27 छप्पर
अमिष वर्मा
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- दलित उपन्यासों में छप्पर का सहित्यिक महत्त्व समझ पाएँगे।
- छप्पर के कथानक से परिचित हो सकेंगे।
- छप्पर में अभिव्यक्त दलित चेतना का स्वरूप समझ सकेंगे।
- छप्पर के मूल उद्देश्य से परिचित हो सकेंगे।
- दलित मुक्ति और संघर्ष के विभिन्न आयामों को समझ पाएँगे।
2. प्रस्तावना
जयप्रकाश कर्दम रचित छप्पर हिन्दी दलित साहित्य के आरम्भिक उपन्यासों में से एक है। इसकी रचना सन् 1994 में हुई। कई आलोचक इसे हिन्दी दलित साहित्य का प्रथम उपन्यास मानते हैं। यह उपन्यास अम्बेडकर और बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों से प्रेरित और दलित चेतना से परिपूर्ण है। जिस समय इस उपन्यास की रचना हुई उस समय हिन्दी दलित साहित्य में दलित आत्मकथाओं का वर्चस्व था। इस दृष्टि से छप्पर ने उपन्यास विधा के रूप में हिन्दी दलित साहित्य के लिए नई जमीन तैयार की। अम्बेडकर के सिद्धान्तों को आधार बनाते हुए उपन्यासकार ने छप्पर द्वारा नवीन व्यवस्था की संकल्पना पेश की है। यह उपन्यास दलित आक्रोश और दलित चेतना को नई दिशा देने की कोशिश करता है , इस कारण हिन्दी दलित उपन्यास की परम्परा में छप्पर का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
3. कथानक
छप्पर की कहानी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गाँव मातापुर से शुरू होती है। इस उपन्यास की कथा के केन्द्र में सुक्खा नामक एक दलित का परिवार है। सुक्खा और उसकी पत्नी रमिया अत्यन्त गरीब है। उनकी आशाओं का समस्त केन्द्र-बिन्दु उनका इकलौता बेटा चन्दन है। सुक्खा स्वयं अनपढ़ खेत मजदूर है, लेकिन शिक्षा का महत्त्व समझता है। इसलिए वह अपने बेटे चन्दन को हर हाल में पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाना चाहता है। वह मेहनत-मजदूरी करके चन्दन को पढ़ने के लिए शहर भेजता है। गाँव के सवर्णों को एक दलित चमार के बेटे का शहर में जाकर पढ़ना नहीं भाता है। वे इसे अपना अपमान समझते हैं। वे चन्दन को शहर से वापस मातापुर बुलाने हेतु सुक्खा को कहते हैं। लेकिन सुक्खा सबकी बात टाल जाता है। इस कारण से उसे अपने गाँव के ‘सवर्ण जाति’ के लोगों का बहिष्कार भी झेलना पड़ता है। सुक्खा जानता है कि दलित जीवन की नारकीय स्थिति से निकलने का एकमात्र रास्ता शिक्षा है। उधर चन्दन शहर जाता है, तो वहाँ भी दलितों की स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पाता है। वहाँ भी वह देखता है कि जे जे कॉलोनी में दलित और मजदूर नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। अन्धविश्वास और अन्य सामाजिक बुराइयों से वे घिरे हुए हैं। चन्दन अपनी पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें भी जागरूक करने का लक्ष्य बनाता है। वह इन लोगों के भीतर व्याप्त ईश्वर, धार्मिक कर्मकाण्ड और अन्य अन्धविश्वासों, मान्यताओं को तार्किक ढंग से तोड़ता है। वह अपने कॉलेज के अन्य दलित सहपाठियों को भी अपने समाज के लिए कुछ करने को प्रेरित करता है।
चन्दन इस उपन्यास का केन्द्रीय पात्र है। किसी भी रचना के दलित साहित्य होने की प्राथमिक शर्त है, उसमें अम्बेडकरवाद से प्रेरित दलित चेतना की अभिव्यक्ति। डॉ. अम्बेडकर द्वारा दिया गया सूत्र ‘शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो’, अम्बेडकरवाद का केन्द्रीय तत्त्व है। इस उन्यास का केन्द्रीय पात्र चन्दन, शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का मूल मानता है। यही कारण है कि वह दलित बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल खोलता है और सभी दलितों को अपने बच्चों को हर-हाल में पढ़ाने के लिए कहता है। चन्दन के इस कार्य में, शहर में उसका मकान मालिक हरिया भी मदद करता है, जो स्वयं एक दलित है। हरिया की बेटी कमला भी चन्दन की सहयोगी बनती है। कमला एक बलात्कार पीड़ित दलित महिला है। जिसे इस व्यवस्था से न्याय नहीं मिलता है। उसे बलात्कार के कारण एक बच्चा (खिल्लर) भी होता है। कमला उस बच्चे को पालती है। उसे पढ़ाना चाहती है। कमला जब चन्दन के स्कूल में अपने बच्चे का नाम लिखवाने आती है, तो बाप के नाम की जगह भी अपना ही नाम बताती है। वह प्रश्न खड़ा करती है कि क्या बच्चे के बाप का नाम आवश्यक है? सिर्फ माँ का ही नाम किसी बच्चे की पहचान के लिए पर्याप्त नहीं है? एक दलित स्त्री द्वारा भोगे जाने वाली यातना और उसके संघर्ष का प्रतिनिधित्व कमला करती है।
हरिया, कमला और कई लोगों के सहयोग से चन्दन द्वारा शुरू किया गया कार्य धीरे-धीरे आन्दोलन का रूप धारण कर लेता है। उसके आन्दोलन से दलितों के भीतर अपने अधिकारों को लेकर जागरूकता आती है और वे अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं। इस बदलाव से सामन्ती और ब्राह्मणवादी मानसिकता के पोषक – ठाकुर हरनाम सिंह, काणा पण्डित और सत्ता में बैठे अन्य लोग चिन्तित होते हैं। वे इस ‘समानवादी आन्दोलन’ को कुचलने की साजिश करते हैं। परन्तु इस उपन्यास में यह भी दिखाया गया है कि सभी ‘सवर्ण जाति’ के लोग एक जैसे नहीं होते। इस उपन्यास की एक अन्य स्त्री पात्र और ठाकुर हरनाम सिंह की एकलौती बेटी रजनी दलितों की शिक्षा और समानता की पक्षधर है। वह अपने पिता द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों का विरोध करती है और चन्दन द्वारा किए जा रहे कार्यों में हिस्सा लेती है। वह चन्दन से बचपन से ही प्रेम करती है। रजनी पढ़े-लिखे गैर दलित वर्ग के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है, जो दलितों के प्रति सहानुभूति का भाव रखता है और दलितों की समानता का समर्थन करता है।
उपन्यास का अन्त बहुत ही फिल्मी, काल्पनिक और आदर्शात्मक ढंग से होता है। चन्दन से रजनी और कमला दोनों प्रेम करते हैं। कमला, रजनी और चन्दन की खुशी के लिए चन्दन के प्रति अपने प्रेम का उत्सर्ग कर देती है। चन्दन पर हुए एक हमले में वह चन्दन को बचाती हुई मारी जाती है। ठाकुर हरनाम सिंह का हृदय-परिवर्तन हो जाता है। वे अपनी बेटी रजनी का विवाह दलित युवक चन्दन से करवाने के लिए तैयार हो जाते हैं और अपनी सारी जमीन गाँव के दलितों में बाँट देते हैं। यहाँ एक तरह के यूटोपिया का निर्माण होता है। इसके द्वारा उपन्यासकार ने सम्भवतः भविष्य में बनने वाली समाज की रूपरेखा खींची है।
4.छप्पर में अभिव्यक्त सामाजिक संरचना
उपन्यासकार ने छप्पर द्वारा भारत की जाति-व्यवस्था को सूक्ष्मता से पकड़ने और पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का कार्य किया है। भारतीय समाज में जाति और वर्ग एक दूसरे के कितने निकट हैं, यह उपन्यास की शुरुआत से ही स्पष्ट हो जाता है – “गंगा के तट पर बसा पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक छोटा-सा गाँव है मातापुर। अन्य भारतीय गाँवों की तरह मातापुर में थोड़े से लोग सुखी और सम्पन्न तथा शेष लोग दीन और दरिद्र हैं। सुखी-सम्पन्न लोगों में सवर्ण कहलाने वाले ब्राह्मण-पुरोहित, ठाकुर-जमीन्दार तथा लाला-साहूकार हैं। दूसरे गाँवों की तरह सवर्ण लोग ऊपर की ओर तथा अवर्ण कहे जाने वाले दलित लोग गंगा के बहाव की ओर निचान में बसे हैं।” (छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 5)
मातापुर गाँव की यह परिस्थिति पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती है। आज भी भारतीय गाँवों में दलितों की कमोबेश यही स्थिति है। उपर्युक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि सामाजिक संरचना से ही गाँवों में भौगोलिक और आर्थिक संरचना का निर्धारण होता है और ये सारी संरचनाएँ जाति के आधार पर निर्मित होती हैं। अगर कोई दलित इस सामाजिक संरचना को तोड़ने की कोशिश करता है तो तथाकथित उच्च जाति के लोग उस पर जुल्म ढाते हैं। चन्दन की पढ़ाई का विरोध वे इसीलिए करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनका सदियों से कायम वर्चस्व खत्म हो जाएगा। अनपढ़ होने के बावजूद सुक्खा के भीतर इतनी चेतना है कि चन्दन की पढ़ाई मे वह अपनी मुक्ति का एकमात्र रास्ता देखता है। यही कारण है कि वह शहर से चन्दन को वापस बुलाने के लिए गाँव के ‘सवर्णों’ द्वारा दिए जा रहे दबावों और प्रलोभनों को मानने से इनकार कर देता है। सुक्खा के इनकार के बाद मातापुर गाँव के ‘सवर्णों’ की प्रतिक्रिया भारतीय समाज की जातिगत-व्यवस्था के उस पक्ष को उजागर करता है, जिसमें दबंग जातियाँ हर-हाल में अपनी स्थिति को बनाए रखना चाहती हैं। गाँव के ‘सवर्णों’ ने सुक्खा को उस जमीन से बेदखल कर दिया और यह भी फैसला लिया कि वे सुक्खा को कोई काम नहीं देंगे। चूँकि गाँवों में अधिकांश जमीनें ‘सवर्णों’ के ही हाथ में होती हैं, इस वजह से गाँव की अर्थव्यवस्था पर भी उनका नियन्त्रण होता है। इस कारण वे किसी भी दलित पर अपनी बात मानने के लिए दबाब डाल सकते हैं, ऐसा नहीं करने पर उस दलित के परिवार को भूखा मरना पड़ेगा। सामाजिक संरचना को आर्थिक संरचना किस तरह नियन्त्रित करती है, यह इस उपन्यास में बारीकी से दिखाया गया है।
सामन्तवाद और पुरोहितवाद बगैर किसी श्रम और प्रतिभा के कुछ लोगों को लाभ प्रदान करता है। इस तथ्य को भी ठाकुर हरनाम सिंह और पण्डित काणाराम के चरित्रों के माध्यम से दिखाया गया है। ठाकुर हरनाम सिंह कभी अपने खेत पर काम नहीं करते हुए भी अच्छा जीवन जी रहा है। उसके खेत में फसलें दलितों के मेहनत से उपज रही हैं। इसी तरह पण्डित काणाराम बिना किसी उच्च शिक्षा के सिर्फ जन्म से ब्राह्मण होने के कारण पुरोहिताई का मजा ले रहा है– “किसी और मुल्क या गैर जाति में पैदा हुआ होता तो भूखा मरता काणाराम, लेकिन धन्य हो भारत की समाज व्यवस्था कि यहाँ पर ब्राह्मण भूखा मर ही नहीं सकता। व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी न किसी रूप में ब्राह्मण उससे टैक्स वसूल करता है। चाहे कितना भी अशिक्षित, अयोग्य और अक्षम क्यों न हो लेकिन एक ब्राह्मण, पण्डित-पुरोहिताई करके सुख और सम्मान से जी सकता है।” (छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 31)
उपर्युक्त पंक्तियों में जाति-व्यवस्था की उस बिडम्बना को दिखाया गया है, जिसमें किसी खास जाति में पैदा होने भर से व्यक्ति की नियति निर्धारित होती रही है। उसकी प्रतिभा, ज्ञान और शिक्षा से पहले उसकी जाति आती है या यूँ कहें कि इन सबका का निर्धारण सिर्फ जाति से ही होता रहा है।
ऐसी मान्यता है कि शहरों में कल-कारखानों के खुलने और शिक्षा के अधिक अवसर होने के कारण, यहाँ दलितों की स्थिति बेहतर हो सकती है। यह उपन्यास इस मान्यता की असलियत दिखाता है। शहरों में दलितों के लिए अपनी स्थिति सुधारने के गाँवों से अधिक अवसर होते हैं, लेकिन इसकी भी सीमा है। यह उपन्यास इस सीमा को रेखांकित करता है। चन्दन जब शहर में आया तो उसे लगा कि यहाँ दलितों की स्थिति भिन्न होगी। गाँव की तरह जातिवाद और आतंक का राज नहीं होगा। लेकिन यहाँ भी उसने दलितों की स्थिति भिन्न नहीं पाई – “केवल ‘कालोनी’ शब्द ही विभाजक रेखा है गाँव और शहरों के बीच, अन्यथा शहरों की इन झुग्गी-झोपड़ियों या खोलियों में रहने वाले लोगों तथा गाँव में गारा-मिट्टी या घास-फूस के झोपड़े-छप्परों में रहने वाले लोगों के जीवन-स्तर में कोई खास अन्तर नहीं है। शहर में भी बहुत से दलित और दरिद्र लोग बिना छुकी-भुनी सब्जी खाते हैं या केवल पानी या चाय के साथ नमक की रोटियाँ गले से नीचे उतारकर जिन्दा रहते हैं। फाका भी रह जाता है बहुत से घरों में।” (छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 10)
छप्पर में सिर्फ गाँवों में ही नहीं बल्कि शहरों में व्याप्त असमानता का चित्रण हुआ है। यहाँ गाँव और शहर दोनों जगहों की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना को जाति और वर्ग की दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया गया है। गाँव हो या शहर, सामाजिक-आर्थिक स्थिति का निर्धारक जाति है। जिस तरह का शोषण दलितों का गाँवों में होता है, ठीक उसी तरह का शोषण शहरों में मजदूरों का होता है – “रही काम की बात, सो दिन-रात कमरतोड़ मेहनत करके भी आदमी को दो जून की रोटी मयस्सर नहीं हो पाती ठीक से। बीस-तीस रुपये का काम कराकर मालिक छह-सात रुपये देता है – दिहाड़ी के। भूखा पेट क्या करे,जो मिल जाए उसी से सन्तोष करना पड़ता है। ज्यादा दिहाड़ी की बात करें भी तो कैसे, क्या पता कल को उससे भी हाथ धोना पड़ जाए।” (छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 11)
यह उपन्यास इस तथ्य को भी उजागर करता है कि इनमें से अधिकतर मजदूर दलित समुदाय के ही होते हैं। छप्पर में जाति-व्यवस्था को सामाजिक-संरचना के चालक शक्ति के रूप में दिखाया गया है। जाति-व्यवस्था की, चाहे वह ग्रामीण हो या शहरी सामाजिक-संरचना में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
5. दलित चेतना और संघर्ष का स्वरूप
छप्पर से पहले भी हिन्दी में दलितों द्वारा कुछ उपन्यास लिखे जा चुके थे। फिर भी छप्पर को ही हिन्दी का प्रथम दलित उपन्यास माना जाता है। इसकी वजह है छप्पर से पूर्व लिखे गए उपन्यासों में दलित चेतना की अभिव्यक्ति का अभाव। इस सन्दर्भ में डॉ. एन. सिंह कहते हैं– “ऐसा नहीं है कि इससे पूर्व दलित लेखकों ने उपन्यास लिखे ही नहीं हैं या वह प्रकाशित नहीं हुए हैं। इससे पूर्व बलवन्त सिंह चार्वाक का उपन्यास भूखी चिनगारी की लाल मुस्कराहट तथा डॉ. धर्मवीर का उपन्यास पहला खत प्रकाशित हो चुके हैं। ये दोनों उपन्यास दलित लेखकों द्वारा तो लिखे गए हैं, लेकिन इनमें दलित चेतना की अभिव्यक्ति नहीं हुई है, इसलिए छप्पर को ही पहला दलित उपन्यास माना जाना चाहिए ऐसा मेरा विनम्र मत है।” (दलित अभिव्यक्ति : संवाद और प्रतिवाद, सं. रूपचन्द गौतम, श्री नटराज प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 14)
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि छप्पर में अभिव्यक्त दलित चेतना ही इसे हिन्दी दलित उपन्यासों में विशिष्ट स्थान प्रदान करता है। यह उपन्यास अम्बेडकरवाद और बौद्ध धर्म के दर्शन को दलित मुक्ति और दलित चेतना का केन्द्र बिन्दु मानता है। डॉ. अम्बेडकर के सूत्र वाक्य ‘शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो’ में से, इस उपन्यास की केन्द्रीय भावना ‘शिक्षित बनो’ है।
इस उपन्यास के सारे पात्र दलित मुक्ति के लिए शिक्षा को सबसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं। ऐसा नहीं है कि ‘संगठित हो’ और ‘संघर्ष करो’ इस उपन्यास से गायब है, लेकिन इनका स्थान इस उपन्यास में ‘शिक्षित बनो’ के बाद ही आता है। इस उपन्यास का मुख्य पात्र चन्दन दलित मुक्ति के लिए शिक्षा को सर्वोपरि मानता है। वह जानता है कि पूरा दलित समाज अन्धविश्वास में जकड़ा हुआ है। दलित समाज में व्याप्त अन्धविश्वास को दूर किए बगैर उनकी मुक्ति सम्भव नहीं है और इसके लिए दलितों का शिक्षित होना अनिवार्य है – “‘धर्म-ग्रन्थ’ ही हमारे शोषण और अत्याचार की जड़ें हैं। इन जड़ों को उखाड़ फेंकने की जरूरत है। और उसके लिए जरूरी है कि लोग अधिक-से-अधिक पढ़ें, ताकि इन धर्म-ग्रन्थों में निहित अन्याय और असमानता के दर्शन को समझ सकें तथा अन्याय, शोषण और असमानता के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए स्वयं को तैयार कर सकें। हमारे शोषण का आधार क्या है, हमारे उत्थान और विकास में कौन से तत्त्व बाधक हैं, यह जाने बिना सार्थक संघर्ष नहीं किया जा सकता। यह ज्ञान शिक्षा से ही हो सकता है, इसलिए शिक्षा का होना बहुत जरूरी है। जीवन की लड़ाइयाँ लड़ने के लिए शिक्षा सबसे ज्यादा मारक और शक्तिशाली शस्त्र है।” (छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 40-41)
यह उपन्यास मानता है कि दलित चेतना का विकास शिक्षा द्वारा ही होगा। दलितों की मुक्ति का मार्ग इसी से खुलेगा। शिक्षा से ही वे आगे बाढ़ सकते हैं, संगठित हो सकते हैं और संघर्ष कर सकते हैं। दलित समाज में शिक्षा का महत्त्व इस उपन्यास के पढ़े-लिखे और नई पीढ़ी के पात्रों के अतिरिक्त पुरानी पीढ़ी के सुक्खा और हरिया जैसे लोग भी समझते हैं। सुक्खा हर-हाल में अपने पुत्र चन्दन को अच्छी शिक्षा देना चाहता है तो शहर में हरिया चन्दन की हर तरह से मदद करता है। चन्दन के माध्यम से उपन्यासकार ने नई पीढ़ी के उस दलित युवक की रचना की है जो अपने जीवन को अम्बेडकरवाद और बौद्ध-दर्शन से प्रेरणा लेकर दलित समाज की स्थिति को बदलना चाहता है। चन्दन के लिए सामाजिक परिवर्तन सबसे ऊपर है। वह जानता है कि – “दलितों के लिए अवसर की समानता का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि जाति की बाधा दलित को अवसर का उपभोग नहीं करने देती।” (छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 37)
यही कारण है कि चन्दन सामाजिक सम्मान को सबसे प्रमुख मनाता है। कॉलेज में अपने अन्य दलित सहपाठियों को वह कहता है कि – “मैं तो कहता हूँ कि हमें प्रत्येक क्षेत्र में आना चाहिए। केवल सामाजिक रूप से ही हमारी प्रस्थिति निम्न नहीं है, बल्कि आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक, प्रत्येक क्षेत्र में हम पिछड़े हुए हैं। हमें प्रत्येक क्षेत्र में ऊपर आने की जरूरत है, लेकिन सबसे पहली जरूरत है – सामाजिक सम्मान की। यदि तुम्हारी सामाजिक हैसियत है, तो तुम्हारे लिए हर कहीं गुंजाइश हो सकती है। यदि तुम्हारी कोई सामाजिक हैसियत नहीं है तो तुम चाहे कोई भी काम कर लो, कितना भी धन कमा लो, उस सबका कोई महत्त्व नहीं है। पैसा भी जीवन का एक फैक्टर है, मैं इससे इनकार नहीं करता, लेकिन इससे पहले जरूरी है समाज में तुम्हारी हैसियत का होना।” (छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 37-38)
चन्दन पढ़-लिखकर सिर्फ अपने बारे में सोचने वाले दलितों पर भी सवाल खड़ा करता है। उसका मानना है कि किसी एक व्यक्ति के प्रगति या मुक्ति को दलित समाज की मुक्ति नहीं माना जा सकता। वह यह मानता है कि दलित समाज के युवकों को हर क्षेत्र में आना चाहिए, लेकिन उन्हें सिर्फ अपने तक सीमित होकर नहीं रहना चाहिए। ऐसे लोगों को दलित समाज के उत्थान में लगना चाहिए– “ खाने के लिए अच्छा भोजन, पहनने के लिए अच्छा कपड़ा और रहने के लिए अच्छा मकान कौन नहीं चाहता। मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है की हमें इस सबके लिए प्रयास नहीं करना चाहिए। मैं भी चाहता हूँ यह सब, लेकिन मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि इसके साथ-साथ हमें इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए। सदियों से दासता और गुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा हमारा समाज। खाली पेट, नंगे तन और टूटे-फूटे छान-झोपड़ों में बसर करने की विवशता, यही रहा है सैकड़ो-हजारो वर्षों से हमारे समाज का यथार्थ। हम लोग पढ़-लिख गए हैं, लेकिन हमारा समाज, हमारे नाते-रिश्तेदार सबके सब अभी भी उसी स्थिति में हैं, उन सबकी निगाहें हमारी ओर हैं। यदि उनके उत्थान की ओर हम ही ध्यान नहीं देंगे तो कौन देगा। और क्या तुम चाहोगे कि हमारे कुटुम्बी, नाते-रिश्तेदार सदा जिल्लत की जिन्दगी ही जीते रहें?… …संघर्ष करने की भावना और शक्ति हर किसी में नहीं होती। इसलिए वे लोग संघर्षों से टूट न जाएँ, उनके आगे समर्पण न कर दें, इस स्थिति से बचने के लिए उनको हमारी मदद की जरूरत होगी। आर्थिक, प्रशासनिक और कानूनी, उनको हर तरह की मदद चाहिए। इसलिए हमारा कर्त्तव्य बनता है कि हम चाहे जिस क्षेत्र में जाएँ, लेकिन अपने लोगों का ध्यान रखें और उनकी मदद करें।” (छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 38-39)
वास्तव में चन्दन का चरित्र दलित समाज के कृतघ्न लोगों के ऊपर प्रश्न-चिह्न खड़ा करता है। उपन्यासकार ने चन्दन जैसे आदर्श चरित्र की परिकल्पना इसीलिए की है, ताकि वे यह बता सकें कि किस तरह के लोग दलित समाज की मुक्ति का मार्ग खोज पाएँगे।
दलित समाज की मुक्ति में एक बड़ा बाधक है उनका अन्धविश्वास और ईश्वरीय सत्ता में विश्वास। ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने दलितों को हमेशा विद्रोह करने से यह कहकर रोका है कि उनकी वर्तमान दयनीय स्थिति पूर्वजन्म में किए गए पापों का परिणाम है। ईश्वर, आत्मा-परमात्मा आदि का भय दिखाकर सदियों से उनका शोषण किया गया है। ब्राह्मणवाद के कर्मकाण्डों और विश्वासों को सबसे पहले बुद्ध ने चुनौती दी थी। इसी कारण दलित साहित्य और अम्बेडकरवाद पर बौद्ध-दर्शन का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। इस उपन्यास में भी इसके मुख्य पात्र चन्दन ने बौद्ध-दर्शन से प्रभावित होकर ईश्वरीय सत्ता और अन्धविश्वास का कई जगह खण्डन किया है – “उल्टी-पुल्टी नहीं, साफ-सीधी बात कह रहा हूँ मैं। दुनियाँ में ऐसा कोई भगवान, ईश्वर या परमात्मा नहीं है, जो सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। जो सबको पैदा करने वाला, पालन करने वाला और संहार करने वाला है। जो शाश्वत और चैतन्य है। जो जगत का नियामक तथा अनादि और अनन्त है। यह मान्यता असत्य, भ्रामक तथा वैज्ञानिकता से परे है। यदि तुम लोग इस बात को मानते हो, तो यह तुम लोगों की भूल है। सचाई यह है कि दुनियाँ में आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, ब्रह्म और भगवान या इस तरह की किसी सत्ता का कोई अस्तित्व नहीं है। मनुष्य सबसे बड़ी सत्ता है, दुनियाँ में मनुष्य से बड़ी कोई चीज नहीं है। आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, ब्रह्म और भगवान, इसमें से कोई भी वास्तविक नहीं है। ये सब मिथक हैं, काल्पनिक हैं तथा भोले-भाले लोगों को बेवकूफ बनाकर अपने स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से चालाक लोगों द्वारा ईजाद किए गए हैं।” (छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 17)
वह इन कर्मकाण्डों के असली उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहता है – “इस सबका कोई औचित्य नहीं है सिवाय इसके कि इसके सहारे कुछ लोगों की आजीविका चलती है और उनको मेहनत करके कमाने की जरूरत नहीं पड़ती।” (छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 18)
इस उपन्यास की एक खूबी है कि वह डॉ. अम्बेडकर के नारे ‘शिक्षित बनो, संगठित हो,संघर्ष करो’ में से ‘शिक्षित बनो’ को दलित मुक्ति के लिए केन्द्रीय भाव मानते हुए ‘संगठित हो’ और ‘संघर्ष करो’ को इससे जोड़ता है। इसलिए चन्दन बार-बार इस उपन्यास में शिक्षा के मूल उद्देश्य को स्पष्ट करता है। उसके लिए शिक्षा व्यक्तिगत उन्नति या मुक्ति नहीं, बल्कि सामाजिक मुक्ति का मुख्य हथियार है। वह समाज को शिक्षित इसीलिए करना चाहता है, ताकि दलित समाज के लोग जागरूक होकर संगठित हो पाएँ और अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष कर सकें– “हम थोड़े से लोग चीख-चीखकर मर जाएँगे, कौन सुनेगा हमारी चीख को। हमें समाज से टक्कर लेनी है, सत्ता से लड़ाई लड़नी है, जुल्म और शोषण के विरुद्ध संघर्ष करना है। एक-दो आदमी के बस का नहीं है यह काम। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इन सबके लिए फौज चाहिए, वह फौज तैयार करूँगा मैं।” (छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 40)
बौद्ध-दर्शन के प्रभावित इस उपन्यास कि एक विशेषता यह भी है कि चन्दन संघर्ष के लिए हिंसा नहीं बल्कि अहिंसा को आवश्यक मानता है। इस उपन्यास के पात्रों और कथानक द्वारा लेखक ने दलितों के भीतर व्याप्त गैर-दलितों के प्रति घृणा और बदले की भावना की प्रवृत्ति का भी विरोध किया है। वह इस भावना को अतिवाद मानते हैं। चन्दन इस अतिवाद का विरोध करते हुए कहता है– “हम व्यवस्था के विरोधी हैं व्यक्ति के नहीं। हमारी लड़ाई व्यवस्था के खिलाफ है, किसी व्यक्ति से कोई द्वेष नहीं है हमें।” (छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 109)
इस उपन्यास में उस दृष्टि का भी विरोध किया गया है, जिसमें दलितों की मुक्ति में गैर-दलितों के सहयोग का विरोध किया जाता है। रजनी के चरित्र द्वारा लेखक इस बात को स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं कि दलितों की मुक्ति के संघर्ष में गैर-दलित वर्ग की सहभागिता का स्वागत करना चाहिए। इस पात्र के निर्माण द्वारा वे नवीन समतामूलक समाज की स्थापना में गैर-दलितों के सहयोग और योगदान के पक्ष में खड़े होते हैं।
इस उपन्यास का अन्त किसी फिल्म की तरह नाटकीय अन्दाज में होता है। चूँकि अभी भी समाज में दलितों के प्रति भेदभाव जारी है और उपन्यासकार का उद्देश्य सिर्फ इस भेदभाव को उजागर करना ही नहीं है, इसीलिए उन्होंने एक ‘यूटोपिया’ का सहारा लिया है। ठाकुर हरनाम सिंह का हृदय-परिवर्तन गाँधीवाद से प्रेरित लगता है। लेखक ने अपने आदर्श समाज की परिकल्पना के लिए अम्बेडकरवाद, बौद्ध-दर्शन के साथ-साथ गाँधीवाद का भी अन्त में सहारा लिया है। इस तरह इस उपन्यास द्वारा लेखक ने भविष्य के समाज की एक रूपरेखा देने की कोशिश की है, क्योंकि वर्तमान समय में ठाकुर हरनाम सिंह जैसे पात्रों का हृदय-परिवर्तन एक असम्भव कार्य है। ओमप्रकाश वाल्मीकि इस सन्दर्भ में कहते हैं – “दलित जीवन के यथार्थ को शब्द-बद्ध करके सिर्फ उनकी दशा का चित्रण कर देना ही लेखक का मुख्य उद्देश्य नहीं है बल्कि उनकी सोच और प्रतिबद्धता को एक दिशा देने की कोशिश भी करता है।” (दलित अभिव्यक्ति : संवाद और प्रतिवाद, सं. रूपचन्द गौतम, श्री नटराज प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 48)
6. निष्कर्ष
दलित चेतना की सार्थक अभिव्यक्ति के कारण छप्पर हिन्दी का पहला दलित उपन्यास माना जाता है। इस उपन्यास में अपने समय और यथार्थ की सूक्ष्म पकड़ मौजूद है। चन्दन, कमला और रजनी जैसे नई पीढ़ी के पात्रों के संघर्ष और त्याग द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन की आकांक्षा की अभिव्यक्ति हुई है तो हरिया, सुक्खा जैसे पात्रों द्वारा पुरानी पीढ़ी के संघर्ष का चित्रण किया गया है। शिक्षा को दलित मुक्ति और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन का मुख्य आधार मानते हुए यह उपन्यास अम्बेडकरवाद के साथ-साथ बौद्ध-दर्शन और गाँधीवाद का भी सहारा लेता है। दलित आन्दोलन के भीतर जाति बनाम वर्ग, स्वानुभूति बनाम सहानुभति, दलित बनाम गैर-दलित जैसे प्रश्नों को भी इस उपन्यास में लेखक ने एक सार्थक दिशा देने की कोशिश की है। इस लिहाज से भी यह एक महत्त्वपूर्ण दलित उपन्यास कहा जा सकता है। अपनी कुछ सीमाओं के बावजूद छप्पर हिन्दी में दलित उपन्यासों की रचना हेतु मजबूत पूर्वपीठिका तैयार करता है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, देवेन्द्र चौबे, ओरियंट ब्लैक स्वान, दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- दलित चेतना: साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार, रमणिका गुप्ता, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली
- दलित साहित्य, जयप्रकाश कर्दम, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- अन्तिम दो दशकों का हिन्दी साहित्य, मीरा गौतम(संपा.), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- छप्पर, जयप्रकाश कर्दम, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- विमर्श के विविध आयाम, डॉ.अर्जुन चव्हाण, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
- दलित चेतना साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार?, रमणिका गुप्ता, समीक्षा प्रकाशन, दिल्ली
- दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ. एन.सिंह , वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
वेब लिंक्स
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- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF_/_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%AC%E0%A5%87
- http://rsaudr.org/show_artical.php?&id=3357
- http://www.dalitmat.com/index.php/shakhsiyat/1323-omprakash-valmiki-who-creat-hero-in-dalits
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%9C%E0%A4%AF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AE
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