9 दलित साहित्य के अध्ययन की समस्याएँ

अमिष वर्मा

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  1. पाठ का उद्देश्य

     इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • दलित साहित्य के अध्ययन की मूलभूत समस्याओं से अवगत हो सकेंगे।
  • दलित साहित्य की पहचान हेतु वस्तुगत कसौटियों के निर्माण की आवश्यकता महसूस कर सकेंगे।
  • दलित विमर्श एवं अन्य अस्मितामूलक विमर्शों के पारस्परिक सम्बन्धों की आवश्यकता एवं वास्तविकता से परिचित हो सकेंगे।
  • दलित साहित्य की स्‍त्री-दृष्टि की समस्याओं, सीमाओं की जानकारी हासिल करेंगे।
  • दलित साहित्य में अनुभूति एवं कथ्य के दुहराव की समस्या समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   दलित साहित्य व्यापक दलित आन्दोलन की रचनात्मक अभिव्यक्ति है। दलित आन्दोलन जिन आदर्शों और लक्ष्यों को लेकर चला या चल रहा है, उन्हीं आदर्शों की अभिव्यक्ति और उन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर सामाजिक चेतना को उन्मुख करना दलित साहित्य का उद्देश्य रहा है, जिसमें यह बहुत हद तक सफल भी रहा है। हिन्दी के दलित साहित्य की एक बड़ी सफलता यह रही कि इसने हिन्दी समाज और साहित्य का एक नए ढंग के यथार्थ और अनुभव से परिचय करवाया। जिस कड़वे और बजबजाते यथार्थ की केवल कल्पना की जा सकती थी, उसके प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में दलित साहित्य अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। अन्य भारतीय भाषाओं के दलित साहित्य को छोड़ दें और केवल हिन्दी के दलित साहित्य की भी बात करें तो सन् 1980 के बाद से लगातार इसने अपनी स्थिति मजबूत की है। पिछले 35 वर्षों के दलित साहित्य को देखते हुए कहा जा सकता है कि इसने अपने उदय और अपनी स्थापना के दो चरण पूरे कर लिए हैं। आज का दलित साहित्य हिन्दी साहित्य में कहीं से भी ‘हाशिये का साहित्य’ नहीं रहा। उसका अच्छा-खासा पाठक-वर्ग है, उसकी माँग है। मतलब हिन्दी के दलित साहित्य के लिए ‘पहचान के संकट’ का दौर खत्म हो चुका है।

 

कोई भी सामाजिक-राजनीतिक या साहित्यिक आन्दोलन अपने उभार और स्थापना के दौर में अतिशय उत्साही और कतिपय आक्रामक रहता है। पारम्परिक गढ़ों-मठों को तोड़कर इतिहास, वर्तमान और भविष्य में अपनी पहचान और जगह बनाने के लिए इस उत्साह और आक्रामकता का होना स्वाभाविक भी है और कुछ हद तक जायज भी। लेकिन इतिहास हमें यह सीख देता है कि आन्दोलन की वास्तविक सफलता महज उत्साह और आक्रामकता के बूते सुनिश्‍च‍ित नहीं होती, बल्कि उसके लिए गम्भीर और सतत् आत्मालोचन एवं मूलभूत प्रश्नों पर स्पष्ट समझ की अनिवार्यता होती है। दलित आन्दोलन और दलित साहित्य के सन्दर्भ में भी यह बात लागू होती है। दलित साहित्य अब अपनी प्रौढ़ावस्था में पहुँच चुका है। लेकिन हिन्दी के दलित साहित्य को लेकर अब भी बहुत-सी उलझनें बनी हुई हैं। बहुत से प्रश्‍न अनुत्तरित हैं और पाठक असमंजस की स्थिति में है। उदाहरण के तौर पर पाठक के लिए यह तय कर पाना भी आसान नहीं है कि किस साहित्य को दलित साहित्य कहा जाए। यह एक बहुत ही बुनियादी प्रश्‍न है, लेकिन दुर्भाग्य से अब तक इस प्रश्‍न के किसी सन्तोषजनक उत्तर तक पहुँचा नहीं जा सका है। ऐसे और भी कई प्रश्‍न और मुद्दे हैं, जिन पर दलित विमर्शकारों एवं साहित्यकारों की चुप्पी या अस्पष्टता से दलित साहित्य के अध्ययन में समस्याएँ आती हैं। इन पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है।

  1. दलित साहित्य की कसौटी : स्पष्टता का अभाव

   दलित साहित्य के अध्ययन की सबसे प्राथमिक समस्या है कि दलित साहित्य की पहचान कैसे करें। कैसे समझा जाए कि अमुक साहित्य दलित साहित्य है अथवा नहीं? सहज और स्वाभाविक तौर पर यह कहा जा सकता है कि रचना के पाठ के आधार पर, उसके पात्र, परिवेश, घटना-प्रसंग और रचनाकार की विचारधारात्मक अवस्थिति के विश्‍लेषण के आधार पर रचना के ‘दलित साहित्य’ होने या न होने का निर्णय किया जा सकता है। लेकिन यह बात आज इतनी सहज और स्वाभाविक नहीं रह गई है। प्रायः दलित विमर्शकारों का मानना है कि दलित साहित्य वही हो सकता है, जिसका लेखक स्वयं दलित हो। प्रसिद्ध दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी किताब ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्‍त्र’ में लिखते हैं कि ‘दलित लेखक इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि दलितों की पीड़ा दलित ही समझ सकता है, वही उस पीड़ा का प्रामाणिक प्रवक्ता भी है।’ एक अन्य दलित चिन्तक और कवि कंवल भारती भी मानते हैं कि ‘दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है, जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है। अपने जीवन-संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उनकी उसी अभिव्यक्ति का साहित्य है।’ इसका मतलब यह हुआ कि किसी रचना के ‘दलित साहित्य’ होने की प्राथमिक और सबसे महत्त्वपूर्ण कसौटी है, उसके लेखक का दलित होना! लेकिन यह कसौटी बहुत ही भ्रामक है। इसकी भ्रामकता इस बात में है कि आप या तो रचना को पढ़े बिना ही उसे दलित साहित्य मान लेंगे, यदि आपको यह पता हो कि उसका लेखक दलित है या फिर पूरी रचना को बौद्धिक ईमानदारी के साथ पढ़कर भी यह तय नहीं कर पाएँगे कि वह दलित साहित्य है अथवा नहीं, क्योंकि आपको उस लेखक की जाति का पता नहीं है। दलित साहित्य के अध्येता के सामने यह एक बड़ी उलझन है। विचारणीय है कि साहित्य के कोटि-निर्धारण की कसौटी, साहित्य होना चाहिए या साहित्यकार और उसकी जाति?

 

दलित साहित्यकार ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ पर सर्वाधिक बल देते हैं। यह बात बिल्कुल ठीक है। लेखक की अनुभूति जितनी प्रामाणिक होगी, रचना उतनी ही सशक्त और विश्‍वसनीय होगी। इसलिए अनुभूति की प्रामाणिकता को लेकर कोई समस्या ही नहीं है। समस्या यह है कि दलित साहित्यकार अनुभूति की प्रामाणिकता की पहली और आखिरी शर्त्त ‘स्वानुभूति’ को मान लेते हैं। मतलब कि दलित समाज के बारे में लेखक की अनुभूति प्रामाणिक है अथवा नहीं – इसका निर्णय केवल इस आधार पर होगा कि लेखक स्वयं दलित है अथवा नहीं। यह एक किस्म का अतिवाद है। इस तर्क से तो कोई भी रचनाकार केवल और केवल अपने बारे में ही लिख सकता है, दूसरे किसी भी व्यक्ति, समाज, घटना या प्रसंग पर लिखा गया साहित्य हमेशा सन्दिग्ध ही माना जाएगा और इस तरह से तो साहित्य की केवल एक ही प्रामाणिक विधा बच सकती है – ‘आत्मकथा’। दलित साहित्य में आत्मकथा और आत्मकथात्मकता पर जो ज़ोर है, वह अकारण नहीं है।

 

दलित साहित्यकारों के स्वानुभूति के तर्क के अतिवाद के और भी पहलू हैं। यदि दलित समाज के बारे में गैर-दलित लेखक की अनुभूति को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता तो गैर दलित समाज के बारे में दलित लेखकों की अनुभूति को प्रामाणिक मानने का तर्क क्या होगा? इसी तरह देश-दुनिया-समाज के अन्य मुद्दों पर दलित लेखकों द्वारा लिखे गए साहित्य को दलित साहित्य कहा जाएगा या नहीं? ऐसे और भी कई सवाल हो सकते हैं जिनका कोई भी सन्तोषजनक जवाब स्वानुभूति के तर्क के आधार पर पाना सम्भव नहीं है।

  1. जातिवाद से मुक्ति अथवा जातिवादी वर्चस्व में परिवर्तन

   दलित साहित्य का घोषित लक्ष्य है – दलित मुक्ति। दलितों को सामाजिक उत्पीड़न और जातिवादी शोषण के चक्र से मुक्त करना दलित साहित्य का गुरुतर उद्देश्य है। लेकिन दलित मुक्ति का यह लक्ष्य एकाकी रूप से हासिल नहीं किया जा सकता। दलित मुक्ति जातिवाद से मुक्ति में ही सम्भव है। जातिवाद से मुक्त हुए बिना दलित मुक्ति का स्वप्‍न एक भ्रम है और उसका यथार्थ एक मरीचिका। हिन्दी के दलित साहित्य को इस दृष्टि से भी पढ़े और समझे जाने की जरूरत है कि इसमें दलित मुक्ति के सवाल को व्यापक तौर पर जातिमुक्ति के सवाल के रूप में कितना उठाया गया है।

 

भारत में, खास तौर पर हिन्दी प्रदेश में, साहित्य और राजनीति में दलित मुक्ति का आन्दोलन लगभग साथ-साथ प्रारम्भ और विकसित हुआ। दोनों ही मोर्चों पर दलित मुक्ति के प्रेरणा-पुरुष डॉ. भीमराव अम्बेडकर ही रहे। डॉ. अम्बेडकर के पास एक बड़ा ‘विजन’ था। उनके लिए दलित मुक्ति जातिमुक्ति के व्यापक प्रोजेक्ट का हिस्सा थी। क्या आज के दलित आन्दोलन के बारे में यही बात विश्‍वास के साथ कही जा सकती है? दलित राजनीति की हालत हम देख रहे हैं। यह आज पूरी तरह समझौतावादी हो चुकी है, जिसका नेतृत्व सुविधाभोगी सम्पन्‍न दलित भद्रवर्ग के हाथ में है। दलित समाज की वास्तविक पीड़ा और उनकी मुक्ति से इसका कोई वास्ता नहीं है। इसका लक्ष्य है सत्ता और शासन में दलित भद्रवर्ग की भागीदारी को किसी भी कीमत पर बचाए रखना। हिन्दी के दलित साहित्यकार भी दलित राजनीति की इस परिणति से असन्तुष्ट हैं। तब सवाल है कि क्या दलित साहित्य दलित मुक्ति के घेरे को व्यापक करके जातिविहीन समाज के निर्माण की दिशा में कोई प्रयास करता दिखाई पड़ता है? इस नजरिए से यदि दलित साहित्य का विश्‍लेषण-विवेचन किया जाए तो यहाँ भी कोई बहुत उत्साहजनक स्थिति दिखाई नहीं पड़ती।

 

दलित साहित्य की एक बड़ी सकारात्मक भूमिका दलित समाज को मुक्ति की चेतना से लैस करने में रही है। जातिवाद के ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती देने और उसके विरुद्ध दलित समाज में प्रतिरोध की संस्कृति को विकसित करने में दलित साहित्य ने अपनी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन जातिवाद के ब्राह्मणवादी वर्चस्व के प्रति दलित समाज के प्रतिरोध को जातिवाद मात्र के प्रति प्रतिरोध में बदलने का कोई प्रयास दलित साहित्यकारों द्वारा किया गया हो – ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। यह दलित साहित्य की सीमा है।

 

दलित साहित्य में प्रतिरोध का जो स्वर है, वह कई बार प्रतिशोध के स्वर में तब्दील हो गया है। प्रतिरोध और प्रतिशोध में ध्वनि-साम्य जरूर है, लेकिन इनके अर्थ और प्रभाव लगभग विपरीत हैं। प्रतिरोध में एक प्रकार की सकारात्मक ऊर्जा है, जो व्यक्ति या साहित्य को सामाजिक उत्थान के रास्ते पर आगे बढ़ाता है, उसे प्रगतिकामी बनाता है। दूसरी तरफ, प्रतिशोध का स्वभाव प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी है, प्रतिशोध का रास्ता पतन का रास्ता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दी का दलित साहित्य इस प्रतिशोध की मुद्रा में आ गया है। तथाकथित ऊँची जातियों द्वारा दलितों के उत्पीड़न का बदला दलित साहित्यकारों ने शोषण और उत्पीड़न के चक्र को उलटकर लेने का मन बनाया। परिणामस्वरूप दलित साहित्य के गर्भ से कुछ ऐसी रचनाएँ पैदा हुईं, जिनमें दलित जाति के पुरुष पात्र ऊँची जाति की स्‍त्री पात्रों के साथ वही सब कुछ करता है, जो ऊँची जाति का दबंग पुरुष दलित महिलाओं के साथ किया करता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ग्रहण, सूरजपाल चौहान की चेता का उपकार और चन्द्रभान प्रसाद की चमरिया मइया का शाप  ऐसी ही कहानियाँ हैं। आश्‍चर्यजनक है कि दलित पुरुष पात्रों द्वारा इस प्रकार की प्रतिशोधात्मक कार्रवाई को अंजाम देकर दलित साहित्यकारों को सन्तोष मिलता है। दलित साहित्य के किसी भी संवेदनशील पाठक को यह सवाल जरूर परेशान करेगा कि जातिवाद से मुक्ति का यह कौन-सा उत्तर आधुनिक नुस्खा है!

 

दलित साहित्य का अध्ययन करते हुए इस बात की तरफ भी ध्यान जाता है या जाना चाहिए कि समग्र जाति-व्यवस्था के बारे में दलित लेखकों-चिन्तकों के विचार क्या हैं। जाति-व्यवस्था में जातियों की कई श्रेणियाँ और सोपान हैं। तथाकथित ऊँची जातियों और दलितों के बीच मध्यवर्ती जातियाँ भी हैं, जो दलितों के सन्दर्भ में कई बार शोषक जाति के रूप में दिखाई पड़ती हैं, लेकिन अपने से ऊँची जातियों के सन्दर्भ में स्वयं जातिवादी शोषण की शिकार भी हैं। इसके अलावा दलित जातियों में भी जातिवादी श्रेणियाँ मौजूद हैं, परस्पर रोटी-बेटी का व्यवहार वहाँ भी उतनी ही कड़ाई से निषिद्ध है। जातिवाद से जुड़े इन तमाम मुद्दों पर दलित साहित्यकार मौन की मुद्रा में हैं। वहाँ मुखरता है तो केवल गैर दलित जातियों द्वारा दलितों के उत्पीड़न पर। कई बड़े दलित चिन्तकों को तो जातियों के अस्तित्व से कोई खास परेशानी भी नहीं है। डॉ. धर्मवीर का मानना है कि जातियों के बने रहने में कोई दिक्कत नहीं है, यदि उनमें जातीय विद्वेष न हो। डॉ. धर्मवीर के इन विचारों का जवाब देते हुए प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने अपने एक साक्षात्कार में बिल्कुल ठीक कहा है कि ‘यह लगभग उसी तरह से सोचना हुआ कि कोई कहे कि बकरी हो और बाघ हो और बाघ बकरी को न खाए तो ठीक है।’ जाति-व्यवस्था की बुनियाद जातिवादी भेदभाव ही है। ऐसे में विद्वेष रहित जाति-व्यवस्था की बात करना एक अपरिपक्व चिन्तन की निशानी है और ठीक इसी तरह जातिमुक्त हुए बिना दलित मुक्ति की बात एक आधारहीन फेण्टेसी। यह विडम्बना है कि भारत के अधिकांश जातिमुक्ति के आन्दोलन अन्ततः जातिवादी वर्चस्व में आंशिक फेरबदल करके ही सन्तुष्ट हो गए या जाति व्यवस्था द्वारा समायोजित कर लिए गए। दलित मुक्ति का आन्दोलन और दलित साहित्य भी इसका अपवाद न बन सका।

  1. दलित साहित्य का स्‍त्री पक्ष

   किसी भी समाज और साहित्य की जनतान्त्रिकता को परखने की एक कसौटी यह भी है कि उसमें स्‍त्री की भागीदारी कितनी है। दलित साहित्य के उभार ने हिन्दी साहित्य के जनतन्त्र को निश्‍च‍ित रूप से मजबूत और व्यापक बनाया है। लेकिन दलित साहित्य ने स्वयं अपने भीतर जनतन्त्र को कितना ‘स्पेस’ दिया है – इसे भी देखे जाने की जरूरत है। दलित साहित्य के स्‍त्री पक्ष के विश्‍लेषण के जरिए इस बात को देखा-समझा जा सकता है।

 

दलित साहित्यकारों का स्‍त्रि‍यों के प्रति नजरिया खासा आपत्तिजनक है। पूरा दलित साहित्य स्‍त्री प्रश्‍नों पर मौन है अथवा उसका स्वर विरोध का है। प्रख्यात दलित चिन्तक डॉ. धर्मवीर ने तो जैसे स्‍त्री-विरोध का पूरा मोर्चा ही खोल रखा है। दलित समाज के उत्पीड़ित होते रहने का भी पूरा जिम्मा वे दलित स्‍त्रि‍यों के मत्थे डाल देते हैं। दलित स्‍त्रि‍यों की स्वतन्त्रता के सख्त विरोधी डॉ. धर्मवीर का मानना है कि ‘दलित स्‍त्रि‍यों पर नियन्त्रण रखना जरूरी है। दलित एक जाति के रूप में अब तक इस काम में चूकते रहे हैं। इसी से इनकी औरतें स्वतन्त्र होने के बजाए उच्छृंखल हो जाती हैं। वे पर पुरुषों के साथ व्याभिचार कर बैठती हैं।’ एक अन्य दलित लेखक डॉ. एन.सिंह का कहना है कि ‘महिला दलित वर्ग की हो या चाहे किसी अन्य वर्ग की हो, नियन्त्रण के अभाव में उच्छृंखल हो सकती है।’ स्‍त्री की स्वतन्त्रता का ऐसा घोर विरोध और उस पर नियन्त्रण की ऐसी बलवती चाह पितृसत्ता की चरम स्थिति है।

 

भारत के जातिवादी समाज में ऊँची जाति के दबंग पुरुषों द्वारा दलित महिलाएँ प्रायः यौन शोषण का शिकार होती रही हैं। यह सिलसिला आज भी थमा नहीं है। लेकिन दुखद और आश्‍चर्यजनक है कि डॉ. धर्मवीर जैसे दलित चिन्तक इस यौन शोषण में दलित महिलाओं की स्वेच्छा और बराबर की भागीदारी का सिद्धान्त रच डालते हैं। इसी मनगढ़न्त सिद्धान्त के आधार पर डॉ. धर्मवीर प्रेमचन्द की कहानी कफन की बुधिया के गर्भ में ठाकुर के बच्‍चे को स्थापित करके चरित्रहीन बुधिया के प्रति घीसू-माधव की बेरुखी का ‘जस्टिफिकेशन’ देते हैं। अब सवाल है कि यदि घीसू-माधव को इतने अमानवीय रूप में चित्रित करने के आरोप में प्रेमचन्द को दलित-विरोधी माना जा सकता है तो बुधिया और तमाम दलित महिलाओं को जारकर्म के अपराध में स्वेच्छा से संलिप्‍त मानने वाले डॉ. धर्मवीर के लिए कौन-सा विशेषण चुना जाना चाहिए?

 

स्‍त्री प्रश्नों पर दलित साहित्यकारों के इसी रवैये के परिणामस्वरूप अब ‘दलित स्‍त्री विमर्श’ सामने आया है। दलित स्‍त्रि‍यों को भी इस बात का एहसास हुआ कि दलित विमर्श दलित स्‍त्रि‍यों की मुक्ति के सवाल पर कहीं-न-कहीं पुरुषवाद का शिकार है। इसलिए दलित स्‍त्रि‍यों ने अपने दलित और स्‍त्री होने की दोहरी पीड़ा को अपनी रचनाओं और आत्मकथाओं में अभिव्यक्त किया। कौसल्या बैसन्त्री की आत्मकथा दोहरा अभिशाप और सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा शिकंजे का दर्द  इसके उदाहरण हैं।

 

दलित विमर्श और दलित साहित्य के लिए यह और अच्छी बात होती, अगर वह दलित स्‍त्री के स्वर को भी अपने में समेट पाता। लेकिन दलित साहित्यकारों का रुख इसके ठीक विपरीत है। दलित स्‍त्रि‍यों के हक के सवाल को उठाना उन्हें ‘विरोधियों का षड्यन्त्र’ मालूम पड़ता है। दलित साहित्यकार डॉ. विमल कीर्ति तो ऐसा ही मानते हैं कि ‘जो लोग दलित मुक्ति आन्दोलन के विरोधी हैं, वे लोग जानबूझकर दलित आन्दोलन को कमजोर करने के लिए इस तरह के सवाल खड़े करते हैं।’

 

हिन्दी के दलित साहित्य का अध्ययन करते हुए यह सवाल अक्सर परेशान करता है कि जो दलित साहित्य शोषण के एक तन्त्र – ब्राह्मणवाद का इतना सख्त विरोधी है, वही शोषण के दूसरे तन्त्र-पितृसत्ता का इतना हिमायती क्यों है?

  1. सम्पूर्ण सामाजिक मुक्ति का प्रश्‍न

    उत्तर आधुनिकता की एक बड़ी देन यह रही कि इसने विभिन्‍न उत्पीड़ित अस्मिताओं में अपनी मुक्ति का विमर्श छेड़ने की चेतना पैदा की। लेकिन यही इसकी सबसे बड़ी सीमा भी रही, क्योंकि इसने यह भ्रम पैदा किया कि विभिन्‍न अस्मिताओं की अलग-अलग मुक्ति सम्भव है। यह समझना कि किसी भी उत्पीड़ित समुदाय की मुक्ति एकाकीपन में सम्भव है, एक प्रकार की मिथ्या चेतना है। दलित विमर्श और साहित्य भी इस मिथ्या चेतना का शिकार है।

 

इस बात को गम्भीरता से समझने की जरूरत है कि मुक्ति का कोई भी आन्दोलन अन्य अस्मिताओं की मुक्ति के आन्दोलन के प्रति सहयोग और साहचर्य का भाव रखे बिना सफल नहीं हो सकता। दलित, स्‍त्री, आदिवासी और दलित स्‍त्री अस्मिताओं की मुक्ति एक-दूसरे के प्रति शत्रु भाव रखकर या अलग-थलग रहकर कदापि सम्भव नहीं है। दलित साहित्य और पूरे दलित विमर्श में इस प्रकार के सहयोग और सम्पूर्ण सामाजिक मुक्ति के लिए कोई गम्भीर प्रयास किया गया हो – ऐसा दिखाई नहीं पड़ता।

 

दलित विमर्श अपने आक्रामक तेवर के चलते किसी को भी साथ लेकर चलने को तैयार नहीं है। स्‍त्री मुक्ति के सन्दर्भ में दलित साहित्यकारों-चिन्तकों के विचार हम देख चुके हैं। आदिवासी समुदाय की मुक्ति या उनकी सामाजिक पहचान को लेकर कोई चिन्ता शायद ही कभी किसी दलित चिन्तक ने व्यक्त की हो। इसके अलावा दलित मुक्ति जिस व्यापक जातिमुक्ति के अभियान का हिस्सा होना चाहिए, उसके प्रति भी दलित विचारकों का रुख हम देख चुके हैं। जातिमुक्ति की चिन्ता वहाँ है ही नहीं। ऐसे में केवल दलित मुक्ति का ढ़ोल पीटने से कोई सार्थक परिणाम निकलने की उम्मीद नहीं की जा सकती। ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाते हुए भी इस बात को कहना आज जरूरी है कि दलित विमर्श और साहित्य जिस रास्ते पर चल रहा है, उससे दलितों की भी वास्तविक मुक्ति सम्भव नहीं है, सम्पूर्ण सामाजिक मुक्ति का तो प्रश्‍न ही नहीं उठता!

  1. कथ्य का दुहराव अर्थात् अनुभव की एकरूपता

    दलित साहित्य की शुरुआत क्रान्तिकारी रही। इसने हिन्दी साहित्य को दलित जीवन के ऐसे प्रसंगों से परिचित कराया जो इससे पहले पूरी तरह से अनुपस्थित थे। इसने पूरे हिन्दी साहित्य का कलेवर बदल दिया। हिन्दी साहित्य में यह एक प्रकार का ‘नवनवोन्मेष’ था। यह अकारण नहीं है कि दलित साहित्य को अपने पाठक पैदा करने के लिए कोई जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी। यह दलित साहित्य के नयेपन की प्रभावोत्पादकता का कमाल था।

 

हम देख चुके हैं कि दलित साहित्य ने करीब-करीब 35-40 वर्षों का सफर तय कर लिया है। इतने वर्षों में दलित साहित्य के स्वर में किस तरह का परिवर्तन आया है? दलित साहित्य ने दलित समाज के शोषण-उत्पीड़न की पीड़ा को प्रतिरोध में परिवर्तित किया और उसे अभिव्यक्ति दी। लेकिन इस अभिव्यक्ति में एक समय के बाद अनुभूतियों का दुहराव दिखाई पड़ने लगा। इसके कुछ ठोस कारण समझ में आते हैं। दलित साहित्यकारों ने दलित साहित्य को गैर दलित साहित्यकारों के ‘षड्यन्त्र’ (!) से बचाने के लिए ‘स्वानुभूति’ की शर्त्त का कड़ाई से पालन किया। ‘स्वानुभूति’ की इस शर्त्त के कारण साहित्य-सृजन के ‘परकाया-प्रवेश’ वाले सिद्धान्त को दलित साहित्यकार जबरन नकारते रहे। नतीजा यह हुआ कि ‘स्वानुभूति’ की शर्त्त स्वयं उनकी सीमा बनती चली गई। आलोचक निर्मला जैन एक साक्षात्कार में दलित साहित्य की इस सीमा और अनुभूतियों के दुहराव को रेखांकित करती हुई कहती हैं कि ‘इन रचनाओं के मूल में वर्ग विशेष का स्वानुभूत जीवन प्रस्थान-बिन्दु की तरह वर्तमान रहता है। इन रचनाकारों के पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों की भूमिकाएँ, अनुभव, परिदृश्य थोड़े-बहुत अन्तर से लगभग समान होते है। ऐसी स्थिति में एक ही लेखक की रचनाओं को पढ़ने पर तो दोहराव से गुजरने का एहसास होता ही है, अलग-अलग रचनाकारों में भी समानधर्मा होने के कारण यही स्थिति बनती है।’ दलित साहित्य के गम्भीर अध्येता डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी भी दलित कहानियों के सन्दर्भ में इस एकरसता के मुद्दे को सामने रखते हैं। उनका मानना बिल्कुल ठीक है कि ‘एक मात्र उत्पीड़न को ही कहानी रचना का उत्प्रेरक मानने की ज़िद दलित कहानियों को एकरस बना देती है। इस प्रवृत्ति से दलित जीवन के दूसरे पहलुओं की उपेक्षा होती है।’

 

दलित साहित्यकारों की एक सीमा यह भी रही कि उन्होंने हमेशा एक ‘मिशनरी अप्रोच’ से साहित्य सृजन किया, जिसकी कुछ पूर्व निर्धारित मान्यताएँ रहीं, मसलन, पूरा गैर दलित समाज दलितों के प्रति षड्यन्त्रकारी रहा है और हमेशा से दलितों के शोषण-उत्पीड़न में शामिल रहा है। इसका नतीजा यह हुआ कि पूरा दलित साहित्य, दलित बनाम गैर दलित की शक्ल लेता चला गया और उसमें पूरे गैर दलित समाज के प्रति घृणा, क्रोध और विद्वेष ही मूल कथ्य के रूप में स्थापित होते चले गए।

 

यह सच है कि जातिवादी शोषण, सामाजिक अपमान और अभाव दलित समाज का यथार्थ है। लेकिन इन सब के अलावा वहाँ जीवन है, रागात्मकता है, आँसुओं और पीड़ा के बीच हँसी-ठिठोली और उल्लास भी है। दलित साहित्यकारों की दृष्टि इस तरफ कम जाती है। सम्भव है कि उन्हें इस बात का डर हो कि इससे दलित साहित्य के प्रतिरोधी तेवर में बट्टा लगेगा। लेकिन अभी हाल ही में प्रकाशित दलित चिन्तक और साहित्यकार प्रो. तुलसी राम की आत्मकथा मुर्दहिया और मणिकर्णिका  दलित साहित्य के ‘मिशनरी अप्रोच’ को भंग करती हुई दलित साहित्य के ‘अनुभूति-क्षेत्र’ का विस्तार करती है।

 

साहित्य के कालजीवी और कालजयी होने की बड़ी शर्त्त है – ‘नूतन प्रसंगों की उद्भावना’। दलित साहित्यकारों को दलित जीवन के ऐसे प्रसंगों को खोजने-खँगालने की जरूरत है, जो दलित साहित्य को ‘मोनोटोनस’ होने से बचा सके और उसे स्थायी महत्त्व दिला सके।

  1. निष्कर्ष

   दलित साहित्य ने दलित मुक्ति की चेतना के विस्तार में ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह किया है। लेकिन इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं, जिसकी चर्चा हमने इस पाठ में की है। दलित साहित्य के कई अनसुलझे प्रसंग हैं। कई ऐसे सवाल हैं, जिन पर दलित साहित्य में सामूहिक चुप्पी है। ऐसे अनसुलझे प्रसंग और अनुत्तरित सवाल दलित साहित्य के अध्ययन को पेचीदा बनाते हैं। ये सवाल दलित साहित्य के अध्येता के लिए चुनौती हैं, क्योंकि इनके उत्तर पाना आसान नहीं है और उत्तर पाए बिना अध्ययन को सही दिशा में आगे बढ़ाना और भी मुश्किल।

you can view video on दलित साहित्य के अध्ययन की समस्याएँ

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1.  दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि ,राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  2.  ‘आधुनिकता के आईने में दलित’,  अभय कुमार दुबे (सम्पादक ), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. हिन्दी क्षेत्र की दलित राजनीति और साहित्य,  कँवल भारती, बोधिसत्व प्रकाशन, रामपुर, उ.प्र.
  4. इक्कीसवीं सदी में दलित आन्दोलन(साहित्य एवं समाज-चिंतन), डॉ.जयप्रकाश कर्दम, पंकज पुस्तक मंदिर,दिल्ली
  5. दलित राजनीति की समस्याएं , राजकिशोर (सम्पादक), वाणी प्रकाशन, दिल्ली
  6. दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, शरण कुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. दलित साहित्य: अनुभव, संघर्ष एवम् यथार्थ, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  8. दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ. एन॰सिंह , वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  9. दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद
  10. दोहरा अभिशाप, कौसल्या बैसन्त्री, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली
  11. शिकंजे का दर्द, सुशीला टाकभौरे, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  12. हंस, संपादक- राजेंद्र यादव, ‘सत्ता-विमर्श और दलित’ विशेषांक, अगस्त, 2004
  13. तद्भव, संपादक- अखिलेश, ‘दलित वैचारिकी की दिशाएँ’ विशेष प्रस्तुति

    वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
  2. http://gadyakosh.org/gk/दलित साहित्य आन्दोलन
  3. http://www.debateonline.in/
  4. https://www.youtube.com/watch?v=cWNzpokMDgc
  5. https://www.youtube.com/watch?v=cB2c3hdvsaE
  6. https://www.youtube.com/watch?v=kVMuMQ2gwhc