5 दलित साहित्य की परम्परा 3
किशोरी लाल रैगर
पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- प्रमुख दलित कहानियों का परिचय प्राप्त कर सकेंगे।
- प्रमुख दलित उपन्यासों से परिचित हो सकेंगे।
- प्रमुख दलित आत्मकथाओं के परिचय के साथ दलित आलोचना आदि के बारे में जान सकेंगे।
- दलितेतर लेखकों द्वारा रचित दलित साहित्य से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दलित साहित्य, कविता के साथ-साथ गद्य की महत्त्वपूर्ण विधाओं में भी सामने आया। दलित लेखकों ने जो अपनी बात कविता में अभिव्यक्त नहीं कर पाए, उसे कहानी के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। प्रमुख दलित कहानीकारों में ओमप्रकाश वाल्मीकि, रत्नकुमार साँभरिया, डॉ. एन. सिंह, कुसुम वियोगी, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, अजय नावरिया, सूरजपाल चौहान, शत्रुघ्न कुमार, बुद्धशरण हंस, सुशीला टाकभौरे, मोहनदास नैमिशराय आदि का नाम लिया जा सकता है। इसी तरह दलित लेखकों ने कुछ उपन्यास भी लिखे, हालाँकि दलित उपन्यासों की संख्या बहुत कम है। इस सम्बन्ध में जयप्रकाश कर्दम, प्रेम कपाड़िया, मोहनदास नैमिशराय, धर्मवीर, शरणकुमार लिम्बाले, रूपनारायण सोनकर का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है, जिन्होंने दलित उपन्यास लेखन में कुछ प्रयत्न किए। दलित साहित्य को वास्तविक पहचान दिलाने में दलित आत्मकथाओं का बहुत योगदान है, जिनके कारण दलित समाज की मर्मान्तक पीड़ा ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में हमारे सामने आती है। ये आत्मकथाएँ दलितों के भोगे हुए यथार्थ की करुण चित्कार है, जिनमें दया की माँग नहीं, विद्रोह की चिनगारी है। इसी प्रकार दलित लेखन उपर्युक्त प्रमुख विधाओं के साथ आलोचना, नाटक व अन्य कथेतर गद्यविधाओं में भी रचा जा रहा है।
दलित साहित्य के अन्तर्गत स्वानुभूति और सहानुभूति का सवाल उभरकर सामने आया। दलित लेखकों द्वारा लिखित साहित्य को स्वानुभूति का साहित्य माना गया तो गैर-दलितों द्वारा लिखित दलित साहित्य को सहानुभूति का साहित्य माना गया। लेकिन इस विवाद में न पड़कर हम यहाँ उन दलितेतर लेखकों के दलित साहित्य को भी रेखांकित करेंगे जिन्होंने दलित जीवन की यथार्थ स्थिति का चित्रण किया है। दलितेतर लेखकों का साहित्य हमें कहानी, कविता व उपन्यासों में मिलता है। दलित जीवन पर लिखने वाले ऐसे लेखकों में प्रेमचन्द, निराला, नागार्जुन आदि का नाम लिया जाता है।
- दलित कहानी
आठवें दशक में हिन्दी का समान्तर कहानी आन्दोलन परवान पर था। सारिका के सम्पादक कमलेश्वर ने इस आन्दोलन के माध्यम से समाज के कमजोर व पिछड़े वर्ग की समस्याओं को कहानी का केन्द्र बनाया। उन्होंने इस दृष्टि से अप्रैल-मई 1975 में सारिका के दो विशेषांक दलित साहित्य पर निकाले। इससे दलित लेखकों में मानवीय अधिकारों के प्रति चेतना जाग्रत हुई। इन संस्करणों में मराठी व हिन्दी के रचनाकारों की कहनियाँ प्रकाशित हुईं। इस सम्बन्ध में महीपसिंह ने दिसम्बर 1981 में संचेतना पत्रिका के विशेषांक के माध्यम से मराठी के कुछ दलित लेखकों की कहानियाँ प्रकाशित की, जिससे प्रेरित हिन्दी की दलित धारा के लेखकों ने भी दलित जीवन पर कहानियाँ लिखीं। इसके उपरान्त गिरिजाशरण अग्रवाल ने दलित जीवन की कहानियाँ सम्पादित की, किन्तु इसमें मात्र एक ही दलित कहानीकार रघुनाथ ‘प्यासा’ थे, शेष कहानीकार सवर्ण थे। जनवादी लेखिका रमणिका गुप्ता ने इस सोच को आगे बढ़ाते हुए दूसरी दुनिया का यथार्थ शीर्षक से एक और संकलन सम्पादित किया, जिसमें हिन्दी के दलित कहानीकारों के अतिरिक्त मराठी, गुजराती, पंजाबी, तेलुगु तथा मलयालम के दलित कहानीकारों को स्थान दिया गया।
दलित कहानी की यात्रा को आगे बढ़ाते हुए डॉ. एन. सिंह ने काले हाशिए पर तथा यातना की परछाइयाँ नाम से दो संकलन सम्पादित किए। इसी तरह डॉ. कुसुम वियोगी ने समकालीन दलित कहानियाँ, चर्चित दलित कहानियाँ तथा दलित महिला कथाकारों की कहानियाँ शीर्षक से तीन संकलन प्रकाशित किए। इन संकलनों के माध्यम से दलित लेखकों ने दलित जीवन के यथार्थ को हमारे सामने प्रस्तुत किया। “इन कहानियों में दलित जीवन की वेदना, निरन्तर संघर्ष करते रहने की अनिवार्यता, सुविधा भोगी लोगों के प्रति उनकी विरोध मुद्रा, प्रतिकूल नारकीय स्थिति में भी जीने की विवशता और अपने मानवीय अधिकारों की प्राप्ति हेतु आत्मसजगता जाग्रत हुई।’’ (रमेश कुमार, आजकल, जनवरी 1992, पृ. 13)
बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में दलित साहित्य ने एक आन्दोलन का रूप ग्रहण किया है। इस दौरान दलित लेखकों के कई कहानी संग्रह प्रकाश में आए।
इन दलित कहानियों के माध्यम से भारतीय समाज की वर्ण-व्यवस्था व जातिवाद का कडवा सच उजागर हुआ। इन कहानियों में जहाँ एक ओर दलितों के नारकीय जीवन का चित्रण है, वही दूसरी ओर उस यन्त्रणा से मुक्ति के लिए संघर्ष भी है। “इन कहानियों में दलित जीवन के कई कोण हैं – जीवन से जूझने के, जिन्दा रहने के, पीड़ा सहने के और उससे उबरने के। समय के लम्बे अन्तराल को छूती है ये कहानियाँ, इसलिए दलित चेतना के उदय से लेकर संकल्प बनने तक का विकास इनमें उजागर होता है। हीनभावना से उबरना, निर्मित होता आत्मसम्मान, तनकर खड़ी होती अस्मिता और परिवर्तन का संकल्प विकसित होता नजर आता है इनमें।’’ (रमणिका गुप्ता, दलित कहानी संचयन, पृ. 17)
- दलित उपन्यास
हिन्दी दलित लेखन में दलित लेखकों का ध्यान उपन्यास लेखन की ओर भी गया। यह बात अलग है कि इस ओर अभी तक कम ध्यान दिया जा रहा है, जिसके कारण दलित उपन्यास कम लिखे गए हैं। दलित उपन्यासों में पहला उपन्यास जयप्रकाश कर्दम का छप्पर माना जा सकता है, जो उन्नीस सौ चौरानवें में प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास चर्चा का विषय बना। इसके अगले ही वर्ष उन्नीस सौ पचानवे में प्रेम कपाड़िया का मिट्टी की सौगन्ध प्रकाशित हुआ, जिसे दलित साहित्य का प्रतिनिधि उपन्यास कहा गया है। इसी क्रम में सत्यप्रकाश के जस तस भई सवेर और मोहनदास नैमिशराय के मुक्ति पर्व उपन्यास की भी व्यापक स्तर पर चर्चा हुई। इन उपन्यासों में दलित उत्पीड़न व उससे मुक्ति की छटपटाहट प्रमुख रूप से अभिव्यक्त की गई है। अन्य दलित उपन्यासों में डॉ. धर्मवीर का पहला खत, रामजीलाल सहायक का बन्धन मुक्त, डी. पी. वरुण का अमर ज्योति, गुरूचरण सिंह का डूब जाती है नदी, शरण कुमार लिम्बाले का नर वानर आदि की चर्चा की जा सकती है। अभी हाल ही में रूपनारायण सोनकर के उपन्यास सूअरदान ने साहित्यिक जगत में हलचल मचा दी है। यह उपन्यास ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर चोट करते हुए उनके गोदान करने के मिथ को तोड़ता है।
दलित उपन्यासों का मूल उद्देश्य दलित चेतना पैदा करना है। दलित लेखकों का मानना है कि आजादी के सड़सठ वर्षों के पश्चात आज भी दलित समाज ब्राह्मणवादी एवं सामन्ती ताकतों के शोषण का शिकार है तथा दलितों को इनसे मुक्ति नहीं मिल पा रही है। आज भी इनके साथ शोषण व उत्पीड़न बदस्तूर जारी है। इसलिए दलित उपन्यास दलित चेतना व शोषण से मुक्ति का रास्ता दिखाते हैं।
- दलित आत्मकथा एवं अन्य विधाएँ
जब दलित लेखन में आत्मकथाओं का प्रकाशन हुआ तब साहित्य जगत में तहलका मच गया, क्योंकि ये आत्मकथाएँ दलित जीवन की मर्मान्तक पीड़ा को दहकते दस्तावेज के रूप में हमारे सामने लेकर आईं। दलित आलोचक इन आत्मकथाओं को आत्मकथा न मानकर आत्मकथ्य या आत्मवृत्त मानते हैं। यद्यपि बाबा साहेब अम्बेडकर ने कोई आत्मकथा नहीं लिखी, तथापि मेरा जीवन शीर्षक से 6 नवम्बर 1954 को जनता पत्र में उनका आत्मकथ्य अवश्य प्रकाशित हुआ। यही आत्मकथ्य दलित साहित्यकारों के लिए प्रेरणा स्रोत के रूप में काम आया और आगे चलकर दलित साहित्यकारों ने जिस ईमानदारी, तटस्थता, स्पष्टता, प्रमाणिकता व बेबाकी से अपने जीवन को अभिव्यक्त किया यही इन आत्मकथ्यों की जान है। इन आत्मवृत्तों की शुरुआत गंगाधर पाणतवाणे द्वारा सम्पादित पत्रिका अस्मितादर्श 1976 के दीपावली विशेषांक से हुई, जिसमें कुछ दलित मराठी साहित्यकारों के आत्मवृत्त प्रकाशित हुए।
मराठी के दलित साहित्यकार दया पंवार ने सर्वप्रथम सन् 1978 में अपना आत्मवृत्त बलुन्त के शीर्षक से प्रकाशित करवाया तथा सन् 1980 में हिन्दी में अछूत के नाम से इसका प्रकाशन हुआ। दया पँवार की यह आत्मकथा दिल दहलाने वाली है। इसके पश्चात शरण कुमार लिंबाले की अक्करमाशी, किशोर कान्ता बाई काली की ओ छोरा कोल्हाटी का, लक्ष्मण गायकवाड की उठाईगीर आदि आत्मवृत्त प्रकाशित हुए। इन आत्मवृत्तों से खलबली मच गई।
विद्वानों में इन दलित आत्मकथ्यों के सम्बन्ध में यह विवाद उठा कि इन्हें आत्मकथा कहा जाए या आत्मवृत्त या आत्मशैली में लिखा उपन्यास। डॉ. मैनेजर पाण्डेय इस सम्बन्ध में कहते हैं कि इनमें “उन्हें एक दलित-व्यक्ति का नहीं, बल्कि एक दलित समुदाय की कठिन सामाजिक स्थिति, उसके जीवन की भीषण वास्तविकताओं और उसके रोमाचंकारी सांस्कृतिक अनुभवों का उपन्यास जैसा विशद चित्रण दिखाई देता है। इसलिए इसे आत्मकथात्मक उपन्यास कहना ज्यादा सही मानते हैं।” (डॉ. मैनेजर पाण्डेय, अपेक्षा, जुलाई-सितम्बर 2003, पृ. 6)
हिन्दी में सर्वप्रथम डॉ. भगवानदास की आत्मकथा मैं भंगी हूँ प्रकाशित हुई, जो भगवानदास की आत्मकथा न होकर पूरे भंगी समाज की आत्मकथा है। इसके पश्चात मोहनदास नैमिशराय की अपने अपने पिंजरे प्रकाशित हुई। फिर ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन, डी. आर. जाटव की मेरा सफर मेरी मंजिल, सूरजपाल चौहान की तिरस्कृत, श्यौराज सिंह बेचैन की मेरा बचपन मेरे कंधों पर, तुलसीराम की मुर्दहिया व मणिकर्णिका, कौशल्या बैसंत्री की दोहरा अभिशाप और सुशीला टाकभौरे की शिकंजे का दर्द आदि आत्मकथात्मक कृतियाँ प्रकाशित हुई।
इन आत्मकथाओं पर टिप्पणी करते हुए कमलेश्वर ने कहा कि “ये आत्मकथ्य किसी भी प्रदेश या भाषा की मानसिकता का नहीं बल्कि भारतीय मानसिकता का रचनात्मक और संघर्षपूर्ण विवरण पेश करते हैं। यह जितने आत्मीय हैं, उतने ही अनात्म भी; क्योंकि इनमें लेखक मात्र लेखकीय दर्प या दम्भ का बाना पहनकर नहीं आता, वह अपने को अपने समय के भारतीय सामान्य जन के समकक्ष रखकर उसकी ही तरह दुखः सुख, यातनाओं, अन्याय से भरी आत्म-कहानी को समय की गर्दिश में देखता है।’’ (कमलेश्वर, गर्दिश के दिन की भूमिका से)
दलित साहित्य आज कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा आदि के साथ आलोचना व अन्य विधाओं में भी लिखा जा रहा है। नाटक, एकांकी, संस्मरण आदि में भी दलित साहित्य फल-फूल रहा है। आलोचना के क्षेत्र में जहाँ रामचन्द्र शुक्लीय आलोचना का वर्चस्व रहा, वहीं दलित आलोचना इस परम्परा को तोड़कर, नामवर सिंह की ‘दूसरी परम्परा’ से भी परे हटकर ‘तीसरी परम्परा’ अर्थात् अम्बेडकरीय परम्परा के रूप में अपने को स्थापित कर रही है। इसी तरह से दलित साहित्य को स्थापित करने में हमदलित, वायस आफ दलित, बयान, तीसरा पक्ष, अपेक्षा जैसी पत्रिकाओं का भी अपूर्व योगदान है। अतः कह सकते हैं कि “दलित साहित्य ने उन बहिष्कृत लोगों को अपना नायक बनाया है, जिन्हें सम्पूर्ण वर्ण-व्यवस्था ने अमंगल और अपवित्र माना, पूर्व जन्म का अपराधी कहकर जिनकी निन्दा की गई, सभी स्मृतिकारों ने जिनके साथ शत्रुत्व बरता और जिन्हें कभी साहित्य में नायक या उपनायक का स्थान नहीं मिला, दलित साहित्य ने इन्हीं बहिष्कृतों को अपने विचार-रचना का केन्द्र बिन्दु बनाया है, क्योंकि सम्यक् परिवर्तन इनका स्वाभाविक कार्य है।’’ (बाबूराव बागुल, नवनीत हिन्दी डाइजेस्ट, अप्रैल 2010, पृ. 31)
- दलितेतर लेखकों द्वारा रचित दलित साहित्य
दलितेतर लेखकों द्वारा रचित दलित लेखन की मूल प्ररेणा में गाँधी जी व अन्य हिन्दूवादी समाज सुधारक रहे हैं, क्योंकि गाँधी एवं अन्य समाज सुधारक भी छुआछूत तथा ऊँच-नीच के भेदभाव की निन्दा करते थे। इस परम्परा को दलित आलोचक हिन्दूवादी दलित धारा भी कहते हैं तथा सहानुभूति का साहित्य भी कहते हैं। दलित जीवन पर लिखित यह साहित्य कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि सभी विधाओं में मिलता है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविता के माध्यम से ‘उठो कि छूमन्तर हो छूत’ कहकर दलित चेतना का आह्वान किया। उन्होंने ‘छोड़ो उँच-नीच का दम्भ, सम है हम सबका आरम्भ’ (चातुर्वर्ण्य, हिन्दू, मैथिलीशरण गुप्त, पृ. 120) कहते हुए चातुर्वर्ण्य व्यवस्था व अस्पृश्यता का विरोध किया। रामचन्द्र शुक्ल ने अछूत की आह कविता लिखकर दलितों की कारुणिक स्थिति का चित्रण किया। यह अकेली कविता आचार्य शुक्ल को ब्राह्मणवाद के दोष से मुक्त कर देती है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने रश्मिरथी में कर्ण के माध्यम से जातिभेद का विरोध किया – ‘जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखण्ड/ उपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले के काले/ शरमाते हैं नहीं जगत में जाति पूछने वाले।’ (दिनकर, रश्मिरथी, पृ. 4)
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, बालकृष्ण शर्मा नवीन, रांगेय राघव, शिवमंगल सिंह सुमन आदि ने अपनी कविता द्वारा दलित चेतना जाग्रत करने का प्रयास किया है। समकालीन कवियों में मुक्तिबोध, नागार्जुन, धूमिल ने दलित चेतना को तरजीह दी। इस सम्बन्ध में धूमिल की मोचीराम व नागार्जुन की हरिजन गाथा बहुत प्रसिद्ध है। गोरख पाण्डेय, राजकुमार कुम्भज, लीलाधर जगूडी, शमशेर बहादुर सिंह दलित चेतना के संवाहक कवि रहे हैं। एक कवि दलित चेतना जाग्रत करते हुए कहते हैं कि –
जाति धर्म की तोड़ श्रृंखला खुली हवा में आओ।
दुनिया के शोषित मिलकर अब एक सभी हो जाओ।
(लक्ष्मीनारायण सुधाकर, उत्पीड़न की यात्रा, पृ. 61)
इस प्रकार अनेक दलितेतर कवियों ने दलितों की समस्याओं को उठाकर इनसे मुक्त होने का आह्वान किया है। प्रगतिशील चेतना के जनवादी कवि दलित वर्ग के आर्थिक सवालों के साथ-साथ सामाजिक समानता की भी बात करते हैं ।
दलित चेतना आधुनिक कथा साहित्य में बखूबी प्रकट हुई है। प्रेमचन्द्र ने रंगभूमि, कायाकल्प, कर्मभूमि व गोदान आदि उपन्यासों के माध्यम से दलित चेतना को प्रस्तुत किया है। वे गाँधी जी के अछूतोद्धार कार्यक्रम के समर्थक थे। उन्होंने इन उपन्यासों के माध्यम से दलितों के प्रति सवर्णों के अमानुषिक व्यवहार की निन्दा की है, इसलिए वे सामाजिक बदलाव के पक्षधर थे। पाण्डे बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने बँधुआ की बेटी, भगवतीचरण वर्मा ने भूले बिसरे चित्र, सियारामशरण गुप्त ने अन्तिम आकांक्षा, निराला ने निरूपमा और कुल्ली भाट, नागार्जुन ने दुःख मोचन व बलचनमा, रांगेय राघव ने कब तक पुकाँरू, अमृतलाल नागर ने नाच्यौ बहुत गोपाल, जगदीश चन्द्र ने धरती धन न अपना, फणीश्वरनाथ रेणु ने मैला आँचल तथा परती परिकथा, चतुरसेन शास्त्री ने गोली आदि उपन्यासों के माध्यम से दलितों की यातनामय जिन्दगी का खुलासा किया है। इन उपन्यासों के माध्यम से दलित पीड़ा अभिव्यक्त हुई है और कहीं-कहीं दलित चेतना भी दिखाई पड़ती है, पर दलित मुक्ति के लिए उस तरह का संघर्ष नहीं दिखाया गया जो दलित लेखकों के यहाँ सम्भव है।
इसी प्रकार श्रीराम शर्मा के नदी का मोड़, प्रतीति, रामदरश मिश्र के जल टूटता हुआ व सूखता हुआ तालाब, गिरिराज किशोर के यथा-प्रस्तावित व परिशिष्ट, शिवप्रसाद सिंह के शैलूश, अब्दुल बिस्मिल्लाह के झीनी-झीनी बीनी चदरिया, नरेन्द्र कोहली के अवसर, ब्रजभूषण के मंगलोदय, रमणिका गुप्ता के सीता आदि उपन्यासों के माध्यम से दलित जीवन की कथावस्तु को विस्तार दिया गया है। वस्तुतः दलित चेतना के इसी प्रयास से दलित साहित्य की आधार भूमि भी तैयार होती है।
उपन्यासों की भाँति दलितेतर लेखकों ने अपनी कहानियों के माध्यम से भी दलित जीवन का कारुणिक चित्रण प्रस्तुत किया है। प्रेमचन्द ने ठाकुर का कुआँ, सद्गति, मन्दिर, मुक्तिमार्ग, मन्त्र, क़फन, सौभाग्य के कोड़े, घासवाली आदि कहानियों के माध्यम से दलितों के कटु सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत किया है। प्रेमचन्द की कहानियों के बारे में कँवल भारती लिखते हैं – “प्रेमचन्द जिस प्रगतिशीलता को लेकर चल रहे थे, वे भले ही अम्बेडकरवादी न हो, पर उसके निकट जरूर थी।’’ (कँवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका, पृ. 119)
निराला ने चतुरी चमार, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने समाज के चरण, उपेन्द्रनाथ अश्क ने पिंजड़ा, राहुल सांकृत्यायन ने पुजारी, सतमी के बच्चे व सुवर्ण योधेय कहानियों के माध्यम से दलित समस्या की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। इन कहानीकारों के अतिरिक्त प्रगतिशील चेतना के लेखकों रांगेय राघव, नागार्जुन आदि ने अपनी रचनाओं के माध्यम से दलित जीवन की ओर संकेत किया है।
दलितेतर लेखकों द्वारा दलित चेतना का यह प्रवाह साहित्य की अन्य विधाओं नाटक व रेखाचित्रों के माध्यम से भी प्रस्तुत हुआ। दलितेतर लेखकों का उद्देश्य डॉ. भीमराव अम्बेडकर का दलितोद्धार आन्दोलन भले न रहा हो, किन्तु उन्होंने जिस रूप में दलित चेतना को प्रकट किया, उससे दलित साहित्य को प्रेरणा अवश्य मिली। कँवल भारती ने इस सम्बन्ध में कहा है कि “इस धारा के सम्बन्ध में एक बात यह बताने की है कि दलित चेतना की धारा के रूप में उसने अपना कोई पृथक अस्तित्व कायम नहीं किया, वरन् इसमें यदा-कदा दलित पक्ष में लिखने की कोशिश की गई है। इस धारा में कोई भी लेखक या कवि नहीं हुआ, जिसने अपना सम्पूर्ण रचनाकर्म दलित संवेदना को व्यक्त करने में समर्पित किया हो। इस धारा में दलित धारा का एक खास मकसद है। यह मकसद है, दलितों के प्रति सवर्ण मन को उदार बनाना, ताकि दलित हिन्दुत्व से विद्रोह करके व्यवस्था के लिए खतरा न पैदा कर दें।’’ (कँवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका, पृ. 114)
- निष्कर्ष
उपर्युक्त पाठ के अध्ययन के पश्चात हम कह सकते हैं कि जब दलितों को संवैधानिक रूप से अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार मिला तो उन्होंने सदियों के अपने दुख-दर्द व उन पर होने वाले अत्याचारों को गद्य की महत्त्वपूर्ण विधाओं – कहानी, उपन्यास व आत्मकथाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति किया। चाहे ओमप्रकाश वाल्मीकि की सलाम, ग्रहण, पच्चीस चौका डेढ़ सौ कहानियाँ हो या रत्नकुमार साँभरिया की कील, शर्त या फुलवा कहानियाँ हो इनके माध्यम से एक ओर सामन्ती व ब्राह्मणवादी अत्याचारों का यथार्थ एवं कारुणिक चित्रण है, तो दूसरी ओर सदियों से इस अत्याचार से मुक्ति के लिए चेतना का आह्वान भी है। दलित कहानीकारों में मोहनदास नैमिशराय, दयानन्द बटोही, अजय नावरिया, कुसुम वियोगी, सुशीला टाकभौरे आदि का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने दलित कहानी को नई पहचान दी है। इसी तरह उपन्यास, आत्मकथा, आलोचना आदि क्षेत्रों में भी दलित लेखकों ने लेखन किया है।
अन्त में यही कहा जा सकता है कि दलित साहित्य की प्राचीन एवं सुदीर्घ परम्परा रही है। इसने परम्परागत साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रीय मूल्यों को चुनौती देकर अपनी भाषा व शिल्प गढ़ा है, जिसमें नए बिम्बों व प्रतीकों की संकल्पना के साथ नए मुहावरे भी हैं। अतः दलित साहित्य आज हाशिए का साहित्य नहीं रहा। इसने साहित्य के मुख पृष्ठ पर अपनी जगह बना ली है, जिससे दलित अस्मिता सिद्ध होने लगी है। यही इस साहित्य की सफलता का मानदण्ड है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- दलित चेतना-साहित्य एवं सामाजिक सरोकार, रमणिका गुप्ता, समीक्षा प्रकाशन, दिल्ली
- दलित कहानी संचयन, रमणिका गुप्ता(संपा.), साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
- आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेन्द्र चौबे, ओरिअंट ब्लैकस्वान, हैदराबाद
- दलित साहित्य की अवधारणा, कँवल भारती, बोधिसत्व प्रकाशन, इलाहाबाद
- दलित दखल, श्यौराज सिंह बेचैन एवं रजत रानी मीनू(संपा.) साहित्यिक संस्थान, गाजियाबाद
- दलित साहित्य की विकास-यात्रा(ओमप्रकाश वाल्मीकि के साक्षात्कार), डॉ.राम चन्द्र संकलन एवं संपादन, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद,
- हिन्दी साहित्य का सबाल्टर्न इतिहास (सिध्द साहित्य से सन्त साहित्य तक), राजेन्द्र प्रसाद सिंह , गौतम बुक सेन्टर, दिल्ली
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि :: राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- दलित चेतना की कहानियाँ बदलती परिभाषाएँ , राजमणि शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- उत्पीड़न की यात्रा, लक्ष्मीनारायण सुधाकर
- अपेक्षा, जुलाई-सितम्बर 2003: सं. डॉ.तेज सिंह
वेब लिंक्स-
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%86%E0%A4%9C_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%86%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0
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