7 दलित साहित्य की भाषा

गनपत तेली and देवेन्द्र चौबे

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • दलित साहित्य की भाषा सम्बन्धी धारणाएँ जान पाएँगे।
  • दलित साहित्य की भाषा के बारे में दलित साहित्यकारों का मत जान सकेंगे।
  • दलित साहित्य की भाषिक विशेषताएँ जान पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

    साहित्य में संवेदना के स्तर पर आए बदलाव साहित्य की भाषा को  प्रभावित करते हैं। अंग्रेजकालीन भारत में जब साहित्य में समाज सुधार, स्वतन्त्रता और राष्ट्रीय चेतना के स्वर आ रहे थे तो ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली साहित्य में स्थापित हो रही थी। जब प्रेमचन्द हिन्दी कथा साहित्य को भारत के सामाजिक यथार्थ से जोड़ रहे थे, तो उनकी भाषा आमबोल चाल की थी। इसी तरह प्रगतिशील कवियों की भाषा में भी आमबोलचाल की भाषा की विशेषताएँ थीं। स्वातन्त्र्योत्तर दौर में जब साहित्य में अस्तित्ववाद और मानसिक जटिलताओं का चित्रण हुआ, तो भाषा में भी वैसी ही जटिलता दिखाई देने लगी। इसलिए स्वाभाविक तौर पर ही अस्मितावादी लेखन की  भाषा की भी अपनी विशेषताएँ हैं। दलित साहित्य ने संवेदना के स्तर पर समाज के सामाजिक वर्चस्ववाद और शोषण के प्रतिरोध का स्वर बुलन्द किया, तो इसकी भाषा पर भी संवेदना का प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है।

  1. भाषा और परिवेश

   जाहिर-सी बात है कि जब किसी वर्ग विशेष से कोई रचनात्मक व्यक्ति साहित्य में प्रवेश करता है, तो वह अकेला प्रवेश नहीं करता है, उसके साथ उसका पूरा परिवेश, संस्कार और समाज साहित्य में प्रवेश करता है। इसलिए जब दलित साहित्यकारों ने हिन्दी साहित्य में प्रवेश किया, उनके साथ दलित बस्तियों के परिवेश और माहौल ने भी उन्हीं की भाषा में साहित्य में प्रवेश किया। जिस प्रकार के दग्ध अनुभव दलित साहित्यकारों को हुए, उनकी अभिव्यक्ति के लिए वैसी ही दग्ध भाषा का भी प्रयोग दलित साहित्यकारों ने किया। यथार्थ वर्णन में परिवेश की वास्तविक भाषा की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्‍त्र के सन्दर्भ में भाषा पर बात करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि “यातनाओं से उपजी आक्रोशित भाषा एक तेज हथियार की तरह भीतर तक झकझोर देती है। दलित समाज की बोली-बानी के ऐसे अनेक शब्द प्रकट होते हैं, जिनसे साहित्य अनभिज्ञ था। यह दलित साहित्य को ताज़गी देता है और भाषा की जड़ता भी टूटती है।” ओमप्रकाश वाल्मीकि का यह कथन दलित साहित्य की भाषा की दो मुख्य विशेषताओं की ओर इंगित करता है, एक है भाषा की आक्रामकता और दूसरा नए शब्दों का प्रयोग। यह भाषा की आक्रामकता शोषण और दमन के प्रतिरोध से पैदा हुई है। और, यह विशेषता हम दलित साहित्य की अधिकांश रचनाओं में पाते हैं।

  1. संस्कृत बनाम जन भाषा

   दलित साहित्यकारों ने संस्कृत भाषा और इससे सम्बद्ध वर्ग को ब्राह्मणवादी संस्कृति से जोड़ते हुए जन भाषा का समर्थन किया। संस्कृत प्राचीनकाल की भाषा है और उस समय भी यह पढ़ने-लिखने वाली उच्‍च जातियों तक सीमित थी। वर्तमान समय में संस्कृतनिष्ठता की वजह से शिक्षा, ज्ञान और सूचना से दलित वर्ग के लोग वंचित हैं। साथ ही, संस्कृत के साथ वर्चस्वशाली ताकतों के सम्बन्ध के कारण भी दलित इसे अपनी भाषा नहीं मानते। इसी वजह से जयप्रकाश कर्दम चली आ रही भाषा छोड़कर ‘मुझसे जन की भाषा में बतियाओ’ का आग्रह करते हैं –

 

मेरे दोस्त मेरे लिए

उस भाषा में शुभकामनाएँ मत करो

जो भाषा

कभी मेरी नहीं रही

जिसके लिए रहा मैं सदैव

अंत्यज अस्पृश्य

मुझे नफरत है

उस भाषा के संस्कारों से

उसके शास्‍त्रीय सरोकारों से

 

संस्कृत और जन भाषा का द्वन्द्व दलित साहित्य की भाषा सम्बन्धी विशेषताओं का प्रस्थान बिन्दु है। दलित साहित्यकार संस्कृत भाषा के साथ-साथ संस्कृत काव्यशास्‍त्र के सिद्धान्तों का प्रतिकार करता है। चूँकि संस्कृत काव्यशास्‍त्र के सिद्धान्तों के आधार पर रचे गए साहित्य में दलितों का स्वर प्राय: दर्ज नहीं हुआ है, इसलिए जनभाषा ही दलित साहित्य की भाषा बनी और इसकी परख के लिए भी परम्परागत काव्यशास्‍त्र के मापदण्डों को अस्वीकार किया गया।

 

यह सही है कि भाषा पर परिवेश और संस्कृति का प्रभाव पड़ता है, जाहिर है कि दलित लेखकों की भाषा पर भी उनके परिवेश और संस्कृति का प्रभाव होगा और ऐसा सम्भाव्य है कि अन्य लोगों की भाषा पर वह प्रभाव न हो। इसमें आने वाले प्रतीक, बिम्ब, मुहावरे आदि परम्परागत भाषा में प्रयुक्त होने वाले प्रतीक, बिम्ब, मुहावरों से अलग है, जिनका अपना अलग सौन्दर्य है। ये सभी दलित जीवन के इर्द-गिर्द से उठाए गए हैं। दलित लेखक जिन लोगों के बीच, जिस परिवेश में रहे, उसी से उनकी भाषा का निर्माण हुआ। जैसा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी भाषा के बारे में बताते हैं – “भाषा को लेकर मेरी अपनी कुछ मान्यताएँ हैं। शास्‍त्रीयता की जो कृत्रिमता है, वह मुझे असहज लगती है, इसलिए आकर्षित नहीं करती। मैं कारखाने में काम करता हूँ, मेरा सम्पर्क हर समय सामान्य, आम लोगों से रहता है। अवकाश के दिन या किसी विशिष्ट अवसर पर दलित बस्तियों में बीतता है। मेरे रिश्तेदार, मित्र, सामाजिक कार्यकर्ताओं से मिलता हूँ, जिनसे मेरे गहरे सम्बन्ध हैं। उनके बगैर मेरे लेखन, मेरे जीवन का कोई और औचित्य नहीं है। ये लोग मेरी प्रेरणा हैं, इन्हीं से मेरी भाषा और कथ्य बनता है।”

  1. भाषिक विविधता

   दलित साहित्य में सबसे ज्यादा आत्मकथाएँ लिखी गई हैं, इसलिए इन आत्मकथाओं में दलितों द्वारा बोली जाने वाली  भाषा का प्रयोग हुआ है। यदि हम अलग-अलग आत्मकथाओं को देखें तो उनमें स्थान विशेष के अनुसार आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग हुआ है। जूठन की भाषा मुजफ्फरनगर जनपद के सामान्य लोगों की बोलचाल की भाषा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जनपद के बरला गाँव में रहते थे। उनका बचपन वहीं बीता था – चूहड़ा बस्ती में, और इस बस्ती के बाहर के लोगों से सम्पर्क अपमानजनक माना जाता था। उनकी इस आत्मकथा में उनके गाँव के प्रसंगों में बरला की भाषा की छाप है और संवादों से यह छाप और स्पष्ट हो जाती है। उदाहरण के लिए, “ईब तो सब खाणा खा के चले गए… म्हारे जातकों (बच्‍चों) कू भी एक पत्तल पर धर के कुछ दे दो। वो भी तो इस दिन का इन्तज़ार कर रे थे।” इसी तरह से श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’ में भी भाषा का ऐसा रूप मिलता है – “तेरो बाप मरि चुको है। वो तेरी सुनन कूं अब कबऊ लौटिके नाँय आवैगो, समझे! मैं तेरी कोई जिद पूरी नाँय कर पाऊँगी। अब तोय अपनी जिन्दगी अपनी कमाई में गुजारनी है। जिद्द छोड़, कछु काम सीख ले। कछु नाँय तो साइकिल में पिंजर जोड़नों ही सीख ले।” चूँकि ये दोनों संवाद लेखकों की माँ द्वारा कहे गए हैं और वे ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं, इसलिए गाँवों की आम भाषा का प्रयोग हुआ है। इसी तरह से सूरजपाल सिंह चौहान की आत्मकथा तिरस्कृत  में भी हमें इसी तरह की भाषा मिलती है, “का करोगे, अरे भूल गए वा खचेरा भंगिया कूँ, जो बात-बात में तुम पे जूता चलावतौ…। वाकै ही भैया रोहना का मकान बन रहो है और तुम चुपचाप तमासौ देख रहे हो…, अरे बिच्‍चौदो! कुछ करो, पीछे से हम तुम्हारी सपोट करेंगे।” मोहनदास नैमिशराय के यहाँ पर भी इस तरह स्थानीय बोली हमें मिलती है, “अरे पढ़-लिखकर क्या तू लाट-गवन्‍नर बन जागा। गाँठेगा तो येई लीतरें।” सुशीला टाकभौरे की भाषा का एक नमूना भी देखा जा सकता है, “क्यों बाई, जई सिखाओं को तुम अपने बच्‍चों को एक दिन हमारे मूड पर मूतने की कह देना। तुम्हारे नजदीक रहते हैं तो का हमारा कोई धरम काम नहीं है? का मरजी है तुम्हारी साफ-साफ कह दो।” इसी तरह से शहरी और शिक्षित वर्ग के पात्रों के संवादों में स्थानीय बोली का पुट कम और हिन्दी का पुट अधिक रहता है।

 

दूसरी तरफ दलित साहित्य में संस्कृत के प्रभाव वाली धारा प्रवाह भाषा भी देखने को मिलती है। जूठन में ही ओमप्रकाश वाल्मीकि की भाषा का यह एक नमूना देखा जा सकता है, “मैंने साफ मना कर दिया था। मैं किसी देवता की पूजा में विश्‍वास नहीं करता, पिताजी नाराज हो गए थे। मेरा अविश्‍वास उनकी आस्था पर चोट था, जिसके लिए वे मुझे माफ करने को तैयार नहीं थे। अभी तक शायद मेरे पूजा-पाठ में शामिल न होने को मेरा बचपना मानकर, कुछ विशेष जोर नहीं डालते थे लेकिन शादी-विवाह जैसे मौकों पर भी मेरा विरोध देखकर वे क्रोधित हो उठे थे।” इसी तरह से एक अन्य उदाहरण हम जयप्रकाश कर्दम के उपन्यास छप्पर  से भी देख सकते है, “तू ठीक कहता है रमिया! हम बिल्कुल अकेले हैं यहाँ और यही हमारी सबसे बड़ी समस्या है। गाँव में पूरी बिरादरी में चाहे कोई कितना भी मजबूर और परेशान रहा हो, लेकिन भूख से मरते नहीं देखा कभी किसी को। गाँव में तो बिना माँगे ही मदद करते हैं लोग एक-दूसरे की। यदि हम भी गाँव में होते तो और चाहे जो होता हमारा, लेकिन कम से कम भूखे तो नहीं मरते हम।” दलित साहित्य में परिष्कृत होती इस भाषा को दलित आलोचकों ने भी चिह्नित किया है। डॉ. एन. सिंह लिखते हैं कि “दलित साहित्य की भाषा शनै: शनै: प्रांजल एवं परिष्कृत होती जा रही है।… डॉ. सत्यप्रेमी के गद्य की तुलना डॉ. विद्यानिवास मिश्र के गद्य से की जा सकती है और कहा जा सकता है कि हिन्दी दलित साहित्य में भी सशक्त गद्य लेखक विद्यमान हैं।”

 

दलित लेखकों की भाषा पर प्राय: कमजोर होने का आरोप लगता रहता है। गद्यात्मकता की अधिकता के कारण सपाटबयानी का आरोप भी इस पर लगा है। दलित साहित्यकारों द्वारा इसका जवाब भी दिया गया कि यह अभिधात्मक लेखन है और इसमें अभिव्यक्त संवेदना पर ध्यान देना चाहिए। साहित्य सिद्धान्तों के परम्परागत मापदण्डों को नकारते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि “दलित साहित्य ने संस्कृतनिष्ठ परम्परागत साहित्यिक भाषा, काव्य शैली, प्रस्तुतीकरण को नकार कर सर्वग्राही भाषा का प्रयोग किया है। ऐसी भाषा जो दलितों को पीड़ा, अपमान, व्यथा की सही और यथार्थवादी अभिव्यक्ति बन सके। दलित साहित्य की भाषा नकार और विरोध की भाषा है, जिसमें युगों की यातनाएँ साकार हो उठी हैं।” अर्थात दावा यह है कि दलित साहित्यकारों द्वारा नए सौन्दर्यशास्‍त्र की बात की जा रही है। किसी भी साहित्यिक रचना के अध्ययन में हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी रचना की भाषा और शैली लेखक पर भी निर्भर करती है, पूरी साहित्यिक धारा को एक पैमाने पर नहीं रखा जा सकता। साहित्य में सपाटबयानी को आरोप की तरह नहीं लेना चाहिए, बल्कि इसे एक साहित्यिक विशेषता माना जाना चाहिए। हिन्दी कविता में भी एक वक्त में सपाटबयानी को कविता का एक प्रतिमान माना गया था।

 

5.1. वर्णनात्मक भाषा

 

दलित साहित्यकारों ने चित्रपरक भाषा का इस्तेमाल करते हुए कई प्रसंगों को सजीव बनाया है। जूठन, मुर्दहिया और मणिकर्णिका को हिन्दी दलित आत्मकथाओं में अनूठी पहचान दिलाने में इस चित्रमयी भाषा की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। तुलसीराम, श्यौराज सिंह बेचैन, मोहनदास नैमिशराय के यहाँ भी भाषा चित्र खिंचती सी चलती है। मराठी के शरण कुमार लिम्बाले और दया पँवार के यहाँ ऐसी ही भाषा है। जूठन  के आरम्भ में ही एक ऐसा चित्र है, जो सीधे बस्ती का दृश्य सामने रख देता है- “जोहड़ी के किनारे पर चूहड़ों के मकान थे, जिनके पीछे गाँव भर की औरतें, जवान लड़कियाँ, यहाँ तक कि नई नवेली दुल्हनें भी इस डब्बों वाली के किनारे, खुले में टट्टी, फरागत के लिए बैठ जाती थी।… इसी जगह गाँव भर के लड़ाई-झगड़े गोलमेज कॉन्फ्रेन्स की शक्ल में चर्चित होते थे। चारों तरफ गन्दगी भरी होती थी। ऐसी दुर्गन्ध की मिनट भर में सांस घुट जाए। तंग गलियों में घूमते सूअर, नंग-धडंग बच्‍चे, कुत्ते, रोजमर्रा के झगड़े, बस यह था वातावरण, जिसमें बचपन बीता।” यह चित्र दलितों के रहने की जगह और उसके आसपास के परिवेश को प्रस्तुत कर रहा है।

 

इसी तरह से दोहरा अभिशाप  में कौशल्या बैसन्ती अपनी बस्ती का वर्णन करती है, ‘बस्ती में चालीस-पचास घरों के लिए एक नल होता था। बस्ती काफी बड़ी थी। नल सवेरे पाँच बजे खुलता था और आठ बजे बन्द हो जाता था। शाम को फिर साढ़े पाँच बजे खुलता और सिर्फ एक-डेढ़ घण्टे ही पानी आता था।… लोग रात में तीन बजे से ही अपनी बारी के लिए बरतन रखते थे। नल के आगे बर्तनों, घड़ों की लाइन लगी रहती थी।।” ये उद्धरण लेखकों की बस्ती का पूरा चित्र पाठकों के सामने प्रस्तुत कर देती है।

 

5.2. गालियों का प्रयोग

 

साहित्य में शालीनता-अशालीनता, सभ्य-असभ्य, शील-अश्‍लील आदि का विवाद होता रहा है। दलित साहित्यकारों ने जब अपने जीवन के यथार्थ को बयान करते हुए उन्हें दी जाने वाली गालियों को भी अपनी रचनाओं में लिखा तो यह विवाद एक बार फिर उठ खड़ा हुआ। रामदरश मिश्र लिखते हैं कि “वे (दलित लेखक) जो लिख रहे हैं, उसकी कमजोरी को भी साहित्य की एक नई उपलब्धि मानकर, उसके मूल्यांकन का नया आधार खोजा जाए, यह वांछित नहीं है।” जबकि दलित साहित्यकारों का कहना है कि ये गालियाँ और अपमानजनक व्यवहार हमारे जीवन का हिस्सा है और यथार्थ वर्णन के लिए आवश्यक है। मोहनदास नैमिशराय लिखते हैं कि “हिन्दू समाज में आदमी की कीमत उसकी जात से ही आँकी जाती थी। हमें विशेष तौर पर चमार-चूड़े के नाम से सम्बोधित किया जाता था। पर उनके सम्बोधन के तौर-तरीके और भी घृणास्पद हुआ करते थे। उनके द्वारा कहे गए एक-एक शब्द हमारे शरीर को छीलते थे। बीच-बीच में वे गालियाँ भी देते थे।” इसलिए दलित कृतियों में गालियों का प्रयोग मिलता है।

 

सूरजपाल सिंह चौहान की आत्मकथा तिरस्कृत  में गालियों का प्रयोग है। लेखक का अपमान करते हुए लाला कहता है – “भैंचो भंगिया के, सीधे अररावत चलौ आ रहौ है…।” इसी तरह से ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन में भी कई जगह गालियों का प्रयोग हुआ है। जूठन  में एक प्रसंग में स्कूल के हेडमास्टर उन्हें को गालियाँ देते हैं, “अबे चूहड़े के, मादरचोद, कहाँ घुस गया… अपनी माँ…की…। जा लगा पूरे मैदान में झाड़े नहीं तो गाँड में मिर्च डाल के स्कूल के बाहर काढ़ (निकाल) दूँगा।” इस तरह इन गालियों का उपयोग कर दलित साहित्यकारों ने उनके साथ और पूरे समुदाय के साथ होने वाले अपमानजनक व्यवहार का यथार्थ चित्रण किया है। सांस्कृतिक महानता, शीलता और श्रेष्ठता के नाम पर अक्सर यह कटु सचाइयाँ छिपा दी जाती हैं। दलित लेखक तथाकथित ‘सभ्य-साहित्य’ की अवधारणा को तोड़ते हुए यथार्थ का वर्णन करते हैं। दलित साहित्य में गालियों के प्रयोग को अश्‍लील कहा गया, लेकिन दलित साहित्यकारों ने इस धारणा का प्रतिकार किया। साहित्य में इस तरह के प्रसंग पहले भी आते रहे हैं और इस प्रकार की भाषा भी पहले इस्तेमाल की गई थीं। जैसे कि राही मासूम रज़ा का आधा गाँव  उपन्यास गालियों के प्रयोग के कारण ही विवादित रहा था।

 

5.3. बिम्ब

 

कविता में बिम्ब का विशेष स्थान रहा है, हालाँकि यह अनिवार्य नहीं रहा है। चूँकि दलित साहित्य में दलित जीवन और समाज का चित्रण हुआ है, तो इसमें बिम्ब भी दलितों के जीवन से सम्बन्धित आए हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित कविता में बिम्बों के बारे में लिखा है कि “दलित कविता में बिम्ब दलित जीवन की त्रासदी और उसके यथार्थ को व्यक्त करते हैं। दलित कविता में अन्धेरा, आसपास के परिवेश में गन्दगी की सड़ान्ध, सीलन भरे तंग मकानों में सिसकती ज़िन्दगी, दलित जीवन के यथार्थ हैं, जो उनके जीवन के अविभाज्य घटक बन गए हैं। उन वस्तुओं को दृश्य बिम्ब के स्थान पर रखकर दलित कविता इन्हीं वस्तुओं में अपने जीवन के प्रतिबिम्ब ढूँढती है।” इसके साथ ही कुछ परम्परागतबिम्बों का सटीक प्रयोग भी दलित साहित्य में मिलता है। कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं–

 

गल चुकी मोमबत्तियाँ

आज वह जंगल की आग है/ बुझाए न बुझेगी/ आग का दरिया बन जागी

 (सुशीला टाकभौरे)

मुर्दा संस्कृति की लाश पर

डराती चील जश्‍न मनाएगी

जिसके पंखों के सा में संस्कृति का तकिया बनाकर

शिकारगाह में अधलेटा-आदमखोर

निकाल रहा है

दाँत में फसे माँस के रेशे

नुकीले खंजर से।               (ओमप्रकाश वाल्मीकि)

 

5.4. प्रतीक

 

साहित्य में प्रतीक की महत्ता भी सर्वविदित है। प्रतीक के प्रयोग से भावपक्ष की अभिव्यक्ति प्रभावशाली और अर्थपूर्ण बनती है। दलित साहित्य में दलित समुदाय की पीड़ा, बेबसी, उत्पीड़न, शोषण और इसके प्रतिकार के सामाजिक यथार्थ को चित्रित करने के लिए प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। दलित साहित्य में प्रतीकों के बारे में डॉ. तेज सिंह ने लिखा है कि “दलित कविता में परम्परागत प्रतीक भी नए-नए अर्थ देने लगते हैं, जो स्थायी बिम्ब बनकर हमारी चेतना पर प्रभाव छोड़ जाते हैं।” आगे जयप्रकाश कर्दम की कविता के सन्दर्भ में वे कहते हैं कि “उनकी कविता में नदी, बाँध, कलम और कबूतर जैसे परम्परागत प्रतीक भी नए-नए अर्थ देने लगते हैं। यदि नदी उस ब्राह्मणवादी समाज व्यवस्था का प्रतीक है, जो दलित शोषितों का हजारों साल से विनाश करती रही है तो ‘बाँध’ उन दलितों, शोषितों-उत्पीड़ितों की सामाजिक चेतना और उसकी ताकत का प्रतीक है, जो ‘वेगवती नदियों’ को भी अपने काबू में कर सकता है।” वस्तुत: दलित साहित्य में एक ओर दलित जीवन से नए प्रतीक आए हैं तो दूसरी तरफ परम्परागत प्रतीकों को भी नई अर्थवत्ता के साथ प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के लिए जयप्रकाश कर्दम की कविता में कबूतर क्रान्ति का सन्देश लेकर जाता है–

 

जाओ

उस व्यक्ति के पास

नहीं पहुँचती जिस तक

अखबार की खबरें भी।

 

इसी तरह ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने स्कूल के अनुभव को याद करते हुए भेड़िये को प्रतीक के रूप में लाते हैं, “हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उँगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्‍चे को दबोचकर उठा लेता है।” दलित साहित्य के गद्य में कई ऐसे प्रभावी प्रतीकों का प्रयोग किया गया है, कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं–

 

ऐसी फब्तियाँ जो बुझे तीर की तरह भीतर तक उतर जाती थीं।

जैसे सामने से मास्टर नहीं, कोई जंगली सूअर थुँथनी उठाए चला आ रहा है।

सूअर के साँटे झिंझोड़ते हुए, उसका चेहरा झबरे कुत्ते जैसा दिखता था। नशे में सूर्ख आँखों से शैतानियत झाँकती थी।

जैसे-जैसे खाल उतर रही थी, मेरे भीतर का रक्त जम रहा था।

‘चूहड़े के, तू द्रौणाचार्य से अपनी बराबरी करे हैं… ले तेरे ऊपर मैं महाकाव्य लिखूँगा।… और उसने मेरी पीठ पर सटाक-सटाक छड़ी से महाकाव्य लिख दिया।

 

प्रतीक के रूप मिथकों का पुनर्पाठ भी हमें दलित साहित्य में मिलता है, जिसमें एकलव्य और शम्बूक आदि को दलित चेतना के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। वर्चस्वशाली ब्राह्मणवादी व्यवस्था में शम्बूक और एकलव्य निषिद्ध कार्य करने वाले थे, लेकिन दलित साहित्य में ये सामाजिक चेतना के ताकतवर प्रतीक बनकर उभरते हैं। कँवल भारती की कविता शम्बू  में शम्बूक को सामाजिक परिवर्तन के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है –

 

शम्बूक

तुम आज भी सच हो

आज भी दे रहे हो शहादत

सामाजिक परिवर्तन के यज्ञ में। 

 

इसी तरह द्रोणाचार्य, वशिष्ठ आदि को वर्चस्वशाली परम्परा का प्रतीक मानते हुए मलखान सिंह लिखते हैं

 

तो सुनो वशिष्ठ!

द्रोणाचार्य तुम भी सुनो!

हम तुमसे घृणा करते हैं

तुम्हारे अतीत

तुम्हारी आस्थाओं पर थूकते हैं।

 

इन मिथकीय पात्रों के अतिरिक्त  अम्बेडकर, झलकारी बाई, फूलनदेवी आदि आधुनिक व्यक्तियों को भी प्रतीकों के रूप में इस्तेमाल किया।

 

5.5. शब्द-भण्डार

 

यदि हम शब्द भण्डार की बात करें तो दलित साहित्य की भाषा हमें सर्वाधिक विविधतापूर्ण मिलेगी। इसमें एक तरफ जहाँ सम्बन्धित स्थानीय बोलियों के शब्द हैं, वहीं दूसरी ओर संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी एवं मराठी, पंजाबी आदि अन्य भारतीय भाषाओं के शब्द भी हमें हिन्दी दलित साहित्य में मिलते हैं। दलित आत्मकथाओं, उपन्यासों और कहानियों में पात्र के संवादों में अपने परिवेश के अनुसार शब्द आते हैं, इसलिए चाहे दलित लेखक संस्कृत से स्वयं को असम्बद्ध करते हों, लेकिन उनकी भाषा में संस्कृत के शब्द भी प्रचुरता से मिलते हैं।

 

5.6. मुहावरे और कहावतें

 

दलित साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में मुहावरों और कहावतों का प्रचुर उपयोग किया है। भाषा के अन्य अवयवों की तरह ही कहावतों और मुहावरों से दलित साहित्य की भाषा की अर्थ-सम्प्रेषणीयता और प्रभावपरकता बढ़ी है। जैसे जूठन  के एक प्रसंग में ओमप्रकाश वाल्मीकि जब पढ़ाई में तेज साबित होते हैं, तो उन्हें तंग करते हुए बृजेश कहता है – “चूहड़े के, तेरे तो सचमुच सींग निकल आए हैं। तू तो बड़ी शेखी में रहता है। तेरी तो चाल ही बदल गई है।” इस एक ही वाक्य में तीन-तीन मुहावरों का प्रयोग कर वाल्मीकि ने बृजेश की ईर्ष्या और उसके अहम् का ढंग से चित्रण किया है। इसी तरह के अन्य कई मुहावरे और कहावतें हमें दलित लेखन में मिलती हैं, जिनमें से कुछ उदाहरण हम यहाँ देख सकते हैं –

 

‘आज जब मैं इन बातों के बारे में सोचता हूँ, तो मन के भीतर काँटे उगने लगते हैं।’ (जूठन)

‘तड़के से ढूँढ़-ढूँढ़कर गोड्डे टूट गए हैं।’ (बैल की खाल)

‘जब मैं पहुँचा तो चिता की राख ठण्डी हो गई थी।’ (मेरा बचपन मेरे कन्धों पर)

 

इनके अतिरिक्त हिन्दी के प्रचलित मुहावरों-कहावतों का भी प्रयोग किया है, जैसे घर की इज्जत नीलाम करना, हाथ धोकर पीछे पड़ना, दुखती रग को छेड़ना, चेहरे का रंग बदलना आदि। विशेष बात यह है कि हमारे यहाँ पर प्रचलित कहावतें और मुहावरे भी जातिगत पूर्वग्रहों से युक्त हैं। इसलिए दलित लेखन में उन जातिवादी आग्रहों को अभिव्यक्त करने वाली कहावतों और मुहावरों के उदाहरण भी मिलते हैं।

  1. निष्कर्ष

   वैसे तो प्रत्येक लेखक की भाषा की अपनी विशेषता होती है, लेकिन किसी एक साहित्यिक धारा के साहित्य में कुछ एक जैसी विशेषताएँ दिखाई देती हैं। दलित साहित्यकार अपनी भाषा की विशेषताओं पर जोर देते हुए इसे परम्परागत साहित्यिक भाषा से अलगाते हुए इसे दलित यथार्थ की अलग भाषा बताते हैं, जिसका प्राण दलितों की बोली और जन भाषाएँ हैं। दलित जीवन से जुड़ी शब्दावलियों और सन्दर्भों ने इस भाषा को विशिष्ट बनाया। साहित्य में जनभाषाओं और बोलियों का प्रयोग पहले भी होता रहा है, लेकिन दलित साहित्य ने उस भाषा में दलित जीवन और समाज का चित्रण करते हुए उस भाषा को सामाजिक चेतना का वाहक बनाया।

you can view video on दलित साहित्य की भाषा

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. दलित साहित्य के प्रतिमान,  एन. सिंह, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
  2. दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओम प्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
  3. सत्ता संस्कृति और दलित सौन्दर्यशास्त्र,  सूरज बड़त्या, अनामिका प्रकाशन, दिल्ली
  4. दलित साहित्य की अवधारणा, कंवलभारती, बोधिसत्व प्रकाशन, रामपुर
  5. दलित चेतना की कहानियाँ बदलती परिभाषाएँ, राजमणि शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. हिन्दी दलित कथा-साहित्य अवधारणाएं और विधाएं, रजत रानी ‘मीनू’ अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली
  7. दलित अभिव्यक्ति संवाद और प्रतिवाद (डॉ.जयप्रकाश कर्दम), रूपचन्द गौतम (सपा.), श्री नटराज प्रकाशन, दिल्ली
  8. रंग स्वर और शब्द, कृपाशंकर चौबे, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 

    वेब लिंक्स-

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
  2. http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3115&pageno=1
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