4 दलित साहित्य की परम्परा 2
किशोरी लाल रैगर
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- पुनर्जागरण आन्दोलन के दौरान ज्योतिबा फुले द्वारा किए गए दलित चेतना सम्बन्धी कार्यों को समझ सकेंगे।
- नारायण गुरु व उनके शिष्यों तथा ई.वी. रामास्वामी पेरियार द्वारा की गई दलित चेतना को जान पाएँगे।
- बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के दलित चेतना सम्बन्धी विचारों से परिचित होंगे।
- बीसवीं सदी के प्रारम्भ में दलित साहित्य लेखन में अछूतानन्द, हीरा डोम व उनके समसामायिक कवियों के योगदान को समझ पाएँगे।
- बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के महत्त्वपूर्ण दलित कवियों की रचनाओं से परिचय प्राप्त कर सकेंगे।
2. प्रस्तावना
उन्नीसवीं सदी के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक पुनर्जागरण के साथ ही आधुनिक युग की दस्तक मानी जाती है। सदियों से रूढ़ियों और परम्पराओं की मार झेल रहे मानव में पुनर्जागरण आन्दोलन ने चेतना जाग्रत करने का कार्य किया। इस समय तक समाज रीतिकालीन सामन्तवादी मूल्यों की चपेट में था। समाज में ऊँच-नीच, छुआछूत की भावना इस कदर व्याप्त थी कि दलित जातियों का जीना दूभर हो गया था। इस दौरान ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज आदि के द्वारा हिन्दू धर्म एवं संस्कृति में फैल रही कुरीतियों के परिष्कार के लिए प्रयास किया गया। दूसरी ओर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का शंखनाद फूँका जा चुका था। अतः पुनर्जागरण आन्दोलन ने साम्राज्यवाद विरोधी चेतना व सामन्तवाद विरोधी चेतना जगाने का पुरजोर कार्य किया। इस दौरान रूढ़िवादी ताकतों पर प्रहार किया गया, जिससे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष को बल मिला। पुनर्जागरण के प्रणेताओं ने समाज को सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक दासता से मुक्त करवाकर समानता एवं स्वतन्त्रता के आधार पर नए समाज की संकल्पना तैयार की। सदियों से जातिवाद व वर्ण व्यवस्था की ठोकरें खा-खाकर समाज से बहिष्कृत दलित जातियों में आत्मविश्वास व चेतना जागृत करने के लिए सत्यशोधक समाज के प्रणेता महात्मा ज्योतिबा फुले आगे आए। उन्होंने दलितों व महिलाओं को अन्धकारमय जीवन से निकालकर शिक्षा के प्रकाश से नई जिन्दगी दी। उनके पश्चात् बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने सदियों से सोए हुए दलितों को जगाकर उनकी रगों में चेतना जाग्रत की। डॉ. अम्बेडकर ने शिक्षा का महत्त्व बताया, फलस्वरूप दलितों ने अपनी लेखनी से अपनी पीड़ा प्रकट करने का साहस किया। ‘आदि हिन्दू’ आन्दोलन के प्रणेता स्वामी अछूतानन्द ने दलित पत्रकारिता द्वारा दलितों में सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक व सांस्कृतिक चेतना जाग्रत की। इसी दौरान हीरा डोम की कविता अछूत की शिकायत प्रकाशित हुई। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आधुनिक युग के प्रारम्भ में दलित साहित्य लेखन के लिए व्यापक पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी। इसी व्यापक पृष्ठभूमि पर बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कई दलित रचनाकार उभर कर आए। वैसे तो उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में लेखन किया, किन्तु दलित लेखन में कविता ही सबसे पहले उभर कर आई। जिसने दलित साहित्य को पहचान दी। दलित कवियों में ओम प्रकाश वाल्मीकि, एन सिंह, धर्मवीर, श्यौराज सिंह बेचैन, प्रेमशंकर, जयप्रकाश कर्दम, सुखवीर सिंह, मलखान सिंह आदि का नाम लिया जाता है। अतः इस इकाई के अन्तर्गत हम दलित साहित्य के आधुनिक काल की पृष्ठभूमि पर व्यापक प्रकाश डालते हुए उपर्युक्त दलित कवियों की रचनाओं पर भी चर्चा करेंगे।
3. दलित साहित्य के आधुनिक काल की पृष्ठभूमि
भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान पुनर्जागरण की लहर चली। पुनर्जागरण ने मध्यकालीन सामन्ती मूल्यों और परम्पराओं को ध्वस्त करते हुए हिन्दू समाज में फैली हुई बुराइयों पर प्रहार किया। यह युग एक तरह से सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक सुधार का आन्दोलन था। उन्नीसवीं शताब्दी में दलितोद्धार का महान् कार्य करने वालों में ज्योतिबा फुले का नाम लिया जाता है। उन्होंने और उनकी पत्नी सावित्री फुले ने अपना सारा जीवन दलितों को शोषण से मुक्ति दिलाने व उनमें स्वाभिमान जगाने में लगा दिया। “ज्योतिबा फुले आधुनिक भारत में क्रांतिकारी समाज-परिवर्तन आन्दोलन के मूल प्रवर्तक है, यह बात सिद्ध करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। उनके साहित्य को पढ़ने से ही इस बात पता चल जाता है कि उन्होंने किस तरह हिन्दू समाज के शूद्रादि-अतिशूद्रों (दलित और पिछडे वर्ग के लोगों) की समस्या को उजागर करने की कोशिश की है।” (महात्मा ज्योतिबा फुले रचनावली, भाग-1, भूमिका से)
ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणों की चालाकी, गुलामगिरी तथा कई पँवाड़ा लिखकर ब्राह्मण-पुरोहितों द्वारा दलितों पर किए जा रहे अत्याचारों का खुलासा किया। वस्तुतः आधुनिक काल में दलित साहित्य का शुभारम्भ ज्योतिबा फुले द्वारा ही हुआ। उन्होंने ब्राह्मणों के पाखण्डी ग्रन्थों की चालाकी, छल, कपट को अपनी कविता के एक अभंग में इस प्रकार प्रकट किया है –
मनु जलकर खाक हो गया जब अंग्रेज आया।
ज्ञानरूपी माँ ने हमको दूध पिलाया।।
अब तो तुम भी पीछे न रहो।
भाइयो, पूरी तरह जलाकर खाक कर दो मनुवाद को।।
हम शिक्षा पाते ही पाएँगे वह सुख।
पढ़ लो मेरा लेख, जोति कहे।।
(कंवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका, पृ. 106 से उद्धृत ज्योतिबा फुले की कविता)
वस्तुतः ज्योतिबा फुले ने दलित जागरण के लिए जो आन्दोलन चलाया उसी से आगे चल कर दलित साहित्य की वैचारिक पृष्ठभूमि का निर्माण हुआ। ज्योतिबा ने ‘सत्यशोधक’ समाज की स्थापना कर दलितों को ब्राह्मण शास्त्रों के प्रभाव से मुक्त किया तथा उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक कर धार्मिक व मानसिक दासता से मुक्ति दिलवाई।
महाराष्ट्र के ज्योतिबा फुले के समान केरल के नारायण गुरु ने भी दलितों में स्वाभिमान जगाया। “नारायण गुरु ने ‘जाति मत पूछो जाति मत बताओ और जाति के बारे में मत सोचो’ के नारे को लोकप्रिय बनाया। जाति की धारणा को ही खत्म कर देना उस समय की तात्कालिक जरूरत थी। नारायण गुरु ने जाति-व्यवस्था जैसी भद्दी और आत्मा के लिए हानिप्रद प्रथा पर ऐसी काव्यात्मकता से कोड़े फटकारे कि उसने लोगों का रवैया ही बदल दिया (अयप्पा पणिक्कर के विचार, कँवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका से उद्धृत, पृ. 108)।”
आगे चलकर नारायण गुरु के शिष्य आशन ने भी जाति प्रथा को समाज के अनिष्टकारी तत्त्व के रूप में माना। इस सम्बन्ध में उनकी दुरवस्था कविता की ये पंक्तियाँ उद्धृत की जा सकती है, जो बेहद विचारोत्तेजक हैं –
पूज्य ब्राह्मणों, मैं यह कहने का साहस करूँ
यदि आप इसे अनुचित समझें तो भी
देश और उसकी निष्ठा का ख्याल करके
लोगों और आप जैसे पुण्यात्माओं का
वक्त बदल गया है
और परम्परागत रीति-रिवाजों के बन्धन भी
पुराने और जर्जर हो गए हैं
जाग्रत लोग कमजोर धागों से
बँधे नहीं रहेंगे।
(कँवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका से उद्धृत, पृ. 109)
केरल में ही मछुआरा जाति में जन्मे कवि के. पी. करूप्पन ने जाति कुम्भी नामक लम्बी कविता में जातिवाद की घोर निन्दा की है –
यह जो पूरी दुनिया तुम देख रहे हो
इसमें सब ईश्वर की सन्तान हैं और सबकी एक ही जाति है।
अपने जैसों को कोई क्या परे हटा सकता है?
क्या ईश्वर इसे नहीं देख रहा है?
क्या अस्पृश्यता परले दर्जे की धृष्टता नहीं है?’’
(कँवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका, पृ. 107-108 से उद्धृत)
दलित साहित्य की परम्परा को सुदृढ करने में ‘स्व-सम्मान’ आन्दोलन के प्रणेता तमिलनाडु के पेरियार ई.वी. रामास्वामी का योगदान अविस्मरणीय है। समृद्ध व्यापारी परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने ब्राह्मणवाद का घोर विरोध किया। पेरियार का “आन्दोलन पूर्णरूपेण ईश्वर विरोधी व ब्राह्मणवाद विरोधी माना गया, क्योंकि समाज में असमानता, जातिवाद, वर्ण-व्यवस्था, धर्मवाद, आडम्बर, सभी इन्हीं के आधार पर तथा इन्हीं के द्वारा किया जाता है।” (प्रभात पोस्ट, 4 जुलाई 2015, पृ. 5)
बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर स्वयं पेरियार रामास्वामी से काफी प्रभावित थे। दोनों एक दूसरे की काफी इज्जत करते थे, क्योंकि दोनों का एक ही उद्देश्य था समाज में ब्राह्मणवादी वर्चस्व व जातिवाद को समाप्त कर मानवतावाद की स्थापना करना।
आज का जो दलित साहित्य लिखा जा रहा है, यद्यपि उसकी परम्परा काफी सुदीर्घ एवं प्राचीन है तथापि उस पर सबसे अधिक प्रभाव बाबा साहेब अम्बेडकर का है। “दलित समाज को डॉ. अम्बेडकर के रूप में पहली बार एक प्रखर व्यक्तित्व मिला, जो इसके लिए ज्योति स्तम्भ साबित हुआ और जिसने युगों से अन्धेरे में भटकते हुए इस वर्ग को राह दिखाने का काम किया।” (डॉ. एन. सिंह, दलित साहित्य परम्परा और विन्यास, पृ. 78)
डॉ. अम्बेडकर ने स्वयं दलित होने की पीड़ा भोगी ही नहीं, बल्कि उसके कारणों का गहराई से मन्थन भी किया था। अतः दलितों में सम्मान व प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए उन्होंने दलितों में प्राण फूंकने का काम किया। छुआछूत व जातिवाद के निवारण के लिए उन्होंने न केवल कई सामाजिक आन्दोलन चलाए अपितु समाचार पत्रों मूक नायक व बहिष्कृत भारत द्वारा अपने विचारों को भी अभिव्यक्त किया। उनके द्वारा लिखी दर्जनों पुस्तकें तथा समय-समय पर दिए गए उनके व्याख्यान दलित साहित्य के अजस्त्र प्रेरणा स्त्रोत है, जिनके आधार पर ही दलित साहित्य का सृजन हुआ।
बीसवीं सदी का उतरार्द्ध दलित साहित्य लेखन व विमर्श के लिए व्यापक रूप से चर्चित रहा, किन्तु इससे पूर्व बीसवीं सदी के आरम्भ में ही स्वयं दलित लेखकों द्वारा इसका बीजांकुरण हो चुका था।
4. आधुनिक काल का प्रारम्भिक दलित साहित्य
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में स्वामी अछूतानन्द ने ‘आदि हिन्दू’ आन्दोलन को जन्म देकर ब्राह्मणवादी व्यवस्थाओं को चुनौती दी। उन्होंने दलितों को उनके इतिहास से परिचित करवाकर उनमें स्वाभिमान पैदा किया। एक शोध के अनुसार हीरा डोम से भी पहले सन् 1912 में उनकी ब्राह्मणवाद विरोधी एक कविता छप चुकी थी। वे ‘हरिहर’ उपनाम से लिखते थे। मनुस्मृति के विरुद्ध लिखी स्वामी अछूतानन्द की कविता इस प्रकार है –
निसदिन मनुस्मृति ये हमको जला रही है।
ऊपर न उठने देती नीचे गिरा रही है।
ब्राह्मण व क्षत्रियों को सबको बनाया अफसर,
हमको पुराने उतरन पहनो बता रही है।
दौलत कभी न जोड़े गर हो तो छीन ले वह,
फिर नीच कह हमारा दिल भी दुखा रही है।
कुत्ते व बिल्ली, मक्खी से भी बना के नीचा,
हा शोक, गांव बाहर हमको बसा रही है।
(कँवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका, पृ. 112-113 से उद्धृत)
हिन्दी के कुछ आलोचक भोजपुरी में लिखित हीरा डोम की कविता अछूत की शिकायत को हिन्दी की पहली दलित कविता मानते हैं। जिसका प्रकाशन सन् 1914 के सरस्वती के अंक में हुआ था, किन्तु जैसा कि पूर्व में उल्लेख हो चुका है कि स्वामी अछूतानन्द की कविता इससे भी पूर्व सन् 1912 में छप चुकी थी। इस विवाद में न पड़ते हुए हम यहाँ हीरा डोम की कविता की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं, जिसमें उन्होंने शिकायत भरे लहजे में अपनी बात कही है –
हमनी के रात दिन दुखवा भोगत बानी,
हमनी के सहेजे से मिनती सुनाइबि।
हमनी के दुख भगवनओं न देखता जे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।
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कहवां सुतल बाटे सुनत न बाटे अब,
डोम जानि हमनी के छुए से डेरइले।
हमनी के इनरा के निगिचे न जाइले जा,
पांके में से भरि भरि, पिय तानी पानी।
पनही से पिटि पिटि हाथ जोड़, तुरि दैलैं,
हमनी के इतनी काही के हलकानी।
(कँवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका, पृ. 111 से उद्धृत)
हीरा डोम ने अपनी कविता के माध्यम से दलित जीवन के दुःख-दर्द व उस पर होने वाले अत्याचारों का बड़ा ही कारुणिक चित्रण इस कविता के माध्यम से किया है। “हीरा डोम की अछूत की शिकायत कविता में विचारोंत्तेजक दलित विमर्श है। यह विशुद्ध रूप से दलित संवेदना की कविता है, जिसमें एक अछूत अपने कष्टों का वर्णन कर रहा है – भगवान के सामने, शायद हम-सबके सामने। यह वर्णन मर्मस्पर्शी है, संवेदना को हिला देने वाला।” (कँवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका, पृ. 110)
दलित साहित्यकार प्रारम्भ से ही मानते हैं कि दलितों की दयनीय दशा के लिए जिम्मेदार वेद, पुराण व मनु का बनाया गया विधान ही है। अतः वे उस पर ही चोट करते हैं। स्वामी अछूतानन्द के ‘आदि हिन्दू’ आन्दोलन से जुड़े कवि केवलानन्द का यह गीत वर्ण व्यवस्था के नियामकों से गहरे प्रश्न पूछता है –
मनुजी तुमने वर्ण बना दिए चार।
जा दिन तुमने वर्ण बनाए, न्यारेऊ रंग बनाए क्यों ना।
गोरे ब्राह्मण, लाल क्षत्रिय, बनिया पीले बनाए क्यों ना।
शुद्र बनाते काले वर्ण के, पीछे को पैर लगवाए क्यों ना।
(कँवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका, पृ. 113 से उद्धृत केवलानन्द की कविता)
उपर्युक्त कवियों के अतिरिक्त भी स्वामी शंकरानन्द, अयोध्यानाथ दण्डी, बिहारीलाल हरीत जैसे समर्थ कवि हुए जिन्होंने साहित्य की दलित धारा को समृद्ध किया।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में दलित साहित्य फुटकर रूप में ही लिखा जा रहा था। उस समय यह आन्दोलन का रूप नहीं बन पाया। दलित साहित्य में व्यापक रूप से उभार बाबा साहब के परिनिर्वाण के पश्चात् ही आया। हाँ इस बीच कुछ दलितेतर लेखकों ने दलितों की दुर्दशा पर अवश्य ही लिखा कि दलित लेखन पर सबसे अधिक प्रभाव बाबा साहेब के जीवन और दर्शन का पड़ा। बाबा साहेब कहा करते थे कि उन्होंने ऋग्वेद, अथर्ववेद कितनी ही बार पढ़े, किन्तु उनमें मानव की उन्नति और नीतिमत्ता के लिए कुछ भी नहीं है। उनकी दृष्टि में विषमता का समर्थन करने वाली मनुस्मृति उन्हें मान्य नहीं थी, इसलिए वे ऐसी पोथियों को जलाने की बात कहते हैं। बाबा साहेब साहित्य के माध्यम से आम आदमी की पीड़ा को व्यक्त करने के पक्षधर थे, इसलिए उन्होंने कहा कि “अपनी साहित्य की रचनाओं में उदात्त जीवन मूल्यों और सांस्कृतिक मूल्यों को परिष्कृत कीजिए। अपना लक्ष्य सीमित मत रखिए। अपनी कलम की रोशनी को इस तरह से परिवर्तित कीजिए कि गाँव, देहातों का अन्धेरा दूर हो। यह मत भूलिए कि अपने देश में दलितों और उपेक्षितों की दुनिया बहुत बड़ी है। उसकी पीड़ा और व्यथा को भली-भाँति जान लीजिए और अपने साहित्य द्वारा उनके जीवन को उन्नत करने का प्रयास कीजिए। इसमें सच्ची मानवता निहित है।” (शरणकुमार लिम्बाले, दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, पृ. 54-55)
बाबा साहेब के परिनिर्वाण के पश्चात् दलित आन्दोलन में एक ठहराव-सा आ गया था, किन्तु यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रही। उन्नीस सौ साठ के बाद दलित साहित्य आक्रामक रूप से उभरा। दलित साहित्य का यह आन्दोलन मराठी में तीव्रता से उभरा। योगीराज बाघमारे, केसव मेश्राम, दया पँवार जैसे दलित लेखकों की एक पूरी पीढ़ी उभरी, जिन्होंने सदियों से सोई मानवता को जगाने का कार्य किया। इस कार्य को पूर्ण करने में अस्मितादर्श जैसी पत्रिका आगे आई। साथ ही दलित साहित्य को गतिशीलता प्रदान करने के लिए कई सम्मेलन, चर्चा परिचर्चाएँ, संवाद-परिसंवाद आयोजित किए गए, जिनसे दलित साहित्य को वैचारिक ऊर्जा मिली। आगे चलकर दलित साहित्य में जो आक्रामकता तथा विद्रोह की चिनगारी प्रस्फुटित होती है, उसके मूल में ‘दलित पैन्थर्स’ जैसे संगठन की भूमिका है। अमेरिका के ब्लैक पैन्थर्स की तर्ज पर ही मराठी के कुछ युवा साहित्यकारों ने ‘दलित पैन्थर’ को जन्म दिया। आजादी के पच्चीस वर्ष पश्चात् भी जब दलितों के साथ पूर्व की भाँति अन्याय व अत्याचार होते रहे, तो दलितों की मुक्ति के लिए ‘दलित पैन्थर’ ने आह्वान किया कि – “भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त, स्वातन्त्र्य, समता, बन्धुत्व एवं न्याय इन मानवीय मूल्यों का उपयोग जहाँ हम कर नहीं सकते, वह हमारा राष्ट्र कैसे हो सकता है? जहाँ हमारी माँ-बहिनों को नग्न करके उनको सरेआम घुमाया जाता है, वह हमारा राष्ट्र कैसे हो सकता है? जहाँ सामूहिक रूप से हमें जिन्दा जलाया जाता है, वह राष्ट्र हमारा कैसे हो सकता है?” (चन्द्र कुमार वरठे, दलित साहित्य आन्दोलन, पृ. 58 से उद्धृत)दलित पैन्थर के ये यक्ष प्रश्न ही आगे जाकर दलित साहित्य के मूल प्रश्न बनकर अभिव्यक्त हुए।
हिन्दी में दलित साहित्य आन्दोलन को आगे लाने में कमलेश्वर की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने सारिका के मई 1975 के अंक में आज का यथार्थ समान्तर संसार शीर्षक वक्तव्य में दलित साहित्य की पैरवी की। उन्होंने कहा – “सोचने के लिए सवाल यह था कि मानव कल्याण की इतनी खूबसूरत पैरवी करने वाला देश इतने बड़े अकल्याणकारी यातना शिविर में क्यों बदल गया है? भारतीय चिन्तन और विचार धाराओं की मानव कल्याणकारी दृष्टि के इतने विराट जल प्लावन के बावजूद यह महादेश मानवीय मूल्यों की सतह पर इतना बंजर क्यों हो गया है। क्या सिर्फ यह मान लिया जाए कि कुछ दुष्टों या कुछ दुष्ट वर्गों ने इन विचार बीजों को रोपा नहीं जाने दिया है?” (कमलेश्वर, सारिका, मई 1975, पृ. 10) कमलेश्वर ने आगे और कहा, “आज का समान्तर और दलित साहित्य तमाम सौन्दर्यवादी मूल्यों की परवाह न करते हुए मनुष्य के औसत दुःख-सुख, आकांक्षाओं की बात करता है।’’ वस्तुतः दलित पीड़ा, उनमें व्याप्त तीव्र अंसन्तोष, आत्मचेतना, अस्मिता जाग्रत करना तथा सभी तरह की प्रस्थापित शक्तियों का प्रतिरोध करना दलित साहित्य का उद्देश्य रहा है और उन्नीसवीं सदी का दलित साहित्य इसमें कामयाब भी रहा है। इसी तरह महीप सिंह द्वारा सम्पादित संचेतना पत्रिका (दिसम्बर 1981) ने भी दलित साहित्य के प्रचार को महत्त्वपूर्ण आयाम दिया।
बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशक दलित साहित्य लेखन के लिए प्रमुख माने जाते हैं। हिन्दी का दलित साहित्य आज साहित्य की सभी विधाओं कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, आलोचना व अन्य कथेतर विधाओं में आ गया है। ‘भारतीय दलित साहित्य मंच’ व ‘भारतीय दलित साहित्य अकादमी’ की स्थापना के बाद हिन्दी में दलित साहित्यकार उभरकर आए, जिन्होंने दलित साहित्य के क्षेत्र में अपना अहम् योगदान दिया।
5. बीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध की दलित कविता
बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में दलित साहित्य को स्थापित करने में दलित हिन्दी कविता का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ‘भारतीय दलित साहित्य मंच’ दिल्ली द्वारा प्रकाशित पीड़ा जो चीख उठी काव्य संग्रह दलित कविता की दृष्टि से अविस्मरणीय है। इसमें पच्चीस दलित कवियों की दो-दो कविताएँ प्रकाशित की गईं। इसी प्रकार इस सम्बन्ध में डॉ. एन. सिंह द्वारा सम्पादित दर्द के दस्तावेज संकलन का भी अनूठा योगदान है। “यह संग्रह दलित साहित्य के चयन की दिशा में एक स्मरणीय प्रयास है। संग्रह के कवि डॉ. प्रेमशंकर, डॉ. सुखवीर सिंह, डॉ. चन्द्रकुमार वरठे, ओम प्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, डॉ. राम शिरोमणि ‘होरिल’, डॉ. दयानन्द बटोही, डॉ. एन. सिंह, डॉ. भूपसिंह और रघुनाथ प्यासा हैं।” (समकालीन भारतीय साहित्य, मई-जून 1996, पृ. 170)
हिन्दी दलित कविता को प्रतिष्ठित करने में ओम प्रकाश वाल्मीकि का नाम अग्रण्य है। सदियों का संताप, बस्स’! बहुत हो चुका, अब और नहीं तथा शब्द झूठ नहीं बोलते उनके चार प्रमुख काव्य संग्रह हैं, जिनके माध्यम से उन्होंने वर्ण व्यवस्था, जातिवाद, हिन्दू धर्म, दर्शन व पौराणिकता की पोल खोलकर व्यवस्था के विरुद्ध अपना गहरा आक्रोश प्रकट किया है। उनकी कविता की ये पंक्तियाँ देखिए –
गहरी पथरीली नदी में/असंख्य मूक पीडाएँ।
कसमसा रही है/मुखर होने के लिए।
रोब से भरी हुई/बस्स!बहुत हो चुका/चुप रहना।
निरर्थक पडे़ पत्थर/अब काम आएँगे सन्तप्त जनों के।
(ओमप्रकाश वाल्मीकि, बस्स! बहुत हो चुका, पृ. 80)
डॉ. एन. सिंह अपनी कविता के माध्यम से व्यवस्था पर गहरी चोट करते हैं। इनका काव्य संग्रह सतह से उठते लोग महत्त्वपूर्ण है। उनकी कविता में अभिव्यक्त आक्रोश इस रूप में व्यक्त हुआ है –
मेरी झोली में होती है। भूख बेबसी और लाचारी।
इसलिए मेरे हाथ की कुदाल/धरती पर कोई नींव खोदने से पहले।
कब्र खोदेगी / उस व्यवस्था की जिसके संविधान में लिखा है।
तेरा अधिकार सिर्फ कर्म में है/श्रम में है/फल पर तेरा अधिकार नहीं।
(डॉ. एन. सिंह, सतह से उठते लोग, पृ. 11)
द्वार पर दस्तक, सवालों के सूरज, मूक माटी की मुखरता जैसे काव्य संग्रह प्रकाशित कर पुरुषोत्तम ‘सत्यप्रेमी’ ने स्वतन्त्रता, स्वराज, समता जैसे शब्दों पर मोह भंग करते हुए दलित समाज का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार सोहनपाल सुमनाक्षर, ने दलित साहित्य के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इनके कविता संग्रह सिन्धु घाटी बोल उठी तथा अन्धा समाज बहरे लोग प्रसिद्ध हैं।
हिन्दी दलित कविता में अपनी अलग पहचान बना चुके श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के काव्य संग्रह नई फसल व क्रौंच हूँ मैं में उन्होंने दलित जीवन की वेदना प्रकट की। इसी प्रकार जयप्रकाश कर्दम ने अपनी कविता के माध्यम से दमन को ललकारा है।
तमाम विरोधों और दबावों के बावजूद
जाति के जंगल का यह जीव
अपनी मुक्ति के लिए अडा़ है।
अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए लड़ा है
और आज/तमाम हौसलों के साथ।
हाथों में खंजर लिए वह/दमन की दहलीज पर खड़ा है।
(जयप्रकाश कर्दम, गूंगा नहीं था मैं, पृ. 35)
सुखबीर सिंह दलित कविता में प्रतिष्ठित नाम है। उनकी लम्बी कविताओं के संग्रह बयान बाहर के अतिरिक्त दो और संग्रह सूर्यांश व अन्नतर प्रकाशित है। इसी प्रकार प्रेमशंकर की नई गन्ध तथा कविता रोटी की भूख तक काव्य कृतियां दलित कविता में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इन्होंने दलित कविता को ‘अम्बेडकरीय कविता’ कहना उचित समझा है।
हिन्दी दलित कविता के अन्य कवियों व उनकी कृतियों में मनोज सोनकर की शोषितनामा, कँवल भारती की तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती, सूरजपाल चैहान की प्रयास, कुसुम वियोगी की व्यवस्था के विषधर, कर्मशील भारती की कलम को दर्द कहने दो, मलखान सिंह की सुनो ब्राह्मण, ईशकुमार गंगानिया की हार नहीं मानूँगा, मोहनदास नैमिशराय की सफरदर का बयान आदि प्रसिद्ध है। अन्य दलित कवियों में चिंरजी कटारिया, रघुनाथ प्यासा, रजनी तिलक आदि का नाम लिया जा सकता है।
सभी दलित कवियों को जातीयता के अभिशाप, छुआछूत, भेदभाव, अपमान आदि का सामना करना पड़ा है। इनकी कविताओं में व्यक्त अनुभव स्वानुभूत है। अतः इनमें जहाँ एक ओर गहरी वेदना है, वहीं दूसरी ओर उससे मुक्त होने की छटपटाहट भी है। अतः कविताओं के तेवर अत्यधिक तीखे हैं, जिनमें वर्णवादी व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह के साथ मनुष्य होने के नाते अधिकार माँगने की इच्छा भी है।
6. निष्कर्ष
आधुनिक भारतीय इतिहास के पुनर्जागरण ने जहाँ एक ओर सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक आन्दोलन का अलख जगाया वहीं दूसरी ओर सदियों से अपने मानवोचित अधिकारों से वंचित दलित जातियों में स्वाभिमान भी जाग्रत किया। इस कारण सदियों से सोई मानवता ने करवट ली और उसने वह सब कर दिखाया, जिसके लिए उसे शताब्दियों से इन्तजार था। दलितों में अलख जगाने में महाराष्ट्र के ज्योतिबा फुले ने कोई कसर नहीं छोड़ी। फुले के पश्चात् आधुनिक काल में दलित कविता विकसित हुई। आधुनिक काल दलित साहित्य लेखन के लिए स्वर्णिम काल है। इसने हाशिए पर धकेले गए व्यक्ति की पीड़ा को मुख पृष्ठ का हिस्सा बनाने का जो अवसर प्रदान किया गया, उसमें बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र: ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
- परम्परागत वर्ण व्यवस्था और दलित साहित्य, साक्षन्त मस्ते, वाणी प्रकाशन
- दलित साहित्य का समाजशास्त्र, हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- डॉ.राम चन्द्र, संकलन एवं संपादन : ‘दलित साहित्य की विकास-यात्रा’(ओमप्रकाश वाल्मीकि के साक्षात्कार), साहित्य संस्थान, गाजियाबाद,
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वेब लिंक्स
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- http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=954&pageno=1
- http://kavitakosh.org/sankalan/dalitkavita/#