35 ग्लोबल गाँव के देवता
रमेश चन्द मीणा
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- ग्लोबल गाँल के देवता उपन्यास के कथ्य और समस्या की जानकारी लेंगे।
- आदिवासी अस्मिता और उनके संकट का अनुमान करेंगे।
- आदिवासी जीवन की मूल संवेदना समझ सकेंगे।
- भूमण्डलीकरण के साथ आने वाले संकट के बारे में जान सकेंगे।
- आदिवासी बनाम विकास में सरकार की भूमिका समझ सकेंगे।
2. प्रस्तावना
रणेन्द्र का उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता आदिवासी प्रकृति, जीवन, समाज और उनके संकट की पहचान करवाने वाले साहित्य की कड़ी में महत्त्वपूर्ण है। आदिवासियों की परम्परा, रीति रिवाज और विश्वास ही नहीं विकास के अभियान से आदिवासियों को अपनी अस्मिता को बचा पाना मुश्किल हो गया है। वे आधुनिक दौर में पूरी तरह सकंटग्रस्त हो चले हैं। आदिवासी के कुछ संकट शुरुआत से रहे हैं, उनमें से कुछ रूप बदलकर और भयावह हो गए हैं। ये संकट आदिवासी तक ही सीमित नहीं रहने वाले हैं। चेतवानी आदिवासी साहित्य भलीभाँति देश और समाज को दे रहा है। आलोच्य उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता में पाठकों को सहज सरल भाषा में इस चेतावनी की जानकारी दी गई है।
3. उपन्यास का सारांश
ग्लोबल गाँव के देवता उपन्यास भूमण्डलीकरण के प्रभाव से लुप्त हो रही आदिवासी सभ्यता और संस्कृति की कहानी है। उपन्यास के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह भूमण्डलीकरण और देवता (प्राचीन संस्कृति) के मेल मिलाप पर आधारित कथा है। उपन्यास में असुर आदिवासियों की पीड़ा और संघर्ष व्यक्त हुआ है। आदिवासी समुदाय के रहने के हर ठिकाने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए उपयोगी हो उठे हैं। जिस क्षेत्र से इस उपन्यास का सम्बन्ध है, उसमें असुर आदिवासी रहते हैं। वे ही इस उपन्यास के प्रमुख पात्र हैं। इन क्षेत्रों में बाक्साइट की खदानें हैं। इन खदानों से बाक्साइट निकालने के लिए शिण्डाल्को जैसी बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ आदिवासी इलाके में पहुँच चुकी हैं। शिण्डालको ही नहीं, दूसरी बड़ी कम्पनियों की नजर इसी जमीन पर है। इस जमीन को पाने के लिए कम्पनियाँ तरह-तरह के तरीके अपनाती हैं। कुछ स्थानीय लोगों को अपने पक्ष में कर लेती हैं। कुछ लोगों को प्रलोभन देते हैं। कुछ लोगों को डरा-धमका कर जमीन पर कब्जा करने में सफल होते हैं। शिण्डालको की नजर असुरों की जमीन पर है तो गोनू सिंह जैसे-भी मौके की तलाश में हैं। कम्पनियाँ खदानों को खोदकर बड़े-बड़े गड्ढे कर देती है जिससे उनका जीना हराम हो जाता है। पानी में पनपते मच्छरों से मलेरिया उनकी असमय जान ले रहा है। रचना का मूल विषय यही है कि आदिवासियों की लड़ाई अब ऐसे दुश्मनों से है, जिनकी शक्ति बहुत ज्यादा है। जिनकी पहुँच वैश्विक है और जिनके साथ राष्ट्रीय सरकार खड़ी है।
असुर आदिवासी क्षेत्र में कहावत चलती है – ‘घटले खेरवार और बढ़ले राजपूत।’ गोनू सिंह लालचन दा के चाचा का सिर जमीन के लिए काट डालता है। जमीन के लिए वह राजपूत से खेरवार आदिवासी बन जाता है। मुठभेड़ में बालचन असुर के गोली लगती है। सात घायल हो जाते हैं। असुरों द्वारा किए रोपे को उखाड़ कर गोनू अपना रोपा करता है। असुरों की लड़ाई पाँच एकड़ के लिए आरम्भ होती है। उनके लिए यह कोई छोटी लड़ाई नहीं है। इसके लिए वे पड़ोसी दलितों से सहयोग लेते हैं। पड़ोसी है कि पाँच एकड़ के लिए नहीं लड़ सकते। इस घटना से लालचन दा चिन्ता करते हुए सोचते हैं – ‘जिसका उत्तर न उनके पूर्वज तलाश पाए थे और न वे ढूँढ पा रहे है कि कब तक पीछे हटा जाए और कहाँ तक पीछे हटा जाए?’ वे आज से नहीं वैदिक काल से पीछे हट रहे हैं।
असुरों की लड़ाई में दलित भी शामिल होते हैं, तब कोयला प्रखण्ड की सभी खदानों में काम ठप्प हो जाता है। ग्रामीणों, मजदूरों और आदिवासियों का बड़ा जुलूस निकलता है। जुलूस में सबसे आगे बुधनी और एतवारी संघर्ष समिति का बैनर लिए होती है। असुर-कोलों को गम्भीरता से न लेने वाले प्रशासन की परेशानी पर बल पड़ जाते हैं, जब खदान बन्दी तीन दिन के पार पहुँच जाती है। सशस्त्र बल की टुकड़ी शान्त महिला भीड़ को देखकर वापस लौट जाती है। अंचल बन्द तक तो ठीक था, पर जब पाट के तीस-चालीस खदानों में काम बन्द हो जाता है, तब बात स्थानीय न रह कर ग्लोबल गाँव के देवता तक पहुँच जाती है। ग्लोबल गाँव के देवताओं की ‘शक्ति से असुर पहली बार टकराते हैं। अब तक वे भले ही वैदिक देवों से लड़ते-झगड़ते रहे, हारते जीतते रहे। गलोबल गाँव के देवता से तात्पर्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक हैं। जैसे देवता कभी दिखाई नहीं देते, वैसे ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक भी कभी दिखाई नहीं देते। जैसे देवता असुरों के शत्रु हैं, वैसे ये भी असुरों के शत्रु हैं। कम्पनियों के हाथ बहुत लम्बे होते हैं। असुरों से लड़ने वाले कम्पनी के प्रबन्धक किशन कन्हैया पाण्डे पचास के पार होने पर भी कुँवारे हैं। वे अपना काम, साम, दाम, दण्ड, भेद से करने में पीछे नहीं हैं। वे पन्द्रह साल से क्षेत्र में जमे हुए हैं। ग्रामीण युवतियाँ इफरात हैं। ‘जहाँ कहीं अक्षत यौवना मिलती, वे मनोयोग से मन्त्र साधना में डूब जाते।’ लेकिन पहली बार उनका ऐसी चौकड़ी से सामना होता है, जो उनके हाथ से फिसल जाते हैं। पाण्डे जैम्स की बहिन सलोनी को कम्पनी में नौकरी की कीमत पर बन्दी तोड़ लेते हैं। कलेक्टर भी व्यवस्था के साथ होते हैं। असुर कैसे अपनी लड़ाई जीत सकते हैं? पुलिस, वन विभाग और न्यायालय उनके खिलाफ खड़े मिलते हैं।
4. मुख्यधारा के पूर्वग्रह
असुरों को लेकर मुख्यधारा के अपने पूर्वग्रह रहे है। गैर आदिवासी कथानायक का चौकन्ना होना इस बात का सूचक है। जो उसके कमरे में घायल अवस्था में आता है वह असुर है। जो उसका खाना बना रही है, वह असुर है। वह मानकर चलता है कि असुर माने राक्षस। वह बचपन से ही सुनता आया है काले-कलूटे, लम्बे नाखून-दाँत वाले, माथे पर सींग वाले असुर होते हैं। अपनी पूर्वधारणाओं से वह ‘शर्मिन्दा भी होता है। एक गैर-आदिवासी शिक्षक का असुर समुदाय का आँखों देखा हाल बयाँ होता है। हर बाहरी व्यक्ति की तरह वह भी पहले इस क्षेत्र में आने से डरता है। वह स्थानान्तरण करवाने के सारे उपक्रम कर चुका है। ऐसे आधे अधूरे मन से असुरों के बीच आया युवक धीरे-धीरे घुलने-मिलने लगता है, उनके जीवन को स्वस्थ नजरिए को देखता है और वही युवक सबको भूलकर उनकी अस्मिता की लड़ाई में शामिल हो जाता है।
5. उपन्यास में आए पात्र और उनके विश्वास
उपन्यास में पूरा असुर समाज ही नायक की तरह चित्रित है। पात्रों में लालचन, बालचन और रुमझुम है, तो महिला पात्रों में एतवारी और ललिता है। ये पात्र पाठकों की चेतना को झिंझोड़ देते हैं। यहाँ थोड़े में अधिक कहने का भरसक प्रयास किया गया है, इसलिए पात्रों, घटनाओं और समस्याओं की भरमार होते हुए भी केन्द्रीय विषय वस्तु से किसी तरह का विचलन नहीं हो सका है। उपन्यास में पात्रों की अधिकता के साथ भौगोलिक विस्तार भी है। विषय वस्तु का प्रमुख स्थल भौंरापाट होते हुए भी कई अन्य स्थल हैं – कोयलेश्वर आश्रम, सखुआपाट, पाथरपाट, कान्दापाट और अम्बाटोली गाँव। पात्रों के रूप में कथानायक और लालचन के अलावा बालचन, रुमझुम, एतवारी, गोमकाइन, डॉ. रामकुमार, लंगटा बाबा, कन्हैया पाण्डे रामचन, सोमा, भीखा, गन्दूर, बुधनी, ललिता, कविता और नमिता है।
आदिवासी (असुर) समाज सदियों से अपने सामान्य रीति-रिवाजों और अन्धविश्वासों के साथ जीवन जीता आया है। उपन्यास के आरम्भ में असुर युवक के घायल होने का कारण उनका अन्धविश्वास है कि ‘धान को आदमी के खून से सानकर बिचड़ा डालने से फसल बहुत अच्छी होती है।’ इसीलिए फसल के सीजन में मूड़ीकटवा लोग तेज कटार लिए अवसर की तलाश में रहते हैं। ऐसे ही मूड़ीकटवा का शिकार लालचन असुर हो जाता है। ऐसी मूड़ी कटवा क्रिया साल में एकाध हो जाती है। देवी के थान से जब नगाड़े की आवाज आती है, तब उन्हें किसी भक्त की बलि देनी पड़ती है, तभी जाकर नगाड़ा बजना बन्द होता है। सिर काटने की घटना के चलते ही एक गाँव का नाम ‘कटिया’ पड़ जाता है। बलि प्रथा के विकल्प के रूप में कानी उँगली में चीरा लगा दिया जाता है। ये प्रकृतिजीवी असुर अपने अन्धविश्वासों के साथ सदियों से जीते आ रहे हैं। काल-दुष्काल, प्राकृतिक प्रकोप, हारी-बीमारियों को सहते हुए भी जिन्दा रहे हैं। वेद पुराणों में देवताओं से संघर्ष करके भी अपना अस्तित्व बनाए रख सके हैं, पर दुनिया के ग्लोबल गाँव में तब्दील हो जाने से इनकी अस्मिता संकट में पड़ जाती है।
उपन्यास में आया यह गीत आदिवासी अस्मिता के संकट को अभिव्यक्त करता है। असुरों की लड़ाई जिस बड़ी ‘शक्ति के साथ है उसका साथ देश की सरकार भी दे रही है। ऐसे में असुर इसके सिवा क्या गा सकते है?
‘हम बाकी दिन कैसे गुजारेंगे इसका कोई अर्थ
नहीं हमारी रात भरपूर काली रात होने का आश्वासन दे
रही क्षितिज पर एक भी तारा नही’
असुरों का यह गीत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाटक भारत दुर्दशा में आए कारुणिक गीत से मिलता है-
‘आओ सब मिलकर रोवहु भारत भाई। हा-हा भारत दुर्दशा न देखी जाई।’
आदिवासी महाभारत के अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फँसे हुए है। असुरों को एक नहीं, कई मोर्चो पर लड़ना पड़ता है। पुलिस, वन विभाग और पूरी सरकार है। आदिवासियों की रक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण है भेड़िया की रक्षा। ‘खतियान में दर्ज सैंतीस वन-गाँवों को खाली कराने की नोटिस दे दी जाती है। क्या तो कोई भेड़िया सबको बचाने की कोई योजना है।’ अम्बाटोली में नोटिस मिलने के बाद गाँव वालों की सभा होती है, जिसमें अपने बल पर आन्दोलन करने का निर्णय होता है। सरकार की चिन्ता भेड़ियों की है। उसकी संख्या सात सौ अट्ठासी से घटकर एक सौ छिहत्तर हो गई है। आदिवासियों के समानान्तर भेड़ियों के संरक्षण के लिए अभयारण्य बनाया जाना है। भेड़ियों के लिए आदिवासियों के सैतीस गाँव खाली कराने होंगे। वे खाली, क्यों न करेंगे क्यों न करेंगे घुसपैठीये जो हैं? सरकार नहीं मानती कि वे वर्षो से जंगल में रहते आए हैं। ऐसा तर्क देने वाला ‘वन विभाग बाद में आया है। वनस्पतियों और जीवों की तरह आदिवासी-आदिम जाति भी जंगल के स्वाभाविक बाशिंदे हैं।’ (पृ. 112) इस तर्क को ठुकराया जाता है। भेड़ियों के लिए अम्यारण्य चाहिए। उस अम्यारण्य को कँटीले तारों से घेरने का ठेका बहुराष्ट्रीय कम्पनी वेदांग को दिया जाता है।
6. धर्म, धर्मधुरीण बाबा और असुर
आदिवासी असुरों का अपना धर्म रहा है, जो अब अपनी चमक खो रहा है। वे शिवदास बाबाओं के शिकार हो रहे हैं। बाबा आदिवासी लोगों को अपने पंजे में जकड़कर रखना चाहता है। वह सबसे पहले अपना हित देखता है। लंगटा बाबा अपनी हवश पूरी करने के लिए लड़कियों के लिए आवासीय विद्यालय खोलता है। स्त्री की अस्मिता से खिलवाड़ करने वाले बाबा के साथ नए ग्लोबल गाँव के देवता भी आ खड़े हुए हैं। बाबाओं का शिकंजा असुरों के लिए भारी पड़ रहा है।
उपन्यास में शिवदास बाबा आदिवासियों के धर्म के साथ किसी तरह की छेड़-छाड़ किए बिना अन्धविश्वस फैलाने के सारे उपक्रम करता है। वह कण्ठीबाबा के नाम से पहचान बनाता है। वह आदिवासियों में कण्ठी अभियान चलाता है। माँस खाना, हड़िया पीने पर रोक लगाता है। कण्ठी पहनने वाला किसी का छुआ खान पीन नहीं करता है। साफ-सफाई, काली वस्तु, काली गाय गोरू, सूअर से दूर रहना सिखाते हैं।’’ (पृ. 104) ऊपरी तौर पर बाबा की पारम्परिक सोच में किसी को दोष नहीं दिखता है, पर जब वह काली वस्तु त्याज्य कर देता है, तो आदिवासियों की बदहाली बढ़ जाती है। उनके खाने के लाले पड़ जाते हैं। आदिवासियों की बचत बैंक मुर्गियाँ, गायें औने-पौने दाम में बेची जाने लगती हैं। आदिवासी दिवालिया होने लगते हैं। गरीब का खाना माँस मछली, जिन्हें वे नदी, तालाब और पोखरों से पकड़ कर खा लेते रहे हैं। बाबा के बहकावे से भूखों मरने लगते हैं। गेहुआँ कपड़ों में लिपटा बाबा ढोंगी, कर्मकाण्डी और पूरा रंगा सियार निकलता है। डॉ. रामकुमार एक कड़वी सचाई से रूबरू करवाता है। वह कितनी ही बार देर रात को अपने डेरे से छोटी बच्चियों के ईलाज के लिए आश्रम जाता रहा है। डॉक्टर रामकुमार असुर लालचन के कण्ठी पहनने से उतना चिन्तित नहीं होता है, जितना माँस खाने व मुर्गियाँ बेचने से होता है।
आदिवासी का धर्म मुख्यधारा से अलग रहा है। बाबा को इससे कोई लेना देना नहीं है। इतिहास में एम.ए. ललिता इस बात की याद दिलाती है कि वे प्रकृति पूजक रहे हैं। हवन, यज्ञ, पूजन, कण्ठी का विरोध करती हुई कहती है – ‘हमारे महादनिया महादेव वही नहीं हैं, जो लंगटा बाबा के हैं। हमारे महादेव ये पहाड़ हैं। यह पाट है, जो हमें पालता है। हमार सरना माई न केवल सखुआ गाछ में है, बल्कि सारे वनस्पतियों में समाई है। हमारे यहाँ ‘अन्य’ की अवधारणा ही नहीं है। जिस समाज के पास इतनी खूबसूरत अवधारणा, इतनी बड़ी सोच हो, उन्हें किसी लंगटा बाबा की शरण में जाने की जरूरत ही क्या है?
7. आदिवासी असुर औरत की दशा और दिशा
असुर समाज में औरत मुख्यधारा की तुलना में बेहतर दिखाई देती है। असुरों में औरत कमजोरी की नहीं समझदारी की प्रतीक मानी गई है। ये महिला को सियानी सम्बोधित करते हैं, न कि जनानी। जनानी जनन व जन्म देने की प्रक्रिया से जुड़ी होती है, जबकि सियानी समझदारी लिए हुए है। असुर महिला का सयानापन सिंगबोंगा की कथा में भी आता है। जब सिंगबोंगा असुरों को मार देता है, तब महिलाएँ सिंगबोंगा के पैर पकड़ कर रोकने की कोशिश करती है। भले ही उसकी कीमत अपना रूप बिगाड़ कर भूत-चुड़ैल के रूप में देती है। बुधनी और ललिता जैसी युवतियों के बावजूद ऐसी भी ढेर सारी युवतियाँ है, जिनका बेरहमी से ‘शोषण होता है। खदान के मेठ मुंशी, क्लर्क अफसरों के डेरों पर खटने वाली युवतियाँ हैं। इनकी देह नकली जेवरों से सजने लगती है। ऐसी मजबूर आदिवासी महिला के लिए ही यह गीत है – ‘मेठ संगे नजर मिलायले, मुंशी संग लासा लगयले, कचिया लोभे कुला डूबाले रुपया लोभे जात डूबाले।’
गरीब आदिवासी भूख से बेहाल होकर ही अपनी बहू-बेटियों को काम करने भेजते हैं। तो नतीजा सामने आता है – घासी टोले के लड़के-लड़कियों के नाक-नक्श, रूप रंग सब बाबुओं से मिलने लगते हैं… घासी टोले में परित्यक्ता और विधवा बेटियों की बाढ़-सी आ जाती हैं। आदिवासी औरतों का यौन ‘शोषण गैर आदिवासी करते हैं, तो ऐसा कर्म करने में धर्मधुरीण भी पीछे नहीं है।
असुरों में औरतों की आजादी की लम्बी परम्परा रही है। असुर महिला सहिया जोड़ने (लिविंग टुगेदर) की परम्परा के तहत जीवन साथी के साथ रह सकती है। जब कभी विवाह में देरी या अड़चन आ जाती है, तब लड़का-लड़की साथ-साथ रहना शुरू कर देते हैं। लेकिन बेटा-बेटी की शादी से पहले शादी की रस्म निभानी पड़ती है। कभी-कभी एक ही मड़वे में माँ-बाप शादी करते हैं। (पृ. 111) किसी भी आदिवासी समुदाय में औरत का शोषण जैसी बीमारी बाहरी दिकुओं की घुसपैठ से आरम्भ होती है। असुर औरत भी अपवाद नहीं है। एक तरफ बुधनी और ललिता है, जो आन्दोलन में आगे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती हैं, तो दूसरी तरफ मजबूर आदिवासी महिलाएँ हैं, जिनका सब तरह से शोषण किया जाता है।
8. आज के देवताओं से असुर आदिवासियों का संघर्ष
जंगल-पहाड़ तक पहुँचने और आदिवासियों के जीने मरने व संघर्ष की कहानी इस उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता में चित्रित है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में कई संस्थानों के चेहरों से नकाब उतरता नजर आता है। लोकतान्त्रिक सरकार व लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ का दावा करने वाले जमीनी सचाई से कोसों दूर दिखाई देते हैं। सरकार व मीडिया के लिए जंगल में घटते भेड़िया चिन्ता का कारण है, जबकि आदिवासी घुसपैठिये हैं। पुलिस की बेवजह प्रताड़ना के खिलाफ आदिवासियों द्वारा थाने में धरना प्रदर्शन करने के दौरान पुलिस गोली चला देती है। जिसमें छह आदिवासी मारे जाते हैं। आदिवासियों पर पुलिस का नृशंस अत्याचार, मीडिया के लिए कोई खबर नहीं है। अखबारों में तीसरे पेज पर यूँ छपता है – ‘पाथरपाट में हुए पुलिस मुठभेड़ में छह नक्सली मारे गए। मारे गए नक्सलियों में कुख्यात एरिया कमाण्डर बालचन भी शामिल है। अन्त में इस बात का भी उल्लेख था कि भागते समय नक्सली लाशें उठा ले गए। पुलिस फोर्स लाशों की तलाश कर रही है।’ (पृ. 114) पुलिस की छवि कभी भी आदिवासियों के लिए बेदाग नहीं रही है। एक सामान्य असुर मीडिया और पुलिस वालों के लिए किस नीति के तहत नक्सली बना है?
उपन्यास में अन्य कई रोचक सामाजिक व मानवशास्त्रीय जानकारियाँ हैं। असुर तीन भागों में बंटे हैं – ‘बीर असुर, अगारिया और बिरिजिया। यहाँ बीर बहादुर के अर्थ में नहीं, जंगल के अर्थ में है। ऋग्वेद के प्रारम्भ में असुर देवताओं के रूप में चित्रित होते हैं, जो अन्त तक दानव में बदल जाते हैं। अगारियों की पैदाइश जैसे आग से मानी जाती है, वैसे ही अंगिरा ऋषि भी आग से उत्पन्न बताए जाते हैं। आग की खोज और देवताओं की लड़ाई कई जगह प्रचलित रही है। अखड़ा असुरों का सार्वजनिक पंचायती स्थल होता है, जहाँ गुरुवार के दिन गाँव के बुजुर्ग, समझदार, सयाने बैठकर घर, गाँव की समस्याओं पर बतियाते हैं। सोमा का बाबा अपनी जमीन खदान दलाल को क्यों बेचता है? इसका पता भी वहीं चलता है, तो उसका समाधान, कागजी कार्यवाही भी वहीं की जाती है।
आदिवासी के साथ लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ मीडिया और पुलिस भी नहीं है – आदिवासी से मीडिया का किसी तरह का सरोकार नहीं है। मीडिया न केवल ग्लोबल गाँव के देवता के साथ है, अपितु सरकार के पक्ष में है। उसे सरकारी हिंसा हिंसा न भवति साबित करनी है। पुलिस प्रशासन आदिवासी आन्दोलन को कुचलने के हर हथकण्डे अपनाता है। अपने हक की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों पर जलियाँवाला काण्ड को अनजाम दिया जाता है। अपने गलत कारनामों को सही साबित करने के लिए गरीब-गुरबों को नक्सली घोषित कर देना इनके बाँए हाथ का खेल है। आम जनता को भी पता है कि पुलिस हिरासत में दिए बयान को कोर्ट सही नहीं मानती है। लेकिन जब पुलिस के कहे को मीडिया बिना जाँच पड़ताल के अक्षरशः लिख कर एक बात निश्चित कर डालता है कि लोकतन्त्र के नाम पर देश में निश्चित वर्ग का हित पोषण किया जा रहा है। जहाँ आदिवासी के लिए किसी तरह का स्थान नहीं बचा है। पुलिस प्रशासन और मीडिया दोनों ही ग्लोबल गाँव के देवता के पिट्ठू हैं।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ पर्यावरण के खिलाफ है, इसके बावजूद सरकार ग्लोबल गाँव के देवों अर्थात बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की हर शर्त देश, पर्यावरण व संविधान के खिलाफ होते हुए भी स्वीकार कर रही है। कमजोर आदिवासी की आवाज हर सम्भव प्रयास से दबाई जा रही है। उनकी आवाज दबाने में मीडिया आदिवासियों के साथ न होकर ग्लोबल देवों के साथ होता है। उड़ीसा के नीलगीरी पहाड़ी से बाक्साइट खनन का ठेका वेदान्त कम्पनी से केन्द्र सरकार वापस लेती है। पर्यावरण के निश्चित मापदण्डों के लगातार उलंघन करने पर केन्द्र सरकार खनन परियोजना को खारिज करती है। वन्य जीव विशेषज्ञ बेलिन्दा राइट इसे लोगों के सशक्तिकरण का महान कदम बताते हैं। दिल्ली के सेण्टर फार सांइस एण्ड एनवायरमेण्ट ने इस फैसले को ‘उड़ीसा के निर्धन आदिवासी और हाशिये के लोगों के पक्ष में बताया। सुप्रिम कोर्ट के ऋतक दत्ता तो यहाँ तक कहते हैं कि इस तरह के उल्लंघन की स्थिति में सरकारी अधिकारियों को भी जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। उन पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए (जनसत्ता, 28 अगस्त 10)। यह फैसला नीलगिरी पहाड़ी के आसपास रहने वाले आदिवासियों के लिए बड़ी राहत है, पर झारखण्ड के असुर इसी बाक्साइट के खनन से बने गड्ढे और बिगड़ते पर्यावरण के कुपरिणाम भोगने के लिए अभिशप्त हैं।
9. असुरों की अस्मिता की लड़ाई
अपने रूप में लघुकाय होते हुए भी उपन्यास अपना सन्देश देने में सफल रहा है। उपन्यास में ग्लोबल गाँव प्रतीकार्थ में हैं। लोकतन्त्र का दम्भ भरने वाले नेता बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की गोद में बैठे नजर आते हैं। ग्लोबल गाँव के देवता की ताकत वैदिक देवों से अधिक होने का साफ मतलब निकलता है कि जिन देवों से असुर से सदियों लड़ते-झगड़ते रह कर भी हारने के बावजूद पुनःपुनः उठ खड़े होते रहे हैं, वे इन आधुनिक देवों के सामने अब इस योग्य बचने वाले नहीं हैं कि पुनः संघर्ष कर सकें। इन ग्लोबलाइज देवों से खतरा न केवल जंगलवासियों को है, अपितु कालान्तर में देश के हर उस नागरिकों के लिए खतरा है, जो जमीन व अपने श्रम पर आश्रित है। देश की अस्सी फीसदी आबादी के सामने गुलामी का खतरा मँडरा रहा है। ये वही ग्लोबल देव है, जिनको सरकार सेज के नाम पर सारे अवसर प्रदान कर रही है, जिसे आम किसानों और आदिवासियों से छीनकर दिया जा रहा है। माना कि ग्लोबल गाँव के देवता के पास असीम शक्ति है, फिर भी किसी भी तरह से कम कीमत लोकतन्त्र में नहीं होनी चाहिए, अन्यथा ये ग्लोबलीय देव एक दिन जब भस्मासुर बनकर उभरेंगे, तब इनसे बचना मुश्किल हो जाएगा। आज आदिवासी भूख से बेहाल है। वह भूखा रहकर भी अपने हकों की लड़ाई लड़ रहा है। जिसकी माँग महज दो जून के खाने से अधिक नहीं है। ऐसे में सरकार आम आदिवासी के साथ न होकर उनके साथ है, जो देश में घुसपैठ कर चुके हैं।
चौथा स्तम्भ और सरकार दोनों का कर्तव्य और संवैधानिक दायित्व बनता है कि आदिवासी हितों की रक्षा हो, पर ये सब डॉलर की थैली पाकर मौन धारण कर लेते हैं। वेदान्त, शिण्डाल्को कम्पनियों को सरकार सुविधा मुहैया करती है। पुलिस प्रशासन विरोध करने वालों को ठिकाने लगाना दायित्व समझता है। कम्पनियों को बिना व्यवधान काम करने का अवसर देने के लिए प्रतिरोधी आदिवासियों को उग्रपन्थी नक्सली कह कर रास्ते से हटाने का बहाना मिल जाता है। आदिवासियों द्वारा किए जाने वाले प्रतिरोध से निपटने में जब पुलिस असफल हो जाती है, तो वहाँ पर पैरा मिलेट्री फोर्स लगा दी जाती है। उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता की यही मूल थीम है कि यह नया देव इतना ताकतवर है कि हर कोई उसके आगे नतमस्तक है। सरकार की हर संस्था उसके साथ खड़ी दिखती है। उसके विरोध में कोई है तो सिर्फ आम जनता, साधनहीन आदिवासी और असुर। भूखी-नंगी आदिवासी जनता कब तक उनकी ताकत के सामने ठहर सकेगी? वे असुर जो पौराणिक देवों के सामने हार कर भी अपना अस्तित्व बनाए रहने में सफल रहे थे। आज उनके लिए अपने आपको ग्लोबल देवों के सामने बचा पाना नामुमकिन हो गया है। ये ग्लोबल देवता असीम ताकत के धनी हैं। हर देश की हर संस्था इनके अनुसार चल रही है। जनता के साथ खड़ा होने वाला मीडिया इनके पायथाने में घुटनों के बल बैठा नजर आ रहा है। ऐसे में कौन होते हैं ये असुर, जो पहाड़ों और जंगलों पर अपना दावा करके जीवित रह सकते हैं? उपन्यास का शिल्प बेहद कमजोर है। ऐसा लगता है कि लेखक को मानव चरित्र की समझ नहीं है। इस कारण उपन्यास के पात्र जीवित मात्र नहीं लगते। वे मनुष्य के पुतले प्रतीत होते हैं। लेखक को सिर्फ आदिवासियों की समस्याओं का समर्थन करना है। इस पक्ष समर्थन के कारण कई बार ऐसा लगने लगता है कि यह उपन्यास कम और अखबार की रपट ज्यादा लगने लगता है। बीच- बीच में कथा का क्रम आता-जाता रहता है। फिर भी आदिवासी जीवन से अनजान पाठक को कई बार यह उपन्यास जिज्ञासा उत्पन्न करने में सफल हो जाता है।
10. निष्कर्ष
विकास की चरम परिणति महानगरों में ही देखी जा सकती है। विकास का दर्शन देने वाले आज पिछड़े देशों के सिरमौर बने हुए हैं। भारत जैसे विकास के सपने देखने वाले देश लोट-पोट हुए जा रहे हैं कि वे भी कल की महाशक्ति इसी रास्ते पर चलकर बन सकेंगे। एक तरफ महाशक्ति के सपने देखे जा रहे हैं, दूसरी तरफ देश में आदिम जीवन जीने वाले हैं, जिनके लिए रहने के लिए स्थान नहीं है। उनका क्या भविष्य होगा? उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता ऐसे ही असहज व बेचैन कर देने वाले सवालों से दो चार करवाता है। आज भागते दौड़ते वैश्विक दौर में लुघ रचना करना, कम-से-कम में अपनी बात कह देना आज की जरूरत है। उपन्यास का शिल्प और संरचना कथ्य के अनुरूप चुस्त दुरुस्त है।
यह उपन्यास कमजोर लोगों की ऐसी आवाज है, जो सदियों से दबाई जा रही है। आदिवासी अपनी अस्मिता की लड़ाई आज से नहीं, वैदिक युग से लड़ रहे हैं। इन्द्र असुरों से लड़ता रहा। देवासुर संग्राम होते रहे। पुराण भरे पड़े हैं कि देवता ऐशो आराम में डूबकर असुरों से हारते रहे। वे असुर जो देवताओं से लड़ते हुए हारने पर भी पुनः पुनः लड़ते और जीते रहे हैं, आज उनका सामना ग्लोबल गाँवों के सर्वशक्तिवानों से हो रहा है। इस संघर्ष में उनकी हार सुनिश्चित है। यह हार सिर्फ उन तक सीमित रहने वाली नहीं है, अगर आदिवासी जंगल में हारेगा तो निश्चित ही पूरे देश की मानवता हार जाने वाली है। हालाँकि प्रस्तुत उपन्यास कलात्मक दृष्टि से कमजोर रचना है। तीन-चार निबन्धों में ये बातें अधिक प्रभावशाली रूप में व्यक्त हो सकती थीं। उपन्यास के कथ्य को कलात्मक रूप देने में लेखक असफल हैं। न तो कथा में कोई सृजनशीलता है, न पात्रों में जीवन्तता। उपन्यास में लेखक आदिवासियों के अस्तित्व की चिन्ता करते हैं, यह चिन्ता कहीं भी संघर्ष का रूप नहीं ले पाती। फलतः उपन्यास के असुर एक हारी हुई लड़ाई लड़ते हैं। उपन्यासकार का समर्थन उन्हें कोई शक्ति नहीं दे पाता। इसलिए यह उपन्यास आदिवासी रचनाशीलता का प्रतिनिधित्व नहीं करता। हालाँकि प्रारम्भिक रचना होने के कारण इसका ऐतिहासिक महत्त्व माना जा सकता है।
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अतिरिक्त जानें-
पुस्तकें
- गायब होता देश, रणेन्द्र, पेंगुइन प्रकाशन, गुडगाँव
- हिन्दी उपन्यास और आदिवासी चिन्तन, डॉ. विनोद विश्वकर्मा (संपा.), अनंग प्रकाशन, दिल्ली
- उपन्यासों में आदिवासी भारत (उपन्यासों के अंश व सारांश सहित), डॉ. रमेश चन्द मीणा (सम्पादक), अलख प्रकाशन, जयपुर
- आदिवासी विद्रोह : विद्रोह परम्परा और साहित्यिक अभिव्यक्ति की समस्याएं, केदार प्रसाद मीणा अनुज्ञा प्रकाशन, दिल्ली
- झारखण्ड के आदिवासी, डॉ. चन्द्रकान्त वर्मा के.के पब्लिकेशन्स, इलाहाबाद
- वन अधिकार अधिनियम: समीक्षा और संघर्ष, डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा, सहयोग पुस्तक कुटीर (ट्रस्ट), निजामुद्दीन, नयी दिल्ली
- राजस्थान में किसान एवं आदिवासी आन्दोलन, डॉ. बृजकिशोर शर्मा, राजस्थान
- आदिवासी अस्मिता:प्रभुत्व और प्रतिरोध, अनुज लुगुन(सम्पादक), अन्यय प्रकाशन, दिल्ली
वेब लिंक्स-
- http://www.debateonline.in/200612/
- https://tirchhispelling.wordpress.com/tag/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6/
- http://www.srijangatha.com/SheshVishesh1_27May2011#.Vqm-cZp95iw
- https://www.youtube.com/watch?v=rjbrJlVjk-E
- http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=4358&pageno=1