21 जूठन का आलोचनात्मक अध्ययन
गंगा सहाय मीणा
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- दलित आत्मकथा और प्रमुख दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचनाओं से परिचित हो सकेंगे।
- जूठन के माध्यम से दलित साहित्य के स्वरूप और महत्त्व को समझ सकेंगे।
- ओमप्रकाश वाल्मीकि के जीवन के माध्यम से दलित चेतना की निर्माण-प्रक्रिया समझ सकेंगे।
- दलित चेतना की निर्माण-प्रकिया में आनेवाले पड़ावों को जान पाएँगे।
- प्रस्तावना
जूठन हिन्दी दलित-साहित्य के चर्चित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा है। उन्होंने सभी महत्वपूर्ण विधाओं में रचनाएँ की हैं। तमाम कष्टों, पीड़ाओं, यातनाओं, प्रताड़नाओं और उपेक्षाओं से बिंधे दलित-जीवन को उन्होंने सशक्त अभिव्यक्ति दी है। वे एक चर्चित कवि, कथाकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक और कलाकार हैं। वे विद्वान लेखक भी हैं और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता भी। उनका जीवन एक दलित जीवन-संघर्ष का जीता-जागता उदाहरण है। जूठन इस जागरूक दलित कवि, लेखक, सामाजिक कार्यकर्त्ता के व्यक्तित्व निर्माण की जीवन्त कथा है। इस कृति से स्पष्ट होता है कि किस तरह वीभत्स उत्पीड़न के बीच एक दलित रचनाकार की चेतना का निर्माण और विकास होता है। किस तरह लम्बे समय से भारतीय समाज-व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर खड़ी ‘चूहड़ा’ जाति का एक बालक ओमप्रकाश सवर्णों की चोटों, कचोटों के बीच परिस्थितियों से संघर्ष करता हुआ दलित आन्दोलन का क्रान्तिकारी योद्धा, ओमप्रकाश वाल्मीकि बनता है। इसमें लेखक के बचपन (जन्म 1950) से लेकर 35 वर्ष (सन् 1985) तक की घटनाएँ हैं।
जूठन परम्परागत ब्राह्मणवादी मूल्यों को नए समतावादी मूल्यों की टकराहट से ध्वस्त करती है। यह नए सामाजिक ही नहीं, नए साहित्यिक मूल्यों की भी स्थापना करती है। यह न ‘स्वान्तः सुखाय’ है, न ‘रोचक’! लिखते समय लेखक का अन्त सुखी नहीं होता, बल्कि दलित (चूहड़ा) होने के कारण जो शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न जीवन भर झेलना पड़ा था, लिखते समय उन ‘‘तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा, उस दौरान गहरी मानसिक यन्त्रणाएँ मैंने भोगी। स्वयं को परत-दर-परत उधेड़ते हुए कई बार लगा – कितना दुःखदायी है यह सब।’’ (जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997, लेखक की ओर से) इसीलिए यह कृति पाठक को आनन्द विभोर करके सुलाती नहीं, न ही उसे भावुकता में बहाकर आँसू गिराती है, बल्कि यह सड़ान्ध भरे पारम्परिक सामाजिक ढाँचे को उखाड़ फेंकने हेतु पाठक को मजबूर करती है। मुक्तिकामी पाठकों को यह शोषण के विरुद्ध लड़ने के हथियार थमाती है। यह आत्मकथा जहाँ सदियों से शोषित-उत्पीड़ित बृहद् जन-समुदाय के हित में एक नए समाज की ठोस परिकल्पना प्रस्तुत करती है, वहीं के आम पाठकों के हित में साहित्य के एक नए समाजशास्त्र के निर्माण की जरूरत को रेखांकित करती है और उसके लिए एक मॉडल प्रस्तुत करती है। यह कृति सीख देती है कि अगर भारतीय सन्दर्भ में साहित्य के समाजशास्त्र का निर्माण करना है तो दलित साहित्य को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि निश्चय ही ‘‘भारतीय समाज में ‘जाति’ एक महत्त्वपूर्ण घटक है। ‘जाति’ पैदा होते ही व्यक्ति की नियति तय कर देती है।’’ (जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ. 159)
- शिक्षा के लिए संघर्ष
आत्मकथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की चेतना के निर्माण का पहला चरण है – ‘चूहड़ा’ होने के कारण गाँव में शिक्षा से वंचित करने की सवर्णों की हर सम्भव कोशिश; इसके विरुद्ध अनपढ़ पिता का प्रतिरोध, एवं उससे जीवन को मिली दिशा।
डा. अम्बेडकर द्वारा दलितोत्थान के लिए दिए गए त्रिसूत्रीय नारे ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ में शिक्षित बनना दलित आन्दोलन की पहली सीढ़ी है। शिक्षित बने बिना आत्मसातीकृत संस्कारों से मुक्ति नहीं पाई जा सकती; बतौर शिक्षित हुए संघर्ष की चेतना पैदा होना बहुत मुश्किल है। इसीलिए यथास्थितिवादी सदियों से गुलाम अस्मिताओं को शिक्षा से दूर रखने की कोशिश करते रहे हैं। आजाद भारत में भी यह सब जारी है – महिलाओं और दलितों के शैक्षणिक स्तर को देखकर यह पता लगाया जा सकता है। इनको पढ़ने से रोकने वाले लोग जन्मना निर्धारित कर्म करने वाली मानसिकता के होते हैं। उनको भय है कि ये पढ़ गए तो उनकी गुलामी कौन करेगा? इसी मानसिकता वाले बरला गाँव (लेखक का गाँव) में कई दिनों तक स्कूल के चक्कर काटने के बाद बालक ओमप्रकाश को दाखिला मिला। गाँव त्यागी या तगाओं के वर्चस्व वाला था। समाज में ही नहीं गाँव के प्राइमरी स्कूल व इण्टर कॉलेज में भी त्यागियों का ही बोलबाला था। यहाँ तक कि गाँव के इण्टर कॉलेज का नाम उस समय त्यागी इण्टर कॉलेज, बरला था।
दाखिला तो मिल गया, लेकिन इसके साथ ही भंगी बालक ओमप्रकाश की पढ़ाई छुड़ाने की कोशिशें भी शुरू हो गईं। लेखक अपने बचपन के यातनाप्रद अनुभवों को कुछ इस तरह याद करते हैं, ‘‘त्यागियों के बच्चे ‘चूहड़े का’ कहकर चिढ़ाते थे। कभी-कभी बिना कारण पिटाई भी कर देते थे। एक अजीब-सी यातनापूर्ण जिन्दगी थी, जिसने मुझे अन्तर्मुखी और चिड़चिड़ा, तुनकमिजाजी बना दिया था। स्कूल में प्यास लगे तो हैंडपंप के पास खड़े रहकर किसी के आने का इन्तजार करना पड़ता था। हैण्डपम्प छूने पर बवेला हो जाता था। लड़के तो पीटते ही थे। मास्टर लोग भी हैण्डपम्प छूने की सजा देते थे। तरह-तरह के हथकण्डे अपनाए जाते थे, ताकि मैं स्कूल छोड़कर भाग जाऊँ। मैं भी उन्हीं कामों में लग जाऊँ, जिनके लिए मेरा जन्म हुआ था। उनके अनुसार स्कूल आना मेरी अनधिकार चेष्टा थी।’’ (वही, पृष्ठ-13) क्या इसे ही कहते हैं स्वर्णिम विद्यार्थी जीवन? उस वक्त स्कूल जाना उनके लिए भी नया अनुभव था, लेकिन आनन्दित या रोमांचित करने वाला नहीं, शारीरिक एवं मानसिक यन्त्रणा से सिहरा देने वाला।
स्कूल में सवर्ण अध्यापकों का व्यवहार वही था, जो समाज में होता है। बात-बात में गाली और मार-पीट। छात्रों और अध्यापकों, सभी का सम्बोधन ‘अबे चूहड़े के’ होता। कभी-कभी कक्षा में उससे अजीब से सवाल पूछे जाते, ‘‘सूअर की कितनी साँटें खाई हैं? एक पाव तो खा ही लेते होगे?’’ (वही, पृष्ठ-29) जब अध्यापक ऐसे सवाल पूछ लेते तो लड़कों को यह कहने में क्या जाता है, ‘‘अबे चूहड़े के, सूअर खाता है!’’ (वही, पृष्ठ-29) बालक ओमप्रकाश से हेडमास्टर कलीराम तीन दिन तक झाड़ू लगवाता। पिता द्वारा विरोध करने पर गाली देते हुए स्कूल से निकाल देता। इसी तरह सवाल पूछने पर एक अध्यापक ने लेखक की ‘पीठ पर छड़ी से महाकाव्य’ रच देता है। ‘‘वह महाकाव्य आज भी मेरी पीठ पर अंकित है। भूख और असहाय जीवन के घृणित क्षणों में सामंती सोच का यह महाकाव्य मेरी पीठ पर ही नहीं, मेरे मस्तिष्क के रेशे-रेशे पर अंकित है।’’ (वही, पृष्ठ-35) लेखक के अलावा अन्य कई दलित छात्र भी मास्टरों की मार का शिकार होते हैं। ऐसे में अगर किसी को आदर्श शिक्षक की बात करते समय ऐसे शिक्षक याद आएँ तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए, जो छात्रों के साथ जालिम गुण्डे-सा व्यवहार करते थे तथा ‘‘जो माँ-बहन की गालियाँ देते थे। सुन्दर लड़कों के गाल सहलाते थे और उन्हें अपने घर बुलाकर उनसे वाहियातपन करते थे।’’ (वही, पृष्ठ-14) अध्यापक व छात्र ही नहीं, गाँव के अन्य त्यागी भी नहीं चाहते कि एक भंगी का लड़का पढ़े।
उपर्युक्त सभी तो एक दलित बालक को पढ़ने से रोकने के प्रत्यक्ष प्रयास हैं। इनके अलावा ऐसी बहुत-सी बातें हैं जो लेखक के बाल-मन को कचोटती हैं। कदम-कदम पर लोग जाति याद दिलाते रहते। छात्र और अध्यापक तो ‘चूहड़े के’ कहते ही थे, गाँव के अन्य लोग भी ‘जाति’ का बोध कराते रहते थे। एक बार लेखक स्काउटिंग ड्रेस की इस्तरी कराने धोबी के पास गए तो धोबी ने उसे घर के बाहर ही खड़ा कर सीधा जवाब दिया, ‘‘हम चूहडे़-चमारों के कपड़े नहीं धोते, न ही इस्तरी करते हैं।’’ (वही, पृष्ठ-28)
अध्यापकों से सवाल पूछने पर भी जाति बीच में आ जाती। अध्यापक समस्या का समाधान तो नहीं करते, लेकिन लेखक को ‘भंगी’ होने का अहसास अवश्य करा देते थे। यहाँ तक कि जाति को ध्यान में रखते हुए लेखक को बारहवीं में रसायनशास्त्र के प्रैक्टिकल में फेल कर दिया गया। इस तरह के जातिगत भेदभाव व अपमान की पीड़ा को सम्भवतः वही जान सकता है, जिसके साथ भेदभाव या अपमान हुआ है।
ग्रामीण विद्यार्थी जीवन के दौरान एक-दो और ऐसी घटनाएँ हुईं थीं, जिन्होंने लेखक के अन्तस् को झकझोर दिया। एक दिन पिता की अनुपस्थिति में चाचा के साथ मरे हुए बैल की खाल उतारने ओमप्रकाश को जाना पड़ा। न चाहते हुए भी उन्होंने काँपते हाथों से छुरी से खाल उतारा और उस खाल की गठरी सिर पर लिए वे बस स्टैंण्ड की भीड़ में से निकले। अगले दिन उसे चमड़ा बाजार में बेचकर भी आए।
माता के मंदिर में विशेष पूजा के अवसर पर बहुत काम होने के कारण एक दिन लेखक के पिता ने उन्हें अपने एक ग्राहक के साथ सूअर के बच्चे की बलि के लिए भेजा, वह सब करना पड़ा, जिसे वे घृणित मानते थे। दिमाग की नसें फटने को होती थीं।
ये सारे प्रसंग गाँव के उस अमानुषिक व दमघोंटू वातावरण का बयान करते हैं, जिसमें ओमप्रकाश वाल्मीकि के व्यक्तित्व-निर्माण का अहम हिस्सा गुजरा। कदम-कदम पर यातना तथा उससे उपजा भय, अन्तस्तल को बेंधते विष-बुझे सम्बोधन, जगह-जगह उपेक्षा, दुत्कार, औकात का अहसास कराते लोग, मजबूरी में किए गए जातिगत कार्य, सवर्णों व पुलिस प्रशासन की एकता व उससे उपजी दहशत, अन्धविश्वास व अशिक्षा के अन्धकार में डूबे बस्ती के लोग – इन्हीं सब के रूप में लेखक ने भारत के एक ‘आहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है!’ को भोगा था। ये सब चीजें रह-रहकर लेखक के मन को उद्वेलित करती रहती थीं। डरावने माहौल ने उसे अन्तर्मुखी बना दिया था। इन अनुभवों से एक कवि, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता के व्यक्तित्व की पृष्ठभूमि निर्मित हो रही थी। वह दलित चेतना के निर्माण की भी पृष्ठभूमि थी।
बस्ती के लोगों में भी दलित चेतना के बीज है, जो अंकुरित होने से पहले ही कुचल दिए जाते थे – कभी सवर्णों द्वारा, कभी परिस्थितियों द्वारा! इसी तरह बस्ती के लोगों ने बेगार न करने का फैसला तो कर लिया, लेकिन उस फैसले के बदले वे पुलिस की मार खाने लगे, कोई प्रतिरोध नहीं कर पाया। बस्ती के लोगों में शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का एक जज़्बा था, लेकिन उन्हें संगठित करने वाला, उनका नेतृत्व करने और संघर्ष की सही दिशा देने वाला कोई नहीं था। फलस्वरूप भूख एवं मार-पीट के सामने उनका विरोध दम तोड़ देता। हिन्दी क्षेत्र में दलित आन्दोलन उतने सशक्त रूप में नहीं उभरा, क्योंकि यहाँ उसका नेतृत्व करने के लिए एक डॉ. अम्बेडकर की हमेशा कमी रही।
उन विपरीत परिस्थितियों में भी ओमप्रकाश वाल्मीकि पढ़ लेते थे, इसका श्रेय लेखक के पिता को देना होगा। वे हमेशा अन्याय का विरोध करते थे तथा बालक ओमप्रकाश को पढ़ने के लिए प्रेरित करते थे। उन्होंने अनपढ़ होते हुए भी, पता नहीं कहाँ से यह सूत्र प्राप्त कर लिया था कि ‘पढ़ने से जाति सुधरती है।’
कई दिनों तक स्कूल के चक्कर काटकर पिता ने बालक ओमप्रकाश को प्रवेश दिलावाया। जब हेडमास्टर ने पढ़ाने के बजाय तीन दिनों तक ओमप्रकाश से स्कूल में झाड़ू लगवाया तो उन्होंने उसका प्रतिरोध किया। लेखक स्वीकार करते हैं कि पिता के उस दिन के साहस व हौसले का प्रभाव उसकी शख्सियत पर पड़ा।
स्कूल से निकाल दिए जाने पर ओमप्रकाश के पिता ने उनके पुनः प्रवेश के लिए पूरी जोड़-तोड़ की। ‘व्यवस्था’ बनाए रखने के पक्षधर लोग नहीं चाहते कि एक भंगी का बेटा पढ़े। इसलिए वे पढ़ाई छोड़ देने की बात कहते थे। लेकिन लेखक के पिता अपने बेटे को पढ़ाने के लिए दृढ़-संकल्प थे। उन्होंने दोबारा उन्हें दाखिला दिलाया तथा बाद तक उनकी पढ़ाई के रास्ते में आई हर मुश्किल का सामना किया।
ये सब किसलिए? वे चाहते थे कि उनका बेटा किसी भी तरह पढ़े। उनके लिए पढ़ाई का मतलब सिर्फ नौकरी पा लेना नहीं था, बल्कि सच्चे अर्थों में ‘जाति सुधारना’ था। उनको अपने इस बेटे से उम्मीदें थीं, तभी वे पढ़ाई पर इतना जोर दे रहे थे। जब हिरम सिंह की बारात में लेखक ने सलाम की प्रथा पर सवाल किया तथा उनकी बुराई की तो उनको अपनी मेहनत सफल जान पड़ी, ‘‘मुंशी जी, बस तुझे स्कूल भेजना सफल हो गया है… म्हारी समझ में बी आ गिया है… ईब इस रीत कू तोड़ेंगे।’’ (वही, पृ. 44) और यह रीत सचमुच तोड़ी गई – स्वयं उनके बेटे-बेटियों की शादी में। अपने बेटे की शादी में उन्होंने स्पष्ट कह दिया, ‘मेरा बेटा सलाम करने नहीं जाएगा।’ इस कुप्रथा को तोड़कर वह दलितों में आत्मसम्मान लौटाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण काम किया।
लेखक को पढ़ाने व उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देने में उनके पिता के साथ-साथ उनकी माँ, भाई, भाभी आदि का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। जूठन का केन्द्रीय प्रसंग लेखक की माँ के प्रतिरोध से सम्बन्धित है। बचपन में लेखक अपनी माँ के साथ सुखदेव सिंह त्यागी की लड़की की शादी में जूठन इकट्ठी करने गए है। उस रोज सुखदेव सिंह ने जब लेखक की माँ का अपमान किया तो वे उनका प्रतिरोध करने लगीं और जूठन से भरा हुआ टोकरा उन्होंने वहीं बिखेर दिया। उसी दिन से जूठन का सिलसिला खत्म हो जाता है। लेखक की माँ का वह प्रतिरोध बड़ा महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि यह एक अभावग्रस्त दलित महिला का प्रतिरोध था। उसका पेट भरने का एक मजबूत सहारा छूट रहा था। सशक्त प्रतिरोध द्वारा ही अपमान एवं शोषण खत्म किया जा सकता है – लेखक की माँ ने इस प्रथा की नींव रखी।
इस क्रम में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अच्छे सवर्णों की पहचान भी की है। चन्द्रपाल वर्मा और श्रवण कुमार शर्मा ऐसे ही ‘बेहतर इनसान’ एवं ‘प्यारे दोस्त’ थे। बाबूराम त्यागी का स्नेह और मार्गदर्शन लेखक को मिलता रहा। हाईस्कूल पास होने पर चमनलाल त्यागी स्वयं लेखक के घर बधाई देने आए थे और लेखक को अपने घर दोपहर का खाना खिलाने भी ले गए थे। ये ऐसे प्रसंग हैं जो घृणा, भय और आक्रोश के माहौल में थोड़ा आश्वस्त करते हैं। इनसे कुछ उम्मीदें जगती हैं।
- दलित चेतना का निर्माण
लेखक बरला छोड़कर आगे की पढ़ाई के लिए देहरादून आए। वह लेखक के जीवन का निर्णायक मोड़ था। इसे ओमप्रकाश वाल्मीकि के चेतना-निर्माण का दूसरा चरण और दलित चेतना की दृष्टि से निर्णायक चरण कह सकते हैं। यही चरण जीवन की दिशा तय करने वाला था।
देहरादून आने पर सबसे महत्त्वपूर्ण बात हुई – मित्र हेमलाल की मदद से उनका परिचय डॉ. अम्बेडकर एवं उनके जीवन-संघर्ष से हुआ! इससे पहले वे गाँधी, नेहरू से लेकर सावरकर तक अधिकांश लेखकों से परिचित थे, लेकिन डॉ. अम्बेडकर का नाम पहली बार देहरादून के इन्द्रेश नगर में जाटवों द्वारा चलाए जा रहे पुस्तकालय में सुना। इस तथ्य से उनकी नजर में स्कूली पाठ्यक्रम और शिक्षा पद्धति की निष्पक्षता की पोल खुल गई। डॉ. भीमराव अम्बेडकर जैसे जुझारू संघर्षचेता के व्यक्तित्व का परिचय एक छात्र की बारहवीं कक्षा में जाकर मिला है और वह भी एक निजी पुस्तकालय के माध्यम से। आखिरकार परिचय हो भी तो कैसे?
शोषित (वर्ग) धीरे-धीरे व्यवस्था का आत्मसातीकरण इसीलिए कर लेता है, क्योंकि गुलामी करते-करते उसकी चेतना जड़ हो जाती है। वह शिक्षा से वंचित होने तथा एक दायरे तक सीमित होने के कारण संघर्ष की परम्परा से परिचित नहीं हो पाता है। हमारे यहाँ एक विशेष वर्ग (वर्ण) को शिक्षा से दूर रखने के पीछे यही सोच काम कर रही थी। धीरे-धीरे उसे सब कुछ स्वाभाविक और सहज नज़र आने लगता है। प्रश्न करने की आदत खत्म हो जाती है। अपनी स्थिति का एहसास खत्म होता चला जाता है। ऐसे में कभी-कभी विद्रोह पैदा भी होता है तो उसे ‘व्यवस्था’ के हित में दबा दिया जाता है। जब यह विद्रोह संघर्ष की परम्परा से परिचित होता है, तो सभी शोषितों-उत्पीड़ितों को एकजुट होकर व्यवस्था परिवर्तन की माँग करता है और वह व्यवस्था को बदल भी देता है। अम्बेडकर के लेखन को पढ़ते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अभाव, उत्पीड़न की मार और व्यवस्था की वीभत्सता महसूस की कि ‘‘डॉ. अम्बेडकर के जीवन-संघर्ष ने मुझे झकझोर दिया था।… मेरे भीतर एक प्रवाहमयी चेतना जाग्रत हो उठी थी। इन पुस्तकों ने मेरे गूंगेपन को शब्द दे दिए थे। व्यवस्था के प्रति विरोध की भावना मेरे मन में इन्हीं दिनों पुख्ता हुई थी।’’ (जूठन, पृ. 89) उन्हीं दिनों उनके शब्दकोश में ‘दलित’ शब्द भी जुड़ गया जो ‘करोड़ों अछूतों के आक्रोश की अभिव्यक्ति’ था। उसी दौरान उनके मन में प्रश्नाकुलता पैदा हुई जो साहित्यिक अध्ययन की देन थी। कॉलेज के कार्यक्रमों में सक्रियता भी बढ़ गई थी।
डॉ. अम्बेडकर के व्यक्तित्व से परिचय के अलावा गाँव से एकदम भिन्न शहर का माहौल भी लेखक की चेतना के विकास में अहम भूमिका निभा रहा था। स्वर्ग के समान कहे जाने वाले गाँव वास्तव में सामन्तवाद के गढ़ व जातिगत शोषण के केन्द्र होते हैं। अशिक्षा के कारण हुए व्यवस्था के आत्मसातीकरण को ‘सन्तोष परमम् सुखम्’ मान लिया जाता है। गुलामी को ‘संस्कार’ का नाम दे दिया जाता है। गाँवों पर सामन्तवाद हावी होता है और शहरों पर पूँजीवाद। पूँजीवाद विश्व समुदाय के समक्ष व्यक्ति-स्वातन्त्र्य की शर्त के साथ आया था। इसी आधार पर वह सामन्तवाद से बेहतर ठहरता था और शायद इसीलिए वह विश्वभर में तेजी से विकास कर रहा था। अपना विकास करने के लिए गाँव की बजाय शहर में व्यक्ति अधिक स्वतन्त्र होता है। उसके पास अधिक अवसर होते हैं। यही कारण था कि शहर आकर ओमप्रकाश वाल्मीकि कॉलेज के कार्यक्रमों में अधिक सक्रियता दर्ज करा पाए। आन्दोलनों, जुलूसों में भाग लिया। शहर के अभिभावक मामा के लाख मना करने पर भी अपने साथी प्रेमचन्द के चुनाव प्रचार में मदद करने देहरादून से रुड़की पहुँचे। वहाँ उन्हें जनजीवन को करीब से देखने का मौका मिला।
शहर में आर्थिक समस्याएँ आती हैं तो उनका समाधान भी निकलता है। वे ट्यूशन पढ़ाकर, लकड़ी की टाल में सेवा देकर अपना खर्चा चलाते थे। स्वावलम्बी होने की यह उसकी पहली कोशिश थी। सर्दी से बचने के लिए स्वेटर भी वे इन्हीं पैसों से खरीदते थे।
देहरादून में रहते हुए एक और महत्त्वपूर्ण बात हुई – ऑर्डिनेन्स फैक्टरी में प्रशिक्षण हेतु उनका चयन। हालाँकि इस वज़ह से पढ़ाई बीच में ही छूट गई, लेकिन आत्मनिर्भर बनने का एक रास्ता खुल गया था। देहरादून के बाद लेखक उच्च प्रशिक्षण के लिए जबलपुर चले गए, जहाँ के छात्रावास जीवन से व्यक्तित्व निर्माण की नई प्रक्रिया शुरू हुई। छात्रावास में जातिगत भेदभाव से लगभग दूर व्यक्तित्व निर्माण का अवसर मिला। वहाँ न केवल प्रगतिशील साहित्य से परिचय हुआ अपितु रंगमंच के रूप में उसके व्यावहारिक उपयोग का भी एक माध्यम मिला। लेखक ने इसका भरपूर फायदा उठाया। उन्हीं दिनों लेखन, अभिनय और निर्देशन में उनका हस्तक्षेप शुरू हुआ, जो अम्बरनाथ (बम्बई) छात्रावास में आकर विकसित हुआ।
- आन्दोलन की भूमि महाराष्ट्र
अम्बरनाथ में ओमप्रकाश वाल्मीकि का प्रवेश दलित आन्दोलन की भूमि महाराष्ट्र में भी प्रवेश था। वहाँ के समृद्ध पुस्तकालय के जरिए उनका विश्व साहित्य से परिचय हुआ। नाटक देखने-करने का क्रम चलता रहा। छात्रावास में एक नाट्यदल का गठन भी कर लिया। उन्हीं दिनों महाराष्ट्र में दलित आन्दोलन के वाहक मराठी दलित साहित्य एवं साहित्यकारों से परिचय हुआ। यह परिचय बाकी साहित्य के परिचय से भिन्न था। बाकी साहित्य से जहाँ देश-दुनिया की स्थितियों से साक्षात्कार हुआ, वहीं दलित साहित्य के लेखक की चेतना पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि दलित साहित्यकारों के शब्द ‘‘रगों में चिनगारी भर रहे थे। ऐसी अभिव्यक्ति जो रोमांचित कर नई ऊर्जा भर रही थी।… प्रशिक्षण की तकनीकी पढ़ाई के साथ साहित्यिक अभिरुचि का यह संसार हमारे भीतर लगातार नई चेतना भर रहा था।’’ (वही, पृ. 111) मराठी का दलित साहित्य दलित आन्दोलन के लिए मार्गदर्शक का काम कर रहा था। उस समय तक ओमप्रकाश वाल्मीकि का छिटपुट लेखन शुरू हो गया था। दलितों की समस्याओं पर एक लेख ‘नवभारत टाइम्स’ (बम्बई) में प्रकाशित कराया, जिस पर हंगामा हो गया।
हालाँकि प्रशिक्षण के दौरान जातिगत उत्पीड़न की किसी घटना का उल्लेख नहीं है, लेकिन सवर्ण मानसिकता के कई ऐसे प्रसंग हैं, जो अन्तस् को दुखी कर जाते हैं। सविता प्रसंग के माध्यम से जाना जा सकता है कि किस तरह सर्वोच्च मानवीय मूल्य ‘प्रेम’ पर भी ‘जाति’ का भूत हावी हो जाता है और ‘प्रेम’ को ‘जाति’ परास्त कर देती है। लेखक के क्रमशः करीब आती जा रही सविता को जब लेखक ने अपने अनुसूचित जाति के होने की बात बताई, तो वे उनसे हमेशा के लिए दूर हो गई। ब्राह्मण कुल में जन्मी सविता का पारिवारिक पूर्वाग्रह था कि ‘एस.सी. अनकल्चर्ड होते हैं, गन्दे रहते हैं।’ इसीलिए वे लेखक का एस.सी. होना आसानी से स्वीकार नहीं कर पाई, ‘‘तुम एस.सी. कैसे हो सकते हो?… तुम तो ब्राह्मण हो!’’ (वही, पृ. 119) उसके लिए व्यक्तित्व और प्रेम महत्त्वपूर्ण नहीं रह गए, ‘जाति’ महत्त्वपूर्ण हो गई; फलस्वरूप सम्बन्ध-विच्छेद हो गया। इस प्रसंग से स्पष्ट हुआ कि जिन पारिवारिक संस्कारों की चारो ओर प्रशंसा की जाती है वे सामान्यतः व्यक्ति को तार्किक बनाने के बजाय एक संकीर्ण दायरे में कैद कर देते हैं। ये संस्कार पारिवारिक संस्कार और पूर्वाग्रह बनकर जीवन भर महत्त्वपूर्ण निणयों को प्रभावित करते रहते हैं। फिर सही या गलत का फैसला तर्क द्वारा नहीं, पूर्वाग्रह द्वारा होता है। पढ़ लेने और प्रगतिशील विचारधारा से जुड़ जाने के बाद भी ये पूर्वाग्रह कमोबेश बचे रहते हैं, जो बीच-बीच में उभरते रहते हैं। यही वज़ह है कि अधिकांश पढे़-लिखे लोग भी ‘जाति’ से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाते।
प्रशिक्षण समाप्त हुआ और ओमप्रकाश वाल्मीकि की चन्द्रपुर (महाराष्ट्र) में नियुक्ति हो गई। चन्द्रपुर प्रवास उनकी राजनीतिक एवं सामाजिक चेतना की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण रहा। सरकारी सेवा के साथ-साथ लेखन, मंचन आदि रचनात्मक कार्य जारी रहा, बल्कि उनमें निखार आता गया। उन्होंने वहाँ ‘मेघदूत’ नाट्य संस्था की स्थापना की तथा निर्णायक भीम, अस्मितादर्श जैसी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में नियमित लेखन शुरू किया। इसी बीच घरवालों द्वारा लम्बे समय से शादी के लिए लगातार दबाव डाले जाने के कारण अन्ततः उन्होंने शादी कर ली। उल्लेखनीय है कि उनकी शादी में उनकी चेतना में आया फर्क स्पष्ट परिलक्षित था। वे लड़की देखे बिना शादी करने को तैयार नहीं हुए और स्वर्णलता भाभी की बहन चन्दा जिन्हें वे पहले से जानते थे; से शादी कर ली। शादी के मौके पर देवता के लिए सूअर की पूजा के रूप में चली आ रही रूढ़ि को भी तोड़ा।
डॉ. अम्बेडकर ने सामाजिक विषमता के खिलाफ़ जो लड़ाई लड़ी थी, वह उनके महापरिनिर्वाण के बाद रुक-सी गई थी। वर्षों के इन्तज़ार के बाद इस कमी को ‘दलित पैन्थर्स’ (स्थापना-9 जुलाई, 1972) ने पूरा किया। वाल्मीकि ने चन्द्रपुर में रहते हुए ‘दलित पैन्थर्स’ आन्दोलन को बहुत करीब से देखा। अमेरिकी अश्वेत आन्दोलन ‘ब्लैक पैन्थर्स’ की तर्ज पर सामाजिक विषमता के खिलाफ़ तथा दलितों को मनुष्यता का दर्जा दिलाने के लिए युवा दलित साहित्यकारों, कार्यकर्ताओं द्वारा चलाया गया यह आन्दोलन एक क्रान्तिकारी आन्दोलन था। इसमें एक नई बात यह थी कि यहाँ ‘वर्ण’ के साथ ‘वर्ग’ को भी महत्त्व दिया गया था। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने स्पष्ट अनुभव किया कि ‘‘दलित पैन्थर के नेता और कार्यकर्ता मार्क्सवादी और अम्बेडकरवादी विचारधारा को जोड़कर एक नया प्रयोग कर रहे थे, जिसकी चमक में पूरा महाराष्ट्र एक बार फिर दलित आन्दोलन के उत्कर्ष को देख रहा था।’’ (वही, पृ. 130) लेकिन आपसी मतभेदों के चलते यह प्रयोग बुरी तरह असफल रहा और पैन्थर्स कुछ ही सालों में टूट गया। दो गुट बन गए – एक का नेतृत्व नामदेव ढसाल ने किया, तो दूसरे का नेतृत्व राजा ढाले ने। नामदेव ढसाल का झुकाव मार्क्सवाद की तरफ था, वे दलित, शोषित उत्पीड़ित लोगों का आन्दोलन खड़ा करना चाहते थे, जबकि राजा ढाले का झुकाव अम्बेडकरवाद की तरफ था, वे पैन्थर्स को साम्यवाद से दूर रख बौद्ध तत्त्व-प्रणाली के तहत चलाना चाहते थे।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने महाराष्ट्र के दलित आन्दोलन के कमजोर होने तथा इस स्थिति तक पहुँचने के कुछ कारण गिनाए हैं। डॉ. अम्बेडकर की रिपब्लिकन पार्टी तो टूटी ही, उसके बाद भी जिन लोगों ने दलित आन्दोलन की पताका थामा, वे जातिगत भेदभाव से मुक्त नहीं हो पाए। दलितों के एक बड़े तबके तक डॉ. अम्बेडकर का सन्देश पहुँचा ही नहीं, पहुँचा भी तो ‘जाति’ के साथ। समाज में सबसे नीचे होने के कारण मेहतर स्वयं को आन्दोलन से उस तरह नहीं जोड़ पाए, जैसे कुछ बेहतर स्थिति वाले महारों ने स्वयं को जोड़ा। कुछ लोग सवर्णों की कृपादृष्टि पाने के लिए ‘घर के भेदी’ भी बने।
दलित पैन्थर्स का एक महत्त्व यह था कि उसने मराठी दलित साहित्य को नए तेवर देने वाले कई साहित्यकार दिए। इन साहित्यकारों के सम्पर्क में रहने के कारण ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन में भी सक्रियता व परिपक्वता आई। ओमप्रकाश वाल्मीकि के व्यक्तित्व पर महाराष्ट्र प्रवास का निर्णायक असर पड़ा।
ओमप्रकाश वाल्मीकि का लेखन किसी जन्मजात ‘प्रतिभा’ का परिणाम नहीं है। उन्होंने जीवन में ऐसी घटनाएँ देखीं और झेली थीं, जिनसे उनकी चेतना झंकृत हुई। अन्धविश्वास, जातीय उत्पीड़न आदि के कारण पैदा हुए दलित जीवन के दुख-दर्दों ने उन्हें हमेशा लिखने को मजबूर किया। दलित जीवन की आहों-कराहों की एक वैचारिक प्रतिक्रिया बनकर दलित साहित्य सामने आया। दलित आन्दोलन की भूमि महाराष्ट्र में रहने के कारण लेखक ने मराठी राजनीतिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक आन्दोलन को करीब से देखा; जुलूसों, सभा-गोष्ठियों में भाग लिया। मराठी दलित साहित्य एवं साहित्यकारों के परिचय ने उनके लेखन को एक दिशा दी। लेखन शुरू हो गया तो उसे उचित स्थान देने के लिए अच्छे सम्पादक भी चाहिए। ओमप्रकाश वाल्मीकि को जीवन में ऐसे सम्पादक भी मिले, जिन्होंने दस साल इन्तजार कराने के बाद भी कहानी नहीं छापी, वहीं ऐसे सम्पादक भी मिले जिन्होंने ‘स्नेह और प्यार’ से छापा। एक अंकुरित होते पौधे को समुचित हवा-पानी देकर बड़ा किया।
- आत्मसंघर्ष
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी इस आत्मकथा जूठन में आखिरी पृष्ठों में दलित आन्दोलन का एक जटिल सवाल उठाया है कि जातिबोधक सरनेम लगाना चाहिए या नहीं। लेखक से उनका ‘वाल्मीकि’ सरनेम हटवाने के लिए जान-पहचान वालों ने खूब कोशिश की। सरनेम के कारण अपने-परायों से लेखक को जीवन भर बहुत दंश झेलने पड़े। कई बार सरनेम बड़ी विषम स्थितियाँ खड़ी कर देता है और ये स्थितियाँ अन्तर्सम्बन्धों को प्रभावित कर सकती हैं। दलितों द्वारा सरनेम की लुका-छिपी हीनता बोध के कारण की जाती है। उनकी भतीजी सीमा, इसीलिए कक्षा में यह स्वीकार नहीं करती कि ओमप्रकाश वाल्मीकि उसके चाचा हैं। उसने उन्हें बताया कि अगर वह स्वीकार कर लेती तो ‘‘सभी सहपाठिनों को पता चल जाता कि मैं ‘वाल्मीकि’ हूँ… आप फेस कर सकते हैं, मैं नहीं कर सकती… ।’’ (जूठन, पृ. 153) यह स्थिति सिर्फ सीमा की नहीं, अधिकांश पढ़े-लिखे दलितों की है। जहाँ ‘जाति’ ही मान-सम्मान व योग्यता का आधार हो, सामाजिक श्रेष्ठता के लिए महत्त्वपूर्ण कारक हो, वहाँ सरनेम छिपाने या बदलने से समाधान नहीं निकलेगा। सारे हीनता बोध त्यागकर जातिगत भेदभाव के खिलाफ विरोध और संघर्ष की चेतना लेकर आगे आना होगा। समाज के प्रगतिचेता लोगों की पहचान करनी होगी और उनके साथ संवाद करना होगा। समस्या का समाधान यानी सामाजिक बदलाव पलायन से नहीं, संघर्ष और संवाद से आएगा। ‘तमाम हादसों’ के बावजूद ओमप्रकाश वाल्मीकि ने सरनेम नहीं छोड़ा, उनके मन में जाति से सम्बन्धित किसी तरह का हीनता बोध नहीं रहा। ‘‘जाति को न छुपाना हीनता-ग्रन्थि से उबरने की एक चेष्टा है, अपने आत्मविश्वास को अर्जित करने की एक कोशिश है।’’ (बजरंग बिहारी तिवारी, हंस, पृ. 14) आज ‘वाल्मीकि’ सरनेम लेखक के नाम का एक जरूरी हिस्सा बन गया है, उसके संघर्षों, सरोकारों का साथी बन गया है। सचमुच ‘वाल्मीकि’ के बिना आज ‘ओमप्रकाश’ की कोई पहचान नहीं है।
- निष्कर्ष
जूठन निश्चय ही एक महत्त्वपूर्ण कृति है। यह दलित चेतना के विकास की कहानी कहने के साथ-साथ उसे आगे भी बढ़ाती है। यह अवश्य है कि लेखक ने आत्मकथा में अपने विवेक से अपनी दृष्टि से, अपने जीवन का वर्णन किया है। तथा शेष समाज के बारे में अपनी दो टूक राय भी व्यक्त की है। चूँकि लेखक की दृष्टि में मौलिकता है, अतः यह आत्मकथा सभी पाठकों के लिए पठनीयता का आनन्द प्रदान करने वाली है।
you can view video on जूठन का आलोचनात्मक अध्ययन |
अतिरिक्त जाने
पुस्तकें
- जूठन’ ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- मुख्यधारा और दलित साहित्य, ओमप्रकाश वाल्मीकि, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
- ‘दलित साहित्य की विकास-यात्रा’(ओमप्रकाश वाल्मीकि के साक्षात्कार), डॉ.राम चन्द्र, संकलन एवं संपादन, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
- दलित साहित्य का समाजशास्त्र, हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
- दलित चेतना साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार?, रमणिका गुप्ता, समीक्षा प्रकाशन, दिल्ली
- परम्परागत वर्ण व्यवस्था और दलित साहित्य, साक्षान्त मस्के, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
वेब लिंक्स-
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%93%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BF
- http://www.samayantar.com/joothan-casteism-and-om-prakash-valmiki/
- http://www.bbc.com/hindi/india/2013/11/131117_omprakash_valmiki_manager_pandey_ap
- http://www.hindisamay.com/writer/%E0%A4%93%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6-%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BF.cspx?id=54&name=%E0%A4%93%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6-%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BF