3 दलित साहित्य की परम्परा – 1

किशोरी लाल रैगर

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के उपरान्त आप –

  • दलित साहित्य की प्रारम्भिक परम्परा के बारे में जान सकेंगे।
  • साहित्य में प्रतिरोध की परम्परा के विकास को समझ सकेंगे।
  • आजीवक व बुद्ध के मानवतावादी चिन्तन से प्रेरित दलित चेतना से परिचित हो सकेंगे।
  • सिद्ध व नाथ साहित्य में वर्ण-व्यवस्था के विरोध की परम्परा से परिचित हो सकेंगे।
  • निर्गुण-पन्थी सन्त कवियों की सामाजिक चेतना से तैयार दलित-साहित्य की पृष्ठभूमि जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   दलित-साहित्य एक प्रतिरोध के रूप में लिखा जा रहा है और प्रतिरोध के साहित्य की परम्परा अति प्राचीन एवं सुदीर्घ है। आज दलित साहित्य लेखन अखिल भारतीय स्तर पर सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आन्दोलन के रूप में व्यापक स्तर पर हो रहा है। चातुर्वर्ण व्यवस्था एवं जातिवाद ने कुछ वर्गों के पास एकाधिकार सुरक्षित रखकर शेष बहुसंख्यक वर्ग को नारकीय जीवन जीने को विवश कर दिया, समय-समय पर विषमता पर आधारित इस अमानवीय एवं क्रूर व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध हुआ। दलित साहित्य लेखन की पृष्ठभूमि में एक सुदीर्घ और सतत परम्परा रही है। वैदिक काल के कुछ शूद्र ॠषियों ने भी अन्याय व अत्याचार पर आधारित इस एकाधिकारवादी व्यवस्था का प्रतिरोध किया। आगे चलकर आजीवक परम्परा के ॠषियों ने वर्ण व्यवस्था पर आधारित इस व्यवस्था को आड़े हाथों लिया। महात्मा बुद्ध ने तो बाकायदा शूद्रों को अपने संघ में सम्मिलित कर वर्ण व्यवस्था को सिरे से खारिज कर दिया। कालान्तर में सिद्धों, नाथों एवं निर्गुणपन्थी सन्त कवियों ने प्रतिरोध की इस परम्परा को खाद-पानी देकर जीवित रखा।

 

3. दलित साहित्य का आदिकाल

 

वेद एवं स्मृतियों द्वारा स्थापित वर्ण-व्यवस्था ने समाज को चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में बाँटकर विषमता की विष-बेल बो दी थी। समाज का एकाधिकार ऊपर के तीन वर्णों के पास था। शूद्र वर्ण बहुसंख्यक होने के बावजूद ऊपर के तीनों वर्णों की सेवा करने को मजबूर था, क्योंकि एक षड्यन्त्र के तहत उसे दास बना दिया गया था। उसे बोलने की स्वतन्त्रता नहीं थी। ऐसे में वह लिख तो  सकता  ही नहीं था, बल्कि वेदों एवं धर्मशास्त्रों में शूद्र के लिए यह फतवा जारी कर दिया गया था कि यदि भूल से भी शूद्र वैदिक मन्त्र सुन लेगा तो पिघला हुआ सीसा उसके कानों में भर दिया जाएगा तथा मन्त्रों का उच्‍चारण करने मात्र से उसकी जीभ काट दी जाएगी। वेद, पुराण, उपनिषद्, महाभारत, गीता, कौटिल्य का अर्थशास्‍त्र, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति जैसे बड़े-बड़े ग्रन्थों में शूद्रों के प्रति वर्जनाएँ अंकित हैं। ऐसे में शूद्र वर्ग अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से वंचित था। पर वैदिक काल में ही कुछ ऐसे विद्वान और विचारक भी थे, जिन्होंने वैदिक कर्मकाण्डियों से लोहा लिया तथा ब्रह्मज्ञान को सबके लिए बताया। भले ही शम्बूक जैसे ऋषि को इस तरह की गुस्ताखी करने पर अपना सिर कलम करवाना पड़ा हो। स्पष्ट है कि शम्बूक शूद्र वर्ग से था, किन्तु उन्होंने वर्ण-व्यवस्था को चुनौती देकर प्रतिरोध की अलख जरूर जगा दी थी। इसी प्रकार “कात्स जैसे विचारक ने चुनौती दी थी कि वैदिक ऋचाओं में कोई मान्त्रिक या आध्यात्मिक शक्ति नहीं है। खुद वेदों के पहले व्याख्याकार यास्काचार्य ने नाम लेकर कौत्स का खण्डन किया था। निश्चय ही कात्स अपने समय के बड़े और साहसी वेद विरोधी विचारक रहे होंगे।” (मुद्राराक्षस, कथाक्रम, नवम्बर 2000, पृ. 3)

 

ऋषि कावषेय भी ब्राह्मणेतर वर्ग के थे, जिन्होंने वेदों और यज्ञों का घोर विरोध कर वेद विरोधी विचारधारा को प्रश्रय दिया। इसी तरह कवष ऐलूष ने भी वैदिक कर्मकाण्डों व वर्जनाओं का घोर विरोध किया। “कवष ऐलूष के बारे में यह कथानक प्रसिद्ध है कि वे अभिजात वर्ग के न होते हुए भी यज्ञ विज्ञान के अच्छे अध्येता थे। जब वे एक यज्ञ में सम्मिलित होने गए तो अभिजात ऋषियों ने उन्हें दासीपुत्र कह कर ताना मारा और यज्ञ में शामिल करने से इनकार कर दिया। इस पर वे कठिन तपस्या करने बैठ गए और पर्जन्य विद्या पर अधिकार प्राप्‍त कर ॠषियों  को मात दे दी।” (डॉ. कलानाथशास्‍त्री, दलित साहित्य आन्दोलन, चन्द्र कुमार वरठे, पृ. 14, भूमिका से)

 

उपर्युक्त उदाहरण से सिद्ध होता है कि प्रतिरोधी साहित्य की परम्परा वैदिक काल से ही प्रारम्भ हो गई थी, जो कालान्तर में आगे बढ़ती रही। प्रतिरोध की यह परम्परा बुद्ध से भी पहले लोकायत परम्परा के चिन्तकों ने प्रारम्भ कर दी थी। इस सम्बन्ध में ये शब्द गौर करने योग्य हैं “दलित समाज जब से अस्तित्व में आया, तभी से दलित विमर्श की परम्परा की शुरुआत मानी जानी चाहिए। इसकी जड़ें लोकायत धर्म से जुड़ी हुई हैं, जो कि जनता का धर्म था। इसके संस्थापक मक्खलि गौशाल थे। यह धर्म यज्ञ और वर्ण व्यवस्था का विरोधी था।” (डॉ. दीनानाथ, नये विमर्श और हिन्दी साहित्य, पृ. 58) प्रसिद्ध दलित चिन्तक डॉ. धर्मवीर, डॉ. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ आदि बुद्ध से भी पहले दलित चिन्तन की परम्परा के उत्प्रेरक मक्खलि गोशाल को ही मानते हैं।

 

डॉ. तुलसीराम महात्मा बुद्ध को दलित चिन्तन का प्रेरणा पुरुष मानते हैं। उनके शब्दों में “रही बात दलित साहित्य के दार्शनिक और वैचारिक आधार की तो मैं इसका स्त्रोत गौतम बुद्ध को मानता हूँ। बुद्ध पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ढाई हजार वर्ष पूर्व वर्ण व्यवस्था पर जबर्दस्त प्रहार किया। श्रावस्ती प्रवास के दौरान सुनित नामक शोषित भंगी को अपने संघ में शामिल करके गौतम बुद्ध ने दलितोद्धार का ऐतिहासिक कदम उठाया (डॉ. तुलसीराम, हस्तक्षेप (राष्ट्रीय सहारा), 18 जनवरी 1997, पृ. 1)।” एक बात और भी ध्यान देने की है कि बुद्ध के बाद वर्ण व्यवस्था व दलितों पर होने वाले अन्याय व अत्याचार का विरोध उनके ब्राह्मण शिष्यों सारिपुत्र, मौदगल्यान व महाकश्यप ने किया। फलस्वरूप वैदिक ब्राह्मणों ने मौदगल्यान की हत्या तक कर दी। “बुद्ध के निर्वाण के बाद करीब 600 सौ वर्ष के पश्‍चात बुद्ध चरित के रचनाकार अश्‍वघोष पहले संस्कृत कवि थे, जिन्होंने ब्राह्मणी वर्ण व्यवस्था पर आक्रमण करते हुए वज्रसूची नामक काव्य संग्रह की रचना की।” (डॉ. पाण्डुरंग वैजनाथ महालिंगे, दलित अवधारणा एवं ओमप्रकाश वाल्मीकि का साहित्य में उद्धत डॉ. तुलसीराम के विचार) इस रचना में दलितों की स्थिति का बहुत ही कारुणिक व घृणास्पद चित्रण है।

 

आठवीं-नवीं शताब्दी भारतीय इतिहास में राजनीतिक, धार्मिक, साहित्यिक और सामाजिक दृष्टि से नए युग के सूत्रपात के रूप में आई क्योंकि इस समय सिद्ध अस्तित्व में आ गए थे। सिद्ध बौद्ध ही थे, जो महायानी शाखा की उपशाखा वज्रयानी शाखा से सम्बन्ध रखते थे। सिद्धों ने सामाजिक एवं साहित्यिक क्षेत्र में क्रान्ति की। एक ओर उन्होंने वर्ण-व्यवस्था की वर्जनाओं को तोड़ा तो दूसरी ओर काव्य के लिए प्रचलित जन-भाषा को अपनाया। इसका तीसरा कारण और भी था कि चौरासी सिद्धों में से अधिकतर, समाज में नीची कही जाने वाली जातियों (चमार, डोम, धोबी, कहार, लुहार, लकड़हारा, चिड़ीमार, तन्तुका, मछुआरा आदि) से थे। एक तरह से सिद्धों की क्रान्ति वैदिक व्यवस्था के विरुद्ध एक जन क्रान्ति थी, जिन्होंने वर्ण, जाति भेद और बाह्याडम्बरों की सुदृढ़ दीवारों को ध्वस्त किया। इन सिद्धों में एक सरहपाद है, जिन्होंने साहित्य रचकर ब्राह्मणों का खुला विरोध किया। ब्राह्मणों के षड्दर्शनों की आलोचना में सरहपाद पण्डितों-पुरोहितों द्वारा शास्त्रों की शाब्दिक व्याख्या तथा ऊपरी आचार को व्यंग्य का विषय बनाते हैं। ब्राह्मण वेद का भेद नहीं जानता, क्योंकि वह उसकी अभिधेय व्याख्या करता है –

 

ब्रह्मणेहि म जानत हि भोउ।

एवहि पढिअउ ए चउ वेड।

मिच्छेंहि जग, बहिउ भुल्ले।।

           (डॉ. विश्‍वम्भरनाथ उपाध्याय, सरहपा’, पृ. 43)

 

यद्यपि सरहपा जन्मना ब्राह्मण थे, किन्तु उन्होंने जाति की परवाह किए बिना दलित सरह बाला से शादी कर जाति-पाँति के बन्धन को तोड़ा तथा ब्राह्मणीय व्यवस्था को चुनौती देकर हिन्दी में दलित साहित्य का सूत्रपात किया। इस सम्बन्ध में डॉ. विश्‍वम्भर नाथ उपाध्याय का यह मत उचित जान पड़ता है “सरह की कविता, वर्जना-विरोधी कविता है, ब्राह्मण-व्यवस्था विरोधी भी। वर्णमार्गी ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर सरह की वाममार्गी कविता ने मूलोच्छेदक प्रहार किए।” (डॉ. विश्‍वम्भर नाथ उपाध्याय, सरहपा, पृ. 51)

 

कालान्तर में सिद्धों में से ही कुछ तपस्वी नाथ हो गए। वज्रयानियों में वामाचार और मद्यपान की बुराई के कारण बहुत से वज्रयानी शैवमत के अनुयायी हो गए और वे ही आगे जाकर नाथपन्थी संन्यासी कहलाए। नाथपन्थ के आदि प्रवर्तक गोरखनाथ माने जाते हैं। वे और उनके अनुयायी ब्राह्मणों तथा उनके वर्णाश्रम धर्म से व्यथित थे। इसलिए उन्होंने ब्राह्मणवाद का विरोध करते हुए समाज में दलित पीड़ित जातियों को प्रश्रय दिया। नाथ सम्प्रदाय में किसी भी जाति का या वर्ण का या आश्रम का व्यक्ति दीक्षित हो सकता है – “दीक्षित होने पर योगी में जाति, वर्ण अथवा आश्रम का भेद नहीं रहता।” (सं. माताप्रसादः हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा, पृ. 43)

 

नाथ पन्थ में जाति व्यवस्था का निषेध होने के कारण समाज की निम्‍न कही जाने वाली बहुत-सी जातियों के व्यक्तियों ने नाथपन्थ में दीक्षा ग्रहण की। “शूद्र और हीन जीविका वाली जातियों ने मुक्त भाव से नाथ संप्रदाय का अनुगमन किया क्योंकि इस सम्प्रदाय में धार्मिक और सामाजिक समानता का जो मुक्त क्षेत्र था, वह वैदिक शैव सम्प्रदायों में नहीं था (डॉ. नागेन्द्रनाथ उपाध्याय, गोरखनाथ, पृ.47)।”

 

कहा जा सकता है कि वर्णाश्रम व्यवस्था में वेद-पुराणों और धर्मग्रन्थों को ही प्रमाण माना जाता था। इनका विरोध करने वालों को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था, किन्तु लोकायत परम्परा के तपस्वियों, बौद्धों, सिद्धों व नाथों ने इस अन्याय व अत्याचार से पूर्ण वर्ण-व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया। निष्कर्ष रूप में डॉ. रामबक्ष के मत को उद्धृत किया जा सकता है – “हिन्दू धर्म में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और वेद की प्रामाणिकता का विरोध सबसे पहले हुआ। इस विरोध में बौद्ध धर्म ने प्रमुख भूमिका निभाई। बौद्धों की परम्परा में ही चौरासी सिद्ध हुए। उन्होंने जात-पाँत का खण्डन किया और वेदों की प्रामाणिकता का विरोध किया। संस्कृत के स्थान पर उन्होंने लोक भाषाओं में काव्य-रचना करनी शुरू की। इस तरह ब्राह्मण धर्म के विरोध की ‘दूसरी परम्परा’ की स्थापना की गई। सिद्धों के साथ ही, नाथ सम्प्रदाय ने भी इस वेद-विरोधी विचारधारा को बल पहुँचाया। गुरु गोरखनाथ के व्यक्तित्व और कृतित्व का अखिल भारतीय प्रभाव पड़ा। वेद विरोधी विचारों के सबसे समर्थ प्रचारक गोरखनाथ ही थे।” (डॉ. रामबक्ष, दादूदयाल, पृ. 25)

 

4. दलित साहित्य का मध्यकाल

 

साहित्य में दलित चेतना का जो बीजवपन आदिकालीन सिद्धों-नाथों में हुआ उसका पल्ल्वन व पुष्पन मध्यकाल के निर्गुण सन्त कवियों ने किया। दलित समाज को न्याय, समानता एवं प्रतिष्ठा दिलाने में सन्तों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। चाहे सन्त नामदेव हो या कबीर, रैदास, नानक, सैन, पीपा या धन्‍ना हो, सभी सन्त कवियों ने बाह्याचारों व कर्मकाण्ड़ों के विरोध के साथ जाति-पाँति व वर्ण-व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया। अधिकतर सन्तों में प्रायः दलित कहीं जाने वाली जातियों से ही थे। “अक्सर कहा जाता है कि भक्तिकालीन कवियों में दलित कवियों की बहुतायत थी। यह वह समय था जब भारत में मुगल साम्राज्य स्थापित हो चुका था। यानी उस दौर में निम्‍न कही जाने वाली जातियों के कवियों को मान्यता मिली, जब भारत में गैर हिन्दुओं की सत्ता थी।” (ओमप्रकाश वाल्मीकि, सदियों का सतांप (भूमिका), पृ. 8)

 

मध्यकालीन सन्त कवियों ने साहित्य की दलित धारा को व्यापक रूप दिया। उनकी दृष्टि में ईश्‍वर भजन के साथ उन लोगों को भी ईश्‍वरीय चिन्तन का हक दिलाना था, जो सदियों से जातिवाद की संकीर्णता के कारण भक्ति से वंचित थे। इसलिए उन्होंने समाज की रीढ़ कही जाने वाली चातुर्वर्ण व्यवस्था व जातिवाद पर प्रहार किए।

 

हिन्दी में निर्गुण सन्तों के पूर्व महाराष्ट्र के सन्त कवियों ने ब्राह्मणवाद का विरोध किया। नाथ सम्प्रदाय से प्रवर्तित महाराष्ट्र के वारकरी सम्प्रदाय के कवियों ने ब्राह्मणों के बाह्याडम्बरों तथा पोथी निष्ठा का घोर विरोध कर ब्रह्म की सर्वव्यापकता में अटूट विश्‍वास व्यक्त किया। निवृतिनाथ व ज्ञानदेव को रूढि़वादी ब्राह्मणों का शिकार होना पड़ा। “ब्राह्मणों की इस चातुर्वर्ण्य की संकीर्ण व्यवस्था के कारण अपमानित निवृतिनाथ और उनके भ्राता और भगिनी को अपमानित होना पड़ा। निवृतिनाथ गैनीनाथ या गाहिनीनाथ की शरण में गए और उन्होंने उनसे नाथपन्थ की दीक्षा ग्रहण की।” (डॉ. पाण्डुरंग वैजनाथ महालिंगे, दलित अवधारणा एवं ओमप्रकाश वाल्मीकि का साहित्य, पृ. 93)

 

महाराष्ट्र के सन्त कवियों में नामदेव का नाम आदर के साथ लिया जाता है। निम्‍न जाति में पैदा होने के कारण नामदेव ने जातिवाद की पीड़ा भोगी थी। अतः उन्होंने स्पष्ट शब्दों में जातिवाद पर प्रहार किया। उनके पद देखिए-

 

का करों जाँति का करौं पाँति

राजा राम सेऊँ दिन राती।।

***   ***

नाना वर्ण गवा उनका एक वर्ण दूध।

तुम कहा के ब्राह्मण हम कहा के सूद।।

               (सं. माता प्रसाद, हिदी काव्य में दलित काव्य धारा, पृ. 42)

 

नामदेव की तरह ही सन्त एकनाथ व तुकाराम ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध कर भक्ति के द्वार सबके लिए खुला रखने की बात की। यद्यपि वे सन्त ईश्‍वर की सर्वव्यापकता व उसकी भक्ति सबके लिए में विश्‍वास करते थे, तथापि उनकी इस व्यापक सोच के पीछे सर्व आत्मवाद व वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध गहरा प्रतिरोध था।

 

दलित समाज पूर्व की तरह भक्तिकाल में भी अन्याय, शोषण व दरिद्रता के बोझ तले दबा हुआ था। उनका जीवन उपेक्षित और बहिष्कृत था। भक्ति के माध्यम से उनके उद्धार का बीड़ा सन्त कवियों ने उठाया, क्योंकि उनकी दृष्टि में ईश्‍वर के दरबार में न कोई ऊँचा होता है, न कोई नीचा। भक्ति आन्दोलन के अग्रदूत रामानुज ने स्वयं ब्राह्मण होते हुए भी जाति-पांति का विरोध किया तथा मानव-मानव में समानता की उद्घोषणा की। मिथ्या आडम्बर, रूढ़िवादिता, वर्ण व्यवस्था व जाति-पाँति का प्रखर विरोध करने वालों में सन्त कबीर का नाम आदर के साथ लिया जाता है। वे जाति से जुलाहा थे। इसलिए ब्राह्मण उन्हें नीची जाति का मानकर उनकी उपेक्षा करते थे। लेकिन कबीर ने ब्राह्मणों की परवाह नहीं की। उन्होंने जातीय भेदभाव और छुआछूत के विरुद्ध अपना स्वर प्रबल करते हुए ब्राह्मणों को जोरदार फटकार लगाई तथा स्पष्ट किया कि चाहे ब्राह्मण हो या शूद्र सबकी उत्पति एक ही ज्योति से हुई है –

 

एक बूद एकै मल मूतर, एक चाँम एक गूदा।

एक जोति थैं सब उतपनाँ, कौन बाँम्हन कौन सूदा।

                (कबीर ग्रन्थावली, सं. श्यामसुन्दर दास, पृ. 82)

 

मध्यकाल में कबीर दलित चेतना के संवाहक के रूप में उभर कर आए। ब्राह्मणवादी अराजकता के बीच उन्होंने पण्डितों के भेदभाव मूलक व्यवहार का जोरदार शब्दों में खण्डन किया तथा पण्डितों से पूछा कि यदि तुम ब्राह्मण हो तो तुम्हारा जन्म दूसरे रास्ते से होना चाहिए। इस सम्बन्ध में उनका यह पद महत्त्वपूर्ण है –

 

जौ पै करता बरण विचारै, तौ जनमत तीनि ड़ि किन सारे।

उतपति ब्यन्द कहाँ थै आया, जो धरी अरू लागी माया।

नहीं को ऊँचा नहीं को नीचा, जाका प्यण्ड ताही का सींचा।

जे तूँ बाँभन बभनी जाया, तो आँ बाँट है काहे न आया।

(कबीर ग्रन्थावली, सं श्यामसुन्दरदास, पृ. 79)

 

कबीर के समय अस्पृश्यता जोरों पर थी, जिसके कारण दलित समाज बहिष्कृत जीवन जीने को विवश था। छुआछूत का मूल कारण मनुवादी व्यवस्था थी। कबीर ने छुआछूत का प्रबल विरोध किया तथा पण्डितों से प्रश्‍न पूछा –

 

 “काहे कौ कीजै पाँडे छोति बिचारा छोति हीं तै उपना सब संसारा।।

हमारे कैसे लोहू तुम्हारै कैसे दूध। तुम कैसे बाँहमण पाँडे हम कैसे सूद।।

छोति छोति करता तुम्हारी जाए। तौ ग्रभवास काहें कौ आए।।

                (कबीर ग्रंथावली, सं. श्यामसुन्दर दास, पृ. 79)

 

ब्राह्मणवादी व्यवस्था को पोषित करने वाले कर्मकाण्ड, मूर्ति पूजा, तीर्थाटन, कथावाचन इन सबका कबीर ने जोरदार शब्दों में खण्डन किया तथा उनको व्यर्थ बताया। वस्तुतः कबीर ही दलित चेतना के प्रमुख प्रेरणा पुरुष हैं, जिनके कारण आधुनिक काल में दलित चेतना इतनी प्रबलता व प्रखरता से मुखरित हुई।

 

भारतीय वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों की सर्वोच्‍चता को कबीर की भाँति अस्वीकार करते हुए सन्त रैदास ने जो अलख जगाया, वह दलित साहित्य के इतिहास में सदैव दर्ज रहेगा। वे स्वयं दलितों में नीची कही जाने वाली चमार जाति में जन्मे थे। इसलिए जगह-जगह उन्हें ब्राह्मणों द्वारा अपमान सहना पड़ा। “इसमें सन्देह नहीं कि रविदास मूलतः भक्त थे, समाज सुधारक नहीं। परन्तु दीन-दुखियों और शोषितों के लिए अपनी पियूषवर्षी वाणी से उन्होंने जो कार्य किया है, वैसा बड़े-बडे़ समाज सुधारक भी नहीं कर सके। इसे चाहे रैदास की तेजस्विता कहें या स्वामी रामानन्द की शिक्षाओं का फल कि रैदास के सामने उनकी जाति का शताब्दियों का इतिहास एकदम स्पष्ट हो गया था, जो घृणा, अपमान, अशिक्षा, दरिद्रता और शोषण का इतिहास था।” (डॉ. एन.सिंह, दर्द के दस्तावेज, पृ. 4)

 

रैदास जाति-पाँति का जोरदार शब्दों में खण्डन करते हैं। उनका कहना है कि जब सब मनुष्य एक ही ईश्‍वर की सन्तान है तो फिर ऊँच-नीच की बात करना बेमानी है, यह मनुष्यता पर कुठाराघात है। इन बातों को स्पष्ट करने के लिए उनके कुछ पद देखिए, जिनमें वे जाति-पाँति का घोर विरोध करते हैं –

 

जन्म जात मत पूछिए, का जात अरू पात।

रविदास पूत सभ प्रभ के, कोउ नहिं जात कुजात।।

 

सन्त रैदास की दृष्टि में सभी प्राणी एक प्रभु की संतान है। अतः जाति पूछना ही व्यर्थ है क्योंकि –

 

रविदास उपजिइ सभ इक बुंद ते, का ब्राह्मण का सूद।

मूरिख जन न जानइ, सब मह राम मजूद।।

 

रैदास कहते हैं कि जब एक ही बूँद व एक ही ज्योति से सारा संसार उत्पन्‍न हुआ है तो ब्राह्मण और चाण्डाल जैसी ऊँची-नीची जाति का भेद क्यों?

 

ब्राह्मण और चण्डाल मेहि, रविदास नह अन्तर जान।

सभ मंहि एक ही जोति है, सभ घट एक भगवान।।

 

रविदास जातिवाद को मानवता के लिए सबसे बड़ा रोग बताते हैं। उनकी दृष्टि में मनुष्य जन्म से ऊँच-नीच नहीं बनता, अपितु कर्म से बनता है। इसलिए उन्होंने ब्राह्मणवाद की ‘विप्र पूज शील गुण हीना’ मान्यता को तोड़ते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है कि –

 

रविदास ब्राह्मन मति पूजिए, जड होवै गुनहीन।

पूजिहिं चरन चंडाल के, जउ होवै गुन परवीन।।

 

रविदास ने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को तोड़ते हुए यह बात कही तथा जातिवाद को समाज के पतन का कारण बताया, इसके लिए उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि केले के तने में से उसके पत्तों की परतों को अलग-अलग कर देने से पूरा थम्भ ही नष्ट हो जाता है उसी प्रकार जातियों के भेद से अलगाव पैदा होता है। सन्त रैदास की यह बात किसी बड़े समाजशास्‍त्री से कम नहीं हैं –

 

जात पात में जात है, ज्यों केलन में पात।

रविदास न मानुष जुड़ सकैं, जौ लौं जात न पात।

 

(सन्त रैदास की उपर्युक्त सभी वाणियाँ गुरू रविदास, सं. डॉ. काथीनाथ उपाध्याय से उद्धृत हैं, पृ. 235 से 239 तक)

 

सन्त कवियों में रैदास ही अकेले सन्त हैं, जिन्होंने सामाजिक न्याय की अवधारणा प्रस्तुत करके समाज के सामने एक ऐसे नगर की संकल्पना प्रस्तुत की है। “जहाँ कोई ऊँच-नीच और दुःख-दर्द न हो, पूरा-न्याय हो और सब एक-दूसरे के मित्र हो, इसको वे बेगमपुरा का नाम देते हैं।” (सावित्री शोभा, हिन्दी भक्ति साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद, पृ.11)

 

इस सम्बन्ध में उनका यह पद देखिए –

बेगमपुरा सहर को नाऊ, दुखु अन्दोहु नहीं तिहिं ठाऊ

ना तसबीस खिराजु न मालु, खउफु न खता न तरसु जवालु।।

                                      (गुर ग्रन्थ साहिब, पृ. 345)

 

सन्त रैदास की सर्वप्रियता के कारण ही मीराबाई ने उनको अपना गुरु होना बताया है – गुरु  रैदास मिलै मोहि पूरे, धुरे से कलम मिली।

 

सन्तधारा के अन्य कवियों नानक, दादू दयाल, पीपा, धन्‍ना, चोखामेला, कर्ममेला आदि सभी ने जाति-पाँति, छुआछूत व अन्याय का विरोध किया। उन्होंने बार-बार यही सन्देश दिया कि ईश्‍वर की दृष्टि में जब सब समान है तो फिर मनुष्य-मनुष्य में भेद क्यों? इन सन्त कवियों का रुख भले ही धार्मिक अधिक है, किन्तु समाज की विकृतियों का पर्दाफाश कर जाति-पाँति को तोड़ने का जो सराहनीय कार्य उन्होंने किया, उससे दलित साहित्य को प्रेरणा मिली तथा आगे लिखे गए दलित साहित्य को एक रास्ता मिला।

 

रीतिकाल का समाज अनेकानेक विकृतियों व सामाजिक बुराइयों से भरा पड़ा था। दूसरी और कविगण आश्रय दाता तालाशने लगे थे। अतः इस युग में सन्त कवियों की दलित धारा बन्द नहीं तो शिथिल अवश्य पड़ गई थी। “आगे की दो शताब्दियों में हमें इस दलित विमर्श का विकास दिखाई नहीं देता। इसका कारण यह हो सकता है कि दलित चेतना के विरुद्ध प्रतिक्रान्ति की धारा बहुत तेज हो गई और उससे टक्कर लेना दलितों के लिए मुश्किल हो गया हो। लेकिन इसके बावजूद यह नहीं माना जा सकता कि दलित चेतना की वह धारा, जिसका कबीर ने सूत्रपात किया, आगे चलकर बिलकुल सूख गई हो। दरअसल यह धारा अलग प्रवृति की थी और परिवर्तनकारी थी, इसलिए यह हो सकता है कि ब्राह्मण इतिहास लेखकों ने इस धारा को उपेक्षित किया हो। कबीर-रैदास आदि को उपेक्षित करना इसलिए मुश्किल रहा, क्योंकि वे इतिहास के पात्र नहीं, इतिहास के निर्माता थे, युग-प्रवर्तक थे।” (कँवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका, पृ. 104)

 

5. निष्कर्ष

 

उपर्युक्त विवेचन के पश्‍चात् हम कह सकते हैं कि साहित्य में अन्याय, अत्याचार व असमानता के विरुद्ध प्रतिरोध की अनादिकालीन सतत् परम्परा रही है। वैदिक ऋृषि कावषेय, कवष ऐलूष, शम्बूक आदि ने असमानता पर आधारित वैदिक वर्ण-व्यवस्था का घोर विरोध किया। इस कारण शम्बूक को तो अपना सिर तक कलम करवाना पड़ा। चार्वाक व आजीवक मक्खलि गौशाल ने वैदिक कर्मकाण्डों की भर्त्सना कर मनुष्य की समानता की बात की। दया व करुणा के साक्षात् स्वरूप महात्मा गौतम बुद्ध ने न केवल ऊँच-नीच व असमानता पर आधारित वर्ण व्यवस्था की कटू निन्दा की अपितु अपने संघ में दलित व्यक्तियों को प्रवेश देकर यथार्थ रूप में मानवतावाद को प्रतिस्थापित किया। बौद्ध दर्शन को ही अपनाकर आगे चलकर सिद्धों ने न केवल जातिवाद पर प्रहार किया अपितु वर्ण-व्यवस्था जातिवाद को सिरे से खारिज कर तत्त्वचिन्तन के द्वार सबके लिए खोल दिए। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि चौरासी सिद्धों में से अधिकतर सिद्ध दलित जातियों से थे। सरहपा ने तो जन्मतः ब्राह्मण होते हुए भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था को नकारा। कालान्तर में नाथपन्थी योगियों ने भी सामाजिक समरसता दिखाते हुए इसके प्रणेता गोरखनाथ के नेतृत्व में असमानता के विरुद्ध अलख जगाई। हिन्दी साहित्य के मध्यकाल के आरम्भिक वर्षों में भक्ति की सरिता प्रवाहित हुई, जिसका प्रमुख स्वर ‘जाति-पाँति पूछे न कोई, हरि को भजे सौ हरि को होई’था। भक्ति चेतना की निर्गुण धारा के कवियों ने सामाजिक चेतना पैदा कर वर्ण-व्यवस्था व जातिवाद पर प्रहार किया। महात्मा कबीर व सन्त रैदास ने स्थान-स्थान पर अपने पदों में सामाजिक विभेद को अमानवीय व मनुष्य निर्मित बताया है। उनकी कविता का प्रतिरोधी स्वर ही आधुनिककालीन दलित चेतना का मुख्य प्रेरणा स्रोत है। महाराष्ट्र में पैदा हुए सन्त नामदेव, तुकाराम आदि ने भी सामाजिक चेतना का अलख जगाया। इसी प्रकार धन्‍ना, पीपा, नानक, दादू, जाम्‍भोजी, जसनाथ आदि कवियों ने अपने पदों द्वारा दलित चेतना को वाणी दी। वस्तुतः प्रतिरोध की इसी सतत्परम्परा ने दलित साहित्य की पृष्ठभूमि तैयार की।

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    अतिरिक्त जानें-

 

पुस्तकें

  1. हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा, माताप्रसाद(सं.), विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
  2. दादूदयाल, रामबक्ष, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
  3. दलित अवधारणा एवं ओमप्रकाश वाल्मीकि का साहित्य, डॉ. पांडुरंग वैजनाथ महालिंगे,
  4. हिदी काव्य में दलित काव्य धारा , डॉ.माता प्रसाद, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
  5. हिन्दी साहित्य का सबाल्टर्न इतिहास (सिध्द साहित्य से सन्त साहित्य तक), राजेन्द्र प्रसाद सिंह, गौतम बुक सेन्टर, दिल्ली
  6. दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
  7. दलित विमर्श: साहित्य के आइने मे, डॉ.जयप्रकाश कर्दम, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
  8. दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
  9. दलित हस्तक्षेप, रमणिका गुप्ता, शिल्पायन प्रकाशन, नई दिल्ली
  10. हिन्दी भक्ति साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद, सावित्री शोभा, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली
  11. कबीर नई सदी में, डॉ.धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  12. भारत में पिछड़ा वर्ग आन्दोलन और परिवर्तन का नया समाजशास्त्र, डॉ.हरिनारायण व्यास, कल्पाज़ प्रकाशन, दिल्ली

   वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8
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  3. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0
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  5. http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3115&pageno=1