12 दलित साहित्य और वैश्वीकरण
शीतांशु कुमार
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप -
- वैश्वीकरण की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
- दलित विमर्श और वैश्वीकरण के सम्बन्ध में विभिन्न चिन्तन धाराओं के विषय में जान पाएँगे।
- वैश्वीकरण के दौर में ‘परिवेश से मुक्ति’ के सिद्धान्त का विश्लेषण करने में समर्थ हो पाएँगे।
- दलित राजनीतिक चेतना पर वैश्वीकरण के प्रभाव से परिचित हो सकेंगे।
- दलित स्त्री लेखन में वैश्वीकरण का स्वरूप जान पाएँगे।
- प्रस्तावना
दलित समाज और साहित्य पर वैश्वीकरण के प्रभाव को चिह्नित करने के लिए यह समझना जरूरी है कि वैश्वीकरण का क्या अर्थ है और यह हाशिए के समाज के साथ किस तरह पेश आता है। दुनिया में विद्यमान विभिन्न संस्कृतियों को एक दूसरे के अधिक निकट लाकर मानवीय धरातल पर एक करने की बातें तथा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद या विश्व में एकता स्थापित करने की बातें वैचारिक जगत में होती ही रही हैं। किन्तु सन् 1990 के साथ वैश्वीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई, उसकी परिभाषा इतनी सहज नहीं है। वस्तुतः इस पद के प्रसार का सम्बन्ध विश्व-अर्थव्यवस्था के नव-उदारीकरण के साथ है। आज जब इस पद को परिभाषित किया जाता है, तो सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं के साथ नई आर्थिक नीतियों से सम्बद्ध आर्थिक परिघटनाओं पर भी गहराई से विचार किया जाता है। इन आर्थिक परिघटनाओं ने हाशिए के समाज के सामान्य जीवन को और फलतः उनकी संवेदनाओं और तद्जनित साहित्य को बहुत ही गम्भीर रूप से प्रभावित किया है।
- वैश्वीकरण से तात्पर्य
वैश्वीकरण को लेकर वैचारिक जगत् में स्पष्टतः दो धड़े हैं। वैश्वीकरण के समर्थक बुद्धिजीवियों का कहना है कि इसने विभिन्न देशों के बीच की दूरियों को अब निरर्थक साबित कर दिया है। टेलीविजन, इण्टरनेट और विभिन्न संचार माध्यम इन दूरियों को मिटाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। एक-दूसरे के निकट आने से लोगों के बीच विद्यमान विभिन्न के अस्मिताई बन्धन कमजोर होते जा रहे हैं। इन बुद्धिजीवियों का मत है कि वैश्वीकरण के माध्यम से पूँजी का अबाध प्रवाह विभिन्न देशों में हो सकेगा और अधिक पूँजी प्राप्त होने पर विभिन्न देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को और विकसित कर सकेंगे। जो देश समय के साथ अपनी अर्थव्यवस्था में विभिन्न बहुराष्ट्रीय निगमों को स्थान देते जाएँगे, वे दुनिया भर के सुख-संसाधनों का अपनी जगह पर रहते हुए भी उपभोग कर पाएँगे। इस तर्क के अनुसार सूचना, संचार और अर्थतन्त्र अब मनुष्य के लिए ज्यादा सहज, सुलभ और फायदेमन्द हो गए हैं।
दूसरी ओर वैश्वीकरण के विरोधी बुद्धिजीवियों का स्पष्ट मत है कि वैश्वीकरण पूँजी के अबाध विस्तार और नई आर्थिक नीतियों से प्रेरित जनसंचार माध्यमों के जरिए एक तरह की छवियों और सन्देशों को परोसता रहता है, ताकि उपभोक्ताओं की प्राथमिकताओं को समरूप बनाया जा सके (अभय कुमार दुबे (सं), भारत का भूमण्डलीकरण, लेख – रजनी कोठारी, जनता से डरते अभिजन और कमजोर होता राष्ट्र-राज्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007, पृ. 75)। इस समरूपीकरण से बहुराष्ट्रीय निगमों को सबसे पहले यह फायदा होगा कि तैयार उत्पादों की विश्व बाजार में बिक्री सहज हो जाएगी। वैश्वीकरण मूलतः पूँजी केन्द्रित अर्थव्यवस्था की पोषक अवधारणा है, जिसमें विभिन्न राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाएँ पूँजी और बाजार के उदारीकरण के पक्ष में संलग्न होती जा रही हैं। इसका मुनाफा कुछ लोगों तक पहुँचेगा और ज्यादा से ज्यादा लोग गरीब होते जाएँगे। इस तर्क के अनुसार वैश्वीकरण आर्थिक और सामरिक रूप से क्षमतावान शक्तियों की ऐसी वास्तविकता है, जो विश्व राजनीति, सभ्यताओं और संस्कृतियों को अपनी आर्थिक जरूरतों के हिसाब से सूचना और संचार-क्रान्ति के आधुनिक माध्यमों का आवरण लेकर नियंत्रित करती है। लुभावनी शब्दावली में प्रकट होने वाली इस परिघटना ने उपभोग की इच्छाएँ पैदा की, किन्तु पर्दे के पीछे भयानक विवशता, क्रूरता, उपभोगवादी मूल्यों की आक्रामकता, अमेरिकीकरण, सांस्कृतिक बहुलता का विनाश छिपा हुआ है। विद्वानों का मानना है कि इस पश्चिमीकरण और अमेरिकीकरण का परिणाम यह हुआ कि वैश्वीकरण के पीछे सक्रिय शक्तियाँ और उसके पैरोकार बहुलता, विविधता और बहुसांस्कृतिकता के प्रति संवेदनशील नहीं दिखाई देते। ऐसे में सबसे ज्यादा नुकसान उन समुदायों को उठाना पड़ रहा है, जो हाशिए पर हैं। उनकी भाषा, संस्कृति और इतिहास इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं, क्योंकि प्रतिरोध की सबसे ज्यादा गुंजाइश वहीं होती है।
- दलित-विमर्श और वैश्वीकरण
दलित-विमर्श में भी वैश्वीकरण के सन्दर्भ में दो तरह के विचार मिलते हैं। चिन्तकों की एक धारा यह मानती है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया में दलित अपनी परिवेश से मुक्ति पा सकते हैं और उनके लिए नए अवसर उपलब्ध हो सकते हैं, जिससे अवमाननापूर्ण जीवन से मुक्ति सम्भव हो सकती है। पिछली सदियों में मनुष्य और समाज को और व्यवस्थित बनाने के दावे के साथ आई विभिन्न विचारधारएँ जब दलित समस्या का पूर्ण समाधान नहीं दे सकीं, उनके प्रश्न बार-बार हाशिए पर छोड़ दिए गए, तब परिवेश से मुक्ति के लिए दलित बुद्धिजीवियों ने नए तरीके अख्तियार किए, ताकि उनकी लड़ाई अब पीछे न छूटे। चर्चित दलित चिन्तक गोपाल गुरू ने ठीक रेखांकित किया है कि “भूमण्डलीकरण एक ऐसे विचार और व्यवहार का नाम है जो अपनी सार्वभौमिकता के जरिए व्यक्तियों और समुदायों को उनकी पारिवेशिकता का अतिक्रमण करने का आश्वासन देता है। व्यक्ति और समुदाय के तौर पर दलित अपनी पारिवेशिकता को तोड़ने के लिए सबसे ज्यादा व्याकुल हैं।” (वही, लेख – गोपाल गुरु, सार्वभौम की तरफ छलांग, पृ.255) चिन्तकों की यह धारा ज्योतिबा फुले की तटस्थता की महत्त्वपूर्ण थीसिस को अपनाते हुए वैश्वीकरण की प्रक्रिया के प्रति तटस्थ रवैया रखकर दलित समुदाय के लिए अवसर ढूँढ लेना चाहती है। गेल ऑम्वेट, नरेन्द्र जाधव, जी.अलोसिस, चन्द्रभान कुमार, शरण कुमार लिम्बाले जैसे चर्चित नाम वैश्वीकरण की प्रक्रिया का लाभ उठाने के पक्षधर हैं।
जातिवाद के विकास के सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों के साथ-साथ, आर्थिक कारकों पर भी दृष्टि रखने वाले चिन्तकों की दूसरी धारा की स्पष्ट मान्यता है कि वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया में दलितों के लिए अवसर पूरी तरह समाप्त हो जाएँगे, क्योंकि हाशिए पर रहने वालों को यह प्रक्रिया और भी हाशिए पर धकेल रही है। एस.के. थोराट, कँवल भारती, के.एस. चलम, एस. नानछरिया, डी.आर. नागराज, अभय कुमार दुबे और गोपाल गुरु जैसे कई विचारकों का मत है कि वैश्वीकरण का यह दावा कि वह हाशिये को केन्द्र दे रही है, मात्र छलावा है। इन चिन्तकों का कहना है कि वैश्वीकरण के माध्यम से फल-फूल रहे पूँजीवाद, बाजारवाद, उपभोक्तावाद, अराजनीतिकरण, अमेरिकीकरण, अलोकतान्त्रिकीकरण, राष्ट्र-राज्यों के क्षय, सांस्कृतिक बहुलता के ह्रास, बाजार केन्द्रित समरूपीकरण के बीच में से दलित समस्या का सफल समाधान ढूँढना सम्भव नहीं है। गोपाल गुरु की चिन्ता है कि ‘यह सही है कि दलितों में अपने परिवेश की सीमा तोड़ कर सार्वभौम की ओर न जा पाने की हताशा है, लेकिन क्या सतत संघर्ष और गहन चिन्तन के जरिए उपलब्ध होने वाला सार्वभौम वही है जो भूमण्डलीकरण उपलब्ध कराने का आश्वासन दे रहा है। क्या इस सार्वभौम तक छलाँग लगाने के चक्कर में भूमण्डलीकरण के दलित पैरोकारों ने फुले-अम्बेडकर विचारधारा से नाता पूरी तरह ही नहीं तोड़ लिया है।” (वही, लेख – अभय कुमार दुबे, साकार राष्ट्र-निराकार यात्रा, पृ. 55)
- परिवेश से मुक्ति का प्रश्न और वैश्वीकरण
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि परिवेश से मुक्ति की आकांक्षा ने कई दलित बुद्धिजीवियों को वैश्वीकरण की ओर अत्यधिक आकर्षित किया है। आज भी ज्यादातर दलित समुदाय भारत के गाँव में बसता है। ग्रामीण जीवन में जिस तरह के जातिगत शोषण और अवमानना भरा जीवन दलित समुदाय ने झेला है, उससे मुक्ति के लिए कई दलित चिन्तक उस शहर की ओर आकर्षित होते हैं, जिसे वैश्वीकरण ने उपभोग, सौन्दर्य और खुशहाली की जगह के रूप में प्रस्तुत किया। अभय कुमार दुबे ने अपनी सम्पादित पुस्तक आधुनिकता के आईने में दलित में नए शहर की तलाश शीर्षक एक लेख में इस प्रक्रिया का गहन विश्लेषण किया है और बताया है कि दलित चेतना उत्तरोत्तर नगर केन्द्रित होती गई। किन्तु दलित साहित्य की विभिन्न धाराओं ने यह बताया कि नए शहर की तलाश में आया हुआ दलित नायक नागरिकता के आवरण में भी अपनी जाति छिपाने में नाकाम है। गाँव में व्याप्त कुरूपता का वृहद रेखांकन दलित साहित्य में मिलता है। गाँव की जो छवि स्वीकृत हिन्दी साहित्य में रची गई थी, दलित रचनाकारों ने उसे बदल कर रख दिया। गाँव की विद्रूपताओं का चित्रण सिर्फ दलित आत्मकथाओं में ही नहीं, दलित कविताओं में भी काफी मिलता है। ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘तब तुम क्या करोग?’ की निम्नलिखित पंक्तियाँ उस स्थिति का प्रामाणिक परिचय देती हैं, जो मनुष्य से उसके मनुष्य होने की दावेदारी छीन लेने से बनी है –
यदि तुम्हें
धकेलकर गाँव से बाहर कर दिया जाए
पानी तक न लेने दिया जाए कुँए से
…तब तुम क्या करोगे?
गाँव की यह स्थिति दलितों को अपना अलग स्वर अख्तियार करने के लिए विवश करती है। कुछ दलित चिन्तकों ने अम्बेडकर के चिन्तन से इसके लिए तर्क भी ढूँढ निकाला क्योंकि अम्बेडकर ने भी दलितों को शहर की ओर रुख करने को कहा था। अम्बेडकर के मुताबिक गाँव पारिवेशिकता का प्रतीक है और शहर सार्वभौमिकता का, गाँव मनुष्य को गुलामी में जकड़े रखता है और शहर में मुक्ति सम्भव है (अभय कुमार दुबे (सं), आधुनिकता के आईने में दलित, लेख – गोपाल गुरु, दलित बौद्धिकता और सांस्कृतिक दीवारें, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2002, पृ. 134)। किन्तु वैश्वीकरण के परिवेश में भी दलित रचनाशीलता ने बहुत शीघ्र ही यह भी पहचान लिया कि गाँव से सभी पीछा नहीं छुड़ा सकते और आज के शहर में भी अवमानना पीछा नहीं छोड़ रही है। दलित आत्मकथाओं में शहर के अनुभव कम मार्मिक नहीं हैं। अपने-अपने पिंजरे, तिरस्कृत या जूठन जैसी आत्मकथाएँ इसी तथ्य को प्रमाणित करती हैं कि शहर में दलित युवाओं को एक अलग किस्म की अपमानजनक अवस्था का सामना करना पड़ता है और उसको झेलने और प्रतिवाद करने के तर्कों के साथ हमेशा सचेत रहना पड़ता है। शहर के अपने लाभ हैं, किन्तु समस्या का समाधान तब तक नहीं है, जब तक समानता इस रूप में स्थापित न हो कि गाँव तक उसका पूरा प्रसार हो। प्रखर बुद्धिजीवी डी. आर. नागराज ठीक कहते हैं कि गाँव अछूतों के लिए नरक के कुण्ड हैं, लेकिन जरूरत गाँवों को ही रहने लायक बनाने की है (वही, लेख – डी. आर. नागराज, आत्मशुद्धि बनाम आत्मसम्मान, पृ. 83)। इस स्थिति ने दलित रचनाशीलता में वैश्वीकरण के अस्वीकार के लिए भी जगह तैयार की।
समकालीन दलित साहित्य में शहर में अवमानना से मुक्ति की उम्मीद के टूटने की छवियाँ कई रचनाओं में उभर कर आई हैं। जयप्रकाश कर्दम की नो बार कहानी इसी बात को प्रमाणित करती है कि जाति-व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि कितनी भी पढ़ाई-लिखाई हो जाए, कितने भी ऊँचे उठ जाएँ, कितने भी शहरी हो जाएँ, इससे मुक्ति सम्भव नहीं हो पा रही है। एक शिक्षित दलित युवा शादी के विज्ञापन में नो कास्ट बार देखकर यह सोचता है कि यह परिवार संकीर्णताओं से मुक्त होगा, किन्तु कहानी का अन्त अवमानना की निरन्तरता में ही होती है। सुरंग (दयानन्द बटोही), मुखौटों के बीच (अजय नावरिया), बिच्छू (पूनम तुषामड़), भंगन डॉक्टरानी (सुधीर सागर), महू (कैलाश वानखेड़े), आपकी जात छोटी है (विपिन बिहारी), होनहार बच्चे (श्योराज सिंह बेचैन), सिलसिला जारी है (रंजना जायसवाल), सीधा प्रसारण (अनिता भारती) जैसी कई समकालीन कहानियों में ऐसी ही अन्य परिस्थितियों का वर्णन मिलता है। विनोद विश्वकर्मा ने दिल्ली में कनाट प्लेस पर कविता में इन अपरिवर्तनीय स्थितियों को इस तरह रेखांकित किया है –
कभी कभी वह कुछ शब्द सुनकर
उनके अर्थ तलाशती है –
…भारत अमेरिका की राह पर
भू-मण्डली करण
आधुनिकता का अन्त उत्तर आधुनिकता।
नई सोच से बदली राहें…।
अर्थों की इस भूल भुलैया में भटकते हुए
रोज पाखाना और पार्क की गन्दगी साफ करते हुए
वह अपनी दिनचर्या पूरी करती है।
कई समकालीन दलित रचनाकारों को यह लग रहा है कि हर बार की तरह इस बार भी वैश्वीकरण, आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता जैसे शब्द हाशिए के समाज के लिए मात्र शब्द ही हैं। वस्तुतः आज के दलित रचनाकार के जीवनानुभव, वह पूर्णतः राजनीतिक चेतना सम्पन्न हों या न हों, सामान्यतः वैश्वीकरण के दावों को अस्वीकार कर रहे हैं। दलित साहित्य में आज भी दलित जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति ही महत्त्वपूर्ण बनी हुई है, किन्तु कई समकालीन रचनाकार उन प्रश्नों पर अलग से विचार रखते दिखाई दे रहे हैं, जो परोक्ष रूप से दलित जीवन को और भी विकट परिस्थितियों में धकेल रही हैं। कैलाश वानखेड़े की कहानी महू की एक चरित्र कहती है कि ‘हत्यारों के पास होते हैं शुडू, योग्यता, हक जैसे हथियार, धीमी मौत के शस्त्र लगातार चलाते रहते हैं, फिर वह कॉलेज हो, चौराहा, दफ्तर या टी.वी. अखबार। अब तो नेट भी है। इनसे बचने के लिए रास्ते की तलाश करते हैं, तो आत्महत्या की खाई में पहुँच जाते हैं।’ कृष्णकान्त की कहानी नौ बच्चों की माँ और विपिन बिहारी की कविता प्रयोगशालाओं के गाँव में भी इस दृष्टि से विशिष्ट है –
रुक गई है ब्लू फिल्म के लिए
सिमरन की बहू
अपने गाँव को
गाँव कहूँ
या उसे जो उगाए गए हैं
प्रयोगशालाओं में।
शहर के इस नए विकसित चरित्र के बारे में जयप्रकाश लीलवान कहते हैं –
नया शहर आदमी के पदार्थीकरण की
स्थितियों का जंक्शन है।
इन परिस्थितियों के बारे में वैश्वीकरण के पक्षधर बुद्धिजीवियों का यह तर्क है कि संस्कृतियों और सभ्यताओं के नष्ट होने का हौव्वा खड़ा किया जा रहा है, ताकि बड़े निगमों द्वारा उपलब्ध अवसरों से दलितों को वंचित किया जा सके और दलित प्रश्न को फिर से पीछे धकेला जा सके। अंग्रेजी भाषा और शिक्षा को महिमामण्डित कर कुछ दलित बुद्धिजीवी दलित समुदायों को वैश्वीकरण द्वारा उपलब्ध बाजार के अनुकूल बना लेना चाह रहे हैं। किन्तु विमर्श से इतर दलित रचनाधर्मिता परिवेश से मुक्ति के सहज मार्गों पर जाने की जगह पूरी व्यवस्था को दुरुस्त करना चाह रही है। कई दलित रचनाओं में यह अभिव्यक्ति दिखाई दे रही है कि पहले से ही परम्परा में मौजूद बहुत सारे लेखन को अस्वीकार किया जाता रहा है, उस पर वैश्वीकरण द्वारा पल्लवित सांस्कृतिक समरूपता भाषाओं और संस्कृतियों को क्षति पहुँचा कर सांस्कृतिक अतीत को ही नष्ट कर सकती है। सच्चे साहित्य के दबाए जाने और गौरवमय इतिहास के रौंदे जाने की पीड़ा पूरे दलित साहित्य में बिखरी पड़ी है। इसलिए दलित साहित्यकार सबसे पहले अपने इतिहास की पुनर्व्याख्या चाहता है। सांस्कृतिक-साहित्यिक अतीत का उद्घाटन गर्व और आत्मविश्वास को रूपाकार देता है और यह तभी सम्भव है जब जनभाषाओं और उनके साहित्य की रक्षा हो। लोककथाओं में दलित मुक्ति के लिए जो स्वर है वह मेहनतकश समाज का आकांक्षी है, भोगवादी मूल्यों का विरोधी है।
- राजनीतिक चेतना और वैश्वीकरण
भारत में दलित साहित्य के विकास का सबसे प्रमुख कारण राजनीतिक चेतना ही रही है। दलित साहित्यकार सिर्फ दलित साहित्य की बात नहीं करते हैं, दलित आन्दोलन की भी बात करते हैं। हम यह देख चुके हैं कि वैश्वीकरण से उपजी परिस्थितियों का चित्रण दलित साहित्य में दिखाई दे रहा है, किन्तु आन्दोलनों से प्रेरणा लेने वाले इस साहित्य में परिस्थितियों का और भी बारीक चित्रण सम्भव हो सकेगा अगर दलित विचारक और राजनेता वैश्वीकरण पर अपनी दृष्टि और भी परिष्कृत कर लेते हैं। दलित आन्दोलन में वैश्वीकरण के प्रश्न के प्रति स्पष्ट राय के अभाव ने दलित साहित्य की धार को भी प्रभावित किया है। इधर, दलित-विमर्श में यह दिखाई दे रहा है कि जिन चिन्तकों का यह मानना है कि वैश्वीकरण हाशिए का और भी हाशियाकरण कर देगा, वे राजनीतिक प्रक्रिया से वैश्वीकरण के गूढ़ सम्बन्ध का गहन विश्लेषण करने की ओर प्रवृत्त हुए हैं। वैश्वीकरण के आलोचक दलित रचनाकारों का मानना है कि वैश्वीकरण के पैरोकार राजनीति को लेकर बहुत सचेत हैं। वर्ष 2000 में हमने कँवल भारती के शब्दों में तमाम विद्रूपताओं के साथ प्रवेश किया है –
हम कितने महान हैं
कि हमने मरने नहीं दी
अपनी सामन्ती संस्कृति
इस उत्तर आधुनिक वैश्वीकरण की व्यवस्था में भी।
इसलिए स्वागत करें, नव वर्ष का
जश्न मनाएँ
डिस्कों में थिरकें पॉप की धुन पर…
टकराएँ शराब के जाम
उन शासकों के नाम
जिन्होंने वर्ण व्यवस्था को जीवित रखा…।
जिसके बिना सम्भव ही नहीं है
हमारा विकास, हमारी समृद्धि और हमारी सत्ता।
कँवल भारती चिन्ता व्यक्त करते हैं कि वैश्वीकरण से उपजी परिस्थितियों के बीच दलित राजनीति वैचारिक धरातल पर अपने नजदीक दिखने वाली शक्तियों की तुलना में प्रतिगामी शक्तियों के साथ समझौता करते दिख रही है। अम्बेडकर की पूरी राजनीति धार्मिक साम्प्रदायिकता के खिलाफ थी, किन्तु पिछले दो दशकों के विकास को देख कर कोई नहीं कह सकता कि आज के कई दलित नेता उन शक्तियों का विरोध करेंगे, जिनके खिलाफ अम्बेडकर ने अपनी आवाज बुलन्द की थी। कँवल भारती स्वीकार करते है कि चुनौतियाँ गंभीर हैं, और लिखते हैं कि – ‘नब्बे के दशक के आरम्भ में जिस दलित राजनीति ने सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक न्याय के नारे के साथ भारतीय राजनीति में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया था, वह जिस तेजी से ऊपर उठी थी, आज दशक के खत्म होते ही उतनी ही तेजी से नीचे गिरकर स्वयं भी खत्म हो गई है।’ (कँवल भारती, दलित विमर्श की भूमिका, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, 2002, पृ. 127) इस स्थिति पर राजनीतिक रूप से आज के अत्यधिक सचेत कवि जयप्रकाश लीलवान कहते हैं –
भूमण्डलीकरण
स्वयं के भेड़ियों को
सब कुछ पर
आच्छादित करते हुए
आक्रमण करने वाले पूँजीवादियों के
पैरवीकारों की
व्यूह-रचना है।
दलित रचनाशीलता में यह मत उभर कर आ रहा है कि इस वैश्वीकरण का दुष्प्रभाव विभिन्न देशों में रह रहे हाशिए के तबकों पर समान रूप से पड़ेगा, इसलिए इसके प्रतिरोध की चेतना अर्जित करने का दायित्व समान रूप से हाशिए के लिए लड़ रहे हर साहित्यकार पर है, चाहे उसकी अस्मिता कुछ भी हो। कँवल भारती लिखते हैं –
हम नई सदी में प्रवेश कर रहे हैं,
उस व्यवस्था के साथ
जिसमें करोड़ों मजदूरों का,
आदिवासियों का,
गरीबों का विस्थापन है,
दमन और भूख की विभीषिकाएँ हैं
और उन पर कानून की सहमतियों की विडम्बनाएँ हैं।
इस तरह दलित साहित्य का सामान्य चरित्र अब वैश्वीकरण विरोधी आकार ले रहा है, किन्तु राजनीतिक स्तर पर उसके प्रति सतर्कता की कमी की वजह से कई बार विचारकों का द्वन्द्व रचनाकारों में भी दिखाई देता है। रचनाकार अपने लेखन में वैश्वीकरण द्वारा पैदा की गई परिस्थितियों के विरोध में दिखाई देते हैं और बातों में उसके समर्थन में। दलित राजनीतिक-सामाजिक आन्दोलन जिस तरह अतीत में साहित्य को प्रभावित करते रहे थे, दलित साहित्यकार जिस तरह अपने नेतृत्व से प्रेरणा लेकर रचनाएँ लिख रहे थे, आज आवश्यकताएँ और परिस्थितियाँ पहले से गम्भीर होने के बावजूद दलित साहित्यकार संवेदना के धरातल पर तो बहुत सी बातें कह पा रहे हैं, किन्तु वैचारिक राजनीतिक नेतृत्व को लेकर दुविधा में खड़े हैं। इसीलिए प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि ‘मराठी में दलित साहित्य के सैद्धान्तिक आधार का निर्माण महात्मा फुले और अम्बेडकर के चिन्तन से हुआ है। हिन्दी क्षेत्र में दलित चिन्तन की वैसी कोई परम्परा नहीं रही है। इसलिए आज के दलित लेखकों को अपनी रचनाशीलता के विकास के साथ-साथ उसके सैद्धान्तिक आधार का भी निर्माण करना है।’ (मैनेजर पाण्डेय, मैं भी मुँह में जबान रखता हूँ, यश प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, पृ. 150)
वैश्वीकरण के विस्तार के इस दौर में कई दलित रचनाकारों का रुझान अन्य प्रगतिशील तबकों के साथ सम्बन्ध मजबूत बनाने की ओर बढ़ा है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कई चिन्तकों का तर्क है कि इधर के वर्षों में ऐसी विकट मनोवृत्तियों का जन्म हुआ है और सत्ता का प्रतिक्रियावादी शक्तियों से ऐसा सम्बन्ध कायम हुआ है कि राजनीतिक चेतना में प्रगतिशीलता को पहचानना कठिन होता जा रहा है। समकालीन दलित रचनाशीलता में यह स्वर उभर कर आ रहा है कि व्यापक राजनीतिक लक्ष्य के लिए समाज में प्रगतिशील राजनीति का व्यापक गठबन्धन होना चाहिए किन्तु पूरी सतर्कता के साथ। वामपन्थी राजनीति के सामने दलित चिन्तकों ने लगातार गंभीर सवाल खड़े किए हैं। वैश्वीकरण को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि परिस्थितियों की विकटता को देखते हुए आज के कई रचनाकार वामपन्थी आन्दोलन के सकारात्मक योगदानों और अच्छाइयों को अपनाने को तैयार हैं, बशर्ते वे अपनी कमियों के प्रति गम्भीरता से आत्मालोचन करें। कवि जयप्रकाश लीलवान अपनी कविता कॉमरेड से बातचीत में जायज शिकायत रखते हैं कि –
वसुधैव कुटम्बकम् की
स्वर्ण लफ्फाजियों के ठीक पड़ोस में
पान्नी भंगिन की सूजी देह का
भयानक अनुभव इस मुल्क के
माथे पर लगे हिमालय-जैसे
प्रश्न-चिह्नों के जवाब
कहाँ जाते रहे, कॉमरेड?
वैश्वीकरण के इस दौर में दलित नेताओं का प्रतिगामी शक्तियों के साथ साँठ-गाँठ देखकर दलित रचनाकार चिन्तित भी हैं। फुले-अम्बेडकर के साथ एक किस्म का सम्बन्ध विच्छेद दिखाई देने लगा है। अम्बेडकर की राजनीति जनान्दोलन और सामाजिक परिवर्तन की राजनीति थी जिसे वर्चस्व की राजनीति में हाशिए पर डाल दिया जा रहा है। ऐसे में दलित राजनीति के पुरोधाओं को जयप्रकाश लीलवान जैसे सक्रिय कवि निरन्तर प्रश्नांकित कर रहे हैं। कहा जा सकता है कि आज दलित आन्दोलन का जिस तरह राजनीतिक ह्रास हिन्दी प्रदेश में हो रहा है, उस तरह साहित्य का नहीं हो रहा है। आज कई दलित रचनाकार अन्य प्रगतिशील तबकों की ओर इस प्रक्रिया में रुख करने पर जोर दे रहे हैं और यह मान रहे हैं कि आन्दोलन को व्यापक बनाने की समझदारी प्राथमिकता में जितनी नीचे रहेगी, हाशिये के समुदाय का हाशियाकरण उतना ही तीव्र होगा। जयप्रकाश कर्दम के छप्पर में या ओमप्रकाश वाल्मिकी के जूठन में जो वैचारिक-राजनीतिक प्रक्रिया दिखाई देती है उसमें दलित समुदाय से बाहर के लोग भी विकृत परिस्थितियों को तोड़ने के लिए कटिबद्ध दिखाई देते हैं।
- दलित स्त्री-लेखन और वैश्वीकरण
वैश्वीकरण के इस दौर में दलित लेखिकाएँ दलित आन्दोलन को पुनर्विश्लेषित करने की माँग कर रही हैं, क्योंकि पितृसत्तात्मक संरचनाएँ कमजोर होती नहीं दिखाई दे रही हैं। वस्तुतः अगर दलित स्त्री लेखन को सतर्कता से खंगाला जाए तो हम पाएँगे कि जो जितने हाशिए पर है, उसकी आवाज साहित्य में वैश्वीकरण के उतने ही खिलाफ है। हाशिए से आ रही आवाजों में भले ही वैश्वीकरण की सैद्धान्तिक समझदारी सबके पास न हो, पर उनके अनुभव और संवेदनाएँ इन वैचारिक समझदारियों से कहीं ज्यादा परिपक्व हैं। दलित और जनजातीय स्त्रियों के समक्ष विदेश घूमने, नई तकनीकों को जानने, मोबाइल-इण्टरनेट का प्रयोग करने से ज्यादा अपने दैनन्दिन जीवन की जरूरतें पूरी करने की चिन्ता है। वैश्वीकरण तो बहुत बाद की बात है। संचार-क्रान्ति के दावे जनजातीय स्त्री के लिए किसी काम के नहीं हैं। कवि कैलाश वानखेड़े वैश्वीकरण की गहरी समझ रखते हैं। महू और सीधा प्रसारण जैसी कहानियाँ ये बताती हैं कि वैश्वीकरण के साथ स्त्री के शोषण के नए हथियार इजाद हुए हैं। लो प्रोफाइल स्त्री की ओर किसी का ध्यान नहीं है। कैलाश लिखते हैं कि पीटर इंग्लैण्ड की शर्ट पहनने वालों को बस यही लगता रहता है कि हर वस्तु का निजीकरण कर देना चाहिए। आखिरी मनुष्य की चिन्ता किसी को नहीं है। ‘ग्लोबल इन्वेस्टर्स’ किसके लिए आ रहे हैं, इसकी चिन्ता किसी को नहीं है। इन सबके बीच कैलाश वैश्वीकृत माध्यमों के बीच से ही महिला कुली दुर्गा के लिए जगह तलाशते हैं –
दुर्गा
आँख जल रही है मेरी
कि बुखार से तप रहा हूँ
और पढ़ नहीं पा रहा हूँ नई दुनिया
जिसके पेज थ्री पर लिखा है शहर की सड़क ठीक नहीं है
धूल और गड्ढों को देखकर ग्लोबल इन्वेस्टर कैसे मीट करेंगे
कैसे होगा आयोजन? बचे हैं सत्रह दिन… मन्त्रीजी, अखबार अफसर सबकी
जायज चिन्ता के बीच तुम, तुम्हारा फेस है फेसबुक पर
इन विकृत परिस्थितियों में दलित प्रश्न को बिल्कुल नए सिरे से खंगालने की माँग कर रही हैं दलित लेखिकाएँ। उनकी राय अनीता भारती के शब्दों में बिल्कुल साफ है और एक कदम आगे भी –
तुमने कहा पितृसत्ता
हमने कहा ब्राह्मणवादी पितृसत्ता
दलित साहित्य के इस माँग को कि भारतीय समाज को समझने के लिए इसका परत दर परत अवलोकन जरूरी है, दलित स्त्रियाँ एक और चरण आगे ले जा रही हैं। भारतीय समाज में अगर एक परत जाति व्यवस्था का है, तो एक परत पितृसत्ता की भी है। वैश्वीकरण के गाजे-बाजे में इस पितृसत्ता से मुक्ति की कोई स्थिति इन दलित लेखिकाओं को नहीं दिखाई दे रही है। उसकी इस समझदारी के बनने का कारण उसका अन्य से अधिक हाशिए पर होना है। जहाँ वैश्वीकरण उन्हें वस्तु और उत्पाद की शक्ल दे रहा है, वहीं पितृसत्ता उसे भोग्या और नौकर के रूप में देख रहा है। रजनी तिलक की कविता है –
आज
इस आधुनिक युग में
जब गर्भ में ही कन्या का वध होता है
वहाँ से बच जाए तो
दहेज की आग में
ससुराल में उसका होम होता है
नारी इस युग की त्रासदी है
पतित संस्कृति की गुलाम है।
सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या
वो बन रही हैं
पूँजीवादी मकड़जाल का खिलौना।
सावित्रीबाई फुले,
तुम इनसे अलग थीं।
चर्चित कवयित्री सुशीला टाकभौरे ने निजीकरण और वैश्वीकरण का जमकर विरोध किया है। सुशीला का मानना है कि उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण हाशिए के समाज को बँधुआ मजदूर बनाकर ही छोड़ेंगे। पिछले संघर्षों के बीच से दलित समुदायों ने जो सफलताएँ हासिल की हैं, उन्हें छीनने की प्रक्रियाएँ हैं ये उदारीकरण और वैश्वीकरण। आरक्षण जैसी सफलता सेवाओं के निजीकरण से विफलताओं में तब्दील होती जाएँगी। अनीता भारती का कहना है कि ‘भूमण्डलीकरण, बाजारीकरण के चलते उसके श्रम की कीमत दिन पर दिन कम होती जा रही है, जिसके कारण उसके परिवार पर व उसके ऊपर इसका सीधा असर पड़ रहा है। आर्थिक चुनौतियाँ सुलझने की जगह और उलझ रही हैं। दलित स्त्रियों की शिक्षा की दर बहुत नीचे है, वे अधिकांशतः खेत और कारखानों में अल्प वेतन पर काम कर रही हैं (अनीता भारती, बजरंग बिहारी तिवारी (सं), यथास्थिति से टकराते हुए, दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कहानियाँ, लोकमित्र प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ. 15)।’ इसलिए वे जनान्दोलनों की बात करती हैं, वैचारिक लड़ाई जारी रखने की बात करती हैं। सुशीला लिखती हैं कि –
समझने लगे हैं अब ये भी क्रान्ति की बात को
जरूरत है बस बारूद के ढेर को
मशाल दिखाने की।
सबसे ज्यादा चिन्ता उन्हें शिक्षा की है। अनिता भारती ने अफगानिस्तान की वीभत्स घटना के बाद सुनो मलाला बिटिया जैसी मार्मिक कविता लिखी –
सुनो मलाला बिटिया
इन जंगली गिद्धों ने जबरन
बन्द कराए थे जो चार सौ स्कूल
उनकी चाबी खोजनी है तुम्हें
क्योंकि ये फकत स्कूल नहीं
ये रोशनी की मीनारे हैं…
- निष्कर्ष
इस तरह कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों में पारिवेशिकता से मुक्ति की आकांक्षा ने दलित बुद्धिजीवियों, रचनाकारों, नेताओं इत्यादि को पुनः एक बार उद्वेलित किया है। एक धारा वैश्वीकरण से उपजी नवीन परिस्थितियों में से दलित समुदाय के लिए अवसर निकालने का हिमायती है, किन्तु दूसरी धारा का यह मानना है कि वैश्वीकरण जिन प्रक्रियाओं, प्रवृत्तियों का विकास कर रहा है, उसकी परिणति दलित समाज के हाशियाकरण में ही होगी। जहाँ तक दलित साहित्य की बात है, उसका सामान्य चरित्र वंचित तबकों द्वारा झेली गई विद्रूपताओं को अभिव्यक्ति देने का रहा है। वैश्वीकरण के सम्बन्ध में अभी भी दलित साहित्य में स्वर तैयार हो ही रहा है। किन्तु जो सामान्य स्वर उभर रहा है उसका चरित्र सन् 1990 से आरम्भ हुए वैश्वीकरण के अस्वीकार का ही है। समकालीन दलित साहित्य में ऐसे रचनाकार उभर कर आ रहे हैं जो दलित समाज को अवमानना से मुक्ति दिलाने के लिए किसी जल्दीबाजी का रास्ता नहीं अपनाना चाहते, जो ये नहीं चाहते कि हड़बड़ी में एक बार फिर उनकी लड़ाई को किनारे छोड़ दिया जाए। इन रचनाकारों की यह समझदारी बनी है कि वंचित तबकों की मुक्ति अब फुले-अम्बेडकर और अन्य प्रगतिशील तबकों द्वारा आरम्भ की गई लम्बी लड़ाई के ही माध्यम से सम्भव है। उनकी प्राथमिकता वंचितों के लिए सबसे बड़े दो अभिशाप – अशिक्षा और गरीबी – के खिलाफ सामाजिक चेतना तैयार करना है। जब तक भारतीय सत्ता और समाज को जातिवादी मनोग्रन्थि से मुक्ति न दिला दिया जाए, संविधान में लिखे हुए समानता और बन्धुत्व की भावना को सार्वभौमिक रूप में सामाजिक चेतना में तब्दील न कर लिया जाए, तब तक समाज में कोई न कोई वंचित रहेगा, हाशिए पर रहेगा। इसलिए वैश्वीकरण ने जो आकर्षण पैदा किया है, उससे अलग जाकर दलित साहित्य में उभरा यह नया स्वर सबसे पहले अपने प्रश्नों का वैश्वीकरण चाहता है। ये रचनाकार मानते हैं कि दलित साहित्य का महत्त्व तभी होगा जब वह न केवल वर्तमान दलित तबकों की मुक्ति का रास्ता खोले, बल्कि वह रास्ता भी दिखाए जिससे समाज में ऐसी विकृत परिस्थितियों की सम्भावना ही न हो। उन्हें एक ऐसा वैश्विक आँगन चाहिए जो किसी को भी अपरिचित न लगे। मलखान सिंह के शब्दों में –
चौरस जमीं पर
मकाँ ऐसा बनाऊँगा
जहाँ हर होठ पर
बन्धुत्व का संगीत होगा
मेहनतकश हाथ में –
सब तन्त्र होगा
मंच होगा
बाजुओं में –
दिग्विजय का जोश होगा।
विश्व का आँगन
बृहद आँगन
हमारा घर बनेगा
हर अपरिचित पाँव भी
अपना लगेगा।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें-
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- आधुनिकता के आईने में दलित, अभय कुमार दुबे (संपा.), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- भारत का भूमण्डलीकरण, अभय कुमार दुबे (संपा.) वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- इक्कीसवीं सदी में दलित आन्दोलन (साहित्य एवं समाज-चिंतन), डॉ.जयप्रकाश कर्दम, पंकज पुस्तक मन्दिर, दिल्ली
- भारत का भूमण्डलीकरण, अभय कुमार दुबे (संपा.), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित निर्वाचित कविताएँ, कँवल भारती (संपा.), साहित्य उपक्रम प्रकाशन, दिल्ली
- यथास्थिति से टकराते हुएः दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएँ, अनिता भारती, बजरंग बिहारी तिवारी (संपा.), लोकमित्र प्रकाशन, दिल्ली
- अंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा, तेज सिंह, लोकमित्र प्रकाशन, दिल्ली
- अंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा कहानीः रचना और दृष्टि, तेज सिंह, लोकमित्र प्रकाशन, दिल्ली
- दलित लोकगाथाओं में प्रतिरोध, हसन इमाम, जोस कलापुरा, दानिश बुक्स, दिल्ली
- दलित अस्मिता, पत्रिका, दलित साहित्य वार्षिकी
वेब लिंक्स
- https://www.youtube.com/watch?v=AHJPSLgHemM
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3
- http://kosh.khsindia.org/hindi/%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%B7%E0%A4%A3%E0%A4%BE_2011_%E0%A4%AA%E0%A5%83-104
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF,_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B9%E0%A5%88_/_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A6
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6,_%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4-%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B7_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%98%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B7_/_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9