32 दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य का अन्तस्सम्बन्ध

गंगा सहाय मीणा

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  1. पाठ का उद्देश्य

     इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • दलित साहित्य एवं आदिवासी साहित्य की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे;
  • दलित साहित्य एवं आदिवासी साहित्य के इतिहास की जानकारी प्राप्‍त करेंगे;
  • दोनों साहित्य की विचारधारा का साक्षात्कार कर सकेंगे;
  • दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य के अन्तस्सम्बन्ध को समझ सकेंगे।

    2. प्रस्तावना

 

पिछले दशकों में साहित्य से लेकर राजनीति तक में समाज के वंचित तबकों की आवाज मुखर हुई है। साहित्य के क्षेत्र में स्‍त्री साहित्य, दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य इसी का प्रतिफल है। समाज के इन तबकों के बारे में छिटपुट लेखन तो पहले से होता रहा है, लेकिन समकालीन स्‍त्री साहित्य, दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य पूर्व के लेखन से इसी मामले में भिन्‍न है कि पहली बार बड़े पैमाने पर इन तबकों के रचनाकारों द्वारा लेखन किया जा रहा है और स्वयं उन्होंने अपने साहित्य को शेष साहित्य से पृथक मानने के लिए सामूहिक अभियान चलाया है। धीरे-धीरे साहित्य जगत में उन्हें व्यापक सहमति मिली है। वे साहित्यिक आन्दोलन अपनी विशिष्ट पहचान कायम करने में सफल रहे हैं।

 

साहित्य की दुनिया में दलित और आदिवासी साहित्य की उपस्थिति स्‍त्री लेखन के बाद मानी जाती है। कई बार भ्रमवश और कई बार सायास, दलित और आदिवासी साहित्य को एक ही मान लिया जाता है। इस प्रसंग में स्पष्टता के लिए दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य के अन्तस्सम्बन्धों पर बात करना जरूरी है।

 

3. अवधारणा

 

दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य के अन्तस्सम्बन्धों को समझने के लिए सबसे पहले हमें इनकी अवधारणा पर बात करनी होगी, यानी यह जानना होगा कि दलित साहित्य क्या है और आदिवासी साहित्य क्या है?

 

3.1. दलित साहित्य की अवधारणा

 

दलित साहित्य की अवधारणा को समझने के लिए यह जान लेना समीचीन होगा कि दलित कौन हैं? ‘दलित’ का सामान्य और व्यापक अर्थ है – शोषित, दमित, उत्पीड़ित व्यक्ति। वे किसी भी जाति, वर्ण, धर्म, वर्ग, लिंग, राष्ट्रीयता से सम्बन्धित क्यों न हों! यही इसका शाब्दिक अर्थ भी है, जैसा कि रामचन्द्र वर्मा ने लिखा है – ‘‘मसला हुआ, मर्दित, दबाया, रौंदा या कुचला हुआ, विनष्ट किया हुआ।’’ इस आधार पर यह एक वर्गीय शब्द ठहरता है।

 

दलित पैन्थर्स ने दलित शब्द की परिभाषा में ‘समाज के अनुसूचित जाति, जनजाति, नव बौद्ध, मजदूर, भूमिहीन एवं गरीब किसान, उच्च वर्ग, वर्ण के आर्थिक एवं धार्मिक रूप से पीड़ित एवं शोषित सदस्यों’ को शामिल किया था। यह परिभाषा अधिक व्यापक होने के बावजूद (कारण!) भ्रामक सिद्ध होती है, क्योंकि यह एक ओर अस्पृश्य और सर्वहारा में, दूसरी ओर अनुसूचित जाति और जनजाति में घालमेल करती है। दोनों एक नहीं हैं।

 

सर्वहारा एवं अनुसूचित जनजाति को हटा देने पर दलित शब्द भारतीय समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर बैठी शूद्र वर्ण की विभिन्‍न जातियों, जो अस्पृश्य मानी जाती थी, के लोगों का द्योतक सिद्ध होता है। कानून की भाषा में इसे ही अनुसूचित जाति कहा जाता है। यही इसका सन्दर्भित अर्थ है (जाहिर है अर्थ शब्द में नहीं सन्दर्भ में होता है)। दलित समाजशास्‍त्री नन्दूराम के अनुसार, ‘‘आजकल देश में दलित शब्द का प्रयोग पूर्व में तथाकथित अस्पृश्य जातियों के लिए किया जा रहा है। आज तो समाज विज्ञान के छात्र दलित, अस्पृश्य एवं अनुसूचित जाति शब्दों का प्रयोग एक दूसरे के पर्याय के रूप में करने लगे हैं।’’ दलित शब्द का प्रयोग आगे इसी अर्थ में किया जाना चाहिए।

 

दलित विमर्श के तहत जिस विषय पर सर्वाधिक लेखन हुआ है वह है – दलित साहित्य की अवधारणा। इसके बावजूद अभी तक दलित साहित्य की कोई सर्वमान्य अवधारणा विकसित नहीं हो पाई है। यह तय है कि दलित साहित्य दलितों से सम्बन्धित साहित्य का नाम है। लेकिन यह सम्बन्ध किस तरह का है – इसी मामले में विवाद है। विभिन्‍न आधारों पर दलित साहित्य में तीन तरह के सहित्य के शुमार होने का दावा किया जाता है –

  1. दलितों के बारे में लिखा गया साहित्य;
  2. दलितों के द्वारा लिखा गया साहित्य;
  3. दलितों के द्वारा दलितों के बारे में लिखा गया साहित्य।

    भारतीय समाज व्यवस्था में अस्पृश्य समझे जाने के कारण बहुत पहले से दलितों को पढ़ने-लिखने का अधिकार नहीं रहा; उनका शोषण उत्पीड़न होता रहा, ‘‘जब दलितों को पढ़ने-लिखने की सुविधा ही नहीं थी, तो वे साहित्य कहाँ से लिखते! इसलिए दलित साहित्य के रूप में अधिकांशतः वही साहित्य मिलता है, जो दलितों के बारे में गैर दलितों ने लिखा था।’’ इस आधार पर सवर्ण यानी गैर दलित आलोचकों का एक बड़ा वर्ग इस बात पर जोर देता है कि दलितों की समस्याओं पर अब तक जो लिखा गया है, वही दलित साहित्य है। रचनाकार चाहे किसी भी जाति, वर्ण का क्यों न हो; अगर वह दलित जीवन की सचाई को मार्मिकता के साथ चित्रित करने में सफल हुआ है, तो उसका सम्बन्धित साहित्य दलित साहित्य है।

 

अधिकांश दलित चिन्तक गैर-दलित साहित्यकारों द्वारा लिखित साहित्य को दलित साहित्य मानने से इनकार करते हैं, क्योंकि उनके अनुसार वह सुधार और उद्धार की दृष्टि से लिखा गया है। उसमें न वैसा आक्रोश है, न व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की वैसी माँग, जो दलित में होती है।

 

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है। दलितों द्वारा लिखे जाने के कारण उसमें विद्रोह का तीखा स्वर होगा और इसीलिए वह गैर दलितों द्वारा लिखे गए साहित्य से एकदम भिन्‍न होगा। वैसे इस बात को मानने वाले ज्यादा नहीं हैं कि दलित साहित्य की एक मात्र शर्त उसका दलितों द्वारा लिखा जाना है, क्योंकि यदि कोई दलित प्रेम, प्रकृति से सम्बन्धित रचनाएँ करता है, तो उन्हें दलित साहित्य का हिस्सा कैसे माना जाएगा? ‘‘अछूत जाति में जन्मे उन नौजवानों द्वारा लिखी प्यार-मुहब्बत की कहानियों को जो भारतीय हिन्दी फिल्मों से प्रभावित होकर लिखी जाती है, दलित साहित्य नहीं कहा जा सकता।’’

 

इस तरह दलित साहित्य के बारे में तीसरा मत यह है कि दलितों द्वारा दलितों के बारे में लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है। चूँकि दलित ही दलित जीवन और उसकी समस्याओं के भोक्ता होते हैं इसलिए वे दलितों के बारे में जो कुछ लिखेंगे, वही दलित साहित्य होगा। अधिकांश दलित साहित्यकार और चिन्तक इसी तर्क को मानते हैं। यहाँ भोक्ता होने का विशेष महत्त्व है। दलित साहित्य के अन्तर्गत गैर दलितों की रचनाओं को शामिल करने का इसलिए विरोध किया जाता है कि भले ही सम्बन्धित रचनाएँ दलित जीवन का चित्रण करती हैं, भले ही उनमें दलित जीवन की समस्याओं को उठाया गया है, लेकिन गैर दलित साहित्यकारों ने दलित जीवन के कड़वे अनुभवों को खुद नहीं भोगा है, इसलिए उनकी अनुभूति प्रामाणिक नहीं है। वे दलितों के बारे में जो भी लिखेंगे वह सहानुभूतिजन्य होगा। इसके विपरीत भोक्ता होने की वजह से दलित साहित्यकारों का लेखन स्वानुभूतिजन्य, और इसलिए प्रामाणिक होगा।

 

‘हिन्दी का दलित साहित्य हिन्दी साहित्य के एक खास दौर – अस्सी और नब्बे के दशक में उभरा, एक साहित्यिक आन्दोलन है, जिसमें दलित लेखक-कवि आत्म सजगता के साथ आगे आए और अपने को एक अलग साहित्यिक धारा के रूप में मनवाने का संघर्ष चलाया। अपनी रचनाओं में उन्होंने अपनी जाति के साथ होने वाले भेदभावों और जुल्मों को दिखाया।’ दलित साहित्य को दलित जाति से आए लेखकों का साहित्य इसलिए कहा जाता है क्योंकि ‘हिन्दी में दलित साहित्य की आवाज एक आन्दोलन के रूप में पहली बार दलितों ने ही उठाई। आज भी इसके लिए चल रहे संघर्ष में उन्हीं का हाथ सबसे ज्यादा है।’ दलित साहित्य की विचारधारा अम्बेडकरवाद है। दलित साहित्य की प्रमुख विशेषता और महत्त्व सुधार और उद्धार के बजाय उसमें पाई जाने वाली अधिकार दृष्टि है।

 

3.2. आदिवासी साहित्य की अवधारणा

 

हिन्दी में ‘आदिवासी’ पद का प्रयोग देश के मूल-निवासियों और उनके वंशजों के लिए होता है, जिन्हें संवैधानिक भाषा में अनुसूचित जनजाति कहा जाता है। आदिवासियों के सन्दर्भ में हम संयुक्त राष्ट्र के इस वक्तव्य से सहमत हो सकते हैं, ‘‘आदिवासी लोग ऐतिहासिक रूप से विकसित और जैविक रूप से स्वतः आगे बढने वाली इकाइयाँ हैं, जो कुछ खास सांस्कृतिक विशेषताओं द्वारा लक्षित होती हैं और जो मुख्यधारा समाज और उसकी संस्थाओं द्वारा कई तरह से दबाई जाती हैं, और जो लम्बे समय से अपनी विशिष्टताओं और अस्तित्व के लिए बुनियादी सीमाई संसाधनों के संरक्षण व उनकी बढोतरी के संघर्ष में लगे रहे हैं – इस मायने में वे कारगरता और चरित्र, दोनों ही अर्थों में देशज लोगों के समान हैं।’’ ‘आदिवासी’ शब्द के कई समानार्थी पर्याय मिलते हैं – इण्डिजिनस (देशज), एबॉर्जिनल (देशज), प्रिमिटिव (आदिम), नेटिव (मूल निवासी), बैण्ड (आदि समूह, कबीला), नैव (भोला-भाला), सेवेज (जंगली) आदि। लेकिन इनमें से हर शब्द का विशिष्ट सन्दर्भ और अर्थ है। हिन्दी में ‘आदिवासी’ पद का प्रयोग ही सबसे अधिक किया जाता है, क्योंकि आदिवासी शब्द उस चेतना का भी प्रतीक है जिसकी मदद से उन्होंने अपने दुख-दर्दों को समझा है और जो उन्हें, मुक्ति की राह में आगे बढा रही है- आदिवासी पद में एक आन्दोलनधर्मिता है, जो जनजाति या अन्य किसी पद में नहीं है।

 

झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा (राँची) की संयोजक और आदिवासी रचनाकार वन्दना टेटे ने आदिवासी साहित्य की अवधारणा के सवाल को मुखरता से उठाया है – उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सुनी-सुनाई बातों से आदिवासी जीवन का सच प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। मुख्यधारा की सोच, भाषा और दृष्टिकोण से आदिवासी जीवन पर किया लेखन रिसर्च हो सकता है, लेकिन आदिवासी साहित्य नहीं लिखा जा सकता। अपनी पीड़ा आदिवासी ही सही ढंग से बयान कर सकता है। उसकी समस्याएँ प्रधानतः आर्थिक ही नहीं हैं, जैसा कि अधिकांश रचनाकारों ने चित्रित किया है – वन्दना टेटे की धारणाओं से आदिवासी जीवन पर लिखने वाले कई गैर-आदिवासी रचनाकारों की असहमति है।

 

वंदना टेटे की पुस्तक आदिवासी साहित्य की परम्परा और प्रयोजन  आदिवासी जीवन, भाषा, कला, संस्कृति और साहित्य के बारे में फैलाए जा रहे भ्रमों को तोड़ती है। आदिवासी नजरिए से आदिवासी साहित्य के बारे में सही समझ विकसित करने की दिशा में वह सार्थक हस्तक्षेप है। इसमें वन्दना टेटे आदिवासी साहित्य सम्बन्धी प्रचलित तीन धारणाओं – उसके लोक साहित्य होने, अनगढ़ होने और प्रतिरोध का साहित्य होने का खण्डन करती हैं तथा आदिवासी संस्कृति, जीवन-दर्शन व उनकी विश्वदृष्टि के प्रति एक नई दृष्टि की माँग करती हैं। वे लोक का सम्बन्ध हिन्दू मिथक और संस्कृति से जोड़कर कहती हैं, “प्रकृति-पूजक और बोंगा को मानने वाले आदिवासियों के साहित्य को हिन्दू धर्म की शब्दावली ‘लोक’ में बाँध कर संकीर्ण करना धार्मिक असहिष्णुता तो है ही, सांस्कृतिक अतिक्रमण भी है।’’ वे लोक और शिष्ट के विभाजन से भी अपनी असहमति दर्ज कराती हैं। इसी तरह आदिवासी साहित्य और कलाओं को हिन्दी आलोचकों द्वारा अनगढ़ बताने को सीधे-सीधे आदिवासी सामूहिकता, सहजीविता और सहअस्तित्व के दर्शन को वैचारिक रूप से नकारना मानती हैं। उनकी महत्त्वपूर्ण स्थापना है कि आदिवासी साहित्य अन्य शोषितों के साहित्य की तरह वेदना और प्रतिरोध का साहित्य नहीं है। उनके अनुसार “आदिवासी साहित्य मूलतः सृजनात्मकता का साहित्य है। यह इनसान के उस दर्शन को अभिव्यक्त करने वाला साहित्य है, जो मानता है कि प्रकृति सृष्टि में जो कुछ भी है, जड़-चेतन, सभी कुछ सुन्दर है वह दुनिया को बचाने के लिए सृजन कर रहा है।’’

 

इन स्थापनाओं के आलोक में आदिवासी साहित्य की अवधारणा पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। आदिवासी साहित्य सम्बन्धी अधिकांश भ्रमों के निर्माण की शुरुआत यहीं से होती है कि आखिर हम आदिवासी साहित्य में किसे शामिल मानेंगे और किसे नहीं। पहली बात तो यह कि आदिवासियों की मातृभाषा हिन्दी नहीं है, इसलिए हमें इस आग्रह को छोड़ना होगा कि हिन्दी में लिखा साहित्य ही आदिवासी साहित्य है। आदिवासी साहित्य की परम्परा में हमें विभिन्‍न आदिवासी भाषाओं में बिखरे आदिवासी गीतों के रूप में उपलब्ध पुरखौती को शामिल करना होगा, जिनका कुछ हिस्सा डब्ल्यू. सी. आर्चर जैसे विद्वानों द्वारा संकलित भी किया गया है। यह आदिवासी साहित्य का मूलाधार है। इसलिए आदिवासी साहित्य का इतिहास लिखते वक्त, उसकी प्रवृत्तियाँ बताते वक्त, हमें सन्ताली, मुण्डारी, खड़िया, कुडुख, हो… आदि भाषाओं की साहित्य परम्परा को सामने रखना होगा।

 

आदिवासी साहित्य वह है जिसमें आदिवासियों का जीवन और समाज उनके दर्शन के अनुरूप अभिव्यक्त हुआ है। आदिवासियों ने किसी कौम पर राज करने के लिए नहीं, अपना अस्तित्व बचाने के लिए बार-बार विद्रोह किया है। पिछली दो सदियाँ आदिवासी विद्रोहों की गवाह हैं। इन विद्रोहों से रचनात्मक ऊर्जा भी निकली, लेकिन वह मौखिक ही अधिक रही। समकालीन आदिवासी साहित्य की पृष्ठभूमि के रूप में आदिवासी समाज में हजारों साल मौखिक साहित्य परम्परा को रखा जा सकता है, जिसे पुरखौती कहा जाता है- पूर्वोत्तर भारत में लगभग डेढ़ सौ साल पहले और सन्ताली आदि मध्य भारतीय आदिवासी भाषाओं में सन् 1950 के आसपास से आदिवासी कलम ने अपने स्वरों को शब्दों में ढालना शुरू किया – आजादी के बाद जयपाल सिंह मुण्डा के नेतृत्व में भारतीय राजनीति से साहित्य तक में आदिवासी चेतना की गूँज सुनाई देने लगी। बाद के आदिवासी लेखन को उसी के विकास के रूप में देखा जा सकता है। पुरखौती रूप में मौजूद आदिवासी साहित्य जहाँ प्रकृति और प्रेम के विविध रूपों के साथ रचाव और बचाव का साहित्य है, वहीं समकालीन आदिवासी लेखन अस्मिता की खोज, दिकुओं द्वारा किये गए और किए जा रहे शोषण के विविध रूपों के उद्घाटन तथा आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के संकटों और उनके खिलाफ हो रहे संघर्ष का साहित्य है, “यह उस परिवर्तनकामी चेतना का रचनात्मक हस्तक्षेप है, जो देश के मूल निवासियों के वंशजों के प्रति किसी भी प्रकार के भेदभाव का पुरजोर विरोध करती है तथा उनके जल, जंगल, जमीन और जीवन को बचाने के हक में उनके ‘आत्मनिर्णय’ के अधिकार के साथ खड़ी होती है।’’

 

स्पष्ट है कि दलित और आदिवासी – दोनों साहित्यिक आन्दोलन मुक्तिकामी हैं और लगभग एक ही समय में पैदा हुए हैं, लेकिन दोनों बुनियादी रूप से भिन्‍न हैं।

  1. दलित और आदिवासी साहित्य का इतिहास

    दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य के पार्थक्य को हम इनके इतिहास के माध्यम से बेहतर से समझ सकते हैं।

 

4.1. दलित साहित्य और उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

 

समकालीन हिन्दी दलित साहित्य की शुरुआत हम सत्तर-अस्सी के दशक से मान सकते हैं। मराठी में दलित लेखन की परम्परा हिन्दी से पुरानी है। मराठी भाषा का दलित साहित्य श्रेष्ठ साहित्य में शुमार किया जाता है। दलित पैन्थर्स के युग में मराठी में जितने दलित कार्यकर्ता और नेता पैदा हुए, उतने साहित्यकार भी। मराठी दलित साहित्य के सभी बड़े नाम दलित पैन्थर्स युग की देन हैं। यह साहित्यिक आन्दोलन हिन्दी क्षेत्र में अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में अंकुरित होने लगा।

 

हिन्दी के दलित लेखन पर सिर्फ मराठी दलित साहित्य का प्रभाव नहीं है। विभिन्‍न आलोचक दलित साहित्य की परम्परा को कबीर तक ले जाते हैं। कबीर-रैदास से मराठी दलित साहित्य तक की परम्परा को हम समकालीन हिन्दी दलित लेखन या दलित साहित्य की पृष्ठभूमि के रूप में देख सकते हैं। कबीर के वर्ण-विरोधी पदों में वही चेतना देखी जा सकती है जो किसी भी समकालीन दलित लेखन में पाई जाती है। कबीर-रैदास से चलकर समकालीन हिन्दी दलित लेखन कड़ी के रूप में हम सरस्वती  में प्रकाशित हीरा डोम की कविता अछूत की शिकायत  को ले सकते हैं।

 

इसके बाद समकालीन हिन्दी दलित लेखन का दौर आया है। जिसकी शुरुआत ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन से हुई। उन्होंने दलित पैन्थर्स और मराठी दलित साहित्य के प्रभाव में अपने महाराष्ट्र प्रवास के दौरान गम्भीर लेखन किया और वहीं की स्थानीय पत्रिकाओं में छपवाया। हिन्दी में दलित लेखन को सबसे पहले जगह देने और प्रोत्साहित करने वाली पत्रिका हंस  मानी जाती है, जिसके संस्थापक सम्पादक राजेन्द्र यादव रहे हैं। रमणिका गुप्‍ता के सम्पादन में प्रकाशित युद्धरत आम आदमी  पत्रिका ने भी दलित साहित्यकारों को यथासम्भव प्रोत्साहन दिया। इसके बाद तेजसिंह की अपेक्षा ने अपनी लगन से दलित साहित्य की केन्द्रीय पत्रिका बनने का गौरव प्राप्‍त किया। बहुरी नहीं आवना, दलित साहित्य आदि ने भी दलित साहित्य की बहसों को आगे बढ़ाने का काम किया है। दलित साहित्य के इतिहास को चाहे हम कितना भी पीछे ले जाएँ, समकालीन दलित लेखन को ही दलित साहित्य कहना समीचीन होगा, जिसका इतिहास तीन दशक तक जाता दिखाई पड़ता है।

 

4.2. आदिवासी साहित्य का इतिहास

 

आदिवासी साहित्य की अवधारणा पर गहराई से विचार करने पर हम आदिवासी साहित्य के इतिहास को निम्‍नलिखित तीन भागों में बाँटकर समझ सकते हैं –

 

क. पुरखा साहित्य

ख. आदिवासी भाषाओं में आदिवासी लेखन

ग. समकालीन हिन्दी आदिवासी लेखन

 

पुरखा साहित्य, अर्थात् आदिवासी समाज में मौजूद साहित्य की मौखिक परम्परा, आदिवासी साहित्य का आधार है। इसमें व्यक्त जीवन-दर्शन आदिवासी साहित्य और समाज को समझने की कुंजी है। आदिवासी समाज की सामूहिकता और प्रेम इन्हीं गीतों में अभिव्यक्त हुआ है। इन गीतों में जल, जंगल और जमीन के साथ आदिवासियों के आत्मीय रिश्तों को समझा जा सकता है। पुरखा साहित्य देश भर की आदिवासी भाषाओं में बिखरा पड़ा है। इसमें से कुछ पुरखा गीतों का संकलन भी हुआ है। इनमें मुण्डारी गीतों के संकलनकर्ताओं में तीन नाम बहुत महत्त्वपूर्ण हैं – फादर हाफमैन, डब्ल्यू. सी. आर्चर और गोविन्द त्रिगुणायत। ऐसे संकलन अन्य कई आदिवासी भाषाओं में भी तैयार किए गए हैं।

 

आदिवासी साहित्य के इतिहास का दूसरा भाग आदिवासी भाषाओं में लिखित आदिवासी साहित्य का है। चूँकि हिन्दी, अंग्रेजी, तमिल, बांग्ला या कोई भी बड़ी भाषा आदिवासियों की मातृभाषा नहीं है, इसलिए आदिवासी साहित्य की लिखित परम्परा का इतिहास जानने के लिए हमें आदिवासी भाषाओं में लिखित साहित्य का अवलोकन करना होगा। अकादमिक जगत एक भ्रान्त धारणा का प्रचार खूब मिलता है कि आदिवासी समाज में लेखन की कोई परम्परा नहीं रही है। यह जानना दिलचस्प है कि इस वक्त देश की लगभग 90 आदिवासी भाषाओं में साहित्य लिखा जा रहा है। पूर्वोत्तर के आदिवासियों की कई भाषाओं में तो साहित्य लेखन की लगभग डेढ़ सौ साल पुरानी परम्परा है। यानी लगभग उतनी ही, जितनी पुरानी खड़ी बोली हिन्दी की परम्परा है। यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि मुण्डारी लेखक मेन्‍नस ओड़ेय ने सन् 1920 के आसपास मतुराअ कहनि  नाम से लगभग 1700 पृष्ठों का एक विशाल उपन्यास लिखा, जिसके पाँचवें भाग का अनुवाद चलो चाय बागान  नाम से हिन्दी में है। प्रिण्टिंग प्रेस के सुलभ होने के बाद तो आदिवासी भाषाओं में लेखन की बाढ़-सी आग गई। आदिवासी भाषाओं में लिपियाँ विकसित की जा रही हैं और उनमें लगातार साहित्य लिखा जा रहा है। इसे शामिल किए बिना आदिवासी साहित्य की मुकम्मल तस्वीर प्रस्तुत नहीं की जा सकती।

 

आदिवासी साहित्य के इतिहास का तीसरा भाग समकालीन आदिवासी लेखन के रूप में हमारे सामने है। बड़ी विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि इसका भी मुकम्मल इतिहास नहीं लिखा गया है। हिन्दी आलोचना में आदिवासी साहित्य को दलित साहित्य के बाद का आन्दोलन माना जाता है जबकि तथ्य बताते हैं कि समकालीन आदिवासी साहित्य दलित साहित्य के समानान्तर चलने वाली धारा है। अस्सी-नब्बे के दशक से ही कई आदिवासी साहित्यकार हिन्दी में सक्रिय हैं, जिनमें रामदयाल मुण्डा, रोज केरकेट्टा, वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’, पीटर पौल एक्‍का आदि प्रमुख हैं। दुलाय चन्द्र मुण्डा का कविता संग्रह नव पल्लव  सन् 1966 में ही प्रकाशित हो गया था। रामदयाल मुंडा का कविता संग्रह वापसी, पुनर्मिलन तथा अन्य नगीत  सन् 1988 में आया तो वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’ का कहानी संग्रह सन् 1989 में ही आ गया था। इनके बाद मंगल सिंह मुण्डा, नारायण, हरिराम मीणा, महादेव टोप्पो, वन्दना टेटे, निर्मला पुतुल, अनुज लुगुन आदि का नाम लिया जाता है। इस वक्त हिन्दी में बड़ी संख्या में आदिवासी रचनाकार लिख रहे हैं।

 

दलित और आदिवासी साहित्य के इतिहास की तुलना करते हुए निम्‍नलिखित निष्कर्ष हमारे सामने आते हैं –

  • बाहरी समाज का दोनों ओर उपेक्षा भाव है। हिन्दी साहित्य के इतिहासलेखन में दलित साहित्य या आदिवासी साहित्य की परम्परा का उल्लेख नगण्य है।
  • समकालीन दलित लेखन और आदिवासी लेखन का इतिहास एक-दूसरे के समानान्तर चलता है। दोनों ही धाराओं से जुड़े साहित्यकारों ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाने के लिए स्वयं आन्दोलन चलाया है।
  • समकालीन लेखन से अपनी पहचान बनाने वाली दोनों धाराएँ अपने विकासक्रम में अपनी परम्परा और इतिहास से स्वयं को जोड़ती और समृद्ध करती हैं
  • दोनों का इतिहास सहगामी होते हुए भी विशिष्टता लिए हुए है।
  1. विचारधारा

    दलित आलोचना में यह सर्वमान्य धारणा है कि दलित साहित्य की विचारधारा अम्बेडकरवाद है। दलित लेखक स्वयं को बुद्ध, कबीर, रैदास, फुले और अम्बेडकर की परम्परा से जोड़ते हैं लेकिन आधुनिक भारत में दलित मुक्ति के लिए सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और संवैधानिक संघर्ष करने वाले डॉ. भीमराव अम्बेडकर और उनका दर्शन दलित साहित्य की मूल विचारधारा है।

 

आदिवासी साहित्य की उस तरह कोई विचारधारा नहीं है जिस तरह दलित साहित्य की अम्बेडकरवाद और प्रगतिवाद की मार्क्सवाद है। दरअसल आदिवासी समाज किसी भी तरह के शास्त्रों को नहीं मानता। इसलिए जबरन उसके ऊपर कोई विचारधारा आरोपित करना अनुचित होगा। हाँ, आदिवासी साहित्य का एक जीवन-दर्शन है, जिसे समझना जरूरी है। आदिवासी विचारधारा या दर्शन समझने की दिशा में सबसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज राँची घोषणा पत्र  है, जिसके अनुसार आदिवासी साहित्य की बुनियादी शर्त उसमें आदिवासी दर्शन का होना है जिसके मूल तत्त्व हैं –

  1. प्रकृति की लय-ताल और संगीत का जो अनुसरण करता हो;
  2. जो प्रकृति और प्रेम के आत्मीय सम्बन्ध और गरिमा का सम्मान करता हो;
  3. जिसमें पुरखा-पूर्वजों के ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल और इनसानी बेहतरी के अनुभवों के प्रति आभार हो;
  4. जो किसी जीव जगत की अवहेलना नहीं करे;
  5. जो धनलोलुप न हो, बाजारवादी हिंसा, लालसा का नकार करता हो;
  6. जिसमें जीवन के प्रति आनन्दमयी अदम्य जिजीविषा हो;
  7. जिसमें सृष्टि और समष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव हो;
  8. जो धरती को संसाधन की बजाय माँ मानकर उसके बचाव और रचाव के लिए खुद को उसका संरक्षक मानता हो;
  9. जिसमें रंग, नस्ल, लिंग, धर्म आदि का विशेष आग्रह न हो;
  10.  जो भाषाई और सांस्कृतिक विविधता और आत्मनिर्णय के अधिकार के पक्ष में हो;
  11.  जो सामन्ती, ब्राह्मणवादी, धनलोलुप और बाजारवादी शब्दावलियों, प्रतीकों, मिथकों और व्यक्तिगत महिमामण्डन से असहमत हो;
  12.  जो सहअस्तित्व, समता, सामूहिकता, सहजीविता, सहभागिता और सामंजस्य को अपना आधार मानते हुए रचाव-बचाव में यकीन करता हो;
  13.  सहानुभूति, स्वानुभूति की बजाय सामूहिक अनुभूति जिसका प्रबल स्वर-संगीत हो;
  14.  मूल आदिवासी भाषाओं में अपने विश्व-दृष्टिकोण के साथ जो प्रमुखतः अभिव्यक्त हुआ हो और
  15.  जो हर तरह की गैर-बराबरी के खिलाफ हो।

   यहाँ हम देखते हैं कि इनमें से कुछ बिन्दु दलित साहित्य और उसकी विचारधारा अम्बेडकरवाद में भी समान रूप से मिलते हैं, लेकिन कुछ केवल आदिवासी दर्शन में। इसकी वजह आदिवासियों और दलितों की भौतिक परिस्थितियों का भिन्‍न होना है।

  1. संवेदना और प्रवृत्तियाँ

   दलित और आदिवासी साहित्य के अन्तस्सम्बन्ध को समझने में इन दोनों साहित्यिक आन्दोलनों के उद्देश्यों और साहित्य में अभिव्यक्त समाज और उसकी समस्याओं पर दृष्टिपात करना उपयोगी होगा। दलित साहित्य हिन्दू समाज में फैले वर्ण और जाति के पदानुक्रम और उससे उपजी अस्पृश्यता और गैर-बराबरी के खिलाफ इनसानी बराबरी की वकालत करने वाला साहित्य है। यह दलितों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्यायों के खिलाफ मानवीय गरिमा के पक्ष में खड़ा होता है। दलित आत्मकथाओं से लेकर दलित साहित्यकारों का पूरा लेखन जाति आधारित उत्पीड़न और उसके प्रतिरोध के प्रसंगों से भरा है। यह दलित चेतना का जीवन्त दस्तावेज है, जो जाति और वर्ण के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव के हर रूप का नकार करती है, शोषण की प्रक्रिया को समझने में मदद करती है और पूरे इतिहासलेखन पर सवाल उठाते हुए उसे दलित परिप्रेक्ष्य से लिखने की वकालत करती है।

 

आदिवासी साहित्य का स्वरूप इससे थोड़ा भिन्‍न है। पुरखा साहित्य उल्लास और उमंग का साहित्य है। चूँकि आदिवासी लम्बे समय तक हिन्दू समाज व्यवस्था का हिस्सा नहीं रहे, इसलिए उनकी स्मृतियाँ और इतिहास दलित समाज से भिन्‍न हैं। पुरखा साहित्य में प्रेम और प्रकृति केन्द्रीय विषयवस्तु रहे। आदिवासी दर्शन में प्रेम और प्रकृति का स्वरूप छायावाद या पूरे हिन्दी साहित्य से पूरी तरह अलग है। जैसे वहाँ प्रेम किसी प्रतिरोध का सूचक नहीं, एक खूबसूरत और जरूरी मनोभाव है। वहाँ प्रेम पाने के लिए प्रेमी या प्रेमिका को आँसू या खून की नदियाँ बहाने की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि वहाँ बाहरी समाज की तरह व्यक्तिवादी व्यवस्था नहीं है; इसलिए प्रेम की राह में उस तरह के रोड़े भी नहीं है। नई आर्थिक नीतियों और भूमण्डलीकरण को लेकर दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य की राय भिन्‍न है। भूमण्डलीकरण और इसके उपादानों ने जाति आधारित पेशों से मुक्ति दिलाने में मदद की है और इस प्रकार जाति व्यवस्था को तोड़ने में सहायक का काम कर रहा है, इसलिए दलित साहित्य उसके प्रति नरम रुख अपनाता दिखता है। वहीं दूसरी तरफ यही भूमण्डलीकरण दुनिया भर में आदिवासियों का जीवन तबाह कर रहा है, इसलिए आदिवासी साहित्य में सबसे बड़ी चुनौती के रूप में आता है।

 

संस्कृति के प्रति भी दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य का नजरिया भिन्‍न है। दलित साहित्य के लिए संस्कृति से तात्पर्य हिन्दू संस्कृति है और वह उसका नकार करता है। लेकिन आदिवासी साहित्य में संस्कृति की रक्षा का सवाल उसके प्रमुख सवालों में से एक है। हाँ, शोषण आधारित हिन्दू संस्कृति के प्रति आदिवासी रचनाकारों का रुख भी पूरी तरह आलोचनात्मक है।

  1. विधागत अन्तस्सम्बन्ध

    दलित समाज के लोग हिन्दू समाज-व्यवस्था का अंग रहे हैं, इसलिए उनके दुखों का सम्बन्ध भी उसकी बुराई वर्ण और जाति-व्यवस्था से है। जाति और वर्ण के शोषण के खिलाफ दलित साहित्यकारों के लेखन में अपने साथ हुए शोषण और उत्पीड़न की घटनाएँ ही प्रमुख हैं, इसलिए आत्माभिव्यक्ति दलित साहित्य की मुख्य विशेषता है और आत्मकथा केन्द्रीय विधा। मराठी से लेकर हिन्दी तक में आत्मकथा लिखकर साहित्यकारों ने अपनी पहचान बनाई है। जबकि आदिवासी साहित्य में आत्मकथाएँ देखने को नहीं मिलतीं। दरअसल बाहरी हिन्दू और पूँजीवादी समाज के सम्पर्क में रहने के कारण दलित साहित्यकारों के यहाँ आत्म या व्यक्ति विशेष महत्त्वपूर्ण हैं, जबकि आदिवासी दर्शन आत्म या व्यक्ति में नहीं सामूहिकता, सामाजिकता और सामुदायिकता में विश्वास करता है, इसलिए वहाँ पुरखा साहित्य से लेकर समकालीन लेखन तक गीत ही प्रधान विधा है।

  1. भाषा और भाषा सम्बन्धी दृष्टि

   हिन्दी आलोचकों ने दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य की भाषा पर सवाल उठाए हैं, जिनके मुकम्मल जवाब भी दिए गए हैं। यहाँ इससे महत्त्वपूर्ण बिन्दु यह है कि भाषा के समक्ष खतरों के बारे में दलित साहित्य विमर्श और आदिवासी साहित्य विमर्श की राय क्या है! भाषाओं की रक्षा के सन्दर्भ में दोनों का नजरिया एक-दूसरे से एकदम भिन्‍न है। आज देश के आदिवासी बेहद कठिन दौर में जी रहे हैं और अपने अस्तित्व तथा अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं। जिन तत्त्वों से आदिवासी अस्मिता परिभाषित होती है, उनमें उनकी विशिष्ट भाषा भी एक प्रमुख तत्त्व है। इसलिए आदिवासी भाषाओं को बचाने का सवाल आदिवासी विमर्श का एक अहम मुद्दा है। इसके विपरीत दलित साहित्य विमर्श में भाषाओं को बचाने का सवाल मुख्य एजेण्डे से बाहर है। चूँकि दलितों की अपनी कोई विशिष्ट भाषा नहीं रही, इसलिए वहाँ भाषाओं को बचाने का सवाल भी महत्त्वपूर्ण नहीं है।

  1. निष्कर्ष

    उपर्युक्त विश्‍लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य सहगामी और समानान्तर होते हुए भी एक-दूसरे से कई अर्थों में भिन्‍न हैं। दोनों की अपनी विशिष्टताएँ हैं, अपने सवाल हैं। इन विशिष्टताओं और वैविध्य को स्वीकारते हुए ही हम इनके मर्म को समझ सकते हैं।

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अतिरिक्त जानें-

 

पुस्तकें

  1. दलित साहित्य : बुनियादी सरोकार, कृष्णदत्त पालीवाल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  2. दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ.एन.सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. दलित विमर्श: साहित्य के आइने में, डॉ.जयप्रकाश कर्दम, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
  4. इक्कीसवीं सदी में दलित आन्दोलन (साहित्य एवं समाज-चिन्तन), डॉ.जयप्रकाश कर्दम, पंकज पुस्तक मंदिर,दिल्ली
  5. सत्ता संस्कृति और दलित सौन्दर्यशास्त्र, सूरज बड्त्या, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली
  6. आदिवासी साहित्य विमर्श, डॉ. गंगा सहाय मीणा (संपा. ), अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्री ब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नयी दिल्ली
  7. आदिवासी साहित्य और झारखंडी अस्मिता के सवाल, रामदयाल मुंडा, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली
  8. आदिवासी संघर्ष गाथा, विनोद कुमार, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
  9. भारतीय जनजातियाँ , हरिश्चंद्र उप्रेती, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर

    वेब लिंक्स –

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
  2. https://tirchhispelling.wordpress.com/2013/04/29/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6-%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D/
  3. http://archive.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=38367:2013-02-07-05-28-28
  4. http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3115&pageno=1