34 आदिवासी साहित्य की परम्परा
गंगा सहाय मीणा
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- आदिवासी साहित्य की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
- आदिवासी साहित्य के विभिन्न पड़ावों के माध्यम से आदिवासी साहित्य की परम्पराओं की पड़ताल कर सकेंगे।
- आदिवासी साहित्य की विचारधारा और प्रवृत्तियों को समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
अकादमिक दुनिया में स्त्रीवादी लेखन और दलित लेखन के आने से जहाँ एक तरफ आदिवासी लेखन की राह थोड़ी आसान हुई, वहीं इसके बारे में भ्रमों का निर्माण भी हुआ। आदिवासी साहित्य के बारे में सही समझ बनाने के लिए इसकी स्रोत सामग्री, परम्परा और विचारधारा का अवलोकन आवश्यक है। विदित है कि हिन्दी आदिवासियों की मातृभाषा नहीं है और हिन्दी में लेखन की परम्परा आदिवासी साहित्य काफी बाद में शुरू हुई। हिन्दीभाषी पाठकों को आदिवासी लेखन खूब आकर्षित करता रहा है। इसीलिए आदिवासी साहित्य का हिन्दी अनुवाद खूब हुआ। स्वयं आदिवासी लेखकों ने अपनी मातृभाषाओं के अलावा हिन्दी में भी लिखना शुरू किया। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य और उसकी परम्परा का अध्ययन जरूरी है।
- आदिवासी साहित्य की अवधारणा
आदिवासी साहित्य की अवधारणा को लेकर अकादमिक जगत में भ्रम की स्थिति है। आदिवासी साहित्य के नाम पर किए जा रहे शोधों में काफी हिस्सा ऐसा है जिनका आदिवासी समाज और साहित्य से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं बनता। आदिवासी साहित्य के नाम पर मुख्यतः तीन तरह का साहित्य हमारे सामने है –
- आदिवासियों के बारे में लिखा गया साहित्य।
- आदिवासियों द्वारा लिखा गया साहित्य और
- आदिवासी दर्शन को आधार बनाकर लिखा गया साहित्य।
आदिवासियों के बारे में लिखे गए साहित्य का आदिवासी साहित्य के रूप में दावा करना सहज है। इसीलिए शोधार्थी अक्सर रेणु के मैला आँचल (सन् 1953) के संथाल प्रसंग या योगेन्द्रनाथ सिन्हा के वनलक्ष्मी (सन् 1956) से आदिवासी साहित्य की शुरुआत मान लेते हैं। कुछ लोग तुलसीदास की रामचरितमानस में आए वन के प्रसंगों को आदिवासी साहित्य मान लेते हैं और इसी दृष्टि से विश्लेषण करने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि जहाँ भी वन, जंगल या किसी आदिवासी समुदाय का जिक्र आ जाता है, उसे ही आदिवासी साहित्य मान लिया जाता है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में प्रमुखता से उभरे आदिवासी साहित्य के आन्दोलन के बारे में इस कारण भ्रम का निर्माण होता जाता है। आदिवासी चिन्तक हिन्दी साहित्य में आए वन या आदिवासी प्रसंगों को आदिवासी साहित्य मानने से इनकार करते हैं। उनके अनुसार आदिवासियों द्वारा लिखा गया साहित्य ही आदिवासी साहित्य है। यह विचार स्त्रीवादी साहित्य और दलित साहित्य के प्रभाव में निर्मित हुआ है। जाहिर है कि इस तर्क की अपनी सीमाएँ हैं। अनुभूति की प्रामाणिकता किसी साहित्य का एक मात्र आधार नहीं हो सकता। आज जब आदिवासी समाज गहरे सांस्कृतिक हमलों से गुजर रहा है, ऐसे में आदिवासी समाज का सच लिखने के लिए केवल किसी आदिवासी समुदाय में पैदा हो जाना काफी नहीं है। आदिवासी समुदायों का बड़ी संख्या में हिन्दूकरण और ईसाईकरण हुआ है। इससे उनकी मौलिक समझ और दर्शन पर बहुत प्रभाव पड़ा है। इस प्रक्रिया में आदिवासी साहित्य की अवधारणा को लेकर तीसरा विचार सामने आया है कि आदिवासी दर्शन को आधार बनाकर लिखा गया साहित्य ही आदिवासी साहित्य माना जाए। जाहिर है कि आदिवासी दर्शन ही वह तत्त्व है जो आदिवासी समाज और साहित्य को शेष समाज और साहित्य से अलग करता है। यह आदिवासी जीवन का मूल है, इसलिए जहाँ आदिवासी दर्शन आदिवासी साहित्य की मूल शर्त है, वहीं इसे बचाना आदिवासी साहित्य आंदोलन का मुख्य ध्येय है। निष्कर्षतः आदिवासी साहित्य आदिवासी दर्शन पर आधारित साहित्यिक आन्दोलन है जो आदिवासी परम्परा से अपने तत्त्व लेता है और 21वीं सदी के पहले दशक में अकादमिक जगत में अपना अलग साहित्यिक आन्दोलन होने का दावा प्रस्तुत किया। समकालीन आदिवासी लेखन की शुरुआत हम उदारवाद, बाजारवाद और भूमण्डलीकरण के उभार से मान सकते हैं। भारत सरकार की नई आर्थिक नीतियों ने आदिवासी शोषण-उत्पीड़न की प्रक्रिया तेज की, इसलिए इसका प्रतिरोध भी मुखर हुआ। शोषण और उसके प्रतिरोध का स्वरूप राष्ट्रीय था, इसलिए प्रतिरोध से निकली रचनात्मक ऊर्जा का स्वरूप भी राष्ट्रीय था। आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पैदा हुई रचनात्मक ऊर्जा का नाम ही समकालीन आदिवासी साहित्य आन्दोलन है। ”आदिवासी साहित्य अस्मिता की खोज, दिकुओं द्वारा किए गए और किए जा रहे शोषण के विभिन्न रूपों के उद्घाटन तथा आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के संकटों और उनके खिलाफ हो रहे प्रतिरोध का साहित्य है। यह उस परिवर्तनकामी चेतना का रचनात्मक हस्तक्षेप है जो देश के मूल निवासियों के वंशजों के प्रति किसी भी प्रकार के भेदभाव का पुरजोर विरोध करती है तथा उनके जल, जंगल, जमीन और जीवन को बचाने के हक में उनके ‘आत्मनिर्णय’ के अधिकार के साथ खड़ी होती है।” (आदिवासी साहित्य विमर्श, सं. गंगा सहाय मीणा, अनामिका प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 9)
आदिवासी साहित्य की परम्परा की पड़ताल करने के लिए आदिवासी साहित्य के स्रोतों का अध्ययन जरूरी है। हमारी परम्परागत समझ यह है कि किसी महानगर के किसी वर्चस्वशाली भाषा के ज्ञात प्रकाशक के यहाँ से मुद्रित-प्रकाशित, पुरस्कृत, प्रशंसित, पाठ्यक्रम में शामिल हो चुकी किताब ही श्रेष्ठ साहित्य है। साहित्य की किताबें अक्सर इसी प्रक्रिया में चर्चित हुआ करती हैं। आदिवासी साहित्य की अवधारणा पर विचार करते समय इस परिपाटी से अलग हटकर विचार करना होगा। आदिवासी साहित्य के विशेषज्ञों का मत है कि आदिवासी भाषाओं में रचित साहित्य और मौखिक परम्परा आदिवासी साहित्य का मूल स्रोत है। सिर्फ हिन्दी में लिखित-मुद्रित आदिवासी सम्बन्धी लेखन को आदिवासी साहित्य कहना उचित नहीं है। आदिवासी लेखकों का आग्रह है कि आदिवासियों का ज्यादातर लेखन उनकी अपनी भाषा में हुआ है। हिन्दी भाषी प्रान्तों में निवास करने के बावजूद आदिवासियों की अपनी भाषाएँ हैं। उनका कभी-कभी हिन्दी में अनुवाद भी होता है। लेकिन मूलतः वे अपनी भाषाओं में सहजता से अभिव्यक्ति पाते हैं। मौखिक साहित्य इसका मूलाधार है। आदिवासी साहित्य की परम्परा को तीन भागों में बाँटकर समझा जा सकता है –
- पुरखा साहित्य
- आदिवासी भाषाओं में लिखित साहित्य की परम्परा
- समकालीन हिन्दी आदिवासी लेखन
पुरखा साहित्य
आदिवासी दर्शन व साहित्य का मूलाधार पुरखा साहित्य है। पुरखा साहित्य आदिवासी समाज में हजारों वर्षों से जारी मौखिक साहित्य की परम्परा है। बीसवी सदी में इसके संकलन, सम्पादन और प्रकाशन के कार्य हुए हैं। आदिवासी चिन्तक इस मौखिक परम्परा को मौखिक साहित्य या लोक-साहित्य कहने के बजाय पुरखा साहित्य कहते हैं। इसके पीछे तर्क है। पहली बात तो यह कि मौखिक साहित्य कहने से कुछ पता नहीं चलता कि किसका मौखिक साहित्य, कैसा मौखिक साहित्य? दुनिया के तमाम समाजों में लिखित से पहले मौखिक साहित्य की परम्परा रही है। उससे अलगाने के लिए आदिवासी चिन्तक आदिवासी मौखिक परम्परा को पुरखा साहित्य कहते हैं। इस प्रक्रिया में वे इसे लोक साहित्य से भी अलग बताते हैं। इस सन्दर्भ में आदिवासी चिन्तक वन्दना टेटे लिखती हैं कि ”चूँकि आदिवासी समाज में बाहरी समाज की तरह लोक और शास्त्र का भेद नहीं है, इसलिए साहित्य को भी नहीं बाँटा जा सकता। चूँकि आदिवासी समाज और संस्कृति में पुरखों का बहुत महत्त्व है और मौखिक परम्परा में मिलने वाले गीत, कथाएँ आदि भी पुरखों ने ही रची हैं, इसलिए इस मौखिक परम्परा को सम्मिलित रूप में पुरखा साहित्य कहना चाहिए।” (आदिवासी साहित्य : परम्परा और प्रयोजन, वन्दना टेटे, प्यारा केरकेट्टा फाउण्डेशन, राँची, 2014)
तमाम आदिवासी भाषाओं में पुरखा साहित्य की समृद्ध परम्परा मौजूद है। इसी के माध्यम से हम उनके जीवन-दर्शन, ज्ञान परम्परा, मूल्यों-विश्वासों आदि को जान सकते हैं। इसलिए आदिवासी जीवन को जानने के लिए पुरखा साहित्य को संकलित करना और सहेजना बहुत जरूरी है। इस दिशा में अध्येताओं ने थोड़ा बहुत कार्य किया है, लेकिन काफी काम किया जाना बाकी है। देश में 300 से अधिक आदिवासी भाषाओं में पुरखा साहित्य की परम्परा बिखरी पड़ी है। इसके संकलन और सम्पादन में बहुत सावधानी की जरूरत है। अक्सर हम अपने पूर्वाग्रहों के साथ संकलन शुरू करते हैं और हमारे पूर्वाग्रह पाठ संशोधन के बीच में घुस जाते हैं। संकलन के लिए आदिवासी दर्शन और सम्बन्धित भाषा का ज्ञान जरूरी है।
उपलब्ध पुरखा साहित्य की कुछ विशेषताएँ हैं – पुरखों के प्रति कृतज्ञता का भाव, प्रकृति और प्रेम के प्रति गहरी संवेदनशीलता, बाहरी समाज के हमलों के प्रति सजगता, अपनी परम्परा और संस्कृति को बचाने का भाव आदि। आदिवासियों पर बाहरी समाजों के हमलों का इतिहास काफी पुराना है और उतनी ही पुरानी है उसके प्रति आदिवासी पुरखों की सजगता। उदाहरण स्वरूप एक गीत द्रष्टव्य है –
”रास्ते में एक जोड़ा जो लूदम फूल है
उस फूल को ऐ बेटी, किसने तोड़ लिया?
रास्ते में अटल फूल की जो कतार है
हे बेटी, किसने छिनगा लिया?
चमचमाते हुए शिकारी
शिकारियों ने फूल तोड़ लिया
झलकते हुए अहेरी
अहेरियों ने डाल को छिनगा दिया
शिकारियों ने जो फूल को तोड़ा
हे बेटी, चोटी से ही तोड़ लिया।
अहेरियों ने जो डाल को छिनगा दिया
सो हे बेटी, नीचे से ही छिनगा दिया!
शिकारियों ने जो फूल को तोड़ा
हे बेटी, उसकी फुनगी मुरझा गई
अहेरियों ने जो छिनगा दिया,
हे बेटी, उसका तना कुम्हला गया! ”
(बाँसरी बज रही है मुण्डारी गीतों का संकलन, जगदीश त्रिगुणायत)
उपर्युक्त गीत एक मुण्डारी पुरखा गीत का हिन्दी अनुवाद है। तमाम आदिवासी भाषाओं में इस तरह की सामग्री बिखरी पड़ी है। जरूरत है उसके प्रति सही दृष्टिकोण विकसित करने और उसे सहेजने की ताकि लोग आदिवासी दर्शन और साहित्य की सही परम्परा से वाकिफ हो सकें।
आदिवासी भाषाओं में रचित साहित्य की परम्परा
लगभग डेढ़ सौ साल पहले आदिवासी भाषाओं में लिपियाँ विकसित होने लगीं। अब तक एक दर्जन से अधिक आदिवासी भाषाओं की लिपियाँ तैयार हो चुकी हैं। कई आदिवासी भाषाओं ने पड़ोस की किसी बड़ी भाषा की लिपि स्वीकार ली है। निष्कर्षतः आदिवासी भाषाओं में लेखन और मुद्रण की परम्परा भी सौ साल से अधिक पुरानी है। इस परम्परा की और पड़ताल किए जाने की जरूरत है। मौजूदा स्रोत सामग्री के अनुसार मतुराअ कहनि नामक मुण्डारी उपन्यास पहला आदिवासी उपन्यास है। यह बीसवी सदी के दूसरे दशक में लिखा गया। इसके एक भाग का अनुवाद हिन्दी में चलो चाय बागान शीर्षक से किया गया।
आदिवासी भाषाओं में रचित साहित्य का महत्त्व यह है कि इसमें विधाएँ भले ही बाहरी समाजों और भाषाओं से ली गई हैं, लेकिन चूँकि रचनाकार अपनी मातृभाषा में लिख रहा है, इसलिए अभिव्यक्त विचार और दर्शन में मौलिकता बनी रहती है। पूर्वोत्तर की खासी, गारो आदि भाषाओं में शौर्यगाथाओं की लम्बी परम्परा है। धीरे-धीरे हिन्दी आदि अन्य भाषाओं में भी इनके अनुवाद होने लगे हैं। ढेरो आदिवासी भाषाओं के लेखन में गए बिना सिर्फ गैर-आदिवासी भाषाओं में प्राप्त सामग्री के आधार पर आदिवासी साहित्य के बारे में बनाई गई राय अधूरी और भ्रामक होगी। आदिवासी भाषाओं में हर साल सैकड़ो किताबें प्रकाशित हो रही हैं। हालाँकि स्पष्ट समझदारी के अभाव में कहीं उसे आदिवासी लोक साहित्य कहा जा रहा है, तो कहीं लोक कथाएँ।
समकालीन हिन्दी आदिवासी लेखन
बाहरी समाज और साहित्य विमर्श को प्रभावित करने की दृष्टि से आदिवासी साहित्य की परम्परा का सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ाव समकालीन आदिवासी लेखन है। यह साहित्य इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें आदिवासी लेखन बाहरी प्रभाव में हिन्दी आदि गैर-आदिवासी भाषाओं और विधाओं में लिखा गया है। यह मुख्यतः गैर-आदिवासियों की शर्तों पर उनके अनुसार लिखने की कोशिश है। इसमें चुनौती यह है कि आदिवासी लेखकों ने अपनी मौलिकता, अपने विचार और दर्शन को किस हद बचाए रखा है!
- आदिवासी कविता लेखन की परम्परा
आदिवासी साहित्य में कविता की परम्परा बहुत पुरानी और सबसे लोकप्रिय विधा है। यह दलित साहित्य से बिल्कुल अलग है। दलित साहित्य में व्यक्ति या आत्म पर जोर है, इसलिए आत्मकथात्मक लेखन प्रमुख है। किन्तु आदिवासी दर्शन में व्यक्ति या आत्म के बजाय सामूहिकता और सामाजिकता महत्त्वपूर्ण है, जिसे अभिव्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम कविता हो सकती है। इसकी पृष्ठभूमि में मौखिक या पुरखा साहित्य को रखा जा सकता है। फादर हाफमेन, जगदीश त्रिगुणायत आदि विद्वानों द्वारा पुरखा साहित्य के जो संकलन तैयार किए गए हैं, उससे स्पष्ट हो जाता है कि कविता आदिवासी साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है।
हिन्दी की पहली आदिवासी कवयित्री सुशीला सामद हैं। सन् 1930-40 के दशक में उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हुए। सन् 1966 में प्रकाशित दुलायचन्द्र मुण्डा का नव पल्लव नाम से कविता संग्रह मिलता है। नब्बे के दशक में बलदेव मुण्डा और रामदयाल मुण्डा कविता के क्षेत्र में सक्रिय थे। बलदेव मुण्डा का सपनों की दुनिया सन् 1986 में प्रकाशित हुआ। रामदयाल मुण्डा के संग्रह हैं – वापसी, पुनर्मिलन तथा अन्य नगीत तथा नदी और उसके सम्बन्धी तथा अन्य नवगीत। इन रचनाकारों ने कविता के क्षेत्र में एक नई शुरुआत की और समकालीन आदिवासी कविता की नींव रखी, लेकिन छोटे प्रकाशनों से प्रकाशित होने की वजह से ये रचनाएँ हिन्दी के पाठकों के बीच अपनी जगह नहीं बना पाई।
सन्ताली कवयित्री निर्मला पुतुल की कविताओं के माध्यम से आदिवासी कविता बाहरी पाठकों को आकर्षित करती है। हिन्दी में उनके तीन संग्रह प्रकाशित हैं – अपने घर की तलाश में, नगाड़े की तरह बजते शब्द और बेघर सपने। सभी इक्कीसवी सदी के पहले दशक में प्रकाशित हुए। निर्मला पुतुल आज हिन्दी पाठकों के लिए जाना पहचाना नाम है। उनकी कविताएँ बड़े पैमाने पर अनूदित हुईं और विभिन्न भाषा-साहित्यों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनीं। वन्दना टेटे ने लगभग सभी विधाओं में लेखन किया। आदिवासी साहित्य की सैद्धान्तिकी निर्माण की प्रक्रिया में भी वे लगातार सक्रिय हैं। उनका हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह कोनजोगा आदिवासी टोन और आदिवासियत लिए हुए है। हरिराम मीणा भी आदिवासी कविता के क्षेत्र में लगभग दो दशक से सक्रिय हैं। उनके कई संग्रह प्रकाशित हैं – रोया नहीं था यक्ष, हाँ चाँद मेरा है, सुबह के इन्तजार में आदि।
केदारनाथ अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित युवा कवि अनुज लुगुन ने भी आदिवासी कविता के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई है। उनका अभी तक कोई संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ, लेकिन आदिवासी साहित्य में रुचि लेने वाले पाठकों के लिए अनुज लुगुन एक जाना-पहचाना नाम है। मराठी आदिवासी साहित्य के वरिष्ठ कवि वाहरू सोनवणे का हिंदी कविता संग्रह पहाड़ हिलने लगा है हिन्दी पाठकों के बीच पर्याप्त लोकप्रिय है। संग्रह की स्टेज कविता अक्सर गोष्ठियों में उद्धृत की जाती है। रोज केरकेट्टा की कविताएँ खडिया के साथ हिन्दी में भी आई हैं। महादेव टोप्पो के भी कोई संग्रह प्रकाशित नहीं हुए, लेकिन उनकी कविताएँ आदिवासी दर्शन की लगातार अभिव्यक्ति कर रही हैं। इनके अलावा सावित्री बड़ाइक, धनेश्वर माँझी, ग्लैडसन डुंगडुंग, ग्रेस कुजूर, दमयन्ती किस्कू, सरिता बड़ाइक आदि आदिवासी कविता के क्षेत्र में सक्रिय हैं।
- आदिवासी कहानियों की परम्परा
पुरखा साहित्य में कई कहानियाँ मिलती हैं, लेकिन समकालीन आदिवासी कहानी का इतिहास भी अब आधी सदी पूरी कर रहा है। पहली आदिवासी कहानीकार एलिस एक्का बीसवीं सदी के छठे-सातवें दशक में सक्रिय थीं। उनकी कहानियों को वन्दना टेटे ने संकलित कर पुनः प्रकाशित कराया। आठवें दशक में रामदयाल मुण्डा कविता के अलावा कहानी लेखन के क्षेत्र में भी सक्रिय थे। पीटर पॉल एक्का लम्बे समय से आदिवासी कथा लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। उनके कहानी संग्रह राजकुमारों के देश में और परती जमीन आदिवासी साहित्य की महत्त्वपूर्ण रचनाओं में शामिल हैं। रोज केरकेट्टा का पगहा जोरी जोरी रे घाटो हिन्दी पाठकों के बीच काफी चर्चित है। वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’ का संग्रह जंगल की ललकार सन् 1989 में प्रकाशित हुआ। इसके अलावा उनके और कई संग्रह हैं – लौटती रेखाएँ, देने का सुख आदि उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। आदिवासियत को आधार बनाकर वन्दना टेटे ने हाल ही में एक कहानी संग्रह सम्पादित किया है – आदिवासी कथा जंगल। यह संग्रह आदिवासी जीवन दर्शन का जीवन्त दस्तावेज है। इनके अलावा कहानी लेखन के क्षेत्र में मंगल सिंह मुण्डा, रूपलाल बेदिया, सिकरादास तिर्की, शंकरलाल मीणा आदि भी सक्रिय हैं।
- आदिवासी उपन्यास लेखन की परम्परा
आदिवासियों ने उपन्यास के क्षेत्र में भी अपनी उपस्थिति दर्ज की है। पीटर पौल एक्का और वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’ सन् 1980-90 के दशक से लगातार लेखन कार्य कर रहे हैं। पीटर पॉल एक्का का पलाश के फूल, मौन घाटी और सोन पहाड़ी आदिवासी दर्शन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। वाल्टर भेंगरा के जंगल के गीत, लौटते हुए (सन् 2005), शाम की सुबह, तलाश आदि कई उपन्यास हैं। हरिराम मीणा का धूणी तपे तीर (सन् 2008) हालाँकि आदिवासी दर्शन की दृष्टि से कमजोर उपन्यास है, लेकिन हिन्दी पाठकों के बीच कई वजहों से लोकप्रिय हुआ है। मंगल सिंह मुण्डा का छैला सन्दु और अजय कण्डुलना का बड़े सपनों की उड़ान भी आदिवासी उपन्यासों की सूची में हैं।
- अन्य विधाओं में लेखन की परम्परा
साहित्य की इन लोकप्रिय विधाओं के अलावा आदिवासी रचनाकार अन्य विधाओं में भी लिख रहे हैं। आदिवासी आन्दोलनों पर ग्लैडसन डुंगडुंग और सुनील मिंज की कई किताबें – नगड़ी का नगाड़ा, झारखण्ड में अस्मिता संघर्ष आदि हैं। हरिराम मीणा ने जंगल जंगल जलियाँवाला और साइबर सिटी से नंगे आदिवासियों तक शीर्षक से आदिवासी जीवन से सम्बन्धित यात्रा संस्मरण लिखे हैं। वन्दना टेटे की पुरखा लड़ाके, आदिवासी साहित्य : परम्परा और प्रयोजन, वाचिकता, आदिवासी दर्शन और साहित्य, पुरखा झारखण्डी साहित्यकार और नए साक्षात्कार आदि पुस्तकें आदिवासी दर्शन और साहित्य को समझने की दृष्टि से मील का पत्थर है।
आदिवासी साहित्य की परम्परा में विभिन्न विधाओं में विभाजित उपर्युक्त रचनाएँ तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, इसके साथ आदिवासी साहित्य की विचारधारा भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। आदिवासी साहित्य की अनिवार्य शर्त उसकी दार्शनिकता है। जिस तरह से डॉ. भीमराव अम्बेडकर का दर्शन दलित साहित्य का मूल है, उसी तरह आदिवासी साहित्य के विचार पुरुष जयपाल सिंह मुण्डा हैं। मूलतः छोटा नागपुर (झारखण्ड) के रहने वाले जयपाल सिंह ने ऑक्सफोर्ड से पढ़ाई की। ओलम्पिक में भारत के लिए पहला स्वर्ण पदक जीतने वाली हॉकी टीम के कप्तान जयपाल सिंह एक बेहतरीन खिलाड़ी थे। सन् 1938 में उन्होंने आदिवासियों को एकजुट करने के लिए आदिवासी महासभा गठित की। आदिवासी शीर्षक से पत्रिका प्रकाशित की। पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे। भारत की संविधान-निर्मात्री सभा के सदस्य बने। संविधान सभा की उपसमितियों में भागीदारी की। संविधान सभा में आदिवासी प्रतिनिधि के रूप में देश के आदिवासियों के मुद्दों को उठाया। आजादी के बाद भी आदिवासी मुद्दों पर सक्रिय रहे। आदिवासी दर्शन और साहित्य की कुछ बुनियादी विशेषताएँ हैं, जिन्हें बिन्दुवार इस प्रकार समझा जा सकता है –
- आदिवासी दर्शन रचाव और बचाव का दर्शन है।
- आदिवासी दर्शन व्यक्तिवाद का नकार और सामूहिकता का समर्थन करता है।
- आदिवासी दर्शन मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ मानने के दावे से सहमत नहीं है। इसके अनुसार दुनिया के सभी प्राणी, उससे भी आगे सारी प्रकृति को बचाना जरूरी है।
- आदिवासी दर्शन के अनुसार सभी कलाएँ एक-दूसरे से अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई हैं। कलाओं में साहित्य या कोई कला विशेष सर्वश्रेष्ठ नहीं है।
- आदिवासी दर्शन में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव है।
- आदिवासी दर्शन के अनुसार प्रकृति की बनाई हर चीज सुन्दर है, कुछ भी असुन्दर नहीं है।
- आदिवासी दर्शन ‘मैं’ की जगह ‘हम’ के भाव का समर्थक है। इसलिए यहाँ आत्मकथा लेखन की परम्परा नहीं है।
- आदिवासी दर्शन में आक्रोश नहीं, सहजीवन पर जोर दिया गया है।
- आदिवासी दर्शन के अनुसार आदिवासियों के उत्थान के लिए आर्थिक के साथ सांस्कृतिक सवाल भी जरूरी है।
- आदिवासी दर्शन पूँजीवादी अर्थतन्त्र का विरोध करता है।
- आदिवासी दर्शन प्रकृति को संसाधन नहीं, पूर्वज मानता है। जल, जंगल, जमीन और उससे जुड़ी हर चीज को बचाने के लिए वह वचनबद्ध है।
- आदिवासी साहित्य हिन्दू मिथकों के डीकोडीकरण का कार्य कर रहा है। हिन्दू मिथकों में वर्णित आदिवासियों के खलनायकत्व की छवि पर यह सवाल उठाता है।
- आदिवासी साहित्य आदिवासी आन्दोलनों की परम्परा और राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन में आदिवासियों की भागीदारी से जुड़ी कहानियों को सामने लाता है और बताता है कि किस प्रकार आदिवासी आन्दोलन साम्राज्यवाद के साथ सामन्तवाद से भी लड़ने के कारण ज्यादा महत्त्वपूर्ण थे।
- इसके साथ ही आदिवासी साहित्य की पंरपरा संस्कृतिकरण और आदिवासी समाज पर इसके कुप्रभावों के प्रति सचेत है।
- आदिवासी साहित्य आदिवासी स्वायत्तता और स्वशासन के सवाल को पुरजोर तरीके से उठाता है।
- इन सबके साथ आदिवासी साहित्य वर्तमान में आदिवासियों के समक्ष उपस्थित समस्याओं से भी रूबरू कराता है, जैसे, विस्थापन की समस्या, आर्थिक शोषण की समस्या, बाहरी दखल से उत्पन्न समस्याएँ, आदिवासी स्त्रियों के सवाल आदि।
- आदिवासी साहित्य भाषाओं और संस्कृतियों को बचाने के लिए वचनबद्ध है।
- निष्कर्ष
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आदिवासी समाज और साहित्य के प्रति सही नजरिया विकसित करना जरूरी है, तभी हम आदिवासी साहित्य की सही परम्परा को पहचान पाएँगे। आदिवासी साहित्य की परम्परा को सही सन्दर्भों में व्याख्यायित करने की जरूरत है। यह स्त्रीवादी साहित्य और दलित साहित्य का सहगामी है, लेकिन कई मसलों में उनसे इसका पार्थक्य भी है। आदिवासी साहित्य और इसकी परम्परा सृष्टि को बचाने के लिए सबसे सशक्त माध्यम हो सकते हैं, इसलिए इनसे संवाद बहुत जरूरी है।
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अतिरिक्त जानें-
पुस्तकें
- आदिवासी विद्रोह : विद्रोह परम्परा और साहित्यिक अभिव्यक्ति की समस्याएं, केदार प्रसाद मीणा अनुज्ञा प्रकाशन, दिल्ली
- झारखण्ड के आदिवासी, डॉ. चन्द्रकान्त वर्मा के.के पब्लिकेशन्स, इलाहाबाद
- वन अधिकार अधिनियम: समीक्षा और संघर्ष, डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा, सहयोग पुस्तक कुटीर (ट्रस्ट), निजामुद्दीन, नयी दिल्ली
- राजस्थान में किसान एवं आदिवासी आन्दोलन, डॉ. बृजकिशोर शर्मा, राजस्थान
- आदिवासी अस्मिता:प्रभुत्व और प्रतिरोध, अनुज लुगुन(सम्पादक), अन्यय प्रकाशन, दिल्ली
- Tribal Life In India, Nirmal Kumar Bose, NBT, INDIA, New Delhi
वेब लिंक्स-
- https://www.youtube.com/watch?v=rjbrJlVjk-E
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
- http://rsaudr.org/show_artical.php?&id=3031
- http://www.srijangatha.com/SheshVishesh1_27May2011#.Vqm-cZp95iw
- http://www.debateonline.in/200612/