11 दलित साहित्य का वैचारिक आधार (डॉ. भीमराव अम्बेडकर)

रवि श्रीवास्तव

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  1. पाठ का उद्देश्य

     इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  •  दलित साहित्य और अम्बेडकर के विचारों के सम्बन्ध को जान पाएँगे।
  • दलित मुक्ति के सन्दर्भ में अम्बेडकर के विचारों के प्रभाव को देख पाएँगे।
  •  भारतीय समाज-व्यवस्था के संन्दर्भ में अम्बेडकर के चिन्तन से परिचित हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   प्रस्तुत पाठ का उद्देश्य दलित साहित्य के वैचारिक आधार का अध्ययन है। उस आधार को तैयार करने में ज्योति बा फुले, रामास्वामी नायकर पेरियार, नारायण गुरु और डॉ. बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर जैसे परिवर्तनकारी चिन्तकों का सर्जनात्मक योगदान रहा है। उन्‍नीसवीं-बीसवीं सदी के भारतीय नवजागरण काल में सामाजिक, धार्मिक सुधार-आन्दोलन चले। साथ ही भारतीय समाज के निम्‍न तबके से ऐसे विचारक उभरे, जो सुधार-आन्दोलनों से असन्तुष्ट थे। वे भारतीय समाज की बनावट में बुनियादी परिवर्तन चाहते थे। ‘निम्‍न तबके’ से यहाँ अभिप्राय समाज के उन लोगों से है, जिन्हें जन्म, जाति और वर्ण की विभेदात्मकता के आधार पर दीर्घकाल तक सामाजिक न्याय, सामान्य मानवीय व्यवहार और मानवाधिकार से वंचित रखा गया। उसके अन्तर्गत मुख्यतः वर्ण-व्यवस्था में शूद्र समझी जाने वाली जातियाँ, छूआछूत की प्रथा के शिकार अछूत, हरिजन और गिरिजन आते हैं। भारतीय समाज की इन श्रेणियों से उभरे बुद्धिजीवियों का विचार है कि भारत के पिछड़ेपन और लम्बी गुलामी का एक मात्र कारण छूआछूत पर आधारित सड़ी-गली जातिप्रथा रही है। जिन चिन्तकों ने उसका मूलोच्छेद कर भारत में समतामूलक सामाजिक न्याय पर आधारित नए समाज के निर्माण के लिए अथक परिश्रम किया, उसमें सर्वाधिक वैज्ञानिक एवं मौलिक चिन्तन डॉ. बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का है।

 

बाबा साहब के चिन्तन ने तत्कालीन एवं वर्तमान भारतीय समाज को समझने की नई दृष्टि दी। उस दृष्टि की पहल पर बीसवीं सदी के अन्तिम दो-तीन दशकों में दलित विमर्श तेजी से उभरा। एक नई सामाजिक दृष्टि से सम्पन्‍न साहित्य में ऐसा आन्दोलन उभरा, जिसका अभिप्राय था मनु द्वारा समर्थित ब्राह्मणवादी वर्ण-व्यवस्था का उच्छेद और उसमें अस्पृश्यता, दमन और शोषण-उत्पीड़न के शिकार अछूतों-अन्त्यजों के दुःख-दर्द को केन्द्रीय चित्रण के रूप में स्वीकृति। यह एक समवेत प्रयास था। उसके परिणामस्वरूप भारतीय भाषाओं में दलित-साहित्य-सृजन की नई प्रवृत्ति का विकास हुआ।

  1. दलित साहित्य की वैचारिकी : अम्बेडकर  का चिन्तन

   भारत में तीन प्रमुख सांस्कृतिक आन्दोलन हुए हैं; भक्ति आन्दोलन, प्रगतिशील आन्दोलन और दलित आन्दोलन। तीनों का चरित्र अखिल भारतीय रहा है। तीनों सामाजिक विषमताओं, शास्‍त्रविहित मर्यादाओं एवं हर तरह के मानवीय शोषण के विरुद्ध प्रतिरोध की आवाज बनकर उभरे। इनमें सर्वाधिक मुखर दलित प्रतिरोध का स्वर रहा है। यों तो भक्तिकाव्य की पूरी निर्गुण सन्त-परम्परा में शास्‍त्रीय आचारवाद और जात-पाँत के विरुद्ध समाज के सबसे निचले तबके से उठी हुई आवाज की बिखरी गूँज सुनाई देती है; किन्तु उनका स्वर दलित साहित्य के स्वर से भिन्‍न है। मध्यकालीन सन्तों-भक्तों की वाणी में अपने दलित होने का सचेत अनुभव नहीं है। पहले तो स्वाधीनता आन्दोलन ने और उसके बाद दलित आन्दोलन ने एक संगठित जनशक्ति का रूप ग्रहण किया। उसने बिखरे हुए दलित-असन्तोष को ठोस वैचारिक आधार देकर दलित एकता को एक राजनीतिक शक्ति में बदलकर दलित-मुक्ति का रास्ता दिखाया। डॉ. अम्बेडकर  को पूरा विश्‍वास था कि किसी भी समाज-व्यवस्था में राजनीतिक अधिकारों के बिना सामाजिक मुक्ति की कल्पना असम्भव है क्योंकि हर समाज व्यवस्था की अपनी राजनीति होती है। भारतीय सन्दर्भ में उन्होंने जाति व्यवस्था के उन्मूलन में दलितों की मुक्ति देखी। भारत में जातिविहीन समाज की स्थापना के लिए उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया, क्योंकि हिन्दू धर्म की तरह बौद्ध धर्म में, सामाजिक विभाजन जैसी चीज नहीं है। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि ”मैं हिन्दू के रूप में पैदा हुआ, इस पर तो मेरा वश नहीं था, मगर मैं हिन्दू के रूप में मरूँगा नहीं।”

 

डॉ. अम्बेडकर जाति-प्रथा के जबर्दस्त विरोधी थे। उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में जातीय अपमान का दंश भोगा था। उनकी पढ़ाई अमेरिका और इंगलैण्ड में हुई थी। उन्होंने अपना जीवन सरकारी कार्यालय में एक लिपिक के रूप में शुरू किया, किन्तु शीघ्र ही सवर्ण हिन्दुओं के विरोध के कारण उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी। जीवन की पाठशाला में उन्हें यह अटल विश्‍वास हुआ कि अछूत जाति-प्रथा की देन है। जब तक उसका अस्तित्व है, अस्पृश्यता बनी रहेगी। अछूतोद्धार का अर्थ है जाति-प्रथा का अन्त। बाबा साहब की दृष्टि में दलित को विदेशी उपनिवेशवाद से मुक्ति का फायदा तब तक नहीं मिल सकता, जब तक भारतीय समाज के आन्तरिक उपनिवेशवाद अर्थात जातिप्रथा से उन्हें मुक्ति नहीं मिलती। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि अछूतों-अस्पृश्यों की समस्याओं को सुलझाए बिना भारत की आजादी उसकी बहुसंख्य दलित जनता के लिए अर्थहीन है, छूआछूत तभी गायब होगा, जब पूर्ण रूप से हिन्दू समाज-व्यवस्था, खासकर जातिवाद समाप्‍त हो जाएगा।

 

डॉ. अम्बेडकर ने 25 नवम्बर,1949 को संविधान के मसौदे पर तर्क-वितर्क का जवाब देते हुए कहा, ‘‘हमें अपने राजनीतिक लोकतन्त्र को सामाजिक लोकतन्त्र भी बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतन्त्र तब तक स्थायी नहीं रह सकता, जब तक वह सामाजिक लोकतन्त्र के आधार पर टिका नहीं रहेगा।… सामाजिक लोकतन्त्र से अभिप्राय है एक ऐसी जीवन-विधि जो जीवन के सिद्धान्त के रूप में स्वातन्त्र्य, समत्व और भ्रातृत्व को मान्यता देती है। स्वातन्त्र्य, समत्व और बन्धुत्व के ये सिद्धान्त एकत्रयी में अलग-अलग तत्त्व नहीं हैं। ये मिलकर एकत्रयी के संयोग इस अर्थ में हैं कि यदि इनमें से कोई भी तत्त्व किसी दूसरे का साथ छोड़ दे तो लोकतन्त्र का सारा उद्देश्य ही निरर्थक हो जायेगा।’’

 

डॉ. अम्बेडकर  ने अपने इसी तर्क से ‘हिन्दूराज’ का विरोध किया था, ‘‘अगर हिन्दूराज एक वास्तविकता बन जाता है तो निस्सन्देह यह इस देश के लिए सबसे बड़ी विपदा साबित होगी। हिन्दू चाहे जो भी कहे, हिन्दूवाद स्वतन्त्रता, समानता तथा बन्धुत्व के लिए आपदा है।… किसी भी कीमत पर हिन्दूराज को रोकना आवश्यक है।’’ कारण कि, वह हिन्दुओं का प्रभुत्व एवं आर्यों की एक वर्चस्वशाली प्रजाति के रूप में उनके आडम्बरी मिथ्या गौरवगान को ही स्थापित नहीं करेगा, वह दमनकारी वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा को भी मजबूत बनाएगा। डॉ. अम्बेडकर  मानते थे कि ‘वर्णव्यवस्था सिर्फ श्रम का विभाजन ही नहीं है, वह श्रमिकों का विभाजन भी है। धर्म-जाति आदि के आधार पर बँटी  हुई जनता की मुक्ति असम्भव है।’

 

सामाजिक मुक्ति में दलित-मुक्ति है, यह समझ अम्बेडकर  की थी। मराठी लेखक तारचन्द्र खाण्डेकर ने लिखा है, ‘‘दलित साहित्य की निष्ठाएँ केवल अछूत, दलित, आदिवासी, दुखी-पीड़ित मानव-मात्र तक ही सीमित नहीं, बल्कि वे सम्पूर्ण मानव-समाज के मूल्य हैं। अछूत, दलित तथा दुखी समाज इस साहित्य का प्राथमिक और महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, क्योंकि इस समाज को आज तक कोई भी मानवीय अधिकार प्राप्‍त नहीं हुआ। इसके सुसंस्कृत समाज के स्तर पर आ जाने के बाद दलित साहित्य का उत्तरदायित्व होगा – समस्त मानव-कल्याण की प्राप्ति, किन्तु जब तक ऐसा नहीं होता तब तक वह चतुर्वर्ण  व्यवस्था, परम्परागत ब्राह्मणशाही तथा रूढ़िवादिता के विरुद्ध संघर्ष करता ही रहेगा।’’

 

बाबूराव बागुल दलित साहित्य का सुपरिचित नाम है। उनकी दृष्टि में अम्बेडकर के विचारों में निहित जो मानववादी सारतत्त्व है, वह काफी छनकर दलित साहित्य में आया है, ‘‘भारतीय विचार, समाज और साहित्य-परम्परा एवं वर्ण-व्यवस्था से सम्बद्ध है। इस परम्परा को दलित साहित्य पूर्णतया नकारता है। वह स्वतः को ज्ञान-विज्ञान और विश्‍व साहित्य की उस मानववादी क्रान्तिदर्शी परम्परा से जोड़ता है, जिसमें मानव-स्वातन्त्र्य के मूल्य पोषित पल्लवित हुए हैं।… मनुष्य के लिए संघर्ष करने वाला, मनुष्य को महानता देने वाला व्यक्ति, चाहे वह अभारतीय भी हो, तो भी वह हमारा अपना है। कारण, हमारे लेखन का उद्देश्य ही मनुष्य की मुक्ति और महानता है।… दलित साहित्य तो मनुष्य को सर्वोपरि मानता है। अतः मनुष्य की महानता के लिए जो कुछ भी अच्छा हो रहा है, वह सब कुछ दलित साहित्य का है।’’

 

दलित साहित्य की नई प्रवृति के विकास और दलित साहित्य की वैचारिक पृष्ठभूमि के निर्माण में आज के उत्तर-आधुनिक विमर्श के अन्तर्गत अस्मिताविमर्श (आईडेण्टिटी डिस्कोर्स)–हाशिए अथवा उपेक्षित समुदायों को केन्द्र में प्रतिष्ठित कर उनके विषय में नए तरीके से सोचने की पहल से भी मदद मिली। मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए वैश्विक स्तर पर होने वाली बहस-मुबाहिसों से भी दलित चेतना की वैचारिक निर्मिति को प्रोत्साहन मिला। साझा अनुभवों की खोज ने दलित लेखकों को अफ्रीकी और अमेरिकी अश्‍वेत लेखकों के जीवन एवं साहित्य की ओर मुड़ने की प्रेरणा दी जो स्वयं परम्परागत काव्यशास्‍त्र एवं सौन्दर्यशास्‍त्र के मानदण्डों को अपर्याप्‍त एवं पक्षपातपूर्ण मानकर साहित्य-रचना की नई कसौटियों की खोज में थे। परिणामस्वरूप दलित साहित्यकारों के विचार, भावबोध एवं भाषा-बोध ने भिन्‍न आकृति ग्रहण की। दलित साहित्यकारों ने तत्सम संस्कृति और साहित्य से भिन्‍न समाज के हाशिये से अपने नायक चुने, जिन्हें वर्ण व्यवस्था पालकों ने अपवित्र मानकर तिरस्कृत किया था। उन्होंने नायक-नायिका के शास्‍त्रीय भेद को ठुकराया। उन्हें अभिजात की गरिमा से अलंकृत करने वाले उपादानों को नहीं माना। पूजनीय और वीर समझे जाने वाले बलशाली देवी-देवताओं, नायकों, राजाओं की जगह मलेच्छ, दस्यु, खल, राक्षस, अनार्य, नाग, दास, शूद्र और ऐसे ही अनावश्यक विशेषणों से पुकारे जाने वाले जन-समुदाय के सदस्यों को नायक के रूप में स्वीकार किया। दलित साहित्य ने अपने वैचारिक आधार को खड़ा करने के लिए कुछ प्रचलित मिथकों, मसलन शम्बूक और एकलव्‍य का भी प्रयोग किया। उसने झलकारी बाई, वीरांगना उदादेवी, पासी आकिद जैसे कुछ नए मिथकों की भी खोज की। दलित साहित्यकारों ने इन मिथकों के माध्यम से दलित इतिहास की शौर्य-कथा तथा उसके संघर्षपूर्ण अतीत को लोगों तक पहुँचाने की कोशिश की। उन सबका उद्देश्य आनन्द और मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज को झकझोरने और जगाने के लिए किया गया प्रयत्‍न था।

  1. डॉ. अम्बेडकर : जाति-व्यवस्था और दलित साहित्य

   डॉ. अम्बेडकर विलक्षण प्रतिभाशाली थे। सिद्धान्त और कर्म, सोच एवं व्यवहार का विस्मयकारी सन्तुलन उनके चिन्तन में दिखाई देता है। दलित-आन्दोलन अथवा दलित साहित्य द्वारा भारतीय समाज के जिस हिस्से  वर्चस्ववादी हिन्दू वर्ण-व्यवस्था एवं ब्राह्मण-संस्कृति के विरुद्ध आवाज उठी, उसकी पृष्ठभूमि में अम्बेडकर का दार्शनिक एवं सामाजिक चिन्तन है। इसी कारण कुछ विचारक दलित साहित्य को अम्बेडकरवादी साहित्य मानते हैं। दूसरे शब्दों में एक खास विचारधारा से प्रेरित और उस पर आधारित लेखन मानते हैं।

 

बाबा साहब ने हिन्दू धर्मग्रन्थों का, विशेषतः ‘मनुस्मृति’ का गम्भीर अध्ययन किया था। उनकी दृष्टि में ये धर्मशास्‍त्र भारतीय वर्णव्यवस्था के विचारधारात्मक आधार थे। इन्हीं शास्‍त्रों के तर्क से जाति व्यवस्था के पद-सोपानक्रम में ‘शूद्र’ कही जाने वाली जातियों को दबाकर वश में रखने का वैधानीकरण होता था। इसलिए बाबा साहब के लिए दलितों की स्वतन्त्रता का अर्थ हिन्दू धर्मशास्‍त्रों के प्रभाव से दलितों की मुक्ति थी, क्योंकि उसी से सामाजिक गुलामी का मुक्तिकरण होता था।

 

अम्बेडकर  ने अत्यन्त सरल भाषा एवं वैज्ञानिक तरीके से वर्ण-व्यवस्था का मर्म समझाया है। उनका कहना है कि इस व्यवस्था के भीतर जो मेहनत नहीं करता और समाज में दूसरों के श्रम पर परजीवियों की तरह जीता है, वह अतार्किक तरीके से श्रेष्ठ मान लिया जाता है। समाज का यही वर्ग अपनी श्रेष्ठता को सही प्रमाणित करने के लिए सामाजिक विधान, न्यायप्रणाली, नियम-कायदे-कानून आदि भी तैयार करता है। दूसरी ओर जो उनकी भौतिक सुख-सुविधा की पूर्ति के लिए सामान जुटाता है वह अन्यायपूर्ण तरीके से नीच या शूद्र मान लिया जाता है। श्रमिकजनों को दबाकर रखने के लिए पुरोहितों की संस्कृत उन्हें स्वर्ग-नरक का भय दिखाती है, पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम बताती है। सम्पत्तिशाली वर्गों के शास्‍त्रकार और उनका पक्षधर हिन्दू दर्शन कर्मकाण्डों से बिंधे हुए धर्म और संस्कृति पर आधारित वर्ण-व्यवस्था को ईश्‍वर की देन बताते हैं।

 

डॉ. अम्बेडकर आधुनिक भारत के सम्भवतः पहले विचारक हैं, जिन्होंने भारतीय धर्मशास्‍त्रों में निहित विचारों की ताकत को पहचाना। आज के उत्तर-आधुनिक विमर्श में कहा जा रहा है कि विचार ही शक्ति है (नॉलेज इज पॉवर) और उस विमर्श का सर्वोत्तम प्रमाण भारत की जाति-व्यवस्था है। डॉ. अम्बेडकर ने भली-भाँति बताया कि आत्मा-परमात्मा, कर्मफल, भाग्यवाद, नियतिवाद, अवतारवाद, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, ब्रह्म-माया, परलोक आदि से जुड़े कर्मकाण्डी सिद्धान्त असल में वर्चस्वशाली ब्राह्मणवादी संस्कृति की देन है। जाति-व्यवस्था कोई ईश्‍वरीय विधान नहीं है। वह मानव-निर्मित संरचना है। उसे बदला जा सकता है। उन्होंने समझाया कि ऐसे सिद्धान्तों पर कायम व्यवस्था धन-सम्पदा के आधार पर निर्मित शक्ति, श्रेष्ठता और कुलीनता के मध्ययुगीन मानदण्डों से सामाजिक स्तर-भेद को मजबूत करती है। यह व्यवस्था समाज के अन्य बहुसंख्य समुदायों की तुलना में अल्पसंख्यक समुदाय पर वर्चस्व कायम रखती है, सामाजिक सर्वोच्‍चता के भाव को बढ़ावा देती हैं।

 

डॉ. अम्बेडकर  के समाज-दर्शन में यही ब्राह्मणवादी संस्कृति है, जो भारतीय धर्मशास्‍त्रों से अपना जीवन-रस पाती है जिसका लोकतान्त्रिक व्यवस्था की प्रतिबद्धताओं से कोई तालमेल नहीं हो सकता। उन के समाज-दर्शन पर फ्रांसीसी क्रान्ति के तीन नारों का गहरा प्रभाव है। उन्होंने लिखा कि श्रमिक वर्ग मुक्ति चाहता है, निषेधात्मक अर्थ में केवल  पूँजी की गुलामी ही नहीं, हर प्रकार की मानसिक दासता और सामाजिक पराधीनता से वह मुक्ति चाहता है। वह इसलिए असमानता को जन्म देने वाली हर प्रवृत्ति का उन्मूलन जरूरी समझता है। वह भाईचारे का इच्छुक है, जो सभी राष्ट्रीयताओं और वर्गों को जोड़कर ‘पृथ्वी पर मानवता की सुख-शान्ति से प्रतिबद्ध’ है। ‘उसकी आस्था अन्तर्राष्ट्रीयतावाद में है।

 

जाहिर तौर पर वेदों, धर्मशास्‍त्रों एवं पुराणों की ब्राह्मणवादी परम्परा से इस सार्वभौम भ्रातृत्व का मेल नहीं हो सकता था। अम्बेडकर ने अस्पृश्यता के सवाल पर अछूतों को सावधान करते हुए कहा, ‘‘अछूतों को यह बात अपने दिमाग से निकाल देनी चाहिए कि हिन्दू धर्म सामाजिक न्याय की स्थापना करेगा। वह तो स्वयं असमानता एवं अन्याय पर खड़ा है।’’ उन्होंने जाति-वर्णव्यवस्था के वैचारिक आधार को पहचाना और उसका जबर्दस्त खण्‍डन किया। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ‘नशा कैसा भी हो–चाहे वह सर्वसत्तात्मक अधिनायकवादी शासनतन्त्र का हो या अफीम का या किसी आदर्शवादी दर्शन का, वह समाज के लिए कभी कल्याणकारी नहीं हो सकता।’ टॉमस पेन के लिखे अमेरिकी स्वतन्त्रता के घोषणा-पत्र ‘कॉमन सेंस’ के एक वाक्य को अम्बेडकर दोहराते नहीं थकते थे कि अगर बुद्धिमत्ता वंशानुगत नहीं होती तो सामाजिक गुलामी वंशानुगत कैसे हो सकती है। इस तर्क से सामाजिक अलगाव, सांस्कृतिक विस्थापन, अवज्ञापूर्ण उपेक्षा और निरादर भारत के दलितों की नियति नहीं हो सकती। उनका यही तर्कपूर्ण विचार आगे चलकर दलित आन्दोलन और दलित साहित्य का प्रेरणा स्रोत बना।

  1. दलित साहित्य : सर्जनात्मक संवेदना का नया केन्द्र

   डॉ. अम्बेडकर के विचारों से साहित्य की संवेदना का केन्द्र परिवर्तित हुआ। जब विचार और अनुभूति के केन्द्र बदलते हैं, उसके दृष्टिकोण बदलते हैं तब साहित्य की संस्थाएँ भी बदलती हैं। दलित सर्जक-विचारक बाबूराव बागुल का विचार है कि ‘दलित साहित्य जाति-व्यवस्था की दु:खद सच्‍चाई को अनावृत्त करता है। ‘दलित साहित्य’ वह लेखन है, जो वर्णव्यवस्था के विरोध में और उसके विपरीत मूल्यों के लिए संघर्षरत मनुष्य से प्रतिबद्ध है’। उनक तर्क है कि भारतीय साहित्य की महान परम्पराओं में राजाओं और दैवी चरित्रों के आख्यान की भरमार है। ‘वहाँ आत्मा-परमात्मा, ब्रह्म-माया, कर्म-पुनर्जन्म, पाप-पुण्य, पोथी-पुराण में विश्‍वास रखनेवाला हिन्दू धर्म जाति-व्यवस्था में जीवित है। उनका यह भी दावा है कि भारतीय साहित्य पूरी तरह से हिन्दू साहित्य है।’

 

इसलिए दलित-साहित्य के दूसरे विमर्शकार ताराचन्द्र खाण्डेकर निषेध, नकार और विरोध को दलित-साहित्य की सामान्य विशेषताएँ  मानते हैं। उन्होंने लिखा है, ‘‘दलित साहित्य न केवल वैचारिक परम्पराओं को अस्वीकार करता है बल्कि आज तक की मराठी तथा समस्त भारतीय साहित्य की परम्पराओं को भी अस्वीकार करता है।…दलित साहित्य के अम्बेडकरवाद को स्वीकारने का अर्थ है कि वह अम्बेडकरवाद की क्रान्तिकारिता को स्वीकारता है। मराठी तथा सम्पूर्ण भारतीय साहित्य (जो मूलतः संस्कृत भाषा और साहित्य से प्रभावित है) का वह निषेध करता है। आज भी रामायण, महाभारत भारतीय साहित्य के प्रेरणा स्रोत हैं। मनुस्मृति और ऋग्वेद जैसे ग्रन्थ आज भी परम्परावादी साहित्यकारों के मार्गदीप हैं। दलित-साहित्य इन सबको अस्वीकार करता है। कथ्य और जीवन-दर्शन के विषमतावादी (केवल उच्‍चवर्णियों का अनुनय करने वाले) होने के कारण ये ग्रन्थ  दलितों को अपने नहीं लगते।… ‘मृच्छकटिकम’ में बौद्ध भिक्षुओं को अस्पृश्य माना गया है। ऐसे अनेकानेक उदाहरण धार्मिक ग्रन्थों, वेदों और स्मृतियों में मिलते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय साहित्य-परम्परा कितनी नकली और दलित द्रोही है।…दलित साहित्य के भारतीय साहित्य-परम्पराओं को अस्वीकार करने का अर्थ है – ब्राह्मणशाही के द्वारा समृद्ध किए गए साहित्य का अस्वीकार। यह साहित्य केवल हिन्दूधर्मीय ही नहीं था। ब्राह्मणशाही के कुछ दम्भी और प्रच्छन्‍न पण्डित बौद्ध और जैन धर्म में प्रवेश करके अपना षड्यन्त्र सफल बना रहे थे। इस कारण भारत का सच्‍चा सांस्कृतिक इतिहास फिर से लिखना होगा और यह दायित्व दलित साहित्यकारों पर है।’’

 

यहीं से दो अलग साहित्य-धाराओं का सूत्रपात होता है। यहाँ दो दलित विमर्शकारों के विचारों की एकसूत्रता को देखना प्रासंगिक होगा। ऊपर मैंने ताराचन्द्र खाण्डेकर के विचारों के उल्लेख की निरन्तरता में बाबूराव बागुल के विचारों से दलित साहित्य के वैचारिक आधार और डॉ. अम्बेडकर  के विचारों से उसके सहसम्बन्ध की तस्वीर बनती है।

 

डॉ. अम्बेडकर ने बौद्ध धम्म अपनाया और ‘धम्म’ और धर्म का फर्क समझाया। बुद्ध के ‘धम्म’ में हिन्दू धर्म जैसा  सामाजिक पद-सोपानक्रम नहीं है। बागुल डॉ. अम्बेडकर  की बाद की पीढ़ी के हैं। इसलिए वे डॉ. अम्बेडकर  के ‘धम्म’ की व्याख्या को नया अर्थविस्तार देते हुए बताते हैं कि बुद्ध को संसार में मात्र दु:ख दिखे थे। उससे मुक्ति के लिए बुद्ध और अम्बेडकर दोनो ‘धम्म’ की शरण में पहुँचे। किन्तु आज दु:ख के साथ-साथ दुःख देने वाले भी दिखते हैं। दुःख और दुःखदाताओं के रक्षक भी दिखते हैं। उनसे लोहा लेने वाले भी दिखते हैं। यह अम्बेडकर-दलित साहित्य का नया सृजनबोध है। इसलिए आज जब दलितों को सांविधिक एकता की शक्ति प्राप्‍त है, दलित-साहित्य हिन्दू पौराणिकता, वैचारिकता, मानसिकता, संस्कार, आदर्शों, धारणाओं, प्रतीकों में न्यस्त विभेदात्मकता की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष परिणतियों को नकारता है।

  1. दलित साहित्य : स्वानुभूति एवं सहानुभति

   दलित-साहित्य केवल दलित लेखकों द्वारा दलित-जीवन पर लिखा गया साहित्य ही कहलाएगा या गैरदलित लेखक भी दलित-जीवन की समस्याओं में दलित-लेखकों के सहकार हो सकते हैं; एक विवादास्पद प्रश्‍न है। डॉ. धर्मवीर, ओमप्रकाश वाल्मीकि, जयप्रकाश कर्दम, श्योराज सिंह बेचैन, मोहनदास नैमिशराय, पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी आदि दलित साहित्यकारों का विचार है कि दलित, सामाजिक शोषण और विषमतापूर्ण वर्ण-व्यवस्था का सीधा भुक्तभोगी होता है, दलित होने के कारण उसकी अवमानना और पीड़ा को केवल वही महसूस करता है; वही भोक्ता है, भुक्तभोगी है, इसलिए वही सच्‍चा दलित साहित्य लिख सकता है। गैरदलित लेखक दलित समाज में पैदा न होने के कारण दलितों की पीड़ा का दूरस्थ द्रष्टा होता है। वह उनसे सहानुभूति रख सकता है, किन्तु उनकी स्वानुभूति का हिस्सेदार नहीं हो सकता ।

 

दलित-साहित्य के उक्त साझा स्वर के रूप में डॉ. धर्मवीर के विचारों को प्रतिनिधि स्वर माना जा सकता है, ‘‘साहित्य (दलित-साहित्य) की वह परिभाषा एकदम खतरनाक है, जिसमें इस बात की गुंजाइश रखी जाती है कि गैरदलित भी दलित-साहित्य की रचना कर सकता है।… उदारवादी हिन्दू लेखक के साहित्य का मूल्यांकन हिन्दू साहित्य के नाते किया जाना चाहिए, चाहे वह दलित के भले के नाम पर लिखा गया हो। विश्‍लेषण में उसे दलित के पक्ष में लिखा गया हिन्दू-साहित्य कहा जा सकता है, लेकिन दलित-साहित्य नहीं ।’’

 

मार्क्सवादी आलोचकों ने भी प्रायः डॉ. धर्मवीर की उक्त स्थापना को माना है। नामवर सिंह का विचार है, ‘‘जन्मना दलित होने के कारण अनुभव के जिन आसंगों से एक आदमी को गुजरना पड़ता है, उसका प्रत्यक्ष अनुभव स्वयं एक दलित को जैसा है, अपनी पूरी अनुभूतियों व कल्पना का विस्तार करने के बावजूद मैं, जो एक गैरदलित हूँ, उस अनुभव को उसी तीव्रता और तनाव से आपको अनुभव नहीं करा सकता। इस बात को समझते हुए अगर साहित्य में उसका अनुभव उसी तीव्रता से व्यक्त होता है, जैसा कि मराठी की अनेक दलित रचनाओं को पढ़कर अनुभव होता है, तो वह सच्चे अर्थों में दलित-साहित्य है।’’ मैनेजर पाण्डेय ने ‘राख ही जानती है, जलने की पीड़ा और कोई नहीं’ कहकर दलित-अनुभवों को दलितेतर अनुभवों से भिन्‍न माना।

 

स्वानुभूति और सहानुभूति के बीच थोड़ी लचीली दृष्टि अपनाते हुए डॉ. शिवकुमार मिश्र ने गैरदलितों द्वारा दलित जीवन पर लिखी गई रचनाओं को दलितों की ‘पक्षधर अथवा मित्र-रचना’ मानने तथा उसमें अभिव्यक्त ‘करुणा, दया, अनुकम्पा या सहानुभूति’ को व्यापक नजरिए से देखने की अपील दलित लेखकों से की है।

 

दलित-साहित्य की रचना सिर्फ दलित कर सकते हैं, एक अतिवादी दृष्टि है। राख अचेतन तत्त्व है, दलित आवयविक रूप से विकसित एवं सचेत मानव-समुदाय है। उस समुदाय के लिए राख का रूपक आलोचकीय सदिच्छा के बावजूद उसका अवमूल्यन है, जो दूसरा अतिवाद है। दोनों तरह के विचारक दलित-साहित्य और चिन्तन को लोकतान्त्रिक विमर्श के बजाय हिन्दू विमर्श की तरह देखते हैं, जबकि डॉ. अम्बेडकर  ने दलित-मुक्ति को समाज की व्यापक मुक्ति के प्रसंग में देखा था। बुद्ध ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था से मुक्ति के लिए शास्‍त्र-सम्मत ज्ञान को अपर्याप्‍त मानकर विवेकसम्मत व्यावहारिक ज्ञान को अपनाने पर बल दिया था। स्वतन्त्र भारत में दलित-साहित्य और चिन्तन उसी प्रत्यक्ष अनुभव का परिणाम है।

 

‘स्वानुभूति’ का तर्क दूसरी तरह का ब्राह्मणवाद है। यानी जातीय संस्कारों से बचना एवं उन्हें तोड़ना अगर इतना कठिन है, तो फिर एक दलित दूसरे दलित की पीड़ा को भी न तो अनुभव कर सकता है और न उसे व्यक्त कर सकता है। कारण कि, दलितों में भी पदसोपानक्रम है। कुछ जगहों पर दलित और महादलित में भेद किया गया है। अब अगर दोनों की अनुभूति इतनी भिन्‍न है कि दोनों एक दूसरे को समझ नहीं सकते, तो इसी तर्क से एक समूह के सदस्य भी आपसी भिन्‍नता के कारण अलगाव में होंगे। वे सामान्य अनुभवों का साझीदार नहीं हो सकते। दूसरे शब्दों में, एक जाति का दलित व्यक्ति दूसरी जाति के दलित व्यक्ति के दुःख-दर्द को क्यों कर समझेगा?

 

यहाँ लैंगिक भिन्‍नता का प्रश्‍न महत्त्वपूर्ण है। स्‍त्री-पुरुष के जीवन और उत्पीड़न के रूपों में भी भिन्‍नता होती है, तो ‘स्वानुभूति’ की लैंगिक भिन्‍नता स्वतः स्पष्ट है। दलित स्‍त्री की प्रसव-वेदना, दलित पुरुष की स्वानुभूति नहीं हो सकती। बुधिया की प्रसव-वेदना घीसू-माधव की स्वानुभूति नहीं बन पाती। जैविक भेद तो स्‍त्री-पुरुष में रहेगा, सामाजिक स्तरीकरण के बावजूद।

 

अगर स्वानुभूति ही दलित-साहित्य की कसौटी है, तो केवल आत्मकथाएँ ही लिखी जा सकती हैं, क्योंकि अन्य कला-रूपों की अपेक्षा वही उसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त भी है। इस तर्क से अन्य विधाएँ दलित साहित्य की सीमा से अपने आप बाहर हो जाएँगी। लेखक का अनुभव जब कलात्मक रूप लेता है, तो वह उसके निजी संसार को अतिक्रान्त कर पाठकों का अपना अनुभव बनता है। उस अनुभव का सामाजीकरण-सामान्यीकरण होता है, अन्यथा एक जाति के लेखक का लिखा दूसरी जाति का पाठक पढ़े ही क्यों?

 

स्वानुभूति देशकाल सापेक्ष होती है। इसलिए उसमें देशकालगत अन्तर भी होता है। अतः तात्कालिक अनुभव एवं संचित अनुभव में भी अन्तर होता है। एक समय-सापेक्ष तात्कालिक प्रतिक्रिया है, दूसरा अनुभवों का स्मृतिकोश है, जो समय-सापेक्ष होने के बावजूद सार्वकालिक होता है। स्वानुभूति के पक्षधर चिन्तक अनुभूति को ऐसी वस्तु मानते हैं, जिसकी सम्प्रेषणीयता एक समुदाय मात्र तक सीमित है। यानी दलित होने मात्र से स्वानुभूति में एकरूपता स्थापित होगी। यह स्वानुभूति को शाश्‍वत एवं अनैतिहासिक बना देता है। उसमें परिवर्तन और विकास की सम्भावना नहीं रह जाती ।

 

श्री रत्‍नकुमार साँभरिया दलित लेखक है, यद्यपि वे दलित लेखक कहलाना और दलित साहित्य कही जाने वाली लीक से बँधकर लिखना नापसन्द करते हैं। उन्होंने उदाहरण से समझाया है कि चौराहे पर बैठकर जूता गांठने का काम करने वाला अपना पुश्तैनी धन्धा करता है। यह उसकी रोजगारोन्मुख मजबूरी है, सदिच्छा नहीं है। प्रयास से वह बैंककर्मी बन जाता है। अब ‘‘उसकी नई स्वानुभूति उसकी दिनचर्या का अंग बन जाती है और पुरानी स्वानुभूति सहानुभूति। अब बैठकी पर बैठा हुआ कोई मोची उसके लिए सहानुभूत है, स्वानुभूत नहीं। समूचे दलित साहित्य जगत में एक भी लेखक दिखायी नहीं देता जो कबीर और रैदास की तरह अपनी जातिगत स्वानुभूतियों को जीता हुआ जिन्दगी बसर कर रहा हो।’’

 

किसी लेखक की विशेष रचना को दलित-लेखन मान लेने की तुलना में उसके जीवन-जगत एवं साहित्य विषयक समग्र दृष्टिकोण अधिक महत्त्वपूर्ण है। उसके अभाव में स्वयं दलित-साहित्य के वैशिष्ट्य को भी बताना कठिन होगा। किन्तु जैसे ही हम सहानुभूति को दया-अनुकम्पा के निषेधवादी अर्थ में ग्रहण करते हैं, वैसे ही उन्हें उत्पीड़ितों के अनुभवों में साझीदारी अथवा उन जैसी अनुभूति – सहानुभूति, साथ ही अनुभूति के सार्थक अर्थ को खारिज कर देते हैं, जिसे लेकर लिखे गए साहित्य में शोषणकारी व्यवस्था के विरुद्ध क्रोध और भत्सर्ना होती है और सामाजिक वास्तविकता के अनुरूप दलितों का समर्थन भी।

 

डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा मुर्दहिया और मणिकर्णिका  एक दलित की आत्मकथा से कहीं अधिक ‘काऊ बेल्ट’  कहे जाने वाले पिछड़े हुए हिन्दी-भाषी प्रदेश में धीमे औद्योगिक विकास एवं गहराई से जड़ें जमाए सामन्तवाद और जाति व्यवस्था के अन्तर्विरोधों की पहचान हुई है। उनके बीच गरीबों, अछूतों, अन्त्यज-अस्पृश्यों में व्याप्‍त दुर्व्यसन, अज्ञान, अन्धविश्‍वास और पसरी हुई रूढ़िग्रस्तता को परस्पर अन्तर्ग्रथित समग्रता में रचने के कारण ये कृतियाँ  हिन्दी की अब तक की लिखी आत्मकथाओं में सिरमौर है। दलितों की त्रासद स्थितियों के लिए मात्र ब्राह्मणवादी संस्कृति को इकहरा उत्तरदायी नहीं ठहराता, वह दलित-समाज की असंगतियों का निर्मम तटस्थता से चित्रित ऐतिहासिक दस्तावेज भी है। वहाँ सर्जनात्मक स्तर पर वैयक्तिकता और प्रतिनिधिकता के द्वन्द्व को साधने की कला दिखाई देती है।

 

‘स्वानुभूति’ से जुड़ी एक समस्या यह भी है कि इसे मान लेने पर साहित्य का एक बड़ा हिस्सा साहित्य के क्षेत्र से बाहर हो जाएगा, क्योंकि बहुत-सी उत्पीड़ित अस्मिताएँ वजूद में हैं, जो अपने अनुभवों को अज्ञान एवं अशिक्षा के कारण लिख-कहकर व्यक्त करने में अममर्थ हैं। उनके विषय में परकीया लेश्‍वेखन पर ही निर्भर रहना पड़ता है। आदिवासी जीवन एवं गिरिजनों के अनुभवों को कला की आवाज देने वाली महाश्‍वेता देवी के चेट्टीमुण्डा  और उसका तीर और जंगल के दावेदार  उपन्यासों को इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता कि वह स्वयं आदिवासी अथवा गिरिजन नहीं हैं। इस तर्क से तो किसानों-मजदूरों पर केवल, किसान-मजदूर, स्‍त्रि‍यों पर स्‍त्री लेखिका, पुरुषों पर पुरुष लेखक, पागलों पर पागल, चोरों एवं वेश्याओं पर चोर-उचक्‍के और वेश्या ही प्रामाणिक अनुभवों के साथ लेखन के हकदार होंगे; जबकि विदित है कि द बैण्डिट (उच्‍चके) उपन्यास के लेखक प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम हैं और पेरिस रहस्य  की रचना भी किसी वेश्या ने नहीं की थी। भोगे हुए यथार्थ, अनुभव की प्रामाणिकता और अनुभूति की ईमानदारी जैसे विचारों की सचाई का अनुभव हिन्दी पाठकों को ‘नवलेखन’ के दौर में हो चुका है, जब शीतयुद्ध की विचारधारा से प्रेरित साहित्य-सिद्धान्त इन्हीं नारों से हिन्दी में आया था। साहित्य का उद्देश्य सामाजिक अलगाव, प्रतिकार और बदले की भावना नहीं हो सकता। उससे अम्बेडकर की विचारधारा का कोई विरोध भी नहीं है। डॉ. अम्बेडकर ने 25 दिसम्बर 1927 के महाड़ आन्दोलन के घोषणा-पत्रों में जिन मानवाधिकारों की घोषणा की, उसके दो बिन्दुओं से ऐसी किसी भावना पर स्वतः विराम लग जाता है

 

(1) सभी हिन्दुओं की सामाजिक हैसियत जन्म से एक जैसी होती है। उनके कृत्यों की दृष्टि से उनमें कुछ अन्तर हो सका है, पर उससे उनकी हैसियत में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। यह सम्मेलन ऐसे किसी भी कार्य का विरोध करता है, जिसके कारण सामाजिक हैसियत में अन्तर आता है। (2) सभी राजनीतिक, आर्थिक अथवा सामाजिक परिवर्तनों का लक्ष्य यही होना चाहिए कि सभी हिन्दुओं की समान हैसियत ज्यों की त्यों बनी रहे। अतः यह सम्मेलन हिन्दू समाज-व्यवस्था में व्याप्‍त असमानता के घृणित सिद्धान्त का समर्थन करने वाले सम्पूर्ण साहित्य का विरोध करता है। अम्बेडकर ने संग्रहणीय एवं त्याज्य परम्पराओं में यहाँ फर्क किया है। उन्हें पूरी तरह ब्राह्मणवादी मानकर तिरस्कृत करने का फैसला बहुत बाद का है। पूरे भारतीय साहित्य को हिन्दू साहित्य मानकर उसमें एक काल्पनिक शत्रु की खोज और बाद की घटना है।

  1. निष्कर्ष

   कहा जा सकता है कि आज के दलित साहित्य की मूल प्रेरणा अम्बेडकर के विचार हैं। भारतीय साहित्य में दलित-लेखन और दलित-विमर्श के हस्तक्षेप का मुख्य कारण जाति और वर्ण पर आधारित भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था रही है। दलित-साहित्य और चिन्तन का लक्ष्य जाति-वर्ण का उन्मूलन तथा दलितों से जबरन छीन ली गई मानवीय गरिमा की पुनः प्राप्ति है। सामाजिक न्याय पर आधारित समतामूलक समाज का निर्माण और मानवाधिकार का संरक्षण उसका उद्देश्य है। कास्ट्स इन इण्डिया  : दीयर मैकेनिजम, जेनेसिस एण्ड डेवलपमेण्ट (1916) से लेकर बुद्ध एण्ड हिज धम्म (1956) तक के अपने लेखन में डॉ. अम्बेडकर  ने विपुल पैमाने पर राजनीति, धर्म, दर्शन और समाज-सम्बन्धी विचार व्यक्त किए। साथ ही उनके द्वारा सम्पादित मूकनायक, बहिष्कृत भारत, प्रबुद्ध भारत  जैसे पत्रों में व्यक्त उनके विचार दलित-साहित्य एवं दलित-चिन्तन के स्थायी प्रेरणा स्रोत हैं। उन सब का सार है, ‘सांस्कृतिक-बौद्धिक क्रान्ति के बिना राजनीतिक क्रान्ति असम्भव है।’

you can view video on दलित साहित्य का वैचारिक आधार (डॉ. भीमराव अम्बेडकर)

 

अतिरिक्त जानें  

 

पुस्तकें

  1. बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, डॉ. अम्बेडकर प्रतिष्ठान, कल्याण मन्त्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली
  2. दलित चिंतन का विकास : अभिशप्त चिन्तन से इतिहास चिन्तन की ओर, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. बोधिसत्व बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर:जीवन और दर्शन , डॉ. अँगने लाल, सम्यक प्रकाशन,नई दिल्ली
  4. दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचन्द, सम्पा. सदानन्द साही, प्रेमचन्द साहित्य संस्थान, गोरखपुर
  5. दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. शूद्र कौन और कैसे , डॉ. भीमराव अम्बेडकर, अनुवाद: भदन्त आनन्द कौशल्यायन, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. दलित साहित्य: एक अभ्यास , अर्जुन डाँगले, महाराष्ट्र राज्य साहित्य संस्कृति मण्डल, मुम्बई
  8. Ambedkar writes, Vol-1 & 2,Ed. Narendra Jadhav, Konark Publishers, New Delhi
  9. The Annihilation of Caste, B.R. Ambedkar, Critical quest, New Delhi
  10. Gandhi & Gandhism, B.R. Ambedkar, Critical quest, New Delhi

    वेब लिंक्स

  1. https://www.youtube.com/watch?v=TNAdYLbGLKY
  2. https://en.wikipedia.org/wiki/Annihilation_of_Caste
  3. https://en.wikipedia.org/wiki/B._R._Ambedkar
  4. https://www.youtube.com/watch?v=ZJs-BJoSzbo