से पूर्व कुछ सार्थक कार्य कर लेना चाहिए। जब अन्त समय आएगा, तब शरीर में शक्ति नहीं रहेगी। काले रंग के बाल सफेद हो जाएँगे, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाएँगी और वे मस्तिष्क के आदेश को नहीं मान पाएँगी। आँखों से दिखना कम हो जाएगा, कानों से सुनना बन्द हो जाएगा। तब क्या करोगे? इसलिए दादू कहते हैं –

 

           बार-बार यह तन नहीं, नर नाराइंण देह।

           दादू बहुरिन पाइये, जनम अमोलक एह।।

 

यह मानव जीवन अमूल्य है। इसे निरर्थकता में समाप्‍त नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही दादू उन लोगों की निन्दा करते हैं जो मृत्यु के बाद मुक्ति की बात करते हैं। जीवन की सार्थकता जीवित रहते हुए है।

  1. दादू की कविता

    दादूदयाल सन्त कवि माने जाते हैं। इस निष्ठुर और पतित समाज व्यवस्था में ‘सन्त’ आदर्श मनुष्य है। हालाँकि दादू जब सामान्य मनुष्य को अनजाने में पतितावस्था में भटकते हुए देखते हैं, तब उसके लिए दुःखी होते है। इस व्यक्ति की पीड़ा का वर्णन वे सहानुभूति से करते हैं। कबीर की तरह ऐसे लोगों को वे फटकारते नहीं। ये ‘बिचारे’ हैं, जिन्हें संयोग से ज्ञान प्राप्‍त नहीं हुआ। सन्त वह व्यक्ति हैं जिसे गुरु मिला है, गुरु से ज्ञान मिला है और ज्ञान से उनका व्यक्तित्व रूपान्तरित हो गया है। सन्त निर्दोष व्यक्ति है और वह दोषपूर्ण समाज के सामने एक चुनौती भी है। समाज का उस पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए दादू कहते हैं कि इस संसार में दो ही अनमोल रत्‍न हैं। एक सांई अर्थात् परमात्मा और दूसरे सन्त। शेष सारी वस्तुएँ बिकाऊ हैं। इनका कोई मूल्य नहीं है। ये मूल्य से परे हैं। ऐसे ही व्यक्तियों के पास ईश्‍वर का निवास रहता है।

           को साधू जन उस देस का, आया इति संसार।

           दादू उसकौ पूछिए, प्रीतम कै समाचार।।

 

उस परमप्रियतम के समाचार साधू के पास होते हैं। दादू सत्संग के महत्त्व पर ज्यादा जोर नहीं देते। यह तो व्यक्ति पर निर्भर करता है कि उन सन्तों के सत्संग से वह क्या ग्रहण करता है।

 

           सतगुरू चन्दन बावना, लागे रहें भुवंग।

           दादु विष छाड़े नही, कहा करे सतसंग।।

 

साँप चन्दन के वृष से लिपटे हुए रहते हैं, परन्तु उन पर चन्दन का कोई असर नहीं पड़ता, इसी तरह वे कहते हैं कि साँप को दूध पिलाने से वह दूध को भी विष बना लेता है। उनके लिए सतसंग का कोई अर्थ नहीं है। सन्त रचना के स्तर पर कवि का समान धर्मा है। वह कवि की बातों को सहजता से समझ लेता है। वह कभी कवि का विरोध नहीं करता, इसके विरोध की आशंका भी कवि को नहीं है। वह कवि का ‘अपना’ आदमी है। इस दोषपूर्ण समाज में ऐसे व्यक्ति बहुत कम हैं फिर भी उनका समाज पर नैतिक प्रभाव है। ये समाज के सम्मानित सदस्य हैं। सन्त समाज की उच्‍च मूल्य चेतना के वाहक और प्रतीक हैं। इनका एक वर्ग या जाति नहीं है। इनका समुदाय है, जिसमें वर्ग-भेद और जाति-भेद की बाधा नहीं है। कवि इन्हें उपदेश नहीं देता। बल्कि इनसे बातचीत करता है। इन्हें अपने दिल का दर्द सुनाता है। यहाँ सम्प्रेषण की सर्वाधिक सम्भावना रहती है क्योंकि सन्त भी कवि के समान सत्य के पक्षधर हैं। इन सन्तों से बातचीत करते समय कवि और कविता तनावमुक्त हो जाती है। कवि खुश हो जाता है। उसकी यह खुशी, पुलक और प्रसन्‍नता ऐसे पदों में भरी पड़ी है। आत्मीयों का साहचर्य कविता को सहज और सुन्दर बना देता है।’’(दादूदयाल, पृ. 63-64)

 

दादू की कविताओं में अभिव्यक्त सन्त की जीवन चर्या को हम इस रूप में देख सकते हैं। सन्त ईश्‍वर का भजन करता है। मधुर वचन बोलता है। वह सन्तोषी व्यक्ति होता है। सुख और दुःख को समान भाव से ग्रहण करता है। जो न कभी शोक करता है न कभी आनन्द में मग्‍न रहता है। उसका न तो कोई दुश्मन होता है और न कोई दोस्त होता है। वह संसार में इस तरह से रहता है जैसे राहगीर रहता है और फिर अपना रास्ता लेता है। जिसमें विषय-वासनाओं का पूर्ण परित्याग कर रखा है। जो सत्य बोलता है और सत्य का समर्थन करता है। वह निर्भय व्यक्ति होता है। ऐसा व्यक्ति जीवत मृतक होता है। वही सन्त है। ऐसा सन्त बिरला ही कोई होता है। यही दादू का आदर्श व्यक्ति है और वे ऐसा बनने का उपदेश अपनी कविताओं में देते हैं।

 

दादू की कविता ऐसे सन्त से संवाद की कविता है। वे अपने आपको किसी विवाद में उलझाना नहीं चाहते। दादू किसी को गलत साबित करने के लिए तर्क नहीं देते। वे उसे त्याग देते हैं। वाद विवाद से मानसिक अपव्यय होता है।

 

वाद-विवाद न कीजै कोई, वाद विवाद न हरि रस होई

 

वाद विवाद से भक्ति रस की प्राप्ति नहीं होती। इस अर्थ में दादू कबीर से अलग हैं। दादू में हास्य-व्यंग्य की प्रवृत्ति बहुत कम है। वे अपनी बात सहज रूप से कहते हैं। उनमें अतिरिक्त भावावेग नहीं होता। इस भावावेगहीनता के बावजूद रचना प्रभावित करती है। इसका कारण यह है कि दादू अपने अनुभव का सत्य बयान करते हैं। साथ ही वे अपने श्रोताओं और मानव समाज से बहुत लगाव महसूस करते हैं। नादानी भरे उनके दुःख से दादू स्वयं दुःखी होते हैं। वे मानव मुक्ति चाहते हैं।

 

वे अपने विरोधियों को नहीं वरन् अपने समर्थकों को कविता सुनाते हैं। अपने श्रोताओं के दैनिक अनुभवों का वे ध्यान रखते हैं। इस कारण उनकी कविता उस काल का जीवन भी अभिव्यक्त हो गया है। पीड़क लोगों की निन्दा करने के बजाय वे जनता के चरित्र को सुदृढ़ करना चाहते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि ‘‘यहाँ कविता समगति से चलती है। उसमें उतार-चढ़ाव नहीं आते। वैसे भी दादू में भावावेग नहीं है। सर्वत्र एक ही स्थान से, एक ही मुद्रा में बोलते हुए दिखाई देते हैं। इस तरह उनमें विविधता का अभाव है।’’ (दादूदयाल, पृ. 67)

 

दादू वाणी की एकरसता कहाँ से आती है? इसे भी जानने की जरूरत है। यह एकरसता उनकी मानसिक स्थिरता से आई है। दादू की बेचैनी उनके भीतर रहती है। वे उलटवासियों या चमत्कार का कहीं वर्णन नहीं करते। सीधी-सच्‍ची बातें सहज रूप से कह देते हैं। इस सादगी से दादू के अनुयायियों की संख्या को बहुत बढ़ा दिया है।

  1. निष्कर्ष

    इस तरह हम कह सकते हैं कि दादू दयाल अपने विचारों में वर्ण-व्यवस्था के विरोधी थे। वे मनुष्य और मनुष्य में भेद मानने वाली विचार प्रणाली के समर्थक नहीं थे । सभी मनुष्य उसी एक ही परमात्मा की सन्तान थे, अतः ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की धारणा सही नहीं है। इसी तरह वे हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक भेदभाव के भी विरोधी थे। वे अवतारवाद और मूर्तिपूजा के विरोधी थे दादू के ये विचार उनसे पूर्व के विचारकों ने व्यक्त कर दिए थे। दादू एक सीमा के बाद सत्संग के महत्त्व को नहीं मानते थे। वे वाद-विवाद को भी पसन्द नहीं करते थे। उनकी कविता में सरलता और सहजता दिखाई देती है। भावावेग उनकी कविताओं में नहीं मिलता। वे सत्य को स्पष्ट शब्दों में निर्भीकतापूर्वक कहना पसन्द करते थे।

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अतिरिक्त जानें

पुस्तकें

  1. दादूदयाल ग्रन्थावली, परशुराम चतुर्वेदी (संपा.), नागरी प्रचारणी सभा, वाराणसी
  2. दादूदयाल, रामबक्ष, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
  3. उत्तरी भारत की संत परम्परा, परशुराम चतुर्वेदी, भारती भण्डार प्रयाग
  4. सन्त कवि दादू और उनका पंथ, डॉ.वासुदेव शर्मा
  5. दादूदयाल जीवन दर्शन, बलदेव वंशी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  7. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  8. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
  9. हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास, हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  10. हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

     वेब लिंक्स

  1. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%82_%E0%A4%A6%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B2
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%A6%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B2
  3. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%82_%E0%A4%A6%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B2
  4. http://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/literature/67/dadu-ke-pad.html
  5. http://hindisamay.com/dadu/daadu-granthawali-1.html
  6. http://www.ignca.nic.in/coilnet/rj082.htm