13 दलित कहानियाँ

देवेन्द्र चौबे

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  1. पाठ का उद्देश्य

     इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप-

  • दलित कहानी लेखन की परम्परा को समझ पाएँगे।
  • दलित कहानी में उपस्थित दलित समाज के स्वरूप और उसकी वैचारिकी जान सकेंगे।
  • दलित कहानी में वर्ण, जाति, परम्पराएँ, अस्पृश्यता आदि सवालों को समझ पाएँगे।
  • दलित कहानियों में स्‍त्री समाज एवं उनकी सामाजिक स्थिति का आकलन कर सकेंगे।
  • समकालीन समय के साथ दलित कहानियों के अन्तर्सम्बन्ध एवं दलित कहानी की कला से सम्बन्धित सवालों को जान सकेंगे।

    2. प्रस्तावना

 

पिछले दो ढाई दशकों में साहित्य और विचारधारा की दुनिया में जो बदलाव आए हैं, उनमें दलित साहित्य की बड़ी भूमिका है। आत्मकथा, कविता, कहानी, आलोचना, उपन्यास और नाटक सहित साहित्य की लगभग सभी विधाओं के माध्यम से दलित लेखकों ने साहित्य की दुनिया का विस्तार किया है। इनमें आत्मकथा, कहानी और कविता दलित साहित्य की प्राथमिक विधाएँ हैं। खासकर, दलित कहानियों में दलित जीवन की इतनी तस्वीरें दिखलाई देती हैं कि उन्हें पढ़कर भारतीय सामाजिक संरचना में एक दलित के जीवन की कठिनाई समझ में आती है। कहा जा सकता है कि दलित कहानियाँ दलित समाज को समझने का एक बड़ा माध्यम है। इस तरह के चिन्तन एवं अध्ययन से साहित्य का फलक विस्तृत होता है। दलित कहानियों में कहानीकारों ने भाषा एवं शैली की कलात्मक अभिव्यक्ति की जगह, दलित जीवन जैसा है, वैसा ही दिखलाने का प्रयास किया है।

 

3. दलित कहानियाँ

 

दलित कहानियों का फलक अत्यन्त विस्तृत है। शोषण एवं उत्पीड़न के भिन्‍न-भिन्‍न सवालों से मुठभेड़ करते हुए दलित समाज की समस्याओं को जितनी गहरी संवेदना के साथ दलित कथाकारों ने उठाया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। दो दशक पहले, 20 जनवरी 1994 को अश्‍वेत कहानियों पर विचार करते हुए काली सुर्खियाँ  के सम्पादकीय की चर्चा करते हुए राजेन्द्र यादव ने दलित साहित्य पर राय दी थी कि दलित साहित्य का मॉडल तो लगभग वही है। चाहे वह अमेरिका का नस्लभेद हो, गोरी दुनिया के अल्पसंख्यकों की नियति हो या फ्रेंच अमरीकन उपनिवेशी चंगुल में छटपटाता अफ्रीका हो। हम कहीं भी अपने को उनसे अलग नहीं पाते। गरीबी, भुखमरी, अकाल, वर्ण और वर्ग-संघर्ष या साम्प्रदायिकता की अपने भीतर लड़ी जानेवाली लड़ाइयाँ और फिर उपनिवेशी शोषण, दमन की क्रूर या बारीक मुठभेड़ हमारी स्थितियों का प्रतिरूप ही लगती है।’ दलित कहानियाँ इन सवालों से अलग नहीं है। माना जा सकता है कि पिछली एक-दो सदियों से गुरु घासीदास, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, आयोतिदास पण्डीधर, नारायण गुरु, अछूतानन्द, महात्मा गाँधी, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, पेरियार ई वी रामास्वामी नायकर, चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु, विचित्रानन्द नायक, नामदेव ढसाल, दया पवार, आदि राष्ट्रीय चिन्तकों द्वारा सामाजिक परिवर्तन के लिए चलाए जा रहे आन्दोलनों को दलित साहित्य ने एक सामाजिक आधार प्रदान किया। दलित कहानियों ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभाई तथा वर्ण एवं जाति केन्द्रित भारतीय सामाजिक संरचना को दलित समाज के उत्पीड़न का सबसे बड़ा कारण बतलाया।

 

3.1 . दलित जीवन से सम्बन्धित हिन्दी कहानी लेखन की परम्परा और दलित कहानियाँ

 

हिन्दी में दलित जीवन से सम्बन्धित कहानी लेखन की परम्परा को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता हैं – प्रथम काल सन् 1900 से 1960; द्वितीय काल सन् 1960 से 1990 और तृतीय काल सन् 1990 से अब तक। प्रथम काल की दलित कहानियों में उन कहानियों को शामिल किया जा सकता है, जिसमें दलित और गैर-दलित दोनों लेखक शामिल हैं। इसमें माधव राव सप्रे की सन् 1901 में प्रकाशित एक टोकरी भर मिट्टी  से लेकर प्रेमचन्द की ठाकुर का कुआँ, कफन, एवं सद्गति, जयशंकर प्रसाद की मधुआ, यशपाल की सतमी के बच्‍चे, फणीश्‍वर नाथ रेणु की ‘ठेस’, अमरकान्त की ‘जिन्दगी और जोंक’ जैसी कहानियों को शामिल किया जा सकता है, जिनमें अस्पृश्यता, भूख, गरीबी आदि सवालों को उठाते हुए भारतीय सामाजिक संरचना में निम्‍न एवं दलित समाज की त्रासद जिन्दगी का मार्मिक वर्णन किया गया है।

 

द्वितीय काल की कहानियों में सन् 1960 के बाद महाराष्ट्र में शुरू हुए दलित आन्दोलन के प्रभाव में लिखी गई कहानियों को रखा जा सकता है, जिसमें दलित समाज के लेखकों एवं गैर-दलित कथाकारों की भागीदारी बड़ी संख्या में है। वैचारिक रूप से इन कहानियों पर ज्योतिबा फुले, डॉ. अम्बेडकर, नामदेव ढसाल एवं जे.वी. पँवार द्वारा सन् 1972 में महाराष्ट्र में गठित ‘दलित पैन्थर’ का गहरा प्रभाव है। विजेन्द्र अनिल की विस्फोट, विजयकान्त की मरीधार सहित सन् 1979 में मराठी में प्रकाशित दया पँवार की चर्चित आत्मकथा बलूत  को देखा जा सकता है। इस दौरान हिन्दी के दलित लेखकों में सन् 1975 में सतीश ने वचनबद्ध, सन् 1978 में मोहनदास नैमिशराय ने सबसे बड़ा सुख  और सन् 1980 में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अन्धेरबस्ती  जैसी कहानियाँ लिखीं। इनमें अप्रैल 1975 की मुक्ति पत्रिका में प्रकाशित कहानी वचनबद्ध  को हिन्दी की पहली प्रकाशित दलित कहानी मानी जाती है। इसी दौरान मुख्यधारा के कहानीकारों में हृदयेश, मधुकर सिंह, मुद्राराक्षस, सतीश जमाली, चन्द्रमोहन प्रधान, सुरेश कांटक, रामस्वरूप अणखी, शैवाल, संजीव, शिवमूर्ति, बलराम, कर्मेन्दु शिशिर, प्रेमकुमार मणि, हरि भटनागर, चन्द्रकिशोर जायसवाल, अमितेश्‍वर आदि ने हाशिए एवं दलित समाज से सम्बन्धित सम्वेदनशील कहानियाँ लिखकर लेखन की दुनिया का विस्तार किया।

 

विकास की दृष्टि से दलित कहानी का तृतीय काल महत्त्वपूर्ण है। इस काल में हिन्दी में दलित दृष्टि से कहानियाँ लिखी गई तथा स्वयं दलित समाज से जुड़े लेखकों ने दलितों के सवालों को प्रतिबद्धता के साथ उठाया। सन् 1990 में मण्डल आयोग की रिर्पोट लागू होने के बाद देश में आरक्षण के सवाल पर जो बड़े पैमाने पर आन्दोलन हुए, उससे हिन्दी में दलित लेखन एवं कहानी को बल मिला तथा ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, सुशीला टाकभौरे, जयप्रकाश कर्दम, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, सूरजपाल चौहान, रत्‍न कुमार साँभरिया, दयानन्द बटोही, सी.बी. भारती, बी एल नायर, एस आर हरनोट, प्रहलाद चन्द्र दास, बिपिन बिहारी, शत्रुघ्‍न कुमार, कुसुम बियोगी, अजय नावरिया, बुद्धशरण हंस, मुसाफिर बैठा, कर्मशील भारती, रजत रानी मीनू, सत्य प्रकाश, उमेश कुमार सिंह आदि कहानीकारों ने बुद्ध-फुले-अम्बेडकर के प्रभाव में प्रभावशाली दलित कहानियाँ लिखीं। इन कहानियों में भारतीय सामाजिक जीवन की मुख्यधारा में हाशिए की जिन्दगी व्यतीत कर रहे दलित समाज से जुड़े सवालों को लेखकों ने सामाजिक यथार्थ का हिस्सा बनाकर, उसे गैर बराबरी से जुड़े सवालों से जोड़ा। इस सन्दर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की सलाम  एवं पच्‍चीस चौका डेढ़ सौ, मोहनदास नैमिशराय की अपना गाँव  एवं गर्वनर के कोट का बटन, सुशीला टाकभौरे की सिलिया  एवं कड़वा सच, जयप्रकाश कर्दम की नो बार  एवं मूवमेण्ट, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की शोध प्रबन्ध, बिपिन बिहारी की बिवाइयाँ, शत्रुघ्‍न कुमार की सबक, कर्मशील भारती की स्वाभिमान  और नीरा परमार की वैतरणी  आदि कहानियों को देखा जा सकता है।

    3.2 . दलित कहानी का स्वरूप, प्रवृतियाँ और उसकी वैचारिकी

 

दलित कहानी की वैचारिक निर्मिति ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब डॉ.अम्बेडकर के मुक्तिकामी आन्दोलनों एवं उनके विचारों से हुई है। दलित कहानी में सामाजिक जीवन की मुख्यधारा में हाशिए की जिन्दगी व्यतीत कर रहे दलित समाज के अधिकारों को लेकर अनेक तरह के सवाल उठाए गए हैं। खासकर, जब सन् 1956 में अम्बेडकर ने यह कहते हुए अपने समर्थकों के साथ हिन्दू धर्म छोड़ने की घोषणा की कि ‘‘गले-सड़े धर्म को त्यागकर, जो असमानता और उत्पीड़न को मान्यता देता है। मैं आज एक नया जन्म ले रहा हूँ और नरक से मुक्ति प्राप्‍त कर रहा हूँ।… मैं हिन्दू धर्म को त्यागता हूँ।’’ तो इसका गहरा असर सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन की मुख्य धारा पर पड़ा। महाराष्ट्र सहित पूरे भारत में दलित आन्दोलन को एक नई दिशा मिली। लेखन और विचारधारा की दुनिया में बदलाव आया। इसे और ताकत मिली सन् 1961 में अस्मितादर्श  के प्रकाशन और सन् 1972 में नामदेव ढसाल एवं जे.वी. पवार द्वारा बम्बई में गठित ‘दलित पैन्थर’ से जिसने अपने घोषणा-पत्र में यह कहा कि ‘‘राजसत्ता, धर्म, सम्पति और सामाजिक हैसियत के आधार पर होने वाली सभी ज्यादतियों के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध अनुसूचित जातियाँ, जनजातियाँ, भूमिहीन मजदूर, छोटे किसान और घूमन्तू-जनजातियाँ दलित विमर्श दलित मानी जाएगी।” (आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श; ओरियण्ट ब्लैकस्वान, दिल्ली, 2009, पृष्ठ 226) मराठी में नामदेव ढसाल सहित दया पवार, अर्जुन डांगले, बेबी काँबले, शरणकुमार लिम्बाले, लक्ष्मण गायकवाड़, सूर्यनारायण रणसुभे आदि का लेखन के क्षेत्र में पदार्पण इन्हीं सारी परिस्थितियों का परिणाम था। यद्यपि हिन्दी के दलित साहित्य पर मराठी के दलित सन्दर्भों का गहरा प्रभाव है, चाहे वे कहानियाँ हो या कविताएँ या आत्मकथाएँ। स्वामी अछूतानन्द के प्रयासों से हिन्दी क्षेत्र में दलित चेतना का उदय हुआ और दलित आन्दोलन को एक नई ताकत मिली। सन् 1914 में प्रकाशित हीरा डोम की कविता अछूत की शिकायत  से भी हिन्दी में दलित लेखन को बल मिला, परन्तु दलित लेखन में तेजी तब आई, जब सन् 1990 में मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद दलित लेखकों ने भारतीय समाज को दलितों की निगाह से देखना और अपने अनुभवों का बयान करना शुरू किया। इन अनुभवों में वर्ण-व्यवस्था का प्रतिरोध और सामन्तवाद के दमन और शोषण के खिलाफ दलित समाज में प्रतिरोध की चेतना विकसित की गई। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी पच्‍चीस चौक डेढ़ सौ  कहानी में मास्टर का यह कथन ‘‘दिमाग में कूड़ा करकट जो भरा है। पढ़ाई-लिखाई के संस्कार तो तुम लोगों में आ ही नहीं सकते।” (वही, पृ. 138) दलितों के बारे में मुख्य धारा की बनी धारणा एवं मानसिकता को दर्शाता है। उनकी सलाम  कहानी के नायक का यह कथन उनके अन्दर सवर्ण समाज की निर्मितियों एवं संकेतों के खिलाफ पनप रहे आक्रोश और प्रतिरोध के भाव को प्रकट करता है-‘‘आप चाहे जो समझें…मैं इस रिवाज को आत्मविश्‍वास तोड़ने की साजिश मानता हूँ। यह सलाम की रस्म बन्द होनी चाहिए।” (सलाम, ओमप्रकाश वाल्मीकि; राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ. 17)

 

दलित कहानी में मौजूद दलित समाज के जीवन्त अनुभव का यह वही यथार्थ है, जिसे वर्ण एवं जाति केन्द्रित सामाजिक व्यवस्था के शोषण और दमन के खिलाफ दलित कहानीकारों ने रचा है। इसीलिए बीसवीं सदी में हुए दलित आन्दोलनों और विचारधारा के प्रभाव में जो दलित कहानियाँ लिखी गई; उनका विश्‍लेषण करने पर साफ पता चलता है कि दलित कहानियाँ, कहानी मात्र नहीं हैं, अपितु दलित समाज के उत्पीड़न, संघर्ष और प्रतिरोध का यथार्थ चित्र है। इनका आकलन करते हुए यह भी पता चलता है कि दलित लेखकों ने मुख्यधारा के लेखन के समानान्तर अपनी जातीय संस्कृति, सामाजिक संघर्ष और पारम्परिक वर्ण एवं जातिकेन्द्रित सामाजिक व्यवस्था में अपना वजूद तलाशने का प्रयास किया है तथा वर्ण एवं जाति को अपने समाजके शोषण और दमन का सबसे बड़ा कारण माना है।

 

3.3 . वर्ण और जाति का सवाल और दलित कहानियाँ

 

वर्ण एवं जाति केन्द्रित असमानता तथा उसके शोषण एवं दमन के खिलाफ प्रतिरोध की चेतना विकसित करना दलित कहानी का मुख्य लक्ष्य है। यद्यपि वर्ण-जाति व्यवस्था को लेकर इतिहाकारों और समाजशास्‍त्रि‍यों के एक बड़े तबके का मानना है कि यह व्यवस्था समाज को नियन्त्रित एवं संचालित करने के लिए थी तथा श्रमिकों का विभाजन इसका लक्ष्य था जिसका विरोध करते हुए मूकनायक के प्रवेशांक में अम्बेडकर ने लिखा था कि ‘‘जाति प्रथा सिर्फ श्रमिकों का विभाजन नहीं है…वह वंशगत है, जिसमें श्रमिकों का वर्गीकरण एक के ऊपर दूसरी सीढी़नुमा है, इसमें जिसका जन्म जिस तल (जाति) में होता है, वह उसी तल में मरता है।’’ वर्ण और जाति का यह सवाल जिसे कथाकारों ने दलित कहानी का हिस्सा बनाया। दलित कहानी के सन्दर्भ में यह वर्ण और जाति क्या है? इस सन्दर्भ में जयप्रकाश कर्दम की ‘नो बार’ कहानी का अंश ध्यातव्य है –

 

“बेटी एक बात तो बताओं!

“क्या पापा?”

“इस लड़के की कास्ट क्या है?

 

जब लड़की के सवर्ण पिता को लड़के की जाति का पता चलता है कि वह दलित है तो पिताकी टिप्पणी होती है -“आखिर नो बार का यह मतलब नहीं कि किसी चमार-चूहड़े के साथ…’’ यह कहानी प्रगतिशीलता के ढोंगियों का पर्दाफ़ाश करती है।आज भी हमारा समाज जाति एवं वर्ण-व्यवस्था से मुक्त नहीं हो पाया है।

 

3.3.1. परम्पराएँ, सामाजिक सम्बन्ध और दलित कहानियाँ

 

दलित कहानियों में भारतीय समाज में शोषणकारी परम्पराओं पर प्रहार किया गया है। इन शोषणकारी परम्पराओं तथा इनका दलित समाज के साथ सम्बन्ध को समझना जरूरी है। इसीलिए दलित कथाकारों ने इन कहानियों में परम्पराओं से जुड़ी हुई निर्मितियों से सीधी मुठभेड़ की है तथा उसे दलित आत्मसम्मान के खिलाफ माना है। इस सन्दर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने सलाम कहानी में भारतीय समाज में दलितों के लिए सदियों से मौजूद सलामी देने की परम्परा का विरोध किया।इस प्रकार की वर्चस्ववादी परम्पराओं का निर्माण मुख्यधारा के समाज द्वारा दलित समाज को शेष समाज के सामने नीचा दिखाने के लिए किया गया है- हरीश ने तीखे शब्दों में कहा, ‘आप चाहे जो समझें, मैं इस रिवाज को आत्मविश्‍वास तोड़ने की साजिश मानता हूँ। यह सलाम की रस्म बन्द होनी चाहिए।’

 

लेखकनेइस कहानी के माध्यम से सामाजिक जीवन में मौजूद उन परम्पराओं केप्रति विरोध प्रकट किया है, जिनसे दलित आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है। खास बात यह है कि दलितसमाज के अन्दर प्रतिरोध की यह चेतना ज्ञान की प्रक्रिया से जुड़ने के बाद आती है। अर्थात दलित समाज का अनपढ़ होना, उन्हें सामाजिक रूढियों एवं असम्मानजनक परम्पराओं को मानने के लिए विवश करता है। दलित कहानीकारों ने अपनी कहानियों में इनका गहरा प्रतिरोध किया है।

 

3.3.2. अस्पृश्यता और दलित कहानियाँ

 

दरअसल भारतीय समाज एवं संस्कृति में प्रारम्भ से ही कुछ चीजें ‘उत्कृष्टता’ और ‘पवित्रता‘ का प्रतीक रही हैं, चाहे वे ‘ज्ञान’ की परम्परा से जुड़े शिक्षण संस्थान हो या ‘जल’ की संस्कृति से जुड़े कुएँ, तालाब, नदी के घाट। इस तरह की निर्मितियों को भारतीय समाज के सवर्ण समाज ने ‘उत्कृष्ट’ और ‘पवित्र’ घोषित कर दलित समाज के लिए अस्पृश्य कर रखा है। इनके निकट दलित समाज के लोग नहीं आ सकते हैं। अगर गलती से ये इन स्थलों पर या उसके करीब आ जाते हैं तो शेष समाज इन्हें प्रताड़ित करता है। इसीलिए दलित जीवन से जुड़ी अधिकांश कहानियों में ‘पानी’ अथवा ‘जल’ को कथाकारों ने एक बड़ी समस्या के रूप में चित्रित किया है तथा यह दिखाने का प्रयास किया है कि दलितों को गाँवों में पानी के लिए कितनी अपमानजनक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इस सन्दर्भ में अम्बेडकर द्वारा सन् 1927 में चलाए गएमहाड तालाब के आन्दोलन और सन् 1930 में मन्दिर प्रवेश आन्दोलन को भी देखा जा सकता है, जिसका गहरा असर प्रेमचन्द की ‘ठाकुर का कुआँ’ जैसी कहानियों पर देखा जा सकता है। दलित कहानीकार नीरा परमार की ‘वैतरणी’ और सूरजपाल चौहान की ‘टिल्लू का पोता’ कहानी में अस्पृश्यता के इस प्रसंग को देखा जा सकता है जहाँ सवर्ण जातियाँ पानी के सवाल पर दलितों के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार करती है-

 

“अरे मंगनिया, नेक पीछे कू हट के पानी पी, यह शहर ना है, गाँव है, मारे लठिया के कमर तोड़दई जाएगी। सारे (साले) मंगिया चमार शहर में जा के नए-नए मित्तन (कपड़े) पहर के गाँव में आजात है। कछु (कुछ) पतो न चलतु कि ने मंगिया चमार के हैं कि नाय (नहीं)(‘टिल्लू का पोता’, सूरजपाल चौहान)।” यानी एक दलित शहर जाकर कितना भी साफ-सुथरा हो जाए, परन्तु हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि निम्‍न जाति में होने के कारण सामाजिक जीवन की मुख्यधारा में उससे समानता का बर्ताव नहीं किया जाता है। वह सवर्ण समाज के लिए आजीवन अस्पृश्य बना रहता है। इसी सन्दर्भ में नीरा परमार ने ‘वैतरणी’ कहानी में दर्शाया है कि इस अस्पृश्यता के लिए ब्राह्मणवाद सबसे अधिक जिम्मेदार है-

 

“नेताजी, आप तो अन्‍नदाता हैं, प्रजा के मालिक ठहरे।एक चाँपाकल हमारे आँगन में लग जाता।पण्डिताइन को दरवाजे पर जात-कुजात के बीच पानी भरने जाना पड़ता है(वैतरणी)।” यद्यपि दलित कहानियों का एक बड़ा हिस्सा इसी ब्राह्मणवाद के खिलाफ खड़ा है लेकिन सच यह भी है कि ब्राह्मणवाद के विरोध के कारण ही साहित्य की इस धारा की पहचान बनी तथा दलित कहानी को एक नई ज़मीन मिली।

 

अस्पृश्यता के सवाल पर दलित कहानियों का एक हिस्सा उन सवालों से भी टकराता है,जहाँ दलित लेखक स्वयं इस बात को महसूस करते हैं कि दलित जातियों के अन्दर भी एक-दूसरे के प्रति ‘अस्पृश्यता’ का भाव भरा हुआ है। इस सन्दर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘शवयात्रा’ और सूरजपाल चौहान की ‘कुएँ से तांगे तक’ जैसी कहानियों को देखा जा सकता है जिनमें लेखकों ने यह दिखलाने का प्रयास किया है कि जातीय वर्चस्व का अन्तर्विरोध दलितों के अन्दर भी है। उदाहरण के लिए ‘कुएँ से तांगे तक’ कहानी में यह अन्तर्विरोध दिखलाने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार दलित समाज में ‘चमार’ अपने को ‘भंगी’से श्रेष्ठ मानते है? उपजातियों का यह अन्तर्विरोध ठीक उसी प्रकार है, जैसा कि भारतीय समाज के हिन्दू समाज में एक ही वर्ण और जाति में लोग अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को निम्‍न समझते हैं।

 

3.4. शिक्षण संस्थान, ज्ञान की परम्परा और दलित कहानियाँ

 

दलित कहानियों का एक बड़ा हिस्सा ज्ञान की परम्परा में शिक्षण संस्थानों में दलित समाज के साथ हो रहे भेदभाव पर केन्द्रित है। इस सन्दर्भ में कथाकारों ने इस सवाल पर विचार किया है कि ज्ञान के बिना समाज का विकास सम्भव नहीं है। इससे वंचित रहने से व्यक्ति अथवा समाज का मानसिक, आर्थिक और शारीरिक शोषण होता है। जैसे, यदि एक व्यक्ति अगर ज्ञान की प्रक्रिया से वंचित रहता है, तब वह न तो अपना बौद्धिक विकास ही कर सकता है और न ही समाज में सम्मानपूर्वक रहने के लिए अर्थोपार्जन कर सकता है। अर्थात् ज्ञान प्राप्ति के बाद वह अपनी तथा अपने परिवार की गरीबी भी दूर कर सकता है। दलित कहानीकारों का मानना है कि ज्ञान की परम्परा से वंचित रहने के कारण ही दलित समाज का सबसे अधिक शोषण हुआ है तथा वे विकास की प्रक्रिया से वंचित रह गए। दलित समाज की गरीबी का भी सबसे बड़ा कारण उनकी अज्ञानता है। इस अज्ञानता के कारण ही उनका आर्थिक शोषण होता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘पच्‍चीस चौका डेढ़ सौ’, सुशीला टाकभौरे की ‘साक्षात्कार’, दयानन्द बटोही की ‘सुरंग’, श्यौराज सिंह बेचैन की ‘शोध-प्रबंध’, सूरजपाल चौहान की ‘छूत कर दिया’ आदि कहानियाँ शिक्षण संस्थानों में दलित समाज की स्थिति का यथार्थ चित्रण करती हैं। उदाहरण के लिए, ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘पच्‍चीस चौका डेढ़ सौ’ की निम्‍नलिखित पक्तियां देखी जा सकती हैं, जिसमें कहानीकार ने कथानायक सुदीप के पिता के आर्थिक शोषण के बहाने यह बतलाने की कोशिश की है कि अनपढ़ होने के कारण गाँव के चौधरी आम दलित जन का कितना शोषण करते रहे हैं? –

 

“पिताजी मुझसे आपको एक बात करनी है। क्या बात है, बेट्टे? कुछ चाहिए? नहीं पिताजी, कुछ नहीं चाहिए…मैं आपको कुछ बताना चाहता हूँ। सुदीप ने पच्‍चीस-पच्‍चीस रुपये की चार ढेरियाँ लगाईं। पिताजी से कहा, ‘अब आप गिनिए।’

 

पिताजी चुपचाप सुदीप की ओर देख रहे थे, उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। असहाय होकर बोले, ‘‘बेट्टे, मुझे तो बीस से आगे गिनना ही नी आता, तू ही गिन के बता दे।’’

 

सुदीप ने धीमे स्वर से कहा, ‘पिताजी, ये चार जगह पच्‍चीस-पच्‍चीस रुपये है। अब इन्हें मिलाकर देखते हैं पच्‍चीस चौका सौ होते हैं या डेढ़ सौ।’

 

पिताजी अवाक होकर सुदीप का चेहरा देखने लगे। उनकी आँखों के आगे चौधरी का चेहरा घूम गया। तीस-पैंतीस साल पहले की पुरानी घटना साकार हो उठी। वह घटना जिसे वे अब तक न जाने कितनी बार दोहराकर लोगों को सुना चुके थे। सुदीप रुपये गिन रहा था बोल-बोलकर। सौ पर जाकर रुक गया। बोला, ‘‘देखो, पच्‍चीस चौका सौ हुए, डेढ़ सो नहीं।” (पच्‍चीस चौका डेढ़ सौ)

 

इससे स्पष्ट होता है कि अनपढ़ होने के कारण गाँव के चौधरी या साहुकार दलित समाज का कितना आर्थिक शोषण करते थे? इस कहानी में अनपढ़ दलित का पुत्र शिक्षा प्राप्‍त कर यह प्रमाणित करता है कि ज्ञान न सिर्फ आर्थिक शोषण से मुक्त होने में मदद करता है, अपितु इस भ्रान्तिपूर्ण धारणा का खण्डन भी करता है कि तथाकथित ‘बड़े लोग’ नैतिक दृष्टि से चरित्रवान और बेहद ईमानदार होते हैं। पुत्र द्वारा व्यवहारिक रूप से जानकारी मिलने के बाद पिता को ऐसा महसूस होता है कि गाँव के सम्मानित चौधरी ने वर्षों पूर्व उनके साथ कितना बड़ा विश्‍वासघात किया था। इस तरह दलित कहानियाँ शिक्षण संस्थानों में दलितों के साथ किए जा रहे भेदभाव की समस्या को उठाती है।

 

3.5 . स्‍त्री समाज के सवाल और दलित कहानियाँ

 

दलित कहानियों का एक बड़ा हिस्सा स्‍त्री जीवन के सवाल पर केन्द्रित है। दलित स्‍त्री के जीवन के सवाल को समझने के लिए भारतीय समाज में स्‍त्री जीवन के यथार्थ को जानना जरूरी है। कहा जाता है कि भारतीय समाज में स्‍त्रि‍यों की जिन्दगी को दो संरचनाएँ नियन्त्रित करती हैं- एकपितृसत्ता और दूसरी वर्ण-व्यवस्था। ये दोनों स्‍त्री की देह और मनदोनों को बाँधती है। धर्म की इसमें प्रमुख भूमिका होती है। मर्यादा के मानकीय आधार पर वह विवाह संस्था द्वारा स्‍त्रि‍यों को सबसे अधिक बाँधने का प्रयास करता है। इसलिए अन्य स्‍त्री लेखन की तरह सुशीला टाकभौरे, कौशल्या बैसन्त्री, रजनी तिलक, अनीता भारती, विमल थोराट, रजत रानी मीनू, कुसुम मेघवाल, कावेरी आदि दलित लेखिकाओं ने पितृसत्ता और वर्ण-व्यवस्था के आधार पर दलित स्‍त्री के शोषण को अपने लेखन का केन्द्र बनाया है। इस सन्दर्भ में सुशीला टाकभौरे की सिलिया, कुसुम मेघवाल की अंगारा, कावेरी की सुमंगली आदि कहानियों को देखा जा सकता है। सुशीला टाकभौरे अपनी सिलिया कहानी में विवाह जैसी संरचनागत संस्था पर नायिका के बहाने सवाल उठाती हैं–‘मैं शादी कभी नहीं करूँगी।’ यद्यपि सिलिया अभी बहुत छोटी है, पर उसे महसूस होता है कि विवाह ही स्‍त्री की दुर्गति का सबसे बड़ा कारण है, यह स्‍त्री के आत्मसम्मान को सबसे पहले नष्ट करता है।

  1. दलित कहानी, कहानी की कला और अन्य समकालीन सवाल

    समकालीन समय एक अलग तरह का समय है, जहाँ अनेक तरह के विचार एवं विमर्श सामाजिक जीवन का अहम हिस्सा बने हुए हैं। इन सवालों में सामाजिक अस्मिता का सवाल एक बड़ा सवाल है, जिसका सम्बन्ध दलित विमर्श के साथ ही स्‍त्री, आदिवासी और अप्रवासी समाज पर हो रहे विमर्श के साथ है। खासकर, आर्थिक उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के बाद वित्तीय बाजार की नई भूमिका ने सामाजिक संरचनाओं को गहराई के साथ प्रभावित किया है। इससे सांस्कृतिक अस्मितावादी विमर्श को भी ताकत मिली है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि एक हद तक बाजारवाद एवं भूमण्डलीकरण के बाद भारत में सामाजिक असमानताएँ दूर हुई हैं। स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में भी गाँधी, अम्बेडकर और पेरियार जैसे सामाजिक चिन्तकों के कारण सुधारवाद की प्रक्रियाएँ शुरू हुई थीं तथा सामाजिक असमानता थोड़ी कम हुई थी, जिसका प्रभाव तत्कालीन लेखकों की रचनाओं पर हैं। लेकिन इसके विपरीत ठीक दूसरी तरफ स्वाधीनता के बाद समाज में अलगाव-बोध बढ़ा है। सन्1990 के बाद आर्थिक उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के बाद यह और बढ़ा है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दलित कहानियों में इस प्रकार के समकालीन सवालों से टकराने का प्रयास दिखलाई दे रहा है। उदाहरण के लिए-मोहनदास नैमिशराय की कर्ज़, ओमप्रकाश वाल्मीकि की दिनेशपाल जाटव उर्फ दिग्दर्शन, एस.आर.हरनोट की जीनकाठी, मधुकर सिंह की मेरे गाँव के लोग, सुशीला टाकभौरे की साक्षात्कार एवं कड़वा सच, प्रहृलाद चन्द दास की लटकी हुई शर्त, रत्‍न कुमार साँभरिया की फुलवा, अजय यतीश की द्वन्द्व, सत्यप्रकाश की दलित ब्राह्मण आदि कहानियों में उठाए गए आर्थिक शोषण, मीडिया, समान अधिकार, हिंसा, सामाजिक परिवर्तन, स्वाभिमान, सशस्त्र क्रान्ति, दलित वर्चस्व आदि सवालों को देखा जा सकता है। इस सन्दर्भ में सुशीला टाकभौरे की कड़वा सच  कहानी का अंश उल्लेखनीय है –

 

“ये सब एक हैं कि चार हैं?…मुझे तो सबमें एक ही कहानी नजर आ रही है। सब में एक ही पात्र, एक ही जैसी समस्याएँ, एक जैसी परेशानियाँ। आप ही देखिए- वही आर्थिक तंगी, बच्‍चे, पति, नौकरी और बस्स (कड़वा सच)।” कहानी में लेखिका ने जीवन के वास्तविक यथार्थ को कहानी का हिस्सा बनाते हुए समकालीन सवालों को दलित समाज के साथ जोड़ा है। कहा जा सकता है कि बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में यह समाज एक तरफ जहाँ साम्प्रदायिकता के सवाल से टकरा रहा था, वहीं दूसरी तरफ आर्थिक उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के बाद वित्तीय बाजार की नई भूमिका में अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करता दिखलाई दे रहा था, जिसकी तरफ दलित कहानियाँ संकेत करती हैं।

  1. दलित कहानी की कला

    कहानी कला की दृष्टि से दलित कहानी ही नहीं, बल्कि पूरे दलित साहित्य की इस बात को लेकर आलोचना होती है कि कला की दृष्टि से यह साहित्य कमजोर है। न तो भाषा में वह लालित्य है और न ही संरचना में वह कलात्मकता, जो पाठकों को आकृष्ट कर सके। इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि दलित साहित्य में दलित लेखकों ने पारम्परिक सौन्दर्यशास्त्र को मानने से इनकार कर दिया है। उनका मानना है कि ‘‘हिन्दी साहित्य की सामन्ती, ब्राह्मणवादी प्रवृत्तियों ने जिन विषयों को त्याज्य माना, जिन्हें अनदेखा किया, उनपर लिखना मेरी प्रतिबद्धता है।” (ओमप्रकाश वाल्मीकि, आत्मकथ्य, दूसरी दुनिया का यथार्थ, सं. रमणिका गुप्‍ता, नवलेखन प्रकाशन, हजारीबाग, 1997) स्पष्टतः ओमप्रकाश वाल्मीकि उपर्युक्त कथन के माध्यम से यह कहना चाहते हैं कि जब दलित साहित्य के विषय पारम्परिक नहीं हैं, तब उनका मूल्यांकन पारम्परिक सौन्दर्यशास्त्र के आधार पर कैसे किया जा सकता है? इसीलिए, दलित कहानीकारों ने कला की दृष्टि से कहानी के बने बनाए ढाँचे से बाहर निकलकर दलित समाज की जो भाषा थी, उसी को साहित्य की भाषा बनाया। कल्पना को दलित कथा से बहिष्कृत किया तथा उनके समाज का जो यथार्थ था, उसे रचना का विषय बनाया। वास्तविक जिन्दगी का यथार्थ और भाषा कहानी का विषय बनकर साहित्य की दुनिया का हिस्सा बनी। साहित्य के क्षेत्र में दलित साहित्य की यह एक अलग तरह की पहल थी, जिसे अब साहित्य चिन्तक स्वीकार करने लगे हैं।

  1. निष्कर्ष

    दरअसल दलित कहानियों में लेखकों ने दलित समाज की बुनियादी समस्याओं को कहानी का केन्द्रीय विषय बनाया है। जाहिर है, इन बुनियादी समस्याओं में भारतीय समाज में मौजूद वर्ण और जाति का सवाल सबसे बड़ी समस्या के रूप में कहानियों में चित्रित हुआ है। दलित कहानीकारों का मानना है किवर्ण और जाति के कारण ही उन्हें भारतीय समाज में ज्ञान और सम्पत्ति से वंचित रहना पड़ा। उनके साथ अस्पृश्य जैसा व्यवहार किया गया। दलित समाज की गरीबी का सबसे बड़ा कारण भी यही है। उनका मानना है कि दलित होने की पीड़ा की अनुभूति कोई दूसरा नहीं कर सकता है और न ही उसका बयान। इसलिए दलित उत्पीड़न का बयान भी स्वयं वे ही कर सकते हैं। इसलिए दलित कहानियों में प्रतिरोध की जो चेतना दिखलाई पड़ती है, उसका एक बड़ा कारण भी यही है कि गैर दलित चिन्तक अपनी व्याख्याओं में दलित समाज की इस मनोदशा को नहीं समझ पाते हैं। दलित लेखक इन सवालों से टकराते हैं तथा दलित जीवन के मूल सवालों और समस्याओं को कहानी का हिस्सा बनाते हैं। इसलिए विचार और साहित्य की दुनिया में दलित कहानियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका अध्ययन एक नए समाज की वास्तविक जिन्दगी को जानने का भी अनुभव है, इसमें सन्देह नहीं! 

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अतिरिक्त जानें-

 

पुस्तकें

  1. दलित जीवन की कहानियाँ, गिरिराज शरण (संपा.),  प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
  2. दलित कहानी संचयन, रमणिका गुप्ता, साहित्य अकादेमी, दिल्ली
  3. दलित महिला कथाकारों की चर्चित कहानियाँ, डॉ.कुसुम वियोगी (संपादक), साहित्य निधि प्रकाशन, दिल्ली
  4. बीसवीं शताब्दी के अन्तिम द्विदशक की हिन्दी कहानी में दलित जीवन, डॉ.गौतम सोनकाम्बले, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
  5. हिन्दी दलित कथा-साहित्य अवधारणाएं और विधाएं, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली
  6. दलित समाज की कहानियाँ, रत्नकुमार सांभरिया, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली
  7. दलित चेतना की कहानियाँ बदलती परिभाषाएँ, राजमणि शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  8. परम्परागत वर्ण-व्यवस्था और दलित साहित्य, साक्षान्त मस्के, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  9. नयी सदी की पहचान, श्रेष्ठ दलित कहानियाँ, मुद्राराक्षस, लोकभारती प्रकाशन, दिल्ली
  10. आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेन्द्र चौबे, ओरियंट ब्लैक स्वान, दिल्ली

    वेब लिंक्स-

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
  2. https://www.youtube.com/watch?v=cB2c3hdvsaE
  3. https://www.youtube.com/watch?v=ZJQiiormJUk
  4. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%AA%E0%A5%88%E0%A4%82%E0%A4%A5%E0%A4%B0
  5. http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%93%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BF
  6. http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF,_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B9%E0%A5%88_/_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A6
  7. http://www.hindisamay.com/e-content/Sresth-Hindi-Kahaniyan-1990-2000/shawyatra.pdf